SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ ४. धर्म का स्वरूप २. धर्म का लक्षण हत्याकांड में हिन्दुओं के द्वारा मुसलमानों का और मुसलमानों के द्वारा हिन्दुओं का क्रूरता से रक्त बहाया जाना भी धर्म था। चोरों तक का कोई न कोई धर्म है । फलितार्थ, जितने मुँह उतनी बातें, जितनी जाति की रुचि उतनी ही जाति के धर्म । इस जाति के लक्षणों की असत्यार्थता तो स्पष्ट ही है, कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि इसमें स्वार्थ का ही नग्न नृत्य दिखाई दे रहा है । सब लक्षणों में है प्रथम कोटि की शान्ति की अभिलाषा। इसके अतिरिक्त भी धर्म के अनेकों लक्षण हैं, जो ज्ञानीजनों ने भिन्न-भिन्न अभिप्रायों को दृष्टि में रखते हुये किए हैं। उदाहरण के रूप में, दया धर्म का मूल है; अहिंसा परम धर्म है; नि:स्वार्थ सेवा धर्म है; परोपकार धर्म है; दान या त्याग धर्म है; श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र धर्म है; तथा अन्य अनेकों। इन सब पर तथा अन्य अनेकों लक्षणों पर विशेष दृष्टि डालने से, बहुत से लक्षण एकार्थ-वाचक से दिखाई देते हैं । जैसे दया, अहिंसा, सेवा व परोपकार एकार्थ वाचक से हैं। गणों को यदि संकुचित करके देखें तो मुख्यत: तीन रूप में देख पाते हैं-दया (अहिंसा), दान (त्याग), दमन (संयम)। ये तीनों गर्भित किये जा सकते हैं एक चारित्र में, अर्थात् जीवन चर्या में। और इस प्रकार श्रद्धा, ज्ञान चारित्र वाला लक्षण कुछ व्यापक सा दिखाई देने लगता है। इन सब ही लक्षणों का विशेष विस्तार तो आगे के प्रकरणों में आयेगा । यहाँ तो केवल इनकी सत्यार्थता व असत्यार्थता का विचार करना है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, धर्म का फल चौथी कोटि की शान्ति होना चाहिये । यही कसौटी है, धर्म के किसी भी लक्षण की सत्यार्थता व असत्यार्थता का निर्णय करने की । अत: उपरोक्त तथा अन्य भी, जिन क्रियाओं के करने से, मुझे आंशिक रूप से 'बस यही' वाली शान्ति का कुछ वेदन अन्तर में होता हुआ प्रतीत होता हो, वे सब क्रियायें सत्यार्थ धर्म कहला सकती हैं। उसके अभाव में सब वही क्रियायें असत्यार्थ हैं। क्योंकि सभी क्रियायें दो ढंग की होती हैं। एक उस शान्ति के साथ-साथ चलने वाली और एक उस शान्ति से निरपेक्ष, किसी भावुकता या साम्प्रदायिकता वश चलने वाली। इसीलिये तुझे अभी से इन दोनों सम्बन्धी विवेक जागृत करके, अपने को सावधान कर लेना चाहिये। ताकि आगे आगे के कथन क्रम में आने वाली, अथवा लोक में यत्र-तत्र दीखने वाली, उन्हीं या उस ही जाति की किन्हीं क्रियाओं में तुझे धर्म सम्बन्धी भ्रम न हो जाये और तेरा पुरुषार्थ फिर निष्फलता की दिशा मे प्रवाहित न होने लग जाये। इतने ही नहीं, कुछ और भी लक्षण ज्ञानी-जनों ने किये हैं, जो बहुत अधिक आकर्षक प्रतीत होते हैं। उनमें से दो मुख्य हैं—१. 'वस्तु का स्वभाव धर्म कहलाता है' । २. जो जीवन को संसार के दुःखों से उठाकर उत्तम सुख में धरं दे सो धर्म है। ये दोनों ही लक्षण बहुत अधिक स्पष्ट हैं। क्योंकि दोनों शान्ति की ओर संकेत कर रहे हैं। पहले लक्षण को यद्यपि जीव के अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी लागू किया जा सकता है, जैसे कि जल का स्वभाव शीतल होने से शीतलता जल का धर्म है, और अग्नि का स्वभाव उष्ण होने से उष्णता अग्नि का धर्म है, इत्यादि । परन्तु यहाँ जीव के धर्म का प्रकरण है, अत: लक्षण में कहे गए 'वस्तु' शब्द का अर्थ प्रकरणवश यहाँ जीव ग्रहण करना चाहिये । जीव का स्वभाव स्पष्टत: चिदानन्द अर्थात् ज्ञान व शान्ति होने से, शांतिपना जीव का धर्म है। दूसरा लक्षण स्पष्टत: ही उत्तम सुख अर्थात् शान्ति प्राप्ति के उपाय को धर्म बता रहा है। अल्पज्ञों के लिये धर्म के ये दो लक्षण बहुत अधिक स्पष्ट और आकर्षक हैं। ऊपर बताये गये दया आदि से इस सुख पर्यन्त के अनेकों लक्षणों को सुनकर उलझने की आवश्यकता नहीं। इनमें से कौन से लक्षण को सत्य मानूं, इस संशय को अवकाश नहीं । क्योंकि जैसा कि दया आदि के लक्षणों की सत्यार्थता व असत्यार्थता बताते हुये समझा दिया गया है, यदि वे दया आदिक लक्षण अन्तरंग शान्ति-सापेक्ष हैं, तो ये सर्व ही इस एक शान्ति वाले जीव-स्वभाव में गर्भित हो जाते हैं। किस प्रकार ? सो देखिये श्रद्धा ज्ञान व आचरण का अर्थ है, शान्ति के प्रति अत्यन्त रुचि, प्रतीति व बहुमान, शान्ति के सच्चे स्वरूप का तथा जीवन में कछ इस प्रकार के कार्य करना जिससे कि आंशिक रूप से आपको शांति का वेदन होता रहे। इसका विस्तार अगले अधिकारों में किया जाने वाला है। अहिंसा या इसमें गर्भित होने वाले अन्य दया आदि के लक्षणों का अर्थ है अपनी शांति के वेदन से प्रकटे, उसके बहुमानवश, दूसरे जीवों को भी शान्त देखने की इच्छा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy