Book Title: Jaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यकल्प पं० श्री टोडरमल ग्रन्थमाला, पुष्प ३. . ..... n eas जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा शंका-समाधान ६ से १७ तक पुस्तक २ 'सम्पादक सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी . प्रकाशक आचार्यकल्प पं० श्री टोडरमल ग्रन्थमाला गांधीरोड, बापूनगर, जयपुर ( राजस्थान ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तच्चचचा छन -- सानालरण कोटदर्शनावरण .* ण व ET और जल पर्सन भामिनभाना ... असार उफा बाटिकी श्री पटकमा गम है। जानकरणस्ममणः श्रना मरणस्य चकल. समामा के सानिमामि समता / ... - पूर्वमा ए / २४१. stoney gombo प्रथम तथा द्वितीय दौरके पत्रकों पर मध्यस्थके साथ प्रथम पक्षके पाँचों प्रतिनिधियोंके हस्ताक्षर पुनश्व --- 'पोदामाज्जार र्शनावरणराय सायाम केवल तपासूत्र अध्याय १० सूत्र +- कोपेडन करते हुए बापने यए मुक्ति दी थी कि मोहनीय कर्म का पाय पसवें गुणस्थान पर में होता और ज्ञातावरणादि तीन कयों का पाय गारहवं गुणस्थानके बन्त में शेना है कि पी सेवत जान भी उत्पति कपन के प्रग में पोस्नीय कर्म के लायकी हेतु रूप से नित किया गया है।' इसका उद्या साधमिदिमा उल्लेख करये हुए भी पृज्यपार पाचार्य के वनों द्वारा दिया गा का है। किन्तु व आपत्ति के विरुद्ध नी 4 वन नी स्वयं इस प्रकार तिशते हैं -- इस अवस्य प्राशि के सो उस में प्रतिबन्ध स्माँ पार किया जाना मावस्या है, पयोंकि उन को पूरा बिना इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं। ३ प्रतिबंधक कर्मचार। ति से पहले मोहलीय जौ का साय होता है। यपि मोहनीय करें या अवस्थाका सीधा प्रतिपय नहीं करता है तथापि इस माप सुस टिना शेष कमाँ का भाव नहीं होता, इसलिये यहस्ते पी वन्य अवस्था का प्रतिबन्पक माना है। इस प्रकार पोहनीयकामाब होचाने के पश्चात अन्तर्त में तीनों माँ का नाश्च होता है भी तब जाकर मदरस्य अषस्था प्राप्त होता है। प्रत. . .१{ ime annon - 2016Y तृतीय दौर के पत्रकों पर प्रथम पक्षके अन्यतम प्रतिनिधि पं० बंशीधरजी व्याकरणाचार्य बीनाके हस्ताक्षर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा इस प्रकार विचार करने पर प्रतीत होता है कि जिनाम सर्वत्र माव पारित्र या निश्चय चारित्र पी ही प्रधानता है, क्योंकि यह माया का साक्षात् हेतु है । उस कोने पर साथ मुकाम गुणस्थान परिटी के अनुसार व्यवहार नारित्र होत होता ही है। उसका निषध नहीं है. परन्तु ज्ञानी की सपा स्वरूप रमण की ष्टि बनी रहती है,इसलिये 7 मार्ग उसली पुस्यता है । पापामार्ग का तात्पर्य ही यह है । इस प्रतिभा प्रसंगवश इसी कारी सम्बन्धित और पी अनेक कार आई है। म परन्तु उन सपका समाधान उक्त कथा से हो जाता है अत: यहा' और विस्तार नहीं किया गया है। अंधलिन १/११/23 maina अग्रीमाती १-११-१२ तीनों दौरोंके पत्रकों पर मध्यस्थके साथ द्वितीय पक्षके तीनों प्रतिनिधियों के हस्ताक्षर k)" मारनप ण मान 'मय... प्रम -:--- ममन्त्रालयली 10 प्रश्नकर्ता और मध्यस्थके हस्ताक्षरोंके साथ ता० २२-१०-६३ की बैठकके अध्यक्षके हस्ताक्षर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शंका-समाधान ३७७-४९६ प्रथम दौर ३७७ शंका ६ और उसका समाधान प्रतिशंका २ प्रति प्रतिशंका ३ द्वितीय दौर ३७८-३८७ रामाधार तृतीय दौर ३८७-४९६ १. कुछ विचारणीय बातें ४. द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणताका निषेध ५. बाह्य सामग्री दूसरे के कार्यका यथार्थ कारण नहीं विषय-सूची प्रतिशंका ३ का समाधान १. व्यवहारनय और उसका विषय २. सम्यक् निश्चयनय और उसका विषय ३. निश्चयन में व्यवहाररूप अर्थ की सापेक्षताका निषेष ३७८-३८३ ३८३-३८० ३७७ ६. वस्त्रार्थस्लोवातिके एस्लेखका तात्पर्य ७. उपचार पदके अर्थका स्पष्टीकरण ८. बन्ध-मोक्षपस्या E. जगतका प्रत्येक परिक्रमानुपाती है १०. परिणायाभिमुख्य पदका अर्थ ११. उपादान सुनिश्चित लक्षण यथार्थ है १२. परमाणु योग्यता माविका विचार ४२९-४६६ ४३० ४३३ ४३५ ४३५ प्रतिशंका ३ ३८७ - ४२८ प्रतिशंका ३ का बनावान ४२७ ४४२ ४४४ ४४५ ४४७ *** ४५६ ४५९ ४६१ ७. शंका-समाधान ४९७-५१८ प्रथम दौर ४९७ ४९९ ४७४ १३. असद्भूत पवारनयका स्पष्टीकरण १४. कुछ विचारणीय बातोंका क्रमश: खुलासा ४९२ शंका ७ और उसका समाधान द्वितीय दौर ४९९-५०२ प्रतिशंका २ प्रतिशंका २ का समाधान ८. तृतीय दौर ५०२-१९८ शंका ८ का समाधान द्वितीय दौर ५२० - ५२६ शंका-समाधान ५१९-५४८ प्रथम दौर ५१२-५२० प्रतिशंका २ प्रतिशंका २ का समाधान तृतीय दौर ५२७-५४८ प्रतियांका प्रतिशंका ३ का समाधान १. केवलो जिनके साथ दिव्यध्वनिका सम्बन्ध २. दिव्यध्वनिको प्रामाणिकता ३. आगमप्रमाणोंका स्पष्टीकरण ४९६-४६९ ४६६ - ५०० ५००- ५०२ शंका है और उसका समाचान ५०२ - ५०६ ५१०-११८ ५१६-४२० ५२०-५२२ ५२३-५२६ ५२७-५३४ ५३४- ५४८ ९. शंका-समाधान ६४९-६०८ प्रथम दौर ५४२-५५१ ५३५ ५.३७ ५४३ ५४९-५५१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा द्वितीय दौर ५५१-५६५ तृतीय दौर ६३६-६५१ प्रतिशंका २ ५५१-५५६ प्रलिशंका ३ १. ज्ञान सफल कब होता है प्रतिशंका का समाधान ६४०-६५१ २. संवर और कर्मनिर्जरा किस तरह १. पर्याय दो ही प्रकार की होती है ६४१ ३. अनन्त बार मुनिव्रत धार ५१७ २. पर्यायोंको द्विविधताका विशेष खुलासा ४. विकारका कारण ३. उपाधिके सम्बन्धम.विशेष. खुलासा ६४७ प्रतिशंका २ का समाधान ५५६-५६५ ४. गाथाओं का अर्थपरिवर्तन तृतीय दौर ५६५-६०८ १२. शंका-समाधान ६५२ प्रतिशंका ३ ५६५-५७७ प्रथम दौर ६५२ प्रतिशंका ३ का समाधान ५७८-६०६ । शंका १२ और उसका समाधान ६५२ १. सपसंहार .५७८ २ प्रतिशंका ३ का समाधान ५७८ १३. शंका-समाधान ६५३-६९१ । ३. असद्भुतम्यवहारनय के विषय में स्पष्टीकरण ५८४ प्रथम दौर ६५३-६५४ ४. कर्मचन्धसे छूटनेका उपाय ५८६ | शंका १३ और उसका समाधान ६५३-६५४ ५. निश्चयसे जीव गादिसे बद्ध है इस द्वितीय दौर ६५४-६६१ तध्यका समर्थन ६. उपचार तथा आरोप पदकी सार्थकता ५९१ | प्रतिशंका २ १. निर्जराका कारण • ६५६ १०. शंका-समाधान ६०९-६३१ . २. उभयभ्रष्टता प्रथम दौर ६०९-६१० ३. निष्कर्ष शंका १० और उसका समाधान ६०६-६१० प्रतिशंका २ का समाधान ६६०-६६१ द्वितीय दौर ६१५-६१३ तृतीय दौर ६६२-६९१ प्रतिशंका ३ प्रतिशंका २ ६१०-६१२ ६६१-६७१ प्रतिशका ३ का समाधान ६७२-६६१ प्रतिशंका २ का समाधान तृतीय दौर ६१४-६३१ १. सारांश २. अतिशंका ३ के आधारसे विचार प्रसिशंका ३ . प्रतिशंका ३ का समाधान ३. अन्य कतिपय प्रश्नोंका समाधान ६२१-६३१ ६८६ ११. शंका-समाधान ६३२-६५१ १४. शंका-समाधान ६९२-६९८ प्रथम दौर ६३२ प्रथम दौर ६९२ शंका ११ और उसका समाधान | शंका १४ और उसका समाधान ६६२ द्वितीय दौर ६३३-६३६ द्वितीय दौर ६९३-६२४ प्रतिशंका २ ६३३-६३५ | पत्तिशंका २ प्रतिशंका २ का समाधान ६३५-६३६ | प्रतिशंका २ का समाधान ६५६ ६७२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०१ विषयसूची तृतीय दौर ६९४-६९८ ८. जीव परतन्त्र क्यों है इसका सांगोपांग प्रतिशंका ३ विचार प्रतिशंका ३ का समाधान | १. समग्र आईनप्रवचन प्रमाण है ७७५ १०. व्यवहार वन, तप आदि मोक्षके साक्षात् १५. शंका-समाधान ६९९-७११ साधक नहीं ७७८ प्रथम दौर ६९९ ११. प्रकृस में जान पदका अर्थ शंका १५ और उसका समाधान १२, सम्मयत्य प्राप्तिके उत्कृष्ट कालका विचार ७८२ द्वितीय दौर ६९९-७०२ १३. प्रतिनियत कार्य प्रतिनियत कालमें ही प्रतिशंका २ ६६९-७०१ होता है ७८८ प्रतिशंका २ का समाधान ७०१-७०२ १४. प्रकृतमें विििात आलम्बनके ग्रहण त्यागतृतीय दौर ७०२-७११ का तात्पर्य ७८८ प्रतिशंका ३ हामा सुनाता ७०२-७०५ ७८६ प्रतिशंका ३ का समाधान ७०६-७११ १६. माध्य-साधनविचार १७. उपयोग विचार ७९५ १६. शंका-समाधान ७१२-८०६ १८. समरामार गाया २७२ का भाशय प्रथम दौर ७१२-७१६ १७. शंका-समाधान ८०७-८४६ दांका १६ और उसका समाधान ७१२-७१६ द्वितीय दौर ७१६-७३२ . प्रथम दौर ८०७-८०८ प्रतिशंका २ शंका १७ और उसका ममाधान ७१६-७२३ २०७-८०८ प्रतिशंका २ का समाधान ७२-७३२ द्वितीय दौर ८०८-८१४ तृतीय दौर ७३२-८०६ प्रतिशंका २ ८०८-८१२ प्रतिशंका ३ ६३२-७५३ प्रतिशंका २ का समाधान ८१२-८१४ १. निश्चय एकान्त कथन ७५२ तृतीय दौर ८१५-८४६ प्रतिशंका ३ का समाधान ७५३-८०६ | प्रतिशंका ३ ८१५-२६ १. प्रथम द्वितीय दोरका उपसंहार ७५३ प्रतिशंका ३ का समाधान ८२६-८४६ २. दो प्रश्न और उनका समाधान १, पुनः स्पष्टीकरण ८३० ३. निश्चय और व्यवहारनयके विषय में २. व्यवहारपरके विषय में विशेष स्पष्टीकरण ८३. स्पष्ट खुलासा ३. 'मुख्यामा इत्यादि वचन का स्पष्टीकरण ८३३ ४. समयसार गाया १४३ का यथार्थ तात्पर्य ७६२ ।। ४. 'बंधे न मोक्खहे' गायाका अर्थ ८३४ ५. विविध विषयों का स्पष्टीकरण ५. तत्त्वाश्लोकवातिकके एक प्रमाणका ६. बन्ध और मोक्षका नयदृष्टिसे विचार स्पष्टीकरण ८३५ ७. एकान्तका आग्रह ठीक नहीं अपर पक्षसे निवेदन ०४५ our and ७७० । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर : १ ; शंका ६ उपादानकी कार्यरूप परिणति में निमित्त कारण सहायक होता है या नहीं ? समाधान १ प्रकृत में निमित्तकारण और सहायक इन दोनोंका अभिप्राय एक ही है। इसलिये उपादान. की कार्यरूप परिणति में अन्य द्रव्यको विविक्षित पर्याय सहायक होता है यह कहने पर उसका तात्पर्य यहो है कि उपादानकी कार्यरूप परिणति में अन्य द्रव्यको विविक्षित पर्याय निमित्त कारण होती है । परन्तु यहां पर यह स्पष्टरूप से समझाना चाहिये कि उनकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रवकी वित्रिति पर्यायको आगम में जो निमित्त कारण स्वीकार किया है की यह वहाँ पर व्यवहारनयकी अपेक्षा ही स्वीकार किया है, निश्चयनयकी ( पर्यायार्थिक निश्चयनयकी ) अपेक्षा नहीं। इसी अभिप्रायको विस्तार के साथ विवेचन द्वारा स्पष्ट करते हुए अन्त में निष्कर्षरूप में श्री तत्त्वार्थवलोकवतिक में इन शब्दों में स्वीकार किया है— कथमपि तनिश्चयनयात् सर्वस्य विस्त्रसोत्पादव्ययधौन्यव्यवस्थितेः । व्यवहारनयादेव उत्पादादीनां सहेतुकश्यप्रतीतेः । -अ० ५, सू० १६, ४०४१० किसी भी प्रकार सब द्रक्योंके उत्पाद, व्यय और श्रव्यकी व्यवस्था निश्चयनयसे वित्रता है, व्यवहार नसे ही उत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते हैं। यहाँ पर 'सहेतुकत्वप्रतीतेः' पदमें 'प्रतीतेः' पद ध्यान देने योग्य है । ४८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय दौर शंका ६ उपादानकी कार्यरूप परिण तिमें निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ? प्रतिशंका २ विचारणीय तत्त्व यह है कि क्या उपादानको कार्यरूप परतिमें निमित्त कारण सहायक होता है या नहीं अर्थात् कार्यकी उत्पत्ति सामग्री से अर्थात् उपादान और निमित्त कारणोंसे होती है या वेवल नपादान कारणसे । कहीं-कहीं जैनाचार्याने अन्तरंग बारणा और बहिरंग कारणका भी उल्लेख किया है। अन्तरंग कारणसे तात्पर्य काययोग्य द्रव्यशक्तिसे है तथा बहिरंगसे मतलब बलाधान में सहायकसे है। इन्हीं को उपादान और निमित्त कारण भी कहते है। जन-जन जना न्याना में अमी है सब-जन निमित्तको सहायतासे ही आती है। जैसे जब-जरे हम देखते हैं अर्थात् हमारी लब्धिरूप चेतना उपयोगरूप होती है तब यह कार्य नेन्द्रियकी सहायतासे ही होता है। यदि इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या करें तो कहना होगा कि किसी भी वस्तुको देखते समय उस वस्तुवा उल्टा फोटू हमागे पुतली ( रेवटीना ) पर पड़ता है और इसमें जो हलन-चलन होता है, उससे हमारी सुसुप्त चेतना जागती है और उम पदार्थको जानती है । यहाँ दो प्रकारके परिणमन होते है-एक भौतिक और दूसरे मानसिक ( आत्मिक )1 पृतली पर. अक्स उसका भौतिक परिणमन है और उसके बादका अनुकम्पन और जानना मासिक ( आत्मिक) परिणमन है । यदि भौतिक परिणमन म होने तो तीन कालमें भी आत्मिक परिणमन अर्थात चेतना लब्धिसे उपयोगरूप में नहीं आयेगी | इस ही को बलापान निमित्त कहते हैं। महर्षि पूज्यपादने उपयोगका लक्षण निम्न प्रकार लिखा हैउमयनिमित्तवशावुत्पथमानश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । - सर्वा० सि. २.८ महषि अकलंकने भी लिखा हैबायाभ्यन्तरहेतुद्वयसन्निधाने यथासम्भवमुपलब्धचैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोगः । -तत्वार्थरा०३८ इसी प्रकार क्रियाका लक्षण करते हुए महर्षि अकलंबने लिखा हैउमयनिमिसापक्षः पर्यायविशेषो द्वन्यस्य देशान्तरमाप्तिहनुः क्रिया । अभ्यन्तर क्रियापरिणामशमियुक्त द्रव्यं । श्राह्यच नोदनामिघातायपंश्योत्पद्यमानः पर्यायविशेष: म्यस्य देशान्तरप्राप्तिहतुः क्रियेप्युपदिश्यते । --तरवा. वा०५-७ इस विधेचनसे स्पष्ट है कि पदार्थमें क्रियाकी शक्ति है और वह रहेगी, किन्तु पदार्थ क्रिया तब हो करेगा जब बहिरंग कारण मिलेंगे, जब तक बहिरंग कारण नहीं मिलेंगे वह क्रिया नहीं कर सकता, अर्थात् Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ३७९ उसकी शक्ति व्यक्तिरूपमें नहीं आ सकती, जिसके द्वारा शक्ति व्यक्तिरूपमें आती है या जिसके बिना शक्ति व्यक्तिरूपमें नहीं आ सकती वहो बहिरंग कारण या निमित्त कारण है या वहो बलाधान निमित्त है। यह ठीक है कि लोहा हो धड़ी के पुर्जीकी शक्ल धारण करता है। यह भी ठीक है कि लकड़ी या लोहा ही विविध प्रकारके फर्नीचरके रूप में परिणत होते हैं । यह भी ठीक है कि मेटोरियलसे ही मकानका निर्माण होता है । यह भी ठीक है कि विविध प्रकारके रसायनिक पदार्थों में ही विभिन्न प्रकारके अणु वम आदि छनते है, किन्तु ये बस्तुएं जिन मनुष्यों या कलाकारोंके द्वारा विभिन्न रूपको धारण करती है, यदि वे न होवें तो वैसा नहीं हो सकता, मनुष्य या कलाकार हो उनको उन उन रूपों में लाने में सहायक होते है यही उनका बलाधान निमित्तत्व है । कलाकारका अर्थ हो यह है कि वह उसको सुन्दर रूप देवे । यह कार्य मनुष्यसे और केवल मनुष्यसे ही सम्भव है। जहाँ तवा मेटोरियलको बात है वह तो सुन्दर और भद्दी दोनों ही प्रकार की वस्तुओं में समानरूपसे रहता है। घड़ियों के मूल्योंमें तरल मला लोहे की बात नहीं है, किन्तु मुख्यता निर्माता कलाकारकी है। प्राचीन नाटय साहित्यकार भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्र में रसका लक्षण करते हुए लिखा है किविभावानुभावव्यभिचारिसंयोग्गद् रसनिष्पत्तिः । इसरो स्पष्ट है कि मानव हृदयमै विभिन्न प्रकारके रसोंकी उत्पत्ति ही बहिरंग साधनों की देन है। यदि कभी सिनेमा देखनेवालेसे पूछा जाय कि खेल कैसा था ता वह जो उत्तर देगा वह विचारणीय है। इसी प्रकार आत्मीय जनकी मृत कामका देखना, बाजारोंम घूमते हा सुन्दर सुन्दर पदार्थों को देखना आदि ध्यावहारिक वाहनपर गौर विचार असा है। मानमार्न जो कुछ भी सुनने या देखने में आता है वह व्यर्थ है या वही देखनेवालेके हृदयों को प्रफुल्लित करने में सहायक होता है? आत्मीय जनको मत कायाको देखना भ्यर्थ है और जो शोक हुआ है या शोकके उत्पन्न करने में बह सहायक है। यही बात बाजीह चीजोंके सम्बन्धम चिन्तनीय है। जैन तत्त्वज्ञानका विद्यार्थी यदि ज्ञान और ज्ञेयके रूप पर तथा विषय ओर कषायके रूप पर विचार करेगा तब उसको -मालम होगा कि यह पर पदार्थ ही केवल को ज्ञेय न रह कर विषय बन जाता है और आत्मामें कषाय उत्पन्न करा देता है, ऐसी स्थिति में भी आश्चर्य है कि हमारे आध्यात्मिक महापुरुषों का ध्यान इसकी तरफ नहीं जा रहा है। इस विषय में महर्षि समन्तभद्र, अकलंक ओर विद्यानन्दकी मान्यताएं मनन करने योग्य है दोषावरणयोहामिनिइशेषारत्यतिशायनात । क्वचिग्रथा स्वहेतुम्यो बहिरन्समलक्षयः ॥४।। इस कारिकाके द्वारा स्वामी समन्तभद्र कहते है कि किसी मात्मामें दोष ( अज्ञानादि विभावभाव) तथा आवरण ( पुदगल कर्म ) दोनोंका अभाव ( स ) रूपसे पाया जाता है, क्योंकि उनके हानिक्रममें पतिशय (उत्तरोत्तर अधिक ) हानि पाई जाती है। जो गुणस्थानों के क्रमसे मिलती है। जैसे सुवर्णमें अग्निके तीव्र पाकद्वारा कोट व कालिमा अधिक अधिक जलती है तो वह सोना पूर्ण शुस हो जाता है । कारिकाको व्याख्या लिखते हुए इशंकाकी गई है कि आवरणसे भिन्न दोष और क्या वस्तु है ? बोषको आवरण ही मान लिया जाये तो क्या हानि है? सब अकलंकदेव उसका समाधान करते हुए लिखते हैं Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૦ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा नसामर्थ्यादिज्ञानादिर्दोषः स्वपस्परिणामहेतुः अष्टवती पृ० ४१ कारिकामे आचार्यते 'दोषावरणयो:' ऐसा द्विवचन दिया है, जिससे आवरण पौद्गलिक कर्मसे भिन्न ही अज्ञानादि विभाव दोष पद वाच्य जो कि स्वजीवके परिणाम तथा परन्पुद्गलके परिणामरूप दोनों परिणामसे जन्य है । इसी भावको विशद करते हुए श्री विद्यानन्द स्वामी लिखते हैं- न हि शेष एव आवरणमिति प्रतिपादने कारिकायां दोषावरणयोरिति द्विवचनं समर्थम् । ततस्तत्त् सामर्थ्यात् आवरणात्पौद्गलिकज्ञानावरणादिकर्मणां भिन्न एवाज्ञानादिदोषोऽम्यते, सद्धेतुः पुनरावरणं कर्म जीवस्य पूर्वस्वपरिणामश्च । अर्थ — दोन ही आवरण हैं ऐसा अभिप्राय कारिका में दिये हुए विवेचनसे नहीं हो सकता। इसलिये आवरण पृद्गल कर्मसे भिन्न जोवगत कुज्ञानादि विभाव ही दोय मानना चाहिये। तथा उसके हेतु आवरण कर्म पर कारण जीवसे भिन्न है तथा जीवका पूर्व परिणाम भी जनक है यह स्वकारण है | उपरोक्त भाष्य में अकलंकदेवने स्वयं निमित्त कारण ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मको निमित्त कारण पर शब्द तथा स्व शब्दसे पूर्व पर्यायविशिष्ट जोवको उपादान कारणरूपसे उल्लेख किया है । यही अभिप्राय विद्यानन्दने स्वरचित अष्टसहस्री में 'तद्धेतुः पुनरावरणं कर्म पूर्वस्वपरिणामश्च' इस वाक्य से विदा किया। है । महर्षि कुन्दकुन्द ने भी इसी बात का समर्थन समयसार में किया है— जीवपरिणाम हेतु कम्मन्तं पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्तं तच जीवो चि परिणम ॥ ८०॥ अर्थात् पुद्गल जोबके परिणामके निमित्त से कर्मरूपमें परिणमित्त होते हैं, तथा जोन भी गुद्गल कर्मके निमित्त से परिणमन करता है । इसी का विस्तृत विवेचन स्वयं महर्षि कुन्दकुन्दने ही आगे चलकर किया है सम्म पडिणिबद्धं मिच्छतं जिणचरेहि परिकहियं । तस्सोदर्येण जीवो मिध्यादिट्टि सि गायत्री ॥ १६१॥ पारस पडिणिबद्ध अण्णाणं जिणवरंहि परिकहियं । तरसोदयेण जीवी अण्णाणी होदि णायस्त्री ॥ १६२ ॥ चारितपखिणि कसायं जिणवेरहि परिकहियं । सस्सादयेण जीवो अवरितो होदि णायच्वो ॥ १६३ ॥ अर्थात् सम्यक्त्व को रोकनेवाला मिथ्यात्व है ऐसा जिनवरोंने कहा है, उसके उदयसे जीव मिश्रश्रादृष्टि होता है ऐसा जानना चाहिये । ज्ञानको रोकनेवाला अज्ञान है ऐसा जिनवरोंने कहा है उसके उदयसे जीव अज्ञानी होता है ऐसा जानना चाहिये | चारित्रको रोकनेवाला कषाय है ऐसा जिनवरने कहा है उसके उदयसे जीव अचारित्रवान् होता है ऐसा जानना चाहिये । मिध्यात्व, अज्ञान और कषाय ये तीनों पीद्गलिक हैं। यदि इनको पौगलिक न माना जायेगा तो फिर कार्यकारणभाव नहीं बन सकेगा । आचार्य अमृतचन्द्र सूरिने भी इसी बात को स्वीकार किया है— Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ३८१ सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकं किल मिथ्यात्वम्; तत्तु स्वयं कमैत्र । तदुदयादेव ज्ञानस्य मिथ्यादृष्टित्वम् । ज्ञानस्य मोनहतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकमज्ञानत्वम्, सत्तु स्वयं कमैंव । तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानस्वम् । स्थारिग्रस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबन्धकः किल कषायः, तत्तु स्वयं कर्मव । तदुदयादेव ज्ञानस्याचारित्रत्वम् । अतः स्वयं मोशांतिधायिभावपाका विनिमय -समयसार टीका पृ० २४६ इसी प्रकार समयसारको बन्ध अधिकारको गाथा २७८-२७१ भी इस विषय में मनन करने योग्य है जह फलिहमणी सुद्धो ण सग्रं परिणमद रायमाईहिं । रंगिजदि अण्णोहिं दु सो रसादीहि दबेहि ॥२७८।। एवं गाणी सुद्धी ण सयं परिणमह रायमाईहिं । राइदि अगणेहिं तु सो रागादीहिं दोसेहिं ॥२७९।। अर्थात-जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होनेसे रागादिकरूपसे ( ललाई आदि हासे ) अपने आप परिणमता नहीं है, परन्तु अन्य रक्तादि द्रव्योंसे वह रक्त ( लाल ) आदि किया जाता है। इसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् आत्मा शुद्ध होनेसे रागादिरूप अपने आप परिणमता नहीं है, परन्तु अन्य रागादि दोषोंसे रह रागी नादि किया जाता है ॥२७८-२७६।। मदि अभ्युपगम सिद्धान्तसे श्री पं० फूलचन्द्रजीकी बातको मान लिया जाय कि कार्य केबल उपादानसे ही होता है और निमित्त केवल उपस्थित ही रहता है तब भी विचारणीय यह हो जाता है कि वह निमित्त कैसे बन गया। उपस्थित तो उस समय उसी तरह अन्य पदार्थ भी है और फिर यही निगित्त है और वे पदार्थ निमित्त नहीं है इस में क्या नियामक है। १. श्री पं० फूलचन्द्रजी कुछ भी कहें, किन्तु उनको उसके समर्थन में प्रमाण तो उपस्थित करना ही होगा। यदि उनकी ऐसी ही मान्यता है कि निमित कारण केवल उपस्थित ही रहता है और उपादानको उपादेयल्प होने में या शक्तिको व्यक्तिरूप होने में कुछ व्यापार नहीं करता, ऐसी स्थितिमें उनकी मान्यता एक विवादस्य बात हो जाती है। और इसके समर्थन में प्रमाण उपस्थित करना ही चाहियं । २. दूसरी बात यह है कि एसो परिस्थितिमें अथान्त उपादान और निमित्तकी परम्पराओंको परस्परम असम्बन्धित मानने पर बन्धादि तस्त्रोंको व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। आचार्य श्री अमूलचन्द्र सुरिने भी ऐसा ही स्वीकार किया हैतथान्तरल्या ज्ञानको भावी जीवो जीवस्य विकारहेनुरजीवः । -समयसार गा० १३ स्वयमेकस्य पुपय पापानव-संबर-निर्जरा-बन्ध-मोक्षानुपप से। -समयसार या० १३ अपति भीतरी दृष्टिसे देखा जाये तो ज्ञायक भाव जीव तत्व है, जीवके यिकारका हेतु मजीव पुद्गल है । क्योंकि अकेले जीव तत्त्वक पुण्य-पापादि, आस्रवरूपता, संवरपना, निर्जरा और बन्ध व मोक्ष नहीं हो सकते। ३. तीसरी बात यह है कि असंख्यातप्रदेशो जीवमें शरीर परिमाणके छोटे बड़े होनेसे आकारमें छोटा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा बड़ापन माना है। यदि जीवको शरीरके प्रभादसे रहित माना जायगा तब यह बात भी नहीं बन सकेगी। और इस प्रकार आगमका विरोध होगा । ४. चौथी बात यह है कि इस प्रकार कर्मफलकी व्यवस्था भी समाप्त हो जायेगी । यदि विभावसे कर्मबन्ध और कर्मादयसे विभाव नहीं मानेंगे तो कर्मफलको व्यवस्था नहीं बन सकेगी। जिप विभावको हम कर्म कहते हैं बह तो निमित्त मात्र है तथा कर्मबन्ध केवल जराके उपादान कर्मपरमाणु ओंका कार्य है । इसी प्रकार जब कर्मोदय होता है वह भी निमित्त है और उस समय आत्मामें होनेवाला विभाष क्रेवल उपादानका ही कार्य है, तब यह कसे वहा जा सकता है कि अमुक-अमुक कमका अमुक फल है। यह तो परस्पर सम्बन्ध व्यवस्था ही सम्भव हो सकता है। ५. पांबनी बात यह है कि केवल उपस्थित रहनेवाले निमित्त कारण तथा पापार करनेवाले निमित्त कारण में परस्पर में विरोव मो है। निमित्तकारण यदि व्यापार करता है या प्रेरक है तब तो केवल उपस्थितिमूलक नहीं माना जा सकता। यदि निमित्त कारण उपस्थितिमूलक है तो उसको प्रेरक वा व्यापारमूलक नहीं माना जा म+ता है । जहा तक निमित्त कारणको प्रेरकताका सम्बन्ध है उसकी विस्तारसे चर्चा की जा चुकी है । और उसके समर्थन में अनेक सहयोन मार लि का बुरे है। ऐसी स्थितिम केवल उपस्थितिमूलक कारण माननेको कल्पनाको भी स्थान नहीं रह जाता। श्री पं० फूलचन्द्र जोने भी अपनी जैन तत्त्वमीमांसामें इसको स्वीकार किया है। इससे विदित होता है कि लोक धर्मादि द्रव्यों से विलक्षण प्रेरक निमित्त कारण भी होते हैं। सर्वार्थसिद्धिका वह उल्लेख इस प्रकार हैतुल्यबलत्वासयोगति स्थितिप्रतिबन्ध इति चेत् ? न, अप्रेरकन्वात् । -तत्वा० अ०५, सू. १७ द्रव्य वचन पौद्गलिक क्यों है. इसका समाधान करते हुए बतलाया गया है कि 'भाववचनरूप सामयंसे युक्त क्रियावान आत्माके द्वारा प्रेर्यमाण पुदगल द्रव्यवचनरू से परिशमन करते हैं, इसलिये द्रव्यवचन पौद्गलिक है।' इम उल्लेख में साष्टरूपरो प्रेरक निमित्तताको स्वीकार किया गया है। इससे भी प्रेरक निमित्तको सिद्ध होती है। उल्लेख इस प्रकार है तन्सामोपतेन क्रियात्रतात्मना प्रेयमाणाः पुद्गला वाफ्स्वेन विपरिणमन्त इनि व्यवागपि पौद्गलिकी। -त. सू. अ.", सू. १९ तत्त्रार्थवातिकमें भी यह विवेचन इसी प्रकार किया है। इसके लिये देखो अध्याय ५, सू०१७ और १९ । इसी प्रकार पंचास्तिकायकी (गा०८५८८ जयसेनीया टीका) संस्कृत टीका और बहद्दव्यसंग्रहमें ( मा० १७ व २२ सं० टी.) भी ऐसे उल्लेख मिलते हैं जो उक्त कथनको पुष्टि के लिये पर्याप्त है। उपर्युक्त विवंचनसे स्पष्ट है कि अन्तरंग कारण या उपादान कारण या द्रव्य को शक्ति कार्यरूप मा व्यक्तिरूप निमित्त कारणके व्यापारके बिना नहीं हो सकती। और इसीलिये आघायौंने निमित्त कारणको बलापान निमित्त स्वीकार किया है। ऐसी स्थितिम यह कहना कि कार्यकी उत्पत्ति केवल उपादान कारणसे ही होती हैं या निमित्त कारण बल उपस्थित ही रहता है, शास्त्रीय मान्यताके विपरीत है। इसी वर्चाको यदि दार्शनिकरूपमें लिखा जाय तो यों लिखना चाहिये Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ३८३ १. केवल उपादान कारणले ही कार्य होता है यह मिथ्या है, क्योंकि इसके समर्थनमें शास्त्रीय प्रमाणोंका अभाव है। २. फार्यवे समय केयल उपस्थितिमात्रसे कोई निमित्त कारण हो सकता है यह मिथ्या है, क्योंकि इसके समर्थनमैं शास्त्रीय प्रमाणोंका अभाव है। ३. कार्यको उत्पत्ति सामग्रीसे ही अर्थात् उपादान और निमित्त कारणस ही होती है, यह समीचीन है, पयोंकि शास्त्र इसका समर्थन करते हैं। - मूलशंका ६ उपादनकी कार्यरूप परिणतिमें निमित्त कारण सहायक है या नहीं ? प्रतिशंका २ का समाधान सगाधान-इस शंका उत्तर में यह बतलाया गया था कि जब उपादान कार्यरूपसे परिणत होता है तब उसके अनुकूल विवक्षित दन्यकी पर्याय निमित्त होती है। इसकी पुष्टि में श्लोकवातिकका पुष्ट प्रमाण उपस्थित किया गया था, जिसमें बतलाया गया था कि 'निश्चयनयसे देखा जाए तो प्रत्येक कार्यको उत्पत्ति विरसा होती है और व्यवहार नयसे विचार करने पर उत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते हैं।' किन्तु इस आगम प्रमाणको ध्यानमें न रख कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि कार्यकी उत्पत्ति निमित्तसे होती है । उपादन जो कार्यका मूल हेतु ( मुख्य हेतु-निश्चय हेतु ) है उसको गोण कर दिया गया है। भागममें प्रमाण दृष्टिसे विचार करते हुए सर्वत्र कार्यको उत्पत्ति उभय निमित्तसे बतलाई गई है। आगममें ऐसा एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि उपादान ( निश्चय ) हेतुके अभाव में केवल निमित्त के बलसे कार्यको उत्पत्ति हो जाती है। पता नहीं, जव जैसे निमित मिलते है तब वैसा कार्य होता है, ऐसे कथन में निमित्तकी प्रधानतासे कार्यको उत्पत्ति मानने पर उपादानका क्या अर्थ किया जाता है। कार्य उपत्तिमे केवल इतना मान लेना ही पर्याप्त नहीं है कि गेहुँसे ही गहुँके अंकुर आदिको उत्पत्ति होती है । प्रश्न यह है कि अपनी विवक्षित उपादानकी भूमिका को प्राप्त हुए बिना कै.वल निमित्तके वलसे ही कोई गहं अंकुरादिपस परिणत हो जाता है या जब गेहूं अपनी विवक्षित उपादानको भूमिकाको प्राप्त होता है तभी वह गेहुँके अंकुरादिरूपसे परिणत होता है । आचार्योने तो यह स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया जब कोई भी द्रव्य अपने विवक्षित कार्यके सन्मख होता है तभी अनकल अन्य द्रव्यों को पर्याय उसकी उत्पत्ति निमित्तमात्र होती है। निष्क्रिय द्रव्योंमें क्रिया के बिना, और सक्रिय द्रव्यों में क्रियाके माध्यम बिना जो दव्य अपनी पर्यायां द्वारा निमित होती है वहां तो इस सथ्यको स्वीकार हो किया गया है, किन्तु जो द्रव्य अपनी पर्यायों द्वारा क्रिमाके माध्यमसे निमित्त होती है वहाँ भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है। श्री राजवासिकजीमें कहा है--- यथा मृदः स्वयमन्तर्घटनधनपरिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र-पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति । - - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा यत: सत्स्वपि दण्डादिनिमितेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तघंटभवनपरिणामनिरुत्सुत्बाश्च वटीमवति, अतो मृपिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तसापेक्ष अभ्यन्सरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादयः इति दण्डादीनां सिमिसात्वन : अर्थ-जैसे मिट्टी के स्वयं भीतरसे घटके होने रूप परिणामके सन्मुख होनेपर दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते है, क्योंकि दण्डादि निमित्तोंके रहने पर भी बालकाबहुल मिट्टी का पिर स्वयं भीतर से घटके होनेरूप परिणाम ( पर्याय ) से निरुत्सुक होनेके (घट पर्याय रूप परिणमनके सन्मुख न होने के ) कारण घट नहीं होता, अत: बाह्य में दण्डादि निमित्त सापेश मिट्टीका पिण्ड ही भीतर घट होनेरूप परिणामका सानिध्य होनेसे घट होता है, दण्डादि घट नहीं होते, इमलिए दण्डादि निमित्तमात्र हैं। यह प्रेरक निमित्तोंकी निमित्तताका स्पष्टीकरण है। इस उल्लेख में बहुत हो समर्थ शब्दों वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि न तो सब प्रकारको मिट्टी ही घटका उपादान है और न हो पिण्ड, स्थास, कोश और कुसुलादि पर्यायोंको अवस्थारूपसे परिणत मिट्टो घटका उपादान है, किन्तु जो मिट्टी अनन्तर समयमें घट पाययरूपसे परिणत होनेवाली है मात्र वही मिट्टो घटपर्यापका उपादान है। यही तथ्य राजवातिकके उक्त उल्लेख्य द्वारा स्पष्ट किया गया है। मिट्टीवी ऐसी अवस्थाके प्राप्त होने पर वह नियमसे घटका उगाधान बनती है। यही कारण है कि तत्वार्थवातिकके उक्त उल्लेख द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जब मिठो घट पर्यापके परिणमनके सम्मुख होता है तब दण्ड, चक्र और पौरुषेष प्रयत्नको निमित्तता स्वीकृत की गई है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किए गये हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड में लिखा है कि ग्राहकप्रमाणाभावाच्छक्तेरभाषः अतीन्द्रियत्वादा? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः, कार्यान्यथानुपपत्तिजनितानुमानस्यैव सग्राहकस्वात् । ननु सामन्यधीनोन्पत्तिकत्वाप्त कार्याणां कथं तदन्यथानुपपत्तिः यतोऽनुमानात्तस्मिद्धिः स्यात् इत्यसमीचीनम् , यतो नास्माभिः सामयाः कार्यकारिवं प्रतिविध्यते। किन्तु प्रतिनियतामा सामध्याः प्रतिनियतकार्यकारित्वं अतीन्द्रियशक्तिसद्भावमन्तरेणासम्भाग्यमित्यसाचप्यभ्युपगन्तव्या। -प्रमयक्रमलमार्तण्ड २,२, पृ० १९७ अर्थ-ज्या ग्राहक प्रमाणका अभाव होनेसे शक्तिका अभाव है या अतीन्द्रियपना होनेसे ? इसमेसे प्रथम पक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि कार्योको उत्पत्ति अन्यथा नहीं हो सकती इस हेतुसे अनित अनुमान हो उसका ( कार्यकारिणी शक्तिका ) ग्राहक है । शंका-कार्योंकी उत्पत्ति सामग्नीके अधीन होनेसे शक्तिके अभाव जो कार्योंकी उत्पत्तिका अभाव स्वीकार किया है वह कैसे बन सकता है, जिससे कि अनुमान द्वारा शक्तिको सिद्धि की जा सके ? समाधान-यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम सामग्रीफे कार्यकारीफ्नका निषेध नहीं करते, किन्नु अत्तीन्द्रिय शक्तिके सद्भावके बिना प्रतिनियत सामग्रीसे प्रतिनियत कार्यको उत्पत्ति असम्भव है, इसलिए अतीन्द्रिय शक्तिको भो स्वीकार करना चाहिए। यहाँ प्रश्न होता है कि वह अतीन्द्रिय शक्ति क्या है जिसके सद्भाव में ही कार्योंकी उत्पत्ति होती है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए वहाँ पुनः लिखा है Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान अच्चोच्यते-शक्तिनित्याऽमिस्या येत्यादि । तत्र किमयं द्रव्यशको पर्याय वा प्रश्नः स्यात्, भावानां वन्य-पर्यायशक्तवारमकवान् । तत्र ग्यशक्लिनिस्यैव, अनादिनिधनस्वभावाद अन्यस्य । पर्यायशक्तिस्वनित्यैव, सादिपर्यवसानरबास पर्यायाणाम् । न च शनि स्यस्वे सहकारिकारणानपेक्षयवार्थस्य कार्यकारिस्थानुषंगः, द्रव्यशक्तः केवलायाः कार्यकारिवानभ्युपगमात । पर्यायशक्तिसमन्विता हि द्रव्यशक्कि कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैष द्रव्यस्य कार्यकारिरवप्रातः । तत्परिणतिश्चास्य सहकारिकारणापेक्षया इति पर्यायशास्तदैव भावाम सर्वदा कार्योत्पमित्र संगः सहकारिकारणापेक्षावग्रयं वा। -प्रमेयकमलमातण्ड २, पृ० १४७ और जो यह कहा जाता है कि शक्ति नित्य है कि अनित्य है इत्यादि । सो यहाँ था यह द्रव्यक्ति या पर्यायशक्ति के विषय में प्रश्न है, क्योंकि पदार्थ प-पर्याय शक्तिस्वरूप होते हैं। उनमें से द्रव्यशक्ति नित्य ही है, क्योंकि द्रव्य अनादिनिधन स्वभाववाला होता है। पर्यायशक्ति तो अनित्य ही है, क्योंकि पर्वाय सादिसान्त होती है। यदि कहा जा सक्सि विप है, इसलि सहकारी कारणों की अपेक्षा किये बिना ही कार्यकारीपनेका प्रसंग आ जाएमा सो ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल द्रव्यशक्तिका कार्यकारीपना नहीं रोकार किया गया है। किन्तु पर्यायशक्तिसे यक्त भ्रमशक्ति कार्य करने में समर्थ होतो है, नयोंकि विशिष्ट पर्यायसे परिणत द्रम्पका ही कार्यकारीपना प्रतीत होता है और उसकी परिणति सहकारी कारणसापेक्ष होती है, क्योंकि पर्यायशक्ति तभी होती है, इसलिए न तो सर्वदा कार्यकी उत्पत्तिका प्रसंग आता है और न ही सहकारी कारणोंको अपेक्षाको व्यर्थता प्राप्त होती है। इरा प्रकार यह ज्ञात हो जाने पर कि सहकारी कारण सापेन विशिष्ट पर्यायशसि से युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारिणी मानी गई है, केवल उदासोन या प्रेरक निमित्तों के बलपर मात्र द्रव्यशक्तिसे हो त्यो कार्य नहीं होगा ! यदि द्रव्यशक्तिको बाह्य निमित्तोंके बलसे कार्यकारी मान लिया जाए तो उनसे भी गेहको उत्पत्ति होने लगे, क्योंकि गेहूँ स्वयं द्रव्य नहीं है, किन्तु यह पुद्गलाको एक पर्याय है, अतएव गेहूँ पर्याय विशिष्ट पुद्गलद्रव्य बाह्य कारणसापेक्ष गेहूक अंकुगदि कार्यरूपसे परिणत होता है। यदि विशिष्ट पर्यायरहित दन्य सामान्यसे निमित्तोंके बल पर गेहूँ अंकुरादि पर्यावोंकी उत्पत्ति मान ली जाए तो जो पुद्गल चनारूप है वे पुद्गल होनेसे उनसे भी गहरूप पर्यायको उत्पत्ति होने लगेगी, इसलिए ओ विविध लौकिक प्रमाण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया जाता है कि जब जैसे प्रबल निमित्त मिलते हैं तब द्रश्यको निमितोंके अनुसार परिणमना ही पड़ता है सो यह कथन आगमानुकूल न होनेसे संगत नहीं प्रतीत होता । वास्तवमें मुख्य विवाद उपादानका है. उनका जो समीचीन अर्थ शास्त्रों में दिया है उस पर सम्यक दृष्टिपात न करनेसे ही यह विवाद बना हुआ है । यदि आगमानुसार विशिष्ट पर्यायशक्तियक्त द्रव्यशक्तिको अन्तरंग .कारण अर्थात उपादान कारण स्वीकार कर कार्य-कारणको आवस्था की जाए तो कोई विवाद हो न रह जाए, क्योंकि यथार्थ जब-जब विवक्षित कार्यके योग्य विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशक्ति होती है तब-तब उस कार्यके अनुकूल निमित्त मिलते ही है। कार्यम उपादानकारण मुख्य है, इसलिए उपादानकारणका स्थकाल प्राप्त होने पर कार्यके अनुकुल निमित्त मिलते ही है ऐसा नियम है और ऐसा है नहीं कि निश्चय उपादान हो और निमिस न मिलें । इसी बातको असद्भूत व्यवहार नयकी अपेक्षा यों कहा जाता है कि जब जैसे निमित्त मिलते है तब वैसा कार्य होता है । निमित्त कारणको कार्यकारी कहना असदभूत व्यवहार नयका विषय है यह हमारा ही कहना हो ऐसा नहीं है, किन्तु आगममें इसे इसी रूपमें स्वीकार किया गया है । यथा-- vie .-"--- -- - -- Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा अनुपचरितास तव्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणां आदिशब्देनौदारिफयक्रियिकाहारकारीरत्रयाहारादिषटपर्याप्तियोग्यपुदगलपिण्डरूपनोकमणी तथषोपचरितासदभूतम्यवहारेण बहिर्विषयघट-पदादीनां व कसो भवति । -बृहद्व्यसंग्रह गाथा ८ टीका अधं-यह जीव अनुपचारित असदभूत व्यवहारकी अपेक्षा जापानरणादि प्रव्यव मोका, आदि शब्दसे औदारिक, क्रियिक और आहारकरून तीन शरीर और आहार आदि छत पर्याप्तियांके योग्य पदगल नि रूप नोकर्मोंका तथा उपचरित असद्भुत व्यवहारमयकी अपेक्षा बाह्य विषय घट-पट आदिका का होता है। कार्य-कारणपरम्पराकी यह सम्यक व्यवस्था होने पर भी यह संसारी प्राणी अपने विकल्पोंके अनुसार नाना प्रकारको तर्कणाएं किया करता है और उन्हें ही प्रमाण मान कर कार्यकारणपरम्पराको व्यवस्था बनाता है। प्रकृतमें यह तो कहा नहीं जाता कि प्रत्येक द्रव्यकी जो विभावपर्याय होती है वह निमित्तके अमावमें होती है। जब प्रत्येक द्रव्य सदरूप है और उसको उत्पाद-व्यय प्रौदास्वभाववाला माना गया है ऐसी अवस्था में उसके उत्पाद-व्ययको अन्य द्रव्यके कर्तत्व पर छोड़ दिपा जाए और यह मान लिया जाए कि अन्य द्रव्य जब चाहे अममें किसी भी कार्यको उत्पन्न कर सकता है उसके स्वतन्त्र सतस्वभाव पर आपात है। ऐसी स्थिति में हमें तो यह कार्य-कारणकी विढम्बनापूर्ण व्यवस्था आगमके प्रतिकूल ही प्रतीत होती है। जाचार्याने प्रत्येक कार्यमें अपने उपादानके साथ मात्र आभ्यन्तर व्याप्ति और निमित्तोंने साथ बाह्य व्याप्ति स्पष्ट शब्दों में स्वीकार की है। इसलिए पूर्वोक्त प्रमाणीके आधारसे ऐसा ही निर्णय करना चाहिए कि ट्रव्य अन्वयी होनेसे जो नित्य है उसी प्रकार व्यतिरेकस्यभाववाला होनसे प्रत्येक समय वह उत्पाद-व्ययस्वभाववाला भी है। बतएव प्रत्येक समयमें यह कार्यका उपादान भी है और कार्य भी है। पिछली पर्यायकी अपेक्षा जहाँ वह कार्य है अगली पर्यायके लिए यहाँ वह उपादान भी है और इस प्रकार रास्तानझमकी अपेक्षा प्रत्येक समय में उसे ( कार्य-कारणकी अपेक्षा) उभयरूप प्राप्त होने के कारण निमित्त भी प्रत्येक समय में उसी क्रमसे मिलते रहते हैं। कहीं उनकी प्राप्तिमें पुरुषका योग और रागभाव निमित्त पड़ता है और वहीं वे विससा मिलते हैं। पर उस समय में नियत उपादानके अनुसार होनेवाले नियत कार्योंके नियत निमित्त मिलते अवश्य ' हैं। इसलिए विविध लौकिक उदाहरणोंको उपस्थितकर जो अपनी चित्तवृत्ति के अनुसार कार्य-कारणपरम्परा को बिठानेका प्रयत्न किया जाता है वह यक्ति-युक्त नहीं है और न आगमसंगत है। इसी तथ्यको लक्ष्य में रखकर आचार्य अमृतचन्द्र समयसारकलशमें बहते हैं आसंसारस एवं पात्रति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकैः दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः । तद्भुसार्थपरिग्रहेण विलयं यचं कबारं प्रजे तस्किं ज्ञानघनस्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥५॥ अर्थ-इस जगतमें मोही जीवोंका 'परद्रव्यको मैं करता हूँ' ऐसा पर द्रव्यके वर्तृत्वके महा अहंकाररूप दुनिवार अज्ञान अन्धकार अनादि संसारसे चला आ रहा है। आचार्य करते हैं कि अहो! परमार्थ नयका अर्थात शुद्ध द्रव्याथिक अभेदनयका ग्रहण करनेसे यदि वह ( मोह ) एक बार भी नाशको प्राप्त हो तो ज्ञानघन आत्माको पुनः बन्धन कैसे हो सकता है। -पृ० १५६, बलश ५५ आगमके अनुसार कार्य-कारणपरम्पराकी यह निश्चित स्थिति है। स्वामो समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ३८७ और भट्टाकालंकदेव तथा आचार्य विद्यानन्दीने उसको अष्टशतो तथा अष्टसहस्री टीकामें 'दोषावरणयोहानिः' इत्यादि कथन उक्त तथ्यको ही ज्यान रखकर किया है, क्योंकि उक्त आचार्योंने 'उपादानस्य उत्तरीभवनात् इत्यादि कथन उक्त कार्यकारणपरम्पराको ध्यान में रखकर ही किया है। भगवान् कुन्दकुन्दने भी 'जीवपरिणामहेहूं' इत्यादि कथन द्वारा इसो कार्य-कारणपरम्पराको सूचित किया है। 'असंख्यातप्रदेशी जीवको जब जैसा शरीर मिलता है तब उसे उसका परिणमना पड़ता है ऐसा जो कथन किया जाता है सो यहाँ भी उपादान और निमित्तोंको उक्त प्रकारसे कार्य-कारणपरम्पसको स्वीकार कर लेने पर ही सम्यक व्यवस्था बनती है, क्योंकि उपादानरूप जीवमें स्वयं परिणमनकी योग्यता है अतः शरीरको निमित्त कर स्वयं संकोरविस्ताररूप परिणमता है। इस प्रकार अपादान (निश्चय ) और निमित्तों ( व्यवहार )का सुमेल होनेसे लोक, जब जितने कार्य होने है उनकी पूर्वोक्त प्रकारसे सम्यक् व्यवस्था बन जाती है। भट्टाकलंबादेवने अपनी मष्टशतीमें 'तादृशी जायते बुद्धिः' इत्यादि कारिका ली है सो वह भी इसी अभिप्रायसे लो है। पूरी कारिका इस प्रकार है ताहशी जायते बुद्धि व्यवसायश्च तादशः सहाया: तारशाः सन्ति यादृशी भवितव्यता ॥ जैसो होनहार होती है उसके अनुसार बुद्धि हो जाती है, पुरुषार्थ भी वैसा होने लगता है और सहायक कारण ( निमित्त कारण ) भी वैसे मिल जाते है। ततीय दौर “शंका ६ प्रश्न यह था-'उपादानको कार्यरूप परिणति में निमित्तकारण सहायक होता है या नहीं ?' प्रतिशंका ३ इस प्रश्न का उत्तर दिखते हुए आगने निष्कर्ष के रूप में अपना मन प्रथम उत्तर पत्रकमें निम्न प्रकार प्रगट किया था 'उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रव्यको विवक्षित पर्याय निमित्तकारण होती है, परन्तु यहाँ पर यह स्पष्ट हपसे समझना चाहिये कि उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रव्यको नियक्षिस पर्यायको आगममें जो निमित्त करणरूपसे स्वीकार किया है सोवह वहां पर व्यवहारनयको अपेक्षा ही स्वीकार किया जयकी (पर्यायायिक निश्चनयकी) अपेक्षा नहीं।' आपने जिस प्रक्रिया के साथ यह उत्तर लिखा था वह प्रक्रिया भी यद्यपि अर्चनीय थो, परन्तु हमने अपनी प्रतिवर्णकारमें आवश्यक न होने के कारण उस प्रक्रियापर विचार न करते हुए प्रकृत विषयको लेकर केवल प्रकृतोपयोगी रूपसे ही आपके उत्तर पर विचार किया था तथा अब यह प्रतिशंका भी उसी दृष्टिकोणको अपनाकर लिखी जा रही है। आपनं अपने प्रथम उत्तर में यह तो स्वीकार कर लिया है कि विवक्षित वस्तुसे विवक्षित कार्यको उस्पत्ति में विवक्षित अन्य वस्तु अपनी विवक्षित पर्यायके साथ निमित्तकारण होती है परन्तु इसमें स्पष्टीकरणके रूप Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा मागे आपने जो यह लिखा है कि इस प्रकारको निमित्तकारणता व्यवहारनयसे ही स्वीकार की जा सकती है निश्चयनयसे नहीं'-सो इस लेखमे सहमति प्रगट करते हुए भी आपने हमारा कहना है कि व्यवहारनयसे निमितकारणताका जो आप 'कल्पनारोपित निमित्तकारणता' अर्थ कर लेते हैं यह अर्थ हमरे और आपके मध्य विवादका विषय बन जाता है । आमें आपने अपने मतको पुष्टि में तत्त्वार्थ लोकतात्तिकका निम्नलिखित कथन भी उद्धृत किया है कथमपि तनिश्चयनयात् सर्वस्य विस्त्रसोत्पादध्ययधोग्य व्यवस्थितः । व्यवहारनचादेवोपादादीनां सहतकत्व प्रतीते"। -अ०५ सू०१६ पृ.४१० इसका जो अर्थ आपने किया है वह निम्न प्रकार है 'किसी प्रकार सब द्रव्योंके उत्पाद, व्यय और प्रौव्यको व्यवस्था निश्ननयसे विम्र सा है, व्यवहारनयसे हो उत्पादिक सहेतुक प्रतित होत है।' ___ यद्यपि तत्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथनसे भी हम पूर्णतः महमत हैं, परन्तु इसमें 'निश्चय' शब्दका अर्थ 'वास्तविक' और 'व्यवहार' शब्दका अर्थ उपचार ( कल्पनारोपित) करके आप जब उक्त कथनके आधार पर निमित्तको अकिचिस्कर सिद्ध करना चाहते है तो आपके इस अभिप्रायसे हम कदापि सहमत नहीं हो सकते हैं। कारण कि तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथनमें भी पठित 'व्यवहार' शब्दका अर्थ 'कल्पनारोपित' करना निराधार है। आगे इसी विषय पर विचार किया जा रहा है। व्यवहार और निश्चय ये दोनों ही पृथक्-पृथक स्थल पर प्रकरणानुसार परस्पर सापेक्ष विविध अर्थ युगलोंके बोधक शब्द है, इसलिये भिन्न-भिन्न स्थलतरयुक्त किये गये इन शब्दांस प्रकरणके अनुसार परम्पर सापेक्ष भिन्न-भिन्न अर्थ युगल ही ग्रहण करना चाहिये । पवहार और निश्चय इन दोनों शब्दोंके विविध अर्थयुगलों और प्रत्येक अर्धयुगलकी परस्पर सापेक्षताके विषयमें हमारा दृष्टिकोण आपको प्रश्न नं०१७ की प्रतिशका ३ में देखनेको मिलेगा। अतः कृपया वहाँ देखनेका कष्ट कीजियेगा। व्यवहारनय और निश्चयनयके विषयमें हमारा कहना यह है कि ये बोनों ही नय बचनात्मक और शानात्मक दोनों प्रकारके हा करते हैं। उनमें से निश्चयरूप अर्थसापेक्ष व्यवहाररूप अर्थ का प्रतिपादक वचन व्यवहारमय और व्यवहाररूप अर्थसापेच निश्चयरूप अर्थका प्रतिपादक वचन निश्चयनय कहलाने योग्य है । इसी प्रकार निश्चयरूप अर्थसापेक्ष घ्यवहारका अर्थका ज्ञापक ज्ञान व्यवहारनय और व्यवहाररूप अचसापेक्ष निश्चयरूप अर्थका ज्ञापक ज्ञान निश्चयनय कहलाने योग्य है। पहले दोनों वचनमयके और दूसरे दोनों ज्ञाननयके भेद जानना चाहिये । व्यवहाररूर अर्थ और निश्चयरूप अर्थ ये दोनों ही अपने आपमें पूर्ण अर्थ नहीं है । यदि इन दोनों में से प्रत्येकको पुर्ण अर्थ मान लिया जायगा तो इन दोनोंकी परस्पर सापेलता ही भंग हो जायगो, इसलिये ये दोनों ही पदार्थके अंश ही सिद्ध होते है, क्योंकि नय विकलादेश होनेसे वस्तुके एक अंशको ही ग्रहण करता है। इस प्रकार इनको विषय करनेवाले वचनों और शानोंको भी क्रमशः परार्थप्रमाणका भूत और स्वार्थप्रमाणरूप धुप्तके भेदरूपसे जैन आमममें स्वीकार किया गया है। अर्थात् जैनागम में पदार्थके परस्परसापेक्ष अंशभूत व्यवहार और निश्वयके प्रतिपादक वचनोंको परार्थ प्रमाणरूप श्रुतमें और पदार्थके परस्पर सापेक्ष अशभूत व्यवहार और निश्चयके ज्ञापक शानोंको स्वार्थ प्रमाणरूप श्रुतमें अन्तर्भूत किया गया है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का ६ और उसका समाधान स्वार्थ प्रमाणरूप भूत में भी मति आदि नामोंकी वर. अंश-रू नहीं पाता है, क्योंकि स्वार्थप्रमाण हमेशा शानका ही होता है और ज्ञान अध्यण्ड आत्माका अखण्ड गुण होनेके कारण अपने आपमें अखण्ड ही सिद्ध होता है, इसलिये मति आदि स्वार्थ प्रमाणोंकी तरह स्वार्थ प्रमाणरूप श्रुतज्ञान में भी यद्यपि यत्रहारनय और निश्चयनयका भेद सम्भव नहीं दिखाई देता है। परन्तु जब स्वार्थप्रमाणला श्रुतज्ञानको उत्पत्ति शब्द श्रवणुपूर्वक ही हुआ करतो है और शब्दव्यवहार तथा निश्चयका पदार्थधौका परस्पर सापेश्श ताके साथ पृथक् गायक प्रतिपादन करने में समर्थ हैं तो निश्च यरूप अर्थसापेक्ष व्यवहाररूप अर्थ के प्रतिपादक शब्दका श्रवण करने के अनन्तर श्रोताको जो पदार्थका ज्ञान होता है उसे व्यवहारनय तथा व्यवहाररूप अर्थसापेक्ष निश्चयरूप अर्थके प्रतिपादक शब्दका श्रवण करनेके अनन्तर श्रोताको जो पदार्थज्ञान होता है उसे निश्चयमय कहना असंगत नहीं है। इतने विवेचन के साथ हमारा कहना यह है कि कृतम कार्यकारणभा का प्रकरण होने के कारण निश्चय शब्दका अर्थ उपादानोपादेय भाव और व्यवहार शब्दका अर्थ निमित्तनैमित्तिकभाष ही ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार निःचय और पबहार शब्दोंका प्रकरणके लिये उपयोगी अपना अपना अर्थ निश्चित हो जाने पर तत्त्वार्थरलोकवाति कफे २० ५ सू. १६ पृष्ठ ४१० के उल्लिवित कथनका जो अनुभव, तर्क और आगमसम्मत अर्थ हो सकता है वह निम्न प्रकार है : सब द्रव्योंके उत्पाद, व्यय और धौव्यकी व्यवस्था निश्चयनय से अर्थात उपादानोपादेयभावको अपेक्षा विसया ( स्वभावसे )है, व्यवहारनयसे ही अर्थात निमित्तनैमित्तिकभाषकी अपेक्षा ही वे उत्पादादिक सहेलक प्रतीत होते हैं। यहां पर उत्पादादिक विश्वयनयके अर्थात् उपादानोपावभावकी अपेक्षा दिनमा हैं। इस वाक्यका आशय यह है कि जो उत्पादादिक वस्तके स्परप्रत्यय परिणमन होने के कारण अपनो उत्पत्ति में अन्य अनुकूल पस्तुके सहयोगको स्वभावतः अपेक्षा रखते हैं वे इस तरह उस अन्य वस्तुके सहयोगसे उत्पन्न होते हुए भी वस्तुके अपने स्वभावके दायरे में ही हुआ करते हैं, कारण कि एक वस्तके गुण-धर्म अपने-अपने वस्तत्वको रक्षाके लिये प्रत्येक वस्तुमें पाये जानेवाले स्वभावकी प्रतिनियतताके कारण कभी भी अन्य वस्तु में प्रविष्ट महीं होते हैं। यही कारण है कि तत्वार्थश्लोकवातिकमें आचार्य विद्यानन्दीने सहकारी कारणको कारणताको कालप्रत्मासत्तिके रूपमें ही प्रतिपादित किया है, द्रव्य प्रत्यासत्तिके रूपमें नहीं। अर्थात् जिस प्रकार उपादानभूत वस्तुके गुण-धमाका कार्य में स्वभावत: प्रवेश होने के कारण उस उपायानभूत दस्तु में कार्य के प्रति द्रश्यप्रत्यासत्तिरूप कारणसाका सद्भाव स्वीकार किया गया है उस प्रकार निमित्तभूत बस्तुके गुण-धर्मोका कार्यम प्रवेश सर्वदा असम्भव रहने के कारण उस निमित्तभूत वस्तुमै कार्यके प्रति द्रव्य प्रत्यासत्तिहप कारणताको अस्वीकृत करते हुए आचार्य विद्यानन्दीने तत्वार्यश्लोकवातिय में कालसापेन अध्यय-व्यतिरेकके आधार पर कालप्रत्यासत्तिका कारणताको हो स्वीकार किया है। तात्पर्य यह है कि कार्यकारणभाव प्रकरणमें दो प्रकारको कारणताका विवंचन आगम ग्रन्थों में पाया जाता है-एक द्रध्ययस्यासत्तिरूप और दुसरो कालप्रत्यासत्तिका। इनमें से जो वस्तु स्वयं कार्यरूप परिणत होती है अर्थात कार्य के प्रति उपादानकारण होती है उसमें कार्य प्रति प्रगप्रस्थासतिरूप कारणता पायी जाती है, क्योंकि वहाँ पर कारणरूप धर्म और कार्यरूप धर्म दोनों ही एक द्रव्यके आधसे रहनेवाले धर्म है तथा जो वस्तु स्वयं कार्यरूप परिणत न होकर कार्यरूप परिणत होनेवालो अन्य वस्तुको कार्यरूपसे परिणत Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचर्चा होने में सहायक होती है अर्थात् निमिन्न कारण होती है उसमें कार्यके प्रति द्रव्यप्रत्यामत्तिका कारणताका तो अभाव ही पाया जाता है, क्योंकि वहां पर कार्यरूप धर्म तो अन्य वस्तुमें रहा करता है और कारण धर्म अन्य वस्तु में ही रहा करता है। तब ऐसी स्थिति में उन कार्यभूत और कारणभूत योनी वस्तुओंमें कालप्रत्यारात्तिके आधार पर ही कार्यकारणभाव स्वीकार किया जा सकता है. ट्रन्याप्रत्यासत्तिके रूपमें नहीं । अर्थात् 'जिसके अनन्तर जो अवश्य ही उत्पन्न होता है और जिसके अभाव में जो अवश्य ही उलन्न नहीं होता है। ऐसा कालप्रत्यासत्तिरूप कारणताका लक्षण ही वहाँ घटित होता है। तात्पर्य यह है कि द्रध्य प्रत्यासत्तिरूप कारणसा अपादानभूत वस्तुमें हो पायी जाती है, अतः वहाँ पर कार्यके साथ कार्यकारणशव उपादानोगादेगभावके रूप में पाया जाता है और कालप्रत्यासत्तिहप कारणता निमित्तभूत वस्तुमे रहा करतो है, अतः वहाँ पर कार्यके साथ कार्यकारणभाव निमित्तनैमित्तिमभावक रूपमें ही पाया जाता है । इन दोनों प्रकारको कारणताओं अयवा दोनों प्रकारके कार्यकारणभावोंक। कथन जैसा कि हम पर कह भाये है-आचार्य विद्यान्दीने वत्त्वार्थश्लोकवात्तिकमें निम्न वचनों द्वारा किया है : क्रमभुवोः पर्यायग्रोरेकद्रव्य प्रत्यासत्तेपासनोपादयत्ववचनात । न चैविधः कार्यकारणभावः सिद्धांतविरुद्धः । सहकारिकारणेन कार्यस्य कयं तत् स्यातू, कद्वयनस्यासत्तरभात्रादिति चेत्, कालान्यासत्तिविशेषातसिद्धिः । यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कायमित्ति प्रतीतम् । -तत्त्वावश्लोकवार्तिक पृष्ठ १५१ अर्थ-'क्रमसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंमें एक द्रश्यप्रत्यासत्तिहा उपादानोपादेयभावका बथन किया गया है और इस प्रकारका रपादानोपादेयभावरूप यह कार्यकारणभाव सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है। परन्तु यह कार्यकारणभान सहकारीकारणके साथ किस प्रकार हो सकता है? क्योक यहां पर एकाद्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव हो पाया जाता है, यदि यह प्रश्न किया जाय तो कहना चाहिये कि राहकारीकारणके साथ एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणता नहीं स्त्रोकार की गयी है, किन्तु, कालप्रत्यासत्तिविशेषरूप धारणता हो वहाँ पर स्वीकार की गयी है जिसका आशय यह है कि जिसके अनम्नर जो अवश्य ही होता है वह उसका कारण होता है और उससे अन्य कार्य होता है'---क्योंकि ऐसा ही प्रतीत होता है। ___ इस प्रकार कार्य में चूंकि निमित्तभूत वस्तुके गुण-धर्मोका समावेश कभी न होकर उपादानभूत वस्तुके गुण-धर्मोंका ही नियमसे समावेश होता है, अत: उत्पादादिक निश्चयनयसे अर्थात् उपादानोपादेयभावकी अपेक्षा विमा है-ऐसा कहना उपयुक्त ही है। इसी प्रकार व्यवहारमयसे ही उत्पादादिक राहतुक प्रतीत होते हैं इसका आशय भी उक्त कथन के अनुसार निर्मितभूत वस्तुके गुण-धर्मोंका कार्यमें समावेश असंभव रहते हुए भी कार्गको उत्पत्ति निमित्त के अभावमें नहीं हो सकनेके कारण यही होता है कि निमित्तमित्तिक भाषको अपेक्षा उत्पादादिक सहेतुक अर्थात् निमित्तकारण की सहायतासे ही हुआ करते है। आमममें कार्यकारणभावको लेकर जितना बचन व्यवहार पाया जाता है अथवा लोकमें जितना वचनव्यवहार किया जाता है वह सब उपर्युक्त विवेचन अनुसार ही किया गया है या किया जाता है। जैसे शिष्य पड़ता है अथवा मिट्री घटरूप परिणत होती है इन प्रयोगोंमें एकद्रव्यप्रत्यासत्तिरूप उपादानोकादेयभावपर लक्ष्य रखा गया है या रखा जाता है तथा अध्यापक पढ़ाता है अथवा कुम्हार मिट्टीको घटरूप परिणमाता है इन प्रयोगोंमें फालप्रत्यामत्तिका निमित्तनमित्तकभावपर लक्ष्य रखा गया है या रक्खा जाता है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शंका ६ और उसका समाधान इस तरह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के अ०५ सूत्र १६१० ४१० में निबद्ध उक्त कथनका जो अर्थ हमने पर किया है उसमें और आपके द्वारा किये गये उल्लिखित अयं में अन्तर माह दिखाई देने लगता है अर्थात जहाँ आपके द्वारा प्रमाणका अभाव रहते हुए भी व्यवहारका अर्थ उपचार करके निमित्तनैमित्तिकभावको कल्पनारोपित सिद्ध करनेकी चेष्टा की गयी है वहीं हमारे द्वारा व्यवहार का अर्थ प्रमाणसिद्ध निमिसनैमित्तिकभाव ही माना गया है, जिस ऐसी हालत में वास्तविक मानने के सिवाय कोई चारा ही नहीं रह जाता है, क्योंकि तब निमितनैमित्तिकभावको कल्पनारोपित सिद्ध करने के लिये व्यवहार शब्दफे अलावा कोई दूसरा शब्द ही उक्त कथन में नहीं मिलता है। इस प्रकार आचार्य विद्यामन्दीको दृष्टिमें निमित्तनैमित्तिकभाव वल्पनारोपित सिद्ध न होकर वास्तविक ही सिद्ध होता है। यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दीने निमित्तकारणकी वास्तविताको तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ १५१ पर ऊपर निर्दिष्ट कथनके आगे स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित कर दिया है । वे शब्द निम्न प्रकार हूँ । तदेवं व्यवहारनपसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्टः संबंधः संयोग-समवायादिवत् प्रसीतिसिद्धत्यात पारमार्थिक एव म पुनः कचनारोपितः, सर्वथाप्यनवयवात् ॥ __ अर्थ--इस प्रकार व्यवहाग्नयका आश्रय लेनेसे कार्यकारणभाव दो पदार्थों में विद्यमान कालप्रत्यासत्तिरूप हो होता है और वह मंयोग-समवाय आदिकी तरह प्रतीतिसिद्ध होनेसे पारमाषिक ही होता है, कल्पनारोपित नहीं, कारण कि यह सर्वथा निर्दोष है। अब आपको ही विचार करना है कि जब आचार्य विद्यानन्दी स्वयं तदन व्यवहारनयसमाश्रयणे' इत्यादि वचन द्वारा दो पदायाम विद्यमान कालप्रत्याससिहप निमित्त नैमित्तिकभावको वास्तविक स्वीकर कर रहे हैं तो इसको ध्यान में रखकर ही उनके पूर्वोक्त दूसरे व वन 'कथमपि तनिश्चयनयात्' इत्यादिका अर्थ करना होगा। ऐसी हालत में उक्त निमित्तनैमित्तिकभावको कल्पनारोपित बतलानेवाला आपके द्वारा किया गया अर्थ संगत न होकर उसे बास्तविक कहनेवाला हमारे द्वारा किया गया अर्थ ही संगत होगा। __आचार्य विद्यानन्दोने पृष्ठ १५१ पर ही तत्वार्थश्लोकवार्तिकमें आगे १४, १५ और १६ संख्याक वार्तिकोंका व्याख्यान करते हुए निम्नलिखित कथन किया है : ततः सकलकर्मविप्रमोक्षो मुकिरीकर्तया। सा बन्धपूविकेति तात्त्विको बन्धोऽभ्युपगन्तव्यः, स्तयोः संसाधनस्वात् अन्यथा कादाचित्कस्वायोगात् । साधनं तास्विफमम्युपगंतव्यं न चुनरविद्याविलासमात्रमिति । अर्थ-इसलिये रांग प कर्मोंके बिनाशको ही मुक्ति मानना चाहिये । वह मुक्ति चूँकि बन्धपूर्वक ही सिद्ध होती है, अत: बन्धको भी तात्त्विका मानना चाहिये, क्योंकि मुक्ति और बन्ध दोनोंको ही साधनोंसे निष्पन्न हुआ स्वीकार किया गया है और क्योंकि मुक्षि तथा बन्ध दोनोंका साधनोंसे निदान होना न माननेपर उनमें अनादिनिधनताका प्रसंग उपस्थित हो जायगा, अतः साधनोंको भी तात्त्विक ही मानना चाहिये, केवल विद्याका विलासमात्र अर्थात् कल्पनारोपितमात्र नहों समहाना चाहिये । इस कथन के द्वारा आचार्य विद्यानन्दोने बन्ध, मुश्रित और इन दोनोंके बाह्य-साधनोंकी वास्तविकताका हो प्रतिपादन किया है। इनके अतिरिक्त हमने अपनी प्रथम प्रतिशंकामें अन्य बह तसे आगमप्रमाणों एवं युक्तियों द्वारा निमित्तकारणको वास्तविकताका समर्थन तमा कल्पनारोपितलाका स्थान विस्तारस किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि निमित्त कारण भो उपादान कारणकी तरह वास्तविक ही होता है, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा कल्पनारोपित नहीं। लेकिन यह बात दूसरी हूं कि उपादान कारणकी वास्तविकताको उपादानरूपसे अर्थात् एकद्रव्यप्रगत्तिके रूपमें आश्रयरूपसे और निमित्तकारणकी वास्तविकताको निमित्तरूपसे अर्थात् पूर्वोक्त कालप्रत्यासत्तिविशेषके रूपमें सहायकरूपसे ही जानना चाहिये । इतना स्पष्टीकरण करनेके अनन्तर अब हम आपके दूसरे उत्तर पत्र पर विचार करना प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यह बतला देना चाहते हैं कि आपने अपने द्वितीय उत्तर पत्र में प्रथम उत्तर पत्र के आधार पर कार्यकारणभाव के सिलसिले में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि जब उपादान कार्यरूप परिणत होता है तब उसके अनुकूल विवक्षित अन्य द्रव्यको पर्याय निमित होती है ।' और इसका आप यह आशय ले लेना चाहते हैं कि उपादानको कार्यरूप परिणति तो केवल उसके अपने ही बल पर हो जाया करती है । यहाँ परनिमितका रंचमात्र भी सहयोग अपेक्षित नहीं रहा करता है, लेकिन चूँकि निमित्त वहाँ पर हाजिर रहा करता है, अतः ऐसा बोल दिया जाता है कि उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रव्यको विवक्षित पर्याय निमिकारण होती है। आगे आपने अपने इस सिद्धान्तको पुष्टि के लिये तत्त्वार्थरलोकवातिकके ऊपर उद्धृत प्रमाण --- जिसे आपने प्रथम उत्तर पत्र में निर्दिष्ट किया था— का उल्लेख करते हुए अपने उक्त सिद्धान्तको पुष्टिमें उसे पुष्ट प्रमाण प्रतिपादित किया है, लेकिन जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं कि तस्वार्थरलोकवासिकके 'कथमपि तनिश्चययात्' इत्यादि ऋचनमें प्रकरण के अनुसार कौनसे नयार्थ विवक्षित है- इस पर आपका ध्यान नहीं पहुँच सकने के कारण हो आप उससे अपना मनचाहा ( उपादानको कार्यपरिणति मे निमित्तको अकिचित्कर बतलानेवाला) अभिप्राय पुष्ट करनेका असफल दावा कर रहे हैं । तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथन में कौनसे नमार्थ गृहीत किये गये हैं ? इसका जो स्पष्टोकरण हम ऊपर कर चुके हैं - हमारा आपसे अनुरोध है कि उस पर आप तत्वजिज्ञासु बनकर गहरी दृष्टि डालने का प्रयत्न कीजिये ? इस तरह हमें विश्वास है कि उक्त कथनसे आप न केवल अपनी गलत अभिप्रायपुष्टिका दावा छोड़ देंगे बल्कि कार्यकारणभाव के सिलसिले में निमित्तनैमित्तिकभावको अवास्तविक, उपचरित या कल्पनारोपित माननेके अपने सिद्धान्तको परिवर्तित करने के लिये भी सहर्ष तैयार हो जायेंगे | आपने अपने प्रथम उत्तर पत्र में श्लोकवालिक के उक्त वचनसे अपना मनचाहा उक्त गलत अभिप्राय पुष्ट करनेमें एक बात और लिखो है कि 'यहाँ पर 'सहेतुत्वप्रतीतेः पदमें 'प्रतीते:' पद ध्यान देने योग्य है । मालूम पड़ता है कि आप प्रतोति शब्द के प्रयोगके आधार पर हो तस्वार्थोवातिके उक्त नसे यह rिse निकाल लेना चाहते हैं कि उत्पादादिक अपनी उत्पत्तिमं सहेतुक अर्थात् वाह्य साधनसापेच वास्तव में तो नहीं होते है अर्थात् वे उत्पादादिक होते तो अपने स्वभावसे हो हैं फिर भी व्यवहार से (उपचार) सहेतुक जैसे मालूम पड़ते हैं । इस विषय में हमारा कहना यह है कि अपना उपर्युक्त एक गलत अभिप्राय बना लेनेके अनन्तर उसको पृष्टिके लिये मह दूसरी गलती आप करने जा रहे हैं। कारण कि श्लोकवार्तिक के ही उल्लिखित अन्य प्रमाणों से जब आपका उक्त अभिप्राय गलत सिद्ध हो जाता है तो ऐसो हालत में 'सहेतुकत्वप्रतीतेः पदमें पठित 'प्रतीतेः' से आप अपने उक्त अभिप्रायकी पुष्टि कदापि नहीं कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि प्रतीति शब्दका प्रसिद्धार्थ 'ज्ञानकी निर्णयात्मक स्थिति' हो होता है, इसलिये उसका 'प्रतीत्याभास' अर्थ आपने कैसे कर लिया ? इसका स्पष्टोकरण आपको अवश्य करना था जो आपने नहीं किया है। तीसरी बात यह है कि तत्त्वार्थ लोकपातिकका जो 'क्रमभुषोः पर्यायः' इत्यादि उद्धरण हमने ऊपर दिया है उसके अन्त में Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ३९३ यदनासरं हि यदवश्यं मवसि तत्तस्य सहकारिकारणमितरस्कार्यमिति प्रतीतम् । यह वाक्य पाया जाता है, इसी प्रकार आगे 'तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे इत्यादि वाक्यमें भी 'प्रतीतिसिद्धबात् पारमार्थिक एवं' यह पद पाया जाता है। इन दोनों स्थलोंमें क्रमशः पठित प्रतीत और प्रतीति शन्दोंका अर्थ आपको भी प्रकरणानुसार निविवादरूपसे ज्ञानकी निर्णयात्मक स्थिति स्वीकार करना अनिवार्य है, अतः ऐसी हालत में 'सहेतुकरवप्रसीतेः पवमें पठित 'प्रवीते:' पदका अर्थ विरुद्ध हेतके अभाव में जानको निर्णयात्मक स्थिति करना हो संगत होगा, प्रतीस्याभास नहीं । आगे आपने अपने द्वितीय उत्तर पत्रमें कार्यके प्रति निमित्तभूत वस्तु की वास्तविक कारणताको आलोचना करते हुए यह भी लिखा है कि 'भागममें प्रमाणदष्टिमै विषार करते हुए सर्वत्र कार्यको उत्पसि उभय निमित्तसे बतलायी हैं। आगममें ऐसा एक भी प्रमाण उपसमय नहीं होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि उपादान (निश्चय हेतुके अभावमें केवल निमित्त के बलसे काकी उत्पत्ति हो जाती है। पता नहीं, सब जैसे निर्मित मिलते है तब बैसा कार्य होता है-ऐसे कथन में निमिसको प्रधानतासे कार्यकी उत्पत्ति मान लेने पर उपादानका क्या अर्थ किया जाता है।' इस विषयमें सर्वप्रथम हमारा महना यह है कि आगममें प्रमाणको पुष्टि से विचार करते हुए सर्वत्र कार्यको उत्पत्ति उभयनिमित्तसे बतलायी है। आगममें ऐसा एक भी प्रमाण उपलब्ध नहीं होता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि वास्तविक निमित्त ( व्यवहार ) हेतुके अभावमें केवल उपादानके बलसं प्रत्येक वस्त में आगम द्वारा स्वीकृत स्वपरसापेक्ष कार्यको उत्पत्ति हो जाती है फिर हमारी समझमें यह बात नहीं आरही है कि आप निमित्तको कार्यकी उत्पत्ति कल्पनारोपित कारण मानकर अकिंचित्कर क्यों और किस आधार पर मान रहे है? और यदि आप कार्यकी उत्पत्तिमें निमित्तको उपादानके सहयोगी रूप में स्थान देना स्वीकार कर लेते है तो कार्यकारणभावके विषम में विवादकी समाप्ति ही समझिये। हमें इस बात पर भी आश्चर्य हो रहा है कि उपादान हेतुके अभावमें केवल निमिनके बलसे कार्यकी उत्पत्तिको जब हम नहीं स्वीकार करते है तो इस गलत मान्यताको हमारे पक्ष के ऊपर आप बलात् क्यों थोप रहे, क्योंकि हमारी स्पष्ट घोषणा है और यह आपको मालम भी है कि हमारी आगमसम्मत मान्यताके अनुसार उपादान शक्ति न हो तो निमित्त केवल अपने ही बलसे कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता है अर्थात स्पष्ट मत यही है कि किसी भी वस्तु में कार्यकी उत्पत्ति उसमें स्वभावतः पायी जानेवाली उपादान शक्तिका सदभाव ही हो सकती है, निमित्तमूत वस्तु तो उस कार्यको उत्पत्ति में सहायक रूपसे ही उपयोगो होती है, जिसका मतलब यह निकलता है कि बस्तुके कार्यमै उपादान शक्तिका सद्भाव रहते हुए भी अबतक निमित्त सामग्रीका सहयोग उसे प्राप्त नहीं होगा तबतक उससे स्वपरसापेक्ष परिणनिका होना असम्भव ही रहेगा और इसका भी मतलब यह निकलता है कि प्रत्येक बस्तूमें स्वभावरूपसे प्रतिनियत नाना उपादान शक्तियाँ एक साथ पायी जाती है, परन्तु उस वस्तुको उसकी जिस उगदान शक्तिके अनुकुल सहयोग प्रदान करनेवाली निमित्त सामग्री अब प्राप्त होगी उस निमिरा सामनोके सहयोगके आधारपर ही वह वस्तु उस समय अपने में विद्यमान उस उपादानशक्तिके अनुसार परिणमन करेगी। जैसे प्लानकी मिट्री घड़ा, सकोरा आदि विविध निर्माणके अनुकूल प्रतिनियत उपादान शक्तियाँ स्वभावतः एक साथ विद्यमान हैं। ये सभी उपादान शक्तिमा तबतक लुप्त पड़ी रहती है जबतक कि किसी भी उपादान शक्ति के विकासके अनुकूल सहयोग देनेवाली निमित्त सामग्रीको प्राप्ति उसे नहीं हो जाती है अर्थात वह मिट्टी घड़ा, सकोरा आदिके निर्माण योग्य अपनी ५० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वंचर्चा उपादान शक्तियोंके सद्भाव में भी केवल अनुकूल निमित्त सामग्रीके अभाषके कारण ही घड़ा या सकोरा आदि रूपसे परिणत नहीं हो पाती है। इसलिये जब कुम्हार अपनी इच्छाशक्ति, ज्ञानदाक्ति और श्रमशक्तिके आधारपर खानसे उस मिट्टीको लाकर और दण्ड, चक्र आदि आवश्यक अन्य निमित्त सामग्रीका सहयोग लेकर अपने पुरुषार्थ द्वारा उस मिट्टीको घड़ा या सकोरा आदि जिस निर्माणके अनुकूल अनुप्राणित करता है उस समय उस मिट्टीसे उसको अपनी योग्यतानुसार उस कार्यको उत्पत्ति हो जाती है। इसके अतिरिक्त हम, आप और दूसरे सभी लोग विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके लिये उक्त कार्यके अनकल योग्यता रखनेवालो जमादानभत वस्ती संप्राप्ति हो जानेपर भी प्रतिदिन और प्रतिक्षण तदनकल निमित्त सामग्रोके जुटाने में परिश्रम किया करते हैं। क्या आपने कभी यह सोचा है या आप सोचने के लिये तैयार है कि जब उपादान विवक्षित कार्यरूप परिणत होनेके लिये अपनी तैयारी कर लेगा तब वह कार्य अपने आप हो जायगा अथवा उस कार्यके अनुकूल निमित्त सामग्रो नियमसे उपस्थित रहेगी या स्वयमेव प्राप्त हो जायगी और तब अपनी इस मान्यताके अनुसार ही आप क्या विवक्षित कार्य करने में अथवा तदनुकूल निमित्त सामग्रोके जुटाने में पुरुषार्थ करना छोड़ सकते है ? या फिर अपने इस अनुभवको सहो मानते हैं कि किसी विवक्षित कार्यको उत्पत्तिका आप पहले अपने अन्त:करणमें रांकल्प करते है फिर अपनी ज्ञानशक्ति और श्रमशवितके अनुसार उम वावको सम्पन्न करनेके लिये तदनुकूल सामग्रीका राहयोग लेकर पुरुषार्थ धारते है ? यह बात अपने उक्त विविध पहलांके साथ विचार लिये आपके सामने उपस्थित है। इतना ही नहीं, एक प्रश्न और ज्ञापसे हम पछते है कि यदि आप कार्योत्पत्ति के विषयमें अपने उक्त सिद्धान्सकी सत्यतापर आस्था रखते हैं तो कार्य और उसकी साधनसामग्रो के विषय में जो संकल्प, विकल्प और पुरुषार्थ आप किया करसे हैं उन सबसे विरत होकर आप क्या अकर्मण्यताके माय चुप होकर बैठने के लिये तैयार हैं ? और यदि आप ऐसा करनेके लिये तैयार भी हो जावे तो क्या आपको विश्वास है कि आपका विवक्षित कार्य स्वतः ही समय आनेपर सम्पन्न हो जायगा ? तथा आपको यह भी क्या विश्वास है कि आप इस तरहकी प्रवृत्ति करनेपर लोकमें हँसीके पात्र नहीं होंगे ? यद्यपि आप कह सकते हैं कि लोक तो अज्ञानी हैं, तो यह बात हम भी मान सकते हैं कि उसके हमनेकी आप चिन्ता नहीं करेंगे, परन्तु कम-से-कम कार्यसम्पन्नता कैसे हो सकती है ? और वह होती है या नहीं, इत्यादि बातों पर तो आपको उस समय भी विचार करना ही होगा। 