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________________ ३. शान्ति ३. सच्ची शान्ति तरफ मेरा संकेत है वह प्रकाशस्वरूप है, ऐसा प्रकाश जिसमें अखिल विश्व युगपत् अपने कार्य में व्यस्त दिखाई दे, जिसमें यह विश्व एक महान नाट्यशाला के रूप में दिखाई दे, जिसे मैं दर्शक बनकर केवल देखता मात्र हूं पर उसमें 'क्या' और 'क्यों' करने को मेरे लिये कोई अवकाश नहीं है । जिसको मैं देखता हूं पर बता नहीं सकता। अर्थात् देखता हुआ भी कुछ नहीं देखता और न देखता हुआ भी सब कुछ देखता हूं । जहाँ एक विशाल व तरंगित सागर मेरे सामने है, परन्तु इसमें कितनी तरंगे हैं और कहाँ कहाँ हैं यह जानने का विकल्प नहीं । जहाँ मैं या मेरे ज्ञान ने ही विश्व का रूप धारण किया है, जहाँ विश्व खटपट करते एक बड़े भारी कारखानेवत् दिखाई देता है पर इसमें कितने पुर्जे हैं और कहाँ कहाँ हैं, यह जानने का विकल्प नहीं । ऐसी शांति कांतिरूप है और सुषुप्ति की शांति अन्धयारी है।' ३. सच्ची शान्ति–तीन प्रकार की शान्तियों पर से विश्लेषण कर लेने पर, हम शान्ति की यर्थाथता व निर्मलता सम्बन्धी एक सिद्धान्त बना सकते हैं । शांति वहाँ है जहाँ अभिलाषा न रहे, शान्ति वहाँ है जहाँ सर्व के प्रति साम्यता हो, शान्ति वहाँ है जहाँ दृष्टि में व्यापकता हो, शान्ति वहाँ है जहाँ कोई लौकिक स्वार्थ न हो। इसके अतिरिक्त एक पाँचवीं बात और भी है, जो इन तीन में तो नहीं पर उस चौथी शान्ति में पाई जाती है। वही चिन्ह वास्तव में उसमें और इस तीसरी में भेद दर्शाता है। और वह है सर्व लोकाभिलाषा का सर्वथा प्रशमन, एक मात्र उसी शान्ति के प्रति का बहुमान । जहाँ अन्तर में उठने वाली, 'कुछ और' की ध्वनि सिमटकर, रूप धरले 'बस यही' का । “बस यही चाहिए मुझे, कुछ और नहीं। तीन लोक की सम्पत्ति भी धूल है, इसके सामने।" ऐसा भाव जहां उत्पन्न हो जाए, वह है चौथी शान्ति । तीसरी शान्ति में इस चिह्न का न पाया जाना इस बात का द्योतक है कि इसमें कहीं छिपी पड़ी है कोई अभिलाषा, और जहाँ अभिलाषा का कण मात्र भी शेष है जहाँ निरभिलाषिता का लक्षण घटा नहीं कहा जा सकता। बस जिस उपाय से यह चौथी शान्ति प्रकट हो सके, उसे ही धर्म समझो, क्योंकि वही मेरा अभिप्रेत व लक्ष्य है, वही मेरी अन्तर्ध्वनि की मांग है, उसकी परीक्षा 'बस यही' वाले लक्षण से की जा सकती है। 'बस यही' की पूर्ति नहीं कही जा सकती और इसी कारण तीसरी शान्ति इस मांग को पूरा करने में असमर्थ है। AMS TA " X वास्तव में महान हैं ये जो सबको समान समझते हैं, सबको तत्त्वदृष्टि से देखते हैं और परम शान्ति को प्राप्त करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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