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२२. श्री पूरनचन्द जैन, मु० गढ़ाकोटा(सागर) -२.४.६१
शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ यथा-नाम तथा-गुण को चरितार्थ करता है । जिस मनोवैज्ञानिक ढंग से सरल रोचक शैली में ग्रन्थ कार ने विषयों को रखा है वह अतीव आकर्षक व प्रभावोत्पादक है। कोई भी प्रवचन शरू करने पर छोड़ने को जी नहीं चाहता। पूरे ग्रन्थ में किसी भी आचार्य के मूल शब्दों को न रखकर किसी विषय का अपनी शैली से विवेचन करना अतीव परिश्रम व अनुभव का कार्य है व मौलिक सूझ-बूझ है। भोजन-शुद्धि की सार्थकता का प्रतिपादन रूढ़ि के ढंग पर न करके वैज्ञानिक ढंग से किया है जो प्रभावशाली है। श्री वीरप्रभु से हार्दिक अभिलाषा है कि इस ग्रन्थ का प्रचार हो और लेखक को इस शैली के नये-नये ग्रन्थ रचने का उत्साह द्विगुणित हो । २३. दि० जैन स्वाध्याय मण्डल दमोह
सौभग्य से शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ का स्वाध्याय कर शान्ति-प्रेमियों ने जो शान्ति का अनुभव किया है वह अवर्णनीय है, अतएव आप जयवन्त व प्रकाशवन्त रहें। २४. श्री प्रकाश हितैषी शास्त्री सम्पादक सन्मति सन्देश
मैंने शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ आद्योपान्त पढ़ा। इसमें आत्म-कल्याण में प्रवृत्ति कराने के लिए अनुभवपूर्ण एवं शास्त्र-सम्मत विचारधारा देखने को मिली। श्री पूज्य क्षु० जिनेन्द्र जी वर्णी ने बड़े सरल एवं वैज्ञानिक ढंग से आर्ष सिद्धान्तों को अनुभव पूर्ण भाषा में प्रतिपादन कर समाज का महान् उपकार किया है। २५. स्वामी गीतानन्दजी, गीता भवन पानीपत___मैं श्री ब्र० जिनेन्द्र जी रचित शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ का अध्ययन करके यह प्रमाणित करता हूँ कि वास्तव में यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार ही पाठकों को शान्तिपथ-प्रदर्शन करने में यथा योग्य सम्पूर्णतया समर्थ है । यद्यपि इस ग्रन्थ का अध्ययन मैंने अभी संक्षेप में ही किया है किन्तु अल्पकाल के थोड़े से अध्ययन मात्र से ही मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि लेखक ने किसी मत-मतान्तर का पक्ष न लेते हुये वैज्ञानिक ढंग से सरल हिन्दी भाषा में जो अपने अनुभवपूर्ण भाव प्रकट किये हैं वे नि:संदेह प्रशंसनीय हैं । अत: मैं शान्ति की इच्छुक श्रद्धालु जनता को प्रेरणा करता हूँ कि एक बार इस ग्रन्थ का अध्ययन अवश्यमेव करें। २६. श्री जय भगवान्जैन ऐडवोकेट
शान्तिपथ-प्रदर्शन में संकलित प्रवचनों के प्रवक्ता का जहाँ यह अभिप्राय व्यक्त है कि वे लोक कल्याणार्थ सभी को शान्तिपथ-प्रदर्शन करा सकें उनका यह भी अभिप्राय रहा है कि तदर्थ प्रयुक्त होने वाली भाषा ऐसी सरल व सुबोध हो कि वह शिक्षित तथा अशिक्षित सभी के समझ में आ सके । कोई जमाना था कि तत्त्वज्ञों के अनुभूत व अनुसन्धानित तथ्यों को समझने के लिए उनके द्वारा आविष्कृत गूढ़ विशिष्ट परिभाषाओं को जान लेना आवश्यक होता था, जिसका परिणाम यह हुआ कि तात्त्विक विद्यायें कुछ इने-गिने विद्वानों की ही सम्पत्ति बन कर रह गई और जन-साधारण उनके रसास्वादन से वंचित रह गया, जो कभी भी तत्त्वज्ञों को अभिप्रेत न था। भाषा अन्तत: भाव-अभिव्यंजन का एक माध्यम मात्र है, इसीसे उसका महत्त्व व उपयोगिता बनी है, जैसा कि समयसार गाथा में भगवन् कुन्दकुन्द ने कहा है—'न शक्योऽनार्योऽनार्या भाषां बिना तू ग्राहयितुम्'। अनार्य जन आर्यभाषा को नहीं समझते अत: प्रवक्ता का कर्तव्य है कि जिस देश और युग की जनता को सन्देश देना अभीष्ट हो उन्हीं की भाषा और मुहावरों को अपनावे । इन प्रवचनों के प्रवक्ता ने इस दिशा में जो कदम उठाया है वह अत्यन्त सराहनीय और अभिनन्दनीय है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के आरम्भ से ही जो लोकप्रियता मिली है उसके लिए नि:संदेह इसके प्रवक्ता महान् श्रेय के पात्र हैं।
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