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४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा
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२. अनुप्रेक्षा
चुभना और ११. शरीर में पसेव आदि झरने पर इसका मलिन व दुर्गन्धित हो जाना। ये ग्यारह जाति की बाधायें ऐसी हैं जिनका सम्बन्ध शरीर से है । स्वयमेव कोई ऐसी बाधा का कारण उपस्थित होने पर वह अपनी शान्ति से विचलित नहीं होता, उनसे बचने का प्रयत्न न करके किन्हीं विचार विशेषों के बल पर उन्हें दबा देता है, और इस प्रकार बड़े से बड़ी पीड़ा को न गिनते हुए बराबर निश्चल बना रहता है ।
१. नग्नता के कारण लज्जा, २. पूर्व में अनुभव किये गये भोगादि का स्मरण, ३. एकान्त में किसी सुन्दर व कामुक स्त्री के द्वारा की गई हावभाव विलास की चेष्टा, ४. भयानक पशुओं की गर्जना से पूर्ण श्मशान आदि भयानक स्थानों में अकेले बैठे रहना, ५. किसी के मुख निकले गाली व निन्दा के शब्द, ६. लम्बे-लम्बे उपवासों से क्षुधा की अग्नि में जलते हुए अन्तरंग में कदाचित् प्रकट हो जाने वाला याचना या दीनता का भाव, ७. अनन्त गुण-भण्डार होते हुए भी यथा योग्य रूप में सत्कार का न मिलना, ५. भोजन की इच्छा होते हुए भी भोजन के संयोग में बाधा पड़ जाना, ९. बहुत ज्ञानी होते हुए भी अन्य के द्वारा ज्ञानी स्वीकार न किया जाना, १०. कठोर तपश्चरण करते हुए भी किसी चमत्कारी शक्ति का न मिलना और ११. इस प्रकार की बाधाओं के कारण कदाचित् श्रद्धान हलचल पैदा हो जाना । ये ग्यारह प्रकार की हैं वे बाधायें जिनका सम्बन्ध मानसिक विचारों से है । यद्यपि शरीर को इन बाधाओं से कोई पीड़ा नहीं होती, परन्तु ऐसे अवसरों पर अन्तरंग में एक बड़ी हलचल हो जाया करती है जो सम्भवतः शारीरिक पीड़ा से कई गुणी अधिक सन्तापकारिनी होती है। इन सभी बाधाओं तथा मानसिक पीड़ाओं को वह योगी अपनी शान्ति की रक्षा के अर्थ किन्हीं विचार विशेषों के बल से दबा देता है। इसे कहते हैं परिषहजय ।
२. अनुप्रेक्षा — अब प्रश्न यह होता है कि वे विचार-विशेष क्या हैं, और उनमें कौन सा सामर्थ्य है जिसके कारण कि बाहर में रक्षा का उपाय किये बिना भी वह इतनी बड़ी पीड़ाओं को, जिन्हें सुनकर भी कलेजा दहल उठता है, जिनके अनुमान से भी जगत काँप उठता है, जीत लेता है ? वास्तव में ऐसी ही बात है भाई ! इसमें आश्चर्य को अवकाश नहीं, क्योंकि विचारणाओं का बल प्रतिदिन हमारे अनुभव में आ रहा है । पुत्र-वियोग हो जाने पर मित्र द्वारा सान्त्वना दिए जाने से, कुछ विचार - विशेष ही तो होते हैं जो मेरे अन्तर्दाह को कुछ शीतलता पहुँचाते प्रतीत होते हैं ? जल्दी ही अच्छे हो जाओगे, विश्वास करो, डाक्टर द्वारा ऐसा कहे जाने पर, कोई विचार-विशेष ही तो होते हैं जो कुछ सान्त्वना सी देते प्रतीत होते हैं ? विचारणाओं में अतुल बल है और फिर अलौकिक जनों की तो विचारणायें भी अलौकिक होती हैं । उनका आधार कल्पनायें नहीं वस्तु स्वभाव है इसलिये उन विचारों के सद्भाव में बाधा दीखनी सम्भव नहीं । वे भावनाएँ स्वयं साकार होकर उसके सामने आ खड़ी होती है; और वह साधक उनके दर्शन में खो जाता है। कौन जाने उन बाधाओं को तब और कौन वेदन करे उनसे उत्पन्न हुई पीड़ाओं को ?
इस प्रकार की विचारणायें अनेकों, हो सकती हैं, फिर भी समझाने के लिए उनको बारह कोटियों में विभाजित किया जा सकता है । यद्यपि वस्तु में और भी अनेकों बातें हैं जिनके सम्बन्ध में विचार उठाये जा सकते हैं, परन्तु उन सबका समावेश यथायोग्य रीति से इन बारह में ही कर लेना चाहिए। अब उन बारह विचारणाओं का कथन चलेगा । इनको बारह वैराग्य-भावनायें कहते हैं क्योंकि इनको विचारने से अन्तरङ्ग विरागता में एकदम कुछ ज्वार सा है । इन विचारणाओं को आगम में 'अनुप्रेक्षा' नाम से कहा गया है क्योंकि इनका एक बार ही विचार कर लेना पर्याप्त हो ऐसा नहीं है, एक ही भावना प्रयोजन वश पुनः पुनः न जाने कितनी बार बराबर भाई जाती रहे । अनुप्रेक्षा का अर्थ है पुन: पुन: चिन्तवन करना और इसलिये इन्हें अनुप्रेक्षा कहना युक्त है ।
यहाँ इतनी बात अवश्य जान लेने योग्य है कि जिस प्रकार वैद्य के घर में अनेक औषधियाँ हैं, पर सभी रोगियों को सभी औषधियाँ दी जायें ऐसा नहीं होता, बल्कि जो जिस रोगी को योग्य व अनुकूल पड़ने वाली हो वही औषधि-विशेष उसको दी जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक बाधा के आने पर बारह की बारह या कोई सी भी एक भावना भानी आवश्यक हो, सो बात नहीं है, बल्कि जिस अवसर पर जो भानी योग्य हो उस अवसर पर वही भानी उपयुक्तं है। हो सकता है कि किसी CTET में बारह की बारह की भी आवश्यकता पड़ जाए, कोई नियम नहीं बनाया जा सकता ।
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