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________________ २८. भोजन-शुद्धि १८५ २. भक्ष्याभक्ष्य-विवेक वाले जीव न पाये जाते हों। ऐसा भोजन ग्रहण करने से जीवन में विवेक, सादगी व दया आदि के परिणाम सुरक्षित रहते हैं । यहाँ इतना जानना आवश्यक है, कि उपरोक्त सात्विक पदार्थ ही तामसिक या राजसिक की कोटि में चले जाते हैं यदि इनको भी अधिक मात्रा में प्रयोग किया जावे। पूरी भूख से कुछ कम खाने पर अन्न सात्त्विक है और भूख से अधिक खाने पर तामसिक, क्योंकि तब वह प्रमाद व निद्रा का कारण बन बैठता है। एक सीमा तक घी का प्रयोग सात्विक है पर उससे अधिक का प्रयोग तामसिक या राजसिक हो जाता है। २. भक्ष्याभक्ष्य-विवेक साधक ज्यों-ज्यों अपने मार्ग पर आगे-आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसके विचार अधिक-अधिक उज्ज्वल होते जाते हैं। और ज्यों-ज्यों विचार उज्ज्वल होते जाते हैं, त्यों-त्यों आहार-विषयक विवेक भी सूक्ष्म होता जाता है । शान्ति-पथ की पहली भूमिकाओं में सात्विक का उपरोक्त लक्षण ही संतोषजनक रहता है पर आगे जाने पर उसमें अधिक स्वच्छता लाने का विवेक जागृत हो जाता है। उपरोक्त पदार्थों को भी दो भागों में विभाजित कर लिया जाता है, एक वह जिसमें बहुत अधिक अर्थात् असंख्य (Countless) सूक्ष्म-जीवराशि पाई जाती है और एक वह जिसमें कम अर्थात संख्यात् (Countable) तक ही पायी जाती है । यहाँ सूक्ष्म-जीव से तात्पर्य उन जीवों से है जो साधारण रूप में नेत्र-गोचर नहीं होते पर सूक्ष्म-दर्शी यन्त्र (Microscope) से स्पष्ट दिखाई देते हैं । इस प्रकार के प्राणी आज की परिभाषा में बैक्टेरिया कहलाते हैं। ये प्रमुखत: स्थावर होते हैं। बैक्टेरिया हर पदार्थ में, वह दूध हो कि दही, घी हो कि मक्खन, फल हो कि फूल-पत्ते, यहाँ तक कि जल में भी हीनाधिक रूप में अवश्य पाये जाते हैं। ये जड़ नहीं होते बल्कि प्राणधारी होते हैं। जीव-हिंसा की दृष्टि से, स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से तथा तामसिक व सात्विक की दृष्टि से असंख्य-जीव-राशिवाली वनस्पतियां या दूध घी आदि पदार्थ त्याज्य हो जाते हैं और संख्य-जीव-राशि वाले ग्राह्य । यहाँ यह प्रश्न नहीं करना चाहिए कि यह संख्य राशि वाले पदार्थ भी तो जीव-हिंसा के कारण त्याज्य ही होने चाहियें । यद्यपि पूर्णता की दृष्टि से तो वे अवश्य त्याज्य ही होते हैं, परन्तु उनका सर्वथा त्याग करने पर जगत में कोई खाद्य पदार्थ ही नहीं रह जाता। तब शरीर की स्थिति कैसे सम्भव हो सकती है, और शरीर की स्थिति के अभाव में शान्ति-पथ की साधना भी कैसे सम्भव हो सकती है ? अत: वर्तमान की हीन-शक्तिवाली दशा में साधक को सर्व पदार्थों का त्याग करके अपने को मृत्यु के हवाले करना योग्य नहीं। 'सारा जाता देखिये तो आधा लीजिये बांट' इस लोकोक्ति के अनुसार अयोग्य व हिंसायुक्त होते हुये भी प्रयोजनवश अधिक हिंसा का त्याग करके अल्प हिंसा का ग्रहण कर लेना नीति है। परन्तु अभिप्राय में यह अल्प-हिंसा भी त्याज्य ही रहती है । इसी कारण आगे-आगे की भूमिकाओं में ज्यों-ज्यों शक्ति बढ़ती जाती है साधक इनका भी त्याग करता जाता है, यहाँ तक कि पूर्णता की प्राप्ति के पश्चात् उसे खाने पीने की ही आवश्यकता नहीं रह जाती। यहाँ उन असंख्य-जीव-राशि वाले पदार्थों का कुछ परिचय दे देना युक्त है। मछली, अंडा, शराब, मांस, मधु ये पदार्थ तो साक्षात् रूप से हिंसा के द्वारा उत्पन्न होने के कारण सर्वथा अभक्ष्य हैं ही, अभक्ष्य क्या स्पर्श करने योग्य भी नहीं हैं; यहाँ तो बरबन्टी, पीपलबन्टी, गूलर, अंजीर, कटहल, बढ़ल आदि की जाति वाली वे सर्व वनस्पतियाँ भी अभक्ष्य हैं, जिनमें कि अनेकों उड़ने वाले छोटे-छोटे जन्तुओं का निवास रहता है। प्रत्येक वह पदार्थ जो बासी हो जाने के कारण या अधिक पक जाने के कारण या गल-सड़ जाने के कारण अपने प्राकृत स्वाद से चलित हो जाता है, उस कोटि में आ जाता है । भले ही पहले वह भक्ष्य रहा हो पर अब अभक्ष्य है । ऐसे पदार्थों में बासी भोजन, अचार, मुरब्बे, खमीर, चटनी, कांजी-बड़े आदि अथवा गली-सड़ी वनस्पति तथा अन्य भी अनेकों वस्तुयें सम्मिलित हैं । वनस्पतियों में कुछ ऐसी हैं जो पृथ्वी के अन्दर फलित होती हैं जैसे आलू, अरवी, गाजर, मूली, आदि; अथवा अत्यधिक कचिया सब्जी जैसे कोंपल या बहुत छोटे साईज की भिंडी, तोरी, ककड़ी आदि; अथवा पृथ्वी और काठ को फोड़कर निकलने वाली वनस्पति जैसे खूम्बी, साँप की छत्री आदि, तथा अन्य भी अनेकों आगम-कथित वस्तुयें इस कोटि में सम्मिलित हैं। शान्तिपथ-गामी को इनका विशेष परिज्ञान आगम से प्राप्त करके इनका त्याग कर देना योग्य है । यद्यपि पकाने या काटने छांटने से, अल्प-संख्यक-जीव-राशि वाली वनस्पतियों की भाँति ये भी प्रासुक हो जाती हैं, परन्तु इनको प्रासुक करने में अधिक हिंसा का प्रसंग आता है, तथा ये अन्तर में कुछ तामसिक वृत्ति की उत्पत्ति का कारण भी बनती हैं, इसलिये किसी प्रकार भी इनका प्रयोग करना उचित नहीं है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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