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आदर्श सल्लेखना इस ग्रन्थ के प्रणेता परम श्रद्धेय श्री जिनेन्द्र वर्णी जी अपने जीवन के प्रारम्भिक काल से ही ज्ञान ध्यान तथा संयम की साधना में तत्पर रहते थे। 'इतने अस्वस्थ शरीर से इतनी स्वस्थ साधना' यह एक मात्र आपके आत्मबल का ही रिणाम था। जिस प्रकार अपने जीवनकाल में साहित्य सृजन एवं अध्यात्म की अभूतपूर्व साधना की उसी प्रकार जीवन के अन्तिम क्षणों तक आदर्श सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग कर मोक्षपथगामियों को मृत्यु से अमरता प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित किया।
यहाँ उनकी सल्लेखना का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है
सल्लेखना का सूत्रपात समाधि भावना का संकल्प लेकर पूज्य गुरुदेव १९८० में रोहतक चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् नवम्बर मास में रोहतक निवास श्रीमती काँति देवी, ब्र० मनोरमा एवं पानीपत निवासी सुरेश जी को साथ लेकर आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में मुक्तागिरी गए। वहाँ से जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के पंचम खण्ड को पूर्ण करने हेतु वाराणसी आए और कार्य पूर्ण कर नवम्बर १९८२ में ब्र० अरिहन्त कुमार जैन को साथ लेकर पुन: आचार्य श्री के पास नैनागिरी गए। आचार्य श्री सरस्वती के परमोपासक को शीघ्र नहीं खोना चाहते थे। इस कारण स्वास्थ लाभ हेतु तीन महीने सागर मोराजी वर्णी भवन में रहने की आज्ञा दी। उस समय आचार्य श्री सम्मेदशिखर जी की वन्दना के लिए प्रस्थान कर गए और वन्दना करके फरवरी १९८३ में सम्मेद शिखर के पादमूल ईशरी शान्ति निकेतन में आए। स्वास्थ्य लाभ होता न देख आचार्य श्री ने वर्णी जी को ईशरी में ही आमन्त्रित किया। आप मोराजी से वाराणसी होते हुए ईशरी पहुँचे । वहाँ पर १२ अप्रैल सन् १९८३ को आपने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया।
सल्लेखना के समय आचार्य श्री के संघ में ९ ऐलक, ९ मनि तथा तीन ब्रह्मचारी विराजमान थे। वर्णी जी का अनन्य भक्त ब० अरिहन्त कुमार अहर्निश वर्णी जी की सेवा में रहता था। इसके अतिरिक्त उनकी शिष्यायें ब्र० मनोरमा जैन एवं ब्र० निर्मला जैन, रत्ना, सुरेश चन्द जैन एवं पानीपत, रोहतक, कलकत्ता और वाराणसी से आए हुए भक्त गण भी उस काल में वहाँ आते जाते रहते थे। मधुबन तथा अन्य स्थानों से मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका तथा अन्य ब्रह्मचारीगण भी समाधिनिष्ठ वर्णी जी के दर्शनार्थ आते रहते थे। आचार्य श्री के मार्गदर्शन में संघ ने जिस भक्ति व निष्ठापूर्वक सल्लेखना निष्ठ वर्णी जी की वैयावृत्ति का आदर्श उपस्थित किया वह अवर्णनीय है।
सल्लेखना के प्रारम्भ से पूर्णता पर्यन्त श्री जिनेन्द्र वर्णी जी की चर्या, प्रगति, धैर्य, विवेक, शान्ति व जागृति का जो प्रत्यक्ष दर्शन हुआ उसका यहाँ स्पष्ट चित्रण कर रही हूँ
१२ अप्रैल १९८३ को प्रात: समस्त प्रकार के अन्न का त्याग कर सल्लेखना व्रत ग्रहण किया। समस्त परिग्रह का त्यागकर दिया। दाँत प्रयोग करने का भी त्याग कर दिया। आचार्य श्री से निवेदन किया कि-"बाह्य जीवन आपको सौंपता हूँ तथा आभ्यन्तर परिणामों को मैं स्वयं संभाल लूँगा।" इसके पश्चात् क्रमश: आहार कम करते चले गए । समस्त खाद्य पदार्थों का त्याग कर मात्र लौकी का पानी व मुनक्के के पानी को ही रखा । आचार्य श्री से मौन लेने की प्रार्थना की, परन्तु आचार्य श्री ने कहा कि 'आपके द्वारा किसी भव्य जीव की शंका का निवारण हो सकता है' इसी कारण मौन की स्वीकृति नहीं दी।
२१ अप्रैल को प्रात: केशलोंच किया। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान का और सिद्धान्त के पारगामी श्री जिनेन्द्र वर्णी जी का नया नाम 'सिद्धान्त सागर' रखा । दीक्षा के पश्चात उपवास किया। २६ अप्रैल तक मुनक्का व लौकी का जल गृहण करते रहे। इसके पश्चात् एक दिन उपवास और एक दिन जल ग्रहण करते थे। १२ मई तक यही क्रम चलता रहा। इसके पश्चात् केवल लौकी का जल व सादा जल ही लेना प्रारम्भ किया। जल की मात्रा भी धीरे-धीरे कम करते जा रहे थे। मख व नेत्रों से प्रखर आत्मतेज झलक रहा था। यदा कदा मुनिचर्या, कर्म सिद्धान्त आदि विषयों पर भी गहन चर्चा होती थी जो कि श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देती थी।
१८ मई से लौकी के जल का भी त्याग कर एक दिन सादा जल और एक दिन उपवास का क्रम रहा । २३ मई
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