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२८. भोजन-शुद्धि
८. मांस निषेध हो। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये दाल व भाजी आदि को कटोरी में डालने के पश्चात्, चमचे के द्वारा ऊपर उठा-उठाकर कटोरी में पुन: पुन: धीरे-धीरे गिराया जाता है, ताकि उसकी पड़ने वाली धार में बाल आदि दिखाई दे जाए। खाण्ड या नमक-मिर्च आदि को भी किसी थाली आदि चौड़े बर्तन में फैलाकर बीन लेना चाहिये । रोटी को परसने से पहले उसके चार टुकड़े करके प्रत्येक टुकड़े का पुड़त उठाकर भीतर भली भाँति गौर से देखना चाहिये। रोटी तोड़ना रूढ़ि मात्र नहीं है, कभी-कभी बाल रोटी में बेला जाता है और वह उस समय पता चलता है जबकि टुकड़ा मुँह में आ जाए । इसलिये रोटी को धीरे-धीरे सावधानी-पूर्वक देखते हुये ही तोड़ना चाहिये ताकि यदि अन्दर बाल हो तो तोड़ते समय अटक जाए। जल्दी व झटके से तोड़ने से बाल भी टूट जाता है और उसका पता लगने नहीं पाता। इसी प्रकार पुड़त उठाना भी रूढ़ि नहीं है भीतर गौर से देखना चाहिये कि वहाँ कोई बाल या सुरसी आदि तो लगी नहीं है। इसी प्रकार सर्वत्र सावधानी रखनी योग्य है।
प्रयोजन यहाँ यह शंका होनी सम्भव है कि इस प्रकार की सर्व क्रियायें करना तथा बैक्टेरिया से सर्वथा बचा जाना क्या एक साधारण गृहस्थ के लिये शक्य है ? ठीक है भाई ! कथन पर से तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मानो एक साधक को जकड़जन्द कर दिया गया हो तथा विकल्प-जाल में उलझाकर उसे मूल तत्त्व से वंचित किया जा रहा हो, क्योंकि यह सब कुछ बिल्कुल उसी रूप में होना शक्य नहीं है जिस प्रकार कि यहाँ बताया गया है । परन्तु यह बात भूलनी नहीं चाहिये कि सर्व प्रकरणों में इस बात पर जोर दिया गया है कि सारा जाता देखिये तो आधा लीजिये बांट वाली लोकोक्ति को ध्यान में रखकर चलना है अर्थात् अपनी शक्ति के अनुसार यत्न करना है, प्रमादी बनना योग्य नहीं है।
आगम-कथित इस आहार-शुद्धि-सम्बन्धी सर्व ही विकल्पों की आधुनिक रीति से सार्थकता दर्शाना इस अधिकार का प्रयोजन है, जिससे कि यह सर्व आचरण कोरा रूढ़ी मात्र सा प्रतीत न हो। अथवा उन व्यक्तियों को जो कि भोजन-शुद्धि विषयक आरम्भ वर्तमान में कर रहे हैं, उनकी क्रियाओं में कुछ त्रुटियें दर्शाकर उन्हें सावधान करना प्रयोजन हैं, जिससे कि इस ओर थोड़ा या ध्यान देकर वे भोजन शुद्धि के बड़े-बड़े दोषों से अपनी रक्षा कर सकें। पथ के सर्व ही अंगोपांगों का जीवन में योग्य स्थान रहना चाहिये, अन्यथा प्रमाद का दोष आता है। और हम सब अप्रमत्त तो हैं नहीं, अत: यथाशक्ति प्रमाद दूर करना कर्तव्य है।
८. मांस निषेध-जिह्वा के लौलुपी कुछ भारतीय युवक अपने स्वच्छन्दता की कमर थपथपाने के लिये आज मांस-मछली और अण्डे को दूध-दही के समकक्ष सिद्ध करने का निष्फल प्रयास कर रहे हैं। दो अंगुल की इस इन्द्रिय के लिये इस प्रकार की बात मुख से निकालते हुये उनका कलेजा नहीं कांपता । कौन नहीं जानता कि मांस के इन लाल-ल
म कसा निरपराध बेजबान की आहें छिपी पड़ी हैं । यदि स्वार्थ ने तझे इतना अन्धा बना दिया है तो आ मेरे साथ में दिखाता हूँ तझे उसका रूप।
देख सामने उस व्यक्ति को जो उस बकरी का कान पकड़कर खेंचता हुआ उसे जबरदस्ती किसी ओर ले जा रहा है और वह बकरी बराबर पीछे की ओर हटने को जोर लगा रही है, मानो वह किसी मूल्य पर भी उसके साथ जाने को तैयार नहीं। कल भी यही बकरी देखी थी जबकि यह इसी व्यक्ति के साथ प्रेमपूर्वक खेल रही थी और स्वयं इसके पीछे-पीछे भागी चली जा रही थी । आज क्या विशेषता है ? चलो इसी में पूछे । अरे पूछे किससे, उसका करुण-क्रन्दन स्वयं बता रहा है कि वह तुझसे रक्षा की भिक्षा मांग रही है। अरे ! एक बार उसकी आँखों में आँखें डालकर देख तो सही कि क्या कह रही है वह तुझसे? अश्रुपूर्ण उन आँखों में छिपा हुआ है भय व न्याय की दुहाई तथा करुणा की पुकार, “भो पथिक ! तू बाल-बच्चों वाला है और मैं भी बाल-बच्चों वाली हूँ। तेरे बच्चे को एक सूई चुभे तो बेकल हो जाता है, पर आश्चर्य है कि तू मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकता । अरे देख आगे-आगे वे मेरे दोनों बच्चे खिंचे जा रहे हैं, माँ-माँ पुकार रहे हैं ! ओ क्रूर मानव । दया कर, दया कर, ईश्वर से डर । अरे पथिक तेरी आँखों के सामने तेरे बच्चों को कतल कर दिया जाये तो क्या गुजरेगी तेरे हृदय पर? मैं बेज़बान हूँ, कौन सुने मेरी पुकार? अरे मानव ! इससे पहले कि मैं अपने जिगर के टुकड़े को लहू में नहाता देखू, तू मेरी आँखे फोड़ दे।"
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