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________________ ४७. सल्लेखना ३०५ ५. यह आत्म हत्या नहीं का साथ छोड़कर यहाँ आये थे हमें स्वयं पता नहीं, आप का साथ छोड़कर अब किन का साथ पकड़ेंगे यह भी पता नहीं। और आप भी यह सब कुछ नहीं जानते । इसलिए सदा साथ बने रहने की भावना का आप त्याग करो। हम शान्ति की शरण जाते हैं, प्रभु तुम्हें भी शान्ति प्रदान करें । हमारी सब के प्रति क्षमा है, हमें भी सब क्षमा करना।" ४. समाधि मरण—इस प्रकार सब के प्रति समता धारकर ज्ञानधारा में प्रवेश कर जाता है वह । न रह जाती है उसे जीने की भावना न मरने की इच्छा, न जीने के प्रति आकर्षण न मरने के प्रति भय। शरीर के प्रति न राग न द्वेष । वेतन देना बन्द कर देता है अब वह इसे, अर्थात् खाना-पीना छोड़कर अपनी ओर से काष्ठवत् त्याग कर देता है वह इसका और देखता रहता है इसको भी उसी प्रकार जैसे कि जगत के अन्य पदार्थों को । रहे तो छ: महीने रह जाए, जावे तो भले आज चला जाय । न रहने से कोई लाभ न जाने से कोई हानि। परन्तु अलौकिक है यह पुरुषार्थ । मरण काल आने पर ही उसमें प्रकट हुआ हो यह, ऐसा होना सम्भव नहीं, क्योंकि मरण काल में लोगों की बुद्धि प्राय: भ्रष्ट होती देखी गई है। सारे जीवन की साधना पड़ी है इसके गर्भ में । जीवन भर नित्य किया गया कायोत्सर्ग का अभ्यास पड़ा है इसके मूल में, उस कायोत्सर्ग का जिसका उल्लेख कि 'उत्तम तप' के अन्तर्गत अभ्यन्तर तपों के प्रकरण में किया गया है । तात्पर्य यह है कि कोई यह समझे कि सारे जीवन तो स्वच्छन्द रहूँ और अन्त समय में समाधिमरण धरके अपना कल्याण कर लूँ, यह सम्भव नहीं। जीवन पर्यन्त समाधिमरण की भावना से जीना होता है उसे । समाधि का अर्थ मन:-समाधान अर्थात् समता और मरण का अर्थ देह का सहज त्याग। ५. यह आत्म हत्या नहीं-लौकिक मानव बेचारा क्या समझे इस गर्जना के मूल्य को, वह तो ठहरा शरीर का उपासक । उसकी दृष्टि में शान्ति का कुछ मूल्य नहीं, शरीर ही उसका सर्वस्व है । शरीर गया तो उसका सब कुछ चला गया । बल्कि शरीर क्या उसके लिए तो शरीर की अपेक्षा भी धन अधिक प्रिय है। धन गया तो सब कुछ गया, उसके पीछे खाना नहाना आदि सब कुछ गया, मानो पागल हो गया, और अन्त में वही मृत्यु की गोद जहाँ जाकर सबको विश्राम मिल जाता है । धन के पीछे खाना नहाना छोड़कर या अरुचि पूर्वक जबरदस्ती थोड़ा बहुत खाकर, पागलों की भाँति बराबर शरीर को कृश करता हुआ एक दिन मृत्यु से आलिंगन कर लेता है, तब तो मानव उसे आत्म-हत्या नहीं कहता; परन्तु जब एक शान्ति का उपासक अपनी शान्ति की रक्षा के अर्थ प्रसन्नता पूर्वक शरीर से उपेक्षा धारण करके मृत्यु का सत्कार करने जाता है तो उसको वह आत्म-हत्या कह देता है। देख एक वीर योद्धा का आदर्श, यदि शत्रु देश पर चढ़ आये तो अपना तन, मन, धन सर्वस्व होम दे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए। जीऊँगा तो स्वामी बनकर, दास बनकर जीना मुझे स्वीकार नहीं, प्राण जायें तो जायें; और कूद पड़ता है जान बूझकर युद्ध की आग में, इसलिए कि या तो तेजवन्त बनकर निकलूँगा और या भस्म हो जाऊँगा। तब तो उसकी इस साहस-पूर्ण क्रिया को आत्महत्या न कहकर वीरता कहता है तू, परन्तु एक शान्ति का उपासक योद्धा अपने शान्ति-देश पर शरीर की शिथिलता के द्वारा किये गये आक्रमण का मुकाबला करने के लिए जब इससे युद्ध करने या सर्वस्व अर्पण करने जाता है तब उसे आत्महत्या की उपाधि प्रदान कर देता है तू । क्यों? इसलिए न कि बाहर का देश तो तुझे दीखता है, उसमें तो तेरा कुछ स्वार्थ है, पर अन्तरङ्ग का शान्ति-देश तुझे इष्ट नहीं है। तनिक विचार कर देख तो सही कि क्या अन्तर है आत्महत्या और सल्लेखना में ? ऊपर की क्रियाओं पर से अनमान लगाने का प्रयत्न न कर, अन्दर की भावनाओं को टटोल । ऊपर से तो नि:सन्देह कछ आत्महत्या सरीखा ही लगता है, परन्तु अन्दर में उतरकर देखते हैं तो आकाश पाताल का अन्तर पाते हैं । सल्लेखनागत योगी में है सबके प्रति साम्यता और आत्महत्यागत अपराधी में है द्वेष या क्रोध-पूर्ति की भावना । योगी सबको शान्ति प्रदान करके जाता है और अपराधी सब को दाह उपजाकर जाता है। योगी के अन्दर है शान्ति का सौम्य संवाद और अपराधी के अन्दर है द्वेष की भड़कती ज्वाला, जिसमें स्वयं भड़ाभड़ जला जा रहा है वह । योगी के मुख-मण्डल पर है मुस्कान व आशा और अपराधी के मुख पर है क्रोध व निराशा । इसीलिए नियम से योगी के आगे आने वाला जीवन तो होता है शान्तिपूर्ण और अपराधी का क्रोध तथा द्वेषपूर्ण योगी तो आगे भी पुन: शान्ति की साधना के प्रति ही झुकता है और अपराधी क्रोध के वश पड़ा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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