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२७. अहिंसा
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५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं __ अब रही सिंह आदि उन जन्तुओं की बात जिन्हें क्रूर कहा जाता है। वहाँ भी यदि कुछ गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि क्रूर कौन है, सिंह कि मानव, जो कि उन क्रूरों के प्रति भी क्रूर है, जो उनका निष्कारण बिना अपराध शत्रु बन बैठा है ? वास्तव में यदि देखा जाय तो जगत का सबसे अधिक क्रूर प्राणी मानव है, जिससे सर्व ही सृष्टि भय खाती है, जिसे एटमबम द्वारा जगत में प्रलय मचाते भी कोई झिझक उत्पन्न नहीं होती। पर स्वार्थी मानव अपने को अपराधी कैसे बताये? दृष्टि पर चढ़ा है स्वार्थ का चश्मा जिससे उसे सब दिखाई देते हैं शत्रु व क्रूर ।
यदि सिंह को मानव से किसी प्रकार के आक्रमण की आशंका न हो तथा उसके प्रेम के प्रति उसे विश्वास दिला दिया जाय तो आपको आश्चर्य होगा यह सुनकर कि यह बड़ा मधुर है, बड़ा स्वामी भक्त है और बड़ा कृतज्ञ है । मानव कृतघ्नी हो सकता है पर वह नहीं, मानव अपने उपकारी को भूलकर स्वार्थवश उसका अनिष्ट कर सकता है और कर रहा है, पर उसके द्वारा ऐसा होना सम्भव नहीं।
यूनान के एक दास एन्ड्रयोकुल्यीज़ का विश्वविख्यात दृष्टान्त हर किसी को याद है, सच्ची घटना है, कपोल-कल्पना नहीं। घटना है उस जमाने की जब यूनान में दास-प्रथा बड़े जोरों पर थी, मनुष्य पशुवत् बाजारों में बिकते थे. उनके साथ पशओं का सा व्यवहार किया जाता था और उस बेचारे को उफ़ करने का भी अधिकार नहीं था। यदि तंग आकर बिना स्वामी की आज्ञा से घर से भागा तो राज्य की ओर से था उसके लिये मृत्यु-दण्ड, और वह भी बड़ी क्रूरता से, सारे नगरवासियों के सामने । एन्ड्रयोकुल्यीज़ एक धनिक का दास था, स्वामी के व्यवहार से तंग आकर र से भागा. पलिस के डर से राज्यमार्ग छोडकर वन की राह ली और चलते-चलते वन में प्रवेश किया। एक हृदय-भेदक कर्राहट उसके कान में पड़ी। सहसा ही उसके पग रुके और वह घूम गया उस दिशा की ओर जिधर से कि वह पीड़ा-मिश्रित कर्राहट आ रही थी। आज उसे मृत्यु का भय नहीं था, मृत्यु तो आनी ही है आज नहीं तो कल, राज्य के द्वारा दण्ड भी तो मृत्यु का ही मिलना है, फिर कर्त्तव्य से विमुख क्यों रहूँ? सामने देखा एक सिंह जो बार-बार अपना पाँव जमीन पर पटक रहा था । एण्ड्रयोकुल्यीज़ को यह जानते देर न लगी कि उसके पाँव में असह्य पीड़ा हो रही है। निर्भय होकर वह आगे बढ़ा। उसके हृदय में था कर्त्तव्य, दया व प्रेम । सिंह ने पाँव आगे कर दिया और दयालु दास ने उसके पाँव से वह तीखा शूल खेंचकर फैंक दिया जो आधा उसके पंजे में घुस चुका था, जिसकी पीड़ा से वह बेचैन हो रहा था। सिंह ने एक नजर अपने उपकारी की ओर देखा और फिर पकड़ी अपनी राह ।।
पुलिस से बचकर कहाँ जाता बेचारा, पकड़ा गया, नगरवासी इकट्ठे किये गये। बीच में रक्खा था एक बहुत बड़ा जंगला। एण्ड्रयोकुल्योज़ उसमें खड़ा अपने जीवन की शेष घड़ियों को निराशापूर्वक गिन रहा था। सिंह का पिंजरा लाया गया और छोड़ दिया सिंह उस जंगले में । लोग टकटकी लगाये देख रहे थे । चार दिन का भूखा सिंह अब खा जायेगा इस बेचारे को और वह भी था भयभीत । सिंह तेजी से आगे बढ़ा एक गर्जना के साथ । परन्तु हैं? यह क्या? क्या यह भी सम्भव है? लोग आँखे मल-मलकर देखने लगे और आखिर विश्वास करना पड़ा। निकट आकर सिंह ने उसे संघा और ज्यों का त्यों शान्त वापिस लौट गया। सिंह को भखा रहना स्वीकार था पर अपने उपकारी को अपना भोज्य बनाना स्वीकार नहीं था । एक दो मिनट मात्र का ही तो सम्पर्क हुआ था उस वन में उन दोनों का, पर सिंह उसको न भूल सका, उस गन्ध को जो उसे उस समय आई थी उस मनुष्य में से जबकि उसने उसका कांटा निकाला था। यह है सिंह की कृतज्ञता का दृष्टान्त ।
इसलिये भो मानव ! कुछ विवेक कर, हर किसी को निष्कारण अपनी गोली का निशाना न बना । ऐसा करने का नाम विरोधी हिंसा नहीं है। सांप बिच्छू आदि को भी निष्कारण मारना विरोधी हिंसा नहीं है । प्रहार न करते हुये तो ये शत्रु हैं ही नहीं, परन्तु प्रहार करते हुये भी ये शत्रु कहे नहीं जा सकते, क्योंकि उनका इस प्रकार का पुरुषार्थ रक्षार्थ होता है। सबके साथ तू प्रेम करना सीख । तू दूसरों का रक्षक बनकर आया है भक्षक बनकर नहीं । दूसरों की रक्षा करना ही तेरा गौरव है, नहीं तो तू ही बता कि तुझमें और पशु में क्या अन्तर? निष्कारण उन्हें मारने वाले ! तेरा जीवन सम्भवत: उनसे भी नीचा है।
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