'उपादानके बलपर ही कार्य निष्पन्न होता है, निमित्त तो वहौर अकिचित्कर हो रहा करता हैअपनी इस मान्यताकी पुष्टि करते हए आगे आपका लिखना यह है कि 'कार्यको सस्पत्ति में केवल इतना भान सेना हो पर्याप्त नहीं है कि गेहूंसे ही गेहूँ के अंकुर आदिको उत्पत्ति होती है । प्रश्न यह है कि अपनी विवक्षित उपादानको भूमिकाको प्राप्त हुए गिना केवल निमित्तके बलसे ही कोई गेहूँ अधुरादि रूपसे परिणत होता है।' यद्यपि आपका यह लिखना सही है कि गेहूँसे ही गेहूँकी उत्पत्ति होती है-केवल ऐसा मान लेना कार्योत्पत्ति के लिये पर्याप्त नहीं है और यह बात भी सही है कि उपादानको विवक्षित भूमिकाको प्राप्त हो जानेपर ही गेहूं की अंकुर रूपसे उत्पत्ति हो सकती है, परन्तु आपके इस कथन में हम अनुभव, तकी और आगम प्रमाणके आधारपर इतना और जोड़ देना चाहते है कि विवक्षित उपादानभूत वस्तुको विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके लिये उसकी योग्यतानुसार विवक्षित भूमिका तक पहुंचना निमित्तों के सहयोगपर ही आवश्यकता Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका है और उसका समाधान नुसार निर्भर है-इस अनुभवपुर्ण स्थिति के आधार पर इस विषयमें हमारा दृष्टिकोण यह है और लोकमें प्रसिद्ध भी यह है कि कोई किसान बीजके लिये गेहूँको आवश्यकता होनेपर उसकी स्वरीदी करने के लिये बाजारमें जाता है और वह यह देखकर या समझकर कि अमुक गेहूँ अंकुररूपसे उत्पन्न होने में Hमर्थ है, उस गेहूँकी खरीदी कर लेता है। फिर वह किसान आगे कभी यह नहों सोचता है कि सरीधा हुआ वह गेहूँ अंकुरादि रूपसे परिणत होनेको अपनेमे विद्यमान योग्यताके अलावा किसी अन्य विलक्षण योग्यताको निश्चित समयपर अपने प्राप ग्रहण करके अपादानकी भूमिका पदार्पण करेगा और तब उससे अंकुरकी उत्पत्ति हो जायगी। उसके सामने तो जब उसने गेहूँको अंकूररूपसे उत्पन्न होने के योग्य समझकर बाजारसे खरीद किया, तबसे केवल इतना हो सांवल्प और विकल्प रहा करता है कि अंकररूपसे उत्पन्न होने के लिये यथायोग्य बाह्य साधन-सामग्री के सहयोगसे उस गैहुँको अपने पुरुषार्थद्वारा उचित समयगर खेत में बो दिया जावे । इस प्रकारके संकल्प और विकल्प के साथ एक और तो बह किसान उस गेल्को खेत में बोनेकी जितनी व्यवस्थायें मावश्यक ही उन्हें यायोग्य तरीकों द्वारा सम्पन्न करता है तथा दूसरी ओर बह इस बातको भी ध्यान में रखता है कि कहीं ऐसा न हो कि गेहूँ खर्च हो जाये या चोरी चला जावे अथवा ऐसी जगहपर न रखा जावे जहाँपर रखनसे वह गेहूँ घुनकर या राड़कर अंकुररूपसे उत्पन्न होने को अपनी योग्यतासे वंचित हो जावे। किसानको संकल्प, विकल्प और पुरुषाथको यह प्रक्रिया तबतक पाल रहती है जब तक उस गेहेको यधावसर वह खेतमें बो नहीं देता है। इसके बाद मी गहूँके अंकुरक परो परिणमित होने की समस्या उसके सामने बनी ही रहती है, बर: वह अस समय भी गहेंके अंकुरोत्पत्ति के अनुकूल पानी आदि प्राकृतिक और अप्राकृतिक साधना की आवश्यकता या अनावश्यकताके विकल्पों में तबतक पड़ा रहता है जबतक कि उस गेहूंका परिणमन अंकुररूपसे नहीं हो जाता है । अब गेहूँसे अंकुगत्पत्ति होने के अनुकूल गेहूँ की प्रक्रियापर भी विचार कीजिये और गेहूँकी इस प्रक्रियापर अब विचार किया जाता है तो मालूम पड़ता है कि एक तरफ तो गेहूँरो अंकुरोत्पत्ति होनेके संकल्पपूर्वक किसान यथासंभव और यथायोग्य अगा तदनुकूल पापार चालू रखता है तथा दुसरी ओर किसानके उस व्यापारके सहयोगगे गेह में भी यथासंभव विविध प्रकारको परिणतियाँ मिलमिलेवार चाल हो जाती है जिन्हें मेहँसे अंकुरोत्पत्तिके होने में उत्तरोत्तर क्रगसे आविर्भत होनेवाली योग्यता भी कहा जा सकता है अर्थात् बाजारसे स्वमंदन क बाद किसान चरा गेको सुरक्षाके लिहाजसे चित्र समझकर जिस स्थान पर रखनेका पुरुषार्थ करता है गईदेवताका किमानकी मर्जी के मताविक वदों आयन जम जाना है। इसके अनस्तर किसान जब अनुकूल अव-र देखकर उस गेहूँको बोने के लिये खेत ले जाना उपयुक्त समझता है या ले जानेका संकल्प करता है तो यथासम्भव जो भी साधन उस गेहूँको खेतपर ले जाने के लिए उस किसानको उस अबसर पर सुलभ रहते है, उन साधनों द्वारा एक और तो वह निशान उस गहुँको खेतपर ले जानेरूप अपमा पुरुषार्थ करता है और दूपरी और उस किसानके यथायोग्य अनुकूल उन पुरुषार्थके सहारेसे गेहूंदेवता भी खेतपर पहुंच जाते हैं। इस प्रक्रियामे भी किसान यदि गडेको सुरक्षाके उपयुक्त साधन नहीं जुटाता है या नहीं जुटा पाता है तो उस सत्र गेहूँमसे कुछ दाने तो मार्गमें ही गिर जाते हैं कुछ दानोंको नौकर आदि भी चुरा लेता है. इस तरह कभी होते होते जितना गेहूँ शेष रह जाता है उसे बह किसान यथासम्भव प्राप्त ट्रेक्टर या हल आदि साधनों द्वार। दोनरूप पुरुषार्थ स्वयं करता है या नौकर आदिसे बोनरूप पुरुषार्थ करवाता है और तब उस किसान या उसके उप नौकरके पुरुषार्धवे सहयोगसे वे गेहूँदेवता खेतके अन्दर समा जाते हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा इस तरह गेहे की बुवाई हो जानेपर गेहुँके कोई-कोई दाने अपने अन्दर अंकररूपसे उत्पन्न होनेको स्वाभाविक योग्यताका अभाव होने से तथा कोई-कोई दाने उक्न प्रकारको योग्यताका अपने अन्दर सद्भाव रखते हुए भी बाह्य जलादि साधनों के अनुकूल महयोगका अभाव होनेसे अंकुररूपसे उत्पन्न होने की अवस्थासे वचित रह जाते है, शेष उक्न प्रकार की योग्यता सम्पन्न गेहूँ यथायोग्य बाहा साधनोंकी मिली हुई अनुकूल सहायताके अनुसार अर्थात् कोई-कोई दाने तो अपने अन्दर पायी जानेवालो उक्न स्वाभाविक योग्यताको समानता और असमानताके आधारपर तथा कोई-कोई दाने बाह्य साधनों की सहायताकी समानता और असमानताके आधारपर समान तथा असमानरूपसे अंकुर बनकर प्रगट हो जाते हैं। इस प्रकार आपके प्रश्नका उत्सर यह है कि गेहूँ अंकृशेषति पयंत उत्तरोतर किसानके घ्यापारका सहयोग पाकर अपनी पारणतियाँ करता ही अन्त में अकुर बन जाता है। स्पष्टीकरणके रूप में यहाँपर इस दृष्टान्त में विचारना यह है कि गेहेमें अंकूरोल्पातकी विद्यमान योग्यता तो उसकी स्वाभाविक निजी सम्पत्ति थी, उसे किसानने उस गेहूँम उत्पन्न नहीं किया और न उसके प्रभावमें केबल किसानके अनुकूल पुरुषार्थ द्वारा ही वह गेहूँ अंकुर बना, किन्तु गेहूँ में विद्यमान उपन प्रकार की योग्यताके सद्भावमें बाह्य मापन सामग्री के सहयोगसे अपनी कार बतलायी गयी पूर्व-पर्व अवस्याओंमेंसे गुन रता हुआ ही वह गेहूँ अंकुर बन सका। इतना हो नहीं, अंकुर बनने से पूर्व और दूसरे प्रकारको बहुत-मी या बहुत प्रकार की योग्यताएँ उस गेहूँ में थी जो अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीके अभाव में विकसित अर्थात् कार्यरूपसे परिणत होनेसे रह गयीं या अपने-आप उनका उस गेहूँमें से खात्मा हो गया । जैसे उस सभी गेहूँमें पिसकर रोटी बनने की भी योग्यता थी, उसमे घुनने या सहने आदिकी भी योग्यताएँ थी जो अनुकूल बाह्य साधन सामग्रीका सहयोग अप्राप्त रहने के कारण या तो विकसित होनेसे रह गयीं अथवा उनका यथायोग्यरूपसे खात्मा हो गया और मेहूँ में बहुत से दाने भिन्न-भिन्न रूपमें प्राप्त बाह्य साधन सामग्रीकी सहायताके अनुरूप या तो पिस गये, मागमें गिर गये, घन गये या सड़ समे; इस तरह वे दाने अंकुररूपसे उत्पन्न होनेसे वंचित रह गये । गेहूँके जिम दानोंकी अंकुररूप पर्याय बनी बह नामसे बनी तथा उसके बनने में किसानको सिलसिलेवार किसना और कितने प्रकारका पुरुषार्थ करना पड़ा, यह सब प्रकट है। जैसे किसान गेहूँ को बाजारसे खरीदकर घर ले गया, उसने उसको घुनने, सड़ने अथवा पिसने आरिसे रक्षा की, खेतपर उसे ले गया और अन्त में बोने का भी पुरुषार्थ किया तब गेहूँ की बुवाई हो सकी और तब बाद में वह अंकुर के रूपको धारण कर सका। इस अनुभव में उतरनेवाली कार्यकारणभावकी पद्धतिकी कापेक्षा करके आपके द्वारा इस प्रकारका प्रतिपादन किया जाना कि-गेहूँ अपमे विवक्षित उपादानको भूमिकाको अपने आप प्राप्त करता हुआ ही अंकुरादिका परिणत होता है-विल्कुल निराधार है। इस विषय में आमम प्रमाण भो देखिए स्त्रपरप्रत्ययोत्पादषिगमपर्यापैः इयन्ते, इवन्ति वा तानीति द्वन्याणि ....."दृष्य क्षेत्र-काल-भावसक्षणी बाझ प्रत्यय: परप्रत्ययः, तस्मिन् सस्यपि स्वयमसम्परिणामोऽर्थो न पर्यायान्तरमास्कन्दप्तीति तत्समयः स्वच प्रत्ययः, सावुभौ संभूय भावना उत्पादविगमयो हेत् भवतः, नान्यतरापामे कुशूलस्थमाषपच्यमानो. दकस्थघोटकमाषवत् ।-राजवार्तिक अध्याय ५ सूत्र २ इसका भाव यह है कि स्व ( उपादान ) और पर कारण ( निमित्तभूत अन्य पदार्थ ) द्वारा होने. वाली उत्पाद-व्ययरूप पर्यायांसे जो बहता है या उन पर्यायोंको जो बहाता है उसे द्रव्य कहते है..."द्रव्य क्षेत्र काल भाषका बाह्य कारण पर प्रत्यय है, उसके होते हुए भी स्वयं उस रूपसे अपरिणमनशील पदार्थ पर्यायान्तरको नहीं प्राप्त होता है। उस पर्यायान्तर रूपसे परिणत होने में समर्थ स्वप्रत्यय है। वे दोनों (ल Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान और पर) प्रत्यय यानी उपादान और निमित्तकारण मिलकर पदार्थोंके उत्पाद और व्ययके हेतु होते है। उन दोनों कारणोंमसे किसी एक भी कारणके अभाव में उस पर्यायरूप उत्पाद-पाय नहीं होते है। जिस प्रकार कि कोठीमै रक्स्वा उड़द जलादि बाह्य निमित्त सामग्रीके अभाव में नहीं पकता है और इसी तरह उबरते हुए पानी में पड़ा हुआ घोटक ( कोडरू ) उड़द ( पकनेकी उपादान शक्तिके अभावमें ) नहीं पकता है । इस प्रकरण में एक अन्य दृष्टान्त का भी ले लीजिए-खानमें बहुत-सी ऐसी मिट्टी पड़ी हुई है, जिसमें आगमके अविरोधपूर्वक हमारे दृष्टिकोणके अनुसार घसा, सकोरा आदि विविध प्रकारके निर्माणको अनेक योग्यताएं एक साथ हो विद्यमान है, कुम्हार भी हमारे समान हो अपना दृष्टिकोण रखते हुए खानमें पड़ी हुई उस मिट्टी मेंसे अपनी मावश्यकताके अनुसार कुछ मिट्टी बिना किसी भेदभावके घर ले आता है । इसके बाद उसके मन में कभी यह कल्पना नहीं होती कि इस लायो हुई मिट्टी में से अमुक मिट्टीसे तो घड़ा ही बनेगा और अमुक मिट्टीसे सकोराही बनेगा, वह तो इस प्रकार के विकल्पोंसे रहित होकर ही उस सम्पूर्ण मिट्टीको घड़ा, सकोरा आदि विविध प्रकारके आवश्यक एवं संभव मभी कायाँके निर्माण योग्य समानरूपसे तैयार करता है और तैयार हो जाने पर वह कुम्हार अपनी आवश्यकता या आकांक्षाके अनुसार उस मिट्टीसे बिना किसी भेदभावके घड़ा, सकोरा आदि विविध प्रकारके कार्यों का निर्माण कभी भी अपनी सुविधानुसार कर डालता है । उसे ऐसा विकल्प भी कभी नहीं होता कि उस तैयार की गयो मिट्टी से बड़ेका या सकोरा आदिका निर्माण जन होना होगा तब हो ही जायगा । ___ यह ठीक है कि मिट्टी में बड़ा, सकोरा आदि बनने की यदि योग्यता होगी तो ही उससे घड़ा, सकोरा आदि बनेंगे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जिस मिट्टी में बड़ा बननेको योग्यता है उसमें सकारा आदि बनने की योग्यताका अभाव रहेगा । योग्यताऐं तो उस मिट्टी में यथासंभव सभी प्रकारकी रहेंगी, लेकिन कार्य यही होगा जिसके लिये यह कुम्हार आवश्यकताके अनुसार अपनी आकांक्षा, ज्ञान और श्रमशक्तिके आधार पर अपना व्यापार चालू करेगा । यह भी ठीक है कि यदि कुम्हार घड़े के लिये अपना व्यापार चाल करता है सा घड़ा बनने से पहले उस मिट्टीकी उस कुम्हारके व्यापारका अनुकूल सहयोग पार क्रमसे पिण्ड, स्थास, काश और कुशूल पर्याय अवश्य होंगो, मह कभी नहीं होगा कि विद्यादि उक्त पर्यायोके अभातम ही अथवा इन 'पर्यायोको उत्पत्ति परिवर्तित कमसे होकर भी मिट्टी घड़ा बन जायगी। इस तरह हम अनुभवगम्य बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिये कि यदि कुम्हार खानमें डोहई मिट्टीको अपने घर लानेरूप अपना व्यापार नहीं करेगा, तदनन्तर उसको घट निर्माण के अनुकूल तैपार नहीं करेगा और इसके भी अनन्तर वह उसको क्रमसे होनेवालो पिर, स्थास, कोश, कुशल तथा घटरूप पर्यायोंके विकास में अपने पुरुषार्थका अनुकूलरूपसे योगदान नहीं करेगा तो वह मिट्टो त्रिकालमें घड़ा नहीं बन सकेगी। हमारी समझ में यह बात बिल्कूल नहीं आ रही है कि प्रत्यक्षदृष्ट, तब रांगत और आगमप्रसिद्ध एवं आपफे बारा स्वयं प्रयुक्त को जानेवालो कार्यकारणभावकी हमारे बारा प्रतिपादित उक्त व्यवस्थाको अपेक्षा करके प्रत्याविरुद्ध, तर्कविरुद, आगमविरुद्ध तथा अपनी स्वयंको प्रवत्तियोंके विरुद्ध कार्यकारणभाषके प्रतिपादन में आप क्यों संलग्न हो रहे हैं? हमारे द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभाषको उक्त व्यवस्थाको प्रत्यक्षदष्ट और आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभाषको व्यवस्थाको प्रत्यक्षविरुद्ध इसलिये हम कह सकते हैं कि घड़े का निर्माण कार्य कुम्हारके व्यापार Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा पूर्वक मिट्टी में होता हुआ देखा जाना | हमारे द्वारा प्रतिपादित मह व्यवस्था तर्कसंगत और आपके द्वारा प्रतिपादित वह व्यवस्था तकविरुद्ध भी इसलिये है कि जब तक कुम्हारका व्यापार घड़े के निर्माणके अनुरूप होता जाता है तब तक तो धड़ेका निर्माण कार्य भी होता ही जाता है लेकिन यदि कुम्हार अपने इस व्यापारको बन्द कर देता है तो घड़ेका निर्माण कार्य भी उसी क्षण बन्द हो जाता है— इस तरह घटनिर्माण के साथ कुम्हारके व्यापारका अन्य व्यतिरेक निर्णीत होता है। हमारे द्वारा प्रतिपादित और आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभाव व्यवस्थाको क्रमशः आगमप्रसिद्धता और आगमविरुद्धता के विषय में भी यह बात कही जा सकती है कि हम ऊपर जो प्रमाण अगमके दे आये है उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कार्यकारणव्यवस्था में जितनी उपयोगिता उपदान कारणकी है उतनी ही उपयोगिता निमित्तकारणकी भी है, इसलिए जिस प्रकार उपादानोपादेयभाव वास्तविक है उसी प्रकार निमित्तनैमित्तिकभाव भी वास्तविक है। उपचरित अर्थात् कल्पनारोपित या अचित्कर नहीं है। इसलिये हमारे द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभाव व्यवस्था आगम प्रतिपादित है - ऐसा प्रत्यक्ष हूँ । आपने भी अपने द्वारा मान्य कार्यकारणव्यवस्थाके समर्थन में आगम के प्रमाण दिये हैं, परन्तु हमें दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उनका अर्थ भ्रमवश अथवा जानबूझकर आप गलत ही कर रहे हैं, जैसा कि हमने स्थान-स्थान पर सिद्ध किया है, सिद्ध करते जा रहे हैं और सिद्ध करते जायेंगे। इसलिये हमें कहना पड़ता है कि निमित्तनैमित्तिकभावकी कल्पनारोपितताकी सिद्धिके लिये आगम में एक भी प्रमाण उपलब्ध न होनेके कारण आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभावव्यवस्था आगमविरुद्ध भी है। इसी प्रकार आपके द्वारा प्रतिपादित कार्यकारणभावको व्यवस्था मापकी स्वयंकी प्रवृत्तियोंके भी विरुद्ध है - ऐसा हमें तो कमसे श्रम दिख हो रहा है, स्वयं इसी तरह मान होता है या नहीं, यह आप जानें, परन्तु हमारे द्वारा प्रतिपादित आगमव्यवस्था हमारी आपको और लोकमात्रको प्रवृत्तियों से अविरुद्ध ही है ऐसा हम जानते हैं । आगे आपने राजनार्तिक के कथनका प्रमाण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयास किया है कि 'जब कोई भी द्रम्प अपने विवक्षित कार्यके सन्मुख होता है तभी अनुकूल अन्य द्रव्यों की पर्यायें उसकी उत्पत्तिनिमित्तमात्र होती हैं।' राजवातिकका वह कथन निम्न प्रकार है यथा मृदः स्वयमन्तर्घ भवन परिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र- पौरुषेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति, अतः सरस्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शंकरादिप्रचिती मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घटभवन परिणामनिहत्सुकत्वान्न घटीभवति, अतः पिण्ड एवं वाह्मदण्डादिनिमित्तसापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डाद इति दण्डादि निमित्तमात्रं भवति । अ० १ सू० २० इसका जो हिन्दी अनुवाद आपने किया है उसका विरोध न करते हुए भी हमें कहना पड़ता है कि राजवार्तिकका यह कथन आपके एकान्त पक्षका समर्थन करने में बिल्कुल असमर्थ हूँ । आपका पक्ष जिसे आपने स्वयं ही अपने शब्दोंमें मिबद्ध किया है— यह है कि न तो सब प्रकारको मिट्टी ही घटक उगदान है और न ही विश्व स्थास, कोश और कुशूलादि पर्यायोंकी अवस्थारूपसे परिणत मिट्टी घटका उपादान है, किन्तु जी मिट्टी बनन्तर समय में घट पर्यायरूपसे परिणत होनेवाली है मात्र यही मिट्टी घटका उपादान है ।' आगे आपने लिखा है कि 'मिट्टोको ऐसी अवस्थाके प्राप्त होने पर वह नियमसे चटका उपादान बनती है ।' Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ३९९ इस कथन के आधार पर कार्यकारणभाव के विषय में आपका यह सिद्धान्त फलित होता है कि कार्यों त्यत्तिक्षणसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय विशिष्ट वस्तु हो कार्यके प्रति उपादान होती है और जो वस्तु इस तरह उपादान बन जाती है उससे नियमसे कार्य उत्पन्न हो जाता है। इसी प्रकार उस समय जो अनुकूल वस्तुएँ वहाँ पर हाजिर रहती है उनमें निमितताका व्यवहार तो होता है, परन्तु कार्यकी उत्पत्ति सहायक वस्तुका अभाव अथवा कार्योत्पत्ति में बाधा पहुँचानेवाली नहीं पर गाय जाना असंभव हो समझना चाहिये । वस्तु आपके इरा मन्तब्य के विषय में सर्व प्रथम तो हम यही सिद्ध करना चाहते हैं कि आपके द्वारा कार्यकारणभावस्था के रूप में ऊपर जो अपना अभिप्राय प्रगट किया गया है उसका समर्थन राजबार्तिक के उपर्युक्त कथनसे नहीं होता है, क्योंकि राजवार्तिक के उल्लिखित कथनसे तो केवल इतनी हो बात सिद्ध होती है कि यदि मिट्टी में घटरूपसे परिणमन करने की योग्यता हो तो दण्ड, चक्र और कुम्हारका पुरुषार्थ आदि घट निर्माण में मिट्टी के वास्तविक रूपमें सहायकमात्र हो सकते हैं और यदि मट्टीने घटरूपसं परिणत होनेकी योग्यता विद्यमान न हो तो निश्चित है कि दण्ड, चक्र और कुम्हारका पुरुषार्थ आदि उस मिट्टीको घट नहीं बना सकते है अर्थात् उक्त दण्ड, चक्र आदि मिट्टी में घट निर्माणकी योग्यताको कदापि उत्पन्न नहीं कर सकते है । दूसरी बात राजवार्तिक के उक्त कथनसे यह सिद्ध होती है कि दण्डादि स्वयं कभी घटरूप परिणत नहीं होते हैं । इतना अवश्य है कि यदि दण्डादि अनुकूल निमित्त सामग्रीका सहयोग मिल जावे तो मिट्टी ही उनकी सहायता से घटरूप परिणत होती है | इसका भी आशय यह है कि यदि मिट्टी के लिये उसके घट रूप परिणमन में सहायता प्राप्त नहीं होगी तो मिट्टी अपने अन्दर योग्यता रखते हुए भी कदापि घटरूप परिणत नहीं हो सकेगो । इस प्रकार राजवार्तिक के उपर्युक्त कथनसे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता है कि मिट्टी जब घटक निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायरो अध्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायमें पहुँच जाती है तभी वह घटका उपादान बनती है और न यह निष्कर्ष हो निकाला जा सकता है कि उससे पहले जब तक वह खानमें पड़ो रहती है या कुम्हार उसे अपने घरपर ले आता है अथवा वही मिट्टी जब घट-निर्माण अनुकूल उत्तरोत्तर पिण्ड, स्थास, कोश और कुशूल आदि अवस्था प्रोंको भी प्राप्त होती जाती है तो इन सब अवस्थाओं में से किसी इसी प्रकार राजवातिकके उक्त कथनो भी अवस्था में वह मिट्टी घटका उपादान नहीं मानी जा सकती हैं। वह भो निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि मिट्टी जब की निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायसे अस्वति पूर्व क्षणवर्ती पर्याय पहुँच जाती है तो उससे घटोत्पत्तिरूप कार्य नियमसे हो हो जाता है 1 यदि कहा जाय कि राजवातिके उक्त कथन 'यथा मृदः स्वयमन्तर्घट वन परिणामाभिमुख्ये ' यहाँनेर 'आभिमुख्य' शब्द पड़ा हुआ है तथा आगे इस कथन में 'शर्करादिप्रचिती मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घट - भवन परिणामनिरुत्सुकश्वान् यहाँ पर 'निरुसुकत्व' शब्द पड़ा हुआ है। ये दोनों ही शब्द इस बातका संकेत दे रहे हैं कि 'वस्तुको जिस पर्यायके अनन्तर कार्य नियमसे निष्पन्न हो जावे उसे ही उपादान कारण कहना चाहिये और इस तरह ऐसा उपादानकारण घटकी सम्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायके अव्यवहित ऐसी पर्याय है जिनके अनन्तर समयमें पूर्व क्षणवर्ती पर्याय हो हो सकती है, क्योंकि यह पर्याय ही कार्योत्पत्ति होने में न तो कोई कमी रह जायगी और न किसी प्रकारकी बाधा खड़ी होने की संभावना भी वहाँ रह जायगी, अतः उस अवसरपर कार्योत्पसि नियमसे होगी। इसके अतिरिक्त मिट्टीको कोई Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) तस्वचर्चा भी पर्याय घट काके प्रति उपादान नहीं कही जा सकती है । कारण कि उन पर्यायों में दूसरी पर्यायोंका saura कार्योत्पत्ति के लिये पड़ जाता है और अब कार्याध्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायको ही उपादान संज्ञा प्राप्त होती है तो फिर कोई कारण नहीं कि उससे कार्य उत्पन्न न हो, क्योंकि अन्यथा उसकी उपादान संज्ञा ही व्यर्थ हो जायगी, इसलिये उस पर्यायके अनन्तर नियमसे कार्यको उत्पत्ति होती है यह मानना उचित है। दूसरी बात यह है कि यदि उस समय भी किसी सबबसे कार्योत्पत्ति रुक सकती है तो वस्तु के परिणाम स्वभावको जैन संस्कृतिको मान्यता ही समाप्त हो जायगी ।' आपका यदि यह अभिप्राय है तो इस विषय में हमारा कहना यह है कि राजधार्तिक के उक्त कथनमें पठित 'आभिमुख्य' यान्द सामान्य रूपसे घट निर्माणको योग्यता के सद्भावका ही सूचक है। इसी तरह उसमें 'निरुत्सुकष' शब्द भी सामान्यरूपसे घट निर्माणको योग्यता अभावका हो सूचक है। यही कारण है कि घटोत्पत्ति होनेको योग्यता के अभाव में कार्योत्पत्तिके प्रभावकी सिद्धिके लिये राजनार्तिक के उक्त कथनमें 'शर्करादिप्रचितो मृत्पिड' पद द्वारा बालुका मिश्रित मिट्टीका उदाहरण श्रीमदकलंकदेवने दिया है। यदि उनको दृष्टिमें यह बात होती कि उपादानकारणता तो केवल उत्तर क्षणवर्ती कार्यरून पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय ही होती है और उससे कार्य भी नियमसे हो जाता है तो फिर उन्हें (श्रीमदकलंकदेषको ) घर निर्माणको योग्यता रहित बालुकामिश्रित मिट्टीका उदाहरण न देकर कार्योपससे सान्तरपूर्ववर्ती द्वितीयादि क्षणोंको पर्यायोंम कथंचित् रहनेवालो घट निर्माणकी योग्यतावन्न मिट्टोका ही उदाहरण देना चाहिये था, लेकिन चूंकि श्रीमदकलंकदेवने बालुकामिश्रित मिट्टीका ही उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें कि घट-निर्माण की योग्यताका सर्वथा ही अभाव पाया जाता है तो इससे यही मानना होगा कि राजदार्तिक के उक्त कथन में जो 'आभिमुख्य' शब्द पड़ा हुआ है उसका अर्थ घट निर्माणको सामान्य योग्यताका सद्भाव हो सही है । इसी प्रकार उसी कथन में पड़े हुए 'निरुत्सुकत्व' शब्दका अर्थ घट निर्माणको सामान्य योग्यताका अभाव ही सही है । इस प्रकार जैसे आप उत्तर क्षणवर्ती कार्यरूप पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय में कार्य की उपादानता स्वीकार करते है उसी प्रकार खान में पड़ो अथवा खानसे कुम्हार द्वारा घर लामो गयी मिट्टोमें तथा कुम्हार के व्यापारका सहयोग पाकर निर्मित हुए मिट्टी के पिण्ड स्थास, कोश और कुलादिमें भी उपशधानताका सद्भाव सिद्ध हो जाता है और यह बात तो हम पहले भी कह चुके हैं कि यदि मिट्टी में खानको अवस्थासे लेकर कुशलपर्यन्त या इससे भी और आगे जहाँतक कार्यकारणभावकी कल्पना की जा सके की अवस्थाओं में यदि घट निर्माणको उपादानकारणता नहीं रहती है तो फिर कुम्हारका घट-निर्माणके उद्देश्यसे मिट्टीका खानसे घर लाना तथा उसके पिण्ड, स्वास, कोश और कुशलादि पर्यायोंके निर्माणके अनुकूल व्यापार करना यह सब मूर्खताका हो कार्य समझा जायगा । तात्पर्य यह है कि मिट्टीकी इन सब अवस्थाओं के निर्माण में कुम्हार जो व्यापार करता है वह सब उससे (मिट्टी से ) घट निर्माणको लक्ष्यमें रखकर बुद्धिपूर्वक ही करता है और प्रत्यक्ष में देखा भी जाता है कि खानसे कुम्हारके द्वारा लायी गयी मिट्टी ही पहले पिण्डका रूप धारण करती है, पिण्ड स्थासका रूप धारण करता है, स्थारा कोशका रूप धारण करता है और कोण कुशलका रूप धारण करते हुए अन्तमें उसका वह कुशूलरूप हो कुम्हार चक्र आदिको सहायता से घड़े के रूप में परिणत हो जाया करता है, इसलिये क्षणिक पर्यायोंके रूपमें - निर्माणरूप कार्यका विभाजन करके यदि घट-निर्माणको अन्तिम पर्याय में अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्यायको घटका उपादान कहा जा सकता है तो उसी घट निर्माणको यदि पिण्ड, स्थास, कोण कुशूल और घटरूप स्थूल पर्यायोंमें विभाजित किया जाय तो उस हालत में घट स्थूल पर्यायसे अव्यवहित पूर्वमें रहनेवाली स्थूल Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - शंका ६ और उसका समाधान कुमाल पर्यायको घटका उपादान मानने में कुछ धापति नहीं आती है । इसी प्रकार घट-निर्माणको यवि पिण्ड, स्थास, कोश, कुशूल और घटरूप पर्यायों में विभाजित न करके इन सब पर्यायोको ही केवल अखण्ड एक घट-निर्माण कार्य मान लिया जाय तो उस हालत में मिट्रीकी ही तो घटरूप पर्याय मनती है, अत: तक भी घटका उपादान कहना असंगत नहीं है। __ जिस प्रकार काल द्रश्य की क्षणवर्ती पर्याय समय कहलाती है और घड़ी, घण्टा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास, वर्ष आदि भी कालकी यथासम्भव संख्यात शीर असंख्चात हामयरूप पर्यायोंके अखण्ठ पिण्डस्वरूप ही तो माने जा सकते है। इस तरह जैसे समयके बाद समय, इसके अनन्तर दिन के बाद दिन, इसके अनम्बर सप्ताह के बाद सप्ताह, इसके अनन्तर पक्षके बाद पक्ष, इसके अनन्तर मासके बाद मास और इसके भी बनार वर्ष के बाद वर्ष आदिका व्यवहार कालमें किया जाता है और वह सर समयके समान हो वास्तविक कहलाता है वैसे ही मिट्टोको पचासम्भव भसंख्यातक्षणिक पर्यायोंके समहरू पिण्ड पर्मायके निर्माणके बाद यात क्षतिपय अनहरून स्पास पायका निर्माण, इस स्थास पर्यायके निर्माण के बाद असंहपाप्त क्षणिक पर्यायोंके समूहका कोश पर्यायका निर्माण, इस कोश पर्वायके निर्माण के बाद असंख्यातक्षणिक पर्यायोंकि समूहरूप कुशूल पर्यायका निर्माण और इस कुल पर्यायके निर्माण के बाद अप्रख्यात क्षणिक पर्यायोंके समूहरूप घट पर्यायका निर्माण स्वीकार करके घट पर्यावकी अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप कुशलको घट पर्यायका उपादान, कुशल पर्यायको अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप कोशको कुशल पर्यायका उपादान, कोशकी अव्यवहित पूर्व पर्यायरूप स्थानको कोष पर्यायका उपादाम, स्थासको अभ्यरहित पूर्य पर्यायस्प पिण्डको स्थास पर्यायका उपादान तथा पिण्डकी अव्यवहित एवं पर्यायरूप मिट्रीको पिण्ड पर्यायवल उपादान मामना असंगत नहीं है । क्या आप क्षणिक पर्यायको ग्रहण करनेवाले ऋजुसूत्र मयको और उस पर्यायके आश्रषभूत कालको पर्यायरूपक्षणको वास्तविक मानने को तैयार है? यदि हाँ, तो हमें प्रसन्नता होगो, और क्याणिक पर्यायों के उत्तरोत्तर वृद्धिंगत समूहोंको ग्रहण करनेवाले व्यवहार, संग्रह तथा नराम नोंको तथा क्षणिक पर्यायोंके इन समूहों के आश्रयभूत काल के घड़ी, घण्टा, दिन, सलाह, पक्ष, मास और वर्ष आदि भेदोंको आप अवास्तविक ही मान लेना चाहते है? यदि हाँ, लो समय और समयके समूहोंमें तथा क्षणिक पर्यायों और इन पर्यायोके समूहोंमें बास्तविकता और अवास्तविकताका यह वषम्य कैसा ? और यदि समय और सदाश्रित वस्तुकी क्षणिक पर्यायको भी व्यवहारनयका विषय होनेके कारण अवास्तविक अर्थात् उपचरित या कल्पनारोपित ही मान लेना चाहते हैं तो फिर आपके मतसे क्षणिक पर्यायोंके आधारपर उपादानोपादेयभावको बास्तबिकता कैसे संपात हो सकती है। इन सब बातोपर आप निन्द मस्तिष्कसे विचार कीजिए। इसी प्रकार व्यवहारनयकी विषयभूत यदि क्षणिक गणिों और उनके आश्रयभूत कालके अखण्ड क्षणोंको आप वास्तविक ही मानते हैं तो व्यवहारको फिर अवास्तविक, उपचरित या कल्पनारोपिस कैसे माना जा सकता है ? इसपर भी ध्यान दीजिए। एक बात और भी विचारणीय है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञाल, क्षायोपशामिक होने के कारण किसी भी वस्तुको समयवती अखपड़ पर्यायको ग्रहण करने में सर्वश्रा असमर्थ ही रहा करते है। इन ज्ञानीका विषय अस्तूको कमसे-कम अन्तमहर्तवती पर्यायोंका समूह ही एक पर्यायके रूप में होता है, इस प्रकार इन ज्ञानोंको सपेक्षा मिट्टो, पिण्ड, स्थास, कोश, कुशल और घटम उपादानोपादेयव्यवस्था असंगत नहीं मानी पा सकली है। केबलझान वस्तुको समयवर्ती पर्यायको विभक्त करके जानता है ऐसा आप मानते हैं। लेकिन यहाँकर Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वंचची यह प्रश्न तो आपके सामने खड़ा ही हुआ है कि व्यवहाररूप होने के कारण वह पर्याय आपके मतरी अवास्तविक, उपञ्चरित एवं कल्पनारोपित अतएव अवस्तुभूत है, इसलिए वह पर्याय आकाशकुसुम तथा खरविषाणके समान, केवलज्ञानका विषय वस हो सकती है ? और जच्च क्षणिक पर्यायको केवल ज्ञानी जानता है तो उसकी अवास्तविकता समाप्त हो जाने के कारण व्यवहारविषयक आपका सिद्धान्त स्वयं खण्डित हो जाता है । फिर बिचार तो कीजिये कि मिट्टी अपने आप उपस्थित होनेवाले बाह्य कारणोंके सहयोगसे भी यदि प्रतिसमय अपना रूप बदलती है और उस मिट्रीको उसलप बदलाहटमै मति-श्रुतज्ञानियों के लिए आगे चलकर जो विलक्षणताका भान होने लगता है-विलक्षणताका वह भान--उस रूप बदलाहटके कार्यकारणभावको खोजने के लिए उनको ( मति-श्रुतज्ञानियोंको) प्रेरित करता है। यहाँ पर रूप बदलाहटमें आनेवाली विलक्षणताका एक अनुभवपूर्ण उदाहरण यह दिया जा सकता है कि कोई एकदम जो क्रोधसे लोभादि कषायरूप व्यापार करने लगता है इसका कारण तो खोजना चाहिए कि परिवर्तन में यह विलक्षणता एकदम कैसे आ गयो ? इसी तरह जीवकी मिथ्यात्व पर्यायसे एकदम सम्बवत्व पर्याय कैसे हो गयी ? विचार करने से ज्ञात होता है कि ये सभी विलक्षणता, निमित्त कारणोंसे होती है। इस तरह यह तो हुई क्षणिक फ्र्यायोंकी बात, लेकिन जब हम स्थल विलक्षणताबोंपर विचार करते है तो मालूम पड़ता है कि वह मिट्टी जो समान और असमान पर्यायोंके रूपमे प्रति समय बदलतो चलो आ रही है वह यकायक पिण्डरूप स्थूल विलक्षणताको अपने-आप उन क्षणिक पर्यायोंके चाल परिवर्तनके बलपर कैसे प्राप्त हो जाती है? केवल इतना कह देनेसे तो काम नहीं चल सकता है कि मिट्टीकी पिण्डरूप इस विलक्षण बदलाहटको इस रूपमें केवली भगवानने देखा है और जब कि हम इस विलक्षण बदलाहटको कुम्हार व्यापार आदि साधनों द्वारा होतो हुई देख रहे है तथा तसे और आगमसे उसकी पुष्टि भी पा रहे है तो ऐसी स्थितिम केवल इस प्रकारका प्रतिपादान करना कि मिट्रोकी अमुक समयपर पिष्टरूप पर्याय होना नियत था, केवली भगवानने पहलेसे हो ऐसा देख रक्खा है, उससे अपवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय ही उसम उपादान कारण है तथा इस प्रकारका प्रतिपादन करना कि निमित्त कारणको उसमें कुछ उपयोगिता नहीं है आदि कहाँतक बुद्धिगम्य हो सकता है यह आप जानें । इस प्रकार राजवातिकका 'यथा मृदः' इत्यादि कथन न केवल आपकी कार्यकारणभाव व्यवस्था सम्बन्धो मान्यताको पुष्टि नहीं करता है, बल्कि मति-श्रुतज्ञानियों के अनुभव, प्रत्यक्ष और तर्कसे तथा आगमके अन्य प्रमाणोंसे-जिनका उल्लेख पर किया जा चुका है-जसका ( आपको कार्यकारणव्यवस्था सम्बन्धी मान्यताका)खुण्डन होता है। थोड़ा इस तरफ भी विचार कीजिये कि अध्यषहित उत्तर क्षणवर्ती पर्यायके प्रति अव्यवहित पर्व क्षणवर्ती पर्यायविशिष्ट वस्तुको जब आप उपादान कारण मानने के लिए तैयार हैं और यह भी मानते हो है कि उस अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायसे उस अव्यवहित उत्तर क्षणवर्ती पर्यायकी उत्पत्ति निवमसे होती ही है तो कार्य कारणमावको यह व्यवस्था तो पूर्व-पूर्वकी अनेक क्षणिक पर्यायोंके समूहरूप कुशूल, कोश, स्थान, पिण्ड और कुम्हार द्वारा खानसे लायो हुई अथवा अन्तम खानी पड़ी हुई मिट्टी तककी एकके पूर्व एकके रूपमें विभाजित सभी क्षणिक पर्यायामें भी लागू होगी। ऐसी स्थिति में खानको मिट्टी में अथवा खानसे कुम्हार द्वारा लायी गयी मिट्टी में तथा पिण्ड, स्थास, कोश और कुशूलरूप मिट्टीकी अवस्थाम घटके अनुरूप नियमित कारणताका निषेध कैसे किया जा सकता है? अर्थात् घटको निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती कार्यरूप पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवती पर्याय यदि आपके मतमें नियमसे घटको उत्पन्न करनेवालो है तो उक्त कार्यरूप इस पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवती इस कारणरूप पर्यायको इससे भी अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय नियमसे ही उत्पन्न करेगो, इस तरह कार्यकारणभावकी यह Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शंका ६ और उसका समाधान ४०३ पूर्व परंपरा नियमितपनेके आधारपर ही कुशल, कोश, स्थास, पिण्ड और अन्त में खानकी मिट्टीतक पहुँच जायगी । इस प्रकार आपको मान्य 'उपादान कारण वही है जिससे निययसे कार्य उत्पन्न हो जावे' उपादानकारणका यह लक्षण जिस प्रकार आपके मतसे घटको निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायसे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याथ में घटित होता है उसी प्रकार घट-कायंको अनुकूलताको प्राप्त मिट्टोको उक्त सभी पर्यायोम भी आपके मतसे घटित हो जाता है । इस तरह आपके मतानुसार भी मिट्टीकी सामान्यरूप अवस्थाको तथा घट-निर्माणके उद्देश्यसे कुम्हार द्वारा निर्मित पिशादिहा अवस्थाओंको घट-कार्यके प्रति उपासन कारण मान लेने में कोई बाधा नहीं रह जाती है। इतना ही नहीं, घट-निर्माणको योग्यताको प्राप्त मिट्रीकी आदि अवस्थाको प्राप्त परमाणुरूप द्रश्यों में अनादि कालसे ही यह ध्ययस्था आपके मतानुसार स्वीकार करनी होगी, लेकिन इससे जो अव्यवस्था पैदा होगी, वह यह कि प्रत्येक परमाणुरूप द्रश्यमें परिणमनको ही योग्यता तथा उनका परिणमग एक ही रूप स्वीकार करना होगा जो कि जैनदर्शनको व्यवस्था तथा आगमके स्पष्ट विरुव पड़ता है। पंचास्तिकाय गाथा ७८ की प्राचार्य अमुतचन्द्रको टोका लिखा है पृथिव्य जोषायुरूपस्य धासुचतुष्कस्य एक एक परमाणुः कारणम् । अर्थ-पृथिवी, जल, तेज और वायु इन चारों धातुओं का एक ही परमाणु कारण होता है । गाथामें इस बातको स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार किया गया है। इस तरह आएको मान्यता में आगमका विरोध स्पष्ट है। इस अव्यवस्थाको नहीं होने देने का यही एक उपाय है कि आप अपने द्वारा मान्य रादोष कार्यकारणमात्र व्यवस्थाको बदलकर हमारे द्वारा स्वीकृत बागममम्मत व्यवस्थाको स्वीकार कर लें। यदि कहा आप कि जिस प्रकार घटकी निष्पन्न अन्तिम प्रणवर्ती पर्यायका उमसे अव्यवहित पर्व क्षणवर्ती पर्यायके साथ कार्यकारणभावका नियम बनता है वैमा नियम उस अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायसे पर्वको पर्यायों के साथ घट की निष्पा अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायका नहीं बन सकता है तो इसपर हम आपसे पूछना वाहेंगे कि जम आपके मतसे क्रमनियमित पर्यायोंके मध्य अपवहित पूर्वोत्तर क्षणवर्ती पर्यायों में नियमित कार्यकारणभाव विद्यमान है तो आपके इस मत में यह कदापि नहीं कहा जा सकता है कि जैसा कार्यकारणभावका नियम घटको निष्पन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायका उससे अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायके साथ बनता है बैसा उससे पूर्वनी पर्यायोंके साय नहीं बन सकता है। यदि फिर भी कहा जाय कि कार्यरूप पर्यायसै अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पीवमें ऐपो सामर्थ्य प्रगट हो जाती है कि उससे अनन्तर क्षणमें ही कार्य उत्पन्न हो जाता है। तो इसपर भी यह प्रश्न उठ सकता है कि यह सामथ्र्य क्या है? और इराको सत्पत्तिका कारण भो क्या है ? यदि आप इसके उत्तरमें यह कहें कि कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय में स्वभावरूपसे पाया जानेवाला कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्तीपना ही वह सामर्थ्य है जो अनन्तर समय में नियमस कार्यको पैदा कर देती है, तो यह मान्यता इसलिए गलत है कि कार्यान्यवहित पूर्व क्षणवतीं पर्यायम जो काव्यिवहित पूर्व क्षणअतित्वका धर्म पाया जाता है वह स्वभावसे उत्पन्न हुआ नहीं है, किन्तु वह तो कार्यसापेक्ष धर्म है, अतः जब सक कार्य निष्पन्न नहीं हो जाता तब तक उस अध्ययहित पूर्व पर्यायमें काव्यिवहित पूर्व क्षणवर्तित्व रूप धर्मका व्यवहार होहो नहीं सकता है, इसलिए यदि कहा जाय कि कार्यात्मतिकी स्वाभाविक अतीन्द्रिय - - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा योग्यता ही सामर्थ्य शवका याज्य है तो फिर हमारा है कि इसको मिट्टीकी कुशूल, कोश, स्थान, पिष्टरूप पर्यायोंमे तथा इसके भी पहले की सामान्य मिट्टी अवस्था भी गयी जाती है. इसलिए घट कार्यके प्रति इन सबको उपादान कारण मानना असंगत नहीं है। अब यदि आप हमसे यह प्रश्न करें कि यदि सामान्य सिट्टी जो खानमें पड़ी हुई है पथवा जिसे कुम्हार अपने घरपर के बाया है उस मिट्टोमें तथा उसकी आगामी पिण्डादि अवस्थाओ में यदि घट कार्यकी सामर्थ मान ली जाती है तो फिर इन सब अवस्थाओं में भी मिट्टी से सीधा घट बन जाना चाहिए । तो इस प्रश्नका उत्तर यह है कि मिट्टी में घट निर्माणकी योग्यता यद्यपि स्वभाव से हो है, परन्तु परमाणुओं का जो मिट्टीरूप परिणमन हुआ है वह केवल स्वभावसे न होकर किसी मिट्टीरूप स्कन्धके साथ मिश्रण होनेवर ही हुआ है अर्थात् जैन संस्कृतिको मान्यता के अनुसार जिस प्रकार पुद्गल कर्म- नौकर्मके साथ विद्यमान मिश्रण के कारण आत्माकी गंगाररूप मिश्रित अवस्था अनादिकाल से मानी गयी है उसी प्रकार जैन संस्कृतिमें पुद्गल को भी अनादिकाल से अणु और स्कन्ध इन दो स्वीकार किया गया है। इस भेदन प्रकार मिट्टीरूप स्कन्धकी स्थिति अनादिसिद्ध होती है परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वह स्वस्थ नाना क्योंके परस्पर मिश्रण हो बना हुआ है, अतएव मिट्टी में पाया जानेवाला मुस्तिका धर्म मिट्टीकी अपेक्षा स्वाभाविक होते हुए भी नाना द्राणोंके मिश्रण से उत्पन्न होने के कारण कार्यधर्म ही कहा जायेगा । उस अनादिकालोन मिट्टीरूप स्कन्धमें अन्य पुद्गल परमाणु भी जो आकरके मिल जाते हैं उनमें वह मुकित्व धर्म उत्पन्न हो जाता है तथा जो परमाणु उस मिट्टीमेंसे निकल जाते हैं उनका तब वह पूर्वमें सम्मिलित होन मृत्तिकात्व धर्म नष्ट हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी स्वन्यरूपता के आधारपर पैदा होनेवाली पर्यायका रूप परमाणु सिद्धरूपये नहीं पाया जाता है। यह बात दूम है कि उसमें इस जातिको स्व. सिद्ध योग्यता पायी जाती है कि यदि दूसरे अणु द्रव्यों या स्कन्ध द्रक्योंके साथ किसी अणु द्रव्यका मिश्रण हो जाता है तो वह अणु उसरूप परिणाम जाता है । इससे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि अनुरूप तो रूप कार्यकी उपादानता नहीं मानी जा सकती है, केवल मिट्टीरूप स्कन्धमें ही घटको उपादानताका अस्तित्व सम्भव दिखाई देता है। प्रत्यक्ष देखने में आता है कि घटकी उपादानताको प्राप्त यह मिट्टी अपने आप तो अवश्य घटरूप परिणत नहीं होती है और कुम्हार द्वारा दण्ड, चक्र आदिकी सहायता से घटानुकूल व्यापार करनेपर पिण्ड, स्वास, कोश, कुशल आदिके क्रमते अथवा इनकी क्षणिक पर्याय क्रमसे अवश्य घटरूप परिणत हो जाती है। इस तरह इस अन्वयव्यतिरेक के आधारपर यह निश्चित हो जाता है कि घट कार्यके प्रति अपनो स्वाभाविक योग्यता अनुसार उपादानताको प्राप्त मिट्टी कुम्हार आदि अनुकूल निमित्तोंके सहयोग ही उत्पन्न होनेवाली उक्त क्रमिक पर्यायोंके बिना घट परिणत नहीं हो सकती है। इनके साथ ही यह भी देखने में जाता है कि यदि मिट्टी अच्छी नहीं है दो चतुर कुम्हार उससे अच्छा सुन्दर घड़ा नहीं बना सकता है और मिट्टी अच्छी भी हो लेकिन यदि कुम्हार चतुर न हो अथवा उसके सहायक दण्ड, चक्र आदिमें कुछ गड़बड़ी हो तो भी बड़ा सुन्दर नहीं बन सकता है । अलावा इसके यह भी देखने में आता है कि पड़ा बनाते हुए कुम्हारके सामने कोई बाधा आ जाती है और तब उसे यदि अपना घड़ा पड़ा बनानेरूप व्यापार बन्द कर देना पड़ता है तो उसके साथ उस घड़का बनना भी बन्द हो जाता है और कदाचित यह भी देखने में आता है कि कोई दूसरा व्यक्ति आकार घण्टा प्रहार उस बनते हुए पर कर देता है तो बनते-बनते भी घड़ा फूट जाता है फिर चाहे घट निर्माणको अन्तिम क्षणवर्ती कार्यरूप पर्याय से अभ्यवह पूर्व क्षणवर्ती पर्याय ही वह क्यों न हो। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ ओर उसका समाधान ४०५ ऐसा भी देखने में आता है कि घटका उत्पतिक्रम चालू रहते हुए बीचकी किसी भी अवस्थामें किसी श्री क्षण वह घट फूट भी जाता है, इसी प्रकार ऐसा भी देखने आता है कि घटका निर्माण कार्य समाप्त हो जाने के बाद भी वह किसी भी क्षण फूट जाता है। अब आप जो यह मानते है कि पटकी अन्तिम से अव्यवहित पूर्वाणवर्ती पर्यायसे नियमसे पढकी उत्पत्ति होती है तो इसका आशय मह हुआ कि आपको मान्यता अनुसार घटोत्पत्तिका कार्य चालू रहते हुए यदि कदाचित किसी अवस्थायें उसका विनाश भी होना हो तो वह विनादा घटको संवरण अन्तिम पर्याय से यह पर्व क्षणवर्ती पर्यायसे भी अभ्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय तक ही हो सकेगा। इसी प्रकार पटका निर्माण कार्य समाप्त हो जाने के अनन्तर भी आपकी मान्यता के अनुसार घटके विनाशकी बराबर संभावना बनी रह सकती है, लेकिन पटका निर्माण कार्य चाल रहते हुए जब टोक्षिस पूर्ववर्ती पर्याय उपस्थित हो जायगी तो आपकी इस मान्यता के अनुसार कि 'पटको निष्यन्न अन्तिम क्षणवर्ती पर्यायसे अव्यवहितपूर्व गवर्ती पर्यायसे नियमसे घटको उत्पत्ति होती है उसके विनाशकी कतई संभावना नहीं रहेगी। लेकिन यह मान्यता आगमका स्पष्ट प्रमाण न होनेसे स्वीकार नहीं की जा सकती है और यदि आप समझते हैं कि उसका विना घटी निमिर्ती पर्यायसे अव्यवहितपूर्व क्षणवर्ती पयमे भी हो सकता है तो फिर इस तरह तो आपकी यह मान्यता समाप्त ही हो जायगी कि 'पटको निष्पन्न अखिम क्षयवर्ती पर्याय अस्य पूर्व क्षणवर्ती पर्यायके अनन्तर नियम पटकी उत्पत्ति होती है।' सबसे अधिक विचारणीय बात तो यह है कि खानमें पड़ी हुई मिट्टी से लेकर पट निर्माणको अतिम अपवर्ती पर्याय लकको प्रत्येक पर्यायी अध्यत्रहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायसे जब उसकी उत्पत्ति नियमसे होने पर नियम आप मानते हैं। तो किसी भी पर्यायको अवस्थायें हार आदि द्वारा पटका विनाश नहीं होना चाहिये, लेकिन विनाश की संभावनाका अनुभव को प्रत्येक लिये प्रत्येक प्रत्येक कार्यकी प्रत्येक अवस्थायें प्रत्येक क्षण होता ही रहता है। ↓ आपकी जो यह मान्यता है कि कार्य अध्यवहित पूर्व क्षयवर्ती पर्याय वस्तु जाने पर नियमले पहुँच कार्यकी उत्पत्ति होगी अयन संस्कृतिक वस्तु नमन स्वभावकी मान्यता ही समाप्त हो जाय सो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे आगमसम्म सिद्धान्त के अनुसार जिस वस्तु होनेवाले जिस कार्यके अनुकूल निमित्त जब जहाँ होंगे तब वहाँ उन निमित्तांके सहयोग से उस वस्तु उस वस्तुको उपादान शक्ति अनुसार यह कार्य अवश्य ही होगा। इसका मतलब यह है कि वस्तुका परिणमन तो प्राकृतिक ढंगसे हमेशा होता ही रहता है, वह कभी बन्द नहीं होता परन्तु उसमें विवक्षित परिणमन या तो उपादान शक्ति भाव में अथवा अनुकूल निमित्त सामग्री के सहयोग के अभाव और अथवा बाधक सामग्री के सद्भावमें अवश्य नहीं यह है कि उस समय उस वस्तु होनेवाले स्वप्रत्यय गरि तो कोई विरोध करता ही नहीं है और न विरोध करना ही चाहिये, साथ ही उस समय विवक्षित परिणमनके अनुकूल अथवा प्रतिकूल जैसे निमित्तों का सहयोग उस वस्तुको प्राप्त होता है उसके आधार पर वह वस्तु अनी उपादान शक्ति के अनुसार अपने स्व-परमाय परिणमन करतो ही है । होता आगे आपने अपने इस मन्तब्यको कि 'जब मिट्टी घट पर्यायके परिणमनके सम्मुख होती है तब दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्नकी निमित्तता स्वीकृत की गयी है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं होते' प्रमेयकमलमार्तण्डका भी प्रमाण उपस्थित किया है जो निम्न प्रकार है। : किं प्राहकप्रमाणाभावाच्छफेरनावः अतीवाद वा ? तत्रायः पक्षीयुक्त कार्योत्पश्यन्यथानुप Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा पतिजनितानुमानस्यैव तमाहकत्वात् । ननु साम्यधीनोत्पसिकरवात् कार्याणां कथं तदन्यथानुपपत्तिः यतोऽनुमानात्तत्सिन्द्रिः स्यात् इत्यसमीचीनं यतो नास्माभिः सामायाः कार्यकास्त्विं प्रतिषिध्यते किन्तु प्रतिनियतायाः सामग्याः प्रसिमियतकार्यकारिवं अतीन्द्रियशक्तिसहभावमन्तरेणासंभाव्यमित्यसावध्यग्युपगंतव्या । -प्रमेयकमल-मार्तण्ड २,२ पृ० १९. कारगरेर इमदा में हिन्दी अर्थ आपने किया है उससे हमारा कोई विरोध नहीं है। इस उद्धरणा के आगे एक दूसरा उद्धरण भी प्रमेयकमलमार्तण्डका ही आपने दिया है जो निम्न प्रकार है यच्चोच्यते-शक्तिनित्या अनित्या वेत्यादि । तत्र किमयं दव्यशक्ती पर्यायशक्ती या प्रश्नः स्यात्, भावानां दध्यपर्यायशक्त्यान्मयात् । तत्र इयशक्तिमित्यैव, अनादिनिधनस्वभाषस्वाद् द्रव्यस्य । पर्यायशक्तिस्वनित्यैव, सादिपर्यवसानत्वात् पर्यायाणाम् । म च शक्तेनित्यत्वे सहकारिकारणानपेक्षयवार्थस्य कार्यकारिखानुपंगः, द्रव्यशक्तः केवलायाः कार्यकारिवानम्युपगमातू । पर्याप्रशक्तिसमन्विता हिय्यशक्तिः कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैव द्रव्यस्य कार्यकारिस्वातीतेः । तत्परिणतिश्चास्य सहकास्किारणापेक्षया इति पर्यायशक्तेस्तव भावात सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः सहकारिकारणापेक्षायथ्यं वा। -अमेय० २,२, पृष्ठ २०७ इसका भी जो हिन्दी अर्थ आपने किया है उससे और इस उद्धरणसे भी हमारा कोई विरोध नहीं है। चूंकि दोनों उद्धरणोंका हिन्दी अर्थ आपने किया है, अतः यहाँ पर नहीं लिखा जा रहा है। उसे आपके द्वितीय उत्तरमें ही देख लेना चाहिये । अब यहां पर यह प्रश्न उठता है कि जब हमारे और आपके मध्य प्रमेयकमलमार्तण्डके उल्लिखित दोनों उद्धरणोंकी प्रमाणताको स्वीकार करने में विवाद नहीं है तथा उन दोनों ही उद्धरणोंका जो हिन्दी अर्थ आपने किया है उनसे भी हमें विरोध नहीं है तो फिर विवादका आधार क्या है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि आपने उक्त दोनों उद्धरणोंका हिन्दी अर्थ ठीक करके भी उसका अभिप्राय ग्रहण करने में गलती कर दी है। उक्त दोनों उद्धरणोंमेंसे प्रथम उद्धरणका अभिप्राय यह है कि यद्यपि प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति साधन सामग्रीकी अधीनतामें ही हुमा करतो है, परन्तु प्रत्येक प्रकारकी सामोसे प्रत्येक प्रकारका कार्य उत्पन्न न होकर सामग्रीविशेषसे कार्गविशेषके उत्पन्न होनेका जो नियम लोकमें देखा जाता है इसके आधार पर ही अतोन्द्रिय शक्तिको स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। तात्पर्य यह है कि घटको उत्पत्ति मिद्रीसे ही होतो है, पटके माधनभूत तंतुओंसे कदापि घटको उत्पत्ति नहीं होती । इसी प्रकार मिट्टीसे घटके उत्पन्न होने में कुम्हारका व्यापार हो अपेक्षित होता है जुलाहेका व्यापार अपेक्षित नहीं होता यह जो निमम लोक में देखा जाता है यह नियम उपादान और निमित्तभूत वस्तुओंमें अपने-अपने ढंगकी अतीन्द्रिय शक्तिको स्वीकार किये बिना नहीं बन सकता है, अतः उपादानभूत वस्तृमें कार्य विशेषरूपसे परिणत होनेकी और निर्मिसभूत वस्तुमें उस उपादानभूत वस्तुको उसको उस कार्यरून परिणतिमें सहयोग देनेको अपने-अपने ढंगको पृथक्पृषक अतीन्द्रिय शक्तिका सदभाव स्वीकार करना आवश्यक है। इसी प्रकार दूसरे उद्धरणका अभिप्राय यह है कि प्रतिनियत कार्यके प्रति प्रतिनियत वस्तु ही उपादान कारण होती है । जैसे घटरूप कार्यके प्रति मिट्टी हो उपादान कारण होती है यह तो ठीक है । परन्तु स्यूल Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का समाधान ४०७ पर्यायोंके विभाजनको अपेक्षा वह मिट्टी जब तक कुशूलरूप पर्यायको प्राप्त नहीं हो जाती है तब तक अथवा क्षणिक पर्यायोंके विभाजनको अपेक्षा बह मिट्टी जा सक कारगत वा पर्याय सातो नहीं प्राप्त हो जाती है तब तक घट कार्यरूप परिणत नहीं हो सकती है। इस प्रकार मिट्टी में पाया जाने वाला मृत्तिकास्वरूप वस्तु-धम उसको ( मिट्टीकी ) घटरूप पर्यायकी उत्पत्तिम यद्यपि कारण होता है परन्तु जब तक यह मृत्तिकारवरूप वस्तु-धर्म कुशूल पर्यायरूपतासे अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवतों पर्यायरूपतासे समन्वित नहीं हो जाता तब तक वह मिट्टो घट-कार्यरूपसे परिणत नहीं हो सकती है । चूँकि मिट्टीकी कुशूल पर्यायरूपता अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूपता निमित्तोंके सहयोगको अपेक्षा रखती है, अतः मिट्टी को जिस समय अनुकूल निमित्तोंका सहयोग प्राप्त हो जाता है उस समयमें ही वह मिट्टो कुशलरूपता अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूपताको प्राप्त होती है इस तरह कार्यमें न तो सवंदा उत्पत्तिका प्रसंग उपस्थित हो सवता है और न सहकारी कारणकी व्यर्थता ही सिद्ध होती है। अब आप अपने गृहीत अभिप्रायके साथ दोनों उद्धरणोंके ऊपर लिखित अभिप्रायोंका मिलान करेंगे तो आपको अभिप्रायके ग्रहण करने में अपनी गलतीका पता सहज ही में लग जायगा। ___आपने जो अभिप्राय ग्रहण किया है और जिसे हम ऊपर उद्धृत कर आये है.---यह है कि मिट्टी घट-पर्यायके परिणमनके सन्मल होती है तब दण्ड, चक्र और पौरुषेय प्रयत्नको निमित्तता स्वीकृत की गयी है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किये गये हैं।' मालम पड़ता है कि उक्त उद्धरणोंका यह अभिप्राय आपने दूसरे उद्धरण में पठित तदेव' पदके आधारपर ही ग्रहण किया है, परन्तु आपको मालूम होना पाहिये कि उस उद्धरण, 'सदैव' पदका अभिप्राय यही है कि मिट्टीको जिस समय निमितोंका सहयोग प्राप्त होता है उस समय में ही वह मिट्टी कुशूल पर्यायरूपता अथवा कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूपताको प्राप्त होती है।' इस प्रकार हमारे द्वारा और आपके द्वारा गृहीत दोनों पर्यायों में जमीन-आसमानका अन्तर देखनके लिये मिलता है, क्योंकि जहाँ आपके अभिप्रायके आधारपर निमित्तकी कार्यके प्रति व्यर्थता सिद्ध होती है यहाँ हमारे अभिप्रायके आधारपर निमित्तको कार्यके प्रति सार्थकता ही सिद्ध होती है। अर्थात आपका अभिप्राय जहाँ यह बतलाता है कि जब उपादान कार्यरूप परिणत होनेके लिये तैयार रहता है तब निमित्त हाजिर रहता है वहाँ हमारा अभिप्राय यह बतलाता है कि जब निमित्तोंका सहयोग नपादान की कार्योत्पत्ति के लिये प्राप्त होता है, उस समय में ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। जैसे साइकल को आप चलाइये, उसपर बैठ जाइये और उसे चलाते जाइये, साइकल चलती जायगी और आपको भी वह अभिलपित्त स्थानपर पहुँचा देगी। आपने जो यह लिखा है कि दण्ड, चक्र आदिमें निमित्तता उसो समय स्वीकार की गई है जब मिट्टी घट-पर्यायके परिणभनके समुन्न होती है, अन्य कालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किये गये हैं। इस विषयमें हमारा कहना यह है कि कुम्हार, दण्ड, चक्र आदिम घटके प्रति निमित्त कारणताका अस्तित्व उपादानभूत वस्तुकी तरह नित्यशक्तिके रूप में तो पहले भी पाया जाता है, क्योंकि कार्योत्पत्ति के लिये उपादान भूत वस्तुके संग्रहनो सरह निमित्तभूत वस्तुका भी लोकम संग्रह किया जाता है। यह बात दूसरी है कि उपादान और निमित्त दोनों ही प्रकारकी वस्तुओंका उपयोग कार्योत्पत्तिके अवसर पर ही हुआ करता है, इसलिये आपका वैसा लिखना भी गलत है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉ૮ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा बड़े खेदकी बात है कि आपने अपने पक्ष के समर्थन में जहाँ-जहाँ और जितमे आगमके उसरण दिये है उनमें सर्वत्र इसी प्रकारकी गलतियां आपने को हैं। हमारी आपसे बिनय है कि आगमके वचनोंका अभिप्राय बिल्कुल स्वाभाविक ढंगसे आगमके दुसरे बचनोंके साथ समन्वयात्मक पद्धतिको अपनाते हुए प्रकरण आदिको लक्ष्यमें रखकर वाक्यविन्यास, पदोंकी सार्थकता, ग्रन्थकर्ताकी विषय-मर्मज्ञता साहित्यिक ढंग और भाषापांडित्य आदि उपयोगी बातोंको लक्ष्यमें रखकर हो ग्रहण कीजिये, अन्यथा इस हक प्रवृतिका परिणाम जैन-संस्कृतिके लिये आगे चलकर बड़ा भयानक होगा जिसके लिये यदि जीवित रहे तो हम और आप सभी पछतावेंगे । अस्तु । ___ आगे आपने लिखा है कि 'सहकारी कारण सापेक्ष विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकारिणी मानी गमी है, केवल उदासीन या प्रेरक निमित्तोंके बलपर मात्र दृष्यशक्तिसे ही दृष्य में कार्य नहीं होता' यह तो आपने ठोक लिखा है परन्तु इसके आगे आपने जो यह लिखा है कि यदि द्रव्यशक्तिको बाह्यनिमित्तोंके बलसे कार्यकारी मान लिया जाये तो चनेसे भी गेहूँको उत्पत्ति होने लगे।' इस विषय में हमें यह कहना है कि पर्याय-शक्तिको अपेक्षारहित केवल द्रव्यशक्तिको निमित्तोंके बलपर हम भी कार्यकारी नहीं मानते हैं, किन्तु हम आपके समान ऐसा भी नहीं मानते कि कार्य निमित्तकी अपेक्षारहित केवल विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त द्रव्यशस्तिमात्र से ही उत्पन्न हो जाया करता है तथा ऐसा भी नहीं मानते कि सहकारी कारणको सापेक्षताका अर्थ केवल इतना ही होता है कि सहकारी कारणको उपस्थिति वहाँगर नियमसे रहा हो करती है, उसका वहाँपर कभी अभाव नहीं होता। हम तो ऐसा मानते है कि एक तो उस पर्यायशक्तिको उत्पत्ति सहकारी कारणोंके सहयोगसे ही होती है, दूसरे पूर्व पर्यायशक्ति विशिष्ट व्यक्ति निमित्तोंका वास्तविक सहयोग मिलनेपर ही उत्तर पर्यायहा कार्यको उत्पन्न करती है और फिर उस उत्तर पर्यावशक्ति विशिष्ट द्रव्यशक्ति भी अवि निमित्तोंका अनुकूल सहयोग मिल जाये तो उस उत्तर पर्यायसे भी उत्तर पर्यायको उत्पन्न कर देती है तथा यदि अनुकल निमित्तोंका सहयोग प्राप्त नहीं होता तो वर्तमान पर्याय-बाक्सिसे विशिष्ट द्रव्यशक्ति उस पर्यायसे उत्तर क्षणवर्ती विवक्षित पर्यायको उत्पन्न करने में सर्वथा ही असमर्थ रहेगी? फिर तो उससे उसी कार्यकी उत्पत्ति होगी जिसके अनुकूल उस समय निमित्त उपस्थित होंगे । इसलिये आपने जो प्रकृनमें सनेसे गेहूं की उत्पत्तिके प्रसक्त होनेको आपत्ति हमारे सामने उपस्थित को है उम आपत्तिका हमारे सामने उपस्थित करना कुछ अर्थ नहीं रखता है, मयोंकि अन्य अनेक शक्तियोंके रहते हुए भी चने में गेहूँके उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है। ____ आगे आपने 'यदि द्रव्यशक्तिको बाह्म-निमित्तोंके बलसे कार्यकारी मान लिया जाये तो चनेसे भी गेहूंकी उत्पत्ति होने लगे इस आपत्तिके उपस्थित करने में जो यह हेतु दिया है कि 'क्योंकि गेहूँ स्वयं व्य नहीं है किन्तु पुद्गल द्रव्यको एक पर्याय है, अतएव गेहूँ पर्याय विशिष्ट पुद्गल द्रव्य नाह्य-कारणसापेक्ष गेहके अंकूरादि कार्यरूपसे परिणस होला है। यदि विशिष्ट पर्यायरहित द्रव्य सामान्यसे निमित्तोंके बलपर मेहेंकी अंजुरादि पर्यायोंकी उत्पत्ति मान ली जाये तो जो पुद्गल चनारूप है वे पुद्गल होने से उनसे भी गेहरूप पर्यायोंकी उत्पसि होने लगेगी 1' इसमें हमारा कहना यह है कि आपने गेहूँ पर्यायविशिष्ट पुद्गल द्रव्यको बाहा-कारणसापेक्ष होमेपर ही गेहूंके अंकुरादि कार्यरूपमे परिणत होना लिखा है, सी ग्रह यदि आपने बुद्धिभमसे न लिखकर बुद्धिपूर्वक ही लिखा है तो इससे तो कार्य के प्रति निमित्त कारणकी सार्थकताका ही समर्थन होता है। इस तरह आपके द्वारा स्वोकृत कार्यके प्रति निमित्त कारणताकी अकिंचित्करताका आपडोके द्वारा खण्डन हो जाता है, क्योंकि हम Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४०९ भी तो यही कहते है कि गेहूँसे जो गेहूँ की अंकुरादिरूपसे पर्याय बनती है वह बाह्य निमिलोंका सहयोग मिलने पर ही बनती है। अर्थात् यदि बाह्य निमित्तोंके सहयोग के अभाव में ही गेहूँसे उक्त अंकुरादिरूप पर्यायी उत्पत्ति स्वीकार की जाती है तो फिर कोठी में रखे हुए गेहूँमे भी निमित्तको सहायता के बिना उक्त अंकुरादिरूप पर्यायकी उत्पत्ति होने लगेगी। तात्पर्य यह है कि कोठी में खखे हुए गेहूँ में हमारे समान आपने भी गेहूँ को अंकुरोत्पत्तिकी योग्यता ( उपादान शक्ति ) को उक्त लेखद्वारा स्वीकार कर लिया है, क्योंकि उक्त लेखमे आपने मही तो लिखा है कि गेहूँ पर्याय विशिष्ट पुद्गल द्रव्य बाह्य कारण सापेक्ष गेहूँ के अंकुर आदि कार्यरूप परिणत होता है । अब यदि कोठी में रक्खे हुए उस गेहूँसे गेहूँ का अंकुर उत्पन्न नहीं हो रहा है तो इसका कारण सिर्फ बाह्य-निमित्तांके सहयोगका प्रभाव ही हो सकता है, अन्य कोई नहीं। इस प्रकार कार्यके प्रति जब निमित्त कारणकी आप हो सार्थकता सिद्ध कर देते हैं तो वह जैसे अकिचित्कर नहीं रह जाता है वैसे ही वह कल्पनारोपित भी नहीं रहता है। हमारा प्रयास मापसे इतनी हो बात स्वीकृत करानेका है । वैसे आपके इस मन्तव्य से हम सहमत नहीं हो सकते हैं कि 'पुद्गलरूप द्रव्यशक्ति ही गेहूँरूप पर्याय विशिष्ट होकर गेहूँरूप पर्यायको उत्पन्न करती है - ऐसा कार्यकारणभाव यहाँपर स्वीकार किया गया है किन्तु गेहूँ नामका पुद्गल द्रव्य अनुकूल निमित्तके सहयोग से मेरूप अंकुरोत्पत्तिके योग्य विशिष्ट को प्राप्त होनेपर अनुकूल निमित्त सहयोग से ही रूप अंकुरोत्पति अपने में कर लेता है ऐसा ही कार्यकारणभाव यहाँ पर ग्रहण करना उचित है। अतः इस रूपसे भी चनेसे गेहूं की उत्पत्तिके प्रसक्त होनको आपत्ति उपस्थित नहीं होती है । यह जो आपने कहा है कि 'गेहूँ स्वयं द्रव्य नहीं है, किन्तु पृद्गल द्रव्यकी एक पर्याय है' सो इसके विषय में भी हमारा कहना यह है कि गेहूँ एक पुल द्रव्यको पर्याय नहीं है, किन्तु अनेक पुद्गल द्रव्य मिश्रित होकर एक गेरूप स्कन्ध पर्यायरूपताको प्राप्त हुए हैं, इसलिए जिस तरह आत्मा कर्म- नोकर्मरूप पुद्गलोंके साथ मिश्रित होकर दोनोंका एक पिण्ट बना हुआ है उसी प्रकार नाना अणुरूप पुद्गल द्रव्योंका भौ परस्पर मिश्रण होकर एक गेहूँरूप पिण्ड वन गया है । आगम में यद्यपि गुद्गल स्कन्धोंको पुद्गल द्रव्यको पर्याय भी कहा गया है परन्तु इसका आशय इतना ही है कि नाना अणुरूप द्रव्योंने मिलकर अपनी एक स्कन्ध पर्यायरूप स्थिति बना ली हैं। यदि आप गेहूँ आदि स्कन्धोंको गुद्गल द्रव्यकी पर्याय स्वीकार करते हैं तो यह हमारे लिए तो अनिष्ट नहीं है । परन्तु ऐसा माननेपर आपके सामने बन्धरूप संयोगको वास्तविक स्थिति स्वीकार करनेका प्रसंग उपस्थित हो जायगा, लेकिन श्री पं० फूलचन्दजी जॅनने अपनी जैनतस्वमीमांसा पुस्तक में संयोगको अवास्तविक ही स्वीकार किया है वह कथन निम्न प्रकार है 'जीवकt संसार और मुक्त अवस्था है और वह वास्तविक है— इसमें सन्देह नहीं । पर इस आधारसे कर्म और आत्माकं संश्लेष सम्बन्धको वास्तविक मानना उचित नहीं है। जीवका संसार उसकी पर्यायही है और मुक्ति भी उसीकी पर्याय में हैं। ये वास्तविक हैं और कर्म तथा आत्माका संश्लेष सम्बन्ध उपचारित है । स्वयं संश्लेष सम्बन्ध यह शब्द ही जीव और कर्मके पृथक-पृथक होने का ख्यापन करता है।' - जैनतत्त्वमीमांसा विषयप्रवेश प्रकरण पृष्ठ १८ यहाँपर उन्होंने ( पं० फूलचन्दजीने ) संश्लेष सम्बन्धको उपचरित माना है और उपचरित शब्दका अर्थ आप सब कल्पनारोपित ही करते हैं । ५२ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अब उक्त कथनके अनुसार कार्यकारणभावका वास्तविक आधार क्या है ? इसपर थोड़ा विचार कर लेना आवश्यक जान पड़ता है। मिट्टी घटका कारण है---इस वाक्यका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि मिट्टीरूप पर्यायशक्ति ष्ट पदगलरूप ध्यशक्ति घटका कारण है किन्तु उक्त वाक्यका यही अर्थ समझना चाहिये कि स्थल पर्यायोंको अपेक्षा घटरूप कार्याव्यवहित पूर्ववर्ती कुशूल पर्यायशक्तिसे विशिष्ट तथा क्षणिक पर्यायोंकी अपेक्षा घटरूप कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायशक्तिसे विशिष्ट मिट्टीरूप द्रव्यशक्ति घटका कारण है। इसी प्रकार गेहूँ गेहूंकी अंकुरोल्पत्तिमें कारण है-इस वाक्यका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि गेहूँरूप पर्यायशक्ति विशिष्ट पुद्गलरूप द्रव्यशक्ति गेहूँको अंकुरोत्पत्तिमें कारण है, किन्तु उक्त वावयका यही अर्थ समझना चाहिये कि स्थूल पर्यायोंकी अपेक्षा गेहूँकी अंकुरोत्पत्तिरूप कार्याव्यवहित पूर्ववर्ती खेल में बपनरूप पर्यायशक्तिविशिष्ट तथा क्षणिक पनि अगेमा की कुरोधा कार्याध्यानदिन पूर्व क्षणवर्ती पर्यायशक्ति विशिष्ट गेहुँरूप द्रव्यशक्ति ही गेहूँकी अंकुरोत्पत्तिमें कारण है। इसका कारण यह है कि घटरूप कार्यके उत्पन्न होने में मिट्टी पुद्गलद्रव्यको पर्यायरूपसे कारण नहीं बन रही है, किन्तु स्वयं एक पौद्गलिक द्रव्यरूपसे ही बन रही है। इसी प्रकार गेहूँकी अंकुरीत्पत्तिरूप कार्यके उत्पन्न होने में गेहूँ मी पुद्गल द्रव्यको पर्यायरूपसे कारण नहीं बन रहा है, किन्तु स्वयं एक पोद्गलिक दृश्यरूप से हो कारण बन रहा है। इस तरह घटकी उत्पत्ति में मिट्री में विद्यमान पुदगलव नामका द्रव्यांश प्रध्यशक्ति रूपसे कारण न होकर उस मिट्टीमें ही विद्यमान मृत्तिकात्व नामका द्रव्यांश हो द्रव्यशक्तिरूपसे कारण होता है और तब स्थूल पर्यापोंकी अपेक्षा मिट्टीका घटरूप कार्याश्यवहित पूर्ववर्ती कुशूलरूप पर्यायांश तथा क्षणिक पर्यायोंकी अपेक्षा उस मिट्टीका ही घटरूप काम्पियहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूप पर्यायांश पर्यायशक्तिरूपसे कारण होता है । इसी प्रकार गेहूँकी अंकुरोत्पत्तिमें गेहूँमें विद्यमान पुद्गलव नामका दृश्यांश द्रव्यशक्तिरूपसे कारण न होकर उस गेहूं में ही विद्यमान गेहूँपना ( गोधूमत्व धर्म ) नामका द्रव्यांश ही द्रव्यशक्तिरूपसे कारण होता है और सब स्थूल पर्यायोंकी अपेक्षा गेहूँका गेहूँ की अंफुरोत्पत्तिरूप कार्याव्यवहित पूर्ववर्ती क्षेतमें वपन रूप पर्यायांश तथा क्षणिक पर्यायोंकी अपेक्षा उस गेहूँका ही गेहूँको अंकुरोत्पत्तिरूप कार्याव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्यायरूप पर्यायांश पर्यायशक्तिरूपसे कारण होता है । ___ उपर्युक्त कथनसे जब यह बात सिद्ध हो जाती है कि हमारे मसानुसार ध की उत्पत्ति मिट्टीसे ही होती है और गेहूंके अंकुरको उत्पत्ति गेहूँ से ही होती है तो उनसे गेहूं के अंकुरकी उत्पत्तिको प्रसक्ति होनेकी जो आपत्ति आपने हमारे समक्ष उपस्थित की है उसका निरसन अपने आप ही हो जाता है। इस प्रकार जो कार्यकारणभावको व्यवस्था जैन संस्कृतिके अनुसार आगम प्रमाणोंके