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________________ २९. तप २०३ ३. शक्ति -वर्द्धन जाकर जिस व्याकुलता का वेदन तुझे करना पड़ता है, उससे तू किसी अंश में बच जायेगा और वर्तमान का तेरा सम्पूर्ण जीवन शान्तिमय बन जाएगा । क्या इस बात की सिद्धि उस समय तक सम्भव है जब तक कि तू प्रतिकूल वातावरण में रहकर कुछ उद्यम न करे उस अशान्ति से बचने का ? नहीं ऐसा सम्भव नहीं। बस इस उद्यम का नाम ही तप है जिसके द्वारा कि अशान्ति से बचा जा सकता है। सस्कारों की क्षति का क्रम बताया जा चुका है । तप द्वारा उनकी क्रमिक क्षति करता हुए जीव किस गति से और कैसे भावों से आगे बढ़ता है, आज यह बात बतानी है। हम यह देखते हैं कि प्रारम्भिक दशा में किसी भी कार्य को प्रारम्भ करते हुए प्राणी को कुछ झिझकसी या भय सा हुआ करता है । लौकिक कार्यों में एवं अलौकिक कार्यों में, सब में यह बात देखने में आती है । आस्रव व बन्ध प्रकरण में चोरी के कार्य-सम्बन्धी दृष्टान्त दिया था। वहाँ भी प्रारम्भ में चोरी करने वाले उस बालक के हृदय का चित्रण करते हुए यह दिखाया था कि उस समय कितना भय था उसमें । ज्यों-ज्यो भ्यस्त होता गया, भय में हानि होती गई, चोरी के प्रति उसका साहस बढ़ता गया और एक दिन वह पूरा चोर बन गया। (देखो १५.२) यहाँ भी एक व्यापारी का दृष्टान्त ले लीजिए। पहले दिन ही जब किसी व्यापारी के पुत्र को दिसावर जाने के लिए कहा जाता है तो कैसी होती है उसके हृदय की स्थिति सब जानते हैं। कुछ झिझक सी कुछ भय सा; "कैसे करूँगा सौदा, कहाँ भोजन करूँगा, प्रबन्ध बने कि न बने, और भाव में लुट गया तो ? खैर जाना तो पड़ेगा ही, व्यापार प्रारम्भ जो करना है। पहले सौदे में नुकसान भी रहा तो कोई बात नहीं, इससे कुछ सीख तो जाऊँगा ही। धन-हानि भले हो जाय पर अभ्यास का लाभ तो हो ही जाएगा।" इस प्रकार विकल्पों के जाल में उलझा वह चल देता है माल खरीदने । अपनी ओर से परी-परी चतराई दिखाता है कि नया होने के कारण किसी सौदे में लूट न जाय और माल ले आता है। यदि दूसरों की अपेक्षा कुछ अधिक दाम दे भी आया तो भी कोई चिन्ता नहीं उसे, क्योंकि पहला अवसर ही तो था, दूसरी बार जायेगा तो यह गलती नहीं करेगा और इसलिए दूसरी बार झिझक व भय नहीं होता, यदि होता है तो कम। अब की बार होता है उसके साथ कुछ उत्साह, कुछ पहली बार के अनुभव का साहस, अत: इस बार धोखा नहीं खाता, यदि खाता है तो पहले से कम । इसी प्रकार उत्तरोत्तर तीसरी व चौथी बार अधिक-अधिक उत्साह के साथ जाता है, और एक दिन कुशल व्यापारी बन जाता है। अलौकिक कार्य-सम्बन्धी दृष्टांत में भी यही क्रम है। उपवास करने से डर लगता है किसी को। अनन्त चतुर्दशी आई, उसके साथियों ने उपवास किया, उसे भी प्रेरणा की गई कि उपवास करे परन्तु डरता है। कैसे करूँ, आज तक उपवास करके देखा नहीं, कैसा लगता होगा? भूख तो सतावेगी ही, उसे कैसे सहन करूँगा? नहीं-नहीं ! मुझसे नहीं होगा।" अगले ही क्षण कुछ उत्साह के साथ “अरे ! इतना क्यों डरता है, ये छोटे-छोट बच्चे भी तो करते ही हैं, क्या तू इनसे भी गया बीता है, और फिर थोड़ी बाधा हुई भी तो क्या हो जाएगा, एक ही दिन की तो बात है, सहन कर लीजियो, मरेगा तो नहीं” इत्यादि अनेकों भयपूर्ण विकल्पों में उलझा साहस करके कर ही लेता है उपवास । कुछ थोड़ी बाधा हुई तो अवश्य परन्तु इतनी नहीं जितनी कि वह सोचता था । फलत:, “अरे ! कोई अधिक कठिन तो नहीं है, दिन बीत गया शास्त्र सुनने में व पूजा के कार्यक्रम में, खाना खाने का ध्यान ही नहीं आया, आया भी तो अत्यन्त अल्प । यों ही घबराता था, अब मत घबराना, प्रतिवर्ष उपवास करना।” इन विचारों के साथ अब एक उत्साह उत्पन्न हो गया उसमें, प्रतिवर्ष क्रमश: अधिक-अधिक रुचि के साथ उपवास करता है और एक रोज अभ्यस्त हो जाता है वह उपवास करने में । दृष्टान्त पर से यह स्पष्ट है कि १. किसी भी कार्य के प्रारम्भ में होती है एक झिझक, भय व कट्टरता; २. एकबार अन्य से प्रेरित होकर, जबरदस्ती कुछ कष्ट सहन करके भी यदि प्रवृत्ति कर ली जाए उस ओर तो झिझक हो जाती है कम और उसके स्थान पर आ जाता है कुछ साहस, कुछ उत्साह ३. ज्यों-ज्यों दोहराता है उस कार्य को साहस व उत्साह में उत्तरोत्तर होती है वृद्धि और भय होता है उत्तरोत्तर कम; इस क्रम से एक दिन हो जाता है वह पूर्ण अभ्यस्त और निर्भय । बस तप में भी इसी प्रकार समझना—१. प्रतिकूल वातावरण में रहने के कारण 'शान्ति का उद्यम मैं कर नहीं सकता' इस प्रकार का भय है आज। २. गुरु के उपदेश तथा जीवन से प्रेरित होकर यदि कुछ उद्यम करूँ, तो भले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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