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________________ २९. तप २०२ ३. शक्ति-वर्द्धन खाने की सुधि न पीने की । खाया-खाया, न खाया न खाया, कभी एक चाय का कप पीकर ही रह गये। ये 'अनशन' तथा 'ऊनोदरी' नामक तप नहीं तो और क्या हैं ? प्रवास के दिनों में जो खाना आप घर से बन्धवाकर ले जाते हैं यद्यपि वह रूखा-सूखा होता है तदपि जिस किस प्रकार खड्डा भर ही लेते हैं आप। यह 'रस-परित्याग' नामक तप नहीं तो और क्या है ? दुकान पर बैठकर नित्य ही तथा प्रवास के दिनों में विशेषत: क्या-क्या कष्ट नहीं सहते हैं आप? न गर्मी को गिनते हैं न सर्दी को, न बरसात की कुछ परवाह करते हैं और न गाड़ी की भीड़ की। कहीं हो गई गाड़ी लेट तो बिता दिये घण्टों उसकी प्रतीक्षा में । यह सब 'कायक्लेश' नामक तप नहीं तो और क्या है ? पढ़ने की चिन्ता मन में लिये विद्यार्थी बैठा रहता है सारा-सारा दिन घर से दूर किसी उद्यान में अथवा नदी के किनारे । यह 'विविक्तशय्यासन' या एकान्त सेवन नाम तप नहीं तो और क्या है ? किसी प्रेमी बन्धु के प्रति कदाचित् कोई दोष हो जाने पर, अथवा अपने रोगी पुत्र आदि को कदाचित् भूल से गलत औषधि दी जाने पर आपका हृदय रो उठता है, पश्चाताप से भर जाता है; अथवा किसी सज्जन के प्रति कदाचित् भूल से कोई असभ्यता हो जाने पर Sorry कहकर उससे क्षमा माँगते हैं। यह सब 'प्रायश्चित्' नामक तप नहीं तो और क्या है ? स्कूल-कालेज में गुरुजनों तथा पुस्तकों के प्रति, घर में वृद्धजनों के प्रति, समाज में प्रतिष्ठित व्यक्तियों के प्रति, दफ्तरों में अफसरों के प्रति और दुकान पर ग्राहकों के प्रति विनम्र बन जाते हैं आप। यह आपका ‘विनय' नामक तप नहीं तो और क्या है ? परीक्षा में फेल होने की चिन्ता, व्यापार में हानि होने की चिन्ता, धनहीनता के कारण पुत्री का विवाह न कर पाने की चिन्ता इत्यादि-इत्यादि अनेकविध चिन्ताओं में चित्त का बराबर अटके रहना 'ध्यान' नामक तप नहीं तो और क्या है ? इस प्रकार आप नित्य ही किये जा रहे हैं तप, केवल अभ्यन्तर नहीं बाह्य भी, एक दो नहीं सारे के सारे । परन्तु वहाँ न लगता है आपको इनसे भय और न है चित्त में इनकी अवश्यम्भावी आवश्यकता पर सन्देह । फिर शान्ति या समता-प्राप्ति के इस पारमार्थिक-क्षेत्र में ऐसा क्यों ? इसका तो अर्थ यह हुआ कि आपको इन पारमार्थिक उद्देश्यों के प्रति या ता सर्वथा गृद्धता नहीं है, या इतनी नहीं है जितनी कि विद्या अथवा धन आदि के प्रति है। आप इनकी बात अवश्य करते हैं परन्तु आपका लक्ष्य इस ओर नहीं है। . अत: हे साधक ! तू डर मत, यह मत भूल कि तू शान्ति तथा समता-प्राप्ति का उद्देश्य लेकर निकला है। बिना कष्ट सहे जब छोटी-मोटी व्यवहारिक वस्तु की भी प्राप्ति नहीं होती तो इस महान् वस्तु की प्राप्ति कैसे होगी? और फिर तुझे शक्ति से अधिक तो करने के लिये कुछ कहा नहीं जा रहा है, जितनी कुछ भी हीन या अधिक शक्ति तुझमें है उसके अनुसार ही करने को कहा जा रहा है। तू अपनी शक्ति को मत छिपा, यह महान् अपराध है । जितनी शक्ति लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के अर्थ लगाता है उतनी ही इधर भी लगा। तप की वृद्धि को प्राप्त योगी-जनों को भी अपने महान् बल का स्वामित्व एक दिन में प्राप्त नहीं हो गया था। तेरे जैसी ही निम्न अवस्था से यथोपलब्ध शक्ति का प्रयोग करते हुए उन्होंने अपने बल को बढ़ाया था और उत्कृष्ट तप धारण करने के योग्य हो कर अ आज 'योगी' कहलाने लगे हैं। तू भी अपने योग्य तप धारण करने के प्रति मन में कुछ उल्लास जागृत कर । इनसे तुझे महान लाभ होगा, जिसका तू स्वयं अनुभव करेगा, और कुछ महीनों में तुझे यह देखकर आश्चर्य होगा कि अन्तर आ रहा है तेरे जीवन में, एक महान् अन्तर, आकाश-पाताल का अन्तर; परिवर्तन होता जा रहा है तेरे मन में, जिसने तुझे किसी अन्धकूप से निकालकर ला खड़ा किया है सूर्य के प्रकाश में। ३. शक्ति-वर्द्धन-"भले थोड़ा सही परन्तु जब संवर से ही निर्जरा का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, तो तप के द्वारा निर्जरा करने की क्या आवश्यकता ?” ठीक है भाई ! परन्तु तूने इतना न सोचा कि संस्कार हैं अनादि काल के पुष्ट किये हुए बड़े प्रबल और उनकी क्षति के लिये तेरे पास समय है थोड़ा, केवल मनुष्य-आयु मात्र । इस लिए जब तक इनकी क्षति वेग के साथ नहीं होगी तब तक इतने कम समय में उनसे मुक्ति मिलना असम्भव है। अगले भव में कौन जाने यह ज्ञान और यह उत्साह मिले कि न मिले । परन्तु इसी भव में यदि इनकी शक्ति को तप द्वारा अत्यन्त क्षीण कर दिया जाए और अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली जाए तो अगले भव में भी ये तेरे मार्ग में बाधा डालने को समर्थ नहीं हो सकेंगे। यही कारण है कि इस मार्ग में तप अत्यन्त आवश्यक है। दूसरी बात यह भी है कि प्रतिकूल वातावरण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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