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________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा ( १. परिषहजय; २. अनुप्रेक्षा; ३. कल्पनाओं का माहात्म्य; ४. बारह भावनायें। १. परिषहजय-एक क्षण को भी शान्ति का विरह सहने में असमर्थ हे योगीराज ! आश्चर्य है कि इतने सामर्थ्यहीन को भी पराक्रमी बताया जा रहा है, वीर बताया जा रहा है । ठीक ही तो है, यही तो है महिमा आपकी, शान्ति के व्यापारी जो ठहरे। धन का व्यापारी धन का विरह सहने में असमर्थ होते हुए भी उसके उपार्जन में आई अनेकों बाधाओं को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करता है। एक रणकुशल क्षत्रिय क्षत्रित्व का अपमान सहने में असमर्थ होते हुए भी उसकी रक्षा के लिए बड़े-बड़े प्रहारों को फूलों की चोट से अधिक नहीं मानता है। इसी प्रकार आप भी अपनी सम्पत्ति व गौरव जो कि शान्ति ही है, उसमें बाधा सहने में असमर्थ होते हुए भी उसकी रक्षा के अर्थ लौकिक बाधाओं के बड़े-बड़े प्रहारों को तृण से अधिक नहीं गिनते हैं । तीन-लोक की सम्पूर्ण बाधायें एकत्रित होकर चली आयें आपकी शान्ति को छीनने, तो भी आप उसका पल्ला नहीं छोड़ते। धन्य है आपका पराक्रम। आप वास्तविक क्षत्रिय हैं. वास्तविक वीर हैं, वास्तविक व्यापारी हैं, वास्तविक रण कुशल योद्धा हैं। आज परिषह-जय की बात चलती है। परिषह का अर्थ है 'परि' अर्थात् चारों ओर से, सम्पूर्ण उत्साह के साथ 'षह' अर्थात् बाधाओं को सहना । तप में भी बाधाओं को सहने की बात कही गई है और यहाँ भी कही जा रही है, पुनरुक्ति व पिष्टपेषण सा दिखाई देता है, परन्तु ऐसा नहीं है, तप व परिषह में अन्तर है। तप में जानबूझकर योगी बाधाओं व कष्टों को निमन्त्रित करता था। और यहाँ है उन बाधाओं की बात जो मनुष्यों के द्वारा, तिर्यञ्चों के द्वारा अथवा प्रकृति आदि के द्वारा स्वत: नित्य बिना बुलाये आ पड़ती हैं। तपश्चरण के प्रभाव से शक्ति में अतुल वृद्धि हो जाने पर आज वह इतना समर्थ है कि तीन लोक की बाधायें तथा पीड़ायें भी सिमटकर युगपत् उस पर आक्रमण करें तो उसे अपने स्वभाव से विचलित करने में समर्थ न हो सकें। इसका नाम है परिषहजय । बाधायें आने पर शान्ति को खो बैठने तथा विष की चूंट पीनेवत् जबरदस्ती उन पीड़ाओं को सहने का नाम परिषहजय नहीं है, वह तो जय की बजाए हार कही जाने योग्य है । अपनी सम्पत्ति को हारा तो हारा और उसकी रक्षा में जीता तो जीता। बाधाओं को जिस किस प्रकार सह लेने का नाम जीतना नहीं । शान्तिपूर्वक बिना खेद के सहने का नाम ही परिषहजय है, और इसलिए परिषह जीतने में योगी को कष्ट नहीं होता । भले बाहर में देखने वालों को वह पीड़ित भासे परन्तु अन्तरङ्ग में वह शान्ति-रस का ही पान किया करता है, अत: बहुत बड़ी है महिमा उसके पराक्रम की । शत्रु के आने पर चुपके से अपनी सम्पत्ति उसे सौंप दे तो योद्धा काहे का, इसी प्रकार बाधाओं से घबराकर शान्ति को चुपके से छोड़ दे तो पराक्रमी काहे का ? इस बात की क्या गिनती कि कितनी प्रकार की बाधायें उस योगी पर आ सकती हैं ? असंख्यातों हो सकती हैं वे। जिसका कोई आश्रय नहीं, प्रकृति ही जिसका आश्रय है; पहनने को जिसके पास वस्त्र नहीं, दिशायें ही जिसके वस्त्र हैं; रहने को जिसके पास घर नहीं, आकाश ही जिसका घर है; रक्षा करने को सेवक व सेना नहीं, शान्ति ही जिसका सेवक तथा सेना है; उस वनवासी पर कितनी बाधायें स्वयं कभी भी आ सकनी सम्भव हैं, इसका अनुमान कौन लगाये ? कुछ बाधायें तो ऐसी हैं जिनसे कि प्रतिदिन सामना करना पड़ता है उसे, और कुछ ऐसी हो सकती हैं कि जिनसे कभी-कभी भेंट हो जानी सम्भव है उसकी । कुछ शारीरिक भी हो सकती हैं और कुछ मानसिक भी । इन सर्व में से मुख्य बाईस बाधायें कथनीय हैं। १. क्षुधा, २. तृषा, ३. गरमी, ४. सर्दी, ५. डांस, मच्छर, मक्खी व बिच्छु आदि, ६. उपवासों से शरीर के अत्यन्त कृश हो जाने पर भी कंकरीली धरती पर बराबर विहार करते रहना, ७. एकासन पर बहुत देर तक बैठे रहना या एक करवट पर ही लेटे रहना, ८. किसी मनुष्य व पशु आदि के द्वारा पीड़ित किये जाना, ९. रोग, १०. काँटा-कंकर आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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