आधारपर बनती है उसका रूप निम्न तरहसे समझना चाहिए कि मिट्टी आदि स्कन्धोंकी स्थिति परम्पराके रूप में अनादिकालसे ही चली आ रही है और इसो तरह अनन्तकाल तक चली जानेवाली है और जब मिट्टी आदि स्कन्ध उल्लिखित कथनके आधारपर द्रव्य ही सिद्ध होते हैं तो उनमें रहनेवाले मृत्तिकारख आदि द्रव्यांश भो नित्य ही सिख होते हैं । मृत्तिकासे घटको उत्पत्तिमें यह मृत्तिकाव धर्म ही मिट्टोमें पायी जानेवाली नित्य अपादान शक्ति है । यह उपादान शमित खानमें पड़ी हुई मिट्टी में भी पायी जाती है, लेकिन कि खानमें पड़ी हुई उस मिट्टी से खानमें पड़े-पड़े अपनेआप घटका बनना असम्भव है, अत: उक्त उपादान शक्तिकी जांच करके कुम्हार खानमें पड़ी हुई उस मिट्रीको घडा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४११ बनाने के उद्देश्य से अपने घर ले बाता है और यहीं से फिर कुम्हारके व्यापारके सहयोगसे उस मिट्टीकी घट निर्माणके अनुकूल स्थूल पर्यायोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर विकासरूप पिण्ड, स्थास, कोश मोर कुशूल आदि अवस्थाएँ तथा क्षणिक पर्यायोंको अपेक्षा एक-एक क्षणको एक-एक पर्यायके रूपमें उत्तरोत्तर विकासरूप अवस्थाऐं चालू हो जाती | ये सब पिण्डादिरूप] स्थूल अवस्थाएं या क्षण-क्षणकी सूक्ष्म अवस्थाएँ एकके बाद एकके क्रमसे कुम्हारके क्रमिक व्यापार के अनुसार ही हुआ करती हैं, अतः इन्हें घटको उत्पत्तिके अनुकूल जस मिट्टीको घटको अनित्य उपादान शक्तिके रूपसे ही आगम में स्वीकार किया गया है। प्रमेयकममार्तण्डके 'यच्चोच्यते' इत्यादि कथनका अभिप्राय यही है । इस प्रकार घट निर्माणकी स्वाभाविक योग्यताको धारण करनेवाली खानकी मिट्टी में घट निर्माणके उसे किये जानेवाले कुम्हारके दण्डादिसापेक्ष व्यापारके सहयोग से घट निर्माणके अनुकूल पिण्डादि नाना क्षणaat स्थूल पर्यायों अथवा क्षण-क्षण में पर्याय मान सूक्ष्म पर्यायाँका उत्तरोत्तर विकासके रूपमें उत्तर पर्यायका उत्पाद तथा पूर्व पर्यायका विनाश होता हुआ अन्तमें घटकां निर्माण हो जाता है और तब उस घदनिर्माण की समाप्ति के साथ ही कुम्हार अपना भी व्यापार समाप्त कर देता है। यहो प्रक्रिया गेहूंसे गेहूं की अंकुरोत्पत्तिके विषयमें तथा सभी कार्योंके विषयमें भी लागू होती है । तात्पर्य यह है कि मिट्टोसे घटके निर्माण में कुशल कुम्हार सर्वप्रथम खानमें पड़ी हुई उस मिट्टी में घट रूपसे परिणत होनेको जिस योग्यताको जाँच कर लेता है उस योग्यताका नाम ही मिट्टी में विद्यमान घट निर्माण के लिये नित्य उपादान दशक्ति है, क्योंकि यह स्वभावतः उस मिट्टी में पावी जातो है। कुम्हार इस योग्यताको उसमें पैदा नहीं करता है, इसीको अभिमुखता, सन्मुखला उत्सुकता आदि शब्दांसे आगममें पुकारा गया है । खातमें पड़ी मिट्टी में उक्त प्रकारको योग्पला जाँच करने के अनन्तर उस मिट्टीको घर लाकर कुम्हार उसमें स्वाभाविकरूपसे विद्यमान उस योग्यता के आधार पर दण्ड, चक्र आदि आवश्यक अनुकूल सामग्री की सहायता से अपने व्यापार द्वारा उस मिट्टीसे निम्न क्रमपूर्वक घटका निर्माण कर देता हूँ कुम्हारका वह व्यापार पहले तो उस मिट्टीको खानसे घर लानेरूप हो होता है, फिर वह उसे घट निर्माणके अनुकूल तैयार करने में अपना व्यापार करता है। इसके अनन्तर उस कुम्हारके व्यापारसे ही वह मिट्टी firण्ड बन जाती है और फिर जसो कुम्हारके व्यापारके सहारेसे ही वह मिट्टी क्रमसे स्थास, कोश और कुणूल बनकर अन्तमें घट बन जाती है। इस प्रक्रियामे कुम्हारके व्यापारका सहयोग पाकर उस मिट्टी में क्रमवाः पिण्ड, स्थास, कोश, कुकूल और घटरूप से उत्तरोत्तर जो परिवर्तन होते हैं मिट्टी में होनेवाले इन परिवर्तन से पूर्व पूर्व परिवर्तनको आगे-आगे के परिवर्तन के लिये योग्यता, अभिमुखता, सन्मुखता या उत्सुकता आदि नाम पुकारी जानेवालो अनित्य उपादान शक्ति के रूपमें आगमद्वारा प्रतिपादित किया गया है । पूर्वका परिवर्तन हो जानेपर हो उत्तरका परिवर्तन होता है, अतः पूर्व परिवर्तनको उत्तर परिवर्तनके लिये पादन कहा गया है और चूँकि ये सब परिवर्तन दण्डादि अनुकूल निमित्तोंके सहयोग से होनेवाले कुम्हारके व्यापार के सहारे पर ही हुआ करते हैं तथा इनमें पूर्व परिवर्तनका रूप ही कुम्हारके व्यापार द्वारा बदलकर उसर परिवर्तनका रूप विकसित होता है, अतः इन्हें अनित्य माना गया है । इसका मतलब यह हुआ कि खान में पड़ी हुई मिट्टी में जो मुसिकात्य धर्म पाया जाता है वह उसका निजी स्वभाव है और चूँकि उसके आधार पर ही घट निर्माणकी भूमिका प्रारम्भ होती है एवं घटका निर्माण हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता है, अतः उसे घट निर्माणको नित्य उपादान दशक्ति अन्वर्भूत करना चाहिये तथा इसके अनन्तर कुम्हारके व्यापार के सहारे पर क्रमसे जो जो परिवर्तन उस मिट्टी में होते जाते हैं वे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ जयपुर (खानिया) चर्चा सम परिवर्तन पूर्व पूर्व परिवर्तन के कार्य और उत्तर उत्तर परिवर्तन के लिये कारण है, अतः इन्हें घट निर्माण की अनित्य उपादानशक्ति अभूत करना चाहिए। किन्तु यहाँ पर इतना विशेष समझना चाहिये कि इन सब परिवर्तनों में अन्तिम परिवर्तन घट निर्माणको पता ही माना गया है। कारण कि कुम्हारके व्यापारका अन्तिम लक्ष्य नही रहता है. अतः उसका अन्तर्भाव केवल कार्यों में ही होता है, कारणों में नहीं। यही कारण है कि उसकी साथ ही कुम्हार अपना व्यापार भी बन्द कर देता है। सब घटरूप इन परिवर्तनको यहाँ पर जैसा पिण्ड स्थास कोण, कुल और पटप स्थूल परिवर्तनों में विभक्त किया गया है वैसा ही चाहो तो एक एक क्षणवर्ती परिवर्तनोंके रूपमें भी उन्हें विभक्त कर सकते हो, क्योंकि प्रश्न इस बात का नहीं है कि इन सब परिवर्तनोंका विभाजन पिण्यादि स्कूल पर्यागोंके रूपमें किया जाय अथवा क्षणिक पर्यायोंके रूपमें किया जाय? किन्तु प्रश्न यह है कि ये सब परिवर्तन एकके बाद एक करके अपने आप होते चले जाते हैं या जैसे जैसे कुम्हारका व्यापार नावे होता जाता है जैसे वैसे मे परिवर्तन भी आगे रहते हैं ? उक्त प्रश्नका जो समायान अनुभव, तर्क और आगमप्रमाणोंके आधार पर हमने अपनी प्रतिशंका में किया है वह यह है कि उक्त सभा परिवर्तन कुम्हारके व्यापार के सहारे पर ही हुआ करते हैं, अपने आप नहीं । अतः उपादानगत योग्यताको लक्ष्य में रखते हुए जब जैसे निमित मिलते है वैसा हो परिणमन वस्तुकी अपनी योग्यता अनुसार हुआ करता है—यह मान्यता गलत नहीं है। इतना ही नहीं, कार्यके प्रति उभय कारणोंको जो आगम में स्वीकृति को गयी है उसकी सार्थकता भी इसी ढंगले हा सकती है, अन्यथा नहीं यह सब पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। आपका कहना है कि मुख्य विवाद उपादानशा है, क्योंकि उपदानकी कार्योत्पत्ति के लिये तैयारी हो जानेपर निमित्त मिलते ही है। लेकिन हमारा कहना - जैसा कि कार सिद्ध किया जा चुका है—यह है कि कार्योत्पत्ति के लिये उपादान को तैयारी निमित बलपर हो हुआ करती है । यद्यपि केवल स्व-प्रत्ययता के आधारपर होनेवालो कार्यविधिकी परंपरा धाराप्रवाहरूपसे अनादि कामसे चली आ रही है और अगल काल वह चलती हो आयो पद्गुण हानि-वृद्धिपरिक परंपराका अन्तर्भाव इसी कार्य होता है। इसी प्रकार स्वपरप्रत्ययता के आधार पर होनेवाली कार्यविधिको बहुत-सी परंपरा भी ऐसी हो रही है जो अनादि कालसे धाराप्रवाहरूपसे चली आ रही है और अनन्त कालव] पलती हो जायगी जैसे परिधमनशी वस्तुओंके निमित्तने आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल योके भावों को परिणमन होता रहता है वह इसी कोटिमें आता है, क्योंकि यह स्वपत्य होता हुबा अनादि कालसे धाराप्रवाहसे चलता आ रहा है और अगर काल इसी रूपमे चलता ही जा लोकके सामने समस्या इन दोनों प्रकारके परिणमनों को नहीं हैं, परन्तु स्वपरप्रत्ययता के आधारपर ही होनेवाली पटादि कार्यविधिकी परंपरा ऐसी नहीं है जो अनादि काल अनन्त कालक धाराप्रवाहरूपसे चलने बाली हो, क्योंकि पटादि कार्यविधिकी परंपरा लोकमें ओर ही देखने में आती है। जैसे खानमें मिट्टो अनादिकाम पड़ी हुई चली था रही है और यह निर्विवाद है कि बनादि कालसे अवतकखागमें पढ़े रहते हुए उनसे घटरूप पर्यायका निर्माण स्वतः अथवा स्व और परके सहयोगसे न तो हुआ, न कभो होनेवाला है। इसके विपरीत यह बात अवश्य देखने में आती है कि खानमे पड़ी हुई उस मिट्टी में से कुछ मिट्टोको कुम्हार अपनी आवश्यकता और आकांक्षा के आधार पर बनाने के उद्देश्य यथावसर अपने पर छाता है और जब वह कुम्हार Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४१३ घट कार्यके निर्माण के लिये सहायतारूप अपना व्यापार देता है तब उस मिट्टी से घट कार्यका निर्माण भी होता हुआ देखा जाता है। जटका यह निर्माणरूप कार्य कुम्हारके व्यापारके सहारेपर होता हुआ तबतक चलता रहता है जबतक या तो घट कार्यका निर्माण सम्पन्न नहीं हो जाता अथवा कुम्हारके व्यापारके सहारेपर हो तबतक होता हुआ देखने में आता है जबतक कि चालू' निर्माण कार्य के मध्य में दण्ड आदिके प्रहारसे वह फूट नहीं जाता है । निर्माण कार्य समाप्त हो जानेपर अथवा बीच ही में उसके नष्ट हो जानेपर उसमें दूसरे ही प्रकारको कार्य विधिको परम्परा दूसरे निमित्त के सहयोग से उसको अपनी योग्यता के अनुसार चालू हो जाती है। यही कारण है कि इस प्रकार कार्यविधिको परंपरामें परिवर्तन हो जाने के सबबसे पुरानी और ओर्ण-शीर्ण वस्तुएं भी नवीनताका रूप लेकर सामने आती रहती है। अब यदि निमित्तका उपयोग इस कार्यविधि न माना जाय केवल उपादानके अपने बलपर ही उसे स्वीकार कर लिया जाय तो ऐसी हालत में उसमें कार्यसे कार्यान्तरका विभाग करना असंभव हो जायगा तथा कोई पुरानो वस्तु कभी और किसी मो हालत में नवीनता को प्राप्त नहीं हो सकेगी। आगे आपका कहना है कि 'ऐसा है नहीं कि निश्चय उपादान हो और निमित्त न मिलें फिर आगे आप कहते है कि इसी वातको असद्भूतव्यवहारनयकी अपेक्षा यों कहा जाता है कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है।' अपने इस कथन से आप यह निष्कर्ष निकाल लेना चाहते हैं कि यद्यपि उपादान स्वयं अपनी सामथ्यंके आधारपर ही कार्य कर लेता है, उसे अपनी कार्यनिष्पत्ति में निमित्तांका सहयोग लेने की आवश्यकता नहीं रहा करती है । परन्तु निश्चय उपादानके रहते हुए चूंकि वहाँपर निमित्त नियमसे उपस्थित रहा करते हैं, अतः वस्तुस्थिति वैसी न रहते हुए भी केवल बोलने में ऐसा आता है कि जब जैसे निमत्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है । विचार करनेपर मालूम पड़ता है कि निमित्तको अकिचित्करता और कल्पनारोपितताको सिद्ध करनेके लिये आपका यह प्रयास बिल्कुल व्यर्थ है । आगे इसी बात को स्पष्ट किया जा रहा है स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्य में स्व अर्थात् उपादानके साथ साथ पर अर्थात् निमित्त के सहयोग की आवश्यकता रहा करती है-इस बातको पूर्वमें अत्यन्त स्पष्टताके साथ बतला दिया गया है तथा इस विषय समर्थन में राजधातिकका निम्नलिखित प्रमाण भी देखने योग्य है जिसमें कार्यके प्रति निमित्तपनेके आधारपर धर्म और अधर्म द्रव्योंकी सिद्धि की गयी है कार्य स्यानेकोपकरणसाध्यत्वात् तत्सिद्धेः ॥ ३९॥ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दहं यथा विण्डो बटकार्थपरिणाममासि प्रति गृहीताभ्यन्तरसामयः बाह्यकुलाल- दण्ड- चक्र सूत्रोदक- काला काशाधनेकोपकरणापेक्षा घटणाविर्भवति, बैंक एवं मृत्पिण्डः कुलालादिवासाघन सविधानेन विना घटारमनाविर्भवितुं समर्थः तथा परस्त्रिप्रभृति वच्यं गतिस्थितिपरणामप्राप्तिं प्रत्यभिमुखं नान्तरेण श्राह्मानेककारणसन्निधिं गतिं स्थिति चावाप्तुमलमिति तदुपग्रहकारणधर्माधर्मास्तिकायसिद्धिः । - अध्याय ५ सूत्र १७ वार्तिक ३१ अर्थकार्यको सिद्धि अनेक उपकरणों ( कारणों ) से होने के कारण धर्म तथा अधर्म दोनों द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। लोकमें भी यही बात देखने आती है— जैसे जिस मिट्टी के विण्डमें घटकार्यपरिणमनके योग्य स्वाभाविक सामर्थ्य विद्यमान है वह वाह्य कुम्हार, दण्ड, चक्र, सूत, जल, काल और Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जयपुर (खानिया) सत्वचर्चा आकाशादि अनेक कारणों को सहायतासे हो धदक्षा परिणत होता है। केवल मिट्टीका पिण्ड अकेला कुम्हार मादि बाह्य साधनों के सहयोगके बिना घटरूपसे परिणत होने में समर्थ नहीं होता है। वैसे ही पक्षी आधि द्रव्य गति और स्थितिरूप परिणमनको अपने में योग्यता रखते हए भो बाह्य अनेक कारणोंके सहयोग के बिना गति और स्थितिरूप परिणमनको प्राप्त नहीं हो सकते हैं. इसलिये इनके सहायक कारणों के रूप में धर्म और अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। राजवातिकके इस उद्धरणसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि निमित्तोंका समागम उपादानकी कार्यरूपसे परिणत होने को तैयारो हो जानेपर हो ही जाता है'-ऐसा नियम नहीं बनाया जा मकता है. किन्तु यर तथा आगमके और दुसरे प्रमाण यही बात बतलाते है कि उपादानको जब निमित्तान सहयोग प्राप्त होगा तभी उपादानकी नित्य दृश्यशक्ति विशिष्ट वस्तुको जिस पर्यायाक्तिविष्टिताको आप तैयारी शब्दसे ग्रहण करना चाहते हैं वह तैयारी होगी और तभी कार्य हो सकेगा। आप कहते है कि उपादानसे कार्योत्पत्तिके अवसरपर निमित्त उपस्थित तो अवश्य रहते हैं परन्तु उनका सहयोग उपादानसे होनेवाली कार्योत्पत्तिमें बिल्कुल नहीं होता है और इसीलिये आप कहते हैं कि 'उक्त अवसरपर रहने वाली निमित्तोंकी नियमित उपस्थितिको असदभुतम्यवहारनयको अपेक्षासे यों कहा जाता है कि 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैपा कार्य होता है।' इस कथनसे हम आपके अभिप्रायको यों समझे हैं कि आपकी दृष्टि में असद्भुत व्यवहारमय वह कहलाता है जिसका प्रतिपाच अथवा ज्ञाप्य विषय या तो बिल्कुल न हो और यदि हो तो वह असद्भुत अर्थात् असत्य हो। परन्तु यह बात निश्चित ही जानना चाहिमे कि ऐसा एक भी नय जैनागममें नहीं बतलाया गया है जिसका प्रतिपाद्म या ज्ञाप्य विषय या तो बिल्कुल नहीं है और यदि है भी तो वह असद्भूत अर्थात् असत्य ही है, क्योंकि यदि किसी नयका कोई विषय ही निर्धारित नहीं है तो वह नय कैसा? और अदि उसका कोई विषय निर्धारित है तो उसे अवस्तुभूत या असत्य वैये कहा जा सकता है ? क्योंकि यदि अवस्तुभूत पदार्थको भी नका विषय माना जायगा तो उस हालत में बाकाशके फल तया गधेके सोंग भो नयका विषय होने लगेंगे । इसलिये अराभूत व्यवहारनयके विषयको भी वास्तविक ही स्वीकार करना होगा । अतः विचारणीय बात यह है कि ऐसा कौन-सा वास्तविक पदार्थ है जो असद तपबहारनयका विषय होता है। यह बात पूर्वमें ही स्पष्ट को जा चुकी है कि प्रकृत प्रकरण कार्यकारणभावका है और कि स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यमें दो तरह से कार्यकारणभाव पाया जाता है-एक तो स्वप्रत्ययताको लेकर उपादानोपादेयभावके अपारपर और दुसरा परप्रत्ययताको लेकर निमित्तनैमित्तिकभावके आधारपर। इस प्रकार स्वपर प्रत्ययरिणमनहप कार्य जहाँ उपादानोपादेयभावको विवक्षासे उपादानभूत वस्तुके आश्रयसे उत्पन्न होने के कारण उपादेय है वहाँपर वह निमितनैमित्तिकभावको विवक्षासे निमित्तभूत वस्तुके सहयोगसे उत्पन्न होने के कारण नैमित्तिक भी है। अतः स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप उस कार्य में उपादानको अपेक्षा उपादेयभाव तथा निमित्तको अपेक्षा नैमित्तिकमाव ऐसे दो धर्म देखने को मिल जाते है। इनमें से उपादेयभाव उसमें उपादानभूत वस्तुके आधित होने के कारण जहाँ निश्चयरूप है वहाँ नैमित्तिकभाव उसमें निमित्तभूत-वस्तुके आश्रित न होने के साथ-साथ उसकी सहायतासे उत्पन्न होने के कारण व्यवहाररूप है । इस प्रकार स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यमें निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मोका समावेश होने के कारण वह स्वपरप्रत्यय परिणमन कथंचित अर्थात् अपने उक्त निश्चय स्वरूपको अपेक्षा वचन तथा ज्ञानरूप निश्चयमयका विषय होता है और वही स्वपर Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शका ६ और उसका समाधान प्रत्यय परिणमन कार्यचित् अर्थात् अपने उक्त व्यवहारस्वरूपको अपेक्षा वचन तथा ज्ञानरूप व्यवहारनयका विषय होता है। यह बात भी हम पूर्वमें बतला चुके हैं कि निश्चयरूप अर्थ और व्यवहाररूप अर्थ ये दोनों ही पदार्थके अंश हैं यही कारण है कि ये दोनों अंश क्रमशः निश्चय और काबहार दोनों नयोंके परस्पर सापेक्ष होकर हो विषय होते है अर्थात् जहाँ वस्तुके निश्चयरूप अर्थाशका प्रतिपादन पचनरूप निश्चयनय द्वारा किया जाता है वहाँपर वचनरूर बहारनयद्वारा प्रतिपादिः पहारही मागका नियमसे आक्षेप होता है। इसी प्रकार जहाँ वस्तुके व्यवहाररूप अर्थाशका प्रतिपादन वचनरूप व्यवहारनयद्वारा किया जाता है वहाँपर बचनरूप निश्चयनयद्वारा प्रतिपादित निश्चयरूप अर्थाशका नियमसे आनेप होता है। यही प्रक्रिया ज्ञानरूप निश्चय और व्यवहार नमीद्वारा ज्ञाप्य निश्चय और व्यवहाररूप अर्यांशोंका शान करनेके विषय में भी लागू कर लेना चाहिये। . यदि एक अर्थाशके प्रतिपादन अथवा ज्ञानके साथ दूसरे अर्थाशका प्रतिपादन अथवा ज्ञान न हो तो ऐसी हालतमें सिर्फ एकका प्रतिपादक वचननय अथवा ज्ञापक ज्ञानमय दोनों ही गलत हो जावेगे। यहापर स्पष्टीकरणके लिये यह दृष्टान्त दिया जा सकता है कि-वस्की नित्यताका प्रतिपादन द्रव्यत्वरूपसे निश्चयनयात्मक वचनद्वारा तथा उसका ज्ञान भी ध्यत्मरूपसे निश्चय नयात्मक ज्ञानद्वारा यदि होता है तो इन्हें तभो सत्य माना जा सकता है जब कि पर्यावरूपसे उसको अनित्यताका व्यवहारनयात्मक वचनवारा होनेवाला प्रतिपादन और प्रबहारनयात्मक शानद्वारा होनेवाला शान भी हमारे लक्ष्य में हो 1 इसी प्रकार वस्तुकी अनित्यताका प्रतिपादन पर्यायरूपसे व्यवहारनयात्मक वचनद्वारा तथा उसका ज्ञान भी पर्यायरूपसे व्यवहारनयात्मक ज्ञानद्वारा यदि होता है तो इन्हें भी तभी सत्य माना जा सकता है जब कि द्रव्यत्वरूपसे ससकी नित्यलाका निश्चयनयात्मक वचनद्वारा होनेवाला प्रतिपादन और निश्चयनयात्मक ज्ञानद्वारा होनेवाला शान भी हमारे लक्ष्य हो । ऐसा न होकर यदि अनित्यतासे निरपेक्ष केवल नित्यताका या नित्यतासे निरपेक्ष केवल अनित्यताका प्रतिपादन किसी वचनद्वारा हो रहा हो, इसी तरह अनित्यतासे निरपेक्ष केवल नित्यताका या नित्यत.से निरपेक्ष केवल अनित्यताका ज्ञान किसी ज्ञानद्वारा हो रहा हो तो इस प्रकारके वचन तथा ज्ञान दोनों ही नयात्मक नहीं रहेंगे, क्योंकि इनके विषयभूत निस्यल और अनित्यत्व होना ही पदार्थको अंशो रूपमें . नहीं किन्तु पूर्ण पदार्थके रूपमें ही वचनद्वारा प्रतिपादित होंगे और शानद्वारा ज्ञात होंगे। तब ऐसी हालतमें यदि उस नित्यताम अभेदात्मकरूपमे अनित्यताका अथवा उस यानित्यतामें अभेदात्मकरूपसे ही निस्यताका अंश यदि समाया हुआ होगा तो उनके प्रतिपादक वचनों तथा उनके ज्ञापक ज्ञानोको नयकोदिमें अन्तभूत म करके प्रमाणकोटिमें ही अन्तर्भूत करना होगा और यदि बस्तुमें नित्यताके द्वारा अनिस्यताका अथवा भनित्यताके द्वारा नित्यताका सर्वथा लोप किया जा रहा होगा तो उस हालतमें उनके प्रतिपादक वचनों तथा ज्ञापक ज्ञानोंको प्रमाणाभासोंको कोटिमें पटक देना होगा, बयोंकि पदार्थ न तो सर्वथा नित्य हो है और म सर्वथा अनित्य ही है। इसका तात्पर्य यह है कि जब वस्तु जैन-मान्यता के अनुसार कथंचित् अर्थात् निश्चय (द्रव्यत्व ) रूपसे नित्य मानो गयी है तो इसका आशय यह भी है कि वह कथंचित् अर्यात व्यवहार ( पर्याय)रूपसे अनित्य भी है। इसी प्रकार जब यस्तु जैन-मान्यताके अनुसार कथंचित् अर्थात् ब्यवहार ( पर्याय ) रूपसे अनित्य मानी गयी है तो इसका आशय यह भी है कि वह कथंचित अर्थात निश्चय (द्रव्या ) रूपसे नित्य भी है। इस प्रकार जन मान्यताके अनुसार जब निश्चयनय वस्तुको निस्यताको विषय करता है तो उसी समय Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) चर्चा उपहारनपसे वस्तुको अनित्यता भी गृहोत होना चाहिये तथा जब व्यवहारमय वस्तुकी अनित्यताको विषय करता है तो उसी समय निश्चयनयसे वस्तुको नित्यता भी गृहोत होना चाहिये। यदि ऐसा नहीं होता है तो सम्पूर्ण नमव्यवस्था ही गड़बड़ा जायगी । प्रकृत में इस विवेचनका उपयोग यह है कि यदि आप व्यवहारनयको अपेक्षाये इस कथनको सहो मान लेते हैं कि 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है तो इसका आशय यही होता है कि आप निमित्तको कार्य के प्रति सहायक रूपसे वास्तविक कारण मानते हैं और जब आपकी दृष्टिमें भो निमित्तकारणकी वास्तविकता सिद्ध हो जाती है तो दिए सब होता है कि जब-जब विवक्षित कार्यके पर्यायाति युक्त ब्रव्यशक्ति होती है तब सब उस कार्यके अनुकूल निमित्त मिलते ही हैं। फिर तो आपको यही स्वीकार करना होगा कि द्रव्यशक्ति विशिष्ट वस्तु अपने में निमितों के सहयोग से उत्पस पर्यायशक्ति से युक्त होती हुई आगेकी पर्यायशक्तिको निमित्तोंके सहयोग से ही अपने में उत्पन्न करती है और जहाँपर पहुँचने के बाद जिस विवक्षित पर्यायशक्ति उत्पत्तिके अनुकूल निमित्त नहीं मिल पाते हैं या विरोधी निमित्तों का सहयोग मिल जाता है तो उस विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति वहाँपर न होकर जैसे निमित्तोंका योग मिलता है उसके अनुसार ही उस वस्तुको पर्यायशक्तिका उस समय विकास होता है, क्योंकि वस्तुमें एक साथ अनेक पर्यायोंके विकासको शक्तियाँ स्वाभाविकरूपसे विद्यमान रहा करती हैं जिनका विकास अपने-अपने अनुकूल निमित्त कारणों के आधारपर हुआ करता है । इसलिये जिस प्रकार स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यमें उपादानोपादेकी विवक्षा से उपादानभूत वस्तुके आश्रयमे उत्पन्न होने के कारण अपने ढंगको वास्तविकता को लिये हुए उपदेवतारूप धर्म विद्यमान रहता है उसी प्रकार निमित्तनैमित्तिकभावकी विवक्षा से निमित्तभूत वस्तुके सहयोगये उत्पन्न होनेके कारण अपने ढंगी वास्तविकताको लिये हुए नैमित्तिकतारूप धर्म भी विद्यमान रहता है । यदि आप हमसे कहें कि स्वपरप्रत्ययरूप परिणमनमें पाया जानेवाला नैमित्तिकतारूप धर्म वास्तविक है तो फिर उसे असल व्यवहारनयका विषय नहीं कहना चाहिये, क्योंकि आगम में व्यवहारको भी जब सद्भूत और अद्भूत ऐसे दो भेदों में विभक्त किया गया है तो इसका फलितार्थ यही हो सकता है कि सत व्यवहारको भले ही वास्तविकताको कोटिमें रख लिया जाये परन्तु असद्भूतव्यवहारको तो वास्तविकताको कोटि रखना असंगत ही है। कारण कि 'अद्भुतम्यवहार' पदमें पठित 'असभूत' शब्द ही उसकी अवास्तविकताको बतला रहा है। इसके विषय में हमारा कहना यह है कि स्परप्रत्यय परिणमनमें निमित्त कारणको उपयोगिताको तो fearरसे सिद्ध किया जा चुका है अब केवल एक ही बात स्पष्ट करनेके लिये रह जाती है कि जब निमित्तकारण वास्तविक है तो उसे असद्भूत व्यवहारको कोटि में क्यों रख दिया गया है ? इसका भी स्पष्टीकरण इस प्रकारसे करना चाहिये कि आगम में सत्ताको वस्तुका निज धर्म या स्वभाव अंगीकार किया गया है, इसलिये सद्भूत धर्म वही हो सकता है जो वस्तुका निज धर्म हो। इसके अनुसार कार्यकारणभाव प्रकरण में वस्तुके परिणमन में पाया जानेवाला उपादेयतारूप धर्म चूँकि वस्तु अपने अन्दर ही उत्पन्न होता है अतः उसे तो सद्भूत ही कहना होगा और वस्तुके उसी परिणमन में पाया जाने वाला नैमितिकतारूप धर्म वस्तुके अपने अन्दर उत्पन्न होकर भी सहायक अन्य वस्तुके सहारे पर ही वस्तुमें उत्पन्न होता है, अत: नागन्तुक होने के कारण उसे असद्भूत कहना अयुक्त नहीं है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४१७ एक बात और है कि यदि असद्भूत व्यवहारनयका विषय अवास्तविक अर्थात् कल्पनारोपित होकर, हो है तो फिर उसके (असद्भूत व्यवहारनपके) उपचरित असद्भूत व्यवहारनय और अनुपचरित असदुद्भूत व्यवहारनय ऐसे दो भेद करना असंगत ही हो जायगा । कारण कि अभावात्मक वस्तु उपचरित और अनुपचरितका भेद होना असंभव हो है । बृहद्रव्यसंग्रह में असभूतथ्यवहारनयके उक्त अनुपचरित अद्भूतभ्यवहारय ओर उपचरित अस द्भूतव्यवहारमय वो उनके आय हो के बृहद्रव्यसंग्रहकर्ता की दृष्टि में अद्भूत वहातयका विषय असद्भूत व्यवहार अभावात्मक वस्तु न होकर भावात्मक वस्तु ही है। दोनोंका अन्सर भी बिल्कुल स्पष्ट मालूम पड़ रहा है अर्थात् जीवमें पाया जानेवाला ज्ञानावरणादि आठ कम तथा औदारिक नादि शरीरोंका कर्तृत्व अनुपचारित अमदभूत व्यवहार है और उसमें ( जीव में ) पाया जानेवाला घटपटादि पदार्थोका कस्य उपचरित असद्भूत व्यवहार है। इस भेदका कारण यह हैं कि ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिक आदि शरीरोंका निर्माण जीव अरनेसे अथक् रूपये ही किया करता है तथा घटपटादिका निर्माण वह अपने से पृथक् रूपमें किया करता है । यदि कहा जाय कि तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र 'सद्यलक्षणम्' (अ० ४ सू २९ ) के अनुसार सत्य वस्तुका निज स्वरूप होते हुए भी उसे तत्वार्थसूत्र के सूत्र' 'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्' ( अ० ५ सूत्र ३० ) के अनुसार उत्पाद, व्यय और प्रोव्य स्वभाववाला स्वीकार किया गया है। इसका फलितार्थ यह है कि वस्तु परिणमन स्वभावसे ही हुआ करता है । उसमें निमित्तकारणके सहयोगको आवश्यकताको स्वीकार करना अयुक्त ही है। तो इस विषय में हमारा कहना यह है कि 'उत्पादव्ययत्रौव्ययुक्तं सत्' इस सूत्र के अनुसार वस्तु परिणमनस्वभावाली है - यह तो ठीक है, परन्तु वह परिणमन स्वप्रत्यय के समान स्वपरप्रत्यय भी होता है। इसका निषेध तो उषत सूत्रसे होता नहीं है। यही कारण है कि वस्तु के स्वपरप्रत्यय परिणमनोंकी सत्ता आगम में स्वीकार की गयी है तथा जैव-तत्त्वमीमांसा में श्री पं० फूलचन्द्रजीने और प्रश्न नं० ११ में आपने मी वस्तुके स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार किया है। अतः आपके द्वारा अपने प्रत्युत्तर में यह लिखा जाना कि 'जब प्रत्येक द्रव्य सद्रूप है और उसको उत्पाद व्यय-त्रीय स्वभाववाला माना गया है तो ऐसी अवस्था में उसके उत्पाद व्ययको अन्य द्रव्य के कर्तृरित्र पर छोड़ दिया जाय और यह मान लिया जाय कि अन्य द्वभ्य जब चाहें उसमें किसी भी कार्यको उत्पन्न कर सकता है तो यह उसके स्वतंत्र सत् स्वभावपर आघात ही है । 'असंगत हो है । आपको परिणमनकी स्वपरप्रत्ययता भले ही विडम्बना प्रतीत होती हो, परन्तु यह व्यवस्था आगम के साथ-साथ प्रत्यक्ष और तर्कके भी प्रतिकूल नहीं है। यह बात पूर्वमें विस्तारपूर्वक सिद्ध की जा चुकी है। धाचायोंने जो प्रत्येक कार्य में अपने उपादान के साथ अन्तयधिक और निमित्तांके साथ बहियति स्वीकार की है उसका आशय यही है कि उपादान चूंकि कार्यह परिणत होता है, अतः उसके साथ कार्यकी मिलता होने के कारण वहाँ अन्तरंग व्याप्ति बतलायी गयी है और निर्मित चूंकि कार्यरूप परिणत नहीं होता, वह तो केवल कार्योत्पत्ति में सहयोगी होता है इसलिये उसके साथ कार्यको पृथकता बनी रहने के कारण वही बहिर्व्याप्ति स्वीकार की गयी है। पूर्वमे हम बता भी चुके हैं कि उपादानको कार्यके साथ एकद्रव्य ५३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ जयपुर ( खानिया) तस्वचर्चा प्रत्यासत्तिरूप कारणता पायी जाती है, इसलिये वहाँ अन्ताप्ति आगममें स्वीकार की गधी है और निमित्तको कार्यके साथ कालप्रत्यासत्तिका कारणता पायी जाती है इसलिये वहाँ दहियाति आगममें स्वीकार की गयी है। अन्ताति उपादानको कार्यके साथ तन्मयताकी सूचना देती है, लेकिन बहिििप्त निमिसकी कार्यके साथ यद्यपि तन्मयताका निषेध करती है तो भी मन्त्रय-तिरेकके आवारपर उसके रयोग कमायोत्पसिना हि मा पलायो यही एक कारण है कि आचार्योको निमित्तको कार्थके साथ बहियादित स्वीकार करनी पड़ी है। आप ग्रहों भी सोचिये कि उपादानको महत्ता कार्यके प्रति तबतक रहा करती है जबलक कार्य विद्यमान रहता है, लेकिन निमित्तको महत्ता तभीतक रहा करतो है जबतक कार्य उत्पन्न नहीं हो जाता। कार्यके उत्पन्न हो जानेपर फिर निमित्त की कुछ मद्त्ता नहीं रह जाती है। यही कारण है कि लोक में उपादागका महत्त्व इस दृष्टिसे झांका जाता है कि वार्य महातक स्थायी रह सकता हैं। लेकिन निमित्तका महत्त्व तबतक लोक आंका जाता है जबतक कार्य सन्दरताके साय उतान्न नहीं हो जाता। इस विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 'अन्तयाप्ति के नाधारपर काका उपादान ही केवल वास्तविक कारण है, बहियाप्तिके आधारपर कार्यका निमित्त वास्तविक कारण नहीं है-ऐसी मान्यता अमपूर्ण हो है।' आगे आफ्ने लिखा है कि 'द्रव्य अन्वयी होनेके कारण जैसा मित्रा है उसी प्रकार व्यतिरेकी स्वभाववाला होनेरो प्रत्येक समयमें वह उत्पादनस्यस्वभाववाला भी है, अलएवं प्रत्येक समयमें वह कार्यका उपादान भी है और कार्य भी है। पिछली पर्यायको अपेक्षा जहाँ यह कार्य है अगली पर्यावके लिये यहाँ वह उपादान भी है। सो ऐसा मानने हमारा कोई विरोध नहीं, हम भी ऐसा ही मानते है और वस्तु के स्वप्रत्यय परिणमनोंमें तो यही प्रक्रिया चालू रहती है, परन्तु बस्तुके जिन परिणमन में जब विलक्षणनाकी उद्भूति हो जाती है तब उन परिणमनों में उस विलक्षणताके आधार पर परिणमनोका स्वतंत्र कम ही चालू हो जाता है। ऐसी धन् विलक्षणता उनमें स्वत: नहीं होती है, वह तो तदनकूल निमित्तोंके सहारे पर ही हुआ करती है । जैसे खानमें पड़ी हुई मिट्टी का प्रतिक्षण परिणमन हो रहा है और फिर बही मिट्टी कुम्हारके घर पर कुम्हार के तदनुकूल प्रयत्न करने पर आ जाती है तो यह जो क्षेत्र परिवर्तन इस मिट्टीका हुआ वह क्या खान में पञ्ची हुई उस मिट्टीको क्षणिक गर्यायोंके क्रमसे हुआ ? तथा उस मिट्टोका मागे चलकर लाहारके प्रयत्नसे ही जो पिण्ड बन गया और इसके भी आगे कुम्हारके ही प्रयत्नसे उस मिट्टीको स्थाम, कोश और कुलके क्रमसे घटपर्याय बनी अथवा कुम्हारने अपनी इच्छासे उसकी घटपर्पाय न बनाकर सकोरा आदि दूसरी नाना प्रकारको पर्याय बना हों और या किसी ने आकर अपने दण्ड प्रहारसे वियक्षित पर्यायको नष्टकर दूसरी पर्यायमें उस मिट्टीको पहुंचा दिया तो ये सब विलक्षण विलक्षण पर्याये क्या मिट्टीको क्षणिक क्रमिक पर्यायोंके आधार पर ही बन गयों अथवा उम पर्यायके अनुकूल निमित्तोंको सहायतासे हो ये पर्यायें उत्पन्न हुई । इन सब बातों पर पूर्वमें विस्तारसे प्रकाश डालकर हम प्रत्यक्ष, तर्क और आगमप्रमाणोंके आधार पर विस्तारपूर्वक यह भी बतला आये हैं कि मिट्टी में विद्यमान घटरूप परिणमनकी योग्यताके आधार पर होते हुए भी यह सब करामात निमित्तोंकी है, इसलिये आपका यह लिखना ही कि-'संतानक्रमको अपेक्षा प्रत्येक समयमें उसे ( वस्तुको) उभ्यरूप ( कार्य और कारणरूप ) होनेके कारण निमित्त भी प्रत्येक समय में उसी क्रमसे मिलते रहते है केवल सम्यक मान्यता नहीं है। इसे सम्यक मान्यता तो तन्त्र कहा जा सकता है जब कि जो निमित्त मिलते हैं उन्हें, जैसा कि आपने स्वयं स्वीकार कर लिया है, चाहे वे पुरुषके योग और Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४१९ रागभावसे प्राप्त हों अथवा चाहे विनसा प्राप्त हो, कायोत्पत्ति में उपयोगी स्वीकार कर लिया जाये: क्योंकि यदि कार्योत्पत्तिमें उनके उपयोगको स्वीकार नहीं किया जाता तो आपकी इस मान्यताका भी फिर कोई अर्थ नहीं रह जाता कि 'उस समयमें नियत उपादानके अनसार होनेवाले नियत कार्यों के नियत निमित्त मिलते अवश्य है। क्योंकि क्यों मिलते है ? किस लिये मिलते है ? या पुरुष उनके मिलानेका क्यों प्रयत्न करता है? इत्यादि समस्याएँ तो आपके सामने आपकी इस मान्यताको-कि उपादानसे ही कार्य उत्पन्न हो जाता है मिमित्त तो वहाँ पर अफिनिकर ही बना रहता है-ण्डित करने के लिये तैयार खड़ी है। आगे आप फिर लिखते है कि विविर लोकिक उदाहरणोंको उपस्थित कर जो अपनी चित्तवृत्तिके अनुसार कार्य-कारणपरंपराको बिठानेका प्रयत्न किया जाता है यह युक्तियुक्त नहीं है और न आगमसंगत है।' इसके विषयमें हमारा कहना है कि उदाहरण लौकिक हो चाहें आगमिक हों, उनके विषयमें देखना तो यह है कि वे उदाहरण, अनुभव, तक तथा आगमप्रमाणोंके विम्ब तो नहीं है ? यदि वे उदाहरण बापकी दृष्टिरो अनुभव, तक तथा आगम प्रमाणोंके विरुव हैं तो उनकी इम प्रमाण विरुद्धप्ताको दिखलाना आपका कत्तंब्य था जब कि हम अनुभव. तर्क और आगमप्रमाणीसे उन उदाहरगोंको संगति पूर्वमें बतला आपने चित्तवृत्तिके अनुसार कार्यकारणपरंपराको बिठानेमें असंगति बतलाने के लिये भी आचार्य अमृतचन्दके समयसारकलशमा 'आसंसारत एष घावति' इत्यादि ५५ दशं पद्य प्रमाण रूपसे उपस्थित किया है। इसके विषय में भी हमारा कहना यह है कि इससे निमित्त के साथ कार्यके वास्तविक कार्यकारणभावका निषेध नहीं होता है और न इस तरह के कार्यकारणभावके निषेध करने की आवार्य महाराजकी दृष्टि ही है । इस पद्यसे तो वे केवल हम शतकाही निषेध करना चाहते है कि लोक में अधिकांश ऐसी प्रवत्ति देखी जाती है कि प्राणी मोहकमक उदयके वशोभन होकर अपने निमित्तसे होनेवाले कार्यो में अपने अन्दर अहंकारका विकल्प पैदा करता रहता है जो मोहभाव होने के कारण बन्यका कारण है. अतएव त्याज्य है । लेकिन । इसका अर्थ यह नहीं है कि अपने निमित्तसे होनेवाले कार्यों में अपनी निमित्तताका भान होना असत्य है । यदि बंपने निमित्तसे होनेवाले कार्यों में अपनी निमित्ततताका ज्ञान भी असत्य हो जाय तो फिर मनुष्य किसी कार्य करने में प्रवृत्त भी कैसे होगा? कुम्हारको यदि ममझमें आ जाय कि घड़े का निर्माण सानमें पड़ी हुई मिट्टी से अपनी क्रमवर्ती क्षणिक पर्यायोंके आधार पर स्वतः समय आने पर हो जायगा तो फिर उसमें तदनुकूल पुरुषाध करनेको भावना ही जाग्रत क्यों होगी? इसी प्रकार एक शिक्षकको यदि यह समझमें आ जावे कि छात्र अपनी क्रमवर्ती क्षणिक पर्यायों के आधार पर स्वत: हो समय आने पर पढ़ लेगा तो फिर उसे सस्तकल पुरुषार्य करने की भावना क्यों जायत होगी? हम सब कथनका रहस्य यह है कि निमित्तोंके' सहारे पर कार्य निष्पन्न होता है व सिद्धान्त ठीक है, इसका जिसे शाम होता है वह भी ठोक है और इस जानके अनुसार जो कार्योत्पत्ति के लिये तदनुकूल पुरुषार्थ करता है वह भी ठीक है । परन्तु कार्योत्पत्तिके लिये उपयोगी अपनी निमित्तताके आधार पर यदि कोई मनुष्प उबल विषय अहंकारो बन जाता है तो आचार्य अमृतचन्द्रने उक्त कलश पद्य दाग यह दर्शाया है कि ऐसा अहंकार करगा बुरा है और यह कर्ममन्धका कारण है। विवेकी सम्यग्दृष्टि पुरुष कार्यके प्रति अपना-निमित्तरूप वास्तविक ज्ञान और व्यापार करते हुए Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा भी दे कभी अहंकारी नहीं बनते हैं। किन्तू दूसरोंद्वारा किये गये उपकारके प्रति हमेशा कृतज्ञ हो रहा करते हैं । आचार्य विद्यानन्दीने अपने अन्ध आप्तपरीक्षाका आदमें मंगलाचरण करते हुए यही लिखा है कि 'न हि कृतमुपकार साधवी विस्मरंत्ति' अर्थात् माधु ( सम्यग्दृष्टि ) पुरुष अन्य द्वारा कृत उपकारको कभी नहीं भलते हैं। इसे गंचास्निकाय (रायचन्द्रग्रन्धमाला पृष्ठ ५ पराजयसेनावाने भी उद्धृत किया है। __ आगे आप लिखते है कि स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें और भट्टाकलंकदेव तथा आचार्य विद्यानन्दीने अपशनो और अहमहम्रीम 'दोषावरणग्रोहानिः' इत्यादि कथन उपस ( कार्य केवल उपानान कारण ही निष्पन्न हो जाया करता हूँ निमिस तां वहाँ केवल अपनी हाजिरी दिया करते है) तथ्यको ध्यानमें रखकर ही किया है, क्योंकि उक्त आचार्यों 'उपादानस्य उत्तरीभवनात्' इत्यादि कथन उक्त कार्यकारणपरंपराको ध्यान में रखकर ही किया है। आपके इस लेख में आपके द्वारा यह माना जाना कि 'उपादानस्य उत्तरीभवनात्' यह कथन नवत आचार्योका है सोनो ठीक है. क्योकि उपादान हा उत्तर पर्याय का परिणत होता है। परन्तु वह उत्तर पर्याय निमिसापेक्ष उत्पन्न नहीं होता है. ऐमा निर्णय तो उक्त वाक्यमे नहीं किया जा सकता है। और जब 'दोषावरणयोहानिः' इत्यादि कारिकाको टीका अष्टमहस्रोमें भी श्री स्वामी विद्यानन्दाने निमित्तोंकी उपयोगिताको स्पष्टरूपसे स्वीकार किया है तो कार्य केवल उपादानके बल पर ही उत्पन्न हो जाता है' इसको सिद्धि के लिये 'दोषावरणग्रोहानिः' इत्यादि इरा कारिवाका और इसकी टीका अष्टपती तथा असहस्रीका प्रमाणरूपसे आपके द्वारा उपस्थित किया जाना गलन ही है । अष्टमहस्रीका वह कथन निम्न प्रकार है चनममामादज्ञानादिर्दोषः स्वपरणामहेतुः (अष्टाती) । न हि दीप एव आवरणमिति प्रतिपादने नाशिाया पानणयोतिलिहितासामर्थन् । सत्तामादाररणास् पौद्गलिकलानाबरणादिकमणी भिन्न स्वभावस्वाज्ञानादिदोषोऽम्यूयते । तद्धेतुः पुनरावरण कर्म जीवस्य पूर्वस्त्रपरिणामश्च । स्वपरिणामहेतुकः स्वाज्ञानादिरिन्ध्ययुक्तं, तस्य काहाचिकत्याविरोधाजीवरमादिवत् । परपरिणामहेतुक एवेत्यपि न म्यवतिष्ठते, मुक्तात्मनोऽपि तत्प्रयंगात्। सर्वस्य कार्यस्योपादानसहकारिसामग्रीजन्यतयोपगमात्तथा प्रतीतेश्च । तथा च दोषो जीवस्य स्वपरपरिणाम-हेतुकः, कार्यत्वात् माषपाकवत् । अर्थ-आचार्य समन्तभद्र ने कारिका, 'दोषावरणवोः' ऐसा द्विवचन पदका प्रयोग किया है, इसलिये आवरणरूप पोद्गलिक जानाथरणादि कमोसे भिन्न हो अज्ञानादि दोषोंको जानना चाहिए। उन अजानादि दोषोंकी उत्पत्तिका हेतु आवरण कम तथा जीवके अपने पूर्व परिणामको जानना चाहिये । अज्ञानादि दोष केवल जीयके स्वपरिणामनिमितक ही है-ऐमी मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरहसे तो उन अज्ञानादि दोषोमें जीवत्वस्वभावकी तरह अनादिनिबनताको प्रशक्ति हो जायगी। इसलिये यदि एरपरिणाम निमितक हो अज्ञानादि दोषोंको माना जाय, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरहसे मुक्त आत्माओंमें भी अनानादि दोषोंकी आपत्तिका प्रसंग उपस्थित हो जायगा । दुगरी बात यह है कि सम्पूर्ण कार्योकी उत्पति उपादान और सहकारी कारण सामाग्री से ही देखी जाती है तथा प्रतोति भी ऐसी ही होती है, इसलिये जीवमें जो अशानादि दोष उत्पन्न होते हैं वे स्त्र अर्थात् उपादान और पर अर्थात सहकारी दोनों कारणोंके बल पर ही नरन्न होते हैं, क्योंकि वे कार्य है जिस तरहकी कार्य होनेकी वजहसे उड़दका पाक उपादान और निमित्त उभय कारणोंके बलपर होता हुआ देखा जाता है । जसका दृष्टान्त ऊपर भी राजचा तिकके एक उद्धरणमें दिया गया है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४२१. भगवान् कुन्दकुन्दने जीवपरिणामइंदु" इत्यादि कथन तारा उपादान और निमित इस प्रकार दोनों कारणोंके बलसे कार्योत्पत्तिको स्वीकार किया है, अतः उनके उस कथनसे आपके पक्षकी पुष्टि होना असंभव ही है। 'मसंख्यातप्रदेशी जीवको जब जैसा शरीर मिलता है तब उसे उस रूप परिणमना पड़ता है' आगमके इस कथनको स्वीकार करते हा आपने आगे जो यह लिखा है कि 'यहाँ भो उपादान और निमितोंकी रवन पगार कार्य मा स्वीकार कर लेने पर ही मम्पक व्यवस्था बनती है।' इस कथनके समर्थन में जो हेतुरूप कथन आपने अपने उत्तर में किया है कि 'पयोंकि उपादातरूप जीवमें स्वयं परिणमनकी योग्यता है, अतः वह शरीरको निमित्तकर स्वयं संकोच-विस्ताररूप परिणमता है। इसमें जीवके संकोच-विस्तार रूप परिणमनको उसकी अपनी तदनुकूल योग्यताके आधार पर स्वीकार करके भी उसमें आप यदि अन्त्रय तथा व्यतिरकके आधार पर शरीरको महकारिताको भी स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे तथा आपके मध्य कार्य-कारणभावको लेकर कोई विवाद ही नहीं रह जाता है, परन्तु दुःख इस बात का है कि आगे अन्त में आपने 'तादृशो जायते बुद्धः' इत्यादि पद्मका उल्लेख करके अपनी गल गान्यताको ही पुष्ट करनेका प्रयत्न किया है। और जब आप इस पद्य को भट्टाकलंकक्षेत्र से समश्रित कहते हैं तो हमारे आश्चर्यका फिर कोई ठिकाना ही नहीं रह जाता है । इन्हीं बातोंको हम आगे सर कर रहे हैं। वह पद्य पूरा निका प्रकार है: ताशी जायते बुद्धिव्यवसायश्च तादृशः । सहायास्तारशाः सन्ति बादशी भवितव्यता ।। आपने इसका जो अर्थ किया है वह निम्न प्रकार है: जैसी होनहार होती है उसके अनुसार बुद्धि हो जाती है, पुरूषार्थ भी वैसा होने लगता है और सहायक कारण (निमित्तकारण) भंः वैसे मिल जाते है। स्वामी समन्तभद्र ने जो आप्तमीमांसा लिखी है उसमें होने तत्वावस्थाको अनेकवि और स्यादवादको दृष्टि में रखकर हो स्थापित किया है। इस आपल-मीमांग के अष्टम परिच्छेदम नामी समन्तभद्रने ८८ ८९, ९०, और ह१ वीं कारिताओं द्वारा देव और पुरुषार्थ दोनोगे मिलकर अर्थसिद्धि हआ करती है इस सिद्धान्तका विवेचन किया है। प्रथम कारिकाम उन्होंने केवल देवमात्रसे अर्थ मवि मानने वाली के विधान में जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि पुरुषार्थ के बिना केवल देवमासे यदि अर्थसिटि स्वीकार की जाय तो देवकी उत्पतिमें जो पुण्य और पापरूप आचरण ( पुरुषार्थ) को कारण माना जाता है उसकी संगोत किस प्रकार होगी? यदि कहा जाय कि देवकी उत्पत्ति सससे पूर्ववर्ती देवसे मान लेनेपर पुरुषार्थसे देवकी उत्पत्तिकी असंगतिका प्रश्न ही उपस्थित नहीं होगा तो इस तरह देवसे देवान्तरकी उत्पत्ति परंपरा चाल रहनेक कारण मोक्ष के अभावका ही प्रसंग उपस्थित हो जायगा तथा पुण्यरूप, पापरूप और धर्म जीवका पुरुषार्थ निरर्थक ही हो जायगा । द्वितीय कारिकामे उन्होंने कंवल पुरुषार्थमात्रसे अचगाद्ध माननेवालीके. विषयमे जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि देवके बिना केबल पुरुषार मात्रसे यदि असिद्धि स्वीकार की जाय तो पुरुषार्थको उत्पत्ति में जो देवको कारण माना जाता है उसकी संगति किम प्रकार होगी? यदि कहा जाय कि पुरुषार्थकी उत्पत्तिको भी पुरुषार्थमे मान लेनेपर देवसे पुरूषार्थको उत्पत्तिकी असंगतिका प्रश्न हो उपस्थित नहीं होगा तो इस तरहसे फिर सभी प्राणियों में पुरुषार्थको समान सार्थकताका प्रसंग नस्थित हो जायगा जो कि अयक्त होगा। कारण कि अनेक प्राणियों द्वारा समान पुरुषार्थ करने पर भी जो फल वैषम्य देखा जाता है वह वैवको अर्थसिद्धिम कारण माने बिना संगत नहीं हो सकता है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा ___तृतीय कारिकामें उन्होंने देव और पुरुषार्थ दोनोंसे ही पृथक् पृथक् अर्थसिधि माननेवालों के विषयमें जो कुछ लिखा है उसका भाष यह है कि किसी अर्थसिद्धिमें देवकी और किसी असिञ्चिमै पुरुषार्थको कारण मानने की संगति स्यादवाद सिद्धान्तको स्वीकार किये बिना संभव नहीं हो सकती है, अत: जो लोग स्याद्वाद सिद्धान्त के विरोधी है अनके मत से किसी अर्थसिद्धि मे देवको और किसी अर्थसिद्धि में पुरुषार्गको कारण माना जाना संगत नहीं हो सकता है। इसी तृतीय कारिकामे आगे उन्होंने देव और पुरुषार्थ दोनों ही में युगात् अर्थसिद्धिकी साधनता रहने के कारण अवक्तव्यतायः एकन्तिमा दीका करजहों के विषयमें जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है कि अवक्तव्यताके इस सिद्धान्तको अवक्तध्य शशब्दसे प्रतिपादन करने पर स्ववचनविरोधरूप दोषका प्रसंग उपस्थित होता है। इसके बाद अन्तमें चतुर्थ कारिका द्वारा उन्होंने देव और पुरुषार्थ दोनोंकी पृथक् पृथक् रूपसे वक्त. न्यता और अपृथकरूपसे अबक्तव्यताके आधार पर सप्तमंगीका प्रदर्शन करते हा जन संस्कृति द्वारा मान्य परस्परगापेक्ष देव और पुरुषार्थ भयम अर्थसिद्धिको समान बलवाली साधनताका निष्ठापन दिया है। अष्टसहस्री में आप्तमीमांसाको ८८ वी कारिकाको व्याख्या करते हुए अन्त गं आचार्य विद्यानन्दीने मोक्षको सिद्धिको भी दैत्र और पुरुषार्थ दोनोंके सहयोगसे ही प्रतिपादित किया है। यह कथन निम्न प्रकार है: मोशस्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपोररुषाम्यामेष संभवात्' अर्थ....."परम पुण्णका अतिशय तथा चारित्र विशेषरूप पृथ्वार्थ दोनों के सहयोग से मुक्तिको भी प्राप्ति हुआ करती है। इस प्रकार स्वामी रामन्तभद्रद्वारा प्रस्थापित तथा धीमद् भट्टाकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्दी द्वारा दृढताके साथ समश्रित जैन कांस्कृति में मान्य अर्थसिद्धिकी सक्त देव और पुरुषार्थ उभयनिष्ट साधनताके प्रकाशमें श्रीमद् भट्टाकलंब.देवने आप्तमीमांसाको कारिका ८६ की टीका करते हुए अष्टशती में 'ताशी जायते बुद्धिः' इत्यादि उल्लिखित पय उद्धन किया है और भगाकरकदेवके अभिप्रायको न समझकर उन्हीं फा बल पाकर श्री पं० फूलचन्द्रजी ने अपनी जैन-तत्त्वमीमांसा पुस्तकों तथा आपने अपने प्रत्युत्तरमे कार्यको सिद्धि केवल समर्थ उपादानसे ही हो जाया करती है, निमित्त यहां पर अकिंचित्कर ही रहा करते है इस सिद्धान्त की पुष्टि के लिये उक्त पद्य उद्धृत किया है। इस पदको लेकर हमें यहां पर इन बातोंका विचार करना है कि यह पा जन संस्कृत्तिकी मान्यताके विरुद्ध क्यों है और यदि विरुद्ध है तो फिर थीमदकलंकदेवने इसका उद्धरण अपने अन्य अष्टशती में किस आशयसे दिया है तथा जैन संस्कृति में मान्य कारण-व्यवस्थाके साथ उसका मेल बैठता है तो किस तरह बैठता है ? इतना ही नहीं, इसके साथ हमें इस बातका भी विचार करना है कि इसको सहायताले श्री पं० फूलचन्द्रजी और आप कारण व्यवस्था सम्बन्धी अपने पक्षको पुष्टि करने में कहां तक सफल हो सके हैं । यह तो निश्चित है कि 'तारशी जायते बुद्धिः' इत्यादि रूपमें अथित उक्त पथ आपके द्वारा प्रतिपाषित उल्लिखित अर्थक आधार पर प्राणियोंकी अर्थसिद्धि के विषयमें जैन संस्कृतिद्वारा मान्य देव और पुरुषार्थको सम्मिस्ति कारणताका प्रतिरोध ही करता है ! कारण कि उक्त पश्चके उक्त अर्थसे यही ध्वनित होता है कि प्राणियोंको अर्थसिद्धि केवल भवितव्यताके अधीन है और यदि उस अर्थसिद्धि प्राणियोंकी बुद्धि, व्यवसाय Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान एवं अन्य सहायक कारणोंको अपेक्षा होती भी हो तो वे बुद्धि, ब्यबसाय आदि सभी कारण भी उक्त पथके उक्त अर्थ के अनुसार भवितव्यताकी अधीनतामें ही प्राप्त हुआ करते है। चूंकि उक्त व्यवस्था जैन संस्कृतिमें मान्य नहीं है, किन्तु जैन संस्कृतिकी मान्यता के अनुसार प्राणियोंके प्रत्येक अर्थको सिद्धि देव और पुरुषार्थ दोनों ही पररपरके सहयोगी बन कर समानरूपसे कारण हुआ करते है, अत: उक्त पद्यकी जैन संस्कृति को मान्यताके साथ विरोधकी स्थिति निर्विवाद हो जाती है। इससे यह रात भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जैन संस्कृतिकी मान्यताके विरुद्ध होनेके कारण इस पद्यको थापके द्वारा अपने पक्षकी पुष्टिमें प्रमाणरूगसे उपस्थित किया जाना अनुचित ही है। श्रीमदक..कदेवने उक्त पद्य का उद्धरण जो आप्तमीमांसाकी ८९ वी कारिकाकी अष्टशती में दिया है उसमें उनका आशय हमसे सामाद अपने पक्षकी पुष्टिका न होकर केवल पुरुवार से प्रसिद्धि माननेवाले दर्शनके स्तुण्डन करनेमात्रा ही है । यदो कारण है कि उक्त पद्यको उन्होंने जैन संस्कृतिका अंग न मानकर केवल लोकोक्ति के रूपमें हो स्वीकार किया है। यह बात उनके (श्रीमदकलंकदेवके द्वारा उक्त पद्य के पाठके अनन्तर पठित 'इति प्रसिद्रो' वाक्यांश वारा ज्ञात हो जाती है! तात्पर्य यह है कि श्रीमदकलंकदेव उन लोगोंसे जो दैवकी उपेक्षा करके केवल पौरुषमात्रसे प्राणियों की अर्थसिद्धि मानते है--यह कहना चाहते है कि एक ओर तो तुम देवके बिना केवल पुरुषार्धसे ही अर्थको सिद्धि मान लेते हो और दूसरी ओर यह भी कहते हो कि अर्थसद्धिमें कारणभूत बुद्धि व्यवसायाविकी उत्पत्ति या संप्राप्ति भवितव्यलासे ही हुआ करती है। इस प्रकार वृद्धि-व्यवसायादिकी उत्पत्ति अथवा संप्राप्तिम देवको कारणता प्राप्त हो जानेसे परस्पर विरोधी मान्यताओंको प्रश्रय प्राप्त हो जाने के कारण केवल पुरुषार्थ से ही अर्थसिद्धि हो जाती है यह माग्यता खण्डित हो जाती है। एक बात और है कि उक्त पद्यका जो अर्थ आपने क्रिया है वह स्वयं ही एक तरहसे आपकी इस मान्यताका विरोधी है कि कार्य केवल भवितब्यता (समर्थ उपादान) से ही निमग्न हो जाया करते है, निमित उसमें किचकर ही रहा करते है। क्योंकि उक्त पदार्थ हमें इस बातका संकेत देता है कि कोई भी कार्य भवितव्यता (उपादान शमित)के साथ साथ बुद्धि, व्यवसाय आदि कारणों का सहयोग प्राप्त हो मानेपर ही निष्पन्न होता है। केवल इतनी विशेषता उससे अवश्य प्रगट होती है कि बुद्धि, व्यवसाय आदि सभी दूसरे कारण भवितव्यके अनुसार ही प्राप्त हुआ करते हैं । लेकिन इस तरहसे उसे बुद्धि, व्यवसाय आदिमें कारणताका नियेधक नहीं कहा जा सकता है। यदि कहा जाय कि उक्त पद्य जब उक्त प्रकारसे भवितव्यताके साथ साथ बद्धि व्यवसाय आदिको भो कार्यके प्रति कारण बतला रहा है तो फिर उसे जैन संस्कृति में मान्य कारण व्यवस्थाका विरोधी कहना ही गलत है। तो इस विषयमें हमारा कहना यह है कि पद्यमें कार्यके प्रति भवितव्यताके साथ साथ कारणभूत बुद्धि, व्यबसाय आदिका कल्लेख किया गया है, उनको उत्पत्ति अथश संप्राप्तिको उसो भवितव्यासाकी दया पर छोड़ दिया गया है जो इस कार्यको जननी है। बस, यही उसमें असंगति है और इस लिये बह जैन संस्कृतिको मान्यताके विरुद्ध है, क्योंकि जिस भवितव्यतासे कार्यकी उत्पत्ति होती है उसी भवितव्यतासे उस कार्यमें कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय बादिकी उत्पत्ति अथवा संम्प्राप्तिको जैन संस्कृतिम मान्य नहीं कहा गया है। कारण कि कार्यकी उत्पत्ति जिस मविलक्यतासे होती है उसी भवितव्यतासे कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय मादिको Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा उत्पत्ति अथवा संप्राप्तिको स्वीकृतिका कोई अर्थ हो नहीं रह जाता है अर्थात् जब वह भवितव्यता हो कार्योत्पत्ति के साथ साथ उनमें कारणभूत बुद्धि व्यवसाय आदिको भी जुटा देती है तो फिर अकेली भवितआता ही कार्यको उत्पन्न कर सकती है, अतः उसकी उत्पत्तिके लिये बुद्धि, व्यवसाय आदि साधनों को आबश्यकता नहीं रहना चाहिए | यदि आप कहें कि इसलिये हो कार्यकी उत्पत्ति आपके मत में केवल उपादानसे स्वीकार को गयी है । तो इसपर हमारा कहना यह है कि उक्त पद्य भी जब भवितब्वता के साथ बुद्धि, व्यवसाय आदिको उपयोगिताको कार्यसिद्धिमें स्वीकार कर रहा तो इस पद्यको कार्य कारणभावकी आपके लिये मान्य व्यवस्थाका समर्थक कैसे कहा जा सकता है ? श्री पं० फूलचन्द्रजीने तो जैन तस्वमीमांसाके उपादान निमितमीमांसा प्रकरण में पृष्ठ ६७ पर परिमली मोना ३८१ वा उद्धरण देकर यह सिद्ध करनेका प्रयास किया है कि 'तादशी जायते बुद्धि:' इत्यादि पद्य में प्रतिपादित कारणव्यवस्थाको जैन संस्कृति में भी इसी स्वीकार किया गया है, क्योकि पं० प्रवर टोडरमलजीनं भी अपने कथनमें कार्यके प्रति कारणभूत बुद्धि, areer आदिको भवितव्यताको अधीनता पर ही छोड़ दिया है। उनका वह कथन निम्न प्रकार है: जो इनकी सिद्धि हाय तो कषाय उपशमन में दुःख दूर होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये उपाय के आधीन नाहीं, भवितव्य के आधीन है। जानें अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है । बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नहीं, भषितव्य के आधीन है । जाते अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिये हैं । बहुरि काकतालीयन्याय करि भवितथ्य ऐसी हो होय जैसा आपका प्रयोजन होइ तैसा ही उपाय होइ अर तातें कार्यकी सिद्धि भी होड़ जाइ तो तिस कार्य सम्बन्धी कोई कषायका उपशम होइ । पं० फूलचन्द्र जोने पंडितप्रवर टोडरमलजी के इस कथन के विषय में अपना मंतभ्य भी यहीं पर लिख दिया है कि 'यह पं० प्रवर टोडरमलजीका कथन है— मालूम पड़ता है कि उन्होंने ( पं० प्रवर टोडरमलजीने) 'ताशी जायते बुद्धि:' इत्यादि इस श्लोकको ध्यान में रखकर ही यह कथन किया है, इसलिये इसे दक्त अर्थके समर्थन में ही जानना चाहिये ।' इस विषय में हमारा कहना यह है कि पं० फूलचन्द्रजी पं० प्रवर टोडरमलजी के उल्लिखित कथन से जो वक्त अर्थ फलित कर रहे है वह ठीक नहीं है, क्योंकि हम बतला आये हैं कि जैन संस्कृति में केवल भवितव्य से कार्य सिद्धि न मानकर भवितव्य और पुरुषार्थ दोनोंके परस्पर सहयोग से ही कार्यसिद्धि मानी गयो है। इसलिये जैन संस्कृतिके इस सिद्धान्तको ध्यान में रखकर ही पं० प्रवर टोडरमलजी के कथनका आश्रय निकालना चाहिये । पुनश्च इसी मोक्षमार्गप्रकाशक में पं० टोडरमलजीने भवितव्यता और पुरुषार्थका दूसरे ढंगसे निम्न प्रलार कथन किया है कालच या होनहार तो किछु वस्तु नाहीं । जिस काल विष कार्य बने सोई काललग्धि और जो कार्य भया सोइ होनहार । बहुरि जो फर्मका उपशमादिक है सो पुगलकी शक्ति । साकी आरमा कर्ता हर्ता नाहीं । बहुरि पुरुषार्थ उद्यम करिए है सो बहु करि उद्यम करनेका उपदेश दीजिए है। यहाँ यह आत्मा आश्रमका कार्य है । तातै आमाको पुरुषार्थ जिस कारणते कार्यसिद्धि अवश्य होय, तिस Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका और उसका समाधान ४२५ कारणरूप उधम की, तहाँ तो अन्य कारण मिलें ही मिलें, अर कार्यक्री सिद्धि ही होय । बहुरि जिस कारण से कार्यसिद्धि होय अथवा नाहीं भी होय, तिस कारणरूप उद्यम करे, तहाँ अन्य कारण मिले तो कार्य सिख धोय, न मिले सो सिद्ध न होय । सो जिनमत्त विर्षे जो मोक्षका उपाय कहा है, सो इसते मोक्ष होय ही होय । तात जो जीच पुरुषार्थ करि जिनेश्वरके उपदेश अनुसार मोक्षका उपाय करे है ताके कासलब्धि घा होनहार भी भया और कर्मका उपशमादि भया है, तो यह ऐसा उपाय करें है तात जो पुरुषार्थ करि मोक्षका उपाय करे है साकै सर्व कारण मिले ऐसा निश्चय करना अर बाके अवश्य मोक्षकी प्राप्ति ima ___ श्री पं० फूलचन्द्रजीने मोक्षमार्गप्रकाशकके जो वाक्य उद्धृत किये है उनका अर्थ उपरोक्त वाक्योंको ध्यान में रखकर करना चाहिये । यह भी बात है कि पं. प्रवर टोडरमलजीके अवत कथनसे यह तो प्रगट होता नहीं कि कार्यको सिद्धि केवल भवितव्यसे ही हो जाती है, उसमें पुरुषार्थ अपेक्षित नहीं रहता है। वे तो अपने उक्त कथनसे इतनी ही बात कहना चाहते है कि कितने ही उपाय करते जाओ, यदि भवितव्य अनुकूल नहीं है तो कार्यको सिख नहीं हो सकती है। लेकिन यह निष्कर्ष तो कदापि नहीं निकाला जा सकता है कि यदि भवितव्य अनुकूल है तो बिना पुरुषार्थके हो अर्थको सिद्धि हो सकती है। जैसे मिट्टी में पट बनने को योग्यता नहीं है तो जुलाहा आदि निमित्त सामग्रीका कितना ही योग क्यों न मिलाया जावे, उस मिट्टी से पटका निर्माण असंभव ही रहेगा, लेकिन इससे यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता है कि मिट्टी में घटनिर्माणको योग्यता विद्यमान है तो कदाचित् कुम्भकार आदि निमित्त सामग्रीके सहयोगके बिना ही घटका निर्माण हो जायगा । सत्य बात तो यह है कि एक ओर तो मिट्टी में घनिर्माणको योग्यताके अभावमें जुलाहा आदि निमित्त सामग्रीका सहयोग मिट्टी से पटनिर्माणमें सर्वदा असमर्थ ही रहेगा और दूसरी और उस मिट्टी से घटका निर्माण भी तभी संभव होगा जब कि उसे कुम्भकार आदि निमित्त सामग्रीका अनुकुल सहयोग प्राप्त होगा और जब कुम्भकार आदि निमित्त सामग्रीका अनुकूल सहयोग प्राप्त नहीं होगा लब अन्य प्रकारको अनुकूल निमित्त सामग्रीका सहयोग मिलने के सबब तदनुकल अन्य प्रकारके कार्योंकी निष्पत्ति होते हुए भी उस मिट्टी से घटका निर्माण कदापि संभव नहीं होगा। पं० प्रवर टोडरमलजीके उक्त कथनका यह भी अभिप्राय नहीं है कि अमुक मिट्ठीसे चूंकि घटका निर्माण होना है, अतः उसकी प्रेरणासे कुम्भकार तदनुकूल व्यापार करता है, क्योंकि यह बात अनुभवके विरूद्ध है । लोकमें कोई भी व्यक्ति किसी भी कार्यके करते समय यह अनुभव नहीं करता है कि अमुक वस्तुसे चूंकि अमुक कार्य निष्पन्न होना है, इसलिये मेरा व्यापार तदनुकूल हो रहा है। वह तो कार्योत्पत्तिके अवसर पर केवल इसना ही जानता है कि अमुक वस्तुसे चूंकि अमुक कार्य सम्पन्न हो सकता है और सब इस आधारपर यह प्रयोजनवश तदनुकूल व्यापार करने लगता है और यही कारण है कि वस्तुगत कार्य योग्यताका कदावित ठीक ठीक ज्ञान न हो सकनेके कारण अथवा स्वगत कार्य कर्तृत्वकी अकुशलताके कारण या दूसरी सहकारी सामग्रीवे ठीक ठोक अनुकूलता न होमे अथवा बाषक सामग्रीके उपस्थित हो जाने पर अनेकों बार व्यक्तिके हाथमें असफलता ही रह जाया करती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भवितव्यता हो और तदनुकूल उपाय किये जावें तो विवक्षित कार्य की सिद्धि नियमसे होगी तथा भवितव्यता हो लेकिन उपाय न किये जावे या प्रतिकूल उपाय किये जावें तो Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा कार्यकी सिद्धि नहीं होगी । इसी तरह कार्यकी सिद्धि के लिये उपाय तो किये जावे लेकिन सदनुकूल भवितव्यता महीं है तो भी कार्यकी सिद्धि नहीं होगी। अलावा इसके यह भी विकल्प संभव है कि भवितव्यता हो, तदनुकूल उपाय भी किये जायें, लेकिन साथमें बाधक सामग्री भी वहां पर विद्यमान हो तो भी कार्यको सिद्धि नहीं होगी। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पंडित फूलचन्द्र जो पं प्रवर टोडरमलजीके कथनसे जो 'तादशी आयत बुद्धिः' इत्यादि पद्मका समर्थन कर लेना चाहते हैं वह ठीक नहीं है। यद्यपि पं० प्रवर टोडरमलजीने अपने उल्लिखित कथनमें यह अवश्य लिखा है कि 'बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीम नाहीं भवितव्यके आधीन है' परन्तु इससे भी पं० फूलचन्द्रजीके इस अभिप्रायका समर्थन नहीं होता है कि 'जो भवितव्यता कार्यकी जनक है वहो भवितध्यता उस कार्यमें कारणभूत बुद्धि, व्यवसाय आदिको भी जनक है ।' हमारे इस कथनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि पं. टोडरमलीक कथाम सामान्यतया वेत- और अचेतनहप सभी तरहके कार्योंकी उपादान शक्तिको नहीं ग्रहण किया गया है, इसलिये ऐसी भवितव्यता जीवके पारिणामिक भावरूप भव्यत्व या अभश्यत्व हो सकते हैं अयत्रा कमके यथासंभव उदय, उपशम क्षयोपशम अथवा क्षयसे प्राप्त कार्यासद्धिके अनकल जीवको योग्यता हो सकती है। अब यहाँ पर ध्यान इस बात पर देना है कि मान लीजिये-किसी व्यक्तिम धनी बननेकी योग्यता है लेकिन केवल योग्यताका सभाष होनेमात्रसे तो वह व्यविस धनी नहीं बन जायेगा । यही कारण है कि ऐसी मान्यता जैन संस्कृतिकी नहीं है, अत: जैन संस्कृतिको मान्यता के अनुसार उस व्यक्तिको धनी बननेके लिये अपनी बुद्धिका तद्नुकूल उपयोग करना होगा, पुरुषार्थ भी उसी जातिका करना होगा और उसमें तदनुकूल अन्य सहकारी कारण भी अपेक्षित होंगे। यह जो कहा जाता है कि उस व्यक्तिमें पायो जानेवाली धनी बननेकी योग्यता हो 'तारशी जायते बुद्धिः' इत्यादि पद्य के आशयके अनुसार बुद्धि, पुरुषार्थ तथा अन्य सहकारी साधन-सामग्रीको संगृहोत कर लेगी तो यह कथन अनुभवविरुद्ध होने के कारण जैन संस्कृति के विरुद्ध है-न्य बात हम पहले हो स्पष्ट कर चके है । इतना होने पर भी हम यह मानते हैं कि जैन संस्कृतिके अतुगार भी व्यक्ति में वृद्धिका उद्भव तदनुकूल ज्ञानावरणको क्षयोपशमय योग्यता ( भवितव्यता ) का ही कार्य है और यही बात पुरुषार्थके कही जा सकती है कि वह भी तदनुकूल कर्म के क्षयोपशमरूप भवितव्यताका ही काय है। इस लिये पं० प्रवर टोडरमलजीने जो यह लिया है कि 'उपाय बनना अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन हैवह न तो असंगत है और न जैन संस्कृ लिके ही विरुद्ध है। कारण कि प्राणियोंको अर्थसिद्धि में जो भी बुद्धि, व्यवसाय (पुरुषार्थ) आदि उपाय अपेक्षित रहते हैं वे सब उपाय अपने अपने अनुकूल ज्ञानावरण आदिके क्षयोपशम आदि रूप भवितव्यताके ही कार्य हुआ करते हैं। इस प्रकार यदि यही दृष्टि यदि 'ताशी जायसे बुद्धिः' इत्यादि पद्मका अर्थ करने में आना लो जावे सो फिर इसके साथ भी जन संस्कृति में मान्य कारणव्यवस्थाका कोई विरोध नहीं रह जाता है। अन्तमें थोड़ा इस बात पर भी विचार करना चाहिये कि यवि बुद्धि, व्यवसाय आदि सभी कारण कलापकी जननी या संग्राहिका वही भवितव्यता है जो कार्यको जननी होती है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा कार्य करनेका संकल्प भी उसी भवितव्यताके अनुकूल ही होना चाहिये । हमारी बुद्धि पर, हमारे Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४२७ पदार्थ पर और अन्य सहकारी सावन सामग्री पर वो उस भविष्यताका आधिपत्य हो केवल हमारे संकल्प पर उसका आधिपत्य न हो यह बात बहुत अटपटी मालूम पड़ती है। और हो कुछ जाता है यह स्थिति कदापि उत्पन्न नहीं होना चाहिये । इस तरह मनुष्य चाहता तो कुछ है एक और भी अर्थ 'वादशी जायते बुद्धिः' इत्यादि पका होता है वह यह है कि जिस मार्गके अनुकूल वस्तुमें उपादान शक्ति हुआ करती है समझदार व्यक्ति उस वस्तुसे उसी कार्यको सम्पन्न करने की बुद्धि ( भागना ) किया करता है और वह पुरषार्थ (व्यवसाय) भी तदनुकूल ही किया करता है तथा वह यहाँ पर तदनुकूल ही अन्य सहायक साधन सामग्रीको जुटाता है। इस तरह उक्त पद्यका यदि यह अर्थ स्वीकार कर लिया जाय तो भी इसके साथ जैन संस्कृतिकी कारण व्यवस्थाका विरोध नहीं रह जाता है, लेकिन यह बात तो निश्चित समझना चाहिये कि 'खाशी जायते बुद्धिः' इत्यादि का कोई भी अर्थ क्यों न कर लिया जाय यदि वह अर्थ जैन संस्कृति की मान्यता अनुकूल होगा तो उससे आपके भवितव्यता से ही कार्यको सिद्धि हो जाया करती है निमित्त वहाँ पर अकचिकर हो रहा करते हैं इस मतकी पुष्टि नहीं होगी और जैसा अर्थ आपने उक्त पद्मका किया है यदि उसे ही पक्षका सही अर्थ माना जाय तो जैन संस्कृतिक मान्यता विरुद्ध होने के कारण उसका आपके द्वारा प्रमाणरूपसे उपयोग करना अनुचित माना जायगा। कुछ विचारणीय बातें जिस प्रकार स्त्री अपने गर्भाशय में गर्भधारण करके संतान उत्पन्न करती है, परन्तु उस गर्भके धारण करनेके लिये पुरुषका निमित्त उसको अनिवार्य आवश्यक होता है। सती विधवा और अवध्या स्त्री इस कारण सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती, क्योंकि उसको का निमित नहीं मिलता। उपादानके अन्दर अनन्त शक्तियाँ विद्यमान है और जब जिस शक्ति के विकास के योग्य निमित्त मिल जाते हैं तब वह शक्ति विकासको प्राप्त हो जाती है। रसोइया परमें गेहूं का आटा माड़ कर रखे हुए हैं। भोजन करनेवाले की इच्छानुसार वह उसी से कभी रोटी बनाता है, कभी पुड़ी बनाता है और कभी पराया बनाता है। रसोइया इन सब चीजों को बराबर आवश्यकतानुसार दल-बदल कर बनाता मला जाता । भोजन करनेवाले भोजन भी करते जाते है। उक्त रोटी, पुड़ी और पराठेके निमित्त यथायोग्य अलगअलग भी हैं और एक भी हैं। यहाँ पर विचारणीय बात नाना शक्तियों की है कि जितना गेहूँ पोसा गया वह एक ही चक्कीले पोसा गया और उस सम्पूर्ण आसे प्रत्येक दानेका अंश समा गया और सभी घाटेको पानी डालकर मार दिया गया। इस तरह के प्रत्येक दानेका अंश रोटीमें पहुँचा, पुड़ीमें पहुंचा और पराममें भी पहुंचा इससे सिद्ध हुआ कि के प्रत्येक दाने रोटी बनने की शक्ति पी एड़ी शक्ति थी, और पराठा बनने की शक्ति थी। विकास उसकी उस शक्तिका हुआ जिसके विकास के लिये रसोइयाकी इच्छाशक्ति, बुद्धिशक्ति और श्रमशक्तिका योग प्राप्त हुआ । आप लोगोंको सरवच आये प्रश्नोंका उत्सरत है वह न तो केवल आत्मा द्वारा लिखा जा सकता है, क्योंकि आत्मा स्वयं अशरीरी है। उसके हाथ, पैर, आँख, अंग-उगांग नहीं है। इसी तरह प्रश्नोंका उत्तर के लिये जहाँ आपको हाथ, आंख आदि शरीरके अवयवोंकी आवश्यकता है वहाँ उनके साथ प्रकाश, लेखनी, स्याही, कागज आदि बाह्य साधनों की भी आवश्यकता है। इनमें से आवश्यक किसी एक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा साधनको कमी रह जाय तो प्रश्नोंका उत्तर नहीं लिखा जा सकेगा। इसके सिवाय विसन करनेवाले प्रतिबन्धक कारणों का अभाव भी मिलना चाहिये, रात्रिम लिखते समय बिजलो फैल हो जावे, दीपक बुझ जावे, शरीरमें भयानक वेदमा उत्पन्न हो जाये तो प्रश्नोंका उत्तर लिखना असंभव हो जायगा । मनुष्य जब पैदल चलता है तो उसकी गति धीमी होती है, जद वह तांगे पर सवार होकर यात्रा करता है तब वह अपने लक्ष्य पर जल्दी पहुंच जाता है, जब वह साइकलसे जाता है तो तांगेकी अपेक्षा और भी शोन अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है । दूरवर्ती नगरमें पहुंचने के लिये वह रेलगाड़ीसे जाता है तब और शीघ्र पहुंच जाता है। यदि और भी शोघ्र पहुँचनकी इच्छा होती है तो वह मोटर द्वारा सफर करता है और अत्यन्त शीघ्र पहुँचने के लिये हवाई जहाजका भी उपयोग करता है। स्वर्गीय सम्राट पंचमजार्ज सन् १९१२ में इंमलैंडसे दिल्लो आये थे तब हवाई जहाज नहीं थे, अतः समुद्री जहाजमें बैठ कर आये थे और एक मास में भारत पहुंचे थे। अभी २.३ वर्ष पहले जब उनकी पौत्री साम्राज्ञी एलजावेथ भारत आयो तब घे एक ही दिन में हवाई जहाज द्वारा इंगलैण्डसे भारत पहुंच गयी थी। कुछ समय बाद जब अतिस्वन ( सुपर सोनिक) विमान चाल हो जायेंगे तब लन्दनसे दिल्लीकी यात्रा ४-५ घंटे की रह जायगी। आज अमेरिका और रूस में चंद्रमा पर पहुंचने की होड़ लगी हुई है । उपादान अपने विकास में निमित्तोंके कितने अधीन है इसका पता उपयूमत उदाहरणाः सह में लग जाता है। मुद्गरादिग्यापारानन्तरं कार्योत्पादवत् कारणविनावास्यापि प्रतीतेः, विनयो घट उत्पन्नानि कपालानीति व्यवहार यसद्भावात्-अष्टसहस्री पृष्ठ २०० कारिका ५३ अर्थ--मुगर आदिके व्यापारके अनन्तर घटका विनाश और कपालोंका उत्पाद होता हुआ देखा जाता है। यहाँ पर इसना आशय लेना है कि मुद्गरको घटके विनाश और कपालोंके उत्पादमें निमित्तता स्वीकार की गयी है । आगे अष्टसहनी पृष्ठ २०० पर ही लिखा है : तस्मादयं विनाशहेनुर्भावमभावीकरोतीति न पुनरकिंचिस्करः । अर्थ-इसलिये घटविनाशका हेतुभूत मुद्गर भावात्मक पदार्थको अभावात्मक बना देता है तो इसे अकिचित्कर कसे कहा जा सकता है ? इस कथनसे निमित्तकारणकी अकिचित्करताका स्पष्ट खण्डन हो जाता है। इससे सम्बन्ध रखनेवाला रहतसा विवेचन और आगमप्रमाण प्रश्न संख्या १,५,८,१०,११,और १७ में भी मिलेंगे। अतः कृपया वहाँ पर देखनेका कष्ट कीजियेगा। