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२८. भोजन-शुद्धि
३. बैक्टेरिया-विज्ञान ३. बैक्टेरिया-विज्ञान अन्तशुद्धि हो जाने से अन्तर्रान्ति में निवास करने वाले हे गुरुदेव ! मेरे जीवन में शुद्धि का संचार करें । अन्तशुद्धि के लिये बाह्य शुद्धि और विशेषत: भोजनशुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। कल के प्रकरण में ग्राह्य और अग्राह्य पदार्थों का निरूपण कर चुकने के पश्चात्, भोजन पकाने में क्या-क्या सावधानी रखी जाने योग्य है
और क्यों, ऐसा विवेक उत्पन्न कराना भी आवश्यक है । इस प्रकरण को रूढ़ि के रूप में तो आप में से अनेकों जानते व प्रयोग में लाते हैं परन्तु उसी बात को यहाँ मैं सूक्ष्म-जन्तुविज्ञान (Micro-biology) के आधार पर समझाने का प्रयत्न करूँगा।
भोजन-शुद्धि का प्रयोजन उन सूक्ष्म जीवों से भोजन की रक्षा करना है जिन्हें आज का विज्ञान बैक्टेरिया नाम से पुकारता है । बैक्टेरिया से भोजन की रक्षा करना तीन दृष्टियों से उपयोगी है—१. अहिंसा की दृष्टि से, २. स्वास्थ्य की दृष्टि से और ३. साधना की दृष्टि से अर्थात् अपने परिणामों की रक्षा की दृष्टि से । यद्यपि डाक्टर लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से ही बैक्टेरिया व उनसे बचने के उपाय बताते हैं, पर हम उसी सिद्धान्त को साधना की दृष्टि से ग्रहण करते हैं, जिसमें स्वास्थ्य की रक्षा स्वत: हो जाती है। यही कारण है कि एक सच्चे त्यागी अर्थात् शुद्ध भोजी को रोग या तो होते नहीं और होते हैं तो बहुत कम।
बैक्टेरिया उस सूक्ष्म प्राणी को कहते हैं जो प्राय: सूक्ष्म-दी-यन्त्र से ही देखा जाना सम्भव है नंगी आँखों से नहीं। ये कई जाति के होते हैं। इनकी जातियों का निर्णय इनके भिन्न-भिन्न कार्यों पर से किया जाता है, क्योंकि जो कार्य एक जाति का बैक्टेरिया कर सकता है वह दूसरी जाति का नहीं कर सकता। ये यद्यपि त्रस व स्थावर दोनों जाति के हो सकते हैं, परन्तु जिन भक्ष्य पदार्थों का ग्रहण यहाँ किया गया है इनमें केवल स्थावर जाति के बैक्टेरिया ही होते हैं । त्रस जाति वाले बैक्टेरिया शराब जैसी मादक वस्तुओं में मिलते हैं, जिनका निषेध पहले ही कर दिया गया है।
कुछ बैक्टेरिया तो ऐसे हैं जो यदि दूध में उत्पन्न हो जायें तो दूध की दही बन जाती है । उनको अपनी भाषा में दही के बैक्टेरिया कह लीजिये। इसी प्रकार दही, पनीर, क्रीम, मक्खन, खमीर, मद्य (शराब) आदि पदार्थ-विशेषों के भिन्न-भिन्न जाति के बैक्टेरिया समझना । वैज्ञानिक लोगों ने इनके भिन्न-भिन्न नाम भी रखे हैं पर यहाँ उन नामों से प्रयोजन नहीं है । ये मुख्यत: स्थावर होते हैं।
कुछ बैक्टेरिया पदार्थ में उत्पन्न होकर उसे खट्टा बना देते हैं, कुछ दुर्गन्धित बना देते हैं, कुछ उसे नीला, हरा या भूरे रंग का बना देते हैं, कुछ उस पर फूई पैदा कर देते हैं और इसी प्रकार अन्य भी अनेकों बातें जो नित्य ही भोज्य पदार्थों में देखने को मिलती हैं। इस पर से यह बात समझ लेनी चाहिये कि भोज्य पदार्थों में जो कुछ भी रूप, गन्ध व रस आदि का विकार उत्पन्न होता दिखाई देता है वह सब सूक्ष्मजीवों की अर्थात् बैक्टेरिया की उपज का प्रताप है। अत: प्रत्येक ऐसा विकृत पदार्थ अहिंसा, स्वास्थ्य व साधना तीनों दृष्टियों से अभक्ष्य हो जाता है। उपरोक्त जातिय
तयों में से कछ बैक्टेरिया तो मानवीय स्वार्थवश (अर्थात स्वाद या प्रयोजन-विशेषवश) इष्ट हैं और कुछ अनिष्ट । स्वास्थ्य को हानिप्रद सर्व बैक्टेरिया अनिष्ट की गिनती में आते हैं, और दही व पनीर आदि के बैक्टेरिया इष्ट माने जाते हैं, क्योंकि ये पदार्थ में कुछ ईष्ट स्वाद व गन्ध विशेष उत्पन्न कर देते हैं और स्वास्थ्य को हानि नहीं पहुँचाते । डाक्टरी दृष्टि से भले ऐसा मान लें पर साधना की दृष्टि से तो बैक्टेरिया मात्र ही जीव-हिंसा के भय से अनिष्ट हैं। फिर भी दो चार जाति के बैक्टेरिया इस मार्ग में भी इष्ट माने जाते हैं, जैसे कि मक्खन व दही के बैक्टेरिया । इन अनिष्ट जातियों के बैक्टेरिया को इष्ट मानने का एक प्रयोजन है, और वह है साधना में कुछ सहायता।
किसी भी पदार्थ में बैक्टेरिया उस समय तक उत्पन्न नहीं हो सकते जब तक कि उसमें कोई एक या दो तीन बैक्टेरिया बीज रूप में प्रवेश न कर जायें या करा दिये जायें। दही जमाने के लिये दूध में जामन (Adjunct) मिलाना वास्तव में उसमें दही के बैक्टेरिया का बीजरूप से प्रवेश कराना ही है । बस एक बार बीजारोपण हुआ नहीं कि इनकी सन्तानवृद्धि हुई नहीं । बैक्टेरिया-सन्तान की उपज पदार्थ में एक से दो और दो से चार के क्रम से अर्थात् (Fiction Method) से होती है । प्रत्येक कुछ-कुछ मिनट के पश्चात् वे बराबर दुगुने-दुगुने होते चले जाते हैं ।
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