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________________ २८. भोजन-शुद्धि १८७ ४. मर्यादाकाल ___ वस्तु में प्रवेश पाने के पश्चात् कुछ देर तक अर्थात् लगभग आधा या पौन घण्टे तक तो उनकी उपज आरम्भ नहीं होती, जितने प्रवेश पा गये हैं उतने ही रहते हैं, परन्तु इस काल के पश्चात् बड़े वेग के साथ इनकी उपज बराबर उत्तरोत्तर मिनटों में वृद्धि को पाती हुई लगभग ५ या ६ घण्टों में वृद्धि की चरम सीमा को स्पर्श करने लगती है । यहाँ पहुँचकर उपज में आगे वृद्धि होनी तो रुक जाती है, परन्तु जितनी उपज उत्तरोत्तर मिनटों में यहाँ अब हो रही है उतनी ही रफ्तार से बराबर आगे के ८ या दस घण्टों तक या एक दो दिन तक चलती रहती है। इतने काल पश्चात उपज की रफ्तार घटने लगती है, और पाँच या छः घण्टों तक उपज शून्य पर पहुँच जाती है, अर्थात् आगे उपज होनी अब बिल्कुल बन्द हो जाती है । परन्तु जितने बैक्टेरिया उत्पन्न हो चुके हैं वे अब भी इसमें उस समय तक जीवित रहते हैं जब तक कि या तो इनकी आयु समाप्त न हो जाय और या किन्हीं बाह्य प्राकृतिक अथवा मनुष्यकृत-प्रयोगों से दूर न कर दिये जायें। वृद्धि of -समय इस कर्व में नं० १ उस समय को दर्शाता है जिस समय में कि उपज प्रारम्भ ही नहीं हुई है। नं० २ उपज की उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धि को, नं० ३ उत्कृष्ट उपज के प्रवाह को, नं० ४ उपज की हानि को और नं० ५ नवीन उपज के अभाव को प्रदर्शित करता है। ४. मर्यादाकाल—भोजन शुद्धि के सम्बन्ध में बैक्टेरिया की उत्पत्ति-क्रम का यह नं० १ वाला अर्थात प्रथम आध या पौन घण्टा प्रयोजनीय है। उत्पत्ति क्रम का वह भाग नवीन उत्पत्ति से रहित होने के कारण वस्तुत: शुद्धि का मर्यादा-काल (Time Limit) कहा जाता है। आगम में भोज्य पदार्थों की मर्यादा का कथन आता है । उससे तात्पर्य यही पहला कुछ समय है जिसे अन्तर्मुहूर्त या अधिक से अधिक ४८ मिनट स्वीकार किया गया है । हम भी आगे के प्रकरणों में इसे मर्यादा नाम से पुकारेंगे । मर्यादा का उल्लंघन कर जाने पर बैक्टेरिया-राशि अधिक उत्पन्न हो जाने के कारण पदार्थ अभक्ष्य की कोटि में चला जाता है। भोजन-शुद्धि में मर्यादा पर बहुत जोर दिया जाता है, क्योंकि इससे साधना व स्वास्थ्य की रक्षा होती है। इसीलिये जल व दूध को छान लेने के तथा थनों से निकलने के पश्चात् यथाशक्ति तुरन्त ही अर्थात् अधिक से अधिक पौन घण्टे के अन्दर अन्दर गरम करना या उबाल लेना बतलाया है, क्योंकि इतने समय तक तो केवल संख्यात (Countable) ही जीवों की हिंसा होती है, परन्तु इससे आगे जीव-राशि बढ़ जाने के कारण उनको गरम करने या उबालने से असंख्यात (Countless) जीवों के नाश का प्रसंग आता है। कुछ बैक्टेरिया तो ऐसे हैं जो अल्प मात्र ही गर्मी को सहन कर सकते हैं, कुछ ऐसे हैं जो बहुत अधिक भी गर्मी को सहन करने में समर्थ हैं । और कुछ ऐसे हैं जो बहुत अधिक गर्मी में उत्पन्न होते हैं। इसलिये एक समस्या है कि यदि पदार्थ को थोड़ा गरम करते हैं तो सर्व बैक्टेरिया दूर नहीं होते और यदि अधिक गरम करते हैं तो नं० २ जाति के बैक्टेरिया उत्पन्न हो जाते हैं। इस समस्या को हल करने के लिये दो उपाय विज्ञान बताता है, एक तो यह कि पदार्थों को कुछ सेकेण्डों के लिये बहुत अधिक गरम कर दिया जावे और एक यह कि अधिक देर तक थोड़ा गरम रखा जाये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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