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मो ऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ६ मूल प्रश्न ६-उपादानकी कार्यरूप परिणति में निमिन कारण सहायक होता है या नहीं ? प्रतिशंका ३ का समाधान इस प्रश्नका पहली बार उत्तर देते हुए हमने तत्वार्थश्लोकवार्तिक अ. ५ सू० १६१० ४१० फे आधारसे यह स्पष्ट कर दिया था कि 'निश्चय नयसे प्रत्येक द्रव्यके उत्पादादिक विससा होकर भी व्यवहार नयसे ही वे सहेतुक प्रतीत होते हैं । इस पर प्रतिशंका २ उपस्थित करते हुए अपर पसने कार्यमें योग्य द्वाशक्तिको अन्तरंग कारण और बलाधान राहायकको बहिरंग कारण बतलाकर लिखा था कि-'जब जब शक्ति व्यक्तिरूपसे आती है तब तब निमित्तकी सहायतासे ही पाती है। इसी सिलसिल में अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में मीनियष्टिलग स्थित सिविरम अनेक बातें लिखकर और कुछ आगमरमाण उपस्थित कर उसके बाद लिखा था कि 'पदार्थमें क्रियाकी शक्ति है और वह रहेगी, किन्तु पदार्थ क्रिया तभी करेगा जब बहिरंग कारण मिलेंगे। जब तक बहिरंग कारण नहीं मिलेंगे वह क्रिया नहीं कर सकता, अर्थात् उसकी दाक्ति व्यक्तिरूपमें नहीं आ सकती, जिसके द्वारा शक्ति कपक्ति रूपमें आती है या जिसके बिना शक्ति व्यक्ति रूपमें नहीं आ सकती वही बहिरंग कारण या निमित्त कारण है या यही बलाधान निमित है। आगे अपर पक्षने परमतमें प्रसिद्ध भरत मुनिके नाट्य-शास्त्रमें लिखे गये रसके लक्षणको प्रमाण रूपमें उपस्थित कर यह भी लिखा था कि 'इससे स्पष्ट है कि मानव हृश्य में विभिन्न प्रकारके रसोंकी उत्पत्ति ही बहिरंग साधनों की देन है।' आदि । इस प्रकार अपर पक्षने अपनी नक्त प्रतिशंकामें यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था कि जब भी कार्यके योग्य द्रव्यशक्ति कार्यरूप होती है सब वह बहिरंग साधनोंक द्वारा ही कार्यरूप परिणमती है अन्यथा नहीं । अपर पक्षने इस प्रतिशंका द्वारा अपने पक्षके समर्थन में वैदिक धर्मानुयायी भरतमुनिका एक ऐसा भी प्रमाण आगमरूपमें उपस्थित किया है जिसे आगम नहीं माना जा सकता । मालूम पड़ता है कि अपर पक्ष इस सीमाको मानने के लिये भी तैयार नहीं है कि इट विषयकी पुष्टि में मूल परम्पराके अनुरूप आचार्यों द्वारा निबद्ध किये गये शास्त्रोंके ही प्रमाण दिये जाय । यही कारण है कि कहीं उसकी ओरसे लौकिक प्रमाण देकर अपने विषयकी पुष्टि करने का प्रयत्न किया गया है और कहीं उसे बैज्ञानिक दृष्टिकोण बतलाकर अपने विषयको पुष्ट किया है। हम नहीं कह सकते कि अपर पनने आने पशके समर्थन के लिये यह मार्ग क्यों अपनाया है, जब कि आगमसे प्रत्येक विषयका ममुचित उत्तर प्राप्त किया जा सकता है। हम अपना द्वितीय उत्तर लिखते समय इन सब बातों में तो नहीं गये । गात्र आगम प्रमाणोंके आधार से पुनः यह सिद्ध किया कि उपादान केवल द्रव्यशक्ति न होकर अनन्तर पूर्व पर्याययुक्त व्यका नाम उपादान है। वह किसीके द्वारा परिणमाया न जा कर स्वयं अपने कार्यको करता है और जब वह अपने कार्यको करता है तब अन्य बाह्य सामग्री उसमें निमित्त होती है। उस उत्तरमें हमने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि आगममें बाह्य सामग्रीको निमित्त और कार्यकारी व्यवहार Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा नयकी अपेचा बतलाया गया है 1 और अंतमें भट्टाकलंकदेवके द्वारा प्रतिपादित 'तारशी जायते बुद्धिः' इत्यादि कारिका उपस्थित कर यह सिद्ध कर दिया है कि भवितव्यताके अनुसार बुद्धि होती है, वैसा ही प्रयत्न होता है और सहायक भी उसीके अनुरूप मिलते हैं। किन्तु जान पड़ता है कि अपर पच आगमिक कार्य-कारणपद्धतिमें अपने पक्षका समर्थन नहीं समझता । उस पक्षका यह दाष्टकोण पांचवें प्रश्न पर उपस्थित की गई प्रतिशंका ३ से बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। वहां स पक्ष ने केवल शामकी अपेक्षा आगम प्रतिपादित हमारे अभिप्रायको स्वीकार करके भी तज्ञानको अपेक्षा विवादको नया मोष्ट देते हुए लिखा है कि 'भगवान के ज्ञानमें जिस काल में जिस वस्तुका जैसा परिणमन झलका है वह उसी प्रकार होगा । प्रत्येक सम्यग्दृष्टिकी ऐमी ही श्रद्धा होली है । इसलिए फेवलज्ञान के विषयके अनुसार तो सभी कार्य नियत क्रमसे ही होते है और सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धा भी ऐसी ही रखता है। किन्तु श्रुतज्ञानीके इतने मात्रसे सब समस्याएं हल नहीं हो जाती, इसलिए शुतज्ञानके विषयके अनुसार कुछ कार्य नियत क्रमसे भी होते हैं और कुछ कार्य अनियत कमसे भी होते है ऐसा बनेकान्त ही ठोक है।' ___ अपर १क्ष द्वारा पांचवें प्रश्नपर प्रतिशंका ३ जिस आधारपर उपस्थित की गई है उसका यह सार है। इससे अपर पक्षका ऐसा कहना मालूम पड़ता है कि अपर पक्ष प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तस्वरूप मात्र अपने माने हुए श्रुतमानको अपेक्षा ही मानना चाहता है, केवलज्ञानको अपेक्षा नहीं। दूसरी बात यह भी मालूम होती है कि सभी द्रव्यों के सभी कार्य हाती है। गहमर केवलज्ञान उनको उसी रूपमें जानता है। परन्तु अपर पक्षके श्रतज्ञानमें बे उस रूपमें नहीं झलकते । मात्र इसीलिए कुछ कार्य नियतक्रमसे होते हुए प्रतीत होते है और कुछ कार्य अनियसक्रमसे होते हुए प्रतीत होते है । उक्त वस्तष्पमें अपरपक्षने कौनसा श्रुतलान लिया है-लौकिक ध्रुतज्ञान या सम्यक श्रद्धानुसारी सम्यक तज्ञान ? इसका उसकी ओरसे उक्त प्रतिशंकामें यद्यपि कोई स्पष्टीकरण नहीं किया गया है। किन्तु सभ्य श्रद्धा विहीन जो श्रुतज्ञान होगा वह लौकिफ ही होगा यह स्पष्ट है । ___जहाँ तक प्रकृत प्रतिशंकासे सम्बन्ध है सो उसमें भी अपर पक्षका वही दृष्टिकोण कार्य कर रहा है। इसे उपस्थित करते हुए अपर पक्षने पहले तो निमित्तकारणता व्यवहारनयसे है' इसे स्वीकार कर लिया है, किन्तु यहाँ ब्यवहार शब्दका दाय क्या है इसमें उसे विवाद है। हम अपने पिछले उत्तरमें बृहदाव्यसंग्रह गाथा ८ का उसरण देकर प्रकृतमें ब्यवहारका अर्थ असद्भुत व्यवहार है यह बागम प्रमाणके साथ बतला आये है, परन्तु अपर पक्ष यह कहकर कि हम व्यवहारका अर्थ कल्पनारोपित करते हैं, मुरूप विषयसे विचारकोंकी दृष्टि हटाना चाहता है। १. व्यवहारनय और उसका विषय जैसा कि यहां की गई सूचनासे ज्ञात होता है, अपर पक्षने व्यवहार और निश्चय इन दोनों शब्दोंका पृषक् पृथक् स्थल पर प्रकरणानुसार क्या अर्थ इष्ट है इसका विचार प्रश्न १७ की प्रतिशंका में किया है सो इस विषयपर तो विशेष विचार हम वहीं करेंगे। मात्र प्रकृति में प्रकरणानसार उसकी ओरसे इस प्रतिशंकामें जो व्यवहारनय और निश्चयनयके लक्षण स्वीकार किए गए है वे यथार्थ न होकर कल्पमारोपित कैसे है इसका यहाँ सर्व-प्रथम विचार अवश्य कर लेना चाहते है। इससे प्रकृतमें व्यवहाररूप अर्थ और निश्चय रूप अर्थ क्या होना चाहिए इसका भी यथार्थ बोध हो जायेगा । अपर पक्षने व्यवहारनय और निश्चयनयका लक्षण करते हुए लिखा है Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका है और उसका समाधान पियरूप असा व्यवहार अर्थका प्रतिगादक वचन व्यवहारनय और व्यवहाररूप अर्थसापेक्ष निश्चयरूप अर्थका प्रतिपादक वचन निश्चनय कहलाने योग्य है। इसी प्रकार निश्चयरूप अर्थसापेक्ष व्यवहाररूप धर्मका ज्ञापक ज्ञान व्यवहारनय और व्यवहारा अर्थसापेक्ष निश्चयरूप अर्थका ज्ञापक ज्ञान निश्चयनय कहलाने योग्य है। पहिले दोनों वचननयके और दूसरे दोनों शाननयके भेद जानना चाहिए।' यह अपर पक्षद्वारा उपस्थित किये गये व्यवहारनय और निश्चयनवके लक्षण हैं। किन्तु इन लक्षणोंकी पुष्टिमें कोई आगमप्रमाण अपर पक्षने नहीं दिया है। इनका सांगोपांग विचार करते हए सर्वप्रथम हम आचार्योने व्यवहारपदका क्या अर्थ स्वीकार किया है इस बात पर दृष्टिपात करते हैं । पालापपरतिमें व्यवहारपदका अर्थ करते हुए लिखा है __ अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्यान्यन समारोपणमसद्भूतव्यवहारः । असद्भुतव्यवहार एवोपचारः, उपचारा६ष्युपचारं यः करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहारः । गुणिगुणिनोः पर्याय पर्यायिणोः स्वमावस्वभाविनोः कारण-कारकिगाभेदः सद्र्व्यवहारस्थावः । द्रव्ये दृश्योपचारः पर्याये पर्यायोपचारः गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये गुणोपचारः, पर्यायोपचारः गुणे योपचारः गुणे पार्योपचारः पर्याये इम्योपचार: पर्याये गुणोपचार इति नवविधोऽसद्भुतम्यवहारस्यार्थी द्रष्टव्यः । अर्थ-अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र आरोप करना असद्भतव्यवहार है। असदमृत व्यवहारका नाम हो उपचार है । उपचारके बाद भी उपचारको जो करता है वह उपचरिसासद्भुतम्यवहार है। गुण-गुणीका पर्याव-पर्यायीका, स्त्रमाव-स्वभाववान् का और कारक-कारकवान्का भेद सद्भूतव्यहारका अर्थ है। दम्य में द्रव्यका उपचार, पर्याय में पर्यायका उपचार, गुणमें गुणका उपचार, द्रव्यमें गुणका उपचार, द्रा पर्यायका उपचार, गुणमें द्रव्यका उपचार, गुणमें पर्यायका उपचार, पर्याय में द्रव्यका उपचार और पर्यायमें गुणका उपचार इस तरह नौ प्रकारका अस तव्यवहारका अर्थ जानना चाहिए। यह आलापपद्धतिका वचन है। इसमें असदभूतव्यवहाररूप अर्थ उपचरित असद्भूतव्यवहाररूप अर्थ और सद्भूतन्यवहाररूप अर्थ क्या है इसका स्पष्ट शब्दोंमें निर्देश किया गया है और साथ में यह भी बतला दिया गया है कि असद्भतव्यवहारका नाम ही उपचार है। यहाँ सतम्यवहाररूप असे प्रयोजन नहीं है। इसलिए सद्धतव्यवहाररूप अर्थको आगमत्रमाणके साथ स्पष्ट करते हैं घृतकुम्भाभिधानेऽपि कुम्भो धृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमज्जीबजल्पनेऽपि न सन्मयः ॥४०॥ घीका घड़ा कहने पर भी घड़ा धीमय नहीं है, उसी प्रकार जीव वर्गादिमान् है ऐसा कहने पर भी जीव वर्णादिमान नहीं है। यहाँ घड़े में घी रखा है, अतएव घीका संयोग देखकर व्यबहारी जन उसे धोका घड़ा कहते हैं, यह असद्भुत व्यवहारका उदाहरण है। यदि कोई अशानो जीव इतने मापसे घड़े को मिट्टोका न समझकर उसे यथार्थरूपमें घोका ही समझने लगे तो उसकी ऐगी समझको मिथ्पा ही कहा जायेगा। घडे तो बहस प्रकारके होते है और उनमें नाना वस्तुएँ भरी रहती है। अतएव लोक में अन्य बस्तुओंसे भरे हुए घड़ोंका वारण करने के लिए विवक्षित वस्तुके आलंब नसे इस प्रकारका व्यवहार किया जाता है। जो व्यवहार उपचरिस होनेपर भी सप्रयोजन होनेके कारण लोकमें ग्राह्य माना जाता है और लौकिक जनोंको परमार्थका ज्ञान करानेके लिए आगममें भी इसे स्वीकार किया गया है। स्पष्ट है कि यदि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा ऐसे व्यवहारमै निश्चयका ज्ञान हो तो ही इस प्रकारका व्यवहार करना उपयोगी है । इसी बातको स्पष्ट करते हुए अनगारधर्मामृत अध्याय एकमें कहा है-- काया वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्तै व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदरक ॥१०२॥ जिससे निश्चयकी प्रसिद्धि के लिए वस्तु से भिन्न कत्ती आदिक जाने जाते हैं यह व्यवहार है और उन कर्ता आदिकको वस्तुसे अभिन्न प्रतिपत्ति का नाम निश्चय है ॥१०२।। यह आगमप्रमाण है । इसमें स्पष्ट बतलाया गया है कि जिससे निश्वयको सिद्धि हो उसीका नाम व्यवहार है और इसी लिए उपचरित होने पर भी आगममें वह स्वीकार किया गया है। इस तथ्यको ध्यान में रखकर जब हम निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके ऊपर दृष्टिपात करते हैं तो हमें इस बात समझने में देर नहीं लगती कि उपादान कारणसे भिन्न अन्य वस्तुमें किया गया निमित्त व्यवहार असदभत होने के कारण उपचरित क्यों माना गया है ! यहाँ जिस वस्तुमै निमित्त व्यवहार किया गया है वह अन्य द्रव्यके विवक्षित कार्यका यथार्थ कारण तो नहीं है फिर भी उसको उस कार्यके उपादानकारणके साथ कालप्रत्यासत्तिरूप बाह्य व्याप्ति अवश्य है और इसी कारण उपादानमें रहनेवाला जो कारण धर्म, उसकी सिद्धि इसके द्वारा हो जाती है, इसीलिए इस बाह्य वस्तुमें भी निमित्त अर्थात् कारण धर्मका उपचार कर लिया जाता है। यही उपचार असद्भूत व्यवहारका अर्थ है और जो ज्ञान ऐसे अर्यको जानता है उस ज्ञानको अद्भूत व्यवहारनय कहते हैं । यह असद्भुत व्यवहारनयका तात्पर्य है। यह तो प्रथम उपचार हुभा । अब यदि उपादानभूत वस्तुमैं रहनेवाले कर्ता आदि धर्माका निमित्तरूपसे स्वीकृत अन्य वस्तुमै आरोप किया जाता है तो ऐसा एक उपचारके बाद भी पुनः उसो वस्तुमैं किया गया उपचाररूप अर्थ उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका विषय होगा। आवार्य कुन्दकुन्दने सामान्यतया समयसार गाया १०५ में इसी उपचरित असद्भुत व्यवहारका निर्देश किया है, किन्तु यहाँ इसना विशेष जानना चाहिए कि जीवका और कर्मों का निमित्त-नमित्तिकसम्बन्धरूपसे पहलेसे ही संश्लेष सम्बन्ध चला प्रा रहा है, इसलिए जीवके राग-द्वेष आदि परिणामोंको निमित्तकर जो कर्मबन्ध होता है वहाँ जीवके परिणामों में कर्मोको करनेरूप कर्ताधर्मका उपचार हो मुख्य है। प्रतएव जीवने कर्मोको किया ऐसा कहना अनुपचारित असद्भुत व्यवहार ही होगा। समयसार गाथा १०५ में इसी अभिप्रायकी मुख्यतासे उपचार शब्दका प्रयोग हुआ है। तात्पर्य यह है कि जहाँ पर संश्लेष सम्बन्ध नहीं है वहाँ तो एक वस्तुके कर्ता आदि धर्मका दूसरी वस्तुमें आरोप करनेका नाम उपचरित असद्भूतव्यवहार है और जहाँ पर निमित्त नैमित्तिकभावसे परस्पर संश्लेषसम्बन्ध है वहाँ पर एक वस्तुके कर्त्ता आदि धर्मका दूसरी वस्तु में आरोप करनेका नाम अनुरचरित असद्भूतव्यवहार है । उन्च अर्थको स्पष्ट करते हुए बृद्रव्यसंग्रह गाथा आठमें लिखा है मनोवचनकायव्यापारक्रियारहितनिज शुवात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्ननुपञ्चरितासद्भूतन्यवहारेण ज्ञानावरणादिवब्यकर्मणामादिशब्देनौदारिकवैक्रियिकाहारकत्रयाहारादिषट्पर्याप्तियोग्यपुद्गलपिण्डरूपनोकर्मणा तथैवोपचरितासद्भुतन्यवहारेण पहिर्षिषधटपटादीनां च कर्ता भवति । मन बचन और कायके व्यापारसे होनेवाली क्रियासे रहित ऐसा जो निज शुधात्मतत्त्व उसको Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शका ६ और उसका समाधान भावनासे रहित हुआ यह जीव अनुपचरिस असद्भुत व्यवहारकी अपेक्षा ज्ञानाबरणावि द्रव्यकर्मोंका आदि शब्दसे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक तोन शरीर और आहार आदि छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गल पिण्डका नोकर्मोंका तथा उपचरित असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा बाह्म विषय घट-पट आदिका कर्ता होता है। यही प्रश्न यह है कि जिसमें किसी दूसरी वस्तु या उसके गुण-धर्मका उपचार किया जाता है उसमें तदनुरूप कोई न कोई धर्म अवश्य होना चाहिए, अन्यथा उस वस्तुमें किसो दूसरी वस्तुका या उसके गुण-धर्मका उपचार करना नहीं बन सकता? उदाहरणार्म उसी बालकम सिंहका उपचार करके उसे सिंह कहा जा सकता है जिम बालक सिंहके समान किसी अंशमें क्रोर्य और शौर्य आदि गुण देखें जाते हैं। सो इसका समाधान यह है कि जिस वस्तु में निमित्त व्यवहार किया जाता है या निमित्त मानकर फर्ता आदि व्यवहार किया जाता है उस वस्तृमें स्वयं उपादान होकर किये गये अपने कार्यको अपेक्षा यथार्थ कारण धर्म भी पाया जाता है और यथार्थ का आदि धर्म भी पाये जाते हैं, इसलिए उसमें अन्य वस्तुके कार्यको अपेका कारण धर्म और कर्ता आदि धर्मोंका उपचार करने में कोई बाधा नहीं आती। यह वस्तुस्थिति है, इसको ध्यान रखकर हो प्रकृतम व्यवहारका क्या अर्थ है इसका निर्णय करना चाहिए। जिसका विशेष विचार हमने पूर्व किया ही है। -तत्त्वार्थवातिक अ० १ सू० ५ वार्तिक २५ २. सम्यक निश्चयनय और उसका विषय यह तो सम्यक् व्यवहाररूप अर्थ और उसे ग्रहण करनेवाले सम्यक् मयका खुलामा है। अब प्रकृतम निश्चयरूप अर्थ और उसको ग्रहण करनेवाले नयका खुलासा करते हैं प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय-धौम्यस्वभाव होनेके कारण जसे स्वभावसे धोव्य है वैसे ही स्वभावसे उत्पाद-व्ययस्वभाववाली भी है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हए आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्र लिखते हैं न सामान्यात्मनोदेति म व्येति व्यकमम्बयात् । म्येत्युदेति विशेषाचे सहकत्रोदयादि सत् ॥५७|| है भगवन ! आपके मतमें सत अपने सामान्य स्वभावकी अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न अन्वय धमकी अपेक्षा व्ययको ही प्राप्त होता है। फिर भी उसका उत्पाद और व्यय होता है सो यह पर्याय की अपेक्षा हो जानना चाहिए, इसलिए सत् एक हो वस्तुमें उत्पादादि तीनहा है यह सिद्ध होता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तुके स्वभावसे धौका होकर भी उत्पाद-ध्ययरूप सिद्ध होने पर यहां यह विचार करना है कि यह उत्पाद-व्यय स्वयंकृत है या परकृत है या उभयकृत है? परकृत तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि दोनोंकी एक सत्ता नहीं है । भिन्न सत्ता होकर भी उससे दूसरी वस्तु में परिणमनलप कार्य मानने पर परस्पर विरोध आता है, क्योंकि भिन्न सत्ता होने के कारण उससे भिन्न पर सत्तामें कार्यको किया जाना नहीं बन सकता और अपनेसे भिन्न पर ससामें कार्य करना स्वीकार करने पर दोनोंको भिन्न सत्ता नहीं बन सकती। यही कारण है कि आचार्योले सर्वत्र निश्चयसे एक द्रव्य या उसके गुणधर्मको दूसरे ठप या उसके गुणधर्मके कार्यका वास्तविक कर्ता स्वीकार नहीं किया है। दूसरे द्रश्यका वह उत्पाद-व्यय उभयकृत भी नहीं हो सकता, क्योंकि कोई भी कार्य जब परकृत नहीं सिद्ध होता, ऐसो अवस्थामें वह उभयकृत तो मिद्ध हो ही नहीं सकता। अतएव परमार्थसे प्रत्येक कार्य स्वयंकृत ही होता है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये। इस Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा प्रकार प्रत्येक कार्यके स्वयंकृत सिद्ध होने पर उसमें अपने-अपने कार्योंकी अपेक्षा वास्तविक कारणधर्म और कर्ता आदि धौंको भी सिद्धि हो जाती है। प्रत्येक द्रव्यमें कर्ता आदि धर्म वास्तधिक है इसका स्पष्टीकरण करते हुए सर्वार्थसिद्धि ० १ सू०१ में लिखा है : पश्यति दृश्यतेऽनेन दृष्टिमानं वा दर्शनम् । जानाप्ति ज्ञायतेऽनेन ज्ञात्तिमात्र वा ज्ञानम् । चति घयतेऽनेन चरणमा वा चारित्रम् । नन्ने स एवं कर्ता स एव करणमित्यायातम्, सच विरुद्धम् ! सत्यम् , स्वपरिणाम-परिणामिनोमॅदष्विक्षायां सथामिधानात् । अथा ग्निदहतीन्धनं दाहपरिणामेन । उक्तः कादिसाधनभाव: पर्याय-पर्यायिणोरेकानेकरनं प्रत्यनेकान्तोपपत्ती स्वातन्त्र्य-पास्तन्न्यविवक्षोपपत्रेकस्मियीन मिनी सन्नी दिस्यिायाः कादिसाधनभाववत् । जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखनामात्र दर्शन है। जो जानता है, जिसके द्वारा जाना जाता है या जाननामात्र ज्ञान है तथा जो आचरण करता है जिसके द्वारा आचरण किया जाता है या आचरण करनामात्र चारित्र है। शंका-इस प्रकार यही कर्ती और वही करण यह प्राप्त हुआ और वह विरुद्ध है? रामाधान-सत्य है । स्वपरिणाम और परिणामीको भेदविवक्षा में बैसा कथन किया गया है। जैसे अग्नि दाहपरिणामके द्वारा इंघनको जलाती है। पर्याय और पर्यायी में एकत्व और अनेकत्वके प्रति अनेकान्त होनेपर स्वातन्त्र्य और पारतन्त्रय की विवक्षा की जानेसे एक ही अर्थमें कहा गया कर्ता आदि साधनभाष विरोधको प्राप्त नहीं होता। जैसे अग्निमें दहनादि क्रियाकी अपेक्षा कादि साधनभाव बन जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाया १६ में कहा है : तह सो लद्धसहावी सचण्हू सबलोगपदिमाहिदो । भूदो सयमेवादा हवदि सयंभू ति णिहिलो ॥१६॥ इस प्रकार वह आत्मा स्वभावको प्राप्त सर्वज्ञ और सर्व लोकके अधिपतियोंहारा पूजित स्वयमेव होता हुआ स्वयंभू है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥१६॥ यद्यपि इस गाथामें मात्र एक निश्चय कर्ताका निर्देश है ऐसा प्रतीत होता है, परन्तु गाथामें आया हुआ 'स्वयमेव' पद निश्चयरूप छहों कारकोको सूचित करता है। यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र और आचार्य जयसेनने अपनी-अपनी टीकामें निश्चवरूप छही कारकोंका निर्देश दिया है। अपनी-अपनी टीकाके अन्तमें उक्त दोनों आचार्य क्रमशः लिखते है : १. अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकत्वसम्बन्धोऽस्ति, अतः शुद्धात्मस्वभावहाभाय सामग्रीमार्गप्पच्यग्रतया परतन्त्रैर्भूयते ।। १. इसलिए निश्वयसे परके साथ आत्माका कारकरूप सम्बन्ध नहीं है, जिससे कि शुद्धात्मस्वभावकी प्राप्तिके लिए सामग्री हूँढने की व्यग्रतासे जीत्र परतन्त्र होते हैं। २. इत्यभेदषदकारकीरूपेण स्वतः एव परिणममाणः खनयमात्मा परमात्मस्वभाषकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्ताले यती भिन्नकारक नापेक्षते ततः स्वयंभूर्भवतीति भाषायः। २. इस प्रकार अभेद षट्कारकरूपसे स्वतः ही परिणमन करता हुआ यह आत्मा परमात्मस्वभाव केवलज्ञानको उत्पत्तिके प्रस्ताव में यतः भिन्न कारककी अपेक्षा नहीं करता, अतः स्वयंभू होता है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४३५ उक्त दोनों भाचार्यो उक्त उल्लेखोंसे जहां यह ज्ञात होता है कि मिश्चयसे एक द्रव्यका दूसरे द्रब्यके साथ किसी प्रकारका कारक सम्बन्ध नहीं है वहाँ यह भी ज्ञात होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें स्वभाव पर्यायकी उत्पत्ति कारकान्तर निरपेक्ष एकमात्र निश्चय षट्कारकोंके आलम्बनसे ही होती है। इससे यह भी फलित हो जाता है कि जहाँपर इस जीवके विकल्पमें परकी अपेक्षा होती है वहाँपर रागादि विभाव-पर्यायकी उत्पत्ति होती है। साथ ही तय्यरूप में यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि प्रत्येक द्रव्य और उनके गुण तथा पर्यायोंका स्वरूप परस्पर सापेक्ष न होकर स्वत:सिद्ध होता है। मात्र इनका व्यवहार ही परस्पर सापेक्ष किया जाता है । यदि इनके स्वरूप पर सा माना जाने लगेसे पाक भी अस्तित्व नहीं छन सकता । यहाँ जिस तथ्यका निर्देश प्रख्य, गुण और पर्यायको लक्ष्य में रखकर किया है वही तथ्य कर्तत्वादि धमोंके विषय में भी जान लेना चाहिए । यद्यपि पर्यायें स्वकालके सिवाय अन्य कालमें कथंचित् असत् होती हैं, इसलिए पर्यायाथिक नयसे उनमें परस्पर व्यतिरेक दिखलाने के अभिप्रायवश उनकी उत्पत्ति में कारकोंका व्यापार स्वीकार किया गया है यह ठीक है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अपने-अपने काल में उनका वह स्वरूप किसी अन्यसे जायमान हुआ है, क्योंकि उत्पादादि त्रिरूपमयता यह प्रत्येक द्रव्यका स्वतःसिद्ध स्वख्य है, अन्यण बह द्रव्यका स्वरूप नहीं बन सकता । इस प्रकार वस्तुके स्वरूप और उसमें रहनेवाले कर्ता आदि धर्मों की अपेक्षा विचार करनेपर प्रत्येक वस्तुका स्वरूप और कर्ता आदि धर्म निश्चयरूप प्रमाणित होते हैं और उनको जाननेवाला ज्ञान निश्चय नय संज्ञाको प्राप्त होता है। निश्चयनयके कथन में अभेदकी मुख्यता है इतना यही विशेष समझना चाहिए। इस प्रकार निश्चय और व्यवहाररूप अर्थ क्या है, तथा उन्हें ग्रहण करनेवाले नयोंका स्वरूप क्या है इस बात का प्रवृत में हमने जो प्रमाण सहित विवेचन किया है, उसी विषयको स्पष्ट करते हुए पंडितप्रबर टोहरमलजी अपने मोक्षमार्गप्रकाशकमें लिखते हैं तहाँ जिन आगम विप निश्चय-प्यवहाररूप वर्णन है। तिन विषै यथार्थका नाम निश्चय है, उपचारका नाम व्यवहार है। -अधिकार पृष्ट २८७ व्यवहार अभूतार्य है। सत्य स्वरूपको न निरूप है। किसी अपेक्षा उपचारकरि अन्यथा निरूप है। बहुरि शुन्छ नय जो निश्चय है सो भूतार्थ है, जैसा वस्तुका स्वरूप है तैसा निरूपै है। -अधिकार पृष्ठ ३१९ एक ही द्रव्यके भाषको तिस स्वरूप ही निरूपण करना सो निश्चयनय है। उपचारकरि सिस सम्यके भावको अन्य ठाके भादस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है। --अधिकार पृष्ट ३६९ ३. निश्चयमयमै व्यवहाररूप अर्थको सापेक्षताका निषेध इस प्रकार निश्चयनय, व्यवहारनय और उनके विषयोंका प्रकृतमें उपयोगी निरूपण करके तत्काल उनकी परस्पर सापेक्षता एवं निरपेक्षताके विधयमें विचार करते है। आप्तमीमांसा कारिका १०८ में प्रत्येक वस्तुको अनेकान्त स्वरूप न मालकर सर्वथा सद्रूप या सर्वथा असद्रूप, सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य आदि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा माननेपर उनको ग्रहण करनेवाला नत्रज्ञान मिथ्या कैसे है और कञ्चितरूप उन धर्मों द्वारा वक्तुको ग्रहण करनेवाला नयज्ञान समीचीन कैसे है इसका विचार किया गया है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मवाली होनेपर भी जो नय दुसरे धर्मकी अपेक्षा किये बिना मात्र एक धर्मस्वरूप वस्तूको स्वीकार करता है वह नय मिध्यानय माना गया है। और जो नय इतर धर्मसापेक्ष एक धर्म द्वारा वस्तुको ग्रहण करता है वह सम्यक तय माना गया है। यह वस्तुस्थिति है। इसके प्रकाशमें प्रकृतमें विचार करनेपर विदित होता है कि प्रत्येक वस्तुम जो कर्ता आदि अनेक कारक धर्म है ये वस्तुसे ध्यापिक नयको अपेक्षा अभिन्न है, क्योंकि जो 'द्रव्यको ससा है वही उन धौकी सत्ता है। अतएव अभेवरूपसे वस्तुको पण करनेवाला जो नय है वह निश्चयनय है। तथा संज्ञा, प्रयोजन और लक्षण आदिवी अपेक्षा भेद उपजाकर इन धर्मों द्वारा यस्तुको ग्रहण करनेवाला जो नय है वह सदभूत व्यवहारमय है। इस प्रकार एक ही वस्तु, कञ्चित् अभेष्ठ तथा कथञ्चित भेदकी विवक्षा होनेपर इन नयोंकी प्रवृत्ति होती है इसलिए ये दोनों ही नय सम्यक् नय है । अब रहा असद्भूत व्यवहारनय सो उसका विषय मात्र उपचार है जो परको आलम्बनकर होता है, इसलिए उसको अपेक्षा उक्त दोनों नयोंमें सापेक्षता किसी भी अवस्था नहीं बन सकती। यदि भापर पक्षने समयसारकी रचनाशली पर थोड़ा भी ध्यान दिया होता तो उसने अपनी इसी प्रश्नकी प्रतिदका ३ में जो निश्चयनय और व्यबहारनयके लक्षण स्त्रोकार किये है उन्हें वह भूलकर भी स्वीकार न करता । इसके झिए समयसार माथा ८४ और ८५ पर दृष्टिपात कीजिए। समयसार गाथा ८४ में पहले आत्माको व्यवहारनयते पुद्गल झोका कर्ता और भोक्ता नवलाया गया है, किन्तु यह व्यवहार असदभूत है, क्योंकि बज्ञानियोंका अनादि संसारसे ऐसा प्रसिद्ध व्यवहार है; इसलिए गाथा ८५ मे दूषण देते हुए निश्चयनयका अवलम्बन लेकर उसका निषेध किया गया है। इसी प्रकार गाथा ९८ में ब्यबहारनयसे घट, ५८, रथ आदि द्रव्य तथा नाना प्रकारकी इन्द्रियां, कर्म और नोकर्म इत्यादि कार्योंका कर्ता आत्माको बतलाकर गाथा ६६ में दूषण देते हुए उस असद्भूत व्यवहारका निषेध किया गया है। यद्यपि माथा १०० में अज्ञानी आत्माके योग और उपयोगको घट, पट आदि कार्योंका उपचरित असदभुत व्यवहारनयकी अपेक्षा निमित्तका कहकर इसो बातको दृढ़ किया है, पयोंकि उसी गाथाकी टोकामें ऐसा लिखा है कि 'तथापि न परदच्यात्मककमकर्ता स्यात् ।' उसका तात्पर्य यह है कि अज्ञानी अपनेको पर द्रव्यको पर्यायका निमित्तका मानता है। परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। एक या दूसरे ट्रब्यके कर्मका यथार्थ का क्यों नहीं है एतद्विषयक सिद्धान्तका उद्घाटन करते हुए गाथा १०३ में आचार्य लिखते हैं जो जम्हि गुणे दग्धे सो अण्णम्हि त्रु ण संकदि दवे । सो अण्णामसंकतो कह तं परिणामए दबं ।। १०३ ॥ जो द्रव्य अपने जिस द्रव्य स्वभाव में तथा गुणमें वर्तता है वह अन्य द्रव्यमें तथा गुणमें संक्रमित नहीं होता । इस प्रकार अन्यमें संक्रमित नहीं होता हुआ वह उस अन्य द्रव्यको कैसे परिणमा सकता है अर्थात् कभी नहीं परिणमा सकता ।। १०३ ॥ एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको क्यों नहीं परिणमा सकता इसके कारणका निर्देश करते हुए इसी गाथाको टोका आचार्य अमृतचन्द्र कहते है कि प्रत्येक वस्तुस्थितिकी सीमा अचलित है, उसका भेदना अशक्य है । अतएव प्रत्येक वन्तु अपनी-अपनी सीमा में ही पतनी है । कोई भी वस्तु अपनी-अपनी सीमाका उल्लंघनकर अन्य वस्तु में प्रवेश नहीं कर सकता, इसलिए एक द्रष्य दूसरे व्यको परिणमाता है यह Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४३७ कथनमात्र है जो व्यवहार नयकी भाषाका अवलम्बन लेकर बोला जाता है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए स्वयं बाचार्य महाराज गाथा १०७ में लिखते हैं उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणाम एदि गिण्हदिय । आदा पुग्गल षहारणयस्स वत्तब्वं ॥ १०७ ॥ परिणमाता है तथा ग्रहण आत्मा पुद्गल द्रव्य के परिणामको उत्पन्न करता है, करता है, बाँधता करता है ऐसा व्यवहारमय ( असद्द्भूत व्यवहार नय) का वचन है ॥ १०७ ॥ यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि एक द्रव्यकी पर्यायका दूसरा द्रव्य उत्पादक है इस प्रकार यहाँ किया गया मह उत्पादादिरूप व्यवहार उपचार कैसे हैं इसे राजा प्रजाका दृष्टान्त देकर गया १०८ तथा उसकी टीका में ऐसा लिखा है कि 'तथापि न परतुष्यात्मककर्मकर्त्ता स्यात् तथापि पर द्रव्यात्मक कर्मका कर्त्ता नहीं है | सो उसका तात्पर्य यह है कि अज्ञानी जीव अपने को पर couको पर्यायका निमित्तकर्ता मानता है, किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है । इस प्रकार उक्त कथनसे यह फलित हुआ कि अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'व्यवहाररूप अर्थ सापेक्ष निश्चयरूप अर्थको जाननेवाला ज्ञान निश्चयनय है।' सो उसका ऐसा लिखना यथार्थ नहीं है, किन्तु जो ज्ञान एक ही द्रव्य भावको उसीका जानता हूँ और उपचाररूप अर्थका निषेध करता है वह निश्चयनय है, क्योंकि प्रत्येक वस्तुका वस्तुत्व हो ऐना होता है कि जो अपने स्वरूपका उपादान करता है और अन्यका अपोहन करता है। यदि प्रत्येक वस्तुमें इस प्रकारकी व्यवस्था करनेका गुण न हो तो उस वस्तुका स्तुत्व हो नहीं बन सकता। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर युक्त्यनुशासन लोक ४२की eter आवार्य विद्यानन्द लिखते है - स्वपररूपोपादानापोट्न व्यवस्था पाथत्वाद्वस्तुनो वस्तुस्वस्य । स्वरूपके उपादान और पररूपके अपोनको व्यवस्था करना ही वस्तुका वस्तुत्व है । प्रत्येक द्रव्य भावाभावात्मक माना गया है। यह प्रत्येक वस्तुका स्वरूप है। यह उभयरूपता वस्तुमें है इसकी सिद्धि करने के लिए ही यह कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षा भावरूप है और पर चतुष्टयकी अपेक्षा अभावरूप है। इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि स्वचतुष्टयकी अपेक्षा वस्तुका स्वरूप भावरूप है और परचतुष्टयकी अपेक्षा उसका स्वरूप अभावरूप है तो उसका ऐसा अर्थ करना संगत नहीं है, क्योंकि कोई भी धर्म किसी भी वस्तुमें स्वरूपसे स्वतः सिद्ध होता है। हो, अपेक्षा विशेषका आलम्बन लेकर उन धमकी सिद्धि करना दूसरी बात है | आचार्य भट्टाकलंकदेव अष्टसहस्री पृष्ठ १९५ में लिखते हैं अन्यस्य कैवल्यमितरस्य वैकल्यं, स्वभावपरभावास्यां भाषाभावव्यवस्थितेर्भावस्य । किसी एकका अला होना उरामें दूसरेकी त्रिकलता ( रहितपना ) है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वभाव और परभावकी अपेक्षा भावाभावरूप व्यवस्थित है । इससे स्पष्ट है कि निश्चय कथन स्वरूपनिष्ठ व्यवस्था करनेवाला होनेके कारण जहाँ अपने स्वरूपका प्रतिपादन करता है वहाँ वह अपने से भिन्न अन्यका निषेध भी करता है। भगवान् कुन्दकुन्दने समयसार गाथा २७२ में इसी तथ्यको ध्यान में रखकर निश्चयनमको प्रतिषेधक और व्यवहारनयको प्रतिषेध्य बतलाया है । यद्यपि वहाँ उनके कथनमें इससे भी आगे जाकर मर्मकी बात कही गई है, किन्तु उस कथनमें यह भाव पूरी तरहसे निहित है, क्योंकि उस गाथा द्वारा जिसना भी पराश्रित व्यवहार है उस सबका निषेष किया गया Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ जयपुर (खानिया) तवचर्चा हैं, इसलिए यह सिद्धान्त स्थिर हुआ कि निश्चयनय व्यवहाररूप अर्थकी अपेक्षा किए बिना स्वतंत्र रूपसे अपने ही अर्थका कथन करता है । परन्तु उक्त प्रकारके व्यवहार नयके विषय में स्थिति इससे कुछ भिन्न प्रकारकी है, क्योंकि जैसा कि हम पनि आशा अजगार भिन्नाः' इत्यादि दलोकको उद्घृत कर आये हैं उससे यह बात बहुत ही अच्छी तरहसे ज्ञात हो जाती है कि जो व्यवहार निश्चवका ज्ञान कराता है वह व्यवहार हो आगम में स्वीकार किया गया है। अतएव व्यवहारनय उपचरित अर्थको ग्रहण करनेवाला होनेके कारण वह अनुपचरित अर्धकी प्रसिद्धि करता हुआ ही सार्थक है । अन्यथा वह मिथ्यानय हो ठहरेगा, क्योंकि कोई भी नय व्यवहार से भी तब तक सन्नय कहलाने का अधिकारी नहीं है जब तक वह परमार्थभूत अर्थको प्रसिद्धि नहीं करता। यहाँ पर उपादान कारण और उसमें रहनेवाले कर्ता आदि धर्म ये परमार्थभूत अर्थ हैं और इनकी प्रसिद्धिका कारण होनेसे कालप्रत्यासतिश बाह्य arमें आरोपित किया गया निमित्त धर्म और कर्ता आदि धर्म ये अपरमार्थभूत अर्थ हैं । यतः ये कालप्रत्यासत्ति होने से परमार्थभूत अर्थको प्रसिद्धि करते हैं, इसलिए इन्हें ग्रहण करनेवाला नाय व्यवहारसे सम्यक् नय माना गया है । इस प्रकार प्रकृत में अपने प्रतिषेधक स्वभाव के कारण व्यवहाररूप अर्थका निषेध करता हुआ हो निश्चयनय क्यों तो मात्र निश्चयरूप अर्थको ग्रहण करता है और प्रतिषेध्य स्वभाव होकर भी व्यवहारनप व्यवहार में प्रयोजनीय माना गया है इसका यहाँ सांगोपांग विचार किया। इससे अपर पक्षके उस कथन का सुतरां निरास हो जाता है जिसका निर्देश हम पूर्वमें कर आये हैं । वर्षात् प्रकृतमें व्यवहारनय और निश्वयनयके जिन क्षणों आदिका निर्देश अगर पक्षने किया है वे स्वमतिकल्पित होनेसे ठीक नहीं है यह पूर्वोक्त कथन से सुस्पष्ट हो जाता है । ४. द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणताका निषेध अपर पक्षने अपनी इसी प्रतिशंका में उपादानमें द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणताका विधान करते हुए लिखा है--- 'तात्पर्य यह है कि कार्यकारणभाव के प्रकरण में दो प्रकारको कारणता का विवेचन आगम ग्रन्थोंमें पाया जाता है— एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप और दूसरी कालप्रत्यासतिरूप । इनमें से जो वस्तु स्वयं कार्यरूप परि त होती है अर्थात् कार्यके प्रति उपादान कारण होती है उसमें कार्यके प्रति द्रव्यप्रत्यासतिरूप कारणता पाई जाती है, क्योंकि वहीं पर कारणरूप धर्म और कार्यरूप धर्म दोनों ही एक द्रव्यके बाश्रयसे रहनेवाले धर्म हैं ।' है। अपर पक्षने इसी एक ही क्या अपनी इसके पूर्वी प्रतिशंका में मी किन्तु वह सब कथन आगमविरुद्ध यह द्रव्यत्यासत्तिरूप कारणता के विषय में अपर पक्षका वक्तव्य समस्त प्रतिशंकाओं की इमारत मात्र इसी एक मान्यता पर खड़ी की है। उसकी ओरसे द्रव्यशक्तिरूप उपादान कारणका निर्देश किया गया था अतएव काल्पनिक कैसे है इसका विचार हम प्रतिशंका २ के उत्तरके अपर पक्ष अपनी उसी मान्यताको दुहराने में ही प्रयत्नशील है इसका हमें आश्चर्य है । किन्तु उस पक्ष की । समय ही कर आये है। फिर भी इस एकान्त मान्यता पर पुनः सांगोपांग विचार करना आवश्यक समझकर यहाँ विचार किया जाता है । जैन दर्शन में प्रत्येक बस्तुको सामान्य- विशेषात्मक स्वीकार किया गया है, सामान्यात्मक होगी या केवल विशेषरूप उसमें अर्थक्रियाका बनना असम्भव है । क्योंकि जो वस्तु केवल यही कारण है कि सभी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४३९ आचार्मोने प्रमाणदृष्टि से केवल द्रव्यप्रत्यासत्तिको उपादान कारण न मानकर अनन्तर पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यको उपादान कारण स्वीकार किया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्वार्थश्लोकवार्तिक .६६ में लिखा है पर्यायविशेषाग्मकस्य द्रव्यस्योपादानस्वातीतेः, घटपरिणमनसमर्थपर्यायात्मकमृदयस्य घटोपादानस्ववत् । पर्यायविशेषात्मक द्रव्यमें ही उपादानता प्रतीत होती है, घट परिणमनमें समर्थ पर्यायात्मक मिट्टी द्रव्यमें धठकी उगादानताकै समान । यह आगमवचन है। इसमें द्रब्ध-प्रत्याराप्तिके समान पर्यायपत्यासत्तिमें भी उपादान कारणता स्वीकार की गई है, केबल द्रव्यप्रत्याससिमें नहीं । फिर नहीं मालम कि अपर पक्ष केबल द्रव्यप्रत्यासत्तिमें ही उपादान कारणता कैसे स्वीकार करता है, यदि उस पक्षका कहना हो कि जिस समप विवक्षित कार्य होता है, द्रव्यप्रत्याससि तो उसी समयकी ली गई है, पर्यायरत्यासति के लिए ऐसा कोई नियम नहीं है। इस पर हमारा कहना यह है कि प्रत्या मानका अर्थ दी जा 'अति संनिकट होना' है ऐसी अवस्थामें पर्यायप्रत्यासत्तिका अर्थ ही विवक्षित कार्यको अनन्तर पर्व पर्याय ही होगा, अन्य नहीं । और यही कारण है कि आगममें सर्वत्र अनन्तरपूर्व पर्याय मुक्त उध्यको ही उपादान कारण कहा है। इस विषयका विशेष विचार अष्टसहस्री पृष्ठ २१० में विस्तार के साथ किया है। वहाँ लिखा है असाधारणद्रव्यप्रत्याससिः पूर्वाकारमशनविशेषमत्यासतिरेव च निवन्धनमुपादानवस्य स्वीपादेयं परिणाम प्रति निश्चीयते। असाधारण द्रव्यप्रत्यासत्ति और पूर्वाकार भावविशेषप्रत्यासत्ति ही उपादानपनेका कारण होकर अपने उपादेय परिणामकै प्रति निश्चित होती है। आगे इसी विषयको स्पष्ट करने के अभिप्रायसे आचार्य विद्यानन्वने उक्त सिद्धान्तके समर्थनमें 'तदुक्त' लिखकर दो श्लोक उद्धृत किये है। जो इस प्रकार है त्यहाश्यात्मरूपं भरापूर्वण वर्तते । कालप्रयेऽपि सद् दन्यमुपादनमिति स्मृतम् ॥ ___ जो द्रव्य तीनों कालों में अपने रूपको छोड़ता हुआ और नहीं छोड़ना हुआ पूर्वरूपसे ओर अपूर्वरूपसे वर्त रहा है वह उपादान कारण है ऐसा जानना चाहिए । यहाँ पर ब्यको उपादान कहा गया है। उसके विशेषोपर ध्यान देनेसे विदित होता है कि द्रव्य का न तो केवल सामान्य अंश उपादान होता है और न केवल विशेष अंश उपादान होता है। किन्तु सामान्यविशेषात्मक द्रव्य ही उपादान होता है। द्रव्यक ग्रेवल सामान्य अंशको और केवल विशेष अंशको उपादान मानने में जो आपक्तियां आती है उनका निर्देश स्वयं आचार्य विद्यानन्दने एक दूसरा श्लोक उद्धत करके कर दिया है। वह बलोक इस प्रकार है थन् स्वरूप त्यजत्येव यम्न त्यजति सर्वथा । तन्नीपादानमर्थस्य क्षणिक शाश्वतं यथा ।। जो अपने स्वरूपको छोड़ता ही है, वह ( पर्याय ) और जो अपने स्वरूपको सर्वथा नहीं छोड़ता वह ( सामान्य ) अर्थ (कार्य) का उपादान नहीं होता। जैसे क्षणिक और शाश्वत । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा यद्यपि सर्वथा सणिक और सर्यथा शाश्वत कोई पदार्थ नहीं है। परन्तु जो लोग पदार्थको सर्वथा सणिक मानते हैं उनके यहाँ जैसे सर्वथा क्षणिक पदार्य कार्यका उपादान नहीं हो सकता और जो लोग पदार्थको सर्वथा शाश्वत् मानते है उनके यहाँ जैसे सर्वथा शाश्वत् पदार्थ कार्यका उपादान नहीं हो सकता उसी प्रकार द्रश्यका केवल सामान्य अंश कार्यका उपादान नहीं होता और न केवल विशेष अंश कार्यका उपादान होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार पूर्वोक्त समग्र कथनपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि फेवल द्रव्यप्रत्यासत्ति और केवल पर्यायप्रत्यारात्ति उमादान कारणरूपसे स्वीकृत न होकर ट्रव्य-पर्यायप्रत्यासत्तिको ही उपादानकारण आचार्योने स्वीकार किया है। हम अपने पिछले उत्तरों में प्रमेयकमलमार्तण्ड पुच्च २००से 'यच्चोच्यतेशक्तिनित्यानित्या वेत्यादि ।' इत्यादि वचन उद्धृत कर यह सिद्ध कर आये हैं तथापि अपर पचनं पुनः उसी प्रपनको उठाया है, इसलिए यहाँपर इस विषयका पुनः विचार किया गया है। हम यह मानते हैं कि आगम ग्रन्थों में स्वतः परिणामसमर्थ दूधयको अनुग्रहाकांक्षी लिखा है और इस अपेक्षाको ध्यान में रखकर व्यवहारमयसे सापेश्चताका भी उल्लेख किया गया है। निश्चय नयसे विचार करनेपर तो विदित होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं परिणामस्वभाव है और परनिरपेक्ष होकर परिणमता है। इससे यह निश्चय हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्यमें प्रत्येक समयका कार्य होता है तो स्वयं बसोके द्वारा ही होता है किन्तु जब वह कार्य होता है तब अन्य बाह्य जिस सामग्रीके साथ उसकी बाह्य व्याप्तिका नियम है उसमें असद्भुत व्यवहारनयसे कारण और कर्ता आदि धर्मोका उपचार किया जाता है। इस उपचारका जो प्रयोजन है उसका निर्देश हम पूर्व में कई बार कर आये है। प्रतीक्षा कोई किसीकी नहीं करता, अन्तरंग-बहिरंग सामसीका विलसा या प्रयोगसे सहज ही योग मिलता रहता है। ऐसी ही परसापेक्षता जनदर्शन में स्वीकार की गई है। अधीनतारूप परसापेक्षता जनदर्शन में स्वीकृत नहीं है, क्योंकि अधीनतारूप परसापेक्षताके स्वीकार करनेपर वस्तुव्यवस्था ही नहीं बन सकती। एक बात और है । और वह यह है कि जैन-शास्त्रोंमें अनेक स्थलोंपर व्यवहारनयको मुख्यतासे यह भी कथन उपलब्ध होता है कि बाह्य सामग्नोके अभाव में बोला उपाधानकारण अपना कार्य करने में समर्थ नहीं है। जैसे तत्त्वार्थवातिक अध्याय ५ सय १७ में व्याख्या करते हुए यह लिखा है-- नैक एव मृपिण्डः कुलालादिवायसाधनसन्निधानेन बिना घटात्मनाचिर्मचिनु समर्थः । तो यह कथन निश्चय उपादामकी अपेक्षा न होकर व्यवहार उपादानको लक्ष्यमें रखकर ही किया गया है, क्योंकि उक्त उल्लेखमें दो बार उपादान कारणका निर्देश किया गया है। प्रथम बार तो मृत्पिण्डः घटकायपरिणामप्राप्ति प्रति गृहीताभ्यन्तरसामध्यः' इन शहदों द्वारा किया गया है और दूसरी बार 'मृपिपडः' मात्र इतना ही कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रथम बार निश्चय उपादानको सूचित कर यह वतलाया गया है कि विवक्षित कार्यके निश्चय उपादानके होने पर बाह्य सामग्री होती ही है तथा व्यवहार उपादानके काल में विवक्षित कार्यको बाहा-आम्यंतर सामग्री नियमसे नहीं होती। अतः प्रत्येक कार्यमें बालाम्यन्तर सामग्रीकी समग्रता नियमसे होती है यह सिद्ध होता है। परमागम में जीव-पुद्गलोंकी गति-स्थितिके निमित्तरूपसे धर्म और अधर्मद्रव्यको स्वीकार करनेका यही कारण है । इसके विशेष खुलासाके लिए तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ ६८ का यह कयन अवलोकनीय है। तत एकोपादानस्य लाभे नोत्तरस्य नियतो लामा, कारणानामवश्यं कार्यवस्वाभावात् । समर्थस्य कार्यवस्वमेवेति चेन्न, तस्येहाविवक्षितत्वात् । तद्विवक्षायां तु पूर्वस्य लाभे नोत्तरं भजनीयमुच्यते, स्वय Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADHANTM - शंका ६ और उसका समाधान ४४१ मविरोधात् । इति दर्शनादीनां विरुद्धधर्माध्यासाविशेषेप्युपादानोपादेयभाषादुसरं पूर्वास्तितामियतं, न तु पूर्व मुत्तरास्तित्वगमकम् । इसलिए ही उपादानको प्राप्तिसे उत्तरको प्राप्ति नियल नहीं है, क्योंकि कारण नियमसे कार्यवाले महीं होते। शंका-समर्थ कारण कार्यवाला होता ही है ? समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि उसकी यहाँ पर विवक्षा नहीं है। उसकी विवक्षा होने पर तो पूर्वको प्राप्ति होने पर उत्तर भजनोय नहीं कहा जाता, क्योंकि स्वयं अविरोध है। इस प्रकार दर्शनादिकके विरुद्ध धर्माध्यानको अविशेषता होने पर भी उपादान-उगाइयभाव होनेसे उत्तर पूर्वके अस्तित्व पर नियत है, परन्तु पूर्व उत्तरके अस्तित्वका गमक नहीं है। यह आगमत्रचन है। इसमें जहाँ व्यवहार अपादानको चर्चा को है यहाँ निश्चय उपादानका भी निर्देश किया है। अनन्तर पूर्व पर्याययुक्त द्रश्यका नाम हो निश्चय उपादान है। ऐसी अवस्थामें पहुंच जहाँ यह विवक्षित उपादेयका गमक नहीं होता यहाँ ऐसी अवस्था में पहुंचने पर वह अपने उपादेयका मियमसे मिनामक होता है वह उक्त कपनका तात्पर्य है । उपदिय तो अपने उपादानका गमक होता ही है, उपादान भी अपने उपादेयका नियामक होता है ऐसा अभिप्राय यहाँ समझना चाहिए। यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दिने अपने त स्वार्थश्लोकयातिक पृ० ६४ में उभयावधारणका निर्देश करते हुए यह वचन कहा है निश्चयनयात् भयावधारणमपीएमेव, अनन्तरसमयनिर्वाणजननसमर्थानामेव सदर्शनादीनां मोक्षमार्गस्वीपपरोः परेषां अनुकूलमार्गताध्यवस्थानात् । एतेन मोक्षस्यैव भार्गो मोक्षस्य मार्ग एवेस्युभयाघवधारणमिष्टं प्रत्यायनीयम् । निश्चयनयसे तो उभयतः अवधारण करना इष्ट ही है, क्योंकि अनन्तर समयमें निर्वाणको उत्पन्न करने में समर्थ ही सम्यग्दर्शनादिककै मोक्षमार्गपनेकी उत्पत्ति होनेसे दूसरों के अनुकूल मार्गपनेकी व्यवस्था होती है । इससे मोशका ही मार्ग है या मोक्षका मार्ग ही है इस प्रकार उभयतः अवधारण करना इ है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस कथनसे चार बातोंका स्पष्ट शान हो जाता है १. अनन्तर पूर्व पर्याय युक्त द्रव्य निवमसे अपने कार्यका नियामक होता है और उससे जायमान कार्य उसका नियमरो गमक होता है। यह निश्चम' उपादान-उपरादेयकी व्यवस्था है। २. इसके पूर्व वह उस कार्य का ध्यवहार उपादान कहलाता है । यह विवक्षित कार्यका नियामक नहीं होता, क्योंकि व्यवहारनयसे ऐसा कहा जाता है। जैसे मिट्टीको घटका उपादान कहना यह व्यवहारनयका वक्तव्य है। परन्तु उस मिट्टीसे, जिसे हमने घटका उपादान कहा है, घट बनेगा ही ऐसा निश्चय नहीं । यह द्रव्यशक्ति को लक्ष्यमें रखकर कहा गया है, घटकी अनन्तर पूर्व पर्याययुक्त द्रव्यको लक्ष्यमें रख कर नहीं। ३. निश्चय उपादानके अपने कार्यके सन्मुख होने पर कार्यकाल में तदनुकूल बाह्य सामग्रोका वित्र सा या प्रयोगसे योग मिलता ही है। ४. व्यवहार उपादान कुछ विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान नहीं होता, इसलिए वह प्रत्येक ५६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा समयमें जिस जिस कार्यका निश्चय उपादान होता जाता है उस उस कार्यको करता है और उस उस समय में बाह्य सामग्री भी उस वस कार्यके अनुकूल मिलती है। और इस प्रकार क्रमसे उसके विवक्षित कार्यको अपेक्षा निश्चय उपादानको भूमिकामें आने पर वह नियमसे विवक्षित कार्यको जन्म देता है तथा प्रयोग से या विनसा उसके अनुकूल बाह्य सामग्री भी उस फार्यके समय उपस्थित रहती है। ये कार्यकारणभावके अकाट्य नियम है जिनका आगम में यत्र-तत्र विस्तारके साथ निर्देश किया गया है। इसके लिए तत्त्वार्यश्लोकवातिक पृ०७१ का न हि द्वयादिसिइक्षणः' इत्यादि कथन अवलोकन करने योग्य है। इस कथन में व्यवहार उपादान और निश्चय उपादान इन दोनोंका सुस्पष्ट शब्दोंमें विधेचन किया गया है। यदि अपर पक्ष इस कथनके आधारसे पूरे जिनागमका परामर्श करनेका अनुग्रह करे तो उसे वस्तुस्थितिको समझने में कठिनाई न जाय । इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उपादान कारणको केवल दृश्यप्रत्यासत्तिरूप न स्वीकार कर असाधारण द्रध्यप्रत्यासत्ति और अनन्तर पूर्व पर्यायरूप प्रतिविशिष्ट भावप्रत्यासत्ति इन दोनों के समवायको हो उपादान कारणरूपसे स्वीकार किया है। यह निश्चय उपादानका स्वरूप है, अन्य नहीं । पूरे जिनागमका भी यही अभिप्राय है। ५. बाह्य सामग्नो दूसरेके कार्यका यथार्थ कारण नहीं अपर पक्षने अपनी प्रतिशंकामें मह मी लिखा है कि 'क्या जो वस्तु स्वयं कार्यरूप परिणत म होकर कार्यरूप परिणत होनेवाली अन्य वस्तुको कार्यरूपसे परिणत होने में सहायक होती है अर्थात् निमित्तकारण होती है उसमें कार्यके प्रति द्वन्यप्रत्यासत्तिरूप कारणताका लो अभाव ही पाया जाता है, क्योंकि वहाँ पर काररूप धर्म तो अन्य वस्तुमें रहा करता है और कारणरूप धर्म अन्य वस्तु, ही रहा करता है। तब ऐसी स्थितिम वन कार्यभूत और कारणभूत दोनों वस्तुओंमें कालप्रत्यासत्तिके आधार पर ही कार्यकारणभाव स्वीकार किया जा सकता है, द्रव्यप्रत्यात्तिक रूपमें नहीं । अर्थात् जिसके अनन्तर जो अवश्य ही उत्पन्न होता है और जिसके अभावमें जो अवदय ही उत्पन्न नहीं होता है ऐसा कालप्रत्यासत्तिरूप कारणताका लक्षण ही वहाँ पर घटित होता है ।' आदि । यह अपर पक्षका बक्तव्य है। इसमें जो यह स्वीकार किया गया है कि एक दृष्यके कार्यका कारण राहकारी सामग्री में ही रहा करता है सो यही सहा पर मख्यरूासे विचारणीय है। आचार्य विद्या. नन्दिने बाह्य सामग्रीको कारण व्यवहारनयसे कहा है। वै तत्त्वार्थश्लोकवातिक अ० ५० १६ पृ० ४०६ में लिखते है धर्मादयः पुनराधेयास्तथाप्रतीते: व्यवहारनपाश्रयणादिति । परन्तु धर्मादिक द्रव्य आधेय है, क्योंकि व्यवहारनयसे वैसी प्रतीति होती है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका स्वामी व्यवहारमयसे है इस बातका निर्देश करते हुए तत्वार्थवातिक अध्याय १ सूत्र ७ में लिखा है व्यबहारनयवशात् सर्वेषाम् । ७ । जीवादीनां सर्वेषां पदार्थानां व्यवहारनयवशाजीवः स्वामी । व्यवहारनयसे सबका स्वामी है ॥७॥ जीवादि सब पदार्थों का व्यवहारमयसे जीव स्वामी है ।। आगे उसी सूत्रको व्याख्या में नहारनयरो साधनका निर्देवा करते हए लिखा है Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान भोपशमिकादिभावसावनइच व्यवहारतः ।९। व्यवहारनयवशात् औपरामिकादिभावसाधनश्चेति म्यपदिश्यते । चशम्नेन शुक्रशोणिताहारादिसाधनइच ।। व्यवहारनयसे औपशमिक आदि भाबसाधनवाला जीव है ।। व्यवहारमयसे औपशमिक आदि भावसाधनधाना जोब कहा जाता है। वातिकमें पठित 'च' झन्दसे दशक शोणित और आहारादि सामनवाला जोव है ऐसा यहाँ जानना चाहिए। इस प्रकार जहां-उहाँ आगममें अन्य द्रव्यको निमित्त, हेत, आलम्बन, प्रत्यय, उदासोनकारण और प्रेरककारण कहा है वहाँ सर्वत्र वह कथन व्यवहारनय अर्थात् असद्भुत ध्यवहारनय या उपचारितासद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षासे ही किया गया है ऐसा यहां जानना चाहिए। इसका विशेष खुलासा हम इसी उत्तरमें पहले कर आये है । इमलिए एक-द्रव्यके कार्यका कारण धर्म दूसरे द्रव्यमें यथार्थरूपमें रहता हो यह तो कभी भी संभव नहीं है। आचार्य विद्यानन्दिने कार्यके साथ जो सहकारी कारणों को काल. प्रत्यासत्ति स्वीकार की है तो उसका आशय इतना ही है कि जिस बाह्य-सामग्रीमें प्रयोजन-विशेषको ध्यान में रखकर कारण व्यवहार किया जाता है उसका उस कार्य के साथ एक कालमें होनेका जैसे जब जीवके क्रोध परिणाम होता है उस समय क्रोध नामक द्रव्यकर्मका उदय नियमसे होता है। यही यहाँपर कालत्यामत्ति जाननी चाहिये । ऐसी कालप्रत्यासत्ति राम भोक सब कार्यो में उस-उस कार्यको बाह्य-सामग्रोके साथ नियमसे पाई जाती है। इसमें कहीं किसी प्रकारका व्यत्यय नहीं पड़ता और इसीलिए हरिवंशपुराण सर्ग २५ में यह वचन उपलब्ध होता है भभ्यन्तरस्य सानिध्ये हेतोः परिणतशात । बाह्यो हेतुर्निमित्तं हि जगतोऽभ्युदयं क्षये ॥६॥ परिणतिके वशसे अभ्यन्तर हेतुकी निकटता होनेपर जगन्के अभ्युदय और अयमें बाह्य हेतु निमित्तमात्र है। यह वस्तुस्थिति है। यदि बाह्य-सामग्री में अन्य द्रव्यके कार्यको कारणता प्रथार्थ मानो जाती है तो उन दोनों की दो सत्ता न होकर एक सत्ता मानना अनिवार्य हो जावेगा, क्योंकि कोई द्रश्य और उसका गुण-धर्म अपनी सत्ताको छोड़कर दूसरे द्राप गौर उसके गुण-धर्मकी सत्तारूप त्रिकालमें नहीं होता, क्योंकि उन दोनोंका परस्पर में अत्यन्तामाव है । इसी तथ्यको लक्ष्यमै रहकर आचार्य कुन्दकुन्दने व्यवहारनयसे घट-पट आदिका कर्ता आत्माको स्वीकार करके भी यह कथन समीचीन क्यों नहीं है इसका निर्देश करते हुए समयसार गाथा ६९ में लिखा है जदि सो परदन्याणि य करिज मित्रमेण तम्मओ होज्ज । जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ॥९९|| यदि वह आत्मा पर द्रव्योंको करे तो नियममे वह परमयोके साथ तन्मय हो जाय । अतः तन्मय नहीं होता, इसलिए वह उनका कर्ता नहीं होता। अपर पक्ष यहाँपर यह कह सकता है कि परद्रव्य दूसरे द्रब्यके कार्यका उपादान कर्ता भले ही न हो, निमित्तकर्ता सो होता ही है। सो यहापर प्रश्न यह है कि जिसे अपर पक्ष निमित्तकर्ताक रूपमें वास्तविक मानता है उसकी वह क्रिया स्वयं अपने में होली है या अपनी सत्ताको छोड़कर जिसका वह निमित्तकर्ता कहलाता है उसमें होती है। अपनी सत्ताको छोड़कर कोई भी द्रव्य अन्य द्रव्य की सत्तामें प्रवेश करके उसके Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा कार्यकी क्रियाको कर सकता है यह कथन तो अपर पक्षको भी मान्य नहीं होगा। अतएव यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि एकमात्र कालप्रत्यासत्तिको दृष्टिमे रखकर ही बाह्य-सामग्रीमें कारणताका उपचार किया गया है। अतएव बाह्य-सामग्री में जो निमित्त कारणता स्वीकार को गई है उसे वास्तविक न मानकर उपरित ही मानना चाहिये। बैसे कृत्तिकानक्षत्रका उदय अन्तर्मुहुर्तबाद शकटनक्षत्रके उदयका नियमसे बापक है, क्योंकि इन धोनोंके उदय में ऐसा नियम पाया जाता है कि कृसिकानक्षत्रका उदय होनेपर अन्तमुंहतंबाद नियमसे शकटनक्षत्रका उदय होगा वैसे ही विवक्षित कार्यके होनम जो सामग्री व्यवहारसे निमित्त होती है उन दोनों के एक काल में होनेका नियम है । इसीका नाम कार्यकी कारणके साथ बाह्य व्याप्ति है और इसे ही कार्यके प्रति कारणको अनुकूलता व समग्रता कहते है। अतएव बाह्य सामग्री दुमरे द्रव्यके कार्यका यथार्थ कारण न होनेपर मो वह उसका उपचरित कारण कहा गया है और इसी आधारपर उसका कार्यके साथ अन्वय-व्यतिरेक भी बन जाता है, तब व्यवहारनयसे यह कहनेमें आता है कि उपादानकारण हो और बाह्म-सामग्री न हो सो कार्य नहीं होता। यहाँपर उपादान कारणका अर्थ व्यवहार उपादानकारण लेना चाहिए, निश्चय उगादान कारण नहीं। इस विषयका विशेष खुलासा हमने शंका पाँचके तुतीय उत्तरमै विस्तारसे किया है. इसलिए उसे वहसि जान लेना चाहिए। यहाँ शकट और कृत्तिकानक्षत्रका उदाहरण कार्यकारणभावको वृष्टिसे नहीं दिया है, केवल क्रमका ज्ञान करानेके अभिप्रायसे दिया है। ६. तत्त्वार्थश्लोकवार्षिकके उल्लेखका तात्पर्य पर पक्षने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक पृष्ठ १५१ का एक उल्लेख उपस्थित कर हमारे कथमकी अप्रामाणिकता घोषित करते हुए अपने कथनको बड़ी संजीदगीके साथ प्रामाणिक घोषित करनेका प्रयत्न किया है, किन्तु उस पक्षने जिस उतरणको उपस्थित कर अपनी कल्पनाको प्रामाणिक घोषित किया है, उसी उद्धरणके बाद आये हुए इस दाक्यपर यदि वह दृष्टिपात करता तो सम्भव था कि वह अपने विचारोंको परिवर्तित करने के लिए प्रस्तुत हो जाता । आचार्य विद्यानन्दिने द्विष्ठ कार्यकारणभावको व्यवहारनयसे पद्यपि पारमाधिक बताकर कल्पनारोपितपनेका निषेध किया है, परन्तु वहींपर वे संग्रहनय और ऋजसूत्रनयकी अपेक्षा उसे कल्पनामात्र भी प्रसिद्ध कर रहे हैं। सो क्यों? क्या दोका सम्बन्ध बास्तविक नहीं है जिससे संग्रहनय और ऋजसूत्रनय से कल्पनामात्र बतलाकर उसका निषेध करते है। स्पष्ट है कि व्यवहारमयका अर्थ ही प्रकृतमें असद्भुत व्यवहारमय है और असमतव्यबहारको आयायाने उपचार कहा ही है। इसके लिए आलापपद्धतिका प्रमाण हम पूर्वम ही दे आये है। इससे सिद्ध हुआ कि बाह्य-सामग्री को अन्य द्रव्य के कार्यका निमित्त कहना उपचार है और उस कार्यको बाह्य-सामग्रीका नैमित्तिक कहना यह भी उपचार है। इसप्रकार निमित्तनैमित्तिक भावको उपचरित सिद्ध होनेपर उपादान-उपादेय भाव हो वास्तविक ठहरता है, निमित्त. नैमित्तिकभाव नहीं। फिर भी आचार्य विद्यानन्दिने जो द्विष्ठ कार्यकारणभावको कल्पनारोपित पनेका निषेध करके पारमाथिक कहा है सो उसका कारण अन्य है। बात यह है कि किसीका किसी में उपचार धर्मविशेषको देखकर ही किया जाता है। जैसा कि हम तस्वार्थबात्तिक अध्याय १ सूत्र ५ का उल्लेख दे करके बतला आये है कि जिस पालकमें सिंहके समान अंशत: क्रौर्य और शौर्य आदि गुण पाये जाते है उसोम ही सिंहका उपचार कर 'माणयकोऽयं सिंह:-यह बालक सिंह है यह कहा जाता है। जसी प्रकार जिस वाह्य-सामग्री में निमित्त व्यवहार किया जाता है उसमें भी उपादानके समान अपने कार्यके Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका और नाका सभा कर्ता आदि कारण धर्माको देखकर और उपादानके कार्यके साथ उसकी अन्षय-व्यतिरेकरूप बाह्य व्याप्तिको देखकर यह व्यवहार किया जाता है कि यह सामग्री इस कार्यका कारण है। यहाँपर बाए. सामग्री में जो कारणताका व्यवहार किया गया है वह तो उपचरित हो है इसमें सन्देह नहीं, किन्तु उसमें अपने उपादेयभूत कार्यकी जो कारणता पाई जाती है वह वास्तविक है और इसी प्रकार जिस कार्यकी वह बाह्य-सामग्री निमित्त कारण कही गई है वह कार्य भी अपने उपादानकी अपेक्षा वास्तविक ही है, कल्पनारोनित नहीं। चूंकि व्यवहार नय इन्हीं दोनोंको दूसरे रूपमें स्वीकार करता है, इसलिए यहाँपर भाचार्य विद्यानन्दिने द्विष्ठ सम्बन्ध रूप कार्यकारणभावको व्यवहारसे कल्पनारोपित न कहकर घास्तविक कहा है। प्राचार्य विद्यानन्दिने ऐसे कार्यकारणभात्रको संग्रहनय और ऋजसूत्रनयको अपेक्षा जिन शब्दों में कल्पनामात्र बतलाया है उनके वे शब्द इस प्रकार है संग्रहर्जुसूप्रनयाश्रयणे मु न कस्यविस्कश्चित्सम्बन्धोऽन्यन्न कल्पनामानात इति सर्वमविस्वं । आशय यह है कि प्रत्येक उपादान-उपादेयके साथ प्रत्येक निमित्त-नैमित्तिकको एक तो कालप्रत्यासत्ति है जो कल्पनारोपित न होकर यथार्थ है। दूसरे जिसमें निमित्तव्यबहार किया गया है उसमें अपने क्रिप्रमाण कार्यको अपेक्षा कारण, कर्ता आदि धर्म पाये जाते है और जिसमें नैमित्तिक व्यवहार किया गया है उसमें अपने उपादानकारणको अपेक्षा कर्म-धर्म पाया जाता है । ये भी कल्पनारोपित न होकर वास्तविक है। तीसरे जिस बाहा-सामग्रीमें निमित्तका या निमित्तकारण धर्म का आरोप किया जाता है उसके सदृश प्रायः उपादिय-कार्य होता है जो कल्पनारोपित न होकर वास्तविक है। यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दिने यवहारमयकी अपेक्षा भी द्विष्ठ कार्यकारणभावको कल्पनारोपित न लिखकर वास्तविक लिखा है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि बाह्म सामग्री में किये गये निमित्त व्यवहारको और इसी प्रकार अपादानके कार्यरूप उपादेयमें किये गये नैमित्तिक व्यवहारको वास्तविक मान लिया जाय । अतएव तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उषत उल्लेनमे जो अर्थ निहित है, उसे ध्यान में रखकर ही यहां पर उसका अर्थ करना चाहिए । इस प्रकार तत्त्वार्थश्लोकवाति कके उक्त उल्लेखका क्या अभिप्राय है इसका यहाँ खुलासा किया। ७. उपचार पक्के अर्थका स्पष्टीकरण यहाँ पर अपर पक्षने उपचारका अर्थ निमित्त-नमित्तिवाभाव किया है और इस प्रकार निमित्तनैमित्तिकभावको यथार्थ मानकर हमें सलाह दी है कि हम भी उनकी इस मान्यताको स्वीकार कर लें, किन्तु जब हम आगममें कहो किस अर्थमें उपचार पदका प्रयोग हुआ है इस पर सम्पक रूपसे दृष्टिपात करते है तो हमें कहना पड़ता है कि अपर पक्षकी हमें दी गई यह सलाह उचित नहीं है। इसके नि हम अपर पक्षके सामने कुछ ऐसे प्रमाण रख देना चाहते हैं जिससे उसे इस बात समझने में सहायता मिले कि जहाँ एक बस्तुके गुण-धर्मका दूसरी वस्तुमें आरोप किया जाता है वहाँ उपचारपदको प्रवृत्ति होती है। इसके लिए कुछ प्रमाणोंपर दृष्टिपात कीजिए १. असएष न मुख्याः स्वस्य प्रदेशा इति चेन्न, मुख्यकार्यकारणदर्शनात् । तेषामुपचरितरखे सदयोगात् । न गुपचरितोऽग्निः पाकादानुपयुज्यमानी रष्टस्तस्य मुख्यरवप्रसंगात । -तरवार्थश्लोकवार्तिक पृ० ४.३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा २. ततः कालमा स्वतो वृत्तिरेवोपचारतो चर्तना, धृतिवर्तकयोविभागाभावान्मुख्यवर्तनानुपपत्त: । -तस्वार्थश्लोकवार्तिक पृ. ४१५ ३. भूतादिव्यत्रहारोऽतः कालः स्यादुपचास्तः । -तत्त्वार्थश्लोकधार्तिक पृ० ४ १९ ४. प्रत्येष्वपि गुणास्तदुपचरिता एध भवन्तु विशेषाभाचादित्ययुक्त, कमिन्मुख्यगुणाभावे तदुपचारायोगात् । -तत्त्वार्थश्लोकार्तिक पृ० ४४० ५. अज्ञानरूपस्यापि प्रदीपादेः स्वपरपरिस्थिती साधकतमत्वोपलम्भात्तन तस्याऽठयाप्तिरित्यप्ययुक्तम् , तस्योपचारात्तत्र साधकतमस्वव्यवहारान् । -प्रमेयकमटमार्तण्ड पृ०८ १. शंका-अतएव स्व के प्रदेश मुख्य नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मुरूप कार्य-कारण देखा जाता है। उनके उपचरित होने पर कार्य-कारण भाव नहीं बन सकता 1 उपचरित अग्नि पाकादिकके उपयोगमें आती हुई नहीं देखी जाती, अन्यश उसे मुख्य अग्निपने का प्रसंग प्राप्त होता है। २. इसलिए काल परमाणु स्वतः वृत्ति होने के कारण उपचार से वर्तना है, क्योंकि बृत्ति और वतक में विभागका अभाव होनेसे मुख्य वर्सला नहीं बन सकती। ३. अतः भूतादि व्यवहार उपचारसे काल है। ४, शंका-द्रव्योंमें भी जो गुण हैं वे उपचरित ही रहे आयें, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है ? समाधान---यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कहीं मुख्य गुणोंका अभाव होनेपर उनका उपचार नहीं बन सकता। ५. शंका-मद्यपि दोएक अज्ञानरूप है तो भी उसकी स्व-पर परिच्छितिमें साघकसमपनेको उपलब्धि होनेसे उसके साथ उसकी अत्र्याप्ति प्राप्त होती है ? समाधान -- यह बहना अयुवत है, क्योंकि उपचारसे उसमें साधकतमपमेका व्यवहार किया गया है। ये आगमके कुछ प्रमाण है। जिनमें यह स्पष्ट हासे बतलाया गया है कि जो वास्तविक न होकर भी प्रयोजनाधिको ध्यान में रखकर दूसरी वस्तुके गुण-धमके नामपर व्यवहार पक्ष्वीको प्राप्त होता है उसकी आगममें उपचार संज्ञा रखी गई है । अतः आगममें असद्भूतव्यवहार और उपचार इन दोनों पदोंका एक ही अर्थ है। इनमें अर्थ भेद नहीं है, इसलिए आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा ५६ की टीकाम व्यवहार नयका पाख्यान करते हुए 'इद हि..."'"परभाव परस्य विदधाति ।' इन शब्दों द्वारा व्यवहारनयके विषयमें स्पष्टीकरण किया है। पंडितप्रवर जयचन्दजीने व्यवहारनय उसको कहा है जो दूसरेके भावोंको दूसरोंके कहता है । उक्त गाथाकी टोकामें उनके शब्द है--- यहाँपर व्यवहारनय, पर्यायाश्रित होनेसे पुद्गलके संयोगवश अनादिकालसे प्रसिद्ध जिसकी बन्ध पर्याय है ऐसे जीवके कसूमके लाल रंगसे रंगे हुए सफेद वस्त्रकी तरह औपा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान धिक वर्णादि भावोंको आलम्बनकर प्रवर्तती है, इसलिए वह व्यवहारनय दूसरेके भावोंको दूसरोंके कहती हैं।' इस प्रकार आगममें चार पदका क्या अर्थ लिया गया है, इसका यहाँ स्पष्टीकरण किया। हमें आशा है कि अपर पक्षने जो उपचारका अर्थ निमित्त-नैमित्तिक भाव किया है उसके स्थानमें वह 'अन्य वस्तुके गुणधर्मको दूसरी वस्तुमें आरोपित करना इसका नाम उपचार हैं' इसको हो उपचार पदका अर्थ स्वीकार करेगा । और इस प्रकार वह 'जो नय अन्य वस्तुके गुण-धर्मको अन्य वस्तुके कहता है या ग्रहण करता है वह व्यवहार असद्भूत व्यवहार नय है' इस अभिप्रायको भी स्वीकार करेगा। ८. बन्ध-मोक्ष व्यवस्था इसी प्रसंगमें अपर पक्षने आचार्य विद्यानन्धिके तत्त्वार्थरलोकवातिकमें आये हुए १४, १५ और १६ संख्याक बार्तिकोंके आधारपर चर्चा करते हुए 'ततः सकलकर्मविप्रमोक्षो' इत्यादि उल्लेख उपस्थितकर जी बन्ध-मोवादि व्यवस्थाको वास्तविक मानने की सुचना की है सो इस सम्बन्ध में निवेदन यह है कि आगममें द्रव्य और भावके भेदसे वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सबको दो दो प्रकारका बतलाया है। उनमेंसे भाववन्ध, भावसंबर, भावनिर्जरा और भावमोश ये चारों स्वयं जीवको अवस्था होनसे या उस पर्याय विशिष्ट स्वयं जीव होनेसे ये स्वयं जीव हो हैं, ऐसा मानना यथार्थ ही है। इसका न तो हमने कहीं निषेध किया है और न निषेध किया ही जा सकता है। सम्भव है कि भार पक्ष भी इस वस्तुस्थितिको स्वीकार करेगा। इतना अवश्य है कि जीवले गग-द्वेष आदि भावोंको निमितकर जो कार्मण वर्गणाओंमें कर्मरूप परिणाम होता है उसे आगममें व्यबन्ध कहा है। इसी प्रकार द्रव्यसंबर, द्रव्वनिर्जरा गोर द्रव्यमोक्षका स्वरूा जान लेना चाहिए। सो इन्हें आगममें जह! जिस रूपमें निर्दिष्ट किया है उनको उस रूप में जानना हो यथार्थ जानना है, किन्तु इसके स्थान में यदि कोई श्रुतज्ञानी जीव जीवके राग-वेष आदि परिणामों में रुकनेको वास्तविक बन्धन समझकर कार्मण वर्गणाओंके राग-द्वेष आदि परिणामोंको निमित्तकर हुए ज्ञानावरणादि कर्म परिणामको जोवका वास्तविक बन्ध समझनेकी चेष्टा करे तो उसे सच्चा श्रतज्ञानी नहीं कहा जा सकता। अतएव प्रकृतम यही समझना चाहिए कि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको उपचरित स्वीकार करनेसे बन्ध-मोक्षको व्यवस्था बाघा आना सम्भव नहीं है, किन्तु इसके स्थान में यदि निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको वास्तविक मान लिया जाय तो अवश्य ही बन्ध-मोक्षको व्यवस्था भंग हो जायगी, क्योंकि वैसी अबस्थामें दो या दोसे अधिक द्रव्यों का संयोग वास्तविक सिद्ध हो जानेपर सब द्रव्य मिलकर एक हो जायेंगे । इसलिए नानात्वको व्यवस्था न बन सकनेसे किराका वन्ध और किसका मोक्ष ? यह सब व्यवस्था गड़बड़ा जागी । अतएव यदि अपर पक्ष आगमोषत बन्ध-मोक्षकी व्यवस्थाको स्वीकार करना चाहता है तो उसे निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको भी आगमके अनुसार उपचरित स्वीकार कर लेना चाहिए। आचार्य विधानन्दि विष्ठ कार्य-कारणभावको निश्चयन पसे परमार्थभूत नहीं निर्दिष्ट कर रहे है। किन्तु वे व्यवहारनयसे ही उसे परमार्थभत कह रहे हैं। सो आगममें जैसे नामसत्य, स्थापनासत्य. जनपदरात्य, सम्मत्तिसत्य आदिका निर्देश किया गया है और उस रूप में इन्हें मानने में बाधा भी नहीं आती है। यदि कोई सम्यग्ज्ञानी जीव उस रूपमें उन नामादि व्यवहारोंको जानकर कथन करता है तो उसका वह जानना या कथन करना मिथ्या नहीं माना जाता है। ऐसी अवस्थामें अपर पक्ष ही बतलाव कि जो सभ्यग्ज्ञानी जीव निमित्त Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ जयपुर (खानिया ) तव चर्चा नैमित्तिक व्यवहारको उपचरितरूपसे स्वीकार करता है उसका वैसा स्वीकार करना मिथ्या कैसे माना जायेगा ? अव प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि बागममें जिस वस्तुको जिस रूप में स्वीकार किया गया है उसको उसी रूपमें ग्रहण करना यही सच्चा सम्यग्ज्ञान है और अन्यथा रूपसे महण करना यही मिथ्याज्ञान है । आचार्य विद्यानन्दिने उक्त दार्तिकोंद्वारा क्षणिकान्त और नित्यैकान्तका निरास कर बन्ध-मोक्ष araस्था कैसे बनती है और व्यवहारमय साध्यसाधनभावका क्या स्थान है इसका सम्यक्प्रकारसे विचार किया है सो इसे समझकर ही उसका निर्णय करना यही प्रत्येक सम्यग्जानी जीवका कर्तव्य है । इस विषयको स्परूप से समझने के लिए तत्त्वार्थवातिक अ० १ सूत्र २ का यह वचन पर्याप्त होगा स्व- परनिमित्तस्वादुत्पादस्येति चेत् ? म उपकरणमाश्वात् ॥