________________
४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा .
२९६
४. बारह भावनायें
र
रुपए-पैसे
(२) अरे चेतन ! क्या मूर्ख हो गया है, पीड़ा में उलझकर बुद्धि खो बैठा है ? प्रभु होकर भीख माँगते क्या लाज नहीं आती तुझे? भीख भी किससे माँगता है, इन रंकों से, जो स्वयं भिखारी हैं ? किनका आश्रय खोजता है, जो स्वयं निराश्रय हैं ? किनसे रक्षा की पुकार करता है, जो स्वयं अरक्षित हैं ? क्या शरीर कर सकता है तेरी सहायता ? तू चेतन. यह बेचारा जड. क्या देगा तझे? और फिर देख जरा. आँख तो मीच? ले अब खोलकर देख ले. कहाँ गया वह इतनी सी देर में ? स्वयं अपनी रक्षा भी तो नहीं कर सकता बेचारा ? क्या यह भोग सामग्री करेगी तेरी रक्षा या करेगी सेना या यह दुर्ग, या देव-दानव, या यह मन्त्र विद्या? बता तो सही किसके प्रति है तेरा लक्ष्य ? इनमें से कौन ऐसा दीखता है जो अगले ही क्षण बदल न जाए, काल रूपी सिंह का ग्रास बन न जाए ? ये बेचारे रंक क्या करेंगे तेरी सहायता ? इधर आ देख अपने प्रभुत्व को जो त्रिकाली सत् है, शाश्वत है, ध्रुव है, सदा से है और सदा रहेगा। विनाश ही नहीं है जब इसका, तो फिर रक्षा किसके लिये चाहिये ? स्वयं रक्षित को रक्षा की क्या आवश्यकता ? यह ही स्वयं शरणभूत है, अन्य सब 'अशरण' हैं।
(३) किधर भटक रहा है चेतन ! किसकी ओर खिंचा जा रहा है तू ? रुपये की ओर या माता-पिता की ओर या स्त्री-पुत्र की
ओर ? इनकी ओर नहीं तो फिर किसकी ओर ? अरे रे ! जाना रुपए-पैसे व स्त्री पुत्रादि इन दोनों की ओर, चक्रवर्तियों की ओर, | स्वर्ग के देवों की ओर। इनमें नवीनता व वैभव दिखाई देता है | तुझे ? भोले प्राणी ! क्या लोक-हंसी का भी भय नहीं रहा तुझे ? वमन को चाटते ग्लानि नहीं आती ? पीछे मुड़कर तो देख जरा कि अनन्त बार बनाया है तूने इनको अपना और अनन्त बार भोगा है तूने इन्हें । क्या अब भी इनमें नवीनता रह गई है कुछ ? अब क्या आकर्षण रह गया है इनमें? चारों गतियों में जो दुःख तूने भोगे हैं उन्हें याद कर। क्या कहा तूने ? यह स्थान रहने को अच्छा है । अरे ! कैसी भोली बातें करता है, मानो कुछ जानता ही नहीं? बता तो सही कि आकाश का कौन-सा प्रदेश छोड़ा है, जहाँ तू अनन्तों बार जाकर न रहा हो ? चतुर्गति में कौन सी ऐसी पर्याय है जो तूने धारण न की हो? यह है संसार जिसमें नित्य भ्रमण करता आया है तू । इधर आ प्रभु ! इधर आ । देख कितना
सुन्दर है यह तेरा रूप, पूर्ण शान्त, ज्ञान व आनन्द का पिण्ड, एक | बार भी जिसकी ओर नहीं देखा है आज तक । यह है तेरे लिए
बिल्कुल नवीन । भोगना ही है तो इसे भोग, नित्य नया-नया करके
t YTRI] भोग, पुन: पुन: भोग, सर्वदा भोग, सर्वत्र भोग, सर्वत: भोग। इसमें __ उन्हें याद कर चारों गतियों में जो दख तने भोगे | बसा है तेरा 'नया संसार'। यह है 'संसार' के स्वरूप का दिग्दर्शन
- जिसको विचारने से परिणामों में विशुद्धता तथा दृढ़ता आती है। (४) क्या विचार रहा है भोले चेतन ? किन में खोज रहा है अपनापन ? किनको कहता है तू मेरा? क्या मिलेगा इस प्रकार तझे? पड़ौसी के धन को भले अपना कहकर अपना चित्त प्रसन्न कर ले, पर इस प्रकार क्या वह तेरा बन जायगा ? नाहक खिन्न होगा जब कि साफ इंकार कर देगा वह तुझे, जैसा कि आकिंचन्य धर्म के अन्तर्गत अफीमची के दृष्टान्त में बताया गया है (देखो ४३.३) । सभी पदार्थ अपनी मर्जी से आते हैं, अपनी मर्जी से जाते हैं, न तुझसे पूछकर आते हैं, न तुझसे पूछकर जाते हैं । तू कौन होता है उनका ? वे कौन होते हैं तेरे ? तनिक तो बुद्धि लगा। रेल में बैठे अपने साथ वाले यात्रियों को भले मामा, चाचा, ताऊ कहकर पुकार पर इससे क्या वह तेरे मामा आदि बन जाएंगें ? मेरा-मेरा करके व्यर्थ चिन्ताओं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org