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________________ (xi) गया। ज्ञान व अन्तर-शान्ति के अतिरिक्त, शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त प्रतिकूल होते हुए भी इनकी बाह्य चारित्र सम्बन्धी साधना अति प्रबल है, जिसकी साक्षी कि इनका समय-समय पर किया हुआ परिग्रह-परिमाण व जिह्वा इन्द्रिय सम्बन्धी नियन्त्रण देता रहा है । पौष व माघ की सर्दियों में भी आप दो धोतियों व एक पतली सी सूती चादर में सन्तुष्ट रहे हैं। अब तो आपने वैराग्य बढ़ जाने के कारण विकल्पों से तथा परिग्रह से मुक्ति पाने के लिए भादों शु० तीज सं. २०१९ (सन् १९६२) को ईसरी में क्षुल्लक दीक्षा भी ले ली है। आप इस वैज्ञानिक युग में रूढ़ि व साम्प्रदायिक बन्धनों से परे एक शान्ति-प्रिय पथिक हैं । आपकी भाषा बिल्कुल बालकों सरीखी सरल व मधुर है । आठ वर्षों के उनके गहन स्वाध्याय के फलस्वरूप 'जैनेन्द्र कोष' जैसी महान् कृतिका निर्माण हुआ है जो जैन वाङ्मय में अपनी तरह की अपूर्व कृति है । इसकी आठ मोटी-मोटी जिल्दें हैं । इसके अतिरिक्त भी इनके हृदय से अनेकों ग्रन्थ स्वत: निकलते चले आ रहे हैं, जो उचित व्यवस्था होनेपर प्रकाश में आयेंगे। यद्यपि इस ग्रन्थ में संकलित विषयों को परम्परागत शान्ति-पथ अर्थात् मोक्ष मार्ग के उद्योतक व साधक भगवन् कुन्दकुन्द, श्री उमास्वामी श्री पूज्यपाद स्वामी, श्री शुभचन्द्र आदि महान् आचार्यों द्वारा रचित आगम से प्रेरणा लेकर लिखा है तो भी श्री ब्र० जिनेन्द्र कुमार जी ने अपने अध्यात्म बल व सम्यक आचार-विचार की दृढ़ता से प्राप्त अनभव के आधार पर ही आधुनिकतम वैज्ञानिक ढंग से अत्यन्त सरल भाषा में इसका सम्पादन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ केवल सिद्धान्त पर आधारित शास्त्र नहीं है, किन्तु सिद्धान्त पर आधारित शान्ति-पथ प्रदर्शक है । पथ पर चलकर ही ध्येय की पर्ति होती है। जब पथ पर चलता है तब अन्तरंग में ध्येय का साक्षात रहना आवश्यक है और जब अन्तरंग में ध्येय का साक्षात् है तो पथ पर चलना सरल हो जाता है । इन दिनों अध्यात्म व आचार विषयक साहित्य का बहुत बड़ा निर्माण हुआ है तथा शिक्षण-संस्थायें व आध्यात्मिक सन्त भी इस दिशा में बहुत योग दे रहे हैं, परन्तु विषय की जटिलता व अलौकिकता और तत्सम्बन्धी जैन परिभाषाओं के लोक-व्यवहरित न रहने के कारण भौतिक आवेशों से रंगा हुआ आज का युवक अध्यात्म परम्परा से च्युत होता चला जा रहा है। इन कठिनाइयों को दूर करने में यह ग्रन्थ अवश्यमेव महत्त्वशाली सिद्ध होगा तथा विश्व को सुख व शान्ति का मार्ग दिखाने में सहायक होगा। यद्यपि अध्यात्म-विद्या स्वानुभूति से ही प्राप्त होती है तो भी अनुभव प्राप्त पुरुषों के मार्ग-प्रदर्शन से यह साध्य अधिक सरल हो जाता है।। छले जमाने में अध्यात्म-विद्या, परिक्षोत्तीर्ण अधिकारियों को छोड़कर, सर्व साधारण से गोपनीय रहती चली आयी है परन्तु जब से कागज का निर्माण हुआ है और प्रकाशन-कला का विकास बढ़ा है, इस विद्या का साहित्य दिनोंदिन लोक-सम्पर्क में बढ़ता जा रहा है, और इस विज्ञान की चर्चा वार्ता बहुत होने लगी है। यह ज्ञान-प्रधान युग है परन्तु आचरण में दिन-दिन शिथिलता आती जा रही है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इस ग्रन्थ में ज्ञान के अनुकूल आचरण धारण करने की ओर अधिक ध्यान आकर्षित किया गया है। आप्तमीमांसा में कहा है “अज्ञानान्मोहतो बन्धो नाज्ञानाद्वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यात् मोहान्मोहितोऽन्यथा ॥९८ ॥" मोहीका अज्ञान बन्धका कारण है, परन्तु निर्मोही का अज्ञान (अल्प ज्ञान) बन्ध का कारण नहीं है । अल्प ज्ञान होते हुए भी मुक्ति हो जाती है परन्तु मोही को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। __ "जम्मणमरणजलौघं दुहयरकिलेससोगवीचीयं । इय संसार-समुदं तरंति चदुरंगणावाए।" अर्थ-यह संसार समुद्र जन्म-मरणरूप जलप्रवाह वाला, दुःख क्लेश और शोक रूप तरंगोवाला है। इसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यक् तप रूप चतुरंग नावसे मुमुक्षुजन पार करते हैं। "छीजे सदा तन को जतन यह, एक संयम पालिये। बह रुल्यो नरक निगोद माहीं, विषय कषायनि टालिये। शुभ करम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। 'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ।। फाल्गुन शु० ८ वी० नि० सं. २४८९ रूपचन्द्र गार्गीय जैन, पानीपत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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