११॥ स्याददेत् स्व-परनिमित्त उत्पादो दृष्टः । यथा घटस्योत्पाद मृत्रिमतो दण्डादिनिमित्तश्च । तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुत्पद्यते इति १ तत किं कारणम् ? उपकरणमात्रश्वात् । उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम् । किच- आत्मपरिणामादेव तदसघातात् ॥१२॥ यदिदं दर्शन मोहाल्यं कर्म तदात्मगुणघाति, कुतश्चिदारम परिणामादेषोपक्षीणशक्तिकं सम्यक्त्वाख्यां । अतो न तपस्विमस्य प्रधानं कारणम्, आमैच स्वशक्स्या दर्शनपर्यायेणोत्पद्यत इति तस्यैष मोक्षकारणत्वं युक्तम् । प्रश्न - उत्पाद स्वरनिमित्तक होता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि बाह्यसाधन उपकरणमात्र है ॥ ११ ॥ यदि कोई कहे कि उत्पाद स्वस्परनिमित्तक देखा गया है। जैसे घटका उत्पाद मिट्टीनिमित्तक और दण्डादिनिमित्तक होता है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनका उत्पाद आत्मानिमित्तक और सम्यकत्व पुद्गलनिमित्तक होता | इसलिए सम्यकत्व पुद्गलमें भी मोखकी कारणता बन जाती है, उसका ऐसा कहना ठीक नहीं है सम्यकत्व पुद्गल उपकरणमात्र है। बाह्य साधन नियमसे उपकरणमात्र है । आरमाके परिणामसे ही उसके रसका बात होता है ॥ १२ ॥ जो यह दर्शनमोह नामका कर्म है वह आत्माके गुणका बाती है । अतएव किसी आत्म-परिणामको ही निमित्तकर उपक्षोण शक्तिवाला होकर वह सम्यक्त्व इस संज्ञाको प्राप्त होता है। इसलिए वह आरमाके परिणामका प्रधान हेतु नहीं है। आत्मा ही अपनी शक्ति से दर्शनपर्यायरूपये उत्पन्न होता है, इसलिए उसीके मोक्षकी कारणता युक्त है । शक्तिके बलसे उपादान ध्वंस करता है। हमने इस प्रकार इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रथ्य स्वयं अपनी होकर प्रत्येक समय में अपनी नई पर्यायको उत्पन्न करता है और पुरानी पर्यायका अपने प्रथम उत्तर में तत्त्वावलोकवार्तिक के जिस उचरणका उल्लेखकर यह सिद्ध किया है कि निश्चयनयसे प्रत्येक द्रव्य स्वयं उत्पाद-व्यय-लौभ्यस्वभाववाला होनेसे उसमें उत्पाद-व्ययको व्यवस्था विससा ही बनती है। और व्यवहारनयसे ही उसका उत्पाद व्यय सहेतुक प्रतीत होता है, सो हमारा यह कथन तत्त्वार्थवार्तिकके उक्त उल्लेखको दृष्टिमें रखते हुए साधु ही प्रतीत होता है । हम तो अपर पक्षसे ही यह मापा लगाये हुए हैं कि वह भी प्रत्येक उपादानको अनेक योग्यतावाला न स्वीकार करके मात्र प्रतिनियत योग्यताबाला स्वीकार करके हो प्रतिनियत कार्यको व्यवस्थाको मान्य करते हुए निमित्तनैमित्तिक व्यवहारको उपचरित Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान स्वीकारकर लेगा आचार्य विद्यानन्द अपनी अष्टमहसी पृष्ठ ११२ में उत्पाद, व्यय और श्रीव्यको स्वाभावान्तर निरपेक्षरूपसे जो व्यवस्था कर रहे है उस पर भी थोड़ा दृष्टिपात कोजिए। इससे वस्तुस्थितिको हृदयङ्गम करने में विशेष सहायता मिलेगी। स्वयमुत्पिस्सोरपि स्वभावान्तरापक्षणे विनश्चरस्यापि तदपेक्षणप्रसङ्गात् । एतेन स्थास्नीः स्वभा. बान्तरानपेक्षणमुर्क, विरसा परिणामिनः कारणान्तरानपेक्षोत्पादादिश्यव्यवस्थानात्तद्विशेषे एवं हेतुव्यापारोपगमात् । यदि स्वयं उत्पन्न होनेवाला पदार्थ स्वभावान्तरको अपेक्षा करे तो विनाश होनेवालेको भी स्वभावान्सरको अपेक्षा करमेका प्रसङ्ग उपस्थित होता है। इस कथनसे स्थानशील पदार्थ स्वभावान्तरको अपेक्षा नहीं करता यह कह दिया गया है, क्योंकि बिरसा परिणमन करनेवाले पदार्थों में कारणान्तर निरपेक्ष होकर उत्पादादित्रयकी व्यवस्था है। उनके विशेष में हो हेनका ध्यापार स्वीकार किया गया है। यह स्वामी विमानन्तिका वनन नै । इमसे हम गह बात अच्छी तरहसे जान लेते हैं कि प्रत्येक उत्पादमें जो बाह्य और शाम्यन्तर हेतुको स्वीकृति है उसका अभिप्राय क्या है। उत्पाद स्वभावसे उत्पाद है, वह कथञ्चित व्यय और प्रौष्यरूप भी हैं। व्यय स्वभावसे व्यय है, वह कवञ्चित उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप भी है। ध्रौव्य स्वरूपसे धौव्य है, वह कञ्चित उत्पाद और व्यय स्वरूप भी है। उत्पाद, काय और धोव्यकी यह व्यवस्था स्वभावतः परनिरपेक्ष होकर स्वतःसिद्ध है। फिर भी जो हेतुका पापार स्वीकार किया गया है वह केवल एक पर्यायसे दूसरी पर्याय व्यतिरेक दिखलाने के लिए ही स्वीकार किया गया है 1 कथन थोड़ा सूक्ष्म और वस्तुस्पी है। हमें भरोसा है कि अपर पक्ष इसके हार्दको हृदयङ्गम करेगा। इससे अपर पक्षको यह भी समझने में सहायता मिलेगी कि-'येन कारणेन यस्कार्य जायते सेनैव तरकार्य, न तु कारणान्तरेण ।'--जिस कारणसे अर्थात् उपादान कारणसे बाह्य सामग्रीको निमित्तकर जो कार्य उत्पन्न होता है उस कारणले ही अर्थात उपादान कारणसे ही बाह्म सामग्रीको निमित्तकर वह कार्य उत्पन्न होता है। कारणान्तरसे नहीं । अष्ट० स० टि. १४ पृ० ११२ । हमने अपने दूसरे उत्सरको लिखते हुए तत्वार्थदलोकत्रातिकके एक उद्धरण में आये हुए 'सहेतुकस्व प्रतीतः पदमें पठित 'प्रतीत' पदकी ओर अपर पक्षका ध्यान आकृष्ट किया था 1 किन्तु अपर पक्षने उसके अभिप्रायको ग्रहण न कर उस पर टिप्पणी करना ही उचित समक्षा है। हम आशा करते है कि वह पुनः उस ओर ध्यान देनेको कृपा करेगा। इसके हार्दको समसने के लिए हम समयसार गाथा ९८ को आत्मख्याति टोकामें आये हुए 'प्रतिभाति पद को ओर अपर पक्षमा पुनः ध्यान आकृष्ट करते हैं। इनकी टीकाम कहा गया है कि यह जीव अपने विकल्प और हस्तादि क्रियारूप व्यापार द्वारा घट आदि पर द्रव्य स्वरूप बाह्य कर्मको करता हुआ प्रतिमासित होता है, इसलिए यह उसका व्यामोह हो है। __ स्पष्ट है कि परमध्यके किसी भी कार्यमें बाह्य सामग्री निश्चयकी प्रतीतिका हेतु होनेसे ध्यघमार कारणरूपसे ही स्वीकार की गई है। यही पूरे जिनागमका सार है। इससे बन्ध-मोक्षम्यवस्था जिनागममें किस रूप में स्वीकार की गई है इसका स्पष्टीकरण हो जाता है। ९. जगतका प्रत्येक परिणमन क्रमानुपाती है अपर पक्षने हमार पिछले इस कथनपर टिप्पणी की है, जिसमें हमने बतलाया था कि अपर पक्षकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती है कि 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है। हमारा यह वक्तव्य Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचची अपर पक्षको बहत स्खला है। और इसलिए उसपर उसने अपनी तीव प्रतिक्रिया व्यक्त की है। किन्तु इससे हमारे उस कथनकी सार्थकतामें अणुमात्र भी फरक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जब अपर पक्ष प्रत्येक उपादानको अनेक योग्यतावाला मानकर निमित्तोंके बलसे कार्यको उत्पत्ति होने का विधान करता है ऐसी अवस्था में एक तो उसे यही मानना होगा कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है, क्योंकि उपादान अनेक योग्यतावाला होनेसे उससे क्या कार्य उत्पन्न हो इसमें उसका वस्तुत: कुछ भी कर्तव्य नहीं रह जाता । कार्यरूपमें जो कुछ भी फल सामने आता है उसे निमित्तका ही परिणाम समझाना चाहिए। यदि अपर पक्ष कहे कि 'उपादान भले ही अनेक योग्यतावाला रहा आत्रे, परन्तु प्रत्येक कार्यका निमित्त सुनिश्चित है, इसीलिए उसके बलसे प्रत्येक समयमें सुनिश्चित कार्यकी ही उत्पत्ति होती है इसलिए 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है, जो यह आरोप हमारे (अपर पक्षके) ऊपर किया जाता है वह ठीक नहीं है। तो अपर पञ्चका उक्त दोषसे बचनेके लिए यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार प्रत्येक समयके कार्यके सुनिश्चित निमिसोंके स्वीकार कर लेने पर निमित्तोंके आधारपर एकान्त नितिको माननेका प्रसङ्ग अगस्थित होता है। जिस दोषसे वह अपनेको बचा नहीं सकता। वह पक्ष बागमके बलका नाम लेकर घोषणा चाहे जो करे, लेखनी उसकी है। किन्तु जबतक वह प्रतिनियत कार्यके प्रतिनियत उपादानको नहीं स्वीकार कर लेता, तबतक वह अपनेको उपत दोषोसे नहीं बचा सकता। स्वपरसापेक्ष कार्य होता है, इस कथनमे जैसे कार्य सुनिश्चित है, वैसे ही उसकी सामग्रो भी सुनिश्चित मान लेनी चाहिए। यह वस्तु स्वभाव है कि प्रत्येक कार्य में बाल और आभ्यन्तर सुनिश्चित सामग्रीकी समग्रता रहती अपर पक्षने पुनः मिट्टीको उदाहरण रूपमें उपस्थितकर उससे जायमान कार्योकी मीमांसा की है। वह बाह्य सामग्रीके व्यापारको तो प्रत्यक्ष देखता है, इसलिए उस आधारपर कार्यकी व्यवस्था करना चाहता है। किन्तु कौन मिठो किस कालमें किस प्रकारके परिणमनको योग्यतावाली है इसे अपने इन्द्रिय प्रत्यक्षसे नहीं जानता। इसलिए उसमें नाना तकणाएं लगाता है । यह तो मुनिश्चित है कि इस जगतका परिणमन अनादिकालसे होता हुआ चला आ रहा है । एक ट्रव्यमें अबसक जितने भी परिण मन हुए है उतने ही परिणमन अन्य सब प्रव्योंमें भी हुए हैं। इस दृष्टिसे यदि विचार किया जाय तो न तो किसी द्रव्यमें कम परिणमन हार है और न अधिकही। और इस प्रकार प्रत्येक व्यके अब तक जितने परिणमन ए है उतने बार ही उन गरिामनोंकी मिमित्तभत बाह्य आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता भी मिली है। इसमें भी न न्यूनता हई है और न अधिकता ही। यह जगतके परिणमनका क्रम है। भविष्यम भी यह क्रम इसी प्रकार चाल रहेगा। उसमें भी न कमी होगी और न अधि. कता ही। इस प्रकार जब हम इस क्रमको दृष्टिपथ में रखकर विचार करने लगते है तो यह स्पष्ट होने में देरी नहीं लगती कि वर्तमान समयमें जिस किसी भी द्रव्यका ओ उपादान-उपादेय योग ओर निमित्तनैमित्तिक योग चल रहा है वह पूर्वोक्त विधिसे क्रमानुपाती ही है। हो, यदि यह होता कि कोई द्रव्य कभी परिणमन करे और कभी न करे तो अवश्य ही कार्यकारण माविकी राब व्यवस्थामें अनियतपनेका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता, किन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ नियतकमसे ही परिणमन करते हए चले आरहे हैं, अतएव प्रत्येक समयमें प्रत्येक कार्यको सुनिश्चित निमित्त नैमित्तिक घ्यबस्थाके समान उपादान-उपादेय व्यवस्था भी सुनिश्चित ही प्राप्त होती है । आगममें निमित्त. नैमित्तिक रिसे इसका विचार तो बहुत ही कम किया है। मात्र उपादान-उपादेय दृष्टिसे इसका विचार Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४५१. विशेषरूपसे किया गया है। प्रत्येक व्यका प्रत्येक परिणमन कैसे क्रमानुपाती है इसका निर्देश करते हुए अष्टसहली ५० १०० में लिखा है आज सृजनागाद्धि पागभानस्तानका स्योपादानपरिणाम एव पूर्वोऽमन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यसद्भावप्रसंगः, प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् । 'कार्योत्पादः क्षयो हेतो:' इति वक्ष्यमाणत्वात् । प्रागभाववत्प्रागभावादेस्तु पूर्व- पूर्वपरिणामस्य सन्तत्याना विवक्षितकाय रूपत्वाभावात् । न च तत्रास्येतरेतराभावः परिकल्प्यते येन तत्पशोपक्षिमदूषणावतारः स्यात् । नाप्येवं प्रागभावस्यानादित्व बिरोधः, प्रागभाव-तस्य सभावादेः प्रागभावसन्तानस्यानादिलोपगमात् । न चात्र सन्तानिभ्यस्तत्वान्यत्वपक्षयोः सन्तानो वृषणाई, पूर्व-पूर्व प्रागभावात्मकभावक्षणानामेवापरामृष्टभेदानां सन्तानश्वाभिप्रायान् । सन्तानिक्षणापेक्षया तु प्रागभावस्यानादित्वाभावेऽपि न दोषः, तथा ऋजुसूत्रनयस्येष्ट स्वाद । तथास्मिन् पक्षे पूर्व पर्यायाः सर्वेऽप्यनादिसन्ततयो घटस्य प्रागभाव इति वचनेऽपि न प्रागनन्तरपर्यायनिवृचाविव तत्पूपर्याय निवृत्तावपि घटस्योत्पत्तिप्रसंगः, येन तस्यानादित्वं पूर्वपर्यायनिवृत्तिसन्ततेरष्यनादित्वादापराते, घटात्पूर्वक्षणानामशेषाणामपि तयाग भावरूपाणामभावे घटोस्पत्यभ्युपगमात् । प्रागनन्तरक्षणानिवृत्तौ सदन्यतमक्षणानिवृताविव सकलतत्प्रागभावनिसृश्यसि घंटोप त्तिप्रसंगाभावात् । आदि । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा तो प्रागभाव कार्यका पूर्व अनन्तर परिणामस्वरूप उपादान हो है। और उसके प्रागभाष होने पर उसमे पूर्व अनादि परिणाम सन्ततिमें कार्य के सद्भावका प्रसंग आता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि प्रागभावका विनाश कार्यरूपता है ऐसा स्वीकार किया है। 'कार्यका उत्पाद ही व्यय है, एक हेतुक होने से' ऐसा आगे कहेंगे भी। प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस प्रकार पूर्व पूर्व परिणाम सन्ततिके अनादि होने से उसमें दिवशित कार्यरूपताका अभाव है । उसमें इतरेतराभावकी कलाना करना ठीक नहीं, जिससे कि उसके पक्ष में दिये गये दुषणका अवतार होवे । और इस प्रकार प्रागभावको अनादि होने का भी विरोध नहीं है, क्योंकि प्रागभाव, उराका प्रागभाव आदि इस प्रकार प्रागभाषकी सन्तानका अनादिपना स्वीकार किया है । और यहाँ पर सलानियोंसे सन्तान भिन्न है कि अभिल है इस प्रकार दो पदा उपस्थित होनेपर सन्तान दूषण के योग्य भी नहीं है, क्योंकि भेदोंको न स्पर्श करते हुए पूर्व-पूर्व प्रागभावस्वरूप भावक्षणोंमें ही सन्तानपनेका अभिप्राय है । सन्तानी क्षणको अपेक्षासे तो प्रागभावक अनाश्विने के अभाव में भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि जुसूत्रतयकी अपेक्षा सा इष्ट है। तथा इस पक्ष में अनादि सन्ततिरूप सभी पूर्व पर्याय घटका प्रागभाव है ऐसा वचन होनेपर भी जिस प्रकार प्राक् अनन्तर पर्यायकी निवृत्ति होने पर घटकी उत्पत्ति होती है उस प्रकार उससे पूर्व पर्यायोंकी निवृत्ति होनेपर भी घटकी उत्पत्तिका प्रसंग नहीं उपस्थित होता, जिससे कि पूर्व पर्यायी निवृत्तिरूप सन्ततिके अनादि होनेसे घटको भी मनादिता प्राप्त हो जाय, क्योंकि घटसे उसके प्रागभावरूप जितने भी पूर्व क्षण उन सभी अभाव होनेपर घटको उत्पत्ति स्वीकार की है, कारण कि जिस प्रकार उनमें से किसी एक क्षणकी निवृत्ति नहीं हुई तो उस (घट) के समस्त प्रागभावोंकी निवृत्ति सिद्ध नहीं होती उसी प्रकार प्राकू अनन्तर क्षणकी निवृत्ति नहीं होने पर बटकी उत्पत्तिका प्रसंग नहीं उपस्थित होता । यह पूरे कार्य कारणभाव पर प्रकाश डालनेवाला अष्टसहस्त्रोका वचन है । इस द्वारा यह स्पष्ट बतलाया गया है कि मिट्टी द्रव्पकी पर्यायसन्ततिमें घटकी उत्पतिका जो स्त्रकाल है उसी कालमें घटको उत्पति होती है, अन्य काल में नहीं | यदि कोई प्रजापति घटोत्पत्ति के अनुकूल क्रिया करते हुए रुक जाता है तो उसका वह रुकना अकस्मात् न समझ कर अपनी पर्याय सन्त सिमें क्रमानुपाती हो समझाना चाहिए। और उस समय से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा मिट्टीके पिण्ठमें पटोत्पत्ति के अनुरूप परिणाम न होकर अन्य परिणाम होता है तो उसे भी उक्त आगम प्रमाणके प्रकाश में क्रमानुपाती ही समझना चाहिए। गह वस्तुव्यवस्था है, किन्तु इसे न स्वीकार कर अपर पक्ष अपनी मानसिक कल्पनाओंके माधार र जोमाज विकास र सम आलमा प्रस्तुव्यवस्था में हस्तक्षेप ही कहा जायगा। किमो भी द्रव्यका कोई भी कार्य परके ऊपर अवलम्बित नहीं है । आचार्य अकलंकदेवके वादों में ब्राह्म सामग्री ती उपकरणमात्र है। यदि एक समय में अनेक उगदानशक्तियाँ आगममें स्वीकार की गई होती और जिसके अनुरूप परका सहयोग मिलता उसका विकास आगम स्वीकार करता तो भले ही पर के महयोगके अभाव में उपादान शक्तियां लप्त पड़ी रहती और वे परके सद्योगको प्रतीक्षा करती रहतीं, किन्तु आगमम तो जितना कार्य होता है मात्र उतना ही निश्चय उपाधानकारण स्वीकार किया गया है, अतएव उपादान शक्तियोंके न तो लुप्त पड़े रहनेका प्रश्न उपस्थित होता है और न ही उनके परको प्रतीक्षा करते रहने का ही प्रश्न उपस्थित होता है। कोई मिट्टी यदि घड़ा नहीं बनती तो उसके घड़ारूप परिणमनेका स्वकाल नहीं आया, इसलिए वह घड़ा नहीं बनतो, परके कारण नहीं, क्योंकि घटोत्पत्ति पर तो निमित्तमात्र है। मिट्रीको लानेवाला कुम्भकार कौन? उसकी क्रियायती शक्तिका विपाक काल आने पर हो उसका स्थानान्तरण होता है, उसमे गर तो उपकरणमात्र है। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें क्रिवाती शक्ति भी है, वैसा कमोदय भी है, फिर भी उनका सातये नरक तक गमन नहीं होता। क्यों ? क्योंकि उनके क्रियाबती शक्तिका वैमा विषाक त्रिकालम नहीं है। जिसे अपर पक्ष पुरुषार्थ कहता है वह प्रकृतमें प्राणीकी इहचेष्टाको छोड़कर और ज्या वस्तु है इसका वह स्वयं विचार करे। सो क्या उसके सब कार्य इहचेष्टा पर निर्भर है ? यदि नहीं तो वह अन्य द्रव्यके कार्यमे हस्तक्षेपके विकल्पमें ही कार्य-कारणभावकी प्रतिष्ठाका स्वप्न क्यों देखता है ? किसीके भी बलका प्रयोग अपने में होता है, परमें नहीं। यह तो हमागे आपको और हमारे-आपके समान दूसरे जनोंकी समझ भर है कि हम सब किसी भी वस्तुका योग मिलने पर इसमें सम्भव भ्यशक्तियोंको लक्ष्यमे रख कर उसे विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान मान लेते हैं । पर क्या. हमारे माननेमात्रसे वह विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान हो जाता है। यदि ऐसा होने लगे तो किमीको भी निराश न होना पड़े। यह सुनिश्चित सत्य है कि जब निश्चय उपारान अपने कार्य के सन्मुख होता है तो कार्य होता ही है। प्रत्येक द्रव्यका प्रत्येक समय में इसी सिद्धान्तके आधार पर कार्य होता आ रहा है, हो रहा है और होता रहेगा। जन्न अनिवृतिकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यादृष्टि जीव पहुँचता है तो वह नियममे अगले समयमै सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करता है । वही जीव यदि सम्यक्त्व और संयमके अनुरूप अधःकरणादि परिणाम कर अनिवृत्तिकरणके अन्त में पहुँचता है तो नियमसे अगले समय में सम्यक्त्व और अप्रमत्तभावको उत्पन्न करता है । यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है कि जब वह निश्चय उपाधानको भूमिकामे आता है तो अगले समय में अपने अनुरूप कार्यको नियममे उत्पन्न करता है । और क्रमानुपाती नियमके अनुसार अन्य वाला मामग्नी उसमें निमित्त होती है । ऐसो अनादि यस्तुव्यवस्था है। हमारे संकल्प-विकल्प हमारे अज्ञानका फल है । उसके रहते हुए संकल्प-विकल्प ही तो होंगे, अपर पक्ष सम्भवतः इसे भूल जाता है। यह राग-द्वेषरूप परिणतिका फल है जो अज्ञानकी भूमिका में नियमसे होती है, इसलिए सब ट्रब्यों में प्रत्येक समममें होनेवाले कार्योंकी कसोटी क्ष्यक्तिके. संकल्प-विकल्पको बनानेका प्रयत्न न करें इतना ही हमारा आपसे निवेदन है। प्रत्येक कार्य अन्तः बहिः सामग्रीके सद्भाव में होता है यह हम पहले ही लिख आये है, इसलिए 'समय आने पर विवक्षित कार्य स्वत: सम्पन्न हो जायगा' यह लिखना उचित नहीं है। प्रत्येक मनुष्य कार्य Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४५३ सम्पन्नताके विषयमै प्रत्येक कार्यके होनेके जो प्राकृतिक नियम है उनको ध्यान में रख कर ही विचार करता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके विचार करने पर और बाह्य उठाघरी करने पर जिस कार्यके विषएमे उसने विचार किया है वह कार्य हो ही जाता है, क्योंकि जो भी कार्य होता है वह बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें ही होता है। विकल और योग ये उस व्यक्ति के कार्य है । सो घे भी अपनी बाह्याभ्यन्सर सामग्रीको समग्रतामें होते हैं। कभी भी कोई विकल्प और कोई योगक्रिया हो जाय ऐसा नहीं है। वे भी क्रमानुपाती ही होते है । उपादान स्वयं वह वस्तु है जो परिणमन करके अपने कार्यको उत्पन्न करता है। उपमें सामग्रो प्रमेश को नियाग सान मारय निश्चयसे बाह्य सामग्री पर द्रव्यका कार्य करनमें अकिंचित्कर हो है। कार्यके साथ उसका अन्दय-वयतिरेक दिखलाने के लिए ही उसे व्यवहारसे पर द्रम्य के कार्यका करनेवाला स्वीकार किया है यह बात दूसरी है। अपर पक्षने गेहको उदाहरण बनाकर कार्य-कारणपरम्पराको जिस प्रक्रियाका निर्देश किया है वह प्रत्येक कार्यमे बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रताको ही सूचित करता है। कार्यमें बाह सामग्रीको समपता नहीं होती यह तो हमारा कहना है नहीं । हम ही श्या, आगम ही जब इस बातको सूचित करता है कि प्रत्येक कार्य में वाह-आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता होती है। ऐसी अवस्थामै जो प्रत्येक कार्यमें उभय सामग्रोकी समग्रताका निर्देश किया है उसका आशय क्या है, विचार इस बात का होना चाहिए, किन्तु अपर पक्ष इस मूल बात को भूलकर या तो स्वयं दूसरी बातोंको सिद्ध करनेमें उलझ जाता है या फिर हमें मुख्य प्रश्नको अनिर्णीत रखनके अभिप्रायसे दूसरी बातों में उलझा देना चाहता है। सो उसकी इस पद्धतिको इलाध्य नहीं कहा जा सकता। आगममें वाह्य और आम्यन्तर दोनों प्रकारको सामग्रीम कारणताका निर्देश किया गया है यह सच है। परन्तु वहाँ किसमें किस प्रकारको कारणताका निर्देश किया गया है इस यातपर दृष्टिात करनेसे विदित होता है कि बाह्य सामग्रीमे जो कारणताका निर्देश किया गया है वह केवल कार्यके साथ उसकी अन्वय-व्यतिरेकरूप बाह्य व्याप्तिको दिखलाकर उसके द्वारा जिसके साथ उस (कार्य) को आम्यन्तर व्याप्ति है उसका ज्ञान करानेके लिए ही किया गया है और 'यदनन्तरं यद्भवति तत्तत्सहकारिकारणम्' यह वपन भी इसी अभिप्रायसे लिखा गया है । जब कि आगमका यह वचन है कि कोई भी द्रव्य एक साथ दो क्रियाएं नहीं कर सकता और साथ ही जब कि आगमका यह भी बचन है कि प्रत्येक द्रष्य अपने स्वचतुष्टमको छोड़कर अन्य ब्यके स्वचतृष्टया नहीं परिणमता। ऐसी अवस्थामें एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्यका कारण है या कता, करण और अधिकरण आदि हैं यह कथन उपचरित ही तो ठहरेगा। इसे वास्तविक कसे कहा जा सकता है इसका अपर पक्ष स्वयं ही विचार करे। एक ओर तो अपर पक्ष इस तथ्यको स्वीकार कर लेना है कि गेहूँ अंकुरका तभी उपादान है जब वह गेंहूँ रूप अंकुरको उत्पन्न करने के सन्मुख होता है और दूसरी ओर वह यह भी लिखने से नहीं चूकता कि 'कोईकोई दाने उक्त प्रकार की योग्यताका अपने अन्दर सद्भाव रखते हुए भी बाह्य जलादि साधनोंके अनुकूल सहयोगका अभाव होनेसे अंकुररूपसे उत्पन्न होनेकी अबस्थासे बंचित रह जाते हैं।' आदि । सो अपर पक्षका ऐसा परस्पर विरुद्ध कथन इस बातको सूचित करता है कि अपर पक्ष वस्तुतः आगममें प्रतिपादित निश्चय उपादानके लक्षणको स्वीकार नहीं करना चाहता । यह बात अपर गक्ष अच्छी तरह से जानता है कि आगममें केवल योग्यताको ही उपादान कारणरूपसे न स्वीकार कर कार्यको अव्यवहित पूर्व पर्याय युवत द्रव्यको उपादान कारणरूपसे स्वीकार किया गया है। अतएव वैवल योग्यताके आधारपर जो भी आपत्तियाँ अपर पक्ष उपस्थित करता है वे सब प्रकृत विचारणाम दोषाषायफ नहीं मानी जा सकती। हो, अपर पक्ष यदि कोई ऐसा आगम Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा प्रेमाण उपस्थित कर सके जिससे यह सिद्ध हो कि जिस कार्यका जो उपादान कारण है उसके उस कार्यके सन्मुख होनेपर भी बाह्य सामग्री के अभाव में वह कार्य नहीं हुआ तब तो यह माना जा सकता है कि उस उप दान में उस कार्य करनेकी योग्यता भी थी और वह उपादान अपने कार्यको करनेके लिए उद्यत भी था पर बाह्य सामग्री अभाव कार्य नहीं हुआ अपर पक्ष अपनी कल्पनाओंका चाहे जैसा ताना नाना बुनता रहे, उससे कार्य-कारणकी जो आयमिक परस्परा निर्दिष्ट की गई है उसपर ऑन आनेवाली नहीं । परपक्षनेतार्थर्तिक म० ५ सू०२ के कुछ प्रमाण दिये हैं जिनके द्वारा उत्पाद व्ययको सिखि स्व-परप्रत्यय की गई है। सो वे प्रमाण हमें ही क्या सबको मान्य होंगे। उनकी प्रमाणिकताका न तो हमने कहीं निषेध ही किया है और न निषेध किया हो जा सकता है, क्योंकि वहाँ निश्चय पक्ष के साथ व्यवहार पक्षका स्वीकार करनेकी विवाना उक्त प्रकारसे निर्देश किया गया है। जैसे अनुभव में जाता है, तर्क से भी सिद्ध होता है और आगम भी कहता है कि प्रत्येक कार्य बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीको समग्रता में होता है वैसे हो यह भी अनुभव में आता है, तर्कसे भी सिद्ध होता है और आगम तो कहता ही है कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अपनी अपनी क्रिया स्वतन्त्ररूपमे करता है, अपनी अपनी क्रिया के करने में कोई किसीके आधीन नहीं । व्याकरण शास्त्र में 'स्वतन्त्रः कर्ता यह वचन भो इसी अभिप्रायसे लिखा गया है। जैनदर्शनका तो यह हार्द है ही । अभ्यथा मोक्षविधि नहीं बन सकती । इसी प्रकार यह भी अनुभव में आता है, तर्क से भी सिद्ध होता है और निगम कहता ही है कि एक द्रश्य दूसरे द्रव्यरूप न तो परिणमता है और न दूसरे द्रव्यको परिणमाता है । ऐसी अवस्था में अपर पक्ष हो यह निर्णय करें कि इन दोनोंमें किसे परमार्थभूत माना जाय दोनों मिलकर एककार्य करते हैं इसे या प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य स्वयं करता है इसे । अरिहन्त होने के पुत्रं बारहवें गुणस्थान में क्षीणकषाय जीवके शरीर में अवस्थित सब निगोदिया और श्रम याँका अभाव हो जाता है, इसके पहले नहीं। सो अपर पक्ष मतानुसार उन जीवांके अभावका प्रेरक निमित्त कर्ता श्रीणकषाय जीवको ही मानना पड़ेगा, क्योंकि जीवके क्षीणकषाय होनेपर हो उनका अभाव होता है, अन्यथा नहीं। ऐसा नियम भी है कि 'यदनन्तरं यज्ञवति तत्सहकारिकारणम्' इसीप्रकार साधुके ईपि पूर्वक गमन करते हुए उनके पगको निमित्तकर जीवबघ होनेपर भी वही आपत्ति प्राप्त होती है। इतना हो क्यों, अरिहन्तोंके अरिहन्त अवस्थाकी प्राविका सहकारी करण सात धातुओंसे रहित शरीर आदिको भी मानना पड़ेगा। जो जोब अन्तःकृतकेवली होते हैं सो उनके लिए भी यही कहा जायगा कि उपसर्गादिकके कारण वे केवली हुए हैं, क्योंकि अपर पलके मतानुसार उपादान तो अनेक योग्यतावाला क्षेत्र है। इनमें से कौन योग्यता कार्यरूपसे परिणत हो यह बाह्य सामग्री पर ही अवलम्बित है यही नियम सिद्ध होनेके लिए भी लागू होगा। यहाँ अपर पक्ष यह तो कह नहीं सकता कि कहीं पर उपादान एक योग्यतावाला होता है और कहीं पर अनेक योग्यत्तावाला होता है, क्योंकि नियम नियम है। वह कहीं के लिए एक हो और कहींके लिए दूसरा ऐसा नहीं हो सकता। मिट्टी से वट बनने के लिए या गेंहूँरो अंकुर उगने के लिए कार्य-कारणके जो नियम अपर पक्ष मानता है में ही नियम उसे सब कार्यों में स्वीकार करने होंगे। अपर पक्ष कुम्हारके व्यापारपूर्वक मिट्टी में घटको उत्पन्न हुआ देखकर यदि मिट्टोको घटका स्वयं कर्त्ता नहीं स्वीकार करना चाहता तो उसे गमन करते हुए साधुके गमनरूप व्यापारपूर्वक किसी जन्तुके भरणका कर्ता स्वयं उस जन्तुको नहीं मानना होगा, जैसे घटकी उत्पति कुम्भकारके व्यापारपूर्वक प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार जन्तुका मरण साधुके गमनरूप व्यापारपूर्वक दृष्टिगोचर हुआ है । अतएव जिस प्रकार षटका कर्त्ती कुम्भकार माना जाता है उसी प्रकार जीवबघको करनेवाला साधु ही माना जाना चाहिए, . Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान क्योंकि दोनों जगह न्याय समान है। और यह कहा नहीं जा सकता कि साधुके पगसे जीवका बघ हो नहीं सकता। क्योंकि जो बात प्रत्यक्ष देखने में आतो हैनसका अपलाप करना सम्भव नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षको अप्रमाण नहीं माना जा सकता यन्न अपर पक्षका कथन है। यदि अपर पक्ष कहे कि साधुके चिप्समें जीवन का अभिप्राय न होने के कारण वह जोववघका करनेवाला नहीं माना जा सकता तो उसके इस कथनसे यहो निष्कर्ष निकालता है कि अभिप्रायमें करनेका विकल्प होनेके कारण ही कुम्हारको घरका कर्त्ता कहा गया है। वस्तुतः एक द्रव्य दुसरे का कई नहीं होगानोक ही है। आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा १४४ की टोफामें लिखा भी है विकल्पकः परं कर्मा विकल्पः कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मस्वं सविकल्पस्य नश्यति ॥९५|| विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और विकल्प ही केवल कर्म है, (अन्य कोई कर्त्ता कम नहीं है । ) जो जीव विकल्पसहित है उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता। यह आगमवचन है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि संसारी जीवके पर द्रव्यमें कार्य करनेका विकल्प केवल रागके कारण होता है। वह उसका वास्तविक कर्ता नहीं हो सकता और यही कारण है कि आगममें सर्वत्र बाह्य मामग्री में कारण व्यवहारको उपचरित हो कहा गया है। और इसीलिए एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ निश्चयसे कर्तृ-कर्मभावका निषेध किया गया है। इसी तथ्यको सरल शब्दोंमें व्यक्त करते हुए आचार्य जयसेन समयसार गाथा ७६ की टीकामें लिखते हैं तत एलदायाति पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य पुद्गलेन सह निश्चयेन कतकर्मभावो नास्तीति । इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्म को जाननेवाले जीवका पुद्गलके साथ निश्चयसे कर्त्ता-कर्मसम्बन्ध नहीं है। अतएव उन्हीं जयसेन आचार्यके समयसार गाथा ८२ को टीकामें आये हुए वचनोंके अनुसार यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्ररूपसे अपने कार्यका कर्ता है। बाह्य सामग्री तो उसमें निमित्तमात्र है। प्राचार्य श्रीका वह वचन इस प्रकार है । यथा यद्यपि समारो निमित्तं भवति तथापि निश्चयनयेन पारावार एवं कल्लोलान् करोति परिणमति च । यथा-वपि समोर निमित्त है तो भी निश्चानयरो समुद्र ही कल्लोलोंको करता है और कल्लोलरूप परिणमता है। आचार्य विद्यानन्दिने तत्त्वाश्लोकवातिक पृ० ५५ में 'मापि सहकारिकारणमुपादानसमयसमकालल्वाभावात् ।' यह वचन लिखकर यह प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक उपादानके काल में ही उसके परिणमनके राम्मख होनेपर उसकी सहकारी सामग्री होती है। इसलिए यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्यकी अपने नियत उपादानके साथ अप्रिाप्ति और मियत बाह्य सामग्रीके साथ बाह्य व्याप्ति होने के कारण जगतका प्रत्येक परिणमन क्रमान नुपाती ही होता है। तभी तो आचार्ग विद्यानन्दिका तत्त्वार्थश्लोकवातिक ५०७६ में प्रतिपादित यह वचन मुमुक्षु जनोंके हृदय में श्रद्धाका विषय बना हुआ है Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयपुर (खानिया) तत्वचर्चा प्रस्यासन्नमुक्तीनामेच मन्यानो दर्शनमोहमतिपक्षः सम्पद्यते नान्येषाम्, कदाचित्कारणासविधानात् । आसन्न भव्य जीवोंको ही दर्शनमोहका प्रतिपक्षाभल सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, अन्य जीवोंको नहीं, क्योंकि नियत कालको छोड़कर अन्य कालमें कारणोंका मिलना सम्भव नहीं है। १०. परिणामाभिमुख्य पदका अर्थ इसी प्रसङ्ग में अपर पक्षने तस्वार्थवातिकका 'यथा मृदः स्वयमन्तधंदभवनपरिणामाभिमुख्ये' इत्यादि वचनमें आये हुए 'परिणामाभिमुख्प' पदका अर्थ करते हुए लिखा है कि 'मवि मिट्टीमें घटरूपसे परिणमन करनेकी योग्यता हो तो दण्ड, चक्र और कुम्भारका पुरुषार्य आदि एट निर्माणमें मिट्टी के वास्तविक रूपमें सहायकमात्र हो सकते हैं और यदि मिट्टी में घटरूपसे परिणमन होनेकी योग्यता विद्यमान न हो तो निश्चित है कि दण्ड, चक्र और कुम्भारका पुरुषार्थ आदि उस मिट्टीको घट नहीं बना सकते हैं अर्थात् उक्त दण्ड, चक्र आदि मिट्टोमें घट निर्माणको योग्यताको कदापि उत्पन्न नहीं कर सकते है। नादि, आगे इसो विषयको स्पष्ट करते हुए अपर पक्षने लिखा है कि-राजवार्तिक के उक्त कथनमें पठित 'आमिमुख्य' शब्द सामान्य रूपसे पट निर्माणको योग्यताक्रे सद्भावका हो सूचक है । इसी तरह उसमें पठित 'निहस्सुकन्दादमी पाणपसे घट निर्माणको योग्यताके अभावका ही सुचक है। यही कारण है कि घटोत्पत्ति होनेको योग्यताके अभाव में कार्योत्पत्तिके अभाघकी सिद्धिके लिए राजवातिकके उक्त कथनमें 'शर्करादिप्रचिती मृपिण्डः' पद द्वारा बालुका मिश्रत मिट्टीका उदाहरण श्रीमदकलंकदेवने दिया है । यदि उनकी दृष्टि में यह बात होती कि उपादानकारणता तो केवल उत्तरक्षणवर्ती कार्यरूप पर्यायसे अव्यवलितपूर्व क्षणवर्ती पर्यायमें ही होती है और उससे कार्य भी नियमसे हो जाता है तो फिर उन्हें (श्रीमदकलंकदेवको) घट निर्माणको योग्यता रहित बालुकामिश्रित मिट्टीका उदाहरण न देकर कार्योत्पत्तिसे सान्तरपूर्ववर्ती द्वितीयादि क्षणोंकी पर्यायोंमें कशंचित रहनेवाली घटनिर्माणको योग्यतासम्पन्न मिट्रीका ही उदाहरण देना चाहिए था। लेकिन चूंकि श्रीमदकलंकदेवने बालुका मिश्रित मिट्टीका हो उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें कि घट निर्माणको योग्यताका सर्वथा ही अभावं पाया जाता है । सो इससे यही मानना होगा कि राजवातिक के उक्त कथन में जी 'आभिमुख्य' शब्द पड़ा है उसका अर्थ घट निर्माणकी सामान्य योग्यताका सद्भाव हो सही है। इसी प्रकार उसी कथनम पड़े हुए 'निरुत्सुकत्व' पाब्दका अर्थ घट निर्माणको सामान्य योग्यताका अभाव ही सही है।' आदि ये अपर पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गई प्रतिशंकाके दो अंश है। इनमें आर पक्षने परिणामाभिमुण्य' पदका अर्थ योग्यता किया है जबकि इस पदका अर्थ परिणाम अर्थात् पर्यायकी सन्मुखता होता है । इस परके पूर्व 'अन्तः घटभवन' पद भी आया हुआ है जिसका अर्थ 'भीतरसे घटके होने रूप' होता है। इससे रूपष्ट विदित होता है कि आचार्य भट्टालंकदेवने उपस पदका अर्थ भीतरसे घट पर्यायकी सन्मुखता किया है। पता नहीं कि अपर पक्षने 'परिणामाभिमुख्य' पदका अर्थ योग्यता कैसे किया है। इस सम्बन्ध अपर पक्षका कहना है कि यदि भट्टाकलंकदेवको 'परिणामाभिमुख्य' पदका अर्थ पर्यायकी सन्मुखता इष्ट होता तो वे तत्वार्यवातिकके उक्त स्थनमें शर्करादिप्रचिती मृस्पिष्ट उदाहरण उपस्थित न कर घटसे पर्ववर्ती सान्तरपयायोका निर्देश करते, किन्तु अपर पक्ष यहाँ इस बातको भल जाता है कि भट्टाकलंकदेवने यह उल्लेख हो बाप सामग्नोमें निमित्तमात्रताको सूचित करनेके लिए लिपिबद्ध किया है। घटको जो पूर्ववर्ती सान्तर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ચક पर्यायें हैं उनके होने में कुम्भकार आदिको निमित्तता तो है ही और वे घटके प्रागभावरूप हैं । अतएव आचार्य महाराज कुम्भकारादिमें निमित्तमात्रताको सिद्ध करने के लिए अन्योन्याभावको ध्यान में रखकर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे है । बालु बहुल मिट्टोका पिण्ड यद्यपि द्रव्यदृष्टिसे घटरूप होनेकी योग्यता रखता है, क्योंकि जैसा दूसरा मिट्टीकर पिण्ड है वैसा ही यह भी मिट्टीका पिण्ड है, परन्तु बालुकात्रहुल मिट्टी के निण्डमें घट होनेकी पर्याय योग्यता नहीं है और यही कारण है कि भट्टाकलंकदेवने बाह्य सामग्री में स्पष्टरू से निमित्तमात्राको सूचित करने के लिए बालुबहु मिट्टी के पिण्डको उदाहरण बनाया है। वे इस उदाहरणद्वारा यह सिद्ध कर रहे हैं कि यदि उपादानगत योग्यता के रहने पर केवल बाह्य सामग्रीके बलसे घटादि कार्यो की उत्पत्ति मानी जाय तो बालुका बहुल मिट्टी में भी बाह्य सामग्री के बलसे घटको उत्पत्ति हो जानी चाहिए । किन्तु ऐसा नहीं होता | इससे स्पष्ट विदित होता है कि प्रत्येक कार्यमें बाह्य सामग्री निमित्तमात्र है । ष्ट कि इस उल्लेख द्वारा बाचार्य महाराज यही सूचित कर रहे हैं कि जब प्रत्येक द्रar frit विवक्षित कार्यकी अनन्तर पूर्व पर्यायी भूमिका में आता है तभी वह उस कार्यका उपादान बनता है । व्यवहारनयसे बाह्य सामग्री में कारणता स्वीकार को जाय यह दूसरी बात है, परन्तु निश्चयनयसे तो स्वयं मिट्टी भीतरसे घट भवन के सम्मुख होकर घटती है विवाद किया जाय तो स्वयं घर अपने अवयवोंसे निष्पन्न होता है, अन्य किसीसे नहीं यह सुनिश्चित है। इस तथ्यको ध्यान में रखकर भट्टाकलंकदेव तत्वार्थवार्तिक अध्याय १ सूत्र ३३ में ऋजुसूत्रनयको अपेक्षा विवेचन करते हुए लिखते है -- कुम्भपर्यायसमये च स्वावयवेभ्यः एव निर्वृतेः । · और घट पर्याय समय में घट अपने अवयवोंसे हो निवृत्त होता है । इसी प्रसंग में अपर पक्षने उपादानकारणका विचार करते हुए जो अन्तमें मिट्टोको घटका उपादानकारण बतलाया है और साथ ही कालको उदाहरणरूप में प्रस्तुत करके जो घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष आदिको वास्तविक सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है सो इस सम्बन्ध निवेदन यह है कि आगम में व्यवहार कथन और निश्वय कथन इस तरह दोनों प्रकारसे विवेचन दृष्टिगोचर होता है। उनसे जो निश्चय कथन है वह यथार्थ है और जो व्यवहार कथन है वह उपचरित है। मिट्टोको घटका उपादान कहा जाय । इतना ही क्यों ? यदि कोई गुद्गकको घटका उपादान कहना चाहता है तो इसमें हमें आपत्ति नहीं। किन्तु जब उपचरित और अनुप बरितको दृष्टिसे विचार किया जाता है तब निश्चयसे घटके अध्यवहित पूर्वपर्याय युक्त मिट्टी हो घटका उपादान कारण होगी, अन्य नहीं । हो, यदि व्यवहारनयका अवलम्बन लेकर योग्यताको दृष्टिसे विचार किया जाता है तो मिट्टी तो घटका उपादान कहलायेगी ही और वह मिट्टी भी घटका उपादान कहलायेगी जो बालुकाल है । इतना ही क्यों वे सब पुद्गल घटके उपादान कहलायेंगे जो घटक योग्यतासे सम्पन्न हैं । यही बात कालके विषय में भी जान लेनी चाहिए। समय यह काल की पर्याय है। जैसे जीत्रकी एक समयको पर्याय क्रोध या क्षमारूप होती है वैसे ही समय भी कालको एक पर्याय है। यह वास्तविक है, किन्तु उसके बाद जो निमिष, घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह और पक्ष आदिका व्यवहार होता है वह उपचरित है । यह इससे स्पष्ट है कि भारतीय परम्परामें कोई पक्ष १४ दिनका होता है और कोई पक्ष १६ दिनका भी । इसी प्रकार लगभग ढाई वर्ष निकल जानेके बाद अधिकमास आता है और कभी-कभी क्षयमाल भी आता है | पश्चिमीय सम्पता में प्रत्येक वर्षका फरवरी २९ दिनका होता है । अब राष्ट्रीय पञ्चाङ्गकी व्यवस्था बनी है । उनके अनुसार कालगणनाको कोई सरल पति सोचो गई है । सो ये सब स्वयं वास्तविक तो नहीं ५८ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा है, मात्र लोकव्यवहार के लिए इन सबको स्वीकृति मिली हुई है। इमीका नाम उपचरित है । अपर पक्ष यदि इन सब तथ्योंपर दृष्टिपात करनेकी कृपा करे तो उसे विवाद करनेका पत्रसर ही न मिले । एक समय पर्यायका उषय होने पर दूसरी समय पर्यायका उत्पाद होता और दूसरी समय पर्यायके व्यय के बाद तीसरी समयपर्यायका उत्पाद होता है । प्रथम समयमें कालकी जो समयपर्याय होतो है वह दूसरे समयमैं नहीं रहती और दूसरे समय की तीसरे समयमें नहीं रहती। प्रत्येक समयकी ये समय पर्याय यथार्थ है। मात्र प्रत्येक समयका ज्ञान करानेफे लिए पंचास्तिकाय गाथा २५ की आचार्य अमृत चन्द्रकृत टीक में यह कहा गया है कि-'परमाणुनचलनायत समय:--परमाणुके गमनके आश्रित समय है सो इसका अर्थ यह नहीं कि वह परमाणु के गमनके आधीन होकर उत्पन्न होता है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि एक परमाणको एक प्रदेश परसे दुसरे प्रदेश पर मन्दगतिसे जानेमें जितना काल लगता है, एक समयका उतना परिमाण है और इसी आधार पर इसे व्यवहारकाल कहा है। जो कालकी एक पर्याय होनेसे सद्भुतम्यवहाररूप ही है। किन्तु दो समयसे लेकर अन्य जितनी कालको गणना है वह काल द्रव्यमें वर्तमान अर्थात पर्यायहासे सद्भुत न होने पर भी लोको व्यवहार पदवोको प्राप्त है, इसलिए वह असद्भुतत्र्यवहार ही है। अपर पक्षने क्षायोपशमिक मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका प्रश्न उठाकर यह लिखा है कि 'वस्तुको समयवर्ती अखंड पर्यायको ग्रहण करने में सर्वथा असमर्थ ही रहा करते है। इन ज्ञानीका विषय वस्तुको फमसे कम अन्तर्मुहूर्तवर्ती पर्यायोंका समूह ही एक पर्यायके रूपमें होता है इस प्रकार इन जानों की अपेक्षा मिट्टी, पिण्ड, स्थास, कोश, कुदाल और घटमें उपायानोपादेय व्यवस्था असंगत नहीं मानी जा सकती है।' सो इस सम्बन्ध में यही निवेदन है कि यह जो अन्तर्मुहूर्तवती नाना पर्यायोंका समूह कहा गया है वह क्या एक समय में होता है या उत्पाद व्ययके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त लक नाना पर्याय होकर अन्तमें हम पर्यायोंका समूह ऐसा व्यवहार करते है, इसलिए यह व्यवहार तो असद्भुत ही है। हाँ, केवलज्ञान प्रत्यक वस्तुकी जो समयवर्ती एक-एक पर्यायको पृथक-पृथक् रूपसे जानता है सो कहाँ पर प्रत्येक पर्याय पर्यायार्षिक नयकी अपेक्षा निश्चयरूप होकर भी परम पारिणामिक भावको ग्रहण करनेवाले मिश्चयनमकी अपेक्षा सद्भुत व्यवहाररूप कही गई है। क्या इसे हमने कहीं अवास्तविक, उपचरित एवं कल्पनारोपित अतएव अवस्तुभत कहा है या लिखा है, जिससे कि यह आकाशकुसुम या स्वरविषाणके समान अवस्तु होकर केवलझानका विषय न बन सके। केवलज्ञान में जो जिस कालमें जिस रूप में अवस्थित है, रहे हैं, या रहेगे वे सब पदार्थ युगगत् झलकते हैं। बै यह अच्छी तरहसे जानते है कि इतने परमाणु अपने परिणमन द्वारा परणमते हुए स्ध पदवीको प्राप्त हुए हैं। केवलज्ञानकी महिमा क्षायोपशमिक शानोंकी अपेक्षा बहुत बड़ी है। यह आगमानुसारी हमारा मत है कि जिस प्रकार द्रव्य स्वयं सत् है, गुण भी स्वयं सत है उसी प्रकार प्रत्येक समय में होनेवाली पर्यायें भी स्वयं सत् है । यदि अपर पक्ष स्वयं इस बात का विचार करे कि हम किसको सद्भुत मानते हैं और किसको असद्भत तो उसकी ओरसे ऐसा आरोपात्मक कथन न होता । प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपनेमें, अपने लिये, अपने द्वारा, अपने बलसे अपनी पूर्व पर्यायसे निवृत्त होकर उत्तर पर्यायको जन्म देता है। मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी नीयोंको यदि प्रत्येक समयकी इन पर्यायोंका ज्ञान नहीं होता है तो इतने मासे उनका असद्भाव नहीं माना जा सकता । यदि उन्हें अन्तमहत अन्लमहतं बाद पर्यायोंकी विलक्षणताका ज्ञान होता है तो इतने मासे प्रत्येक अन्त महतके भीतर प्रत्येक समयकी पर्यायमें जो विलक्षणता आती है वह कार्यकारणपद्धतिसे आने के कारण वे उनके सद्भावको अस्वीकार नहीं कर सकते। किन्तु वे श्रुतके बलसे यही निर्णय करते हैं कि यह हमारे शानका दोष है कि हम प्रत्येक सययम होनेवाली पर्याय एवं उसके कारणकलागको नहीं जान पाते । प्रत्येक श्रुतज्ञानो जीव आगम और लोक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४५९ सम्मत पद्धतिसे यह जानकर कि किस उपादानसे कैसा बाह्य संयोग मिलने पर क्या कार्य होता है उसके उपक्रममे लगता अवश्य है । परन्तु उस कालमें उस उपादानभूत वस्तुसे वही कार्य होगा, यह नहीं कहा जा सकता। यहाँ उपादान शब्दका प्रयोग व्यवहार नयसे किया गया है। हमें दुख है कि अपर पक्ष स्वभावरूप और विभावरूप सभी पर्यायों की उत्पत्ति केवल निमित्तकारणोंसे माननेकी चेष्टा करता है। तभी तो उसकी ओरसे स्वभाव पर्यायरूग सम्यक्त्वकी उत्पत्ति निमित्त कारणोंस होतो हुई लिखी गई है । परन्तु चाहे स्वभावपर्याय हो या विभाषपर्याय उसकी उत्पत्ति स्वयं अपने से ही होती है, उसमें बाह्य सामग्री निमित्त हो यह दूसरी बात है । हम नहीं कहते कि केवली भगवानने देखा है गाव इसीलिए मिट्टीमें उससे विलक्षण पिण्ड पर्यायकी उत्पत्ति हुई हैं। वह तो मात्र ज्ञाता दृष्टा हूँ । उसमें स्वयं जो प्रत्येक समय में पर्याय होती है उसे भी वह जानता और देखता है और मन्त्र द्रव्यों में जो प्रत्येक समय में पर्यायें होती है उन्हें भी वह मात्र जानता और देखता है। जब यह अकाट्य नियम है कि मिट्टी कब किसको निमित्तकर गिण्डरूप पर्याय बनेगी, तब वह उसी समय अपनी सुनिश्चित बाह्य सामग्रीको निमित्तकर पिण्डरूप बनती है । यही आगमसम्मत पद्धति है । भारतवर्ष में अनेक लौकिक दर्शन प्रसिद्ध है। उनमें से कोई (बौद्ध) असत्से सतको उत्पत्ति मानते हैं, कोई ( ब्रह्मवादी ) एक सत्से मिथ्या जगतको उत्पत्ति मानते हैं, कोई ( न्याय-वैशेषिक ) सत्से उसमें असत् कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं, और कोई (सांख्य) सत्से सत् कार्यकी उत्पत्ति मानते हैं। इस प्रकार एकान्तका आग्रह करनेवाले ये विविध मान्यतावाले दर्शन हैं । किन्तु इन सबने इस तथ्यको एक स्वरसे स्वीकार किया है कि अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पदार्थ उपादान या समवायी कारण कहलाता है। इसलिए प्रकृतमें जो तत्वार्थवार्तिकका 'यथा मृदः ' इत्यादि वचन अपर पक्षने उद्धृत किया है सो उसका वही आशय समझना चाहिए जो हमारा अभिप्राय है, क्योंकि स्वयं आचार्य अकलंकदेव इसी ग्रन्थके अध्याय १ सूत्र २ में सम्यग्दर्शनकी चर्चा करते हुए लिखते है- स्वपरनिमित उत्पादो दृष्टो यथा घटस्योत्पादो निमित्तो दण्डादिनिमित्तश्च तथा सम्यग्दर्शनोत्पाद आत्मनिमिशः सम्यक्त्व पुद्गलनिमित्तश्च तस्मात्तस्यापि मोक्षकारणत्वमुपपद्यते इति ? सन्न, किं कारणं ? उपकरणमात्रस्वात् । उपकरणमार्ग बाह्यसाधनम् । स्त्र- परनिमित्तक उत्पाद देखा गया है, जैसे चटका उत्पाद मिट्टीनिमित्तक और दण्डादिनिमित्तक होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शनका उत्पाद आत्मनिमित्तक और सम्यक्त्व पुद्गलनिमित्तक होता है। इस लिए उसमें भी मोक्षकारणता बन जाती है ? यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व पुद्गल उपकरणमात्र है। बाह्य साधन नियमसे उपकरणमात्र है । यह आवायंदचन है जो उसी आशयकी पुष्टि करता है जिसका निर्देश उन्होंने 'यथा मृदः इत्यादि वचनमें किया है। ११. उपादानका सुनिश्चित लक्षण यथार्थ है अब हम प्रतिशंका के उस अंधापर विचार करते हैं जिसमें अपर पक्षने उपादानके सुनिश्चित लक्षणको सदोष बतलाने के अभिप्रायसे प्रतिशंकाको मूर्तरूप दिया | अवहित पूर्व पर्याययुक्त द्रव्यका नाम उपादान है इस लक्षणका सभी आचार्योंने निर्देश किया है, किन्तु इस लक्षण के आधार से अभ्यवहित पूर्व-पूर्व पर्याय उपादानता बनती जानेसे अपर पक्ष उसे सदोष मानता है। उसका कहना है कि 'जो मिट्टी परमाणुओं से बनी है उन परमाणुओं में एकरूपता स्वीकार करने से आगमविरोध उपस्थित हो जायेगा ।' किन्तु ऐसा स्वीकार करने पर भी आगमविरोध नहीं आता, क्योंकि बागममें प्रागभावका प्रागभाव इस प्रकार प्रागभाव ५. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( सानिया ) तत्वचर्चा अनादि सान्त स्वीकार किया है । पूरा उद्धरण पहले ही दे आये है । अतएव उसे यहाँ नहीं दे रहे हैं 1 किन्तु अपर पक्षने उपादानको अपेक्षा इस प्रश्नको यहाँ उपस्थित किया है, इसलिए आवश्यक समझकर उसका आशयमात्र यहाँ दे रहे है। उसमें बतलाया है कि कार्य के पूर्व अनन्तर परिणामस्वरूप उपादानको ही प्रागभाष कहते हैं। ऐसा प्रश्न होनेपर कि अनन्तर गर्द परिणाम स्वरूप रमादानको गाभार मान लेने से उसके पूर्व कार्य के सद्भावका प्रसंग उपस्थित होता है। समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि प्रागभायका विनाश ही कार्य है। अतएव उसके पहिले कार्यका सद्भाव नहीं स्वीकार किया है । तो उसके पहले उस कार्य की अपेक्षा क्या स्थिति रहती है इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य लिखते हैं कि प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस प्रकार पूर्व-पूर्व परिणाम सन्ततिके अनादि होनेसे उसमें विवक्षित कार्यरूपताका अभाव ही है। अन्त में निष्कर्षको फलित करते हुए आचार्य लिखते हैं कि इन सब प्रागभावोंकी सन्त तिमें से जब तक अन्तिम प्रागभावका अभाव नहीं हो जाता तबतक विवनित कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि अन्तिम प्रागभाषका अभाव होने पर ही विवक्षित कार्य होता है। सम्भवतः कोई यह शंका करे कि ऐसा माननेपर प्रत्येक परमाणुको भूतादि चतुष्टयरूप कैसे स्वीकार किया गया है सो उस प्रश्नका समाधान यह है कि यह प्रागभाव सन्तति अन्नाद होने से बहुत बड़ी है, अतएव उसके मध्य में कभी किसी परमापाको जलस्वरूप बननका, कभी उसी परमाणुको वायरूप बननेका और कभी उसी परमाणुको अग्निरूप बननेका भी अवसर आना सम्भव है, इसकी कौन वारण कर सकता है। इससे न तो उसकी भागभाव सन्तति में ही बाघा आती है और न ही वर्तमान जो उसका पुथ्वीरूप दिखलाई देता है इसमें हो बाधा आती है। परमाणुकी क्रममे होनेवाली पर्यायों में वे सब अवस्थायें सम्भव हैं। अथवा वर्तमान कालके पूर्व उक्त चारों प्रकारकी अवस्थाओंमेसे किसो परमाणुको मात्र पृथ्वीरूप, किसी परमाणुकी मात्र पृथ्वी और जलरूप, किसी परमाणुकी मात्र पृथ्वी, जल और अग्निरूप सथा किसी परमाणुक्री पृथ्वी, जल, असि और वायुरूप अवस्था होना भी सम्भव है। कोई एक नियम नन्छौं । जिसकी जब जैसी उपादान योम्म ताऐं रही होगी सब सनका अतीत कासमें वैसा परिणमन हा होगा। जो पारणमन हुआ होगा वह नियसक्रमसे ही हुमा होगा । अल्पज्ञानी जी, अनादि कालसे लेकर अबतक किसका क्या परिणमन हुआ होगा इसे भले ही न जान सके, परन्तु इतनेमात्रसे उस परमाणके नियतक्रमसे होनेवाले परिणमनमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । प्रतएव अपर पक्षकी ओरसे पंचास्तिकाय गाथा ७८ की आचार्य अमृतचन्द्र कृत टीकाको आधार बनाकर जो उपादानके उक्त लक्षणको सदोष बतलाया गया है वह ठीक नहीं है। प्राचार्य महाराज अपनी उक्त टोका में परमाणु की परिणमनसम्बन्धी इस विचित्रताका निर्देश करते हए स्वयं लिखते हैं ततः पृथिव्यन्तेजोवायुरूपस्य धातुचतुष्कस्यैक एवं परमाणुः कारणं परिणामवशात् । विचित्री हि परमाणोः परिणामगुणः क्वचित्कस्यचित् गुणस्य व्यकाम्यतटवेन विचित्रां परेपतिमादनाति । इसलिए पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप चार घातुओंका परिणामके कारण एक ही परमाणु कारण है, क्योंकि परमाणुका विचित्र परिणामगुण कहीं किसी गुणको व्यक्लाध्यक्तता द्वारा विचित्र परिणतिको - - It धारण करता है। यह वही आगम प्रमाण है जिसे अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में समझकर निर्दिष्ट किया है। किन्तु जैसा कि हम पूर्वमें बतला आये है उससे एक परमाणुके कालभेदसे पृथ्वी आदि अनेक अवस्थारूप परिणमन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६१करने पर भी उपादानके अव्यवहित पूर्व पर्याय युक्त द्रव्यरूप लक्षणके स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं उपस्थित होती । अपर पक्षकी ओर से यहाँपर अव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादानकारणतारूप सामर्थ्यको लेकर जो यह पृच्छा की गई है कि 'उक्त पर्याय उक्त प्रकारको सामर्थ्य के उत्पन्न होनेका कारण क्या है' और फिर Bora पूर्ववतित्वरूप धर्म बतलाकर यह लिखा है कि 'यह तो कार्य सापेक्ष धर्म है, अतः जब तक कार्य निष्पक्ष नहीं हो जाता तब तक उस अव्यवहित पूर्व पर्याय में कार्यव्यवहित पूर्व क्षणवतित्वरूप धर्म हो नहीं सकता है, इसलिए यदि कहा जाय कि कार्योत्पत्तिको स्वाभाविक अयोग्य योग्यता हो सामर्थ्य शब्दका वाक्य है तो फिर हमारा कहना है कि इस प्रकारकी सामर्थ्य तो निट्टोको कुशल, कोश, स्वाय Finger पर्यायों में तथा इनके भी पहलेको सामान्य मिट्टीरूप अवस्था में मी पायी जाती है, इसलिए घट कार्यके प्रति इन सबको उपादान कारण मानना असंगत नहीं है।' आदि । सो इस प्रश्नका समाधान यह है कि ऋजुसुमयको अपेक्षा मव्यवहित पूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादानकारणतारूप स्वरूप स्वतःसिद्ध है। यह इसका कार्य है और यह इसका उपादान कारण है ऐसा व्यवहार मात्र परस्परसापेक्ष हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र अपनी आवमीमांसा में लिखते हैंधर्म-धम्यविनाभावः सिद्धचत्ययोग्यदीक्षषा । न स्वरूपं स्वतो ह्येतत् कारकज्ञापकांगवत् ॥६५॥ धर्म और धर्मका अविनाभावपरस्पराशरूपसे सिद्ध होता है, स्वरूप नहीं, क्योंकि वह कारकांग और शायकांनके समान नियमसे स्वतः सिद्ध है ।।०५। इस प्रकार अव्यवहितपूर्व क्षणवर्ती पर्याय उपादान कारणतारूप स्वरूपके स्वतः सिद्ध हो जाने पर उससे पूर्व पूर्ववर्ती पर्यायोंमें वह कारणरूप धर्म आगम में किस रूप में स्वीकार किया गया है इसका विचार करना है। आगनमें इसका विचार करते हुए बताया है कि अभ्यवहत पूर्णक्षणवर्ती पर्याय युक्त द्रव्य मियय उपदानकारण है। समर्थ उपादान कारण इसीका दूसरा नाम है। तथा इससे पूर्व पूर्ववर्ती पर्यायुक्त द्रव्य व्यवहार उपादानकारण है। असमर्थ उपादान कारण इसका दूसरा नाम है। इसकी पुष्टि तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ ७१ के 'नादिसिद्धक्षणै:' इत्यादि वचनसे भली प्रकार हो जाती है। इसमें व्यवहार उपादानका स्वरूप बतलाते हुए उसे असमर्थ उपादान कारण कहा गया है और निश्चय उपादानका स्वरूप बतलाते हुए उसे समर्थ उपादान कारण कहा गया है | आचार्य महाराज इसी उल्लेख द्वारा इस बातको राष्ट्ररूपसे सूवन करते हैं कि जो समर्थ उपादान कारण होता है वह नियम अपने कार्यको जन्म देता है किन्तु जो असमर्थ उपादान कारण होता है उससे समर्थ उपादानम्य कार्यको उत्पत्ति नहीं हो सकती। अतएव इस कथनसे यह सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकारको उपादानता अभ्यवहत पूर्व क्षणवर्ती पर्यायुक्त द्रव्यमें होती है उस प्रकार की उपादानता इसके पूर्व उसमें कभी भी सम्भव नहीं है। इसलिए सभी बचाने निश्चय उदान कारणका एक मात्र यही लक्षण स्वीकार किया है जो युक्तियुक्त है। १२. परमाणु योग्यता आदिका विचार इसी प्रसंग अपने दो या दो से अधिक परमाणुओंके संयोगसे बनी हुई स्कल्परूप पर्यायकी चर्चा करते हुए लिखा है कि वह स्कन्ध नाना द्रव्योंके परहार मिश्रणसे ही बना हुआ है। अतएव मिट्टी Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ जयपुर (स्थानिया) तत्त्वचर्चा पाया जानेवाला मृतिका धर्म मिट्टीकी अपेक्षा स्वाभाविक होते हुए भी नाना उत्पन्न होने के कारण कार्य ही कहा जायेगा ।' यह अपर पक्ष के वक्तव्यका अंश है। इसमें अतर पक्षने मृतिका धर्म मिट्टोको अपेक्षा स्वाभाविक लाकर भी उसे नाना क्योंके मिश्रणसे उत्पन्न होने के कारण एक कार्यधर्म कहा है, किन्तु अपर पक्षका यह कथन आगमविरुद्ध होने से भ्रामक हो है, क्योंकि प्रत्येक परमाणु यदि स्कन्ध योग्यता और मिट्टीरूप परिणमने की योग्यता स्वाभाविक न मानी जाय और केवल उसे संयोग जन्य माना जाय तो कोई भी परमाणु अपनी स्वाभाविक योग्यता के अभाव में रूपया मिट्टी त्रिकालमें नहीं परिणम सकता । सत्यार्थवार्तिक अध्याय ५ सूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि परमाणु पूरणगल स्वभावकाला न होने के कारण उसे पुद्गल नहीं कहा जा सकता। आचार्य कलंकदेव इस प्रदनका समाधान करते हुए हैं कि पहले या भविष्य में वह पूरण-ल-२ अपेक्षा परमाणुको पुद्गल कहने में कोई बाधा नहीं आती । वह उल्लेख इस प्रकार है— अथवा गुण उपचारकल्पनम् पूरणगलनयोः मात्रित्वात् भूतवाच्च शस्यपेक्षया परमाणुवु पुड्गस्वोपचारः । पुद्गल यह वो परमाणु को पुल क्यों कहा गया इसका विचार है। आगे इस बातका विचार करना है कि पर माणु मिट्टीरूप शक्ति होने के कारण मिट्टी में मिट्टीरूप धर्म पाया जाता है या केवलमा लोके उसमें वह धर्म उत्पन्न होता है। आचार्य अमृतचन्द्र पंवास्तिकायको टोकामै शव्दकी अपेक्षा इसका विचार करते हुए लिखते हैं एवमुकगुणवृत्तिः परमाणुः शब्दस्पपरिणतिशक्तिस्वभावात् शब्दकारणम् । — ऐसा यह उक्त गुणवाला परमाणु शब्द स्कन्धरूप परिणत होने की शक्तिरूप स्वभाववाला होनेसे शब्दका कारण है । इससे स्पष्ट विदित होता है कि जिस प्रकार परमाणु शब्दरूप परिणमनको वक्तिले युक्त होता है उसी प्रकार इससे यह भी सिद्ध होता है कि वह मिट्टीरूप परिणमनकी शक्तियें भी यूज होता है। अतएव मिट्टी में पाया जानेवाला मूर्तिकार धर्म नाना स्कन्धों के परस्पर निधन ही उत्पन्न होता है ऐसे एकाको न स्वीकार करके उसे शक्तिकी अपेक्षा नित्व हो मानना चाहिए। साथ ही उसे जो एकान्तसे कार्यधर्म कहा गया है वह भी युक्त नहीं है, क्योंकि कोई भी द्रव्य किसी अवस्था में न तो केवल कार्य हो स्वीकार किया गया है और न केवल कारण ही अपने पूर्व पर्यायी अपेक्षा जो कार्य होता है. अपनी उत्तर पर्यायी अपेक्षा वह कारण भी होता है । इस दृष्टिसे विचार करने पर यह भी विदित हो जाता है कि लोंकी स्कन्ध] अवस्थामें जो जो पर्याय उत्पन्न होती है वे सब शक्तिरूप से परमाणु में विद्यमान हैं। यह प्रत्येक परमाणुका स्वतःसिद्ध स्वरूप है 1 अपर पक्ष के वक्तव्य पढ़ने से विदित होता है कि वह प्रत्येक परमाणु में ऐसी योग्यता तो मानता है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु या स्कन्धके साथ संयोगको प्राप्त होकर उरूप परिचम जाता है। किन्तु जिस जाति स्कन्ध रूप वह परमाणु परिणमा उस प्रकारकी शक्ति वह परमाणुमें स्वीकार नहीं करता इसका हमें आश्चर्य है 1 परमाणुमें घटरूप कार्यकी व्यवहार उपादानताका भी निषेध वह इसो अभिप्रायसे करता है । जो शक्ति मूल द्रव्यमें न हो वह उसके उत्तर कार्यों में उत्पन्न हो जाय, यह सम्भव तो नहीं है, परन्तु अपर पक्ष अपनी कल्पना में इसे मूर्तरूप देनेके लिए अक्षम हो सनख है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका और उसका स દૂર્ जहाँ बाह्य दृष्टिवालेको प्रत्यक्ष में ऐसा भासित होता है कि मिट्टी अपने माप घटरूप नहीं परिणम रहो है यहाँ भेद दृष्टियानेको यह मासित होता है कि कुम्हारकी क्रिया कुम्हार में हो रही हैं और मिट्टीको क्रिया मिट्टी हो रही है । यदि मिट्टीको क्रियामें कुम्हारकी क्रिया निमित्त है तो कुम्हारकी उस समय होनेवाली क्रिया में मिट्टी भी निमित्त है | अपर पक्ष कह सकता है कि कुम्हार अपनी हस्तादि क्रियाको मिट्टी अभाव भो करता है, इसलिए कुम्हार स्वयं अपनी क्रिया कर रहा है, मिट्टी उसमें निमित्त नहीं है । किन्तु बात ऐसी सो नहीं है, कि जैसो क्रिया मिट्टी के संयोग में उसकी होती है वैसी अन्य कालमें दिखलाई नहीं देती । फिर भी यदि विचारके लिए इसे स्वीकार कर लिया जाय तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उसका बाह्य कारण कौन ? यदि केवल कर्मोदयको उसका बाह्य कारण माना जाता है तो कर्मोदय भो एक कार्य है उसके बाह्य कारणका भी अनुसंधान करना होगा । किन्तु वहाँ अन्य कोई कारण तो दिखलाई देता नहीं सिवाय मिट्टी के, इसलिए यही मानना होगा कि उस समय मिट्टी में जो क्रिया हो रही है उसे निमितकर कर्मोदय हुआ और कर्मोदयको निमित्तकर कुम्भकारको बाह्य क्रिया हुई और अन्त में कुम्भकारको निमितकर मिट्टी में क्रिया हुई । इस प्रकार परस्पराश्रयता प्राप्त होनेसे अंत में यही मानना उचित है कि प्रत्येक द्रव्य अपनी क्रियाका स्वयं कर्त्ता है । अन्य द्रव्य तो उसमें निमित्तमात्र है। इसप्रकार प्रत्येक कार्य के साथ वाह्याभ्यन्तर सामग्रीका अन्वयव्यतिरेक अन जानेके कारण कार्य-कारण परम्परा सुव्यवस्थित बन जाती है । यह हम मानते है कि प्रत्येक व्यक्ति योग्य उपादान और योग्य बाह्य सामग्री के संयोगका विकल्प करता है, वाचित् योगक्रिया भी उसके तदनुकूल होती है । परन्तु इन दोनोंके करने पर भी जैसी वह चाहता है सबाह्याभ्यन्तर सामग्री वित्रक्षित कार्यके लिए मिलती ही है ऐसा कोई नियम नहीं । कदाचित मिलती है। और कदाचित् नहीं भी मिलती । यदि मिल भी गई तो जैसा वह चाहता है वैसा कार्य होता है इसका भी कोई नियम नहीं । कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है। सो क्यों ? इसके उत्तरकी यदि छानबीन को जाय तो अन्तमें यही स्वीकार करना पड़ता है कि जिस वस्तुका जिस कालमें जिसको निमित्त कर, जो परिगमन होना होगा, वह अवश्य होगा। जिसे हम करनेवाला कहते हैं और करानेवाला कहते हैं वह तो अपने अपने त्रिकल्प और योयक्रियाका ही घनी है । यदि अपर पक्ष इस निर्णय पर पहुँच जाय तो प्रकृत में उसने घर कार्यको विक्षितकर जितने भी विकल्प प्रस्तुत किये हैं उनको निस्सारता समझने में उसे देर न हमे । अपर पक्ष आगमसम्मत कार्यकारणभाव को ठीक न समझकर अपने द्वारा कल्पित किये गये कार्यकारणभाव सिद्धान्तको आगमसम्मत बतलाता अवश्य है, परन्तु प्रत्येक निश्चय उपादान में अनेक योग्यताऐं होती हैं उसमे जिस योग्यता के अनुकूल बाह्य सामग्री प्राप्त होती है या मिलापो जाती है उसके अनुसार उस समय कार्य होता है। न तो यह सिद्धान्त हमें वहीं आगम में दृष्टिगोचर हुआ और न ही यह सिद्धान्त हों आगम में दृष्टिगोचर हुआ कि यदि अव्यवहित पूर्व क्षणवती पर्यायके उपस्थित होने पर कारणान्तरोंको विकलता हो या बाधक सामग्री उपस्थित हो या दोनों उपस्थित हों तो कार्य नहीं होगा। हमने आगमको बहुत छानबीन की, किन्तु हमें यह सिद्धान्त मी दृष्टिगोचर न हो सका कि प्रत्येक द्रव्य में ऐसे भी परिणमन होते हैं जो स्वप्रत्यय हो होते हैं, उनमें कालादि द्रव्योंकी भी निमित्तता नहीं है। पर पक्ष इन सब सिद्धान्तोंको आगम सम्मत मानता है। किन्तु इनकी पुष्टिमें अभी तक वह कोई विधायक आगम उपस्थित करने में असमर्थ रहा। जहाँ स्वप्रत्ययकी प्रधानतासे विचार किया गया है उसे एकान्त से उस पक्ष ने स्वप्रत्यय स्वीकार कर लिया और जहाँ अन्य प्रकारसे विचार किया गया है वहाँ उसे उस प्रकार से स्वीकार कर लिया। यह उसके विचार करनेकी पद्धति है। पूरे जिनागम में एकरूपता उपस्थित हो इसकी ओर उसका ध्यान ही नहीं है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ जयपुर (खानिया) तश्वचर्चा बह प्रमंयमलमार्तण्डक " माह मानावात् थापच्यते' इन दोनों प्रमाणोंको स्वीकार हो सकता है, किन्तु उन प्रमाणों द्वाग जो तथ्य प्रगट किये गये हैं उन्हें निष्कर्षरूपमें स्वीकार नहीं करना चाहता । जब यह नियम है कि प्रत्येक कार्यम बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको सम्यग्रता होती ही है, उसमें अपवाद नहीं। ऐसी अवस्थामै प्रत्येक कार्यके सम्मुख व्यके होने पर 'यदि बाह्य सामग्रो न हो या बाधक कारण उपस्थित हो जायं इत्यादि प्रश्नोंको अवकाश ही कहाँ रहता। आचार्यों ने इन बातोंकी चर्चा को अबश्य है, पर वह बुद्धिद्वारा सुनिश्चित किया गया कारण ही कार्यके अनुमान ज्ञान में हेतु हो सकता है इस बातको ध्यान में रखकर ही की है। उक्त दोनों प्रमाणोंमें तो उक्त बातोंकी चर्चा ही नहीं है। जब प्रत्येक कार्य विशिष्ट पर्याययुक्त विशिष्ट धके होने पर अपनी प्रतिनियत बाह्य-सामग्रीको निमितकर होता है तो आगममें कोई दूसरी बात कही गई है और लोक में कोई दूसरी बात देखी जाती है ऐसा न होकर वस्तुस्थिति यह है कि प्रतिनियत कालमें ही प्रतिनियत कार्य होता है। तत्वार्थश्लोकवातिकके द्वितीय उद्धरणमें यही तथ्य प्रकाशमै लाया गया है। प्राचार्य विद्यानन्धो अष्टसहस्री पृष्ठ १११ में लिखते हैं तथा कारणकार्यपरिणामयोः कालप्रत्यास से रसत्वेऽनमिमतकालयोरिवाभिमतकालयोरपि कार्यकारणमावासवादुमयोनिरुपाण्यतापत्तिः। उसी प्रकार कारण परिणाम और कार्य परिणाममें कालप्रत्यासत्तिके नहीं होनेपर जैसे अनभिमत कालभावी दो पर्यायोंमें कार्यकारणभावका अभाव है उसी प्रकार अभिमत कालभाबी दो पर्यायों में भी कार्यकारणभावका अभाव होनेसे दोनोंका अभाव प्राप्त होता है । इससे स्पष्ट है कि जिस प्रकार अपर पक्ष जब निमित्त मिलते हैं तब कार्य होता है यह लिखकर विवक्षित कालमें ही विवक्षित कार्य होता है इसका निषेध करता है वैसा आगमका अभिप्राय नहीं है। श्लोकवासिकके द्वितीय उद्धरणमें 'दैव' पद इसो तपको सूचित करता है, क्योंकि उपादानके अपने कार्यरूप व्यापारके समय बाह्य सामग्रीका योग रहने का एकान्त नियम रहनेके कारण उक्त उल्लेख में उक्त पद्धतिसे उस तथ्यको प्रकाश में लाया गया है। हमने उन दोनों उद्धरणोंका जो आशय है वही लिया है। हम अच्छी तरहसे जानते है कि हमारे और आपके अभिप्रायमें जमीन आसमानका अन्तर है। जहाँ हमारा यह अभिप्राय है कि प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य समर्थ उपादान कारण होकर अपने प्रतिनियत कार्यको नियमसे जन्म देता है और उसके होने में प्रतिनियत बाह्य सामग्रीका योग नियमसे मिलता है वहाँ बापका यह अभिप्राय है कि प्रत्येक उपादान अनेक योग्यताओंवाला होता है, इसलिए उसे जैसी बाह्य सामग्रोका सानिध्य मिलता है वैसा कार्य होता है । उस उपादानसे कौन कार्य हो यह बाह्य सामग्रीपर अवलम्बित है । पुमा फिराकर अनेक प्रकारसे माप अपने अभिप्रायको लिपिबद्ध कर रहे हैं पर उन सबका आशय पूर्वोक्त ही है। अपने आशयके नुरूप उसकी पुष्टिम स्पष्ट प्रमाण न मिल सकनेके कारण ही अपर पक्षको मह प्रयास करना पड़ रहा है। इस प्रकार हमारे और आपके कथनमें जो भेद है वह स्पष्ट है। आगे अपर पचने हमें लक्ष्पकर लिखा है कि 'दण्ड, चक्र, आदिमें निमित्तता उसी समय स्वीकार की गई है जब मिट्टी घट पर्यायके परिणमनके सन्मुख होती है, अन्यकालमें वे निमित्त नहीं स्वीकार किए गये हैं। इस विषयमें हमारा कहना यह है कि कुम्हार, दण्ड, चक्र आदिमें घटके प्रति निमित्त कारणताका अस्तित्व उपादानताभूत वस्तुकी तरह नित्य शक्तिके रूपसे तो पहले ही पाया जाता है, क्योंकि कार्योत्पत्तिके रा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६५ लिए उपादानभूत वस्तु के संग्रहकी तरह निमित्तभूत वस्तुका भी लोक में संग्रह किया जाता है।' किन्तु अपर पक्षका यह लिखना कल्पनामात्र है, क्योंकि कुम्हार सदा कुम्हार नहीं बना रहता, इसी प्रकार दण्डादिक वस्तुऐं भी सदा ही उस पर्यायरूपसे नहीं रहती हैं। उपादान- उपादेयभाव एक द्रव्यमें स्वीकार किया गया है, इसलिए उसमें द्रव्यामि नयसे पहले भी उपादानता शक्तिरूपमें स्वीकार की गई है, किन्तु यह स्थिति बाह्य सामग्री नहीं है। यही कारण है कि तत्वार्थवार्तिक अध्याय १ सूत्र ३३ में जब कुम्हार शिविका आदि पर्यायोंके होने में निमित्त हो रहा है तब उसे कुम्हार कहनेका निषेध करते हुए लिखा है कुम्भकाराभावः शिचिकादिपर्यायकरणे तदभिधानाभावात । कुम्भपर्यायसमये च स्वावयवेभ्य एव निर्वृतः । कुम्भकारका अभाव हैं, क्योंकि शिविका आदि पर्यायोंके करते समय उसे कुम्हार शब्द नहीं कहा जा सकता | और कुम्भपर्याय के समय में अपने अवयवोंसे ही वह ( कुंभ ) निर्वृस हुआ है। इरासे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी वस्तुमें अन्य द्रव्यके कार्य करने निमित्त कारणता नामका धर्म नित्य शक्तिरूपसे नहीं पाया जाता। यह केवल व्यवहारमात्र हैं। यदि अपर पक्ष घटनिर्माणके पहले भी कुम्हार शब्दका प्रयोग करना चाहता है तो भले करे, हम भी ऐसा प्रयोग करते हैं। परन्तु वह लोकपरिपाटीमात्र है। जयधवला पुस्तक ७ पृष्ट ३१३ में इसी श्राशयको स्पष्ट करते हुए लिखा भी है पाचओ भुंजइति णिग्वा वारावस्थाए वि किरियाणिभित्तवसुत्रलंभादो | जैसे पाचक (रसोइया) भोजन करता है, यहाँ पाचनक्रिया के अभाव में भी क्रियानिमित्तक पाचक शब्द उपलब्ध होता I हमें आशा है कि अपर पक्ष उक्त उल्लेखोंके प्रकाश में बाह्य वस्तुमें निमित्त बहारको यथार्थं न मानकर उसे उपचरिव स्वीकार कर लेगा । यहाँ अपर पक्षने बड़ी संजीदगी के साथ खेद व्यक्त करते हुए जो यह लिखा है कि 'आगमके वचनोंका अभिप्राय विल्कुल स्वाभाविक ढंग से आगम के दूसरे वचनोंके साथ समन्वयात्मक पद्धतिको अपनाते हुन् प्रकरण आदिको लक्ष्यमें रखकर वाक्यविन्यास, पदोंकी सार्थकता ग्रन्थकर्ताकी विषमजा, साहित्यिक ढंग और भाषा पाण्डित्य आदि उपयोगी बातोंको लक्ष्य में रखकर ही ग्रहण कीजिए, अन्यथा इस तरहको प्रवृत्तिका परिणाम जैन संस्कृति के लिये आगे चलकर बड़ा भयानक होगा जिसके लिए यदि जीवित रहे तो हम और आप सभी पछतायेंगे । किन्तु इन शब्दों में तो नहीं, सुस्पष्ट और मधुर शब्दों में इस विषय में हम अपर पक्ष से यह निवेदन कर देना चाहते हैं कि आवेशमें न आकर वह अपने शब्दों पर स्वयं ध्यान दे। यदि उसके मनमें सचमु समन्वयको भावना है तो उसे निश्चय और व्यवहारके जो लक्षण आपस में स्वीकार किये गये हैं उन्हें ध्यान में रखकर प्रतिनियत कार्यका प्रतिनिधत उपादान स्वीकार करके कार्य कारणभावको संगति बिटला लेनी चाहिए, इससे उत्तम और दूसरा समन्वयका मार्ग क्या हो सकता है। यह आगमानुमोदिन मार्ग है । केवलज्ञान के विषयसे श्रतज्ञान विषयको भिन्न बतलाकर लौकिक मान्यताओंको आगमरूपसे स्वीकार करानेका अभिप्राय रखना यह कोई समन्वयका मार्ग नहीं है। ५९ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( स्वानिया ) सस्वचर्चा आगे अपर पक्षने हमारे कायनको स्वीकार करते हुए अन्त में जो यह लिखा है कि 'किन्तु हम आपके समान ऐसा भी नहीं मानते कि कार्य निमित्तको अपेक्षा रहित केवल विशिष्ट पर्यायशक्तिसे युक्त पशक्ति मात्र ही उत्पर थे जाया करता है तथा ऐसा भी नहीं मानते कि सहकारी कारणकी सापेक्षताका अर्थ केवल इतना ही होता है कि सहकारी कारणको उपस्थिति वहां पर नियमसे रहा करती है, उसका वहाँ कभी अभाव नहीं होता। हम तो ऐसा मानते हैं कि एक तो उस पर्यायशक्तिकी उत्पत्ति सहकारी कारणोंके सहयोगसे हो होती है, दुसरे पूर्व पर्यायशक्ति विशिष्ट व्यक्ति मिमित्तोंका वास्तविक सहयोग मिलने पर ही उत्तर पर्याबरू कार्यको उत्पन्न करती है और फिर उस उत्तर पर्यापशक्तिपिदिशष्ट द्रन्यशक्ति भी यदि निमित्तों का अनुकूल सहयोग मिल जाये तो उस उत्तर पर्यायसे भो उत्तर पर्यायको उत्पन्न कर देती है तथा यदि अनुकूल निमित्तोंका सहयोग प्राप्त नहीं होता तो वर्तमान पर्यायशक्तिसे विशिष्ट द्रव्यशक्ति उस पर्यायसे उत्तर क्षणवर्ती विवक्षित पर्यायको उत्पन्न करने में सर्वदा ही असमर्थ रहेगी। फिर तो उससे उसी कार्यको उत्पत्ति होगो जिसके अनुकूल उस समय निमित्त उपस्थित होंगे।' आदि । वह अपर पक्षका कार्यकारणभावके विषय में वक्तव्य है। बोद्धदर्शन विधिको सिद्धि स्वभावहेतु और कार्यहेतु इन दोको ही स्वीकार करता है, कारणहेतुको गमक नहीं मानता। उसका कहना है कि फारणका कार्य के साथ अधिनाभाव न होने के कारण वह उसकी सिद्धिका हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि जितने भी कारण होस है वे नियमसे कार्यवाले होते हो है ऐसा कोई नियम नहीं है। जिसको सामथ्र्य अप्रतिबद्ध है ऐसा कारण तो कार्यका नियमसे गमक होगा ऐसा कहना भो ठीक नहीं, क्योंकि सामर्थ्य अतीन्द्रिय होता है, इसलिए उससे किस कार्यको जन्म मिलेगा इसका ज्ञान करना अशक्य है। यह बौद्धदर्शनका बक्तब्ध है। इसीके उत्सरस्वरूप आचार्य माणिक्यनन्दिने अपने परीक्षामुख अ० ३ में 'रसादेकसामम्यनुमानेन' इत्यादि ५६ संखपाक सूत्र लिपिबद्ध कर यह कहा है कि ऐमा कारगरूप हेतु अपने कार्यका गमक होता ही है जो अप्रतिबद्ध सामर्थ्याला हो तथा कारणान्तरीको विकलवासे रहित हो। इसको टीका करते हुए लघु अनन्तवीर्य लिखते हैं न झनुकूलमात्रमन्यक्षमप्राप्तं वा कारणं लिङ्गमिष्यते येन मणिमन्त्रादिना सामर्थप्रतिबन्धाकारणातरचकल्येन वा कार्यव्यभिचारिण्यं स्यात, द्वितीयक्षणे कार्य प्रत्यक्षीकरण मानमानानर्थक्यं वा कार्याविना'भावितया निश्विास्य विशिष्ठकारणस्य छन्त्रावलिंगनांगीकरणात् । यत्र सामाप्रतिबन्धःकारणान्तरावैकल्यं निश्चीयते तस्यैव लिंगल्यं नान्यस्येति नोकदोषः । हम अनुकूलमात्र (लक्षणवाले) कारणको या अन्त्यक्षगान (लक्षणवाले) कारणको लिंग अर्थात साध्य. को सिद्धि हेतु नहीं करते जिससे कि मण-मन्त्रादिक के द्वारा सामथ्र्यका प्रतिबन्ध होनेसे अथवा कारणातरीको विकलता होनेसे यह (विवक्षित) हेतु कार्य (विवक्षित कार्य) के साथ व्यभिचारीपनको प्राप्त हो अथवा द्वियीय क्षण कार्यके प्रत्यक्ष करनेसे अनुमानको व्यर्थता हो, क्योंकि हमने कार्यके साथ अबिनाभावरूपसे निश्चित विशिष्ट कारणरूप छत्राधिकको लिंगरूपसे ( अनुमानज्ञानमें हेतुरूपसे) स्वीकार किया है। जिसमें सामर्थ्यका अप्रतिबन्ध और कारणान्तरोंका अवकल्प निर्णीत होता है उसके लिंगपना (अनुमानज्ञानमें हेतुपना) है, अन्यके नहीं, इसलिए प्रकृ तमें उक्त दोषका प्रसंग नहीं प्राप्त होता। लोकमें और आगममें प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणोके साथ अनुमानज्ञान भो प्रमाणरूपसे स्वीकार किया गया है। इसमें जिस बस्तुका ज्ञान किया जाता है वह परोक्ष होता है और जिसको हेतु बना कर शान किया जाता है वह वस्तु इन्द्रियप्रत्यक्ष होती है। ऐसी स्थितिम यदि हमें इस मिट्टोसे अगले समय में क्या कार्य होगा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६७ इसका ज्ञान करना है तो हमें सर्व प्रथम साधनभूत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके ऊपर दृष्टिपात करना होगा, इसके बिना इस उपादानसे अगले समय में क्या कार्य होगा यह अनुमान नहीं कर सकते। इसी तथ्यको आचार्य ने उक्त टोकावचन द्वारा स्पष्ट किया है। बाह्य सामग्रो द्वारा परोक्षभून कार्यका निर्णय करने के लिए उनका कहना है कि वहाँ पर एक तो वही बाह्य सामग्री होनी चाहिए जिससे परोक्षभूत निश्चित कार्यकी सूचना मिले, उससे विरुद्ध कार्यको सूनित करनेवाली बाह्य सामग्री वहाँ पर नहीं होनी नाहिए। दुरारं वहाँ पर उपस्थित बाह्य सामग्रीसे परोक्षभत जिस कार्यको सूचना मिलती हो उगमें कमी नहीं होनी चाहिए । इस प्रकार तो कारणको हेतू बना परोक्षत कार्यका अनुमान करनेवाला व्यक्ति सम्बक प्रकारले बाह्य सामग्रोका विचार करले । और इसी प्रकार वह जिस आम्पन्सर सामग्रीको परोक्षभूत कार्य की अन्त्यक्षण प्राप्त आभ्यन्तर सामग्री रामझ रहा है उसका भी विचार कर ले। यहां ऐसा न हो कि है तो वह अन्य कार्यको अन्त्यक्षणप्राप्त सामग्री और अपनो बुद्धिसे वह समझ बैठा है उससे भिन्न दूसरे कार्यको अन्त्यक्षण प्राप्त सामयी। इस प्रकार बाहा-आमगन्तर सामग्री के आधार पर परोक्षभूत कार्यका अनुमान करनेवाला व्यक्ति यदि परोभून कार्यको अविनाभून बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको ठीक तरहसे जान सका तो निश्चित समहिए कि ऐसो सामग्रीको हेतु बनाकर परोक्षभूत तदनुरूप जिस कार्यका अनुमान किया जायगा वह यथार्थ हो ठहरेगा। