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________________ २७. अहिंसा १८२ ५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं लिये। यह संयम नहीं कहलायेगा। ऐसा तो सर्व लौकिक जन ही करते हैं, फिर तुझमें व उनमें, एक संयमी में और एक असंयमी में अन्तर ही क्या रह जायेगा? ऐसा करना ठीक नहीं, जिस-किसी को अपना शत्रु मान लेना योग्य नहीं । तेरी इष्टता व अनिष्टता मित्र व शत्रु की पहिचान नहीं । बुद्धि रखने वाले मानव ! कुछ विवेक उत्पन्न कर। शत्रु व मित्र की पहिचान का आधार तेरी रुचि नहीं बल्कि उन-उन जीवों में वर्तने वाला कोई अभिप्राय विशेष है। पत्र की या मुनीम की किसी गलती के कारण व्यापार में हानि हो जाने पर भी आप उन्हें अपना शत्र नहीं मान लेते, परन्तु मुनीम की बेईमानी के कारण व्यापार में हानि पड़ जाने पर अवश्य उसे शत्रु समझते हो। डाक्टर के द्वारा किसी औषधि से या आप्रेशन से आपके पुत्र की मृत्यु हो जाने पर आप उसे शत्र नहीं मानते परन्तु किसी विद्वेषी के द्वारा विष से या हथियार से आपके पुत्र की मृत्यु हो जाने पर आप उसे शत्रु समझते हो, इत्यादि । इन दृष्टान्तों पर से मित्र व शत्रु का लक्षण बना लेना यहाँ उपयुक्त है। “मित्र उसे कहते हैं जिसके अभिप्राय में मेरा हित हो, प्रेम हो; और शत्रु उसे कहते हैं जिसके अभिप्राय में मेरा अहित हो, द्वेष हो।" मित्र व शत्रु के अतिरिक्त एक तीसरी कोटि भी जीवों की है और वह है उनकी जिन्हें कि मुझसे न प्रेम है न द्वेष, जैसे कि सर्व नगरवासी । शत्रु के उपरोक्त लक्षणों पर कुछ और विशेषता से, कुछ और सूक्ष्मता से विचार करने पर हर वह प्राणी जिसके हृदय में मेरे प्रति अहित की भावना हो, मेरा शत्रु नहीं हो सकता। क्या विरोधी हिंसा के अन्तर्गत शत्रु से युद्ध करता उपर्युक्त अहिंसक अपने विरोधी का शत्रु कहा जा सकता है? नहीं क्योंकि वह विरोधी यदि उसके सम्मान पर, उसके देश पर स्वयं आक्रमण न करता तो उस अहिंसक के लिये वह तीसरी कोटि का एक सामान्य मनुष्य मात्र था, न था शत्र और न था मित्र । क्या महात्मा गांधी को अंग्रेजों का शत्रु कहा जा सकता है? नहीं, क्योंकि मेरे देश को छोड़ दो, और कुछ नहीं चाहिए मुझे तुमसे ऐसा अभिप्राय रखने वाला गांधी न उनका शत्रु था न मित्र । फलितार्थ यह निकला कि द्वेष दो प्रकार का है, एक स्वार्थवश किया जाने वाला और एक अपनी रक्षा के अर्थ किया जाने वाला । केवलं रक्षा के अर्थ किया जाने वाला द्वेष क्षणिक होता है तथा उसके पीछे पड़ी रहती है समता व माध्यस्थता, जिसमें न शत्र का भाव रहता है न मित्र का। स्वार्थवश किया जाने वाला द्वेष ध्रुव होता है, निष्कारण होता है, जब भी मौका देखता है तब ही निष्कारण हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है। ये हुई द्वेष की दो कोटियाँ जिनमें उपरोक्त दृष्टान्तों पर से यह सिद्ध होता है कि 'रक्षार्थ क्षणिक द्वेष रखने वाला प्राणी शत्रु नहीं हो सकता और स्वार्थवश निष्कारण द्वेष रखने वाला प्राणी शत्रु है।' ५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं-शत्रु के इस लक्षण पर से शत्रु का निर्णय कर लेने पर ही विरोधी हिंसा को गृहस्थ का कर्तव्य बताया गया है-निरर्गल हिंसा को नहीं । इस विवेक के अभाव में ही आज का मानव उन सर्व जीवों को, जो किसी भी अभिप्राय से उसके शरीर को बाधा पहुँचा रहे हों अथवा जिनसे कदाचित् बाधा पहुँचने की सम्भावना हो, अपना शत्रु मानकर जिस-किसी प्रकार भी उनके विनाश के उपाय किया करता है। उदाहरण के रूप से सिंह, सर्प, बिच्छ भिर्र ततैया सब उसके शत्र हैं क्योंकि भले आज न सही पर कल उनसे बाधा पहुँचने के । सम्भावना हो सकती है और इसी कारण मानव का आज ऐसा अभिप्राय बन रहा है कि निष्कारण भी जहाँ कहीं वे मिलें उन्हें मार डालो। __ शत्रु का उक्त लक्षण घटित करने पर आपको आश्चर्य होगा कि जिसे शत्रु समझा जा रहा है यहाँ वह वास्तव में माध्यस्थ वाली तीसरी कोटि का प्राणी है । क्योंकि उपरोक्त सिंह आदि कभी किसी पर निष्कारण आक्रमण नहीं करते और मानव निष्कारण केवल द्वेषवश उन पर आक्रमण करता है । वे प्राणी यदि मानव को बाधा पहुँचाते हैं तो अपनी रक्षार्थ और मानव उन्हें मारता है तो स्वार्थवश, द्वेषवश, निरपराध । यह बात सभी जानते हैं कि सर्प, बिच्छू, भिर्र, ततैया आदि बिना दबे अर्थात् बिना अपने पर उपसर्ग जाने, बिना अपने पर प्रहार हुये, कभी किसी पर प्रहार नहीं करते । करते अवश्य हैं पर अपनी रक्षार्थ केवल उस समय जबकि उन्हें अपने पर बाधा आती प्रतीत हो। जवाहरलाल नेहरू जेल में जो कोठरी मिली उसमें भिरों के कई बड़े-बड़े छत्ते थे। भिरें जब भय के कारण कष्ट देने लगीं इस महान नेता को तो उसने मारना प्रारम्भ कर दिया उन्हें । भिरें उसके साथ घोर युद्ध करने पर उतर आई । नेता सब समझ गए। उन्होने उनके साथ सन्धि कर ली और उनको मारना बन्द कर दिया। युद्ध रुक गया। भिरें भी वहाँ रहें और नेता भी, न वह उन्हें बाधा पहुँचावे और न वे उसे काटें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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