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२७. अहिंसा
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४. शत्रु कौन
आज इसने कृतघ्नता दिखाने का प्रयल किया तो फिर यह मेरा कैसा? मित्र से उसी समय तक प्रेम होता है जब तक कि उसकी कतघ्नता प्रकट नहीं हो जाती। या तो आज इसे सहर्ष अपना कर्तव्य निभाकर अपनी कतज्ञता प्रकट करनी होगी, या मेरे द्वारा इसे दण्ड भोगना होगा। दोनों दशाओं में इसे क्षति ही उठानी होगी, दोनों दशाओं में इसे मृत्यु का
आलिंगन करना होगा, परन्तु एक दशा में होगी वीरों की मृत्यु और दूसरी दशा में कुत्ते की मृत्यु । बता कौन सी मृत्यु स्वीकार है तुझे? सोचने का अवकाश नहीं, शत्रु सामने खड़ा है।
ये होती हैं कुछ विचारधारायें, जो एक सच्चे अहिंसक के हृदय में ऐसे अवसरों पर उत्पन्न हुआ करती हैं। क्योंकि इस बात का दृढ़ विश्वास होता है उसे प्रत्यक्षवत्, कि वह अबाध्य व अघात्य चिदानन्द भगवान आत्मा है, और शरीर उसका सेवक उसकी शान्ति की रक्षा करने के लिये है। इसलिये वह बिल्कुल निर्भय होता है। शरीर चला जायेगा तो और मिल जायेगा, पर सम्मान चला जायेगा, धर्म चला जायेगा, साहस चला जायेगा, तो फिर न मिलेंगे, मेरे अन्तरंग की सर्व सम्पत्ति ही लुट जायेगी। नहीं-नहीं यह सब कुछ उसे असह्य है। जो अहिंसक अन्य अवसरों पर चींटी पर भी दया करता है, ऐसे अवसरों पर अत्यन्त निर्दय हो जाता है। ___ बात कुछ अटपटी सी लग रही होगी । अहिंसा और रक्त-प्रवाह, दो विरोधी बात कैसी? परन्तु यह प्रश्न तब ही तक तेरे हृदय में स्थान पा रहा है जब तक कि अहिंसा का यथार्थ रूप जान नहीं पाता । क्रियाओं में अवश्य विरोध दीख रहा है पर अभिप्राय में विरोध नहीं है । हिंसक भी शत्रु से युद्ध करता है और अहिंसक भी, दोनों के द्वारा ही युद्ध में मनुष्य-संहार होता है, परन्तु फिर भी हिंसक निर्दय और अहिंसक दयाल ही बना रहता है। इसकी परीक्षा बाह्य की
सकती. अन्दर का अभिप्राय पढना होगा। दोनों के अन्तरंग अभिप्राय में महान अन्तर है। हिंसक के अन्दर है आक्रमण और अहिंसक के अन्दर है केवल रक्षा, हिंसक के हृदय में है द्वेष और अहिंसक के हृदय में है क्षमा। (देखो ३४.२) हिंसक को होता है इस नर-संहार को देखकर हर्ष और अहिंसक को होता है पश्चाताप । इसलिये हिंसक न्याय-अन्याय के विवेक से शून्य होकर प्रहार करता है हथियार रहित पर भी, सोते हुये पर भी, स्त्री बूढ़े व बच्चे पर भी, घायल व अपाहिज पर भी। दूसरी ओर अहिंसक का हृदय ऐसे विचार मात्र से भी कांपता है, किसी मूल्य पर भी विवेक बेचने को वह तैयार नहीं। उसे अपनी हार की चिन्ता नहीं, उसे अपनी मृत्यु की चिन्ता नहीं, चिन्ता है केवल न्याय व कर्त्तव्य की और इसलिये कभी प्रहार नहीं करता छिपकर या हथियार-रहित पर, सोते पर, या पीठ दिखाकर भागते पर, या बच्चे व बढे पर, या घायल और अपाहिज पर । हिंसक करता है अपनी ओर से पहल दुसरे के घर पर जाकर, और अहिंसक करता है सामना अपने घर पर आए हुए का। हिंसक घायल व अपाहिज शत्रुओं पर करता है अट्टहास, और अहिंसक करता है उनसे मित्रवत् प्रेम । शान्त-सम्भाषण के द्वारा प्रयत्न करता है वह उन्हें सान्त्वना देने का । युद्ध के पश्चात् अहिंसक स्वयं करता है घायलों की सेवा, और हिंसक मारता है उनको ठोकरें । हिंसक के हृदय में है बदले की भावना और अहिंसक के हृदय में है क्षमा । यह है दोनों की क्रियाओं में अन्तर, जो अन्तरंग अभिप्राय के द्वारा ही होना सम्भव है। अभिप्राय में इस अन्तर के कारण ही एक है हिंसक और दूसरा है अहिंसक।
इस अभिप्राय पूर्वक बाहर में विरोधी-हिंसा करने वाला गृहस्थ वास्तव में अन्तरंग में हिंसा करता ही नहीं, और इसलिये उसके प्राण-संयम में बाधा आती नहीं। अत: विरोधी-हिंसा को यदि आवश्यक समझता है अपने लिये इस परिस्थिति में, तो भी अभिप्राय में तो कुछ परिवर्तन कर ही सकता है। उनसे तो कोई बाधा नहीं आती तेरी गृहस्थी को या तेरे शरीर को?
४. शत्रु कौन-शान्ति-प्राप्ति के उपाय में प्राण-संयम अर्थात् अहिंसा की बात चलती है । अहिंसा का व्यापक रूप दर्शा दिया गया-अपनी रक्षार्थ विरोधी हिंसा यथायोग्य रूप में करना एक वीर अहिंसक गृहस्थ का कर्तव्य बता दिया गया, परन्तु इस विरोध का पात्र कौन है, यह बात भी यहाँ जाननी आवश्यक है । क्योंकि यह जाने बिना तथा विवेक किये बिना तो मैं जिस-किसी को भी विरोधी की कोटि में गिनने लगूंगा । जहाँ तनिक भी किसी मनुष्य, तिर्यंच, कीड़े, मकोड़े आदि के द्वारा मेरी रुचि के विरुद्ध कोई कार्य हुआ कि मै समझ बैठा उसे विरोधी, और दौड़ पड़ा उसका नाश करने के
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