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि प्रत्येक कार्यकी बाह्याभ्यन्त र सामग्री सुनिश्चित है। वह प्रत्येक समबमें युगपत् प्राप्त होती रहती है, उसके प्राप्त होने में किसी प्रकारको बाधा नहीं आती। यही कारण है कि प्रत्येक रामवमें अपनी-अपनो बाह्याभ्यन्तर सामग्री के अनुरूप कार्यकी उत्पत्ति होती रहती है । बाह्याम्पतर राामग्रीको हेतु बनाकर परोपक काका अनुमान का हित दुई प्रकारको सामग्रीके आधार पर निर्णय करने की दिशामें प्रयत्न करना अन्य बात है और वहाँ पर उपस्थित हुई राम प्रकारको सामग्री में से परोक्षभत कार्यके साथ अधिनाभाव सम्बन्ध रखनेवाली सामग्रीको जानकर उसके आधार पर अगले समयमें नियमसे उत्पन्न होनेवाले कार्यका अनुमान कर लेना अन्य बात है। वस्तुत: उक्त टीकावचनम कार्यकारणभावका विचार नहीं किया गया है। वहाँ तो परोक्षभूत कार्यका अनुमान करते समय जिस बाह्याम्प्रन्तर सामग्रीको हेतु बनाया जाय उसका विचार कितनी गहराईरो करना चाहिए मात्र इसका विचार किया गया है। तभी तो आचार्यने निष्कर्षरूपमें यह वचन लिखा है-कार्याविनामानितया निश्चितस्त्र विशिष्ट कारणस्य छनादेलिंगत्वेनांगीकरणात् । तात्पर्य यह है कि जिस कारणका जिस कार्यके साथ अविनाभाव सम्बन्ध है, यतः उससे उसी कार्यकी उत्पत्ति होगी अतः ऐसा सुनिश्चित कारण ही परोक्षभूत कार्यका अनुमान करानेमें साधन बन सकता है, अन्य नहीं यह उक्त सपन ऋधनका तात्पर्य है । ___आर पश्च अनुमान प्रकरणकी इस मीमांसाको कार्य-कारणभावकी मीमांमाम वसे ले गया और उस आधार पर उसने असंगत अनेक तर्कणाऐं उपस्थित कर उसे जटिल कैसे बना दिया इसका हमें आश्चर्य है। कार्य-कारणका विचार करना अन्य बात है और विवक्षित कार्यका अनुमान करते समय किम स्थितिमें कौन कारण हेतृ हो सकता है इसे समझना अन्य बात है। इससे कार्य-कारणभावकी नियत शृखलामें कहां बाधा उपस्थित होती है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। अनुमान करने की दृष्टिसे कोई कार्य अपनी विवक्षामें हो और बाह्यभ्यन्तर सामग्री दूसरे कार्यको उपस्थित हो, फिर भी हम उससे भिन्न किसी दूसरी सामग्नोको देखकर विवक्षित कार्यका अनुमान करें तो हमारा अनुमान ज्ञान हो असत्य सिद्ध होगा, इससे नियत कार्यकारणपरंपरामें आंच आनेबाली नही । स्पष्ट है कि उक्त दीकाको ख्यालमें रख कर यहां पर अपर पक्षने कार्य कारणभावके सम्बन्ध में जो कुछ भी लिखा है वह केवल भ्रम उत्पन्न करने का एक प्रयासमात्र हो है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६सास सस यह फालत होता का ४६८ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा हमने अपने पिछले उत्तरमें लिखा है कि 'गेहूँ पर्यायविशिष्ट पुद्गल तथ्य बाह्म कारण सापेक्ष गेहूंके अंकगदि कार्यरूपसे परिणत होता है। इस पर अपर पक्षका कहना है कि 'यह यदि बद्धिनमसे न लिख कर बुद्धिपूर्वक ही लिखा है तो इससे तो कार्य के प्रति निमित्तकारणको सार्थकताका ही समर्थन होता है ।' आदि । किन्तु हम यहाँ पर यह रूपए कर देना चाहते हैं कि हमारे उक्त वाक्यके आधारसे अपर पक्षने यहाँ पर जो कुछ मा अभिप्राय व्यक्त किया है वह स्पाय नही है..कि जो उक्त वचन मात्र द्रव्ययोग्यताको उपादान माननेवाले अपर पक्ष के इस मतका निरसन करने के अभिप्रायसे ही लिखा है। यदि अपर पक्ष सक्त वचनके आधारसे यह फलित करना चाहता है जैसा कि उसकी औरसे फलित किया गया है कि गेंहूँ पर्याय विशिष्ट सभी पुद्गल द्रव्य अंकुरमै लेकर आगेके कार्योंके उपादान हैं तो उसके द्वारा उक्त वाक्यके प्राधारसे ऐसा फलित किया जाना भ्रमपूर्ण है, क्योंकि यहां पर 'अंकूरादि' पदमें आया हा. 'आदि पर प्रकारवाषी है। इसलिए इससे यह | गेहूँ जिस समय जिस पर्यायके सन्मुख होता है उस समय वह उसका उपादान होता है, अन्यका नहीं। बागमका भी यही अभिप्राय है और हसी अभिप्राय को ध्यान में रख कर उक्त वचन लिखा गया है। कोठेमें रखा हुआ गेहूँ इसलिए अंकुरको उत्पन्न नहीं करता, क्योंकि उम मामय वह अंकुरका उपादान न होकर अन्य कार्यका उपादान है। वस्तुतः बाह्य सामग्री अंकुरको उत्पन्न करने में अकिचिकर है। न रही बाह्य कारण सापेक्षताको बात सो इस वचन द्वारा मात्र व्यवहार ( उपचरित ) पक्षको स्वीकार किया गया है। जिस समय गेंहूँ अंकुरको उत्पन्न करता है उस समय उसके बाह्य सपकरण कसे होते है यह बात उक्त वचन द्वारा स्पष्ट की गई है, क्योंकि बाह्य सामग्री उपकरणमात्र है ऐमा आचार्यों का भी अभिप्राय है 1 उपकरणमाय हि बाझसाधनम् (तत्त्वार्धतिफ अ० १ सू० २) । प्राय सामग्री उपादानकी क्रिया करके चसमें उसके कार्यको उत्पन्न कर देता है ऐमा यदि अपर पक्ष सहायकका अर्थ करता है तो वह आगम, तर्क और अनुभव सबके विरुद्ध है, क्योंकि एक द्रब्य अपनी सत्ताको लापकर दूसरे द्वन्धको सत्तामें प्रवेश करे यह सर्वथा असम्भव है। अपर पक्षने 'पृद्गलरूप पशक्ति हो पर्वाप विशिष्ठ होकर गेहूँरूप पर्यायको उत्पन्न करती है। इसे हमारी मान्यता बतलाकर उसका खण्डन करते हुए अपने अभिप्रायकी पुष्टि करनी चाही है। किन्तु वह सब कथन पूर्वोक्त कथनके प्रकाश में सुनरां खण्डित हो जाता है, क्योकि एक द्रव्यका कार्य दूसरे द्रव्यके सहयोगसे होता है यह जपचार वचन है जो केवल दोनोंकी कालप्रत्यासिको सूचित करता है। तभी तो आचाय कुन्दकुन्दने व्यवहारमयसे आत्मा पृद्गल फर्म को करता है इस कथनको सदोष इतलाते हुए सगयसार गाथा ८५ में उसका निरसन किया है। हमने अपने पिछले उत्तर में लिखा है कि 'गेहूँ पुद्गल द्रव्य की एक पर्याय है। किन्तु आर पक्षने इसे भी अपनी टोक का विषय बनाया है । हम उसके उत्तरस्वरूप इतना ही संकेत कर देना चाहते हैं कि गेहूँ एक पुद्गल द्रव्यको पर्याय है ऐसा न तो हमने लिखा है और न है ही। आगमके अनुसार वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक पद्गल परमाणुमें स्कन्धरू होने की योग्यता है, इसलिए वे 'अधिकादिगुणानां तु' सिद्धान्त के अनुसार स्कन्धरूप परिणम कर मेहेल्प व्यंजनपर्यायानेको स्वयं प्राप्त होते है। अपर पक्षने यहाँ पर किसी बहाने संयोगकी चरचा करते हुए तथा अग्नी दृष्टिसे कार्यकारणभावके वास्तविक आघारको बसलाते हुए अन्त में यह निष्कर्ष फलित किया है कि 'घटरूप कार्यक उत्पन्न करने में Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४६९ मिट्टी पुद्गल की पर्यायरूपसे कारण नहीं बन रही है, किन्तु स्वयं एक पौगलिक द्रव्यरूपसे ही बन रही है' आदि। महावर अपर पक्षने अपने उक्त अभिप्रायको ध्यान रखकर जो कुछ भी लिखा है यह केवल योग्यताको उपादान माननेपर आनेवाली आपत्तिका वारण करने के लिए लिखा है। हमारी तरफसे यह आपत्ति उपस्थित की गई थी कि यदि उपादानका अर्थ इव्ययोग्यता करके बाह्य-सामग्री बलपर प्रत्येक कार्यको उत्पत्ति मानी जाती है तो बनाने की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। स्पष्ट है कि अपर पक्ष अपने प्रस्तुत कथनद्वारा उसी शपतिका परिहार करणे पेष्टा कर रहा है और अपने इसी अभिप्रायको पुष्टिके लिए उसके द्वारा मिट्टी आदि स्कों को अवस्थित मानकर अनादि-अनन्त सिद्ध करके नित्य भी सिद्ध किया गया है किन्तु अपर पका है यह सब कथन भ्रमोत्पादक ही कारण कि एक तो मिट्टी आदि पुद्गल न तो सदा एक समान बने रहते हैं, उनमें प्रति समय अगणित गये परमाणुओंका संघात और पुराने परमाणुओंका भेद होता रहता है। दूसरे उनमें जो मिट्टी आदिरूपसे अन्य प्रतिभासित होता है उसका मुख कारण सवृषा परिणाम हो है, अन्य धर्म नहीं तीसरे जो वर्तमान में मिट्टी आदिरूप है यही कब अपने संवाद और भेदभाव के कारण जलादिरूप भी परिणम जाता है। यह अनुभव आता है कि जो वर्त मानमें गेहूँरूपये प्रति समय परिणम रहा है वही मनुष्यादिद्वारा मुक्त होने के बाद बात बनकर बना आदि भी परिणम जाता है, इसलिए मिट्टी आदि नरके अपने पक्षका समर्थन करना ठीक नहीं है। चाहे परमाणुरूप ही या उनकी स्कन्ध पर्याय मिट्टी वि उनसे उत्तरकालमें जो भी कार्य होता है वह असाधारण उपयोग्यता और प्रतिविशिष्ट पर्यायोग्यता इन दोनोंके योग में ही होता है और इसके आधारपर उनके प्रत्येक समयके कार्य विभाजन होता जाता है। खानमें पड़ी हुई मिट्टी दूसरे समय में या अन्तर्मुहूर्त आदि कालक अन्य किसी परिणामरूप हुए विना मात्र घटपर्याय को ही उत्पन्न करे तब तो यह कहना शोभा देता है कि मिट्टी पुद्गल द्रव्यकी पर्यायरूपसे कारण नहीं बन रही है, किन्तु स्वयं एक पौद्गलिक द्रव्यरूपसे ही बन रही है। मिट्टी स्वयं पुद्गल दृश्य नहीं है, किन्तु अनन्त पुद्गल द्रव्योंकी स्कन्धरूप एक पर्याय है, अतः वह प्रतिसमय सदृश परिणामद्वारा प्रतिविशिष्ट पर्याय होकर ही उत्तर कार्यकी उत्पत्ति में कारण बनती है और यही कारण है कि उससे जायमान उत्तर कार्योंमें मिट्टी व्यव हार गौण होता जाता है। साथ हो जैसे पुद्गलसे जायमान सबका गुद्गलकर अन्वय देखा जाता है उस प्रकार मिट्टी से परिणाम प्रजायमान तब कार्योंमें मिट्टीका अम्बद नहीं देखा जाता। पुद्गल अन्य किसी परिणामको नहीं उत्पन्न करता है, क्योंकि उससे जो मोय होती है वही होतो है, किन्तु यह स्थिति मिट्टीकी नहीं है। यही कारण है कि मिट्टी आदिको स्वतन्त्र द्रश्यन स्वीकार कर लोंकी मात्र स्कन्धरूप पर्याय स्वीकार किया है। स्पष्ट है कि मिट्टी की जो घटको उत्पत्ति में कारण कहा गया है वह प्रत्येक समय के सदृश परिणामवश हो कारण कहा गया है, अन्य धर्मके कारण नहीं। सदृश परिणाम अभ्यय धर्मका व्यवहार करना यह उपचार है। प्रयोजनवश आचार्योंति भी ऐसे व्यवहारको स्वीकार कर कथन किया है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु वहाँपर उनका दृष्टि इसारा पदविका ज्ञान कराना मात्र रही है उस परसे अपने गलत अभिप्रायको फलित करना उचित नहीं है कम्पों आचार्य कुन्दकुन्द यह व्यवहार है इसे स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय में लिखते हैंबादर-सुडुमगाणं संभागं विवहारो । ते होंति उप्पारा तेस्रोस्कं जेहिं निष्पणं ॥ ७६ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० यादर और सूक्ष्मरूप तीन लोक निष्पन्न हूं ॥७६॥ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा परिणत स्कन्धोंको पुद्गल कहना यह व्यवहार है। वे छः प्रकारके हैं जिनसे यह आचार्य श्मन है। इससे स्पष्ट है कि मुगलोंके पर्यायरूप निर्वाचित स्कन्धको पुल कहना यह कथन जब कि व्यवहार हैं ऐसी अवस्था में मिट्टीको पौद्गलिक य मानकर मिट्टीरूप व्ययोग्यताको घटोत्पत्ति में कारण कहावत तो ठहरेगा ही। यहाँ सर्वप्रथम मिट्टी में पुद्गला हारकर मिट्टीको सर्वा पुद्गल स्वीकार किया गया है और फिर इस आधार मिट्टी में विद्यमान मृतिकात्यरूप पर्या द्रव्ययोग्यतारूपसे नित्य मानकर घटकार्य में द्रव्ययोग्यताको कारण कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि अपर पका यह समस्य कथन व्यवहार नयको मुख्यतासे ही किया गया है, अपर अपर पक्षने जितना भी विवेचन किया है वह सब व्यवहार कथन ही है, यथार्थ कथन नहीं ऐसा जानना चाहिये । अगर पक्षने यहाँ पर यह भी लिखा है कि 'खानसे लेकर भट बनने तक मिट्टीकी सत्र अवस्थाएँ कुम्भकारके व्यापार के अनुसार ही हुआ करती है' किन्तु यहाँ पर प्रश्न यह है कि मिट्टीको उन अवस्थाओंको उत्पन्न कौन करता है-कार या स्वयं मिट्टी ? यदि करता है यह कहा जाय तो परिणामी परिणाम अभिन्न होने के कारण मिट्टीकी सव अवस्थाओं और कुम्भहारमें अभेद प्राप्त होता है। यदि मिट्टी स्वयं कर्ता होकर अपनी पर्यायोंको उत्पन्न करती है यह कहा जाय तो कुम्भकारके व्यापार के सहयोग से स्नानरो लेकर घट बनने तक के मिट्टी के सब कार्य होते हैं इसका क्या तात्पर्य है यह स्पष्ट होना चाहिए | क्या उक्त कथनका यह वात्पर्य है कि कुम्मकारके व्यापार के अभाव में मिट्टी के उक्त कार्य नहीं होते या कुम्भकारके व्यापारके द्वारा मिट्टी के उक्त कार्य होते हैं ये दो प्रश्न हैं? इनमें से प्रथम पक्ष तो इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि कुम्भकारका व्यापार कुम्भकारमें होता है और मिट्टीका व्यापार मिट्टी में होता है, एकके व्यापार में दूसरे व्यापारका सर्वथा अभाव है। इस दृष्टिसे यदि यह कहा जाय कि खानसे लेकर घट बनने तक मिट्टीने जितने भी कार्य किये हैं वे सत्र निश्चयसे परनिरपेक्ष ही किये है तो इसमें कोई अत्युक्ति न होकर यथार्थता ही है। कुम्महार भले ही मिट्टी में कार्य करने का विकल्प करे और अपना योगव्यागार करे। मिट्टीको तो उसकी खबर भी नहीं। वह तो मात्र अपने-अपने कालमें होनेवाले व्यापारमें रत रहती है, क्योंकि प्रत्येक समय में अपना व्यापार करना यह उसका स्वभाव है। ऐसा नियम है कि कोई किसीके स्वभावको बना नहीं सकता । यदि कहा जाय कि मिट्टोको भले ही खबर न हो, कुम्भकारको हो खबर है कि मेरे द्वारा अमुक प्रकारका व्यापार करनेपर गिट्टीको अमुक प्रकारले परिणमना ही पड़ेगा तो इसपर प्रश्न यह है कि कुश्शार कभी भी किसी भी प्रकारसे उसे परिणमा सकता है या उसके अमुक प्रकार से परिणमनेका काल आनेपर वह उसे उस प्रकारसे परिणमाता है ? प्रथम गक्ष के स्वीकार करने पर तो सभी ग्योंके सभी परिणमन न केवल पराधीन प्राप्त होते हैं, अपितु उनके परिणमनेकर कोई क्रम नियत करना भी कठिन हो जाता है। इतना ही क्यों ? यदि एक अन्य दूसरे में किसी भी समय किसी भी प्रकारके परिणामको उत्पन्न कर सकता है तो वह उस दूसरे द्रव्यको अपने रूप बना ले अर्थात् जसको चेतन बनाने ऐसा स्वीकार करने में बाधा हो क्या रह जाती है इसका अपर पक्ष विचार करे। यदि अवर पक्ष कहे कि जड़को चेतन बनाना दूसरो बात है और दूसरे द्रव्यमें किसी भी समय किसी भी प्रकार परिणामको उत्पन्न कर देना दूसरी बात है । तो इसपर हमारा कहना यह है कि प्रत्येक द्रव्य में Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान जो पर्याय उत्पन्न होती है वह द्रव्यसे कथंचित अभिन्न होने के कारण द्रव्य होती है, इसलिए जब कि दूसरा द्रव्य दूसरे द्रव्यमें कभी भी और किसी भी परिणामको उत्पन्न कर सकता है तो उसे नये दध्यके उत्पन्न करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। इसपर यदि अपर पक्ष कहे कि जिस द्रव्यमें जिस कालमें जो परिणाम होना होता है उस कालमें यही परिणाम होता है इसमें सन्देह नहीं पर उसे उत्पन्न करती है सहकारी सामग्री हो, क्योंकि वह स्वयं उत्पन्न होने में राधा असमर्थ है । तो इसपर हमारा कहना यह है कि वह सहकारी सामग्री दूसरे द्रव्यमें उस परिणामको कैसे उत्पन्न करती है, उसके भीतर घुसकर उसे उत्पन्न करती है या बाहर रहकर ही उसे उत्पन्न कर देती है ? भीतर घुमना तो सम्भव नहीं, क्योंकि एक द्रव्य के स्वचतृष्टयका दूसरे द्रव्य स्वचतुष्टयमें कालिक अत्यन्ताभाव है। सहकारी सामग्री बाहर रहकर दूसरे द्रव्यमे कार्य कर देतो है यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि सहकारी सामग्री जब कि दूसरे द्रवपसे सर्वथा पृथक् बनी रहती है तो फिर वह उसमें उसका कार्य कैसे कर सकती है अर्थात नहीं कर सकती। इसलिए प्रकृतमें अपर पक्षको यही स्वीकार कर लेना चाहिए कि जड़ या चेतन प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य करने में स्वयं समर्थ है, इसलिए जिस कार्यका जो काल है उस कालमें वही कर्ता बन कर अपने में उसे उत्पन्न करता है । अन्यके द्वारा कार्य होता है या अन्य दूसरेको उत्पन्न करता है, ग्रहण करता है, छोड़ता है या परिणमाता है यह सब व्यवहारकथन है । आगममें यह कथन प्रयोजन किया गया है और प्रयोजन है इष्टार्थका ज्ञान कराना, क्योंकि जिसे सहकारी सामग्री कहते है उसके कार्यके साथ उपादानके कार्यको अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्य बाह्य व्याप्ति है अर्थात् दोनोंक एक काल में होने का नियम है, इसलिए इसे कल्पनारोपित नहीं कहा जा सकता। यदि उपचरित कथनको अपर पक्षके मतानुसार कल्पनारोपित अर्थात चंड खानेको गप मान ली जाय तो जगत्का समस्त व्यवहार नहीं बन सकेगा। फिर तो श्री जिन मन्दिर में जा कर देवपूजा करना भी कल्पनारोपित मानना पड़ेगा, क्योंकि प्रतिमा स्थापना तो अपर पक्षके मतानुसार कल्पनारोचित ठहरो, फिर उसके आलम्बनसे पूजा कैसी? यदि कोई किसीको पत्र लिखे तो लिख नहीं सकता है, क्योंकि व्यवहार के लिए जो उसका नाम रखा गया है वह तो कल्पना रोपित है। ऐसी अवस्था में माम लेकर किसी को पत्र लिखना व्यर्थ हो ठहरेगा। अपर पक्षको उपचरित कथनको कल्पनारोपित लिखते समय थोड़ा जमलके इन समस्त व्यवहारोंका विचार करना चाहिए 1 इतना तो हम निश्चयपूर्वक लिख सकते है कि अपर पक्षने यहाँ पर कुम्भकार और मिट्टीको आलम्बन बनाकर जो कार्य-कारणभाव का रूपक उपस्थित किया है वह मात्र एकान्तरूप प्ररूपणा होनेसे कल्पनारोपित अवश्य है। परन्तु जिनागममें निश्चय-व्यवहारका पृथक्करण कर जो प्ररूपणा की गई है वह किसी भी अवस्थामें कल्पनारोपित नही हैं। अतः कोई भी कार्य किसी दूसरेके सहारे पर नहीं होता है ऐसा निश्चय यहाँ करना चाहिए। दूसरे के सहारेका कथन करना मात्र व्यवहार है जो उपचरित होनसे यथार्थ पदवीको नहीं प्राप्त हो सकता। प्रत्येक द्रव्य स्वयं सत् है और द्रव्यका लक्षण है गुण-पर्यायवाला, इसलिए द्रव्यके स्क्यं सत् सिद्ध होने पर गुण और पर्याय भी स्वयं सत् सिद्ध होते है । यतः पर्याय व्यतिरेकी स्वभाववाला है, अत: जिस पर्याय का जो स्त्रकाल है उस काल में उसे परनिरपेच स्वयं सत् हो जानना चाहिए, अन्यथा प्रध्य और गुणोंका अस्तित्व ही नहीं बन सकता। इसलिए अपर पक्षका यह लिखना कि 'कार्योत्पत्ति के लिए उपादानको तैयारो निमित्तोंके बल पर ही हुआ करती है।' आगमबिरुद्ध ही समझना चाहिए । वस्तुतः कोई किसीकी तैयारी नहीं करता, एक द्रव्यमे जिसके बाद जो होता है उसे उपादानकारण कहते है और होनेवालेको कार्य कहते Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा है तथा उस कार्यकी जिसके साथ बाह्य व्याप्ति होती है उसे सहकारी कारण कहते हैं और होनेवालेका कार्य कहते हैं । भेद विषचामें प्रथम कथन सद्भुत व्यवहारनयका विषय है और दूसरा कथन असद्भूत व्यबहारनयका विषय है। ___ अपर पक्षने कायोंका विभाजन करते हुए उसे तीन प्रकारका बतलाया है-षड्गुणो हानिवृद्धिरूप परिणमनको ELELरणमन व परिणमन में परा मानना पक्षको ही स्वीकार करता है. व्यवहार पक्षको नहीं स्वीकार करता, यतः यह एकान्तकथन है. इसलिए इसे आगमसम्मत नहीं माना ज टूरारं प्रकारके कार्योंमें वह धर्मादि चार द्रव्यों के परिणमनोंका अन्तर्भाव करता है। इन्हें बह स्थ-पर प्रत्यय परिणमन लिखकर उनका नियत क्रमसे होना मानता है। किन्तु जब कि यह घटादि कार्योका अनियत क्रमसे होना मानता है और उनकी निमित्तताइन द्रव्योंके परिणमनों स्वीकार करता है तो न तो इनका नियत क्रामसे होना ही बन सकता है और न हो ये परिणमन स्व-परप्रत्यय होने के कारण स्वभावपर्याय संशाको ही प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि आगममें 'स्व-परप्रत्यय' पदमें 'पर' शब्द ऐसी निमित्तव्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री के अर्थ में आता है जो विभावपर्यायके होने में निमित्त है। अतएव धर्मादि द्रव्योंके परिणमनोंको स्वपरप्रत्यय लिखना आगम परम्पराके विरुद्ध होनसे इस कथनको भो आगमसम्मत नहीं माना जा सकता। तीसरे प्रकारके कार्समें वह घटादि कार्योको परिगणना करता है। किन्तु ये सब कार्य अपने-अपने कार्यकाल में प्राप्त होनेवाले प्रायोगिक और वासक निमित्तोंको प्राप्तकर स्वयं होते रहते हैं। न तो उपादानकारण कार्योंकी प्रागभावरूप अवस्थाको छोड़कर अन्य काल में बनता है और न ही बाह्य सामग्री भी अन्य कालमें निमित्त व्यवहार पदवीको प्राप्त होती है। इन दोनोंके एक साथ होनेका सहज योग है, इसलिए जिस कालमें घटादिरूप जो कार्य होता है वह अपने-अपने कालका उल्लंघन कभी नहीं करता। व्यतिरेकिण: पर्यायाः' इस नियमके अनुसार अपनी-अपनी सीमाके भीतर सभी पर्यायोंमें ध्यतिरेकीपना आगममें स्वीकार किया गया है। केवल विभावपर्यायोंमें ही व्यतिरेकीपना होता हो ऐसा आगमका अभिप्राय नहीं है। अतएव इन्द्रियगोचर पूर्व पर्यायोंको अपेक्षा उत्तर पर्यायोंमें यदि कुछ विलक्षणता दष्टिगोचर होती है तो उसे उस द्रव्यका ही कार्य समझना चाहिए, बाह्म सामग्रीका कार्य नहीं। स्पष्ट है कि प्रकृति में अपर पक्षने इस सम्बन्ध जो कुछ भी लिखा है वह आगमका आशय न होनेसे इसे भी आगमसम्मत नहीं माना जा सकता। इस सम्बन्धमें विशेष विचार पूर्वमें किया ही है। आगे अपर पक्षने तत्त्वार्थवार्तिक ०५ सू० १७ वार्तिक ३१ के आधारसे यह सिद्ध करनेका प्रयल किया है कि निमित्तोंका समागम उपादानकी कार्यरूपसे परिखत होनेकी तैयारी हो जाने पर हो ही जाता है ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता है, किन्तु यह तथा आगमके और दूसरे प्रमाण यही बसलाते हैं कि सपादानको जब निमित्तांका सहयोग प्राप्त होगा तभी उपादानकी नित्य द्रव्यशक्ति विशिष्ट वस्तुको जिस पर्यायशक्ति विशिष्टताको आप तैयारी शब्दसे ग्रहण करना चाहते है वह तैयारो होगी और तभी कार्य हो सकेगा।' यह अपर पक्षका वक्तव्य है। इसे ध्यानमें रखकर हम उस प्रमाणकी छानबीन कर लेना चाहते है। तत्वार्थवातिकका उक्त प्रकरण धर्मद्रव्य और अधर्म द्रष्यके अस्तित्वको सिद्धिका है। प्रत्येक कार्य स्वकालमें होता है इसकी सिक्षिके उपाय दो है-अम्पन्तर साधन और बाह्य साधन 1 अभ्यन्तर साधन प्रत्येक व्यका स्वलक्षण-आत्मभूत साधन हुआ करता है और बाह्य साधन परलक्षण-अनात्मभूत साधन हुआ करता है। प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अपना कार्य करे और उसका आत्मभूत साधन उस समय न हो यह आगमश किसी Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान કર भt fasti समझ में आने योग्य बात नहीं हैं। जिसे यहाँ पर प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय कार्यका साधनभूत स्वलक्षण कहा है उसका प्रत्येक समय में होना ही उसकी तैयारी है। इसके सिवा किसी भी विवक्षित कार्यको अपेक्षा अन्य जितनी तैयारी की जाती है यह विकल्पका विषय है। यह वो प्रत्येक द्रव्यके स्वलक्षणभूत अन्तरंग साधनको गोमांस है। बाह्य साधनके यह मीमांसा है कि प्रत्येक व्यके प्रत्येक समय में अपनेअपने कार्यके सन्मुख होने पर उसका मनात्मभूत लक्षणरूप बाह्य साधन नियमसे होता है । बाभ्यन्तर साधन हो और बाह्य साधन न हो यह भी नहीं है, तथा अन्तरंग साधन हो और कार्य न हो यह भी नहीं है। प्रत्येक समय में अन्तरंग - बहिरंग साधनों की वृति नियमसे होती है और इसे जिस कार्यके होनेकी सूचना freती है यह कार्य भी नियम होता है। अपर पक्षका कहना है कि 'उपादानकी अपने कार्य अनुकूल होने पर भी यदि निमित्तका सहयोग नहीं मिलता तो कार्य नहीं होता । किन्तु उसका यह कथन विकी अपेक्षा है या प्रत्येक द्रध्यक प्रत्येक समय होनेवाले परिणामको अपेक्षा है इसका उस पक्ष की ओरसे कोई खुलासा नहीं किया गया है। यदि विवक्षाको अपेक्षा उक्त कथन है तो यह मान्यताको बात हुई, इसका प्रत्येक प्रत्यके प्रत्येक समय होनेवाले क्रियालक्षण या भावलक्षण परिणामये बोई सम्बन्ध नहीं है। दूसरा व्यक्ति चाहता है कि इस शक्करका बने। इसके लिए वह अपने विकल्पोंके अनुसार उपाय योजना भी करता है, बाह्य परिकर भी उसकी इच्छानुसार प्रवतंग करता हुआ प्रतीत होता है किन्तु उस शक्करको यदि किसी कालावविके मध्य लड्डू रूप नहीं परिणमता है तो उसकी इच्छा होकर भी विलीन हो जाती है इच्छा किसी कार्य के होने में निमित्त अवश्य है किन्तु मे होनेवाले परिणाम के साथ यदि उसका मेल बैठ जाय तो ही निमित्त है, अन्यथा नहीं। इसलिए मिया के आधार पर यह सोचना कि 'उपादानकी अपने कर्मके अनुकूल तैयारी होने पर भी यदि निमितका सहयोग नहीं मिलता तो कार्य नहीं होता।' कोरी कल्पना है। 15 । यदि प्रत्येक द्रव्य में प्रत्येक समयमें होनेवाले परिणामकी अपेक्षा अपर पक्षका उक्त कथन हो तो उसे श्रागमका ऐसा प्रमाण उपस्थित करना चाहिए था जी अपर पक्षके उक्त अभिप्रायको पुष्टिमें सहायक होता । किन्तु आगमकी रचना अपर पक्षके उक्त प्रकारके विकल्पकी पुष्टिके लिए नहीं हुई है, वह तो प्रत्येक पके स्वरूप उद्घाटन और कार्य कारणभाव के सुनिश्चित लक्षणोंके निरूपण मे चरितार्थ है। यह आगम ही है कि अनन्त र पूर्वोसर दो क्षणोंमें ही कारण कार्यभाव देखा जाता है ( प्रमेवरत्नमाला ३, ५७ ) । यतः प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य करता ही है, उसे उस समय अपना कार्य करने के लिए बाह्य-सामग्रीको प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, क्योंकि उसके अनुकूल बाह्य सामग्रीका उपस्थित रहना अवश्यंभावी है, इसलिए प्रत्येक प्रयमें प्रत्येक समय में होनेवाले परिणामको ध्यान में रखकर अपर पक्षका यह सोचना कि 'उशदानकी अपने कार्यके अनुकूल तैयारी होनेपर भी यदि निमित्तोंका सहयोग नहीं मिलता तो कार्य नहीं होता ।' कल्पनामात्र हूँ । ले जिस आशयको फलित अपर पक्ष तत्त्वार्थदार्तिक के ( अ० ५ ० १७ वा० ३१) करने की कल्पना करता है वह उमत उल्लेख अभिप्राय नहीं है। उस द्वारा श्री मात्र बाह्य साधनको पुष्टि की गई है, क्योंकि जब यह आगम है कि प्रत्येक कार्यमें वाह्य और आभ्यन्तर उपाधिमता होती है। ऐसी अवस्था में प्रत्येक कार्यमें आभ्यन्तर साधनके समान वाह्य साधनको स्वीकार करना भी आवश्यक हो जाता है। आचार्य समन्तभद्रने मोक्षमागोंके लिए यद्यपि आभ्यन्तर साधनको पर्याप्त कहा है ( स्वयंभूस्तो० ६० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा का० ५६ )पर वह उपयोग किसका आलम्बन लेना मोक्षमार्गी के लिए अत्यावश्यक है इस अपेक्षा से कहा है । आचार्यने निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका परिहार बहीपर भी नहीं किया है। विवक्षा में प्रयोजनवश एकको गौण करना और दूसरेको मुरूष करना अन्य बात है और एकके द्वारा सिद्धि मानकर दूसरेका निषेध करना अन्य बात है । वाह्य दृष्टिवाले मिध्यादृष्टि जीव सदा बाह्य साधनका लिए रहते है और 1 उनसे लौकिक तथा पारमार्थिक कार्योंकी सिद्धि मानते हैं। आचार्य कहते हैं कि बाह्य आलम्बन तो संसार परिभ्रमणका कारण है, मोक्षमार्गी के लिए वह स्वभावानुकूल आत्मपुरुषार्थ जागृत करने में सहायक नहीं । यदि वह यथार्थ में अपने जीवन में मोक्षमार्ग या मोक्षकी प्रसिद्धि करना चाहता है तो उसे अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावका अवलम्बन लेना हो पर्याप्त है। उसे बाह्य साधनोंकी उठाधरीके त्रिकल्पसे बचना ही होगा, तभी उसमें मोक्षकार्यकी प्रसिद्धि सकती है, अन्यथा नहीं 1 अपर इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थवार्तिकके उक्त उल्लेख के आधारसे जो आशय फलित किया है वह अपर पकी कोरी मनकी कल्पना है। जब प्रत्येक कार्य बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकारके साधन हैं तो प्रत्येक कार्य में उन्हें स्वीकार करना लाजिमी हो जाता है । यही तस्वार्थवार्तिकके उक्त उल्लेखका आशय है । प्रसंगसंगत होनेसे हम यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि बहुगुणी होनि वृद्धिरूप परिणमन मात्र स्वप्रत्यय होता है यह कथन यद्यपि आगम-विरुद्ध है फिर भी इस आगम-विरुद्ध कथन के उत्थापन के कार्यका साहस जैसे अपर पक्ष कर सकता है और इस प्रकार बाह्य साधन सामग्री बिना ही वह केवल उपादानके बलसे घोषणा करता हुआ तत्त्वार्थवातिके उक्त उल्लेखका उल्लंघन करता हुआ भी नहीं डरता, सचमुच में वैसा राहिय करना हमारे यूतेके बाहर है। हमें निश्वय पक्ष के समान व्यवहार पक्षका पूरा ध्यान है और इसलिए हम निश्चय और व्यवहार पक्षका वही अर्थ करते हैं जी आगमको इष्ट है, कल्पनाके ताना-बाना बुनना हमारा कार्य नहीं । १३. असद्भूत व्यवहारनयका स्पष्टीकरण इसी प्रसंग अगर पक्षने असद्द्भूत व्यवहारनयका भी विचार किया है। उसका कहना है कि 'नय वही हो सकता है जिसका विषय सद्भूत हो | अद्भूत अर्थको ग्रहण करनेवाला नय ही नहीं हो सकता । यदि नय अद्भूत अर्थको भो विषय करता है तो उसके द्वारा आकाशकुसुम या गधे के सींगका भी ग्रहण होना चाहिए | यतः कोई भी नय आकाशकुसुम या गधेके सींगको नहीं ग्रहण करता अतः प्रत्येक नय सद्भूत अर्धक ही विषय करता है इसे स्वीकार कर लेना चाहिए।' लगते इस विषयकी पुष्टिमें उस पक्ष की ओरसे द्रव्याथिक नयकी अपेक्षा द्रव्य कथंचित् नित्य है और पर्यायादिकनयको अपेक्षा द्रव्य कथंचित् अनित्य है यह उदाहरण उपस्थित किया गया है। किन्तु अपर पक्ष इस बातको भूल जाता है कि प्रत्येक द्रव्यमें रहनेवाले नित्यत्व और अनित्यत्व धर्म जहाँ सद्भूत है वहीं दो द्रव्योंके आश्रयसे प्रयोजनवश स्वीकार किये गये निमित्तत्व और नैमित्तिकत्व धर्म सद्भूत नहीं हैं, क्योंकि एक द्रव्यके धर्मको दूसरे द्रव्य में सत्स्वरूप स्वीकार करनेपर उसमें दूसरे द्रव्यकी सत्ता भो स्वीकार करनी पड़ती है और इस प्रकार दो द्रव्यों में एकता प्राप्त हो जाती है जिसे स्वीकार करना सर्क, आगम और अनुभव के सर्वथा विरुद्ध है। यही कारण है कि आगम में असद्भूत व्यवहारका लक्षण करते हुए लिखा है कि अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यन्त्र समारोप करना असद्भूत व्यवहार हैं। उपचार भी इसका दूसरा नाम है । बालपद्धति में 'प्रसद्भूत व्य हारनय भिन्न वस्तुको विषय करता है।' यह लक्षण भी इसी अभिप्रासे किया गया है। आलाप Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४७५ पद्धतिक पूर्वोक्त कथनमें और इस कथनमें कोई अन्तर नहीं है, दोनोंका आशय एक ही है। एक द्रव्यके धर्मका दूसरे द्रव्यमें निराधार और निष्प्रयोजन आरोप करना असद्भुत व्यवहारनयाभास है और साधार सप्रयोजन आरोप करना समीचीन नय है। आकाश वृक्ष के फलबा या गधे के सिरमें गाय आदिक सोंगका आरोप करना एक तो निष्त्रयोजन है। दूसरे आकाशमें फुलके सदृश और गधेके सिरमें सींगके सदृश कोई धर्म भी नहीं पाया जाता, इसलिए आकाशमें फलका और गधेके सिरमें सौंगका आरोप करना किसी भी अवस्थामें सम्भव नहीं है । जहाँ यह ठीक है वहाँ घटादि कार्यों में कुम्भकारादिके नैमित्तिकत्व धर्मका और कुम्भकारादिमें बटादिके निमितत्व धनका समारोप करना भी ठीक है, क्योंकि एक द्रव्यको जिस परिणतिके साथ दसरे द्रव्पकी जिस परिणतिका नियमसे एक Arय होने का योग है उसको रजा से होती है। इसोको काल प्रत्यासत्ति कहते हैं। साथ ही प्रत्येक द्रव्य में अपना-अपना निमित्तत्व ( कारणत्व ) और नैमित्तिकत्व (कार्यत्व ) धर्म भी पाया जाता है, यही कारण है कि आगममें असद्भुत व्यवहार नयके विषयको उपचरित बतलाया गया है। ये सब तथ्य अपर पक्षके लिए अनवगत हों ऐसी बात नहीं है, फिर नहीं मालूम कि वह क्यों ऐसे मार्गका अनुसरण कर रहा है जिससे आगमवे अर्थका विपर्यास होना सम्भव है। बृहद् व्यसंग्रह में असद्भत व्यवहारनयके जारित और अपनवरित ये दो भेद किये गये है इसमें सन्देह नहीं, पर वहाँ इसके इन दो भेदोंके करनेका कारण क्या है यह भी उस उल्लेखसे स्पष्ट हो जाता है। वहीं परस्पर अवगाहरूप संश्लेष सम्बन्धको दिखलाने के लिए असद्भुत व्यवहार के पूर्व विशेषणरूप अनुपवरित वान्दका प्रयोग हुआ है और जहां इस प्रकारका एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध न होते हुए भी प्रयोजनवश कर्ता-कर्म आदि धर्मोका ( एक दूसरे ) समारोप किया गया है वहां असद्भूत व्यवहारके पूर्व विशेषणरूप में उपचरित शब्दका प्रयोग हुआ है। इसी तथ्यको दूसरे रूपमें आलापपद्धतिमें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है सन्न संश्लेपरक्षितवस्तुसम्बन्धविषय उपचरितास तव्यवहारः, यथा देवदत्तस् धनम् । संश्लेषसहितवस्तुसम्बन्धविषयोऽनुपचरितासद्भुत व्यवहारः, यथा सीवस्थ शरीरमिति । उनमेसे संश्लेषरहित वस्तुओं के सम्बन्धको विप करनेवाला उगवरित असद्भूनव्यवहार है, जैसे देवदत्तका धन तथा संश्लेषसहित वस्तुओं के सम्बन्धको सिषय करनेवाला अनुपचारित असद्भूतवपवहार है, जैसे जीवका शरीर। यहाँ न तो देवदत्तका धनमें रागभावको छोड़कर अन्य कोई मेरापन है और न ही जीवका शरीरमें रागभावको छोड़कर अन्य कोई मेरापन है । जैसे घन पुद्गलद्रव्य का परिणाम है से हो शरीर भी गुगल द्रव्यका परिणाम है । जीव तो चेतन द्रव्य है ही, देवदत्त नामत्राला जीव भी चेतन प है। अतएव इनका पुदगल द्रव्यस्वरूप धन या शरीरके साथ वास्तविक क्या सम्बन्ध हो सकता है ? अर्थात् कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। फिर भी देवदत्त धनको और जीव शरीरको मेरा मानता है सो उसका एकमात्र कारण रागभाव ही है। अतएव देवदत्त और जीवका सच्चा संयोग रागभावरूप ही है, धन और पारीररूप नहीं। धन और शरीरका संयोग कहना उपचरित है तथा रागभावहा संयोग कहना यथार्थ है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए मूलाचार प्रथम भाग गाथा ४८ की टीकामें लिखा है अनारमनीनस्यात्ममावः संयोगः । अनात्मीय वस्तुओंमें आत्मभाव होना संयोग है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा इससे स्पष्ट है कि जीव द्रव्यकर्म और दशरीरका कर्तृत्व असद्द्भुत व्यवहाररूप अर्थात् उपचरित ही है, क्योंकि अद्भूत व्यवहार और उपचार हम दोनों का एक ही आशय है। फिर भी इनमें एक क्षेत्रावगाह रूप संश्लेषका ज्ञान करानेके लिए यहाँपर विशेषणरूपमें अनुपवरित शब्द प्रयोग हुआ है। किन्तु कुम्भकार और घटमें एक क्षेत्रागाहरूप भी संस्लेषमम्बन्ध नहीं है, इसलिए कुम्भकार में घटके कर्तृत्वको उपचरिता सद्भूतव्यवहाररूप अर्थात् उपचरितोपनाररूप बतलाया है। बृहद्रश्यसंग्रहका आशय स्पष्ट है। समयसार आत्मस्याति गाथा ४६ की टीका, नयत्रक्रसंग्रह तथा आलापपद्धतिके कथन के प्रकाशमें वृहद्रव्यसंग्रहके उक्त उल्लेख को पढ़ने पर अपर पक्षको भी यह आशय स्पष्ट हो जायगा ऐसा हमें विश्वास है। हाँ यदि वह उक्त आगम प्रमाणको लक्ष्य मे लिये बिना अपन मनसे संग्रह उल्लेखका दूसरा अर्थ करता है जैसा कि उसको ओरसे प्रस्तुत प्रतिशंका किया गया है तो उसका कोई चारा नहीं। हर अवस्था में हम तो वहो अर्थ करेंगे जिसे समग्र आगम एक स्वर से स्वीकार करता है । आचार्य ममन्तभद्र आप्तमीमांसा में लिखते हैं-सवेच सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्यात् । असदेव विपर्यासान्न पेन व्यवतिष्ठते ॥ १५ ॥ ५७६ ऐसा कौन है जो स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा सभी पदार्थको मत्स्वरूप हो नहीं मानता और पर रूपादिचतुष्टयको अपेक्षा अस्वरूप ही नहीं मानता, क्योंकि ऐसा स्वीकार नहीं करने पर तत्व की व्यवस्था ही नहीं बन सकती ॥१५॥ इससे स्पष्ट है पृथक्भूत घटका कारणधर्म कुम्भकार में नास्तिरूप ही है और हमी प्रकार कुम्भकारका कार्यधर्म घटमें नास्तिरूप ही है । निश्वयसे ( यथार्थ में) न कुम्भकार का कर्ता है और न घट कुम्भकारका कर्म है । समयसार आदि परमागम इसी सत्यका उद्घाटन करता है। घाव है वह जिनवाणी और धन्य है वे महापुरुप जिन्होंने इस परम सत्यको उद्घाटनकर जड़-चेतन प्रत्येक की स्वतन्त्रता और परिपूर्णताका मार्ग प्रशस्त्र किया है। यह वस्तुस्थिति है। इसे हृदयसे स्वीकार करके जो व्यवहार पक्षको जानने के हैं इच्छुक उन्हें व्यवहार पक्षका आशय और प्रयोजन समझने में देर नहीं लगती। उपचरित अर्थको कल्पनारोपित कह कर उड़ाना अन्य बात है और अधिकतर लोकवहार उपचरित अर्थके आलम्बनसे चलता है इसे स्वीकार कर वस्तुस्थितिको हृदयंगम कर लेना अन्य बात है | अपर पक्षका कहना है कि 'ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिक आदि शरीरोंका निर्माण जीव अपने से अथकरूपमें ही किया करता है तथा घटपटादिका निर्माण वह अगतेसे पृथकरूपमें किया करता है ।' किन्तु अपर पक्षका ऐसा लिखना कैसे अमंगत है उसके लिए समयसार कल के इस वचन पर दृष्टिपात कीजिए -- कर्तृत्वं न स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृस्वचत् । अज्ञानादेव कर्तायं तदभावादकारकः ।। १९४ ॥ जैसे पर पदार्थोंका भोगना आत्माका स्वभाव नहीं है उसी प्रकार पर पदार्थोंका निर्माण करना भी आत्माका स्वभाव नहीं है । वह अज्ञान से ही कर्ता है, अज्ञानका मात्र होनेपर अकर्ता है ॥१६४॥ यहाँ वह प्रश्न किया जा सकता है कि जव तक वह जीव अज्ञानी है तब तक तो उसे कर्म, नोकर्म और घटादि पार्थीका कर्ता ( निर्माण करतेशला ) मानना चाहिए। समाधान यह है कि अज्ञानसे भी वह द्रव्यकर्मादि पदार्थोंका निर्माण नहीं कर सकता । वहाँ उसे जो कर्ता कहा गया है वह अपने विकल्पोंका ही Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४७७ कर्ता कहा गया है, पकर्म, नोकर्म और घटादि पदार्थोंका नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए समयधार कामे लिखा है विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम् | न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नयति ॥९५॥ free करनेवाला जी ही केवळ कर्ता है और विकल्प ही केवल कर्म (कार्य) है जो जो विकल् साहित है उसका कर्ता-कर्मपना कभी नष्ट नहीं होता ॥६५॥ हमी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वाचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैयोगोपयोगयोस्त्वात्मविदावारीः कदाचिदज्ञानेन करणादात्मापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्याकर्मकर्ता स्यात् । विरार दो का उपयोग रागादिविकारयुक्त चैतन्यपरिणाम ) को कथाचित् ज्ञानसे करने के कारण उनका आत्मा भी कर्ता रहो तथापि पर द्रव्पस्वरूप कर्म, नोकर्म और घटपटादि कार्योंका वह त्रिकालमें निर्माण करने वाला नहीं हो सकता । इस प्रकार आचार्य वचन तो यह है कि यह जीव इव्यकर्म, नोकर्म और घटपटादि पदार्थोंका त्रिकाल में निर्माण नहीं कर सकता और अपर पक्ष कहता ही नहीं लिखता भी है कि 'यह जीव अपने से अपृथकरूपमें कम और औदारिकादि खरी रोंका तथा पृथकरूपमें घटपटादिका निर्माण किया करता है।' ऐसो अवस्थामे सहज हो यह प्रश्न उठता है कि इनमें से किसे प्रमाण माना जाय आनायके पूर्वोक्त कथनको या अपर पक्ष कपनको ? पाठक विचार करें। अपर पक्ष कहेगा कि आचार्योंने उक्त वचनों द्वारा प्रव्यकर्म, नौकर्म और घटपटादि पदार्थोका आत्मा निश्चय कर्ता है ऐसा माननेका निषेध किया है, निमित्तकर्ता माननेका नहीं ? समाधान यह है कि आगममें द्रव्यकर्मादिका निमित्तकर्ता ज्ञान जो आत्माको कहा है वह किस नयकी अपेक्षा कहा है इस सम्यक विचार करने पर विदित होता है कि जहाँ जहाँ इस प्रकारका कमन किया गया है वह मूलहारनयकी अपेक्षा ही किया गया है और असद्भूत व्यवहारसा अर्थ है एक द्रव्यके गुण-धर्मको दूसरे द्रव्य पर आरोपित करना । उपचार भी इमोका नाम है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ जहाँ एक द्रव्यको दूसरे द्रव्यका निमित्त कर्ता, प्रेरक कर्ता, परिणमानेवाला जादि शब्दों द्वारा कहा गया है वह मात्र उपचार नपका आय लेकर ही कहा गया है। संग्रहके उक्त लेख भी यही आशय है। अतएव अपर पक्ष के इस कथनको कि 'ज्ञानावरणादि कर्मों और औदारिकादि शरीरोंका निर्माण जीव अपने अनुरूपमे ही किया करता है तथा घटपटादिका निर्माण वह अपने से पृथकरूपमें किया करता है । यथार्थ न मानकर हमारे इस कथनको कि 'जब प्रत्येक द्रव्य सद्रूप है और उसको उत्पाद व्यय-धौव्यस्वभाववाला माना गया है तो ऐसी अवस्था उसके उत्पादनको स्वतः स्वयंकृत मान लेना ही श्रेयस्कर है। फिर भी इसके विरुद्ध उसे अन्य के कर्तृव पर छोड़ दिया जाय और यह मान लिया जाय कि अन्य द्रव्य जब चाहे उसमें किसी भी कार्यको उत्पन्न कर सकता है तो यह उसके स्वतन्त्र स्वभाव पर आधात ही है । आगे अपर पाने उपादानको कार्यके साथ अन्तुष्यप्ति और निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्री की के साथ ब्राह्म व्याप्तिको चरचा करके उपादानको कार्यके प्रति एक उपायरुपकारणता स्वीकार को है। किन्तु जब कि अपर पक्ष अपनी प्रतिशंका यह स्वीकार करता है कि 'ज्ञानावरणादि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૮ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा कमोंका और औदारिकादि शरीरोंका निर्माण जीव अपने से अपृथक् रूपमें हीं किया करता है। ऐसी अ स्था में उसका यह लिखना कि 'आचार्योंने प्रत्येक कार्यमे अपने निमित्तों के साथ बाह्य व्याप्ति स्वीकार को है ।' कहाँ तक संगत कहा जा सकता है। क्या इस प्रकार परस्पर विरुद्ध कथन करते हुए वह पक्ष स्वयं अपने को आगमविरुद्ध कथक के रूपमें अनुभव नहीं करता इसका उस पक्ष को स्वयं विचार करना चाहिए। साथ हो उसे आगमका ऐसा प्रभाग भी देना या जहाँ उरादानकी अपने कार्यके प्रति एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणता बतलाई गई हो। किन्तु न तो ऐसा कोई आगम ही है । और न ऐसा हो है कि कार्य के प्रति उपादान की अन्तप्तिका जैसा अर्थ और निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीका जैसा अर्थ वह पक्ष करता है वह भी आगम में स्वीकार किया गया है। जीव और पुद्गल अपने परलक्षी क्रिया परिणामके कारण जब पर सम्पृक्तको भूमिका में विद्यमान रहता है तब अपने क्रिया परिणाम के कालमें परका नियमसे क्या क्रिया-परिणाम होता है यह घोषित करना ही बाह्य व्याप्तिरूप अन्वयव्यतिरेकका प्रयोजन है । यही कारण है कि आचार्यनेि प्रत्येक कार्यके प्रति परमें निमित्तताको कालप्रत्यासत्तिके रूपमें स्वीकार किया है । परको प्रत्येक उपकारी, सहायक किसिम, रिमाल आदि शब्दोंसे जो कुछ भी कहा गया है वह सब इसी अभिप्रायसे कहा गया है। यदि स्वभात्रपर्याय और विभात्रपर्याय में कोई अन्तर है तो इतना ही कि स्वभाव पर्याय परलक्षी परिणमन नहीं है, जब कि विभात्रपर्याय परलक्षी परिणमन है । इस प्रकार इस विवेचनसे स्पष्ट है कि प्रकृत में अन्तर्व्याप्ति और बाह्य व्याप्ति यादिकी चरचा करते हुए अपर पक्षने जो कुछ लिखा है वह यथार्थ नहीं है । हमने लिखा था कि 'द्रव्य अन्वयी होनेके कारण जैसा नित्य है उसी प्रकार व्यतिरेको स्वभाववाला होनेसे प्रत्येक समय में वह उत्पाद व्यय स्वभाववाला भी है, अतएव प्रत्येक समय में वह कार्यका उपादान भी है गौर कार्य भी । पिछली पर्यायको अपेक्षा जहाँ वह कार्य है अगलो पर्यायके लिए वहाँ वह उपादान भी है।' इस पर अगर पक्ष कहता है कि हम भी ऐसा मानते हैं । किन्तु यह बात नहीं है, क्योंकि यदि वह ऐसा मानता होता तो वह पक्ष उपादानमें मात्र एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणताको स्वीकार न कर एक द्रश्य भावप्रत्यासत्तिरूप कारणताको स्वीकार कर लेता, क्योंकि आचार्योंने भी एक द्रव्य भावप्रत्यासत्तिरूपताको ही उपादान कारण सर्वत्र स्वीकार किया है। आचार्य विद्यानन्दितत्त्वार्थवलोकवालिक पृ० ६८ पर लिखते हैं दर्शन परिणामपरिगतो ह्यात्मा दर्शनम्, तदुपादानम्, विशिष्टज्ञान परिणामस्य निष्पतः । पर्यायमात्रस्य निरन्वयस्य जीवादिद्रव्यमानस्य च सर्वथोपादानत्वायोगात् कूरोमादिवत । दर्शन परिणाम से परिणत आत्मा नियमसे दर्शन है, यह उपादान है, क्योंकि उससे विशिष्ट ज्ञानपरिणामकी उत्पत्ति होती है । जैसे कूर्ममादि असत् होनेसे उपादान नहीं हो सकते उसी प्रकार निरन्वय पर्यायमात्र और जीवादि द्रव्यमात्र किसी भी प्रकार उपादान नहीं हो सकते । यह समर्थ उपादानका स्वरूप हैं । यदि वह इस स्वरूपको हृदयसे स्वीकार कर ले तो ही उसकी ओरसे हमारे पूर्वोक्त कथनका स्वीकार कहा जायगा और ऐसी व्यवस्था में उसकी ओरसे यहाँ पर जो कुछ भी कल्पनावश लिखा गया है उसे वह पक्ष स्वयं बदल देगा । तब वह पच इस तथ्यको हृदयसे स्वीकार कर लेगा कि 'प्रत्येक समय में प्रत्येक द्रव्यमें न तो केवल एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूपसे उपादानता है और न ही केवल भावप्रत्यासत्तिरूप उपादानता है । किन्तु एक द्रव्य भावप्रत्यासत्ति में उपादानकारणता होनेसे जिस समय जो Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान કલ द्रव्य उभयरूपसे उपादान बन कर जिस कार्यके सन्मुख होता है उस समय उसमें निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्रीका सहज योग मिलता ही है ।' अपर पक्ष पूछा है कि 'यह जो क्षेत्र परिवर्तन इस मिट्टीका हुआ वह क्या खानमें पड़ी हुई उस मिट्टीकी क्षणिक पर्यायों के क्रमसे हुआ। समाधान यह है कि जीव और दो प्रकारको सम स्वीकार करता है - एक क्रियावती शक्ति और दूसरी भाववती शक्ति । यही कारण है कि इन दोनों द्रव्योंमें यथासम्भव दो प्रकारका भाव स्वीकार किया गया है—एक परिस्पन्दात्मक और दूसरा अरिस्पन्दात्मक उनमें से परिस्पन्दात्मक भावको क्रिया कहते हैं और अपरिस्पन्दात्मक भावको परिणाम कहते है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक अ०५ सू० २२ वार्षिक २१ में लिखा है द्रव्यस्य हि भावी द्विविधः - परिस्पन्दात्मकः श्रपरिस्पन्दात्मकश्च । तत्र परिस्पन्दात्मकः क्रियेत्या ख्यायते इतरः परिणामः । तत्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० ३९८ में भी क्रियाका यही लक्षण करते हुए लिखा है द्रव्यस्य हि देशान्तरप्राप्तिहेतुः पर्यायः किया, न सर्वः । इस प्रकार भावके दो प्रकारके सिद्ध हो जाने पर यहाँ पर गति और स्थितिका विचार करना है । इसका लक्षण बतलाते हुए सर्वार्थसिद्ध अ० ५ सू० १७ में कहा है देशान्तरमा सिहं तुर्गतिः । जो देशान्तरकी प्राप्ति हेतु है उसका नाम गति है उक्त सूत्रको व्याख्या के प्रसंग तत्त्वार्धवार्तिक में गतिका लक्षण इस प्रकार किया है- द्रव्यस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामी गतिः |१| नृभ्यस्य बाह्यान्तरहेतुसन्निधाने सति परिणाममानस्य देशान्तरप्राप्तिहेतुः परिणामो गतिरित्युच्यते । द्रव्य देशान्तर में प्राप्तिकं हेतुभूत परिणामका नाम गति है || बाह्य और अम्पन्तर हेतुके रात्रिधान होने पर परिणमन करते हुए द्रव्य देशान्तर में प्राप्ति हेतुभूत परिणामको गति कहा जाता है। गतिके विषय में विचार करते हुए हमें क्रिया स्वरूप पर विस्तारसे दृष्टिपात करना होगा । इस सम्बन्ध में तस्वार्यदलोकवार्तिक अ० ५ सू० २२ में लिखा है--- परिस्पन्दात्मको द्रव्यपर्यायः संप्रतीयते । क्रिया देशान्तरप्राप्तिहेतुत्यादिभेदकृत् ॥३९॥ गत्वादिभेदको करनेवाली देशान्तर प्राप्ति में हेतुभूत जो परिस्पन्दात्मक द्रव्यपर्याय है उसे क्रिया जानना चाहिए ॥ ३९ ॥ यह परिस्पन्दात्मक क्रिया जीवों और पुद्गलों दो द्रव्यों में ही होती है। इसका राष्टीकरण करते हुए प्रवचनसार में लिखा है पुद्गलास्तु परिस्पन्दस्व | स्वापरिस्पन्देन भिन्नाः संघातेन संहताः पुनर्भेदेनायमानावसिष्ठमानभज्यमानाः क्रियावन्तश्च भवन्ति । तथा जीवा अपि परिस्पन्दस्वभावत्वात्परिस्पन्देन नूतनकर्म-नोकर्मपुद्गलेभ्यो भिन्नास्तैः सह संघातेन संहता पुनभेदेनोत्पद्यमानावतिष्ठमान भज्यमानाः कियावन्तश्च भवति ||१२९ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा पुद्गल तो क्रियावाले भी होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाववाले होने से परिस्पन्दके द्वारा पृथक् अमरियम पगल मंत्रालय और रूप पद्गल पुनः भेदरूपसे उत्पन्न होते हैं, ठहरते हैं ओर नष्ट होते हैं। तथा जीव भो क्रियावाले होते हैं, क्योंकि परिस्पन्द स्वभाववाले होनेसे परिस्पन्दके द्वारा नवीन कर्म और नोकर्मसे भिन्न जीव उनके साथ मिलने से तथा उनके साथ मिले हुए जीव पुनः भिन्न होने से वे उत्पन्न होते हैं, ठहरते हैं और नष्ट होते हैं ।। १२६ । ૪૦ इन प्राणोंसे ज्ञात होता है कि पुद्गलों और जीवोंकी जो परिस्पन्दलक्षण क्रिया होती है, गति भी उसीका विशेष है। इसलिए यहाँ भी जो प्रति समय परिस्पन्दरूप परिणाम होता है उसका वाह्य हेतु काल है तथा उसके क्षेत्र से क्षेत्रान्तररूप होने में बाह्य हेतु धर्मद्रव्य है । इस प्रकार उक्त विवेचनसे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि जीवों और पुद्गलों में जो भी क्रियालक्षण परिणाम और भावलक्षण परिणाम होता है वह सब अणिक पर्यायोंके क्रमसे ही होता है। इन्हीं दोनों प्रकार के परिणामोंके कारण दो परमाणु मिलकर द्वणुक बनते है । अनन्त परमाणुओंके स्कन्ध बनने का भी यह तरीका है। मिट्टी उसका अपवाद नहीं। अपनी विलक्षण वा भावलक्षण पर्याय सन्ततिमें वह जिस समय क्षेत्रान्तरित होने या पिण्ड, स्थासादि बननेरूप कार्यका उपादान होती है उस समय वह अपने परि के अनुरूप प्रायोगिक या वैसिक बाह्य निमितोंको प्राप्त कर स्वयं परिणमती रहती है । बुद्धिदोषवश यदि कोई मिट्टी आदिको प्रति समय होनेवाली इस आन्तरिक क्रियालक्षण और भावलक्षण उपादान योग्यताको न जानकर केवल बाह्य सामग्री के आधार से उसमें होनेवाले कार्योंकी सिद्धि करता है तो वह वस्तुतः एकान्त से व्यवहार पक्षका आग्रही होनेसे कार्य-कारणपरम्परा के प्रति अनभिज्ञ ही कहा जायगा । स्पष्ट है कि मिट्टीका खेतसे कुम्भकारको निमित्त कर क्षेत्रान्तरित होना, जलादिको निमित्त कर पिण्डरूप परिणमना, कुम्भकार, चक्र, चीवरारादिको निमित्तकर स्थासादिरूप परिणमते हुए घटरूप बनना या दण्डको निमित्त कर अनेक भागों में विभक्त होना आदिरूप जिस समय जो भी क्रियालक्षण या भावलक्षण परिणाम होता है यह उस उस समय के उपादान के अनुसार ही होता है और उस उस समय निमित्त व्यवहारके यंग्य बाह्य सामग्री भी उस उस परिणामके अनुकूल मिलती है। किसी भी द्रव्यमें ऐसा एक भी परिणाम नहीं होता जो प्रतिसमय होनेथाले परिणामक्रम के अन्तर्गत न आता हो । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में किसी प्रकारकी करामात कर सके ऐसा तो त्रिकालमें सम्भव नहीं हैं । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें करामात करता है यह कहना तो अतिदूर की बात है ऐसी करामात तो एक ही द्रव्य भिन्न समयमें स्थित होकर उससे भिन्न समयके कार्यकी अपेक्षा स्वयं अपने में नहीं कर सकता। उत्पादादि त्रिलक्षण वस्तुका ऐसा स्वभाव है, उसमें चारा किसका प्रत्येक उत्पाद व्ययलक्षण परिणाम अपने-अपने काल होता है इसके लिए प्रवचनसार गाथा ६६ को आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका व्रष्टव्य है। वहीं लिखा है— तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूप पूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्न वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितकप्रवाहतयानुत्पन्नप्रलीनश्वाच्च संभूति-संहार-धौन्यात्मकमात्मानं धारयन्ति । उसी प्रकार के परिणाम अपने कालमें स्वरूप से उत्पन्न और पूर्व रूपसे विनष्ट होने के कारण तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति सूत्रित एक प्रवाहनेको अपेक्षा अनुत्पन्न-अनिष्ट होनेके कारण उत्पत्ति, संहार और भौव्यस्वरूपको धारण करते हैं । