SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 215
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८. भोजन-शुद्धि 38888880 १. तामस राजस विवेक; २. भक्ष्याभक्ष्य विवेक; ३. बैक्टेरिया विज्ञान; ४. मर्यादा काल; ५. छुआ-छूत; ६. मनवचन काय शुद्धिः ७. आहार-शुद्धिः ८. मांस निषेध; ९. मछली अण्डा निषेध; १०. चर्म निषेध; ११. दूध दही की भक्ष्यता; १२. समन्वय। शान्ति अर्थात् आन्तरिक निर्मलता, स्वच्छता व सरलता की प्राप्ति की बात के अन्तर्गत संयम का प्रकरण चल चुका । क्योंकि जीवन की स्वच्छता का अन्तरंग तथा बहिरंग-संयम के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है इसलिये इस प्रकरण का विस्तार कुछ अधिक हो जाना स्वाभाविक है। संयम ही वास्तव में शान्ति-पथ पर चलने का अभ्यास है, इसके बिना केवल तत्त्व चर्चा करने से अथवा शास्त्राभ्यास कर लेने मात्र से जीवन शान्त होना असम्भव है। जीवन को शान्त बनाने के लिये उन सर्व व्यापारों से इसे रोकने की आवश्यकता है जो कि अशान्तिजनक विकल्पों की उत्पत्ति में कारण पड़ते हैं। इन्द्रिय-संयम में इन्द्रियों को रोकने की अर्थात् उन पर नियन्त्रण करने की बात कही; और प्राण-संयम में अपने आस-पास रहने वाले अन्य छोटे व बड़े प्राणियों के प्रति अपना कर्तव्य अकर्तव्य दशांकर, विश्व्यापी अन्तर्गम जागृत करने का प्रयत्न किया गया । अब बात चलती है भोजन-शुद्धि की। क्योंकि आचार-विचार की शुद्धि मन:शुद्धि पर अवलम्बित है और मनः शद्धि आहार शद्धि पर, उस पर जो कि हमारे जीवन की सर्वप्रधान आवश्यकता है। इसलिये संयम के इस प्रकरण में इस विषय का विस्तृत विचार होना अत्यन्त आवश्यक है। १. तामस-राजस-विवेक भोजन को विचारों पर तथा जीवन पर प्रभाव डालने की अपेक्षा तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-तामसिक, राजसिक व सात्विक । तामसिक भोजन शान्ति-पथ की दृष्टि से अत्यन्त निकृष्ट है क्योंकि इससे प्रभावित हुआ मन अधिकाधिक निर्विवेक व कर्त्तव्यशून्य होता चला जाता है । तामसिक वृत्ति वाले व्यक्ति अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने पड़ोसियों के लिये भी दुःखों का तथा भय का कारण बने रहते हैं, क्योंकि उनकी आन्तरिक वृत्ति का झकाव प्रमुखत: अपराधों, हत्याओं. अन्य जीवों के प्राण-शोषण तथा व्यभिचार की ओर अधिक रहा करता है। राजसिक भोजन का प्रभाव व्यक्ति को विलासता के वेग में बहा ले जाता है और इन्द्रियों का पोषण करना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है । सात्विक भोजन का प्रभाव ही जीवन में सरलता, सादगी, विवेक, कर्तव्य-परायणता व सहिष्णुता उत्पन्न करने में समर्थ है। तामसिक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है जो प्राण-पीडन के विवेक से रहित होकर निरर्गल रूप से बनाया गया हो; जिसमें मांस, मद्य, मधु, अंजीर, लहसुन, प्याज, कन्द, मूल, फूल आदि कुछ ऐसे पदार्थों का ग्रहण करने में आया हो जिनकी उत्पत्ति बड़े या छोटे प्राणियों के प्राणों का (दे०७२) घात किये बिना नहीं होती। हीनाधिक रूप में ऐसे सर्व पदार्थ मन पर तामसिक प्रभाव डालते हैं अर्थात मन में अन्धकार उत्पन्न करते हैं. जिर रते हैं. जिसके कारण विवेक व कर्तव्य ही दिखाई नहीं देता, शान्ति-प्राप्ति का तो प्रश्न क्या? राजसिक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है जो इन्द्रिय-पोषण और विलासिता की अर्थात् स्वाद की दृष्टि से बनाया गया हो । आज के युग में इसका बहुत अधिक प्रचार हो गया है। होटलों व खौंचे वालों की भरमार वास्तव में मानव की इस राजसिक वृत्ति का ही फल है । अधिक चटपटे, घी में तलकर अधिकाधिक स्वादिष्ट बना दिये गये, तथा एक ही पदार्थ में अनेक ढंग से अनेक स्वादों का निर्माण करके ग्रहण किये गये, या यों कहिये कि ३६ प्रकार के व्यंजन या भोजन की किस्में (Varieties) अथवा पौष्टिक व रसीले पदार्थ सब राजसिक भोजन में गर्भित हैं। ऐसा भोजन करने से व्यक्ति जिह्वा का दास बने बिना नहीं रह सकता और इसलिये शान्ति-पथ के विवेक से वह कोसों दूर चला जाता है। सात्विक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है जिसमें ऐसी ही वस्तुओं का ग्रहण हो जिनकी प्राप्ति के लिये स्थूल हिंसा न करनी पड़े अर्थात् अन्न, दूध, दही, घी, खांड व ऐसी वनस्पतियां जिनमें त्रस जीव अर्थात् उड़ने व चलने फिरने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy