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४. धर्म का स्वरूप
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३. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार
इस वक्तव्य व दृष्टान्त में से एक बहुत बड़ा सिद्धान्त निकल रहा है। प्रत्येक प्राणी के अन्त:करण में एक स्वाभाविक अन्तर्ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है । यह ध्वनि सदा उसे दोषों से हटाने का उपदेश देती है, दोष हो जाने पर उसे धिक्कारती है, कुछ भले कार्य करने के लिये उसे उत्साहित करती है, और ऐसा कोई कार्य हो जाने पर उसकी प्रशंसा करती है, कमर थपथपाती है। किसी भी कार्य के प्रारम्भ में इसकी आवाज ऊँची होती है, पर ज्यों-ज्यों उस कार्य-विशेष में अभ्यास बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों वह आवाज धीमी पड़ती जाती है, और एक दिन कुछ अचेत सी होकर पड़ी रहती है । आवाज के दबने का कारण है, उसकी अवहेलना । पुन: पुन: सचेत करती हुई उस आवाज को सुनते हुये भी, जब मैं उसकी परवाह किए बिना, कुछ अपनी मनमानी करता हूँ तो एक प्रकार से उसकी अवहेलना करता हूँ, उसका अपमान करता हूँ, उसको ठुकरा देता हूँ। और यदि मैं बराबर उसका अपमान करता चला जाऊँ तो कहाँ तक
और कब तक दे सकेगी वह मेरा साथ ? आखिर धीमी पड़ते-पड़ते अचेत हो जायेगी । इतना सौभाग्य अवश्य है कि वह अमर है, अवसर पाने पर पुन: सचेत होकर मुझे झंझोड़ डालती है और मैं सावधान होकर अपने पहले कृत्य पर पश्चाताप करने लगता है। इस अन्तर्ध्वनि को अंग्रेजी में 'कौन्रॉस' कहते हैं। यह सदा प्राणी को हित की ओर ले जाने तथा अहित से हटाने का प्रयत्न किया करती है।
इसके अतिरिक्त एक दूसरी शक्ति भी है, जिसे मैं 'संस्कार' शब्द से पुकारता हूँ। यह उस उपरोक्त अन्तर्ध्वनि का शत्रु है। इसकी आवाज सदा उसके विरोध में उठा करती है.? वह जिधर ले जाना चाहे, ये संस्कार उससे विपरीत दिशा में ही खेंचने का प्रयत्न करते हैं। प्रत्येक प्राणी के ये संस्कार, उसके द्वारा ही स्वयं आगे पीछे बनाये जाते हैं, जिस प्रकार बचपन से धीरे-धीरे चोरी का अभ्यास करते हुये आज वह डाकू बन गया है। जिस चोरी को करते हुये पहले वह डरता था, वही आज उसके लिये खेल है । कम्पन के साथ प्रारम्भ किया जाने वाला वह कार्य आज उसकी आदत बन चुका है, एक संस्कार बन चुका है। अंग्रेजी में इसका नाम 'Instinct' है। क्योंकि इसका प्रारम्भ अन्तर्ध्वनि की अवहेलना-पूर्वक होता है इसलिये यह उसका शत्रु बनकर रहता है और उसकी अवहेलना करने के लिये मुझे उकसाता रहता है। इसकी शक्ति यहाँ तक बढ़ जाती है कि फिर मैं अन्तर्ध्वनि को सनना भी पसन्द नहीं करता। वैदिक कवियों ने इसी भाव को देवासुर-संग्राम के अति सुन्दर अलंकारिक रूप में चित्रित किया है।
ये दो शक्तियाँ प्रत्येक प्राणी में पाई जा रही हैं, इनमें से एक शान्तिपथ-प्रदर्शक है और एक इच्छा तथा चिन्तापथ-प्रदर्शक, एक स्वाभाविक है और दूसरी कृत्रिम, एक अमर है और एक विनाशीक क्योंकि प्राणियों के ये संस्कार तो बदलते हुये देखे जाते हैं पर अन्तर्ध्वनि नहीं। इसलिये यही वह सहायक साथी है जो सदा तेरा साथ देगा, इसका आश्रय लेकर चलना। आज तक संस्कार को साथ लेता और अन्तर्ध्वनि की अवहेलना करता चला आया है, इसी कारण दुःखी व अशान्त बना हुआ है। अब औषधि बदल देनी होगी, क्रम को उल्टा कर देना होगा, अन्तर्ध्वनि का आश्रय लेकर संस्कार की अवहेलना करके चलना होगा। इसके विरुद्ध सत्याग्रह करना होगा, जो यह कहे उसे स्वीकार न करना होगा, चाहे कितने भी कष्ट क्यों न उठाने पड़ें। और इस प्रकार अवहेलना को सहन करने में असमर्थ, ये संस्कार तेरा देश छोड़कर सदा के लिये विदा हो जायेंगे। रह जायेगी वह अमर अन्तर्ध्वनि अकेली, जिसके साथ शांतिपथ पर ही चलता रहेगा तू, विचलित न होने पायेगा तू।
परन्तु उस अन्तर्ध्वनि को सुनकर उसका ठीक-ठीक अर्थ लगाना प्रत्येक का काम नहीं। उसके लिये कुछ विवेक चाहिये जिसके बिना कि अन्तर्ध्वनि व संस्कार इन दोनों की आवाजों व प्रेरणाओं में ठीक-ठीक भेद नहीं हो पाता। कभी कभी उनका अर्थ ठीक भी लगा लेता है और कभी गलती भी खा जाता है । अर्थात् अन्तर्ध्वनि की आवाज को मान बैठता है संस्कार की, और संस्कार की आवाज को मान बैठता है अन्तर्ध्वनि की। कभी-कभी ठीक-ठीक जान लेने पर भी संस्कार के प्राबल्य के कारण अन्तर्ध्वनि का अर्थ ज़बरदस्ती घुमा डालता है, और इस प्रकार सर्वदा हित से वंचित ही रहा है। इस विवेक को उत्पन्न करने के लिये कुछ विशेष सामग्री चाहिये, वह ही बड़े विस्तार के साथ अगले प्रकरणों में चलेगी। जरा धीरज धरकर ध्यान-पूर्वक सुनना, सम्भवत: कई महीनों तक बराबर सनना पड़े नहीं तो इधर के रहोगे न उधर के।
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