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४८१ इस उल्लेख में आया हुआ 'स्वावसरे' पद ध्यान देने योग्य है। जब कि द्रश्य-पर्यायात्मक प्रत्येक उपादान बवने प्रतिनियत कार्यका सूचक है और उसकी उत्पत्ति में प्रतिनियत बाह्यसामग्रीका ही योग मिलता है, ऐसी अवस्था में प्रत्येक कार्य प्रतिनियत काल में ही होता है यही उक्त वचनसे सुनिश्चित ज्ञात होता है। आगमसे तो इसमें सन्देह करने के लिए कोई गुंजाइश रहती नहीं, तर्क और अनुभवसे भी यही सिद्ध होता है। विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में विस्तारसे किया है। अपर पच प्रत्येक कार्यके प्रति बाह्य सामग्रीका उपयोग जानना चाहता है तो उसका यह उपयोग तो निकाल में नहीं हो सकता कि वह अपनेसे भिन्न दूसरे द्रवपके कार्यको स्वयं का बनकर उतान करे । हाँ साया इसमायोय . हमें दुम एप उस समय होनेवाले कार्यको सूचना अवश्य मिल जाती है। इससे हम यह जान सकते है कि इस समय इस प्रकारका उपादान होकर रा द्रव्यने अपना यह कार्य किया है। कोई भी अल्पज्ञानी रागों मनुष्य जितने रूप में इस व्यवस्थाको जानता है उतने छपमें वह वाह्याभ्यन्तर सामत्रीको विकल्प और योगक्रियारूपसे जुटानेका प्रयत्न अवश्य करता है। बाधा. भयन्तर सामग्रीका उसके विकल्प और योगक्रियाके अनुरूप योग मिलना और न मिलना उसके हाथ नहीं है । इच्छानुसार बाह्याम्पतर सामग्रीका योग मिल गया तो रागवश अपनी सफलता मानता है, अन्यथा खेदखिन्न होता है। वह जानता है कि अमुक कुम्भकार अच्छा घरा बनाता है। उसकी प्रार्थनाको कुम्भकार स्वीकार भी कर लेता है । वह वैसी योजना भी करता है, फिर भो जराको इच्छानुसार घड़ा नहीं बनता या बनता ही नहीं । क्यों ? इसलिए नहीं कि बाह्य सामग्री नहीं थी। बल्कि इसलिए कि मिट्टीकी उस समय घटरूप परिणमनेकी द्रब्ध-पर्यायरूप उपादान योग्यता हो नहीं थी। कुम्भकार विचारा या अन्य बाह्यसामग्री उसमें कमा कर सकते थे। इसीको कहते हैं उपादानके कार्य निमित्त व्यवहारके योग्य वाद्यसामग्री का अकिचित्करपना । ऐसो अवस्था में अपर पक्ष ही बतलाय कि अपर पक्षने अपनी कल्पनासे जो समस्याएं खड़ो की हैं वे हमारे निश्चयनयसे किये गये इस कथनका कि 'अपादान से ही कार्य उत्पन्न हो जाता है निमित्त तो वहाँपर अकिचिकर ही बना रहता है।' खण्डन करती है या मण्डन । विचार कर देखा जाय तो अपर पक्षने जो समस्याएँ खड़ी की हैं उनसे हमारे उक्त कथनका मण्डन ही होता है, खण्डन नहीं। हमने अपने पिछले उत्तर में लिखा था कि 'लौकिक उदाहरणोंको उपस्थित कर अपनी विसत्तिके अनुसार कार्यकारणपरम्पराको बिठलाना उचित नहीं है।' तथा इसी प्रसंगमें हमने समयमारकलाका 'आसंसास्त एव धावति' इत्यादि कलश भी उपस्थित किया था। इसपर अपर पक्षका कहना है कि 'लोकमें अधिकांश ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि प्राणी मोहकर्म के उदयके वशीभूत होकर अपने निमिससे होने वाले कार्यों में अपने अन्दर अहंकारका विकल्प पैदा करता रहता है जो मोहभाव होनेके कारण बन्धका कारण है, अतएव त्याज्य है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि अपने निमित्तसे होनेवाले कार्योंमें अपनी निमित्तलाका ज्ञान होना असत्य है। यदि अपने निमित्तसे होनेवाले कार्यों में अपनी निमित्तलाका ज्ञान भो असत्य हो जाय तो फिर मनुष्य किसी कार्यके करने में प्रवृत्त भी कैसे होगा? कुम्हारको यदि समनामें आ जाय कि घड़े का निर्माण स्नान में पड़ो हई मिट्टी से आनो क्रमवर्ती क्षणिक पर्यायोंके आधारपर स्वतः समय आनेपर हो जायगा तो फिर उसमें तदनुकूल पुरुषार्थ करनेकी भावना ही जागृत क्यों होगो?' आदि । । समाधान यह है कि किस कार्यमें कौन निमित्त है इसका ज्ञान होना अन्य बात है और उपादानको मात्र द्रव्यप्रत्यासत्तिहा स्वोकार करके जब जसे बाए निमित्त मिलते हैं तब उनके अनुसार कार्य होता है Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ जयपुर (वानिया ) तत्त्वचर्चा ऐसा मानना अन्य बात है। कोई भी समझदार कुम्भकार घटनिर्माणका विकल्प भी करता है तदनुक्ल व्यापार भी करता है और इसके लिए घटके योग्य मिट्टीका परिग्रह भो करता है। तदनुकूल आगेके व्यापारमै भी जुटता है पर उसे यह ज्ञान होता है कि यह मिट्टी घटपर्वायसे परिणत होनेवालो होगी तो ही होगो, मैं तो निमित्तगात्र हूं और घटकायमें तत्र निमित्तमात्र हूँ जव मिट्टी स्वयं घटकायके सम्मुख हो । मिट्टी के संग्रहमें निमित्त होते समय, उसे अपने घरतक क्षेत्रान्तरित होने में निमित्त होते समय तया जल और मिट्टी के संयोग आदिमें निमित्त होते समय जो मेरे मन में घर बनानेका विकल्प है और उस विकल्पको ध्यान में रखकर जो मैं अपनेको वर्तमान में घट बनाने का निर्माता करता है वह केवल भावी मैगमनयकी अपेक्षा असद्भुत व्यवहार वचन ही कहता हूँ । इस प्रकार जिसे भूवार्थका जान है वही अनेक असत् विकल्पोंसे अपनी रक्षा कर सकता , अन्य नहीं होगा - विक्षयोंको निमित्त कर होनेवाले बन्धनसे अपनी रक्षा कर सकता है, अन्य नहीं। मिट्री ही स्वयं घट बनती है, अन्य नहीं। पर वह किस अवस्था में घट बनती है इसे विवेकी अच्छो तरह जानते है । विवेको ग्रह भी अच्छी तरह जानते हैं कि घटपर्यायके सन्मुख हुई मिट्टी ही घटका अपादान है, खानमें पड़ी हुई मिट्टी नहीं। यदि कोई कुम्भकार स्वान में पड़ी हुई मिट्टीको वर्तमानमै घटका उपादान समझ ले तो अपनी ऐसी खोटी समझके लिए स्वयं पश्चात्ताप करना पड़ेगा या वह निर्णय कर ले कि इसे मेरी इच्छानुसार परिणमना पड़ेगा तो भी उसे कदाचित् पश्चाताप करना पड़ेगा । कोई मूह छात्र अध्यापकके मुख से पाठ सुनें, उनकी सेवा करें, 'न हि कृतमुपकार' इत्यादि वननका अक्षरशः पालन करे, परन्तु स्वर्ग अभ्यास न करे तो यह मुद ही बना रहेगा, स्वयं विद्वान् न बन सकेगा । अध्यापक तो तब निमित्तमात्र है जब वह छात्र अपनो मढ़ताको छोड़ कर स्वयं अभ्यासके सन्मुख होता है । इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। कुम्भ कारादि तब निमित्तमात्र हैं जब मिट्टी स्वयं अपने उत्तरोत्तर होने वाले परिणामों द्वारा स्वयं घट परिणामके सन्मुख होकर घटरूप परिणमती है । अपर पक्षने जितने उदाहरण दिये है ये सव लौकिक इसलिए हैं, क्योंकि वह पक्ष अपनी मचिरो उपादानको एक प्रश्यप्रत्यासत्तिरूप लिखकर उसे आगम सिद्ध करना चाहता है और उसे आधार बनाकर कार्यकारणभावकी पवस्था बनाना चाहता है। स्पष्ट है कि अपर पक्षने 'आ संसारत एव' इत्यादि कलशके आधार पर जो विचार प्रस्तुत किम है वे कार्यकारणभावको यथार्थ व्यवस्थाको स्पर्श नहीं करते, अतः त्याज्य है । यद्यपि उन कलशका भावय अन्तस्त्रम का उच्छेद करनेत्राला होनेसे अतिगूढ़ है, परन्तु यहाँपर हमने प्रकृतम प्रयोजनीय मात्र इतना आशय लिया है । उसका यथार्थ अर्थ ग्रहण करने पर तो 'मैं इस कार्यमें निमित्त हूँ' यह विकल्प भी वन्धका कर्म होनेसे हेय है। यह जीव भूसार्थके परिग्रहवारा स्वयं ज्ञानघन होकर बन्धनसे मुक्त हो जाय तब तो कहना होगा कि इसने आत्मनिधिका ही साक्षात्कार कर लिया । वहीं इस विकल्पको स्थान कहाँ । अस्तु, हमने अपने पिछले उत्तर में 'उपादानस्य उत्तरीभवनात्' का आशय साष्ट किया था। अपर पक्षका कहना है कि 'वह उत्तर पर्याय निमित्तसापेज उत्पन्न नहीं होतो ऐसा निर्णय तो उक्त मापस नहीं किया जा सकता है। अपने इभी कथनकी पुष्टि में अपर पक्षन 'वचनसामादज्ञानादिदोषः' (अ४० पृ० ५१) इत्यादि वचन भी उद्धृत किया है। यद्यपि अपर पक्षने इस वचनको अपने पक्षमें समला कर उपस्थित किया है, परन्तु इससे यथाय पर प्रकार पड़ने में बड़ो सहायता मिलती है इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि इसमें एक द्रव्य प्रत्यासत्तिको उपाधान Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान न कहकर अपने पूर्व (अनन्तर पूर्व) परिणामको उपादान कहा गया है । यहाँ पर 'पूर्वस्वपरिणाम' पदसे जहाँ असाधारण दृश्यप्रत्यासत्तिका ज्ञान हो जाता है वहाँ सममातर पुर्य पर्यायप्रत्यासत्तिका भी ग्रहण हो जाता है। ऐसी अवस्थाम 'प्रत्येक समबमें उस उस पर्याय मुक्त द्रव्य अगले ममयका उपाधान होता है और जिसका वह अगादान होता है उसे अगले समयमें उमो कार्यको जन्म देना है तथा कार्यकालमें बाह्य सामग्री भी उसीके अनुकूल मिलती है' इस तथ्यकी पुष्टि होकर प्रत्येक कार्यका स्वकाल निश्चित हो जाता है । अपर पक्ष यदि इस तथ्यको स्वीकार कर ले तो प्रत्येक कार्य में निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्य सामग्रीमा फ्या स्थान है इसका निर्णय करने में आसानी जाय । आगममें 'बाह्य दण्डादिसापेक्ष मिट्टी ही स्वयं' ऐसा कथन आला है । इस परसे अपर पक्षका स्पाल है कि उपादानको निमित्त व्यवहारके योग्य बाह्म सामग्रोको तबतक प्रतीक्षा करनी पड़ती है जबतक वह प्राप्त न हो जाय । किन्तु देखना यह है कि आगममें 'बाह्य दण्डादिसापेक्ष' यह या इसी प्रकार के अन्य वचन किस दृष्टिसे लिखे गये हैं। का कोई भी वस्तु अपना कार्य करते समय महकारी गान कर अन्य वाह्य सामग्रीको प्रतीक्षा करती हैं या यह नयवचन है ? जो मात्र इरा वातको सूचित करता है कि अमुक प्रकारके कार्य में अमुक प्रकारको आभ्यन्तर उपाधिके साथ अमक प्रकारको बाह्म चपाधि नियमरो होती है। आगम (पंचास्तिकाय गा० १०.) में व्यवहारकालको 'परिणाममव' कहा है। इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र तन कालो गिरलकानगोपनि जीवनाको परिणामेनावच्छिद्यमानश्वात्तत्परिणाममन इत्युपगीयते । जीव-पुद्गलानां परिणामस्तु बहिरंगनिमित्तभूतद्रष्यकालसगावे सति सम्भूतस्याद् द्रव्यकालसम्भूत इत्यभिधीयते । तत्रे तात्पर्यम्-व्यवहारकालो जीव-पुदलपरिणामन निश्चीयते, निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्येति । वहाँ व्यवहारकाल निश्चय कालकी गर्यायस्वरूप हो कर भी जोवों और पुद्गलों के परिणामसे ज्ञात होने के कारण 'वह जीवों और पुद्गलों के परिणामसे उत्पन्न होता है। ऐसा कहा जाता है । तथा जीवों और गुद्गलोंका परिणाम तो बहिरंन निमित्तभनयकाल सद्भाव उत्पन्न होने के कारण 'पकालसे उत्पन्न हुआ है ऐसा कहा जाता है । पंचास्तिकाय गाथा २३ की टीकामें आचार्य अमृत चन्द्र इसी विषयको स्पष्ट करते हुए लिखते है यस्तु निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकाल: स जीच-पुद्गलपरिणामेनाभिव्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत एवेति । __ और जो निश्चयकालकी पर्यायरूप व्यवहार काल है वह जीव-पुद्गल के परिणाम में अभिव्यज्यमान होने के कारण उस (जीव-पद्गलोंके परिणाम) के अघोन ही ऐसा ज्ञात होता ही है। अब देखना यह है कि यहाँ पर जो व्यवहारकालको जीव-पुद्गलोंके परिणामसे उत्पन्न होनेवाला या उनके परिणाम के अधीन कहा गया है वह एक समगार अबहारकाल कितना है इस बात का ज्ञान करने के अभिप्रायसे कहा गया है या यथार्थ में कावहारकालको उत्पत्ति जीव-पगलों के परिणामसे होती है यह जतानेके लिये कहा गया है। दूसरा पक्ष ती ठीक नहीं, क्योंकि स्वयं आचार्यने पूक्ति उल्लेख द्वारा उसका निषेध किया है । प्रथम पक्षक स्वीकार करने पर यही सिद्ध होता है कि विस कार्य के होने में कौन बाह्य वस्तु निमित्त व्यवहारको प्राप्त होती है या जिस समय जो भी कार्य होता है उसका ज्ञान बाह्य और आभ्यन्तर जनाधिके Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा द्वारा होने के कारण उनके साथ कावके अन्यच्यातरकका ज्ञान करने के लिए व्यवहारनयसे आगममें' 'उभयनिमित्तसापेक्ष' या 'बामदण्डादिनिमित्तसापेक्ष' इत्यादि कथन किया गया है। किसी भी कार्य में अन्य किसीकी अपेक्षा रहती हो ऐसा तो वस्तुका स्वरूप ही नहीं है, वह तो स्वत:सिद्ध होता है। उदाहरण के लिए सक्षमस्वरूप वस्तुको लीजिए । वस्तृका यह स्वरूप है जो नियमसे परनिरपेक्ष है। फिर भी वस्तुमें अस्तित्व धर्म की सिद्धि स्वचतुष्टयकी अपेक्षा की जाती है और नास्तित्व धर्म की सिद्धि पर चतुष्टयकी अपेक्षा की जाती है। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक वस्तुम अस्तित्व धर्म स्वचतुष्टयकी अपेक्षा रहता है और नास्तित्व धर्म परचतुष्टयकी अपेक्षा रहता है । यदि ऐसा माना जाय तो सदरात्स्वरूप वस्तु ही नहीं बनेगो । अतः प्रत्येक वस्तुको सदरात्स्वरूप परनिरपेक्ष स्वतःसि मानना चाहिए । यही कथन परमार्थ सत्य है, अन्य सब व्यवहार है। उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए । यही कारण है कि कर्ता, कर्म और क्रिया इन तीनोंमें वस्तुपनेसे अभेद सूषित करके गरमागमने इस परमार्थ सत्यका उद्घाटन किया है कि जिस समय वस्तु विसरूप परिणमती है वह सन्मय होती है। इसे निश्चय कसन बहनेका यही कारण है। किन्तु रामयभेदसे किम समय प्रत्येक वस्तु किम रूप परिणमती है इसको मिद्धिका उपाय क्या यह बतलाने के लिए अगममें बाह्य और आसन्तर उपाधिके आधारसे उसकी सिद्धि की गई है और यह कहा गया है कि जिस बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिके साथ जिस कार्य द्रव्यका अन्वय-व्यतिरेक मिले उसे उसका कारण कहना चाहिए। और इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर आगमन यह वचन उपलब्ध होता है कि-'यदनन्सरं यद्भवति तत्तत्कारणमितरकार्यम् ।' स्पष्ट है कि कार्यको सिद्धि की विवक्षामें 'उभयनिमिचसापेक्ष' इत्यादि वचन प्रयोजनान् है, स्वरूपके उद्घाटन में नहीं। 'निश्चयनय वचन स्वरूपका उद्घाटन करता है, इसलिए यथार्थ है और व्यवहारनय बनाम स्वरूपका उद्घाटन करके उसका कर्ता परको कहता है, इसलिए उपचरित है। इसमें भेदविवक्षामें मद्भूत व्यवहार वचनका तथा सर्वथा भेदविवक्षामें असद्ध · व्यवहार वनका दोनोंका परिग्रह हो जाता है । यह सापेक्ष कथनका थोड़े में खुलासा है। इसे स्पष्टरूपसे सारझने के लिए अपर पश्न आप्तमीमांसा कारिका ७५ और उसपर लिखी गई बरशती तथा अष्टमहम्रो टीका पर दृष्टिपात करेगा ऐसा हमें विश्वास है । आवायं कुन्दकृदने 'जीवपरिणामहंदु" यह वचन इसलिए नहीं लिखा है कि जीवके परिणाम कर्मको उत्पत्र करते है और म जीवके परिणामों को उत्पन्न करते है। किन्तू किस जीवके परिणामके साथ कमकी और किम कर्मपरिणामके गाथ जीव परिणामके होने की बाह्य व्यानि है, मात्र इसकी सिद्धि इम वचन द्वारा की गई है और तभी यथार्थताका ज्ञान कराते हए अगली गाथामें मह लिख दिया है कि कर्म जीव परिणामको उत्पन्न नहीं करता और जोव कर्मपरिणामको उत्पन्न नहीं करता। जो जिमकी सिद्धिका खेल है उसमें निमित्त व्यवहार करना अस्प बात है और उसे उपका यथा का मान बैठना अन्य बात है। यह तो महामिथ्यात्व है। इसी प्रसंगमें बार पक्षने लिखा है कि-'असंख्यात प्रदेशो जीवको जब जैसा शारीर मिलता है तब उसे जयरूप परिणमना पड़ता है। और माथ ही इसे आगम कपन बतला कह यह भी लिख दिया है कि 'इसे हम स्वीकार करते हैं।' इसका हमें आश्चर्य है । वास्तव में यह हमारा कयन नहीं है। किन्तु अपर पक्षको उस मान्यताका संक्षिप्त उल्लेख है जिसका निर्देश अपर पक्षने इसी प्रश्न के द्वितीय औरके समय अपनी प्रतिशंकाम किया है जो इस प्रकार है-'तीसरी बात यह है कि असंख्यातप्रदेशी जीव शरोर परिमाणके छोटे Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ शंका ६ और उसका समाधान बड़े होनेसे आकारमें छोटा-बड़ा बन जाता है। पवि जीवको शरीरके प्रभारसे रहित माना जायगा सब यह बात भी नहीं बन सकेगी और इस प्रकार आगमका विरोध होगा।' अपर पक्षने यहाँ पर अन्य जितना कुछ लिखा है उसमें ऐसी कोई नई वासनहीं जिरा पर त्रिदोष ध्यान दिया आय । अन्षय-व्यतिरेकके आधार पर शरोगदि बाह्य सामग्री का कार्यके प्रति क्या स्थान है इसका विस्तारके साथ खुलासा हमने किया ही है । अपर पक्ष यदि आगमको हृदयंगम करके निनाद समाप्त कर ले तो उसका हम स्वागत ही करेंगे। निमित्त म्यवहारके योग्य पर द्रञ्च दुसरं द्रव्यके कार्य में परिवचित मी सहकारिता करता है ऐसी मान्यता हो मिला है। आगम की ऐसी ही आज्ञा है कि एवं च सति मृत्तिकायाः स्वस्वभावानतिकमान्न कुम्भकारः कुम्भस्योत्पादक एव, मृत्तिकैव कुम्मा कारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोस्पराते । -समयसार गा० ३७२ मा० अमृतवन्द्रकृत टीका ऐसा होने पर मिट्टी अपने स्वभावको उल्लंघन नहीं करती, इसलिए कुम्हार वटका उत्पादक ही नहीं है, मिट्टी हो कुम्हारके स्वभावको स्पर्श न करती हुई अपने स्वभाव कुम्भरूपसे उत्पन्न होती है। यदि अपर पः 'जब कुम्हार घट बनानेका विकल्प कर रहा था तथा उसके अनुकूल व्यापार कर रहा था उस समय मिट्टी स्वयं घदरूप परिणमी इतना ही सहकारिताका अर्थ करता है तो बात दूसरी है । आचार्याने इसे ही कालपत्यासत्ति शब्द द्वारा स्त्रीकार किया है। अपर पक्षने 'तादृशी जायते बुद्धिः' इस वचनको पेटभर आलोचना करते हुए इसे जैन संस्कृति की मान्यताके विरुद्ध घोषित किया है, इसे उस पक्षका अतिसाहस ही कहा जायगा । इस सम्बन्ध कहना है कि-'पद्य में कार्य के प्रति भवितव्यताके साथ-साथ कारणभूत जिन बुद्धि व्यवसाय आदिका उल्लेख किया गया है उनको उत्पत्ति अथवा सम्प्राप्तिको उसो भनितपताकी दया पर छोड़ दिया गया है जो इस कार्यकी जननी है। वस । यही उस में असंगति है और इसलिए वह जैन संस्कृतिको मान्यताके विरुद्ध है।' इस सम्बन्ध में हम अपर पक्षसे अधिक क्या कहें, इतना ही कहना चाहते हैं कि वह पन व्यामोहमें पड़कर यदि ऐसी गैरजिम्मेदारीकी टीका न करता तो यह जैन संस्कृतिको सबसे बड़ी सेवा होती। इसे जैन परम्पराके आधारस्तम्भ भगवान् अकलंक देवने एकान्त पुरुषवादका निषेध करने के प्रसंगसे उद्धृत किया है इसे नहीं भूलना चाहिए। और जब उन जैसे समर्थ आवार्यने इसे उद्धृत किया है तो इसमें सन्देह नहीं कि उन्हें इसमें जैन मान्यताके समन बीज दृष्टिगत हए होंगे। प्रत्येक कार्यके प्रति जितने भी कारण स्वीकार किये गये हैं उनमें भवितव्यता या योग्यता मुख्ता है, क्योंकि यह कार्यको उत्पन्न करने के लिए द्रव्यगत आन्तरिक शक्ति है। इसी तथ्यको स्वामो समन्तभदने स्वयंभूस्तोत्र में इन शब्दों में स्वीकार किया है अलंध्यशक्ति विलन्यतेयं हेतुद्याविकृतकार्यलिंगा। अनीश्वरो जन्मरह क्रियातः संहत्य कार्यविति साध्ववादीः ।।३३।। हेतुद्वयसे उत्पन्न हुआ कार्य जिसको पहिचान है ऐसी यह भवितव्यता अलंध्यशक्ति है। फिर भी मैं करता है ऐसे अहंकारसे पीड़ित यह प्राणी सब सहकारी कारणों को मिलाकर भी कार्योके सम्पन्न करने में अनीश्वर-असमर्थ है यह आपने ठीक ही कहा है ।।३।। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जयपुर (खानिया) चर्चा आचार्य ने इसमें 'तारशी जायते' इस श्लोक के समान 'भक्तिभ्यता पर ही जोर दिया है। और देखिए--- तत्रापि हि कारणं कार्येणानुपक्रियमाणं यावत् प्रतिनियतं कार्यमुत्पादयति तावत्सर्वं कस्मान्नोपादयतीति चोथे योग्यतैव शरणम् । - प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० २३७ उसमें भी कारण कार्य से अनुपक्रियमाण होता हुआ जब तक वह प्रतिनियत कार्यको उत्पन्न करता है। तब तक सबको उत्पन्न क्यों नहीं करता ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि योग्यता ही शरण है । इसमें भी 'ताशी जायसे' इत्यादि श्लोक के समान भवितव्यता पर ही बल दिया गया है। और देखिए चतुरंगबलं कालः पुत्रा मित्राणि पौरुषम् । कार्यकृन्तावदेवात्र यावचलं परम् ॥ देवे तु त्रिकले काल-पौरुषादिर्निरर्थकः । इति मिति नान्यथा इस लोक में जब तक देव ( भवितव्यता ) का उत्कृष्ट बल है तभी तक चतुरंग सेना, काल, पुत्र, मित्र और पौरुष ये कार्यकृत हैं । देवके अभाव में काल और पौरुष आदि सब निरर्थक हैं ऐसा जो विद्वान् जन कहते हैं वह यथार्थ है, अन्यथा नहीं है । - हरिवंशपुराण सर्ग ५२, श्लो०७१-७२ ॥ हरिवंशपुराण में और देखिए--- दिव्येन दमानायां दहनेन तदा पुरि। नूनं क्वापि गता देवा दुर्वारा भवितव्यता ॥ उस समय द्वारिकापुरोक्रे दिव्य अग्निसे जलते समय निश्चयसे देव कहीं भी चले गये । भवितव्यता दुनिवार है ।। सर्ग ७७, ६१ ।। देखिये इस भवितव्यता को दुनिवार कहा गया है। क्या अपर पक्ष यह बतलाने की कृपा करेगा कि भट्टाकलं वने 'ताशी जायते' इत्यादि एलोकको उद्घत कर उस द्वारा हरिवंशपुराणके इस कथनसे अन्य नई क्या बात कही है ? जिससे कि अपर पक्षको वह श्लोक अत्यधिक खटका ! वास्तव में देखा जाय तो उस श्लोक में जैन मान्यताका सार भरा हुआ है। उस द्वारा पुरुषार्थ तथा अन्य साधन सामग्रीको अस्वीकार नहीं किया गया है। ये सब भवितव्यता के अनुसार मिलते हैं यहो तथ्य उस द्वारा घोषित किया गया है। किन्तु अपर पक्षको यही इष्ट नहीं है, क्योंकि वह केवल बाह्य साधन सामग्रोके बलपर ही कार्यको उत्पत्तिको स्वीकार कराना चाहता है, इसके लिए उसकी ओरसे उपादानके स्वरूप पर भी प्रबल प्रहार किया गया हैं । ऐसी अवस्थामें उसके द्वारा भट्टाकलंकदेव जैसे समर्थ आचार्य द्वारा स्वीकृत उक्त क्लोकको यदि जैन संस्कृत्तिके विरुद्ध घोषित किया जाय तो इसमें अनहोनो ऐसी कोई बात नहीं । स्वामी समन्तभद्रने अपनी आप्तमीमांसा में 'दैव' और 'पुरुषार्थरूप' अदृष्ट और दृष्ट सामग्री के आधारसे अर्थसिद्धि में अनेकान्तगर्भ स्याद्वाद की स्थापना की इसमें सन्देह नहीं । पर इसका 'वादशी जायते' Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान इत्यादि श्लोक कथन के साथ विरोध कहाँ है यह हमारी समझ नहीं आया। यदि मीमांसाकथन का उनके साथ विरोध है ऐसा माना जाय तो स्वयंभूस्तीष, प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा हरि पुराण जो प्रमाण हम अभी दे आये है उनके कनके साथ भी आप्तमीमांग के उक्त कथनका विशेष मानना पड़ेगा। क्या अपर ग इसे स्त्रीकार करेगा ? वह इसे स्वीकार करे या न करे | किन्तु उस पक्ष के इस आवरण जो स्थिति उत्पन्न हो गई है उसका स्पष्टीकरण करना अपना कर्तव्य समझकर यहाँ हमने उसे स्पष्ट किया है। ४८७ अपर पक्षकी ओरसे यांवर जो ८८ ८२, ६० और १ उन चार कारिकाओंका आशय दिया गया है उसमे किसी कारिका के ब्राजय में यद्यपि विप्रतिपत्ति हो सकती है पर उसको हम यहाँ विशेष चरचा नहीं करेंगे। माँ इतना अवश्य कह देना चाहते हैं कि अपर पलने जो 'मोक्षस्यापि' इत्यादि वचनको उद्घृत कर उम्र द्वारा जो गोकी उभयकारणता का निर्देश किया है मां उस वचनमें वह उभयरूप कारणता उपचरित और अनुपचारित इन दोनों दृष्टिमोंको ध्यान में रखकर ही वर्णित की गई है। ऐमी उभयरूप कारणताका निवेदन तो हमने कहीं किया ही है और न हो सकता है। चाहे अनन्त अस्ल गुणांका पदगुणी हानिवृद्धिरूप कार्य हो या अन्य कोई कार्य हो, यह उभयरूप कारणता यथायोग्य सबमें पाई जाती है । अपर पाइयादि श्लांनपर इन बातोंको आधार बनाकर अपनी प्रतियांकाका कलेवर पुष्ट किया है १. 'वह पत्र जैन संस्कृतिकी मान्यता के विरुद्ध क्यों है ? २. बौर यदि विषय है तो फिर श्री दिया है ? देवने इसका उद्धरण अपने अन्य किस वायसे ३. तथा जैन संस्कृति में मान्य कारणव्यवस्थाके साथ उसका मेल बैठता है तो किस तरह बैठता है ? ४. इतना ही नहीं, इसके साथ हमें इस बातका भी विचार करना है कि इसको सहायताले श्री पं० और आप कारस्थासम्बन्धी अपने पक्ष की दृष्टि करने को सफल हो सके है ?" उसका हमने जो अर्थ १. प्रथम प्रश्नकी व्याख्या करते हुए अपर पक्षका कहना है कि किया है उसके आधाश्चर प्राणियों को अर्थसिद्धिके विषय जैन संस्कृति द्वारा मान्य देव और सम्मिलित कारणताफा प्रतिरोध ही करता है ।' समाधान यह है कि उक्त पदमें मात्र प्रत्येक कार्यको वाह्याभ्यन्तरसामग्री कि आधारपर मिलती है इतना ही विचार किया गया है, अतः उससे गो-मुरुभावते अर्थसिद्धि देव और पुरुषार्थको एक साथ स्वीकार करनेमें कोई बाधा नहीं आती, अतः यह जैनदर्शन ( जिसे अपर पक्ष जैन संस्कृति कहता है उस ) का पोषक ही है । इसका अर्थ भी इस आशय से किया गया है। स्पष्ट है कि उक्त श्लोकमं जो अर्थ निषिष्ट है उनका जैनदर्शन के साथ निर्विवाद से अविरोध ही सिद्ध होता है । अतः उसे प्रमाण में उपस्थित करना सर्वथा उचित है। २. दूसरे का करते हुए अपर पक्षका कहना है कि उक्त पद्य सा अपने पक्षकी पुष्टि करता है इस आशय से भट्टालकदेवने उसे उपस्थित कर केवल पुरुषार्थ सिद्धि माननेवाले दर्शनका खण्डन करने अभिप्रायले उसे उपस्थित कियर है।' न Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा समाधान यह है कि एकान्त पुरुषार्थबादके निरसन के लिए आचार्यने उसे प्रमाणरूपमें उपस्थित किया है इसमें सन्देह नहीं । किन्तु वे मात्र उसे लोकोक्ति मानते रहे इस बातका उनके समग्र कथनसे समर्थन नहीं होता। उन्होंने तो उसे भाग्य रखा हो। 'इति प्रसिखे' लिखकर आचार्य विद्यानन्दमे भी उसकी प्रामा निकतापर अपनी मुहर लगा दी। यह प्राचीन किसी जैनाचार्यका हो वचन है, लोकोक्ति नहीं यह उसकी रचना ही सिद्ध होता है। कार्यका नियामक उपादान ही होता है, बाह्य सामग्री नहीं ऐसा स्वामी समन्व भद्रका भी अभिप्राय है। यह केन्द्र है। उसके आधारपर कार्य कारणभावका पूरा चक्र घूमता है । उक्त श्लोक मुद्धि व्यवसायादिकी उत्पत्ति विवक्षित भवितयतासे होती है यह नहीं कहा है, बल्कि यह कहा है कि जैसी भवितव्यता होती है वैसी बृद्धि हो जाती हैं, पुरुषार्थ भी उसीके अनुकूल होता हूँ और बाह्य साधनसामग्री भी उसी अनुकूल मिलती है। अपर पक्षको उक्त श्लोक में प्रयुक्त हुए शब्दोंको ध्यान में रखकर ही उसकी व्याख्या करनी चाहिये। अपनी इच्छानुसार कुछ भी अर्थ करके उसे उक्त शोकका अर्थ बतलाना यह विद्वत्सम्मत मार्ग नहीं कहा जा सकता। प्रतिनियत कार्यको भविता एक यस्तु है और उसके साथ उम्र कार्यकी अन्य साधन सामग्री दूसरी वस्तु है । सब अपने अपने प्रतिनियत कारणोंसे उत्पन होकर भी उनका प्रतिनियत भवितव्यता के साथ ऐसा सहज योग बनता है जिससे प्रत्येक समय में प्रतिनियत कार्यकी उत्पति ही हुआ करती है यही उक्त श्लोका आशय है। જ समर्थ उपादान प्रतिनियत कार्यको अपेक्षा प्रतिनियत पर्याययुक्त द्रव्य है। यह स्वयं क बनकर तन्मय होकर परिणमता है का सामग्रीका व्यापार उससे सर्वथा मित्र अपने में ही हुआ करता है, इसलिए निश्चययसे हमारा यह लिखना सर्वथा उचित ही है कि 'कार्य केवल भवितव्यता (समर्थ उपादान) से ही न हो जाया करते है, निमित्त उदम अकांचरकर ही रहा करते है' जैसे उक्त श्लोक भवितव्यता के साथ बुद्धि आदि अन्य साधन सामग्रोकी सूचना देता है वैसे हमारे द्वारा उल्लिखित उक्त वाक्य भी अन्य साधनसामग्रीको सूचना स्पष्टतः दे रहा है। पूरे वापर दृष्टिपात कीजिए। भवितव्यताके सिवाय अन्य सामग्रीमें व्यवहारसे मिमितता स्वीकार करके दी वह वाक्य लिखा गया है। जैसे वह इलोक अन्य वाह्य सामग्री में व्यवहारसे कारणताका निषेध नहीं करता, वैसे हम भी नहीं कर रहे हैं। हमारा और उक्त श्लोकका आशय एक ही है। I अपर पक्षने भवितत्रता अनुसार सब साधन सामग्री मिलती हैं इसकी बड़ी कड़ी आलोचना की है। उसे इस बाउसे बड़ा सन्ताप है कि उक्त रोक्ने अन्य समस्त साधन सामग्रीको भवितव्यको दयापर छोड़ दिया है। किन्तु अपर पक्षको ध्यान रखना चाहिए कि वस्तुवस्था हो ऐसी है, इसमें न उनस श्लोकका दोष है और न उसके रचयिताका ही विवक्षित समयमे यदि किसी की बुद्धि पड़ने की होती है तो प्रश्न होता है कि उसी समय देसी बुद्धि क्यों हुई ? अपर पक्ष कहेगा कि हा अभ्यन्तर सामग्री के कारण। उसपर पुनः प्रश्न होता है कि उसी समय ऐसी वाह्याभ्यन्तर सामग्री क्यों मिलो ? अपर पक्ष कहेगा कि प्रयत्न करनेसे | इसपर पुन: प्रश्न होता है कि उसका सा प्रयत्न बाह्यान्तर सामग्री के अनुसार हुआ या इसके बिना हो गया ? इसपर अपर पक्ष यही तो कहेगा कि उस समय सा प्रयत्न स्वयं नहीं हो गया किन्तु बाह्या स्यन्तर सामग्री के अनुसार हुआ। इसपर प्रश्न होता है कि उस बाह्याभ्यन्तर सामग्री में विवक्षित कार्यकी तथा अन्य साधन सामग्री के वैसे परिणमनेकी भवितव्यता सम्मिलित है या नहीं ? अपर पक्ष इसका निषेध तो कर नहीं सकता। इसपर अपर पक्ष कहेगा कि विदाका अर्थ प्रत्यासत्ति है और वह अनेक योग्यतावाली होती है, इसलिए कौन योग्यता कार्यरूप परिणमे यह अन्य साधनसामग्रीपर अवलम्बित है । इसपर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका है और उसका समाधान पुन: प्रश्न होता है कि अन्य जितनी साधन सामग्री है वह भी प्रत्येक प्रत्येक समय में अनेक योग्यतावाली है, इसलिए उनमें से कौन योग्यता काम सहकारी वने इसे भी तो किसी दूसरी साधनसामग्रीपर अवलम्बित मामना चाहिए? इसपर अपर पक्ष कहेगा कि अन्य साधनसामग्री में तो प्रतिनियत पर्याययोपलासे युक्त द्रव्य हो कारण होता है । तो इसपर आगमके अनुसार हमारा कहना है कि जैसे पाप प्रतिनियत पर्याययोग्यतासे युक्त द्रव्यको अन्य सामग्रोके रूपमें कारण गानते हो यैसे हो प्रत्येक कार्य प्रतिनियत पर्यायशंग्यतासे युक्त असाधारण द्रव्यको कारण मानो। इस प्रकार इतने विवेचतसे स्पष्ट है कि उक्न इलोको जो भवितव्यताके अनुसार अभ्य साधन सामग्रीका मिलना लिखा है वह यथार्थ ही लिखा है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पण्डितप्रवर टोडरमल्लजीने मोक्षमार्गप्रकाशक ओ कुछ लिखा है उसका आशय वही है जो उक्त श्लोकका है । तया पं० फूलचन्द्रने भी जैनतत्वमीमांसाउसीका अनुसरण किया है। जनदर्शनका सार भी यही है। अपर पक्षने जनसंस्कृति किसे कहा यह तो हम जानते नहीं, वह जाने । परन्तु जिसे वह पा जैनसंस्कृति मानता है उसका अभिप्राय भी कोई दूसरा नहीं हो सकता, अन्यथा उसे जैनसंस्कृति कहना परिहासमात्र होगा। अपर पक्षने पण्डितप्रवर टोडरमलजीके एक दुमरे उल्लेखको उपस्थित कर लिखा है कि 'उन्होंने भषितम्यता और पुरुषार्थका दुमरे ढंगसे अर्थ किया है। किन्तु यह बात नहीं है। जैसा कि अपर पक्षके इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है-'वे तो अपने उक्त कथनसे इतनी हो बात कहना चाहते है कि कितने हो उपाय करते जाओ, यदि भवितव्य अनुकल नहीं है तो कार्यको सिद्ध नहीं हो सकता है।' महाँ अपर पक्षने भवितव्यको कार्यकारी स्वीकार कर लिया इतकी हमें प्रसन्नता है। साथ ही उस पक्षको इतना और स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस भवितव्यताका प्रयोग दो अयोम होता है..-एक मात्र द्रध्ययोग्यताये अर्थ में और दूसरे द्रव्य-पर्याययोग्यताके अर्थमें । द्रव्ययोग्यताका नाम ही व्यवहार उपादान है और द्रव्य-पर्याययोग्यताका नाम ही समर्थ या निश्चय उपादान है। मिट्टी में पट बनने की योग्यता तो है, किन्तु उसी अवस्थाका परिण मते हए उसमें पर्याययोग्यता नहीं भाता, इसलिए जुलाहा मिट्ठोसे पट बननम व्यवहार हेतु नहीं हो पाता। बऔर यदि शी मिट्टी में प्रतिनियत उत्तर कालमें घटरूप होने की पर्याययोग्यता आनेवाली है तो वह अपने प्रतिनियत कालमें कुम्भकार आदिको निमित्त कर नियमसे घटहा स्वयं परिणम जायगी। पण्डितप्रवर टोडरमलजीके उक्त कथनका वही आशय है। पण्डितजीने वह कयन मोक्षमार्गकी दृष्टिसे लिखा है पर प्रतिनियत योग्यताको भुलाया नहीं है। इस परसे यहाँ पर अगर पक्षने जो भी टीका की है वह कैसे पर्थ है यह सुतरा ज्ञात हो जाता है। उस पलका जितना कुछ भी लिखना है वह मात्र व्यवहार योग्यताको लक्ष्यमें रख कर हो लिखना है अथवा अन्य कार्यके समर्थ जयादानको उससे विरुव अन्य कार्यका कल्पित कर लिखना है। ऐसी अवस्थाम कोई भी बतला कि उसके इस कथनको कार्य-कारणभावकी सम्यक विवेचना कैसे कहा जा सकता है। वह पक्ष उपादानको अपेक्षा लो व्यवहार उपादानको सामने रखता है या विधक्षित कार्यके विरुद्ध दूसरे कार्यके उपादानको सामने रखता है और फिर बाह्य सामग्रीके आधार पर इच्छानुसार विवेचना करना प्रारम्भ कर देता है। यही उसके विवेचनको शैली है जो अपरमार्थभूत होनेसे कार्य-कारणभावका सम्यक निर्णय करने में उसके लिए स्वयं बाधक सिद्ध होती है। कि भवितव्यता परोक्ष होती है, इसलिए निर्णय करने में गलती होती है और इसलिए व्यक्तिका प्रयत्म विवक्षित कार्यकी सिद्धि में व्यवहार हेतु नहीं बन पाता। इसके विरुद्ध भवतिव्यताके अनुसार जिस समय जो कार्य होना होता है उसमें उसका प्रयत्न व्यवहार हेतु बन जाता है। प्रत्मक व्यक्तिका अनुभव Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा यही कहता है । अपर पक्षने यहाँ पर जो टीका की है उससे भी यही सिद्ध होता है, अतएव तादृशी जायते' इत्यादि श्लोक द्वारा जिस मान्य सिद्धान्तको घोषणा की गई है और जिसे पण्डितप्रवर टोडरमलजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशकमें अपने शब्दों में स्वीकार किया है वही सिद्धान्त परमार्थ सत्यका उद्घाटन करनेवाला है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । इसी सिद्धान्तका समर्थन करते हुए पण्डितजी क्या लिखते हैं यह उन्हीं के शब्दों में पढ़िए __ सो इनकी सिद्धि होय तो कषाय उपशमनेते श्रुःख दूर होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये उपायनिके आधीन नाही, भवितव्यके आधीन है । जारी अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जात अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिए । -पृ० १ ० ३ । इससे पण्डितप्रवर टोडरमलजीके समग्र कयनका क्या भाशय है यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। साय हो इससे अपर पक्षने प्रकृतमें जो टोका की है वह भी व्यर्थ सिद्ध हो जाती है। इतना ही क्यों, उस पक्षने अपने विवेचनके आधारसे जो निष्कर्ष फलित किया है वह भो पर्थ सिद्ध हो जाता है, क्योंकि अपर पक्ष समर्थ उपादान के अनुकूल बाह्य सामग्री नहीं मिलती इसकी पुष्टिमें अभी तक एक भी आगमप्रमाण उपस्थित करने में सर्वथा असमर्थ रहा। अपर पक्षने लिखा है कि पं.प्रवर टोडरमलजीके कथन में सामान्यतया चेतनरूप सभी तरह के काकी उपादान शक्तिको नहीं ग्रहण किया गया है, इसलिए ऐसो भवितव्यता जीवके पारिणामिक भावरूप भव्पत्व या अभव्यत्व हो सकते है अथवा कर्मके यथासम्भव उदय, उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे प्राप्त कार्यसिद्धिके अनुकूल जीवकी योग्यता हो सकती है। और इस प्रकार अपना यह अभिप्राय पक्त किया है कि 'पं० फूलचन्दजी ५० प्रवर टोडरमलजीके कथनसे जो 'तारशी जाग्र बुद्धिः' इत्यादि पद्य का समर्थन कर लेना चाहते हैं वह ठीक नहीं है।' किन्तु ऐसी टीका करते हुए कमा अपर पक्ष यह बतला सकता है कि सनरूप पदार्थों के लिए कार्गपारणभावके नियम अन्य है और अचेतनरूप पदार्थोके लिए कार्यकारणभावके नियम अन्य है? अर्थात् नहीं बतला सकता, क्योंकि समर्थ उपादानका सभी शास्त्रकारोंने जो लक्षण किया है वह जीव-जीव सबकी दृष्टिमें ही किया गया है और इसी प्रकार बाह्य सामग्रोको अपेक्षा जो व्यवहार हेतु ऑके बैनसिक और प्रायोगिक ये दो भेद पागममें बललाये हैं वे जीव-अजीव सभीके कार्यों की दृष्टिसे ही किये गये हैं। इसके लिए अपर पक्ष इलोकवार्तिक अ० ५ सू० २२ पर दृष्टिपात करनेकी कृपा करे । इससे स्पष्ट है कि पं० प्रवर टोडरमल जीने जिस भवितव्यताका निर्देश किया है वह सब द्रव्योंके सब कार्यों पर लाग होता है और उस आचारसे हमने 'ताहशी आयत बुद्धिः' इत्यादि श्लोकका जो अर्थ किया है और उस परसे जो निकर्ष फलित किया है वह भी यथार्थ है। भवितव्यता जिस कार्यकी हो उसीको जन्म देती है और उसके साथ, व्यवहार हेतुरूप जो सामनी होती है वह भी, नियमसे मिलती है। अपर पक्षने लिखा है-'मान लीजिए -किसी व्यक्तिमै धनी बनने की योग्यता है, लेकिन केवल योग्यताका सद्भाव होनमानसे तो वह व्यक्ति धनी नहीं बन जामगा।' आदि। इसका समाधान यह है कि जिस व्यक्ति में जितने कालमें धनी बनने की योग्यता होगी वह उतने कालमें नियमसे धनी बन जायगा। उस कालके मध्य अन्त तक उसे बैसो साधन सामग्री भी मिलेगी और उसका तदनुकल व्यापार भी होगा। जैसे जो तद्भवमोक्षगामी जीव होता है वह मनुष्य पर्यायको समाप्त कर निममसे मुक्त होता है। तथा जन्मसे Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान ४९१ लेकर अन्त तक प्रति समय उसे अन्तरंग वहिरंग सामग्री भी वैशी मिलती जाती है और प्रयत्न भी उसीके अनुरूप होता रहता है । प्रत्येक कार्यके स्वकालका अपना स्थान है, उसमें फेर-फार होना सम्भव नहीं है । अपने विकल्पों को पुष्ट करने के लिए वचनोंका प्रयोग किसी भी प्रकारसे भले ही किया जाय, किन्तु वस्तुस्थिति यही है। यह समग्र जैनदनिका गाशय है। जैन संस्कृति उसके बाहर नहीं है। पं० प्रवर टोडरमलजी के कथनका भी मही आशय है और है यही आशय 'तादृशी जायते बुद्धि:' इसका भी । जब कि अपर पक्ष के कथनानुसार क्या वृद्धि, क्या व्यवसाय आदि सभी कार्य भवितव्यतानुसार होते तो जैनदर्शनिक हार्दको प्रकाशित करनेवाले उस वलोकते हो अगर पक्षका क्या बिगाड़ा है जिस कारण उसे अपर पक्षका कोपभाजन होना पड़ा है। व्यक्ति ओ संकल्प करता है यह उस ( संकलन ) की भवितव्यतानुसार करता है । वहाँ भी ता ही उसकी जननी है। ऐसा ती सूक्ष्मातिसूक्ष्म या स्थूलातिस्थुल ऐसा एक भी कार्य नहीं जो भवितयताको कर होता हो। भवितव्यलाका वया पुरुषार्थ, क्या अन्य कुछ सब पर आधिपत्य है । पृथक् पृथक विचार करने पर प्रत्येक कार्यको भवितव्यता भिन्न-भिन्न है । पर उन सबमें ऐसा सुमेल है जिससे नियत समय पर प्रत्येक कार्य होता रहता है, विरोधाभास उपस्थित नहीं होता । अपर पक्षने 'वादशी जायते बुद्धि का एक यह अर्थ दिया है - "जिस कार्य के अनुकूल वस्तु में उपादान शक्ति हुआ करती हूँ समझदार व्यक्ति उस वस्तुसे उसी कार्यको सम्पन्न करनेको बुद्धि ( भावना ) क्रिया करता है और वह पुरुषार्थ ( व्यवसाय ) भी तदनुकूल ही किया करता है, तथा वह वहां पर तदनुकूल ही अन्य सहायक साधनसामग्रीको जुटाता है। यहाँ पहले तो यह देखना है कि इस वस्तुमें इस कार्य के अनुकूल उपादान शक्ति है इसे वह समादार व्यक्ति जानता कैसे है, क्योंकि शक्ति तो परोक्ष है । कदाचित् काकतालीय न्याय से जैसा उसने विचार किया वैसी हो उत्तर कालमें उसमें द्वय पर्याय उपादान शक्ति हुई और भावनानुसार कार्य हो गया तो बात दुसरी है, अन्यथा उग वस्तु उग समझदार व्यक्तिको निमित्त कर जो-जो कार्य हुआ वह सब उस वस्तुएँ अवस्थित भवितानुसार ही कहा जायगा या नहीं ? यदि कहो कि भवितव्यतानुसार हो कहा जायेगा तो फिर 'ताशी जायते बुद्धि: इस श्लोक के तार्शसे विरोध नयाँ ? यदि कहो कि उस वस्तु में जो-जो कार्य वह उस वस्तु अवस्थित भवितव्यतानुसार नहीं कहा जायगा तो फिर यह कहना चाहिए कि उनसे भी गेहूँ उत्पन्न किया जा सकता है। अब रही सहायक सामग्रीको जुटाने की बात सो यहाँ भी यही विचार करना है कि यह सहायक सामग्री अपनी भवितव्यतानुसार ही परिणमती है कि उस रामझदार व्यक्ति प्रयत्नानुसार ? यह सामग्री अपनी भविष्यतानुसार परिणमे इसका तो नियम है, समझदार व्यक्तिको इच्छानुसार परिणमे इसका नियम नहीं है। मत: 'जुटाना' यह कहना भी कथनमात्र ही है । अतएव अपर पक्षने उम्र पचका जो उक्त अर्थ किया है वह तर्कसंगत नहीं है और न आगमसंगल ही है । हुआ उक्त में बुद्धि, व्यवसाय और सहायक सामग्रीका उल्लेख हुआ है। इसका भाशय इतना ही है. कि भवितव्यतानुसार कार्य होनेमें जहाँ ये सब होते हैं वहाँ से सब कार्य प्रति व्यवहारसे अनुकूल हो होते हैं । इस पद्य में समस्त बाह्य सामग्रीका संकलन कर दिया गया है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि सभी कार्यों में व्यक्तिको बुद्धि और व्यवसाय व्यवहार हेतु हैं ही। जहाँ इनकी व्यवहारहेतुता है यहाँ भवितव्यतानुसार ही है वह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार समग्र कथनपर दृष्टिपात करनेसे यहो निश्चित होता है कि वियनायसे सभी कार्य अपने-अपने उपादानके अनुसार ही होते हैं। वहीं स्वयं कर्त्ता बनकर इन्हें अपने अभिन्न उत्पन्न करता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्या बाह्य सामग्री उसको उत्पत्तिमें सहायक है यह कथन व्यवहारमात्र है। हमने इस धष्टिको सामने रखकर ही उक्त पञ्चका अर्थ किया है, इसलिए वह तो संगत है ही। यदि दृष्टिको गौण भी कर विचार किया जाय तो उस पद्यक शब्दही स्वयं इस अर्थको प्रकाशित कर देते हैं, क्योंकि सस्यार्थको ध्यान में रखकर ही इस पद्यकी रचना हुई है। १४. कुछ विचारणीय बातोंके क्रमशः उत्तर १. स्त्रीका रज और पुरुषका वीर्ण शरीरका उपादान है और उसे निमित्त कर जीव गर्भ में आता है। । इस प्रकार इन दोनी में निमित्त-नैमित्तिकना बनती है। अपने-अपने कार्य प्रत्येक उपादान है, एक-दूसरेके लिए निमित्त हैं । माताका गर्भाशय इनके लिए निमित्त है। इस प्रकार गर्भमें भ्रूणको वृद्धि होती है । अन्त में वह निसृत होता है, उसमें माताका उचित अवयव निमित होता है। माताके द्वारा भुक्त भोजन भी योग्य परिपाकके बाद इसमें यथायोग्य जगादान-निमित्त बनता है। वन्ध्या स्त्रीको पुरुपका निमित्त तो मिलता है, इसे अस्वीकार नहीं करना चाहिये । सन्तानके उत्पन्न न होनेका अन्य कारण है। विधवा स्त्री में ट्रब्य-पर्वाययोग्यता न होनेसे वह ऐम कार्यके लिए किसी भी हा निमित्त नहीं बनती। इस सम्बन्ध में अधिक लिखना उचित नहीं है। २. समर्थ उपादान असाधारण द्रव्यप्रत्यामत्ति और प्रतिविशिष्ट पर्यायप्रत्यासतिरूप ही होता है। इसलिए उपादानमें अनन्त शक्तियाँ होली है यह लिखता ठीक नहीं। इसलिए किसी शमिलके क्रमसे बिकासका . प्रश्न ही नहीं उठता। भोजनकी सामग्री भत्रितम्यतानुगार परिणमतो है, पुरुषको इच्छानुगार नहीं । वह तो उसमें निमित्तमात्र है। वह सामग्री सर्वथा एक भी नहीं। उसे एक बहना यह व्यवहार है। अतएव जिसे जिगरूप बनना होता है उसे वैसे वाह्य निमित्तोंका योग मिलता है । जो रसोईया या इच्छा रोटीमें निमित्त है वही रसोइया या एच्छा पुडी में नि:मत्त नही है। इसी प्रकार जो आटा पुड़ी बनता है वही आटा रोटी नहीं बनता। यहाँ तो स्गतः स्कन्ध भेद है। अतः मन्त्र कार्य अपनी-अपनी भवितव्यतानुसार हो रहे है और उसी आधार पर निमित्त नमित्तियोग मिल रहा है। यदि पड़ी बनने में निमित्त होनेवाले रसोइया और उसकी इच्छाको तथा रोटी बनने में निमित्त होने वाले रसोइया और उसकी इच्छाको सर्वथा एक मान लिया जाय तो उनको निमित्त कर बनी पुडी और रोटीम भेद नहीं बन सकेगा। और इसी प्रकार पुड़ी और रोटीके आटेको सर्वथा एक भान हिमा जाय तो भी पड़ी और रोटीम भेद नहीं बन सकेगा। स्पष्ट है कि जिस प्रकार पुडी और रोटीका उपादान पृथक्-पृथक् है, इसलिए उनसे पृथक्-थक दो कार्य निष्पन्न हुए है। उसी प्रकार उनको निमित्तभूत बाह्य सामग्री भी पृथक-पृथक् है । 'कारणानुविधायि ही कार्यम्' ऐमा आगमवचन भी है।। ३. कोई भी कार्य अनेक कारणमाध्य होता है। उसमें उपादान स्वयं कार्यरूप परिणमता है। वह उसका मुख्य-निश्चय कता है और बाह्य सामग्री उस में मात्र निमित्त है। प्रत्येक उपादान किस अवस्थामें किस रूप परिणमता है इसका नियम है । इसी निम्मको ध्यान में रखकर प्रत्येक कार्य बाह्य और आभ्यन्तर उपाघिकी समग्रता स्वीकार को गई है । इच्छा, प्रकारा, कागज और लेखनो इनका परिणाम (पर्याय) अपनेम होती है, स्याही में नहीं। स्याही माब्दरूप आकार बनन में उपाशन है, अन्य सब पवहार हेतु है। इससे स्पष्ट है कि इच्छा, प्रकाश, कागज और देखनीने काब्दरूप आकार ग्रहण नहीं किया। स्याहीमें स्वयं परिणम कर बह आकार धारण किया । यदि इच्छा आदि स्याहीसे तन्मय हो जावे तो में उसे परिणभावे, सा होता नहीं, अत: ये स्याही Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान को परिणमाते भी नहीं । ये स्याहीको शब्दरूप परिणमाते हैं यह उपचार कथन है । वस्तुस्थिति यह है कि स्याही स्वयं स्वकालमें इन इच्छा आदिको निमित्त कर शब्दरूप परिणम जाती है। कोई भी द्रश्य स्वसहाय होकर ही परिणमन करता है, परसे यदि दुसरे द्रव्यका परिणाम मान लिया जाय तो वह किसी भी ट्रम्पका स्वभाव नहीं ठहरेगा और स्वभावके अभाव में स्वभावनानका अभाव हो जाने से द्रवपके लोपका प्रसंग उपस्थित हो जायगा जो अपर पक्षको भी इष्ट नहीं होगा, अत: निश्वयसे प्रत्येक कार्य स्वसहाय होता है यहीं निश्चय करना ही श्रेयस्कर है। बिजलोके अभावमें यदि स्याही शब्दरूप नहीं परिणम रही है तो उस समय उसमें शब्दरूप परिणमनकी समर्थ उपादानता न होनसे ही वह शन्दरूप नहीं परिणम रही है इसे बिजलीका अभाव ही सिद्ध कर देता है। 'विवक्षितस्वकायकरणइन्स्यक्षणप्रासवं हि सम्पूर्णम्' विवक्षित अपने कार्यके करने में अन्त्यक्षणके प्राप्तानेका नाम हो सम्पूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि स्याही जिस समय लिखित शब्दरूप परिणामती है उसके अनन्त र पूर्व समयमें ही वह उसकी समर्थ उपादान है और जो जिसका समय उपादान होता है वह उसे नियमसे उत्पन्नकरता है ऐसा एकान्त नियम है-समर्थस्य कारणस्य कार्यवस्वमवेति (तस श्ली० पू०६८)। जैसे अयोगिकेवलीके अन्तिम समयमै समय रत्नत्रयरूपसे परिणत आत्मा मोक्ष कार्यका समर्थ उपादान है, इसलिए वह उसे नियमसे उत्पन्न करता है। और उसकी बाह्य सामग्री भी उसके अनुकूल रहती है उसी प्रकार यहाँ भी ऐसा समझना चाहिए कि जब जब स्याही शब्दरूप परिणामकी समर्थ उपादान बनती है तब तब वह नियमसे कागज पर शब्दरूप परिणमन करती है और बाह्य सामग्री भी तदनुकूल उपस्थित रहती है। यह सहज योग है जिसे कोई टाल नहीं सकता, अन्यथा किसी भी द्रश्यका स्वाश्रित परिणमन ही सिद्ध नहीं किया जा सकता और उसके अभाव में अपने पुरुषार्थ द्वारा मुक्तिकी चर्चा करना ही व्यर्थ हो जायगा । अतएव बिजलीके बुझने पर मा शरीरमें भयानक वेदना होने पर यदि स्याहीका परिशमन प्रश्नोंका उत्तर लिखनेरूप नहीं होता तो निश्चयनयसे उस समय स्याही सस कार्यका समर्थ उपादान नहीं है, इसलिए ही वह कार्य नहीं होता यह वस्तु के स्व. रूपका उद्धाटन करनेवाला होनेसे यथार्थ कथन है और बिजली का अभाव होनसे था शरीरमें भयानक वेदना होनेसे प्रश्नों का उत्तर लिखना असम्मत्र हो गया ऐमा कहना उसी अवस्थामें व्यवहार पक्ष माना जा सकता है जब कि बह निश्चय पक्षकी मिद्धि करने वाला हो, अन्यथा यह यस्तु के स्वरूाको ढकनेवाला होनसे अयथार्थपने की हो शोभा व हावेगा । किसी व्यक्ति के बाह्य चारित्र हो और अन्तरंग चारित न हो यह तो है गर अन्तरंग पारित्र हो और बाह्य चारित्र न हो यह नहीं होता। इससे सिद्ध है कि सर्वत्र अपना कार्य समर्थ उपादान ही करता है, बाह्य सामग्री तो निमित्तमात्र है। ४. कोई कीटाणु जब मरकर शरीरके एक भागसे दूसरे भागमें ऋजुगतिसे उत्पन्न होता है तो उसे एक समय लगता है, वही कीटाणु उसी नारीरके दूसरे भागमें यदि विग्रहगतिसे उत्पन्न होता है तो उसे दो समय लगते हैं । किन्तु वही कीटाणु यदि मनुष्य होने के बाद मरकर ऋजुगतिरो सातवें नरकमें जन्म लेता है तो एक समयमें छह राजुकी दूरी पार कर लेता है । और अशरीरी सिद्ध परमेटी उसी एक समयमें सात राजकी दूरी पार कर लेते है । यहाँ न तांगा है, न साइकिल और न है मोटरकार, रेलगाड़ी, हवाई जहाज और अतिस्वन विमान ही। कोई अंतरंग कारण होना चाहिए। जिससे गति में यह विचित्रता आलो है। परमाणुके विषय में तो आगममें यहाँ तक लिखा है कि मन्दगतिसे गमन करनेवाला परमाणु एक समय में आकाशके एक प्रदेशको हो लांघ पाता है जब कि वही परमाणु तीव्रगतिसे गमन करके एक समयमें लोकाकाशके चौदह राजु क्षेत्रको पार कर जाता है अर्थात् रूपर्दा कर लेता है । वहाँ न तो तांगा है, न मोटरकार है, न रेलगाड़ी है और न ही अतिथीन गमन करनेवाला अन्य बाहन ही है। यहाँ तक कि कर्म और नीकर्मका संयोग भी नहीं है । फिर Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा ऐसा क्यों होता है ? इस पर अपर पक्षने कभी दृष्टिपात किया। अपर पल रहेगा कि धर्म ग्रव्य तो है, किन्तु इस पर हमारा कहना यह है कि एक तो वह आश्रय हेतु है, निमित्त कर्ता नहीं। दूसरे अपर पक्ष यह स्वीकार हो नहीं करता कि ये धर्मादिक बार द्रव्य प्रतिविशिष्ट (प्रतिनियत ) पर्यायरूपसे ही प्रतिविशिष्ट (प्रतिनियत ) कार्यके लिए आश्रय हेतु होते हैं । ऐसी स्थिति अन्य कोई हेतु तो होना चाहिए जिसके कारण पर माणूको गति यह विदितता देखी जाती है। स्पष्ट है कि यहाँ अन्य जो भी कारण है उसका नाम कवायती शक्ति है। उसका जिस समय जैसा परिणमन होता है उसके अनुसार ही प्राणियों और पुद्गलोकी गति और आगति हुआ करती है। बाह्य साधन तो उपकरणमा है जो हम तको सिद्ध करते हैं कि इस रामय इस जोव या पुद्गली कियावती शक्तिका परिणाम किस रूपये हो रहा है। जैसे कोई मनुष्य बाजार मह कोले कपड़े पहन कर जाता है तो वे रागमे निमित्त होकर भी यह सिद्ध करते हैं कि इस समय इसके कड़ों के प्रति उत्कट राग है। उसी बाह्य वस्तु विमित व्यवहार होता है जो की सिद्धि करे यही परमागमका अभिप्राय है। गरी प्रत्येक रूपको स्वतन्त्रता बनी रहती है और सारी प्राणीको आगममं जो परतन्य बतलाया है उसका क्या अभिप्राय है यह भी समझ में आ जाता है। कर्म और गोकर्म किसीको पश्वग्य नहीं बनाते । परतन्त्र बनने में अपराधी स्वयं यह जीव हो है उपयोग गरिणामवाला यह जीव जब शुभ या अशुभ जिस भाव उपयुक्त होता है तब उसने वस्तुतः शुभ या अशुभ भावको ही परतन्त्रता स्वीकार की है, कर्म और नोकर्म की नहीं। किन्तु ऐसा नियम है कि शुभ या अशुभभाव परलक्षी परिणाम है, इसलिए जिसके लक्ष्यसे ये परिणाम उत्पन्न होते हैं व्यवहारसे उनकी अपेक्षा यह जीव परतन्त्र कहा जाता है। जैसे किसी मनुष्यकी अपनी स्कीमें अधिक आमक्ति देखकर अपर पक्ष उस मनुष्यको ही यह उपदेश देगा कि तुम्हें स्त्रीविषयक आसक्ति छोड़नी चाहिए। यदि यह मान लिया जाय कि स्त्री उसे परतन्ध बनाती है तो उस मनुष्यको उप देश वैसे लाभ हो गया ? तब तो स्त्रीको ऐसा उपदेश दिया जाना चाहिए कि तू इस मनुष्यको परतुम्व क्यों बनाती है, इसे गरतन्त्र बनाना छोड़ दे। इससे स्पष्ट है कि परमें राग करे या न करें इसमें प्रत्येक प्राणीको स्वतंत्रता है | लक्ष्य यदि परको कर राग करता है तो परतंत्र होता है, अन्यथा नहीं अब विचार कीजिए | कि शुगका जीव रहा कि कर्म और नोकर्ममें राध कर्मस्वभाववाला है और उसका फल सुख-दुख है, इसलिए ये भी कर्मस्वभाववाले हैं। इसमें नोमंका भो अन्तर्भाव हो जाता है। जब यह जीव उनसे चेतता है तब यह कर्मचेतना और कर्मफल चेतनाका कर्ता होता है। यह स्वयं उसने अपने अज्ञान से स्वीकार किया है, कर्म और नोकमने बलात् स्वीकार नहीं कराया है। ऐसी परिणतिमें ये तभी निमित्त हैं जब वह इसरूप स्वयं परिणमता है, अन्यथा नहीं। इससे सिद्ध है कि जिस समय जैसी क्रियावतो शक्तिका परिणमन होता है उस समय स्त्रयं कर्ता होकर यह जीव उस प्रकारकी गति करता है, तांगा, सायकल, मोटरकार, हवाई जहाज या अतिस्वन विमान तो निमित्तमात्र है । अपर पक्ष यहाँ पर सही पु० २०० का उल्लेख अपने पक्ष समर्थनको दृष्टिसे उपस्थित किया है किन्तु वह पक्ष इस उल्लेखके प्रकाश अष्टमस्री कारिका १०० ६ के इम उल्लेख पर भी दृष्टि करनेको कृपा करे कार्याप्रागन सरपर्यायस्तस्य प्रागभावः । तस्यैव प्रध्वंसः कार्य घटादिः । कार्यसे अनन्तर पूर्व पर्याय उसका प्रागभाव हैं तथा उसीका प्रध्वंस घटादि कार्य हैं । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ६ और उसका समाधान यहाँ जो प्रागभावका लक्षण किया है वही समर्थ उपादानका भी लक्षण है । इसी तथ्पको स्पष्ट करते हुए वहीं पृ० १०० में लिखा है ऋजुसूत्रनयार्पणाद्धि प्रागभानस्तावत्कार्यस्थोपादानपरिणाम एवं पूर्वोऽनन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततो कायसद्भावप्रसंगः , प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् । ऋजुत्र नयकी अपेक्षा तो पूर्व अनन्तररूप कार्यका उपादान-परिणाम ही प्रागभाव है। और उसके ऐसा होने पर पर्व अनादि परिणाम सन्तति में कार के मद्धानका प्रसंग हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि प्रागभावका विनाश ही कार्यहप स्वीकार किया है। यह आगम वनन है जो स्वाचित कयन होनसे यथार्थ पदवोको प्राप्त है। अपर पक्षने जो उद्धरण उपस्थित किया है वह पराश्रित कथन होनेसे व्यवहार पदवी को प्राप्त है। इन दोनों कथनोंको एक साथ मिलाकर अवलोकन करने पर अपने आप यह फलित हो जाता है कि निश्चय-समर्थ उपादानके कालमें ही उसका व्यवहार हेतु हुआ करता है। इन दोनों के प्रत्येक समय में होने का ऐया सहज योग हुआ करता है । जहाँ यह सहज योग प्रायोगिक होला है वहाँ मात्र यह प्राणो ऐसा विकल्प करता है कि मैंने इन साधनोंको जुटाया। कहो उसके विचारको अपार्थता है। यदि वह इसका त्याग कर दे तो उसे ऐसा भाम होने में देर न लगे कि अपने परिणामस्वभाव के कारण इनका यह परिणाम हुआ है, मैं तो उसमें निमित्तमात्र हूँ। अपर पक्षन इसी आगमके १० २०० का 'सस्मादयं' इत्यादि उद्धरण उपस्थित किया है। उसमें बिनासका हेतु अकिचित्कर है इस बातका निषेध किया गया है। यह तो अवलोकन करनेसे ही विदित हो जाता है कि यह प्रकरण बौद्ध दर्शनके "विनाश नितुक होता है' इस एकान्त मतका खण्डन करनेके अभिप्रायसे लिखा गया है। उसका कहना है कि प्रत्येक क्षण विनश्वरवील होनेसे स्वयं नष्ट हो जाता है, इसलिए उसे सहेतुक मानना उचित नहीं है। किन्तु उसका उत्पाद स्वयं नहीं होता, उसकी उत्पत्ति कारणान्तरोंसे होती है। इसके लिए उरा दर्शनने चार प्रत्यय ( कारण) स्वीकार किये है--समनन्तर प्रत्यय जो उत्तर क्षणको उत्पत्तिके कालमें असत्त है, इसलिए बह दर्शन असत् से सत्की उत्पत्ति मानता है। किन्तु पूर्व क्षणके विनाश होवे पर उत्तर क्षणको निपमसे उतात्ति होती है, इसलिए उस दर्शनने उसे कारण रूप से स्वीकार किया है। इगसे यह तो स्पष्ट हो गया कि उस दर्शनमें वस्तुतः उपादानरूप कोई पदार्य नहीं है । फिर प्रत्येक क्षणका उत्पाद होता कैसे है? जैसे प्रत्येक क्षणका विनाश होना उराका स्वभाव है थैम उत्पाद होना उसका स्वभान तो है नहीं, अतः जमकी उत्पत्ति सहेतुक होनी चाहिए। यही कारण है कि उस दर्शनने समनन्तर प्रत्ययके समान उत्लादके अन्य तीन कारण और स्वीकार किये हैं। वे है-आलम्बनप्रत्यय, महतारोप्रत्यय और अधिपतिप्रत्यय । इस आधार पर उस दर्शनका कहना है कि जैसे उत्पाद सहेतुक होला है वैसे विनाश सहेतुक नहीं होता । अपने इस अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए वह कहता है कि हेतु ( मुद्गरादिके व्यापार ) से कारण क्षण ( रामनन्तर प्रत्यय )का बुछ नहीं होता, वह स्वयं ही नष्ट होता है । इस पर आचार्यका कहना है कि कारणसे कार्गका भी कुछ नहीं होता, वह भी स्वयं ही उत्पन्न होता है ऐसा स्वीकार कर लेना चाहिए और ऐलो अवस्था में जैसे आT (बौद्ध) विनाशको निहतुक मानते हो उसी प्रकार उत्पादको भी नितुक स्वीकार कर लेना चाहिए । यतः बौद्धदर्शन उत्पादको निर्हेतुक मानने के लिये तैयार नहीं, इसलिए इस परसे आचार्यने उसे यह स्वीकार करने के लिये बाध्य किया है कि 'तस्मादयं विनाशहेतुर्भाचमभावीकरोतीप्ति म पुनरकिंचित्करः।-इसलिए यह विनाशका हेतु भावको अभावरूप करता है तो यह अकिचित्कर कैसे हो सकता है? Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा यह उस कथनका आशय है जिसे यहाँ अपर पक्षने अपने अभिप्रायको पुष्टिमें उपस्थित किया है । बौद्धदर्शन प्रत्येक क्षणको उत्पत्ति परसे मानता है और उसका विनाश निर्हेतुक मानता है, इसलिए यहाँ उत्पत्तिके समान विनाशको भो परसे सहेतुक सिद्ध किया गया है। किन्तु यह स्थिति जैनदर्शनकी नहीं है, क्योंकि यह दर्शन प्रत्येक व्यको न केवल उत्पादरूप स्वीकार करता है, न वेबल व्ययरूप स्वीकार करता है और न केवल भौव्यरूप ही स्वीकार करता है। किन्तु ये तीनों वस्तुके अंश हैं और प्रत्येक द्रव्य इन तीन रूप है, अतः जहाँ यह प्रोत्यस्वभाव सिद्ध होती है वहाँ वह उत्पाद-व्ययस्वभाव भी सिद्ध होती है, अतः निश्वयसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यको पवस्या विसता है, इस दर्शन में यही मानना ही परमार्थ सत्य है। अन्य सब ब्यवहार है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर : १: नमः श्री वीतरागाय मंगलं भगवान् वीरो मंगळ गौतमी गणी । मंगलं कुन्दकुन्द्रार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ७ केवली भगवानकी सर्वज्ञता निश्चय से है या व्यवहारसे ? यदि व्यवहार से है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? समाधान १ आगम में निश्चय व्यवहार नयसे केवल भगवान्के केवलज्ञानके स्वहा का निर्देश करते हुए श्री नियमसारजी में लिखा है जाणदि पस्सदि सयं घवहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जापदि पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥ १५९ ॥ अर्थ-व्यवहार नवसे केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं, निलय नयसे केवलज्ञानो आत्माको जानता और देखता है ।। १५९ ॥ इसपर यत्र शंका होती है कि जब कि आगम केवल जिनका तोन लोक और त्रिकालवर्ती द्रव्यगुण पर्यागात्मक सब पदार्थों का जानना व्यवहार से माना गया है, निश्नयमे तो वे मात्र अपनी आत्माको हो जानते है । ऐसी अवस्थामं केवली जिनकी सर्वज्ञता अद्भुत ही ठहरती है। अतएव मात्र यही कहना उपयुक्त होगा कि वस्तुतः सर्वज्ञ अपनी आत्मा के मिश्राय अन्य किसीको नहीं जानते ? यह एक शंका है जिसपर यहाँ संक्षेप विचार करना है । प्रदन यह है कि केवली जिनकी सर्वज्ञता पराश्रित है या स्वाति ? यदि वह मात्र पराश्रित है तो उसे अद्भूत हो मानवी होगी। और यदि वह स्वाति भी है तो यहाँ यह देखना होगा कि श्रो नियमनारजीकी उक्त गाथायें जो यह कहा है कि केवलो जिन निश्चचसेनाको जानते है उसका क्या तात्पर्य है ? यह तो सुनिश्चित सत्य है कि जो धर्म लोक में पाया जाता है उसीका एक पके आश्रयसे दूसरे द्रव्यपर आरोप किया जा सकता है। जिस धर्मका सर्वथा अभाव होता है उसका किसी पर आरोप करना भी नहीं बनता। उदाहरणार्थ लोक में बन्ध्यासुत या आकाशकुसुम नहीं पाये जाते, अत: उनका किसी पर आरोप भी नहीं किया जा सकता। अतएव सर्वज्ञता नामका धर्म कहींवर होना चाहिये तभी उसका परकी अपेक्षा आरोप करना संगत ठहरता है अन्यथा यहू व्यवहार ही नहीं बन सकता कि केवलो जिन सबको जानते हैं । इसलिये प्रकृत में यह तो मानना ही होगा कि सर्वज्ञता नामका धर्म कहीं न कहीं अवश्य रहता ६३ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮ जयपुर (खानिया) व चर्चा है । इस प्रकार जब हम इस धर्म के अस्तित्वके विषय में विचार करते हैं तो मालूम होता है कि नियमसार में faraसे जिसे आत्मज्ञता कहा है उसमें सर्वज्ञता नामका धर्म समाया हुआ ही है। केवली जिनमें जो सर्वज्ञता है उसे मात्र परके आश्रयसे स्वीकार करनेपर तो वह असद्द्भूत ही ठहरती है, इसमें संदेह नहीं । किन्तु प्रकृत में ऐसा नहीं है, क्योंकि प्रत्येक आत्मामें एक सर्वज्ञत्व नामकी शक्ति है जिसके आश्रयसे केवली जिनमें सर्वज्ञता स्वाश्रित स्वीकार की गई है। तात्पर्य यह है कि केवली जिन स्वभाव से तो सर्वज्ञ है ही इसमें संदेह नहीं । फिर भी यदि सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षा कथन किया जाता है तो भी व्यवहारसे उनमें वह घटित होती है। यह नियमसारको उक्त गाथाका तात्पर्य है । श्री समयसार जोके परिशिष्ट में सर्वज्ञत्य और सर्वदशित्व दाजियोंके सद्भावको स्वीकार करते हुए आचार्य श्री अमृतचन्द्र लिखते हैं विश्वविश्व सामान्यस विपरिणतारमदर्शनमयी सर्वदर्शिवशक्तिः । विश्वविश्व विशेष भावपरिणतात्मज्ञानमयी सर्वत्वशक्तिः । अर्थ- समस्त विश्वके सामान्यभाव को देखने रूपसे परिणत आत्मदर्शनमयो सर्वदशित्व शक्ति है । तथा समस्त विश्व के विशेष भावोंको जाननेरूपसे परिणत बात्मज्ञानमग्री सर्वज्ञत्व शक्ति हुँ । इस प्रकार उक्त कथनसे यह सिद्ध होगया कि केवली जिनमें जो सर्वज्ञता स्वीकार को गई है वह जिस प्रकार परकी अपेक्षा घटित होती है उसी प्रकार वह स्वभावको अपेक्षा भी बन जाती है उसमें किसो प्रकारका विरोध नहीं है। यही कारण है कि परमात्मप्रकाशकी टीका में उसका विचार करते हुए उसे अनेक प्रमाणोंके माध्यम से केवली जिनमें स्वीकार किया गया है। परमात्मप्रकाशकी टीकाका यह कथन इस प्रकार है— आमा कर्मविवर्जितः सन् केवलज्ञानेन करणभूतेन येन कारणेन लोकालोकं मनुते जानाति है जीव सर्वगत उच्यते तेन कारणेन । तथाहि श्रयमात्मा व्यवहारेण केवलज्ञानेन लोकालोकं जानाति, देहमध्ये स्थितोऽपि निश्चयनयेन स्वात्मानं जानाति तेन कारणेन व्यवहारनयेन ज्ञानापेक्षया रूपविषये दृष्टिवस् सर्वगतो भवति न च प्रदेशापेक्षयेति । कचिदाह यदि व्यवहारेण लोकालोकं जानाति सहि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्वं न च निश्रयन येनेति । परिहारमाह-यथा स्वकीयमात्मानं तन्ममेत्येन जानाति तथा परद्रव्यं सम्मयखेन न जानाति, तेन कारणेन व्यवहारो भग्यते न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुनर्निश्चयेन स्त्रद्रष्यवत सन्मयो भूत्वा परनुव्यं जानाति तर्हि परकीय सुख-दुःख-राग-द्वेषपरिज्ञालो सुखी दुःखी राग द्वेषी च स्वादिति महद् दूषणं प्राप्नोतीति । अत्र येनैव ज्ञानेन व्यापकी भव्यते तदेयोपादेयस्यानन्तसुखस्याभिन्नत्वादुपादेयमित्यभिप्रायः ॥४२॥ अर्थ- हे जीव आत्मा कर्मोंसे मृक्त होकर करणभूत केवलज्ञानके द्वारा जिस कारण से लोकालोकको जानते हैं इस कारण वे सवंगत कहे जाते हैं । यथा - यह आत्मा व्यवहारसे केवलज्ञानके द्वारा लोकालोकको जानता है तथा देह में स्थित होकर भी निश्चयसे अपने आत्माको जानता है, इस कारण व्यवहारनयसे ज्ञानकी अपेक्षा विषय दृष्टिके समान सर्वगत हैं, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं। कोई कहता है कि यदि व्यवहार से लोकालोकको जानता है तो व्यवहारस सर्वज्ञता बनी, निश्चयमय से नहीं ? आगे इस शंकाका समाधान करते हैं - केबली जिन जिस प्रकार अपने आत्माको तन्मय होकर जानते है उस प्रकार पर द्रव्यको तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण ध्ययवहार कहा जाता है, परिज्ञानका अभाव होने से व्यवहार नहीं कहा गया है । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 शंका ७ और उसका समाधान ४९९ यदि निश्चयन से स्वद्रव्यको जानने के समान तन्मय होकर परद्रव्यको जानें तो परकीय सुख-दुःख, राग-द्वेषके परिज्ञान होनेपर वे सुख-दुखी, रागी-द्वेषो हो जाय यह महान् दूषण प्राप्त होता है । यहाँपर एकमात्र जिस ज्ञानको अपेक्षा केवलो जिनको व्यापक कहते हैं मात्र वही ज्ञान उपादेयभूत अनन्तसुखसे अभिन्न होनेके कारण उपादेय हैं यह अभिप्राय है । द्वितीय दौर : 2: शंका ७ प्रश्न यह था केवली भगवानको सर्वज्ञता निश्चयसे हैं या व्यवहारसे ? यदि व्यवहारसे हैं तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? प्रतिशंका २ इसके उत्तर में आपने नियमसार गाथा १५९ के अनुसार बतलाया है कि केवली भगवान् सब पदार्थोंको व्यवहारनमसे जानते हैं, अतः इनकी यह सर्वज्ञता असद्भूत है ऐसा आपने प्रतिपादित किया है। और अद्भुत शब्दका अर्थ आपने 'आरोपित' किया है ।, फिर आप लिखते हैं कि चूंकि लोकमें जो धर्म पाया जाये उसी का आरोप दूसरे द्रव्य पर होता है, इसलिये आपने पूर्वोक्त गाथा १५६ में निश्चयनयसे प्रतिपादित आत्मज्ञतामे सर्वज्ञताका सद्भाव स्वीकार किया है। इस प्रकार आप केवली भगवान् सर्वज्ञताको आत्मज्ञताको अपेक्षा वास्तविक मानकर उसी सर्वज्ञताको उन्हीं केवली भगवान्में सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षा आरोपित कर लेते हैं. आपके इस कथनमें दो बातें विचारपोय हो जाती हैं (१) आत्मज्ञलाकी अपेक्षा सर्वज्ञताका क्या रूप है ? (२) उन्हीं केवल भगवान् में सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षासे आरोपित सर्वज्ञता आपने स्वीकृत की है उसकी संगति किस प्रकार हो सकती है ? ये दो प्रश्न हमारे खड़े ही रहते हैं । पुनश्च आपने जो निश्चय से सर्वज्ञता स्थापित करनेके लिये श्री अमृतचन्द्र सूरि प्रमाणका उल्लेख करते हुए समयसार के अनुसार जीव में सर्वदशित्व और सर्वज्ञत्व नामकी दो शक्ति स्वीकृत की है जो स्वाश्रित होनेसे निश्चयतयकी अपेक्षा आत्माकी सर्वज्ञताकी घोषणा करती हैं। यह और दूसरा नियमसारके मतका आपने उल्लेख किया है। इस प्रकारके निरूपणसे हमें अध्यात्मवादियोंके दो मत प्राप्त हो जाते हैं । एक तो Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचचा नियमसार ग्रन्थको मूल गाथा और उसकी व्याख्या करनेवाले श्री पद्मप्रभमलघारी देवकी मान्यता के अनुसार सर्वज्ञता आरोपित होने से आरोपित सर्वजतना समर्थित होती है और दूसरे श्री अमृतचन्द्र सुरिके पायानानुसार निश्चयनयसे स्वाश्रित सर्वज्ञला समर्थित होती है, इसका समन्वय करनेके लिये जो आपने आत्मज्ञता में सर्वज्ञताका अन्तर्भाव करते हुए आत्मज्ञमें व्यवहारत के विषयभूत सर्वज्ञताका आरोप बतलाया है वह हमें युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है। विशेष विचार यह भो उत्पन्न होता है कि जब वास्तविक सर्वज्ञताका समर्थन करने के लिये श्री अमुचन्द्रसूरिने स्वाति दो शक्तियों निरूपित की हैं जिन्हें चेतनानुगामी पर्याय शक्य कहा जा सकता है और उनके द्वारा सत्य सर्वज्ञताका साधन किया है। उसके अनुसार अन्य चंतन व जड़ पदार्थोंमें जो कि कार्यकारणभाव के रूप में प्राप्त होते हैं उनमें भी ऐसी हो जन्यत्व वा जनकत्वादिरूप शक्तियाँ यदि मानो जायें तो वे भी स्वाश्रित पर्याय शक्तिय क्यों नहीं मानी जा सकेंगी, क्योंकि अनन्त धर्मात्मक वस्तुएँ 'अनन्तशक्तिश्वाद् भावानाम् ' इस सिद्धान्त के अनुसार उनके मानने में कोई विरोध नहीं रह जाता। इस प्रकार आप उपस्थित समस्याओंके विषय में ठीक-ठीक प्रकाश डालेंगे | मूलशंका - केवली भगवान्की सर्वज्ञता निश्चयसे हैं या व्यवहार से ? यदि व्यवहार से है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रश्न के उत्तर में नियमसार तथा बन्य प्रमाणों के प्रकाश में निश्चय व्यवहार से केवल जिनमें सर्वज्ञता और आत्मज्ञताको स्थिति क्या है यह स्पष्ट किया गया था। फिर भी प्रतिशंका २ द्वारा उसी प्रश्नको पुनः विषादका विषय बनाकर दो अन्य प्रश्न उपस्थित किये गये । वे इस प्रकार है- (१) आमाकी अपेक्षा सर्वज्ञताका क्या रूप है ? उमको (२) उन्हीं केवली भगवान में सकल ज्ञेयोंकी अपेक्षा आरोपित सर्वज्ञता जाने स्वीकृत की संगति किस प्रकार हो सकती है ? ये दो प्रदन है। इनका समाधान इस प्रकार है (१) पदार्थ तीन प्रकार के हैं- दादरूण, अर्थरूप और ज्ञानरूप 1 उदाहरणार्थ 'घट' यह शब्द घट शब्दरूप पदार्थ है । जलवारण करने में समर्थ 'ट' अर्थरूप घट पदार्थ है और 'घटाकार ज्ञान' घट ज्ञानरूप घट पदार्थ है 1 इस प्रकार घट पदार्थ समान सर्व पदार्थ भी तीन प्रकारके हैं। सर्व प्रथम निश्चयायकी अपेक्षा विचार करनेपर जब आत्मज्ञ केवलो जिन केवलज्ञानके द्वारा शेयरूपसे अपने आत्माको जानते है तब दर्पण के समान शेयाकाररूप परिणमन स्वभाव से युक्त और तद्रूप परिणत अपनी ज्ञानपर्यायको भी अपनेंसे अभिन्न रूपसे जानते हैं, इसलिए वे केवली जिन आत्मज्ञ होने के साथ-साथ स्वरूपसे सर्वज्ञ है। यहीं स्वाचित सर्वज्ञता है। इस प्रकार विश्लेषण करनेपर यह स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होता है कि जो आत्मज्ञता है वहो सर्वज्ञता है । निश्चयकी अपेक्षा आत्मज्ञ कहो या ( स्वात्रित ) सर्वज्ञ कहो दोनोंका अर्थ एक है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान ५०१ इसी आशयको ध्यान में रखकर श्री अमितगति प्राशार्थने सामायिकाठमें कहा है.... विजोक्पमतो राति या लिलोय ते पटान पविक्त । आत्माके अबलोकन करने पर जिसमें { आत्मामें ) वह ममस्त विश्व पृथक-पृथक् स्पष्ट रूपसे प्रतिभासित होता है। प्रकृतमें उपयोगी श्री प्रवचनमारजोका यह उल्लेख द्रव्य है अथैकस्य नायकभावस्य समस्तझयभावस्वभावल्वात प्रकोणलिखित-निखात-कालिति-मनित-समा. वर्तित-प्रतिविम्बितवत्सत्र क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभत्रभाविविचित्रपर्यायप्रारभारमगाधस्वभानं गम्भीर समस्तमपि वन्यजासमेकक्षण एवं प्रत्यक्षयन्तं"। -गा.२००-टीका बथ:-अब, एक ज्ञायक भावका ममस्त शेयोंकी जानने का स्वभाव होनेसे क्रमशः प्रवर्तमान, अनन्त, मृत-वर्तमान-भावो विभित्र पर्याय समुहवाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर समस्त द्रव्यमात्र को-माना व द्रव्य सायकउत्कीण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर धुरा गये हां, कीलित हो गये हों, डब गये हों, समा गये हों, प्रतिविम्बित हुए हों, इस प्रकार- एक क्षण हीजो (शुदात्मा) प्रत्यक्ष करता है । प्रतिशंकाके प्रारम्भमें हमारे मतके रूप में जो यह लिम्ला गया है कि वनली भगवान् गद्य पदार्थों को ध्यवहारनपसे जानते हैं, अतः उनको यह सर्वशता असद्भुत हैं या आप प्रतिपादन किया है और असद्भत शब्दका अर्थ आरोपित किया है तो इस सम्बन्धगें वक्तव्य यह है कि हमने स्वयं शंकर प्रस्तुत करते हुए शंकाके रूपमें यह लिखा है कि यदि वह मात्र पराश्रित है तो उसे अद्भुत मानना पड़ेगा।' जब कि हमने .उसे (सर्वज्ञताको) स्वाश्रित सिद्ध किया है तब ऐसी स्थिति में सन्नम सर्वज्ञता सद्गृत ही है, नसे असद्भूत किसी भी प्रकार नहीं माना जा सकता। ऐसा ही आगम है और यही हमारा अभिप्राय है। (२) इस प्रकार स्वरूपसे सर्वज्ञताके सम्यक् प्रफारसे घटित हो जानेपर जिरा रागय त्रिलोक और त्रिकालवति बाह्य में अवस्थित समस्त जयों की अपेक्षा उन्हें सर्वज कहा जाता है तब ना यह सर्व ला परकी अपेक्षा आरोपित की जाने के कारण उपचारत सात व्यवहार मलिता कहलाती है। जमवार दीपक स्वरूपसे प्रकाशक धर्म के कारण प्रकाशक है घटादि पदाकि कारण नहीं है उमीनार .