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________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९४ ३. कल्पानाओं का माहात्म्य इसके अतिरिक्त कवियों द्वारा रचित इन भावनाओं सम्बन्धी पाठों के पढने का नाम भी अनप्रेक्षा नहीं है. क्योंकि केवल पाठ पढ़ने से ही वांछित लाभ नहीं होता है। लाभ होता है मन को केन्द्रित करके उसे अमुक चिन्तन में उलझाने से। उसमें बुद्धिपूर्वक कुछ करना होता है। तत्सम्बन्धी दृष्टान्तों को याद करना चाहिये, अपने जीवन में या अन्य के जीवन में पहले अनुभव की गई या देखी गई उसी जाति की घटनाओं को याद करना चाहिये, उन अवसरों पर अपने में या अन्य में प्रकटे साहस को ध्यान में लाने से स्वत: अन्तरंग में जो विचार उठते हैं उनके चिन्तवन में पुन: पुन: निमग्न हो जाना चाहिए। ऐसी विचारणाओं से ही बाधायें जीती जा सकती हैं, केवल पाठ पढ़ने से नहीं। हाँ ! पाठ भी इस प्रकार की विचारणाओं में सहायक अवश्य हो सकते हैं। इन सर्व विचारणाओं में केवल शान्ति की रक्षा का ही अभिप्राय रहना चाहिए । उन विचारणाओं को इष्ट समझें तो भूल होगी क्योंकि वे स्वयं विकल्प हैं और विकल्प अशान्ति के कारण होते हैं । उन्हें त्यागने का प्रयोजन लेकर आगे बढ़ा हूँ, उनको इष्ट समझने लगूं तो कभी भी उनको त्याग न सकूँगा और उन्हें न त्यागने पर पूर्ण शान्ति कैसे प्राप्त करूँगा? उल्टा नीचे गिर जाऊँगा । जैसे रोग के प्रशमनार्थ भले वर्तमान में औषधि का प्रयोग करना आरम्भ कर दे. पर सदा उसे सेवन करते रहने का अभिप्राय रखकर नहीं करता, रोग शमन हो जाने पर तुरन्त छोड़ देता है और स्वास्थ्य का भोग करने लगता है । यदि फिर भी औषधि का बराबर सेवन करता चला जाय तो उल्टा अधिक बीमार हो जाए। रोग की अवस्था में जो औषधि उपकारी व अमृत है, स्वस्थ अवस्था में वही हानिकारक तथा विष है। इसी प्रकार सर पर आ पड़ी पीड़ा के प्रशमनार्थ वर्तमान में भावनाओं का चिन्तवन करना योगी भले प्रारम्भ कर दे पर सदा उसे भाते रहने का अभिप्राय रखकर नहीं करता, बाधा व पीड़ा टल जाने पर तुरन्त उस विकल्प को छोड़ देता है और पुन: शान्ति का भोग करने लगता है। यदि फिर भी बराबर भाता ही रहे तो उन विकल्पों के कारण और अधिक अशान्त हो जाए। बाधाओं की तीव्र व असह्य पीड़ा के आ जाने पर मन को वैराग्य के विकल्पों में उलझाना श्रेष्ठ है परन्तु बाधा टल जाने पर भी विकल्पों में अटका रहे तो योगी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, शान्ति की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। मन में उठने वाली भावनाओं को यहाँ विकल्प इसलिए बताया जा रहा है कि उसमें अभी तक भी एक ऐसा संस्कार विद्यमान है जिसके कारण कि उसे 'बाधा' बाधा दिखाई देती है, जिसका कारण है यह कि बाधा आने पर उसे पीड़ा का वेदन होने लगता है, जिसके कारण कि उसे अपनी शान्ति के घात का भय है । यदि संस्कार टूट गया होता तो क्या आवश्यकता थी इस भय की और क्या आवश्यकता थी उससे अपनी रक्षा करने की ? वह चैतन्य, निराकार पर ब्रह्म, शान्ति उसका सर्वस्व व स्वभाव, जिसका तीन काल में उससे विच्छेद होना असम्भव, बाहर की बाधायें बेचारी उसे किंचित् भी स्पर्श करने में असमर्थ, फिर क्यों भाये उन भावनाओं को? शान्ति में स्थित है, बस उसी उसी के भोग में स्थित रहा करे । परन्तु ऐसा नहीं होता, कहना आसान है पर करना बहुत कठिन । यद्यपि बल बढ़ चुका है तथापि अभी भी शक्ति में कुछ कमी है। छोटी-मोटी बाधाओं की तो उसे खबर भी नहीं लगती परन्तु बड़ी भयानक बाधाओं के आ जाने पर अवश्य पीड़ा का वेदन होने लगता है और उसकी शान्ति व साम्यता उसके हाथ से निकलकर मानो भागती प्रतीत होती है। ऐसे अवसरों पर जिस किस प्रकार भी उस शान्ति की रक्षा करने में तत्पर योगी, किन्हीं वैराग्य-प्रवर्धक विकल्पों को, उतने समय के लिए जान बूझकर उठाता है जितने समय के लिए कि वह पीड़ा शान्त न हो जाय । आगे उन्हीं विकल्पों सम्बन्धी कुछ चित्रण खेंचकर बताने का प्रयत्न करूँगा। ाओं का माहात्म्य अहो ! त्रिलोक-विजयी गरुदेव की महिमा व उनका पराक्रम। तीन लोक की बड़ी से बड़ी बाधा भी जिनकी निश्चलता को भंग करने में समर्थ नहीं। रत्नों के प्रकाश में तथा मखमल के कोमल गद्दों पर पला वह सुकुमार शरीरी एक दिन तपस्वी होगा, क्या स्वप्न में भी कोई विचार सकता था ? सूर्य के प्रकाश में आने पर जिसकी आँखों से पानी बह निकले, गद्दे के अन्दर कहीं भूला-भटका पड़ा एक बिनोले का दाना भी जिसे सहन न हो सके, राजा को परोसे गए उत्तम भोजन में से भी जो चुन-चुनकर अपने योग्य उत्तम चावल खाये, ओह ! आज वही चला जा रहा है कंकरीली भूमि पर, सूर्य के ताप में, नग्न-रूप धारे । कंकरों के चुभ जाने के कारण पाँव लहूलुहान हो चुके हैं, इसका भी जिसे भान नहीं। अरे विधाता ! यह क्या दृश्य ? मेरा कलेजा दहल गया है जिसको देखकर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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