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________________ ३०८ ४८. उपसंहार १. निश्चय व्यवहार-मैत्री का आश्रय लूँ, परन्तु अन्दर में उठने वाले इस राग का क्या करें? इससे प्रेरित होने पर न चाहते हुए भी अशुभ से बचने के लिए वह इन क्रियाओं को करता है। यह बात पहले ज्ञानी व अज्ञानी की क्रियाओं में अन्तर बताते हुए (देखो १४.५) स्पष्ट की जा चुकी है। अत: अपनी शंका को दूर करने के लिए पाठक को यह प्रकरण पुन: पढ़ लेना योग्य है । अभिप्रायवश बाहर में दीखने वाली यह प्रवृत्ति वास्तव में अन्तरंग में निवृत्तरूप ही पड़ती है । अशुभ से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति तथा उद्यमपूर्वक क्षण भर के लिए शुभ विकल्प से निवृत्त और शान्ति के वेदन रूप अन्तरंग में प्रवृत्ति । यह है अन्तरंग व बाह्य का समन्वय । प्रयोजन यह कि अन्तरंग में किया गया उन क्रियाओं का निवृत्तिरूप यह सूक्ष्म अंश ही शान्तिपथ का बीज है, बाह्य प्रवृत्ति नहीं। वह तो शुभ आश्रव है जिसका निषेध आश्रव अधिकार में पहले किया जा चुका है। अल्प दशा में उस प्रवृत्ति के द्वारा निवृत्ति की सिद्धि होने के कारण ही उसे धर्म का या शान्ति-पथ का अंग कहा जा रहा है, ऐसा सर्वत्र समझना । प्राथमिक दशा के पथिक को अभ्यास के अभाव के कारण, बिना प्रवृत्ति के अन्तरंग निवृत्ति होनी सम्भव नहीं, इसीलिए इन क्रियाओं का प्रतिपादन "पथ-दर्शन में किया गया है। चौथा प्रयोजन है व्यवहारभासी उन लोगों को इन क्रियाओं का रहस्य समझाना जो केवल रूढिवश ही इनको करते जा रहे हैं । पाँचवाँ प्रयोजन है निश्चयभासी उन लोगों को आगमकथित इन क्रियाओं में सार दर्शाना, जो कि कोरा क्रियाकांड समझकर इनसे उपेक्षित होते जा रहे हैं । छठा प्रयोजन है स्वच्छन्दाचारी उन साधरण जनों को आगमकथित इन क्रियाओं व धार्मिक अनुष्ठानों को मूल्यांकन कराना, जो कि धर्म-कर्म को पुराने जमाने की कल्पना समझकर, अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति के द्वारा स्वयं अपना अनिष्ट कर रहे हैं। इस प्रकार इन छहों प्रयोजनों को दृष्टि में रखकर यदि इस ग्रन्थ को पढ़ें तो इसमें सर्वत्र ही अन्तरंग सापेक्ष बाह्य का और बाह्य सापेक्ष अन्तरंग का अर्थात् निश्चय सापेक्ष व्यवहार का और व्यवहार सापेक्ष निश्चय का दर्शन होने लगे। किसी एक ही बात पर, भले वह निश्चय या अन्तरंग की हो अथवा व्यवहार या बाह्य की आवश्यकता से अधिक जोर देना पक्षपात या एकांत कहलाता है, जिसका निषेध पहले किया जा चुका है। अत: स्व व पर दोनों के हित को दृष्टि में रखकर अब भाषा के इस पक्ष को छोड़, और सरल वृत्ति द्वारा दोनों बातों की सापेक्षता को बराबर दृष्टि में बनाये रखकर ही शान्ति-पथ की कोई बात मुख से निकाल या समझ । संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः. करोतु शान्ति भगवान जिनेन्द्रः' । करोतु शान्ति भगवान जिनेन्द्रः, करोतु शान्ति भगवान जिनेन्द्रः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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