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२८. भोजन-शुद्धि
६. मन वचन काय शुद्धि करने की रूढि को पूरा करना तो हम कभी भूलते नहीं हैं और वह अतिथि भी आपके ये शब्द सुनकर सन्तुष्ट हो जाता है; पर न तो आप और न वह यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि यह मन्त्र वचनों तक ही समाप्त हो गया है या चर्या में भी कुछ आया है।
(१) मन शुद्धि कहना तभी सार्थक है जबकि आपके मन में उस अतिथि के प्रति भक्ति हो, आप दण्ड समझकर भोजन न दे रहे हों, बल्कि अपना सौभाग्य समझकर, अपने को धन्य मानकर दे रहे हों । यदि कदाचित् मन में ऐसा विचार आ जाए कि मैं इसको भोजन देकर इस पर कोई एहसान कर रहा हूँ, या ऐसा विचार आ जाए कि किसी प्रकार यह बला थोड़ा-घना खाकर जल्दी से टल जाये तो अच्छा' तो आपका मन शुद्ध नहीं है अशुद्ध है । आपके मन की यह अशुद्धता वास्तव में भोजन में विष घोल देती है। उससे प्रभावित आपका भोजन शुद्ध नहीं अशुद्ध है, जैसे कि यह लोकोक्ति है कि 'थाली परसी पर उसमें थूककर'।
(२) वचन-शुद्धि कहना तभी सार्थक है जबकि उस अतिथि के प्रति आपके मुख से अत्यन्त मिष्ट तथा भक्ति पूर्ण ही शब्द निकलें, आपकी भाषा से प्रेम टपकता हो, दण्ड या क्रोध नहीं। केवल अतिथि के प्रति ही नहीं बल्कि किसी भी अन्य घर वाले के प्रति या चौके में रहने वाले किसी अन्य व्यक्ति के प्रति भी । झुंझलाहट के या उतावल के शब्द 'जल्दी कर, जल्दी परोस, पानी ला' इत्यादि मुख से नहीं निकलने चाहिएँ, क्योंकि ऐसा करने से सम्भवत: घबराकर उस व्यक्ति से कोई ऐसा कार्य जल्दी में बन बैठे जिससे कि अतिथि को भोजन छोड़ देना पड़े। धैर्य, सन्तोष व शान्ति की अत्यन्त मन्द भाषा ही योग्य है अन्यथा भोजन अशुद्ध हो जायेगा।
(३) काय शुद्धि कहना तभी सार्थक है जबकि आपने शरीर को भली भाँति रगड़, धो व पोंछकर इस पर से मैल उतारकर इसे स्वच्छ व पवित्र कर लिया हो । इसमें कहीं भी किसी प्रकार की ग्लानि का भाव जैसे कोई घाव, फोड़ा, फुन्सी, मैल, मल, मूत्रादि का स्रवन विद्यमान न हो। इसके अतिरिक्त आपके शरीर पर नीचे के वस्त्र (Under-wear) या ऊपर के वस्त्र सब ही स्वच्छ व पवित्र हों। नीचे के वस्त्र (कच्छा बनियान आदि) ऊपर के (धोती आदि) स्वच्छ, ऐसा नहीं करना चाहिये । वस्त्र साबुन से धुले हुये बिल्कुल स्वच्छ होने चाहिये । इसके अतिरिक्त चौके में घुसने से पहले पाँव को बहुत अच्छी तरह एड़ी से पंजे तक रगड़कर काफी पानी से धो लेना चाहिए, ताकि पाँव के तलवे पर कुछ भी लगा न रह जाये । पाँव का तलवा अत्यन्त निकृष्ट अंग है, यह ध्यान रखना चाहिये। एक आध चुल्लु मात्र पानी पाँव के ऊपर डालकर पाँव धोने की रूढ़ि पूरी करना योग्य नहीं। चौके में प्रवेश करते ही पहले हाथों को अच्छी तरह रगड़ कर तीन बार धोना चाहिये । स्नान करने व स्वच्छ वस्त्र पहनने के पश्चात् यह सावधानी रखनी चाहिये कि आपका शरीर या आपका वस्त्र घर के किसी भी अन्य पदार्थ, वस्त्र, पर्दा, चिक, चादर, मेजपोश. दीवार व किवाड आदि से छने न पायें । छआछत के इस विवेक का प्रयोजन वास्तव
तंगत घणा नहीं बल्कि बैक्टेरिया के प्रति सुरक्षा का भाव है। यदि व्यक्तिगत घृणा को अवकाश दिया तो मन-शुद्धि बाधित हो जायेगी, यह ध्यान रहे । इस प्रकार सारी बातें चर्या में आने पर ही काय-शुद्धि कही जा सकती है अन्यथा नहीं।
(४) आहार-शुद्धि-आहार-शुद्धि के अन्तर्गत चार बातें आती हैं । आहार-शुद्धि कहना तभी सार्थक है जब कि ये चारों बातें पूर्ण रीति से चर्या में आ चुकी हों। ये चार बातें हैं--१. द्रव्य-शुद्धि, २. क्षेत्र-शुद्धि, ३. काल-शुद्धि, ४. भाव-शुद्धि । इन चारों की व्याख्या अब क्रम से की जाती है।
(१) द्रव्य शुद्धि के अन्तर्गत दस अधिकार हैं-१. अन्न-शुद्धि, २. जल-शुद्धि, ३. दुग्ध शुद्धि, ४. दही शुद्धि, ५. घृत शुद्धि, ६. तेल शुद्धि, ७. खाण्ड-शुद्धि, ८. सकरा-विधि, ९. वनस्पति शुद्धि और १०. ईंधन शुद्धि । अब इन दसों का कथन क्रम से करता हूँ।
१. अन्न-शुद्धि में आते हैं गेहूँ, चावल-दाल-मसाले व सूखे मेवा आदि । इन सर्व पदार्थों को भली भाँति सूर्य के प्रकाश में बीनकर इनमें से निकली जीव-राशि को सुरक्षित रूप से किसी कोने में क्षेपण करें, मार्ग में नहीं । मार्ग में ही उन्हें छोड़ देना महान अनर्थ है क्योंकि वहाँ वे बेचारे पाँव के नीचे आकर रौंदे जाते हैं । फिर इनको स्वच्छ जल में धोलें, ताकि इन पर लगा गोबर मल मूत्रादि का अंश अथवा इनके ऊपर विद्यमान बैक्टेरिया साफ हो जायें । धोकर इन्हें धूप
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