बली जिन स्त्ररूपसे सर्वश है पर पदाथोंके कारण नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार प्रतिकामें उल्लिखित दो प्रश्नोंका सम्यक निर्णय करने के बाद प्रतिशंकामें अध्यात्मवादियोंके जो फलित रूपमें दो मतों का उल्लेख किया गया है उसका आगन हमारी समझ में नहीं आया, क्योंकि अमतचन्द्र सूरिका कोई स्वतन्त्र मत हो और नियसार का स्वतन्त्र, एमा नहीं है। हमें तो यह पड़कर बहुत आश्चर्य हुआ । वस्तुतः ज्ञानके लिए आगममें प्रायः सर्वत्र दणका दृष्टारा दिया गया है की बस द्वारा यह ज्ञान कराया गया है कि जिस प्रकार दर्पणा प्रतिबिम्बित करनेको शक्ति स्वभाव है उसी प्रकार ज्ञानका ज्ञेवाकाररूप परिणमन करना उरावा अपना स्मभाव है। किन्तु जय इसका परको अपेक्षा प्रतिपादन किया जाता है । जैसे यह कहना कि वर्षणमे पड़ा हुआ प्रतिविम्ब दूसरे के कारण पड़ा है तब यह व्यवहार कहलाता है। इसी प्रकार ज्ञानका जेयाकार परिणमन कन्ना उसका अपना स्वमा है। किन्तु कब यह कहा जाता है कि ज्ञानका ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञेयों के कारण हता है तब यह व्यवहार कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुको स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका राश्रित कयन किया गया है, इसलिए यह व्यवहार Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा है | अध्यात्मके स्वरूपका प्रतिपादन करनेवाला जितना भी आगम साहित्य उपलब्ध होता है उसमें तो एकरूपता ही है। किन्तु यह भी निर्णीत कि चारों अनुयोगोके आगम साहित्य में एकरूपता है। यहाँ यह निवेदन है कि जहाँ ठीक तरहसे आदाय रामझ में न आये यह आगम के आशयको स्पष्ट समझने का प्रयत्न होना चाहिए 1 प्रमाणभूत आगमको मतके रूप प्रस्तुत करना उपयोगी नहीं है । अब रहो जन्य-जनकत्व शक्तिकी बात सो प्रत्येक द्रव्यमें स्वाश्रित जन्यत्व और जनकत्व शक्तियों है । छह निश्चय कारकोंमें निश्चय कर्ता-कर्म शक्तिका उल्लेख हुआ है वह इसी अभिप्रायसे हुआ है । इतना अवश्य है कि विवक्षित द्रव्यको जम्प जनकरयशक्ति उसीमें पाई जाती है तथा अन्य अव्योंकी भी अपने अपने में पाई जाती है । एक द्रव्यमें जन्मदावित हो और उसको जनशक्ति किसी दूरारे द्रव्यमें हो ऐसी व्यवस्था वस्तुरूपके प्रतिकूल है ऐसा बागमका अभिप्राय है । तृतीय दौर : ३ : शंका ७ मूल प्रश्न- 'केवली भगवान की सर्वज्ञता निश्चय से हैं या व्यवहार से १ यदि व्यवहारसे है तो वह सत्यार्थी है या असत्यार्थी ?" प्रतिशंका ३ इसका उत्तर तथा प्रत्युत्तर देते हुए आपने इस प्रकार कहा है १. जाणदि पर्सादं सव्वं चचहारणयेण केवली भयवं । केवलकाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अपानं ॥१५९॥ अर्थ - यवहारनयसे केवली भगवान् सबको जानते हैं बोर देखते हैं, निश्चवनयसे केवलज्ञानी नियमसे आत्मा को जानते और देखते हैं । २. सर्वज्ञता नामका एक धर्म है जो कहींपर होना चाहिए सभी परकी अपेक्षा आशेप करना ठहरता है । ३. आत्मज्ञता में सर्वज्ञताका धर्म समाया हुआ है । ४. केवल जिनमें जो सर्वज्ञता है उसे मात्र परके आश्रवसे स्वीकार करने पर तो वह असद्भूत ही हरती है इसमें संदेह नहीं । ५. श्री समयसार के परिशिष्ट सर्वशत्व और सर्वदशिव शक्तिको स्वीकार किया है जिससे स्वभावकी अपेक्षा सर्वशता बन जाती है । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 शंका ७ और उसका समाधान ५०३ ६. परमात्मप्रकाशकी टोकाको उद्धृत करके लिखा है 'केवलो जिन जिस प्रकार अपनी आत्मा को तन्मय होकर जानते है उस प्रकार पर द्रव्यको समय होकर नहीं जानते इस कारण व्यवहार कहा जाता है, पर जानका अभाव होने से व्यवहार नहीं कहा गया है ७. श्री अमितगति आचार्यके सामायिकपाठका इलोक तथा प्रवचनसार गाथा २०० की टीका उधृत करते हुए कहा है कि 'एक ज्ञायकभावका समस्त ज्ञेयोंको जाननेका स्वभाव होने से समस्त द्रव्यमात्रको एक क्षण में प्रत्यक्ष करता है, मानो मे द्रव्य ज्ञायकमे उत्कोण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों इत्यादि । ८. स्वरूप सर्वज्ञता पटित हो जानेपर जिस समय समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उनमें यह सर्वज्ञता परकी अपेक्षा आरोपित की जानेके कारण उपचारित सद्भूत उपहार से सजा कहलाती है । ६. जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्बित करने की योग्यता स्वभावसे है उसी प्रकार जानकार रूप परिणमन करना उसका स्वभाव है। १०. नवाकर परिणमत जेयोंके कारण हुआ है तब वह व्यवहार कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुकी स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका पति कथन किया गया है। अब इन द विषयोंके सम्बन्ध में विचार किया जाता है १-आपने स्वयं सोलह प्रश्न के उत्तर में लिखा है- "यह तो निर्विवाद सत्य है कि ज्ञायकभाव स्वपरप्रकाशक है। स्वप्रकाशकको अपेक्षासे आत्मज्ञ और परप्रकाशककी अपेक्षा सर्वज्ञ है। जामक कहते हो शेयोंकी यनि आ जाती है। आत्माको कहना सद्भूत व्यवहार है और परमेयोंको अपेक्षा जायक कहना यह उपपरित सद्भूत व्यवहार है। 'सर्व' शब्द दो से मिलकर बना है (१) सर्व और (२) 'सर्व' का अर्थ समस्त और 'श' का अर्थ जाननेवाला है । इस तरह सर्व जानातीनि सर्वज्ञः इस व्युत्पत्ति के अनुसार सबको जाननेवाला सर्वज्ञ है। सर्वशाद स्वयं परसापेक्षा होतक है परविशका पोशक नहीं है इसीलिये वो कुन्दकुन्द भगवानने नियमसार गाथा १५२ ने कहा है कि उसे केवली भगवान् सबको जानते और देखते हैं। निश्चय नयकी अपेक्षा केवलज्ञानी नियमसे आत्मा को जानते और देखते है। श्चियनवकी अपेक्षाज्ञानी परको नहीं जानते ...... गाथा में पड़े हुए नियम शब्द यह स्पष्ट कर दिया है। २--चार पतिया कमका क्षय हो जानेसे आत्मा शानि अर्थात् केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। उस धादिक ज्ञान 'आत्मज्ञ नामका धर्म है और व्यवहारय 'सर्व' नामका धर्म है। इस प्रकार सर्वज्ञ नामका धर्म अवश्य है किन्तु यह धर्म, परसापेक्ष है, जैसे घटका ज्ञान, पटका ज्ञान आदि । ययहारनयकी अपेक्षासे केवली जिसमें सर्वज्ञता नागका धर्म वास्तविक है अतः केवली में सर्वज्ञताके आरोप अर्थात् मिया कहनाकी कोई आवश्यकता नहीं है। समयसार गाथा ३६२ को टोका श्री जयसेनाचार्य कहा भो है ननु सौगतोऽपि यवहारेण सर्वज्ञः तस्य किमिति दूषणं दोयते भवद्भिरिति । तत्र परिहारमाहसौगतादिमते यथा निश्वयापेक्षया व्यवहारो ग्रुप तथा व्यवहाररूपेण व्यवहारो न सत्य इति । जैनमले पुनः व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया सृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति । . Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अर्थ-प्रश्न-बोद्ध भी तो व्यवहारसे सर्वज्ञ कहते हैं, उनको दूषण क्यों दिया जाता है ? समाधान–बौद्धमतमें जिस प्रकार निश्चयकी अपेक्षा व्यवहार झूठ है उसी प्रकार व्यवहाररूपसे व्यवहार सत्य नहीं है, किन्तु जैन मतमें अपहारनय यद्यपि निश्चयको अपेक्षा झूठ है सथापि व्यवहाररूपसे सत्य है। इसलिय सर्वज्ञत्व धर्म आत्मामें व्यवहारनयसे होने पर भी सत्य है, आरोपित अर्थात् मिथ्या कल्पना नहीं है । किसी एक वस्तुके धर्मको शिसी नियमित अपेच्चाके आधार पर दूसरो वस्तुमें कहना आरोपित कहलाता है, किन्तु उसी वस्तुके धमको उसी वस्तुमै कहना आरोपित नहीं कहा जा सकता है। जब सर्वज्ञता सावित आत्माकी है तब उसका आत्माम कथन करना आरोपित कैसे कहला सकता है ? उस शक्ति का स्वरूप ही जब परको जानना है तब परकी अपेक्षा तो उसमें आवेगी ही। परको जाननेका नाम ही परजता है। यहाँ पर हमारा प्रश्न सर्वज्ञत्व गाक्तिको अपेक्षासे नहीं है क्योंकि यह तो निगोदिया जीवमें भी है। किन्तु सर्वशतारूप उस परिणतिसे है, वह परिणति सर्व पर वस्तुके आश्रयसे ही मानी जा सकती है। अतएव पर (सर्वज्ञम) आथित होनसेवहारमयका विषय हो जाता है। जैसे जीव में विभावरूप परिणमन करने को अनादि पारिणामिक शक्ति है। यह शक्ति कमि उत्पन्न नहीं गई, क्योंकि. निमिसकारण शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकते । इस शक्तिका विभावरूप परिणमन बाह्य निमित्त पाकर हो होता है। आपके सिद्धान्तानुसार यदि विभाव परिणमनको दस शक्तिको अपेक्षासे देखा जाय तो यह भी स्वाश्रित होनेसे निश्चयका विषय बन जायगा । किन्तु ऐसा है नहीं । क्योंकि समयसार गाथा ५६ में 'रागादि विभावको जीवके हैं' ऐसा व्यवहारनयसे कहा है। ३-केवळी जिनमें आत्मज्ञता और रार्वज्ञता ये दोनों धर्म भिन्न भिन्न नयोंकी अपेक्षासे है अति आत्मजता निश्चयनयको अपेक्षा है और सर्वज्ञता व्यवहारनयकी अपेक्षासे है अथवा आत्मशता स्वअपेक्षासे है और सर्वज्ञता पर अपेक्षासे है । अत: आत्मज्ञतामें सर्वज्ञता धर्म नहीं समा सकता है, किन्तु ये दोनों धर्म दो नयोंकी अपेक्षासे भिन्न भिन्न होते हुए भी केबली जिनमें एक साथ रह सकते है। ४-सर्वज्ञता गद्यपि पर-सापेक्ष है तथापि वह असद्भूत नहीं है, किन्तु यथार्थ है । जो धर्म पर सापेक्ष है उसे परसा कहना तो शल्प है, वह सद्भुत कैसे हो सकता है ? परसापेन होनेसे असद्भूत व्यवहार नयका विषय होते हुए भी असत्यार्थ नहीं है । अद्भत व्यबहारनय का लक्षण इस प्रकार है भिन्नत्रस्तुविपयोऽसद्भुतव्यबहारः । -आलापपद्धति अर्थ-जो भिन्न वस्तुको विषप करे वई असद्भुत ध्पयहारनप है । निश्चयन यका विषय दो भिन्न वस्तु नहीं है, अतः निश्च वनयको अपेक्षा सर्वज्ञता नहीं है। किसी भी आगममें निश्चयनयको अपेक्षा सर्वज्ञता स्वीकृत नहीं की गई है। समयसार गाथा २७२ की टीकामें भी थी अमृतमूरिने कहा है आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनथः । अर्थ-निश्चय नय आत्मा (स्त्र) के आश्रित हैं और व्यवहार नय परके आश्रित है । जयधवल पुस्तक १ पृष्ठ २३ पर कहा हैमात्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद् वा केवलमसहायम् । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शका ७ और उसका समाधान अर्थ- केवलज्ञान आत्मा और पदार्थ (ज्ञेय) से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिकको सहायताको अपेक्षा नहीं रखता है, इसलिये वह केवल-असहाय है । अर्थात् केवलज्ञान आत्मा और पदार्धको अपेक्षा रखता है। ___इस तरह चुकि सर्वज्ञतामे पदार्थविषयताको अपेक्षा है, अतः वह पराश्रित होनेसे व्यवहारनयसे है । इसी कारण प्रवचनसार में श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने कहा-'णाणं गेयपमाणनुदिष्ट' अर्थात् ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है। यद्यपि निश्चयसे उसमें अनन्तानन्त लोकालोकको जानने की शक्ति है । (राजबार्तिक १ । २६) अर्थात् ऐसे अनतानत लोकालो रु है तो उन्हें भो जान सकता है, किन्तु सर्वज्ञताको अपेक्षा व्यवहारनयको दृष्टिमें वह ज्ञान, ज्ञेय प्रमाण है। ५-समयसार परिशिष्य आत्माकी ४८ शक्तियोंका कथन है। उनमें से कुछ शक्तियां गोधित भी हैं । जैसे परको अपेक्षा रखनेवाली अकार्यकारणत्व शक्लि अकातत्व शक्ति, क्योंकि, अन्यसे न करने योग्य और अन्यका कारण नहीं एसी अकार्यकारण दाक्ति है और जातापने मात्रसे भिन्न परिणामके करनेका अभावस्वरूप अकतत्व नामकी शरति है । इसी प्रकार सर्व पर शेयोंकी अपेक्षा रखने वालो सर्वदशिख सर्वज्ञत्व मामको शक्तियां हैं। सर्वशित्व और सर्वज्ञत्व में जो 'सर्व शब्द है वह स्वयं ही सर्व पर पदार्थों की अपेक्षाका द्योतक है। ___ श्री कुन्दकृन्द भगवान ने समयसारमें स्वभावये सर्वज्ञता मानते हुए भी सर्वज्ञताको व्यवहार नयका ही विषय कहा है जह सेडिया तु ण परस्स संडिया सेडिया य सा होइ । तह जाणी दुपा परस्स जाणी जाणी सो दु ॥३५६॥ एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं पाण-दसण-चरिते । सुणु ववहारमयस्स य बतन्वं से समासेण ।।३६०॥ जह परदवं सेडिदि हु सेडिया अपणो सहावेण । तह परदब्वं जाण णाया वि सएण भावेण ॥३६१।। एवं ववहारस्स दु विणिरओ णाणा-दंसण-चरिते ॥३६५।। अर्थ--जैसे सेटिका (कलो, खड़िया मिट्टी ) तो परकी नहीं है, सेटिका तो स्वयं सेटिका है, उसी प्रकार आत्मा पर द्रव्यका ज्ञायक नहीं है, जायक तो शायक ही है। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रमें निश्चयनयका कथन है। संक्षेपो व्यवहारनपका कथन सुनो। जैसे सेटिका अपने स्वभावसे परद्रब्य दीवाल आदिको सफेद करती है, उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभावसे परद्रमको जानता है। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्रके विषय में व्यवहारनयका निर्णय कहा । गाथाको व्याख्या में श्री अमृत चन्द्र सूरिने स्पष्ट लिखा हैतथा तेन श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन परदम्य घटादिक ज्ञ य वस्तु व्यवहारेण जानाति । अर्थ-डिमाके दृष्टान्तसे आत्मा पर द्रव्य घट आदि शेग वस्तुको व्यवहारनयसे जानता है । 'स्वभावसे पर द्रव्यको जानना भी व्यवहार नयका विषय हूं' ऐसा श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने उपर्युक्त गाथाओं में तथा नियमसार गाथा १५९में स्पष्ट कहा है। भगवान् कुन्दकुन्दके वाक्योंका विरोध करते हुए आप सर्वज्ञताको विश्चयनयसे कहनेका क्यों प्रयल कर रहे हैं? क्या आप ऐसा इसलिये कहते हैं कि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( स्थानिया) तत्त्वचचा व्यवहारनयको सत्यार्थ मानना आपको इष्ट नहीं है ? जिसको कि श्री अमूलचन्द सूरिने अपनी व्याख्या में परमार्थ स्वीकार किया है। -परमात्मप्रकाशकी टोकाको उद्धत करते हुए जो आपने यह लिखा है कि "केवलो जिन जिस प्रकार अपनी आत्माको तन्मय होकर जानते है उस प्रकार पर दृश्यको तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण ब्बबहार है, परज्ञानका अभाव होनेसे व्यवहार नहीं कहा गया। इससे भी सर्वज्ञता निश्चयनयका विषय नहीं ठहरता। पर पदार्थके साथ ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है। अपितु शेय-ज्ञायकसम्बन्ध है, अतः दो दमोंके सम्बन्ध होनेसे वह व्यवहार नमका ही विषय उदरता है। इस प्रकार आपके प्रमाणके द्वारा हो आपका मत खण्डित हो जाता है अर्थात् श्री परमारमप्रकाशसे भी सर्वशता निश्चयन्यका विषय सिद्ध नहीं होती, किन्तु व्यवहार नयका ही विषय सिद्ध होती है। ७ श्री अमितगति आचार्यके सामायिकपाठ तथा प्रवचनसार गाथा २०० की टोकाको उद्घत करते हुए आपने जो लिखा है कि 'एक ज्ञायकभाबका समस्त ज्ञेयों को जाननेका स्वभाव होनेसे सर्वज्ञ समस्त द्रव्यमात्रको एक क्षण में प्रत्यक्ष करता है, मानो वे द्रव्य ज्ञायको उत्कीर्ण हो गये हों, बित्रित हो गये हों, भोतर घुस गये हों इत्यादि। संभवतः इन वाक्यों द्वारा आप यह कहना चाहते हैं कि दर्पणकी तरह ज्ञान भो ज्ञेयाकाररूप परिणम जाता है, सो आगका यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि दर्पण मूर्तिक है जिसको स्वच्छता मूर्तिक पके आकार व वर्णरूप परिणम जाती है, किन्नु आत्मा तो अमूर्तिक है । वह मूर्तिकपदाधोंके आकाररूप कसे परिणम सकता है ? ज्ञान ज्ञेयोंको जानता है यह बतलाने के लिये दर्पणका दृष्टास्त मात्र दिया गया है । ज्ञान ज्ञेयाकारण नहीं परिणमता है इसका युक्ति सहित स्पष्ट उल्लेख प्रमेयकमलमार्तण्ड में किया गया है जो इस प्रकार है विषयाकारधारिस्वं च बुद्धरनुपपन्नम् , मूर्तस्यामूर्त प्रतिबिम्बासमवात् । तथाहि न विषयाकारधारिणी धुद्धिरमूर्तत्वादाकाशचन्, यत्तु विषयाकारधारि तन्मूर्त यथा दर्पणादि । अर्थ-ज्ञानको विषयाकार धारण करनेवाला मानना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि घट पट आदि शेय. भूत मूर्त पदार्थका अमूर्तिक ज्ञानमें प्रतिबिम्ब होना असम्भव है। ज्ञान ज्ञेयाकारको धारण करनेवाला नहीं है, क्योंकि वह अमूर्त है जैसे आकाश | जो जो ज्ञ याकार (ज्ञ योंके प्रतिबिम्ब) को धारण करनेवाला होता है वह मूर्त होता है जैसे दर्पण जलादि । ज्ञान अमर्त है, क्योंकि अमूर्त आत्माका गुण है । जिसप्रकार आकाहा में किसी वस्तुका प्रतिबिम्ब नहीं बनता, क्योंकि वह स्वभावसे अमूर्त है, उसी प्रकार आत्मा भी अमूर्त है, अतः उसमें भी पर पदाथोंके आकारका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता। ऐसी ही विवेचना मूलाराधना और प्रमेयरत्नमाला में भी है । यद्यगि ज्ञानको साकार कहा है परन्तु वहाँ आकारका अर्थ प्रतिबिम्ब न होकर अर्थविकल्प लिया है। कहा भी है-कम्मकत्तागारो भागारो तेश भागारेण सह वहमाणो उचजोगी सागारी ति।। -जयधवल पु० ३३८ अर्यात कर्म-करवको आकार कहते है और उस आकारसे सहित उपयोग साकार उपयोग कहलाता है । यहाँ प्रमेयरस्नमालाके 'ज्ञानविषयभूतं वस्तु कमस्यमिधीयते' इस उल्लेख के अनुसार कर्म का अर्थ शेय लेना चाहिए, उसका विकल्प ज्ञानमें आता है, अतः ज्ञानको साकार कहते हैं । यदि कहीं पर मानमें ज्ञेयोंक प्रतिबिम्ब अथवा ज्ञानकी जयाकार परिणति कही गई है तो उसका वहाँ इतना ही प्रयोजन है कि जिस प्रकार Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान ५०७ प्रतिबिम्ब ज्यों का ज्वों पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान जेयोंको ज्योंका त्यों यथार्थ जानता है। इस जाननेका नाम ही ज्ञयाकार परिणति है। यदि यह मान लिया जावे कि ज्ञान में ज्ञेयोंके प्रतिबिम्ब पड़ने पर ही ज्ञान ज्ञेयों को जानता है तो ज्ञान रस गन्ध, स्पर्शको तथा अमूर्तिक पदार्थोको नहीं जान सकेगा, क्योंकि इनका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है और नशान रसादिर परिणम सकता है। प्रतिबिम्ब या छाया ता पुद्गल द्रन्यकी पर्याय है, जानकी नहीं। अत: अमितगति सामायिकपाठ तथा प्रवचनसार गाथा २०० की टोकासे भी यह सिद्ध नहीं होता कि केवली जिन निश्चयनयको अपेक्षा सर्वज्ञ हैं। आपने पदार्थ तीन प्रकारके लिखे- शब्दरूप २ अर्थरूप ३ शानरूप। इनमेंसे शब्दरूप पदार्थ 'घट' शब्द, और ज्ञानरूप पदार्थ जैसे घटको जाननाहा घटज्ञान, ये दोनों पदार्थ पराश्रित होनेसे व्यवहारके विषय है। जैसे घटमें जलयारण हो सकता है वैसे घट शब्द या घटज्ञानमें जलधारण नहीं हो सकता । अन्न से पेट भर सकता है-भूख मिट सकती है, किन्तु अन्न शब्दसे या अनके शानमात्रसे पेट नहीं भर सकता, अतः शब्द व ज्ञानको पदार्थ व्यवहारसे कहा गया है। ८-आपने कहा है 'स्वरूपसे सर्वज्ञता घटित हो जानेपर जिस समय समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उन में यह सर्वशता परको अपेक्षा आरोपितको जाने के कारण उपचरित सद्भुत व्यवहारसे सर्वज्ञता कहलाती है।' यहाँ विचारणीय बात यह है कि जब केवली जिन सर्वज्ञ हैं तो उनमें वही धर्म मारोपित नहीं हो सकता, अतः आपका उपर्युक्त कथन आपके द्वारा ही बाधित ही रहा है। फिर स्वरूपसे सर्वज्ञता घटिल भो नहीं होती, आत्मस्ता ही घटित होती है। परपदार्थो और ज्ञान में परस्पर ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है । यद्यपि ज्ञान शेगों को अपने स्वभावसे जानता है तथापि ज्ञेयोंके साथ जायकका सम्बन्ध व्यवहारनयसे हो है। समयसार पृष्ठ ४४८ पर गाथा ३६१ को टोकामें श्री अमृनचन्द्र आचार्यने कहा भी है चेतयितापि ज्ञानगुणनिर्भरस्वभाषः स्वयं पुद्गलादिपरद्र व्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरत व्यं वात्मस्वभावेनापरिणमयन् पुदगलादिपरदन्यनिमिसकनात्मनो ज्ञानगुणनिमरस्वभावस्य परिणामेनीस्पद्यमानः पुद्गलादिपरवम्यं चेतयितृनिमिचकनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन जानातीति व्यवाहियते । अर्थ—सानगुणसे परिपूर्ण स्वभावाला चेतयिता भी स्वयं पुद्गलादि पर द्रव्यके स्वभावरूप परिणमित न होता हुआ और पुद्गलादि परद्रव्योंको अपने स्वभावरूप परिणमित न करता हुआ पुद्गलादि परष्ट्रष्य जिसमें निमित्त है ऐसे अपने शानगणसे परिपूर्ण स्वभावके द्वारा उत्पन्न होते हए पदयलादि पर द्रव्योंको अपने स्वभाबसे जानता है ऐसा व्यवहार किया जाता है। मालापपद्धतिमें श्री देवसेनाचार्यने कहा स्वभावस्याप्यन्यत्रोपचाराचुपचरितस्वभावः । स वैधा-कर्मज-स्वाभाविकभेदात् | यथा जीवस्य भूतत्वमचेतनवं यथा सिद्धानां परज्ञता परदर्शकत्वं ।। अर्थ · स्वभावका अन्यत्र उपचार सो उपचरित स्वभाव है। वह उपपरित स्वभाव, कर्मजनित और स्वभाविकके भेदसे दो प्रकारका है, जैसे जीवके मूर्तफ्ना तथा अचेतनपना स्वभाव है, यह कर्मजनित उपररित है। और सिहोंके परको जानना (सर्वज्ञता) और परको देखना (मर्वदर्शिता) यह स्वाभाविक उपचरित है। इस प्रकार श्री देवसेनाचार्यने भी सर्वज्ञताको उपचरितनयसे ही असलाया है। पदि उपचरितनयको Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा न माना जाये और अनुपचरितका एकान्त पक्ष ग्रहण किया जाय तो परता ( सर्वशा) से विरोध कर जायगा इस ही को आलापपद्धति में इन शब्दों द्वारा कहा है उपचरितैकान्तपक्षेऽपि नामता संभवति नियमितत्वात् । तथात्मनोऽजुर चरितपक्षेऽपि परज्ञतादीनां विरोधः स्यात् । अर्थ- उपचरित एकान्त में नियमित पच होनेसे मात्मा के आत्मता सम्भव नहीं होती है। उसी प्रकार अनुचरित एकान्त पक्ष भी आरमाके परज्ञा (महा) का विरोध हो जायगा । प्रवारगाथा ३२ की टोकामै जयसेापायने कहा है भ्यवहारयेन पश्यति समन्ततः सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्जानाति व सर्व निरवशेषम् । अर्थ व्यवहारयसे वे भगवान् समस्वको सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भावोंके द्वारा देते तथा जानते है । इसी प्रकार गाथा ३८ की टीका में भी यही कहा है-परद्रव्यपर्वा तु व्यवहारेण परिच्छिसि । अर्थ-यवहारसे परम्य और पर्यायोंको जानते है। जाणगभावी जागदि अध्याणं जाण णिच्छयणयेण । परद्रवं ववहारा महसुश्रीहिमणकेचा ||३३९॥ संग्रह ०११९ माणिकचन्द्रमंथमाला अर्थ - शायक भावमति श्रुत अवधि मनपर्यय केवलज्ञान के साधारसे निश्चयनयकी अपेक्षा बारमाको जानता है और परद्रव्यको व्यवहारनयसे जानता है । उपर्युक्त आगम प्रमाणोंसे यह वि है कि केवल जिनमें वजा व्यवहारनयसे है निश्वयनयसे नहीं हैं| ज्ञानगुणकी अपेक्षा आत्मा शायक है । निश्चयनयसे आत्मा ज्ञानगुणके द्वारा स्वरूपको अर्थात् स्वको जानता है और व्यवहारयसे मारना उस हो ज्ञानगुण स्वभावके द्वारा परद्रव्यों अर्थात् सर्वं ज्ञेयोंको जानता है। स्वमें परका अत्यन्ताभाव है और परमें स्वका अत्यन्ताभाव है । 'स्व' पररूप नहीं परिणमता और 'पर' स्वरूप नहीं परिणमता । ६ – इसका कथन ऊपर नं० ३ में किया जा चुका है। १०- आपने लिखा है कि 'ज्ञानका ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञेयोंके कारण हुआ है तब वह व्यवहार कह लाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुको स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका पशचित कथन किया गया हूँ ।' सो आपका ऐसा कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि ज्ञान ज्ञेयाकाररूप परिणमन नहीं करता । जैसा कि नं० ७ के विचार में ऊपर कहा जा चुका है । ज्ञेयों जाननेको हां ज्ञानका ज्ञेयाकाररूप परिणमन कहा जाता है । रसगन्ध शोत उष्ण हलका भारी नरम कठोर आदि मूर्तिक गुण तथा धर्मादि अमूर्तियों गुणोंका कोई आकार न होने से उन ज्ञेयोंके आकाररूप ज्ञान नहीं परिणमत्ता किन्तु जानता है, क्योंकि जानना स्वभाव है। शान अपने स्वभावसे सर्व शेयोको जानता है इस कथन में स्वभाव गौण नहीं है तथापि ज्ञेय परद्रव्य है, अतः यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षा है। ज्ञान शेपको अपने स्वभावसे जानता अवश्य है, किन्तु आत्मा के प्रदेश या ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद ज्ञेयोंके आकाररूप नहीं परिणमन करते। ऐसा ही श्री कुन्दकुन्द स्वामीने प्रवधनसारमें कहा है पाणी जाणसहा वो आस्था नेमप्यमा हि णाणिस्स । स्वाणि वचक्खू वाणी बहंति ||२८ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान ५०९ अर्थ-आत्मा ज्ञानस्वभाव है और पदार्थ आत्माके ज्ञेयस्वरूप है, जैसे कि रूप नेवोंका ज्ञेय स्वरूप होता है, परन्तु वे एक दूसरे नहीं वर्तते । ___ इस प्रकार व्यवहारनयसे सर्वशता सिद्ध हो जानेपर वह सत्वार्य है, क्योंकि प्रत्येक नए अपने विषयका ज्ञान करानेमें सत्य है, असत्य नहीं है । कहा भी है च बवहारगओ चष्पलभी, ततो वबहाराणुसारिसिसाणं पउत्तिदसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी मनहारणक्षा सोचव समस्सिदहनी सिं अणणावहारिय गीदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । --जयषचल पु० १ पृष्ठ अर्थ- यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, षयोंकि उससे व्यवहारका अनुसरणा करनेवाले शिष्योंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो म्यवहारमय बहुत जीवोंका अनुग्रह करनेवाला है उसीका आथय करना चाहिये ऐसा मनमें निश्चय करके गौलम स्थविरमे चौबीस अनुयोगद्वारोंके आदिम मंगल किया है। यहाँ सन्मतितर्ककी निम्नांकित गाथा दृष्टव्य है-- णिययषणिजसच्चा सम्वणया परविद्यालणे मोहा। ते उण दिद्रसमश्रो विभयह सघ अलिए बा ।।१२।। अर्थ-ये सभी नय अपने अपने विषयके कथन करनेमें समीचीन हैं और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ है । अनेकान्तके ज्ञाता पुरुष यह नय सच्चा है और यह गय झूठा है इस प्रकारका विभाग नहीं करते। सही गाथा जयधवला पुस्तक १ पृष्ठ २५७ पर निम्नांकित थाक्योंके साथ उद्धृत की गई है न चक्रान्तेन नया मिथ्याटय एव, परपक्षानिराकरिष्णूनां सपक्ष ( स्वपक्ष ) सरवावधारणे ग्यापूतानां स्यात्सम्यग्दृष्टिल्चदशनाम् । अर्थ-नय एकान्तसे मिथ्यादृष्टि हो है ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए ही अपने पसके अस्तित्वका निश्चय करने में व्यापार करते है उनमें कर्यचित् समीचीनता पायी जाती है। उक्त गापाका विशेषार्ध लिखते हुए श्री पं० फूलचन्द्रजीने लिखा है-- 'हर एक नयकी मर्यादा अपने अपने विषय के प्रतिपादन करनेतक सीमित है। इस मर्यादामें जबतक घे नय रहते हैं तबतक सच्चे है और इस मर्यादाको भंग करके जब वे नय अपने प्रतिपक्षी नयके कथनका निराकरण करने लगते हैं-तब वे मिथ्या हो जाते हैं। इसलिये हर एक नगकी मर्यादाको जाननेवाला और उनका समन्वय करनेवाला अनेकान्तज्ञ पुरुष दोनों नयोंके विषयको जानता हुआ एक नय सत्य ही है और दुसरा नय असत्य हो है ऐसा विभाग नहीं करता। किन्तु किसी एक नयका विषय जरा नयके प्रतिपक्षी दूसरे नयके विषयके साथ ही सच्चा है ऐसा निश्चय करता है। नोट-निश्चमनय और व्यवहारनयका स्वरूप समझने के लिये अन्य प्रश्नों पर भी दृष्टि डालिये। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जयपुर (वानिया ) तत्त्वचर्चा मंगलं भगवान् वीरो मंगल गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ७ मूल प्रश्न ७--केवली भगवानकी सर्वज्ञता निश्चयसे है या व्यवहारसे। यदि व्यवहारसे है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? प्रतिशंका ३ का समाधान | केबली जिन निश्चयसे आत्मज है और यहारसे सश, इसका कारण अयम द्वितीय उत्तरमें करते हुए पिछली प्रतिशंका में उठाये गये दो प्रश्नोंका राम्पर प्रकारसे विचार पिछले उत्तरमें कर आये है। तत्काल प्रस्तुत प्रतिशंकाके आधारसे विचार करना है। इसमें १० मुद्दे उपस्थिन कर वनके आधारसे प्रतिवांकाको स्वरूप प्रदान किया गया है। १. प्रथम मुद्दा उपस्थित करते हुए १६३ प्रश्नके उत्तरमें हमारे द्वारा दिये गये वक्तव्यका अंश बतला कर ये वचन उपस्थित किये गये हैं 'यह तो निर्विवाद सत्य है कि शायकभाव स्व-परप्रकाशक है । स्व-प्रकाशकको अपेक्षासे आत्मज्ञ और परप्रकाशकको अपेक्षा सर्वज्ञ है। ज्ञायक कहनेसे ही ज्ञेयोंकी हवनि आ जाती है। आत्माको शायक कहना सद्भूत व्यवहार है और पर शेयोंको अपेक्षा ज्ञायक कहना यह उपचरित सद्भुत व्यवहार है। अब हमारे उस कथनको पदिए जिसे बदलकर अपर पक्षने उक्त रूप प्रदान किमा है 'अब यह देखना है कि जो यहाँ आत्माको ज्ञायकरूप कहा है सो वह परको अपेक्षा ज्ञायक कहा है कि स्वरूपसे ज्ञायक है। यदि एकान्तसे यह माना जाता है कि वह परकी अपेक्षा ज्ञायक है तो ज्ञायकभाव आत्माका स्वरूप सिद्ध न होनेसे ज्ञायकस्वरूप आत्माका सर्वथा अभाव प्राप्त होता है। यह तो है कि शायकभाव स्व-परप्रकाशक होनेसे परको जानता अवश्य है । पर यह परकी अपेक्षा मात्र ज्ञायक न होनेसे स्वरूपसे जायक है। फिर भी उसे ज्ञायक कहने से उसमें शेयकी ध्वनि आ जाती है, इसलिए उसपर ज्ञेयको विवक्षा लाग पड़ जानेसे उसे उपचरित कहा है। इस प्रकार आत्माको ज्ञायक कहना यह सद्भुत व्यवहार है और उसे ज्ञेयकी अपेक्षा शायक ऐसा कहना यह उपचरित है। इस प्रकार जब ज्ञेयकी अपेक्षा ऐसा कहा जाता है कि आत्मा ज्ञायक है तब वह उपचरित सद्भूतब्यवहारनयका विषय होता है।' ___ इस प्रकार ये दो रूप (एक हमारे वक्तव्यका मूल रूप और दूसरा अपर पथद्वारा उसका अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकामें परिवर्तन करके हमारा वक्तव्य बतलाकर उपस्थित किया गया रूप) सामने हैं। ___ अपर पकने हमारे मूल वक्तव्यको परिवर्तितकर पयों उपस्थित किया इसका कारण है। बात यह है कि उसे निश्चयनय और व्यवहारलय परस्पर सापेक्ष होते हैं यह बतलाना इष्ट है। किन्तु हमारे उक्त वक्तव्यसे उस पक्षके इस अभिप्रायकी पुष्टि नहीं होतो। और साथ ही वह पक्ष यह भी बतलाना चाहता है कि ऐसा हम (उत्तर पक्ष) भो मानते हैं। यही कारण है कि उस पक्षने हमारे उवत कथनको बदलकर उसे उक्त रूप प्रदान कर दिया। इससे उस पक्षके दो अभिप्राय सिद्ध हो गये-एक तो उस वक्तव्यद्वारा उसे Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान ५११ जो कहना था वह वह दिया और दूसरे वह उस पक्षका कहना न कलाकर हमारा (उत्तर पक्ष) का कहना कहलाने लगा । हम उसके द्वारा किये गये ऐस प्रयास पर विशेष टीका-टिप्पणी तो नहीं करेंगे किन्तु उस पर द्वारा ऐसा गलत मार्ग अपनाया जाना ठीक नहीं इतना अवश्य कहेंगे | उम पक्षने अपने इस अभिप्रायको सिद्ध करनेके लिए 'सर्वज्ञ' शब्दको व्युत्पत्तिका भी सहारा लिया है। उसका कहना है कि सर्वज्ञ शब्द स्वयं परसापेचका योतक है परनिरपेक्षका द्योतक नहीं है। इसलिए श्री कुन्दकुन्द भन्ने नियमसारगाथा १५२ में कहा है कि व्यवहारयते केवल भगवान् सबको जानते और देखते हैं । निश्चयनयको अपेक्षा केवलज्ञानी नियमसे मात्मा को जानते और देखते हैं । निश्चयतयकी अपेक्षा केवलज्ञानी परको नहीं जानते गाथा में पड़े हुए नियम शब्दसे यह स्पष्ट कर दिया है।' किन्तु अपर पक्षका यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि सकल द्रव्यों और उनकी पर्यायका साक्षात् करना ( प्रत्यक्ष जागा ) यह केवलज्ञान या केवलज्ञानीका स्वरूप हैं । अष्टमहत्री पृ० १३२ में लिखा हैसकलप्रत्यक्षस्य सर्वद्रव्य-पर्याय साक्षात्करणं स्वरूपम् । सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंका साक्षात् करना यह सकल प्रत्यक्षका स्वरूप है। भगवान् कुन्दने 'आत्मा' शब्द द्वारा इसी स्वपन किया है, क्योंकि केवलज्ञानी (आत्मा) का प्रत्येक समय में इसी प्रकार जानने-देखने दूसरेको (प्रमेयोंको अपेक्षा किये बिना स्वयं परिणमन होता है। अतएव केवली जिन निश्चयनयसे आत्मा (स्व) को जाते देखते हैं यह हुआ यहाँपर 'अप्पा' पद स्व-प्रकाशक स्वरूपका सूचक है यतः केवलज्ञानी अपने रूपको जानता देखता है अतः स्व-परस्वरूप सकल प्रमेयोंको स्वयं जाना देखता है। यह नयनका तात्पर्य सिद्ध होता है। दोन लोक और त्रिकाल वर्ती जितने प्रमेय है उनको जानने-देखनेरून केवलज्ञान और केवलदर्शनका स्वयं परिणमन होता है यह उक्त कथनकाला है। यह निश्चयनका व्यवहारयके वक्तव्यपर विचार कीजिए इसे तो अपर पक्षको भी स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रत्येक वस्तुका स्वरूप स्वतः सिद्ध होता है। यदि प्रत्येक वस्तुके स्वरूप की सिद्धि भी परवापेक्ष मानो जाय तो दोनों नहीं बनेंगे अर्थात् दोनोंका अभाव हो आयमा यतः दोनोंका अभाव मानना अपर पक्षको भी इष्ट नहीं होगा, अत: प्रत्येक वस्तुके स्वरूपको स्वतः सिद्ध मान लेना ही थेयस्कर है। इस प्रकार प्रमाण और प्रमेया स्वरूप स्वतःसिद्ध होनेपर भी उनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है, क्योंकि प्रमाणके निश्चयपूर्वक प्रमेयका विश्वय होता है और प्रमेयके निश्चयपूर्वक प्रमाणका निश्चय होता है, अतएव परलापेक्ष ऐसे व्यवहारको ध्यान में रखकर जब कथन किया जाता है तब यह कहा जाता है कि व्यवहारनयसे केवली जिन सबको जानते देखते हैं । आशय दोनों नयोंके कचनका आप एक ही है। यदि इनके कथनमें अन्तर है तो इतना हो कि नश्यनय स्वरूपकी अपेक्षा जिस बात को कहता है, व्यवहारनय परसापेक्ष होकर उसी बात को कहता है, इसलिए कथार्थ है, क्योंकि परनिरपेक्ष जो वस्तुका स्वरूप है वहीं उसके द्वारा कहा गया है। किन्तु व्यवहारयका कथन उपचरित है, क्योंकि परसापेक्ष वस्तुका स्वरूप तो नहीं है, लेकिन परसापेच रूपसे उसकी सिद्धि की गई है। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा अतएवं अपर पक्षका न तो 'स्वप्रकाशकको अपेक्षासे आस्मज्ञ और परप्रकाशक को अपेक्षा सर्वज्ञ है। यही कहना आगमानकल है और न 'सर्वज्ञ शब्द स्वयं परसापेसका द्योतक है परनिरपेक्षका द्योतक नहीं है।' इत्यादि लिखना ही आगमानुकूल है । हमारा यह लिखना यथार्थ क्यों है इसके लिए आप्तमीमांसा कारिका ७३ और ७५ पर तथा उनको अष्टसहस्री टोकापर दृष्टिपात कीजिए। २. अपर पक्षने अपने दूसरे मुद्दे में भी अपने प्रथम मुद्देके कथनको ही दुहराया है कोई नई बात नहीं है। अपर पक्षका कहना है कि 'उस क्षायिक ज्ञानमै निश्चयनयसे बात्मज्ञ नामका धर्म है और व्यवहारनयसे सर्वज्ञ नामका धर्म है। इस प्रकार सर्व नामका धर्म अवश्य है किन्तु यह धर्म परसापेक्ष है जैसे घटका शान, पटका ज्ञान आदि । उपहारनयको अपेक्षासे केवली जिनमें सर्वज्ञता नामका घमं वास्तविक है अतः केवलो में सर्वज्ञताके आरोप अर्थात मिथ्या कल्पनाकी कोई प्रावश्यकता नहीं है।' आदि । यह अपर पक्षके वक्तव्यका कुछ अंश है। इसपर विचार करने के पहले व्यवहारनय के मुख्य दो भेदोंके स्वरूपपर दृष्टिपात कर लेना आवश्यक है। व्यवहारनयके मुख्य भेद दो है-असद्भतव्यवहारनय और सद्भूतपयहारनय । अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना यह असद्भुत व्यवहारनय है। तथा गुण-गुणी, पर्याय-पर्यायी आदिका भेद दिखलाना सदभूत व्यवहार है। -आलापपद्धति स्व-परको जानना ज्ञानका स्वरूप है। यहाँ अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र आरोप नहीं किया गया है, इसलिए तो यह असदभत व्यवहारनयका विषय नहीं है। तथा यहाँ स्वरूप कथन किया जा र कुछ गुण-गुणी आदिका भेद नहीं दिखलाया जा रहा है, इसलिए यह सद्भुत व्यवहारलयका भी विषय नहीं है। ऐसो अवस्थामें वह तीसरा कौनसा व्यवहारनय है जिसको अपेक्षा अपर पक्ष क्षायिक ज्ञानमें सर्वज्ञ नामका धर्म स्वीकार करता है और फिर सर्वसमें वह धर्म अस्तिरूप होकर भी उसे परसापेक्ष बतलाता है। किसी बस्तुका कोई धर्म उसका स्वरूप हो और फिर उसे परसापेक्ष कहा जाय यह बड़ी विचित्र कल्पना है। अपर पक्षने अपने अभिप्रायको पुष्टि में 'घटका झान, पटका जान' यह उदाहरण उपस्थित किया है। किन्तु घटज्ञानके काल में स्व-परको जाननेरूप जो परिणाम हुआ वह ज्ञानका स्वरूप है और स्वत:सिद्ध है। वह घटके रहने पर भी होता है और घटके न रहने पर भी होता है, अन्यथा केवलज्ञान तथा स्मृत्यादि ज्ञानोंको व्यवस्था हो नहीं बन सकेगी। इतना अवश्य है कि घट-परमें और ज्ञान में जो ज्ञाप्य-ज्ञापक व्यवहार होता है वह परस्परको अपेक्षासे ही सिद्ध होता है। यही कारण है कि हमने भेद विवक्षामें आत्माको जायक कहना इसे सद्भूत व्यवहारनयका विषय बतलाकर ज्ञ यकी अपेक्षा उसे ज्ञायक कहना इसे उपचरित बतलाया है। अपर पक्षने समयसार गा०३६२ को जयसेनाचार्यकृत टोकाके 'ननु सौगतोऽवि' इत्यादि अंशको उपस्थित कर लिया है कि 'सर्वज्ञत्व धर्म आत्मामें ब्यबहारनयसे होने पर भी सत्य है, आरोपित अर्थात् मिय्या कल्पना नहीं है।' सो इस सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि सर्वज्ञता यह केवलज्ञानका स्वरूप है । अपर पक्ष जिस थ्यवहारनयसे उसे केवलज्ञानका धर्म बतलाता है वह व्यवहारमय उस पक्षकी अपनी कल्पनामात्र है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि वह पक्ष सर्वज्ञताको कल्पनामें सत्य मानता है, वास्तवमें सत्य नहीं मानता । यदि यह एम सर्वज्ञताको वास्तव में सत्य मानता है तो वह ऐसा क्यों लिखता है कि सर्वज्ञत्व धर्म आत्मामें ध्यवहारनयसे है 1 तब तो उस पक्षकी ओरसे हमारे ही समान मही लिखा जाना चाहिए कि बात्मामें सर्वज्ञरव Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान ५१३ धर्म यथार्थमें है। सर्वज्ञता यथार्थ कैसे हैं और सर्वज्ञतामें आत्मज्ञता तथा आत्मज्ञतामें सर्वशता कैसे अन्तनिहित है इसका स्पष्टीकरण हुम पिछले उत्तरों में विशेषकामे कर आगे हैं । ___ अपर पक्षने लिखा है कि 'जब सर्वज्ञता शक्ति आत्माकी है तब उसका आत्मा कथन करना आरोपित कैसे कहला सकता है ? उस शक्ति का स्वरूप हो जब परको जानना है सब पर की अपेक्षा तो उसमें आवेगो हो । परको जानने का नाम ही परझता है।' समाधान यह है कि सर्वज्ञत्व शक्ति आत्माकी है। उसे आरोपित न तो हमने लिखा ही है और न वह आरोपित है ही। उस शक्तिका स्वरूप केवल परको जाननेका न होकर सबको जानने का है। यदि जिनदेव उसद्वारा केवल गरको जाने सो उस शक्तिमें परज्ञता बने । किन्तु उसद्वारा वे सबको जानते हैं, इसलिए वह सर्वशतारूप ही सिद्ध होती है। अपर पक्षका कहना है कि यहापर हमारा प्रश्न सर्वज्ञत्ववितको अपेक्षासे नहीं है, क्योंकि वह तो निगोदिया जीय में भी है। किन्तु सर्थशवारूप उस परिणतिसे है, वह परिणति सर्व पर दस्तुके आश्रयसे ही मानी जा सकती है । अतएव पर (सर्व ज्ञय) आधित होनेसे व्यवहारनयका विषय हो जाता है ।' आदि । ___ समाधान यह है कि निगोदिया आदि सब जीवों में जो सर्वज्ञत्व शक्ति है उसकी परिणति ही तो सर्वज्ञता है । यह परिणति स्व-परप्रत्यय न होकर स्वप्रत्यय होती है, जो अाने परिणामस्वभावके कारण प्रत्येक समयमै त्रिकालवी और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंको युगपत जाननेम समध है। अतएव सर्व पर वस्तुके आषयसे इसे स्वीकार करना तो आगमविरुद्ध है हो। किसी भी ज्ञान परिणतिको शेयके आश्रयसे मानना आगमविरुद्ध है। परीक्षामुख अ० २ ० ६ में कहा भी है-अर्थ और आलोक ज्ञानको उत्पत्तिके कारण नहीं है, क्योंकि वे परिच्छेद्य है । जैसे कि अन्धकार । अतएव हम जो यह भाव व्यक्त कर बाये है कि 'आत्माको जायक कहने से उसमें ज्ञेयकी ध्वनि आ जाती है, इसलिए उसपर ज्ञेयको विवक्षा लाग पड़ जाती है यही उपचार है वह यथार्थ है। यहाँ इतना और समझना चाहिए कि सर्वज्ञताका विषम स्व-पर ज्ञे यरूप समस्त द्वन्यजात है, केवल पर पदार्थ नहीं । अपर पक्ष यदि यह जानने कि जिसे निश्चय दृष्टि में (स्वल्परमणताकी दृष्टि में) आत्मज्ञ कहा है उसे ही परसापेक्ष विवक्षामें सर्वज्ञ कहा है तो नियमसारको उक्त गाथाका का तात्पर्य है यह हुदयंगम करने में आसानी जाय । समयसारमें पर्मायाथिकमयके विषयको गौणकर विवेचन किया गया है, क्योंकि वहाँ रागादिभावोंसे भिन्न आत्माको प्रतीति कराना मुख्य है । इसलिए ही वहाँ गाथा १६ में रागादिको व्यवहारनयसे जीवका मत. लाया गया है, किन्तु जब रागादिरूप परिणमना यह जोत्रका ही अपराध है, कमका नहीं यह शान कराना मुख्य हुआ तब इसका ज्ञान करानेके लिए कर्ता-कर्म अधिकारमें निश्चयसे उनका कर्ता जीवको ही कहा गया है। 'गा.१०२ । सर्वत्र विरक्षा देखनी चाहिए। अतएव अपर पक्षने समयसार गाया ५६ को ध्यान में रखकर जो यह लिखा है कि 'आपके सिद्धान्तानुसार यदि विभाव परिणमनको इस शक्तिको अपेक्षासे देखा जाय तो यह भी स्वाथित होने से निश्चयनयका विषय बन जावगा। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि समयसार गाथा ५६ में रागादि विभावको जीवके हैं ऐसा ज्यवहारमयत कहा है।' सो उस पक्षका ऐसा लिखना ठीक नहीं है। ३-६. तीसरे मुद्दे में पिछले कथनकी ही दुहराया गया है । अगर पक्ष आत्मज्ञता और सर्वज्ञता ऐसे दो धर्म मानता है। किन्तु इस सम्बन्धमें विशद विवेचन पहले ही कर आये है, उससे स्पष्ट हो जायगा कि आत्मज्ञ ६५ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ पुरानिया) स्थ और सर्वश के कथनमें विवक्षाभेद ही है, अन्य कोई भेद नहीं । अतएव प्रकृत में आत्मज्ञ और सर्वज्ञ इन दोनोंका एक ही तात्पर्य है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । ४. किसी भी वस्तु कोई भी धर्म परसापेक्ष नहीं होता । हाँ धर्म धर्मी अधिक व्यवहार अवश्य ही परस्परसापेक्ष होता है। यहाँ पर अपर पक्षने असद्भूत व्यवहारका लक्षण आछापपद्धतिसे दिया है। उसका यादव और उसी बालापपद्धतिके 'अन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्य इत्यादि कममका आशय एक ही है। आगे समयसार गा० २७२ की आरमख्यादि टीका आधारसे निश्चयन और व्यवहारनयका लक्षण दिया है। किन्तु प्रकृत इन सबके आधार परचा करने का कोई प्रयोजन नहीं है। अपरगने जा० १५० २३ के आधारसे यह सिद्ध करना चाहा है कि 'केवलज्ञान बात्मा और पदार्थकी अपेक्षा रखता है ।' समाधान यह है कि ज्ञान के कारण क्षेत्र ज्ञान के कारण है ऐसा नहीं है, क्योंकि जैसे अभेद विवक्षा में निश्चयगय से और भेद विवक्षा में उपचारित राभूत व्यवहारनयसे जीव और ज्ञानमें परस्पर कार्य-कारण भाव बन जाता है वैसे अन्यत्र ज्ञेय और ज्ञानमें उपचरित असभूत क्षयवहारनयसे भी कार्यकारणभाव नहीं बनता। इन दोनोंपर यदि कोई व्यवहार छागू पड़ता है तो शाशक व्यवहार हो लागू पड़ता है, अतएव ज० १५० २३ के उप उद्धरणका यह अर्थ करना चाहिए कि केवलज्ञान आत्मसहाय होकर उत्पन्न होता है और परवहाय (परसापेक्ष) होकर उसमें ज्ञापक व्यवहार होता है। इसके सिवा इसका अन्य अर्थ फलित करना धागमानुकूल नहीं है। पर्यामाधिकनयसे देखा जाय तो केवलज्ञान स्वकालमें स्वयं उत्पन्न होता है, वह अन्य किसीको अपेक्षा नहीं रखता । हाँ, आत्मा और केवलज्ञानमें धर्म-धर्मी व्यवहार अवश्य ही परस्पर सापेक्ष होता है। इस अपेक्षा उक्त उद्धरणका यह अर्थ होगा कि केवलज्ञानमें धर्मव्यवहार बात्मसापेक्ष होता है। आचार्य संक्षेप में वस्तुका निर्देश करते है । उसका आशय क्या यह नयविवक्षासे ही समझा जा सकता है। अपर पाने लिखा है कि इस तरह चूंकि सर्वज्ञता पदार्थविषयताको अपेक्षा है, अतः वह पराचित होने से व्यवहार से हैं।' आदि। | समाधान यह है कि सर्वज्ञता में पदार्थविषयताको अपेक्षा नहीं होती । सर्वज्ञता और विषयभूत पदार्थों मे ज्ञाप्य ज्ञापक व्यवहार अवश्य किया जाता है। प्रवचनसार गाया २३ में 'पारणं णेयपमण मुहिं' इस वचनद्वारा प्रत्येक समय केवलज्ञान परिणाम किसरूप होता है इसका स्वरूपनिर्देश किया गया है परिणाम होने में शेयको अपेक्षा बनी रहती है यह नहीं कहा गया है। जैसे प्रत्येक समय में ज्ञेय स्वयं हूँ । यह केवलज्ञान के कारण वैसा नहीं है। उसी प्रकार प्रत्येक समय में केवलज्ञानपरिणाम भी स्वयं है। वह ज्ञ यके कारण वैसा नहीं है। जब कि अपर पक्ष तत्वार्थवार्तिक १ । २६ के आधारसे केवलज्ञानमें अनन्तानन्त लोकालोकको जाननेको शक्ति विश्व स्वीकार करली है तो परिणामी से केवलज्ञान परिणाम अभिन होनेके कारण जिस कालमें आत्मा जिसरूप परिणमता है यह तन्मय होकर हो अनुसार सर्वज्ञता आत्मामें निश्चयसे है अर्थात् उस कालमें वह उसका स्वरूप है ऐसा मान लेने में अपर पक्ष क्यों हिचकिचाता है। अपर पक्ष सर्वज्ञताको एक ओर तो स्वरूप भी मानता है और दूसरों ओर उसे व्यवहारनवसे बतलाता है इसे क्या कहा जाय ? हम तो इसे उसकी विडम्बना ही कह सकते हैं। परिणमता है इस नियम ५. समयसार परिशिष्ट ४८ तो नहीं ४७ शक्तियों का निर्देश अवश्य है उनमें अपर पहने अकार्य कारण और अवाक्तिको परापेक्ष चलाया है। इसी प्रकार सर्वशत्य और सर्वशत्व शक्तियोंको उस केवलज्ञान Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान ५१५ भी परापेक्ष लिखा है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस शक्तिका जैसा परिणाम (स्वरूप) होता है उसका हो वहाँ निर्देश किया गया है। किसीकी सिद्धिमें परकी अपेक्षा लगाना अन्य बात है । यह व्यवहार है जो यथार्थका ज्ञान करा देता है पर कितीका स्वरूप पपेक्ष नहीं हुआ करता इसका विशेष विचार पहले ही कर पाये है। समयसार गाया ३५६ और १६० आदि को निश्चयनय और उपहारनय कथन निर्देश है उसका इतना ही है कि आरमा निश्वयसे झायक है। प्रत्येक समय उसमें जो लोकालोको जाननेदेखनेरूप परिणाम होता है वह स्वभावसे होता है, परकी अपेक्षा करके नहीं होता। जैसे भिती है, इसलिए सेटिका सदरूप परिणम रही है ऐसा नहीं है, किन्तु वह स्वभावसे हो प्रत्येक समय में मिलोकी अपेक्षा किये बिना सफेदरूप परिणमती रहती है उसी प्रकार समस्त है, इसलिए लोकको जानने-देखनेरूप ज्ञान दर्शन परिणाम होता है ऐसा नहीं है, किन्तु आत्मा प्रत्येक समय में समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा किये बिना स्वभावसे हो सकल ज्ञवको जानने-देखनेरूप परिणमता है। यह निश्चयनयका है। फिर भी ज्ञाप्य शापक व्यवहारको ध्यान में रखकर परसापेक्ष कथन किया जाता है। इसलिए व्यवहारनयसे सर्वज्ञता है ऐसा एकान्त न करके आत्मता और सर्वज्ञता ये कथन के दो पहलू है ऐसा समझना चाहिए। समयारी उक्त गाथाओंका तथा उसकी टीकाका यही आशय है। जोपादिको जानने स्वयं ज्ञानपरिणाम हुआ उसीको आचार्य अमृतचन्द्र परादिको व्यवहार जानना कहा है। वह घटादिको जाननेरूप ज्ञानपरिणाम स्वभावसे हुआ है, घटादिके कारण नहीं हुआ है । फिर भी शाप्य शाकव्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है, को घटादिजानना कहते हैं। व्यवहारनय और उसका क्या है इसका भेदों सहित निर्देश आलापद्धति और नयचक्रादिसंग्रह आदि ग्रन्थोंमें सुष्ट किया है, उससे आगनमें उसे रूपमें स्वीकार किया गया है और उसमें क्या भेद है यह स्पष्ट हो जायगा । ६. अपर पक्षने परमात्मप्रकाश टीकाका जो आय लिया है उस सम्बन्ध में इतना लिखना ही पर्याप्त है कि सर्वज्ञता केवलज्ञानका परनिल स्वरूप है यह योगे नहीं आई है प्रकार अपने आत्माको तन्मय होकर जानते है जब प्रकार पर को तन्मय हमारे जिन जिन होकर नहीं जानते इस परका जानना आगया। वपर पक्ष एक वर विषय बताता है, पौर क्या यह अर्थ हुआ कि केवलीका तन्मय होकर जो ज्ञानपरिणाम हुआ उसमें अतएव सर्वज्ञताको यदि हम आत्मज्ञतासे भिन्न नहीं कहते तो चार्थ ही कहते हैं। णामको दो कहता है। एक ज्ञानपरिणामको आत्म कहकर उसे निश्चयन दूसरेको सवंश कहकर उसे व्यवहारका विषय बतलाता है इसका हमें आश्चर्य है, क्योंकि वे दो नहीं है, विवाद कथन यो हैं इसे अपर पक्ष स्वीकार ही नहीं करना चाहता और व्यवहारको परमार्थ सिद्ध करनेके फेर में पड़कर सर्वज्ञताको ही एकान्तले व्यवहारनयका विषय बना देना चाहता है। किन्तु किसी भी वस्तु में कोई भी धर्म परसापेक्ष नहीं होता। अतएव परमात्मप्रकाशकी टीका के आधारसे हम जो कुछ लिख आये हैं वह यचार्थ लिख आये है । उसमें ज्ञानस्वरूपका निर्देश करनेके साथ ज्ञानपरिणाम परसे न उत्पन्न होकर भी उसमें परके जाननेरूप व्यवहार कैसे होता है यह स्पष्ट किया गया है । ७. अपर पक्षने सामायिकपाठ और प्रवचनसार गाया २०० की टोकाके आधार से हमारे कथनका 'सम्भवतः ' पद लिखकर जो श्राशय फलित करना चाहा है वह फलित न किया जाता तो ठोक होता, क्योंकि Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा ज्ञान याकार परिणमता है ऐसा जब हम मानते ही नहीं तत्र सम्भावनामें उसकी चरचा करना ही व्यर्थ है। फिर भी ज्ञान परिणामको समझाने के लिए ज्ञानको साकार कहा ही जाता है-साकारं ज्ञानम् । किन्तु समझदार उसका वही आशय लेता है जो अभिप्रेत होता है। इसका कोई भी समझदार यह आशय नहीं लेता कि ज्ञयको जानते ममय ज्ञान घटाकार हो जाता है। तत्पत्ति, तदाकार और तदध्यवसाय ज्ञान होता है यह सिद्धान्त बौदोंका है, जैनोंका नहीं। जब अगर पक्ष सर्वज्ञताको परमापेक्ष यथार्थ मानता है तब अवश्य ही यह शंका होती है कि क्या यह पक्ष शेयोंसे ज्ञानको उत्पत्ति मानना चाहता है जिसका कि आचार्योने दर्शनशास्त्र के ग्रन्थों में दृढ़तासे खण्डन किया है। अपर पक्षने पदार्थके तीन भेदों में से 'घट' शब्द और 'घटज्ञान' इन दोनों को पराधिन माना है जो ठीक नहीं, क्योंकि घट शब्दरूप परिणत शब्दवर्गणाएं घट शब्दप स्वरूपसे है. पट पदार्थके कारण नहीं। इन दोनों में प्राध्य-वाचक व्यवहार अवश्य ही परस्पर सापेक्ष होता है। इसी प्रकार ज्ञानका घटज्ञानरूप परिणाम स्वतःसिद्ध है, घटपदार्थके कारण ज्ञानका वैसा परिणाम नहीं हुआ है। हाँ, घटज्ञान और घट में ज्ञाप्यज्ञापकन्यवहार अवश्य ही परस्पर मापेक्ष है। अपर पक्षका कहना है कि""घटशब्द या घटज्ञान में जलधारण नहीं हो सकता।..."अतः शब्द व ज्ञानको पदार्थ व्यवहारसे कहा गया है। समाधान यह है कि घट शब्द और घटज्ञानको स्वतन्त्र सत्ता है या नहीं? यदि अपर गक्ष कहे कि उनकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है तो फिर उन्हें आकाशकुसुमके समान असत्स्वरूपही मानना पड़ेगा 1 अपर पक्ष उन्हें आकाशकुसुमके समान असत्त्वरूप तो मानेगा ही नहीं, इसलिए वह कहेगा कि उनकी ऐसे ही स्वतन्त्र सत्ता है जैसे घट पदार्थकी तो फिर उन्हें घटपदार्थके समान परमार्थस्वरूप मान लेने में अपर पक्षको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि वे घटपदार्थका कार्य नहीं कर सकते तो न कर सकें, उनका जो भी कार्य है उसे तो वे करते ही है। इसलिए वे घटपदार्थके समान परमार्थस्वरूप हो है ऐरा। यहाँ समझना चाहिए। अन्यया घटपदार्थको भी घटशब्द और घटज्ञानका कार्य न कर सकने के कारण म्यवहारसे पदार्थ स्वीकार करना पड़ेगा और इस प्रकार कोई भी पदार्थ परमार्थस्वरूप नहीं सिद्ध होगा। किन्तु यह ठीक नहीं, इसलिए लोकमें जितने भी पदार्थ है वे सभी के सभी स्वरूपसे परमार्थस्वरूप है ऐसा समझना चाहिए । ८. हमने जो यह लिखा है कि 'स्वरूपसे सर्वज्ञता घटित हो जाने पर जिस समय ममस्त ज्ञयों की अपेक्षा उन्हें सर्वज्ञ कहा जाता है तब उनमें यह सर्वज्ञता परकी अपेक्षा आरोपित को जाने के कारण उगनरित सतव्यवहारसे सर्वशता कहलाती है। इसका आशय यह है कि स्वरूपसे सर्वज्ञ है, क्योंकि राकल पदार्थ साक्षात्करणरूपसे परिणमना यह केवलीका स्वरूप है। किन्तु व्यवहार पराचित होता है, इस वचनके अनुसार जब इस सर्वज्ञताको झयोंकी अपेक्षा कहा जाता है तब यह कथन व्यवहार हो जाता है ! केवलोका जो स्वरूप है यह परकी अपेक्षा कहा गया यही कथन उपवहार है, सर्वज्ञता स्वयं व्यवहार नहीं है। परको अपेक्षा लगाकर कथन करना व्यवहार है ।ज्ञेय स्वरूपसे ज्ञच है, ज्ञायक स्वरूपसे ज्ञायक है। मात्र इनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष है, इसलिए ज्ञ यज्ञायक सम्बन्ध व्यवहारसे कहा गया है। परमार्थसे इनमें कोई सम्बन्ध नहीं है। अपर पक्षने समयसार गाथा ३६१ की टीकाका जो सद्धरण दिया है उसीसे व्यवहार क्या है यह स्पष्ट हो जाता है । अगर पक्ष सर्वशताको ही व्यवहारनयरो कहना चाहता है जो केवली जिनका स्वरूप है और यथार्थ है । जब कि परकी अपेक्षा लगा कर उसका कथन करना यह व्यवहार है। उक्त टीकामें यहो मात्र व्यक्त किया गया है। अपर पशने जो पालापपद्धतिका उद्धरण दिया है उसमें परज्ञता और परवशिताको स्वाभाविक उपञ्चरित बतलाया है। इसका अर्थ यही हुआ कि समंज्ञसा और सर्व Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ७ और उसका समाधान दशिता सिद्धोंका स्वभाव है, किन्तु जब उसे परको अपेक्षा लगाकर कहा जाता है तब वह व्यवहार हो जाता है। आत्ममता और परमता दो धर्म नहीं, विवक्षाभेदसे दो कथन हैं। स्ववी अपेक्षा जो आत्मज्ञसा कहलाती है उसे ही परको अक्षा परज्ञता कहते है। ऐसा निर्णय करने पर ही एकान्लन्दा परिहार हो सकता है। अन्यथा आलापपद्धति में जिस एकान्तका निर्देश किया है उस दोषसे वह पम्म अपनको बचा नहीं सकता । हमें विश्वास है कि इतने स्पष्टीकरणके बाट अपर पक्ष अपने इस कथरलो लौटा लेगा कि 'सामायिक ज्ञानमें निश्चयनयसे आत्मज्ञ नामका धर्म है और व्यवहार नबसे सर्वनामका धर्म है। इस प्रकार सर्वज्ञ नामका धर्म अवश्य है किन्तु वह परसापेक्ष है।' आदि। यदि वह पक्ष इस कथनको लोटा ले और यह स्वीकार कर ले कि जिसे स्वकी अपेक्षा आत्मज्ञ कहते हैं वही परकी अपेक्षा परज्ञ कहलाता है तो निश्चय-व्यवहारनय के कथनकी सुसंगति बैठ जाय और एकान्तका परिहार होकर केवली जिनमें सर्वज्ञता यथार्थ सिद्ध हो जाय । अपर पक्षने यहाँ प्रवचनसार गाथा ३२ तथा ३८ और नय चक्रादिसंग्रह पृ०११६ के जो उसरण दिये है वे सब परसापेक्ष कथनको ही व्यवहार नयका विषय सिद्ध कर रहे हैं, सर्वज्ञता व्यवहारनयसे है यह नहीं बतला रहे है। यहाँ पर अपर पक्षने जो यह लिखा है कि 'स्त्र में परका और परम स्वका अत्यन्ताभाव है।' इसे पढ़कर हमें प्रसन्नता हुई। यह अकाट्य निगम है जो ज्ञ य-ज्ञायकभाव और कार्य-कारणभाव सबपर लाग होता है। इसका आशय यह है कि ज्ञेय ज्ञानको उत्पन्न करता नहीं, फिर भी शेयकी अपेक्षा किये विना ज्ञान का ऐसा परिणाम होता है जिसमें ज्ञेय ज्ञात हो जाते है। इसी प्रकार उम्मकार मिट्टी में कुछ भी व्यापार करता नहीं, फिर भी कुम्भकारके व्यापारको अपेक्षा किये बिना मिट्टी स्वयं ऐसा परिणाम करती है कि घट बन जाता है । इस निश्चय पक्षको ठीक तरहसे समझा वही एकका दूसरे में अत्यन्ताभावको समठा सकता है और तभी व्यवहार पक्ष क्या है यह भी ध्यानमें आता है ।। १०. हमने लिखा था कि 'ज्ञानका ज्ञाकार परिणमन शेयोंके कारण हुआ है तब वह व्यवहार कहलाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुको स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका पराश्रित कथन किया गया है।' इस वचन में यद्यपिटीका लायक कोई बात तो नहीं है। फिर भी अपर पशन सर्व प्रथम 'सयाकार परिणमन' इस पदको अपनी बाकाका विषय बनाया है । जब कि अपर पक्ष यह जानता है कि आगममें ज्ञेयको जाननेके अर्थ में ऐसा प्रयोग होता है। यथा-अथवा चैतन्यशक्तावाकारी-ज्ञानाकारी ज्ञयाकारश्च । तत्त्वार्थवातिक अ.१ स०६। एवमात्माऽश्चिान्योन्यवृत्तिसन्तरेणापि विश्वयाकारग्रहणसमणप्रषणाः । प्रवचनसार गा०२८ सूरकृति टोका। इतनपर भी जब कि इसकी चरचा नं०७ में की जा चुकी थो तो पुन: इस चरचाको उठाना कहाँ तक उपयुक्त है इसका वह स्वयं विचार करे । हमने लिखा है कि 'ज्ञानका याकार परिणमन झयों के कारण हुआ है तब वह व्यवहार कथन है।' आदि । सो यह उचित हो लिखा है, क्योंकि ज्ञ याके कारण आत्माज्ञ योंको जानता है ऐसी जो धारणा बनो हुई है उसका परिहार करना इसका यख्य प्रयोजन है। ज्ञान में सब ज्ञात होते हैं यह बावहार नहीं है, यह तो ज्ञानपरिणामका स्वरूपाख्यान है। जबतक इरामें परकी अपेक्षा नहीं लगाई जायगो तबतक इसे व्यवहार कथन मानना उचित नहीं है । भगवान् सबको जानते हैं, इसलिए उन्हें सर्वगत कहना एक तो यह व्यवहार है और Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा दूसरे ज्ञान में सर्व पदार्थ ज्ञात होते हैं, इसलिए सकल शेयोंको लगत कहना एक यह व्यवहार है। व्यवहार पति होता है, इसलिए जबतक पराभिपना नहीं दिलाया जायगा तबतक कोई भी कथन व्यवहार कथन नहीं बनेगा। स्पष्ट है कि सर्वज्ञता केवलज्ञानीका स्वरूप है वह पराश्रित नहीं वसंता, अतएव वह आत्मज्ञता रूप हो है, क्योंकि केवलीका प्रत्येक समय में जो ज्ञानपरिणाम होता है वह अपने में अपने द्वारा ही होता हूँ । परन्तु जब उसे अन्य ज्ञेय सापेक्ष कहा जाता है तब उनका होता है जिन उपहारनयसे सबको जानते आशय -- केवलो देखते हैं। इस पूरी प्रतिशंकाको पढ़ने से हम तो केवल यह आशय समझे हैं कि जैसे बने वैसे व्यवहारनयको परमार्थरूप सिद्ध किया जाय। तभी तो अपने क्षायिक ज्ञान और सर्वज्ञ नामके दो धर्म स्वीकार किये और सर्वज्ञ धर्मका अस्तित्व परसा बतलाकर सर्वज्ञताको व्यवहारयका विषय बतलाया। ये दो धर्म क्षायिक ज्ञान में हैं और उनमें से सर्वज्ञ नामका धर्म व्यवहारयते है इसे सिद्ध करने के लिए उन्हें आगमप्रमाण देनेकी भी आवश्यकता नहीं शाल हुई यदि कोई पूछे कि अगर ने ऐसा क्यों किया तो उसका उत्तर है कि जैसे बने वैसे व्यवहारलयको परमार्थ सिद्ध किया जाय। किन्तु व्यवहारका कोई विषय हो नहीं है, वह केवल कल्पनामात्र है ऐसा तो हमारी ओरसे कहा हो नहीं गया और न ऐसा है ही ऐसी अवस्थामै उसकी पुष्टिमें पुनः पुनः 'ण च ववहारणओ चप्पलओ' आदि प्रमाणोंको देनेकी अपर पक्षको आवश्यकता ही क्यों इसका निर्णय वह स्वयं करें इस प्रकार प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि प्रत्येक आत्मामें जो सर्वज्ञत्व नामकी शक्ति है उसकी अपेक्षा केवलीने सर्वज्ञता स्वाधित है और स्वाश्रितपने की अपेक्षा इसीको आत्मा कहते है। इसलिए केवली विनययात्भ है वह सिद्ध होता है और जब इसीका परसापेक्ष कथन किया जाता है तब 'परा श्रितो व्यवहार' इस नियम के अनुसार यह सिद्ध होता है कि केवली जिन व्यवहारनयसे सबको जानते देखते हैं । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर १: शंका ८ दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलीआत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं । यदि है तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भगवानकी आत्माके सम्बन्धसे ? समाधान उत्तर--दिव्यध्वनिके रखरूपका निर्णय करते समय सर्व प्रथम विचारणोप यह है कि उसकी उत्पत्ति कैसे होती है। इसका स्पष्ट निर्देश करते हुए प्रवचनसारमें कहा है ग्राणपिसे जविहारा धम्मुवदेसी य णियदयो तसि । अरहतार्ण काले मायाचारो व इस्थीर्ण ॥४४॥ अर्थ-उन अरिहन्त भगवन्तोंके उस समय खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारके समान स्वाभाविक ही होता है ॥४४॥ इसको टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासभावात् स्वभावत एवं मायोपगुण्ठनादगुण्ठितो व्यवहाराप्रवसते तधा हि केवलिन प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासभावाम् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते । अपि चाविरुद्ध मतदम्भाधरदृष्टान्तात् । अथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानो पुद्गलानां गमनमवस्थानं मर्जनमग्नुवर्ष च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्विका एव रश्यन्ते, अतोऽमी स्थानादयो मोहोदयपूर्वकन्वाभावात् क्रियाविशेषा अपि केवलिना क्रियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति ॥४४॥ अर्थ-जैसे स्त्रियोंके प्रयत्न के बिना भी उस प्रकारको योग्यताका सद्भाव होनेसे स्वभावभूत हो मायाके ढक्कनसे ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है उसी प्रकार केवलो भगवानके बिना हो प्रयत्न के उस प्रकारको योग्यताका मुद्भाव होनेसे खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं और यह बादलके दृशन्तसे अविरुद्ध है। जैसे बादलको आकाररूपसे परिणत हुए पुद्गलोका गमन स्थिरता गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्नके बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवलो भववानका खड़े रहना आदि अबुद्धिपूर्वक ही देखा जाता है। इसलिये यह स्थानादिक मोहोदयपूर्वक न होने से क्रियाविशेष होने पर भी केवलो भगवानके क्रियाफलभुत बन्धके साधन नहीं होते ||४|| तात्पर्य यह है कि केवलो जिनके मोहका अभाव होने के कारण इच्छाका अभाव है और इन्छाका अभाव होनेसे बुद्धिपूर्वक प्रयत्नका भी अभाव है। फिर भी चार अघाति कर्मोके उदयका सद्भाव होनेसे उनके स्थान, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खनिया ) तस्वी आसन और विहाररूप काय योसम्बन्धी क्रियाएँ तथा निश्चय-यवहारके धर्मोपदेशको लिए हुए दिव्यध्वनिरूप बचनयोगसम्बन्धी क्रिया सहज हो होती है 1 अतएव दिव्यध्वनिका तीर्थकर प्रकृति आदिके उदयके साथ असद्भूत व्यवहार नयकी अपेक्षा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध मुख्यतासे यहाँ पर स्वीकार किया गया है। कारण कि तीर्थकर प्रकृति आदिका उदय स्वतन्त्र द्रव्यको अवस्था है और दिध्यध्वनि स्वतन्त्र द्रव्यको अवस्था है। और दो या दो से अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें जो सम्बन्ध होता है वह असद्भुत ही होता है। अब रही दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता और अप्रामाणिकताकी बात सो व्यवहार निश्चयमोक्षमार्ग छह ट्रव्य, पाँच अस्लिकाय, नौ पदार्थ और सात तत्त्व आदिके यमार्थ निरूपण की उसको सहज योग्यता होनेसे उसकी प्रामाणिकता स्वाचित है। परन्तु व्यवहार नयको अपेक्षा विचार करने पर वह पराश्चित कही जाती है । उसकी प्रामाणिकता स्वाधित है इस तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अमतचन्द्र समयसार गाथा ४१५ की टोकामें कहते हैं य: खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्वसमयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदम् । तात्पर्य यह है कि यह शास्त्र विश्वका प्रकाशक होनेसे विश्व समयस्वरूप समयसारभूत भगवान् आत्माका प्रसिपादन करता है, इसलिये जो स्वयं शब्दब्रह्मके समान है। इसी तथ्यको घे पुनः इन शब्दोंमें स्वीकार करते है स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वैाख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किञ्चिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरः ॥२७॥ अर्थ-जिसने अपनी शक्सिसे वस्तुतत्वको भली भाँति कहा है ऐसे शब्दोंने इस समयकी व्याख्या को है, स्वरूपगुप्त अमृतचन्द्र सूरिका कुछ मो कर्तव्य नहीं है ।।२७८।। वितीय दौर शंका ८ प्रश्न यह था-दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं ? यदि है तो कौन सम्बन्ध है ? बह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भगवान्की आत्माके सम्बन्धसे ? प्रतिशंका २ उक्त प्रश्न निम्नलिखित स्खण्ड है(१) विध्यध्वनिका केबलज्ञान अथवा केवली आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं ? Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान ५२१ (२) दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली आमाके साथ कौन सम्बन्ध है? . (३) दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलौके साथ सम्बन्ध सत्यार्थ है या असत्यार्थ? (४) दिब्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? (५) दिव्यध्वान प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या कंबलो भगवानको आत्माके सम्बन्धसे? इनमें खण्ड नं०१,२ ओर ३ का बागने उत्तर नहीं दिया। अन्य खण्डोंका उत्तर देते हुए पद्यपि आपने दिव्यध्वनिको प्रमाण माना है लेकिन उसे स्वाश्रित प्रमाण माना है। यह संभव नहीं है, क्योंकि शब्द जड़ पगलकी पर्याय होनेसे न तो प्रमाणरूप हो सकते हैं और न अप्रमाणरूप ही। शब्दोंकी प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता बक्ताके हो आथित हआ करती है। जैसा कि धवल पुस्तक १ पृष्ठ ७२ पर कहा गया है-- वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यम् । अर्थ-वचनोंको प्रमाणता वक्ताको प्रमाणतासे होती है। समन्तभद्र स्वामीने रित्नकरण्डश्रावकाचारमें शास्त्रका लक्षण करते समय उसकी प्रामाणिकता सिद्ध करनेके लिये सर्वप्रथम उसे 'आतीपज्ञ होना बतलाया है। इसी प्रकार आचार्य माणिक्यनन्दीन भी आगमका लक्षण करते समय उसे 'आसवचनादिनिबन्धन' होना प्रकट किया है। आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घयमा टेष्टपिरोधकम् । तत्त्वोपदेशकस्सा शास्त्रं कापथघट्टमम् ॥ ५॥ --स्नकरण्डश्रावकाचार आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । -परीक्षामुख अ० २, सू० ९४ . समन्तभद्रस्वामीने देवागमस्तोत्रकी ७८वीं कारिकामें आगमताधित वस्तुका लक्षण लिखते हुए उसके वक्ताको माप्त होना आवश्यक माना है। कारिका इस प्रकार है-- बक्तनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तधेतुसाधितम् । आसे वक्तरि तद्वाक्यात्साध्यमागमसाधितम् ॥७॥ अर्थ-वक्ता के अनाप्त होने पर जो वस्तु हेतुसे साध्य है वह हेतुसाधित है और वक्ताले आप्त होने पर उसके वचनसे जो साध्य है वह आगमसाधित है। इसी देवागमस्तोत्रकी ६वीं कारिकामें भगवान महावीरको निदोषता प्रमाणित करनेके लिये समन्तभद्र स्वामोने युषित और शास्त्रसे अविरोधी वकृत्वको हेतुरूपसे उपस्थित किया है । कारिका यह है-- स त्वमेवालि निदोषो युनिशास्त्राविरोधिवाक । अविरोधी यदिष्ट ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ अर्थ हे भगवन् ! भाप निर्दोष है, पोंकि आपके वचन यक्ति और शास्त्र अविरोषी हैं। आपके वचन युक्ति और शास्त्रले अबिरोधी इसलिये है कि आपका शासन प्रमाणसे बाधित नहीं है। अपने निमित्त कारणको उपेक्षाकर दिव्यानको मात्र स्वभावसिद्ध सूचित किया है वह विचारणीय Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा है, क्योंकि आगम में उसे केवलीका कार्य स्वीकृत किया है। इसके लिए धवल पुस्तक १ पृष्ठ ३६८ पर वीरसेनाचार्य के निम्नाङ्कित पचन द्रष्टव्य है तन मनसोऽभावे तस्कार्यस्य वचसोऽपि न सस्वम् ? इति चेत् न, सस्य ज्ञानकायस्वात् । अर्थ-यहाँ कोई प्रश्न करता है कि जब फेवलीके मनका प्रभाव है तब उसके कार्यरूा वचनका सद्भाव कसे माना जा सकता है ? यह प्रश्न टोक नहीं है, क्योंकि वचन शानका कार्य है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमै श्री स्वामी समन्तभद्रने भो यही बात कही है अनारमार्थ विना रागैः शास्ता शाप्ति सतो हितम् ॥ ॥ (पूर्वार्ध) अर्थ-- केवलज्ञानी भाप्त वीतराम होता हृा भी आत्मप्रयोजनके विना भव्यप्राणियोंके हितका उपदेश देता है। इस कथनसे यह अभिप्राय निकलता है कि दिव्यध्वनिको प्रामाणिकता वस्तुतः केवलज्ञान अथवा केवलज्ञानीके आधित है, स्वाधित नहीं। बापने वचनवाणाकी स्वाचित प्रमाणता सिद्ध करने के लिये जो समयसारको अन्तिम ४१५ गाथाकी श्री अमलचन्द्रमरिकृत टीकाके वाक्यांश तथा अन्तिम कलश पद्यको उपस्थित किया है उससे बचनवर्गणाकी स्वाचित प्रमाणता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि एक तो उपर्युक्त प्रमाणोंके अनुसार जैनागममें वचनको स्वाधित प्रमाणता नहीं स्वीकृत की गई है। दूसरी बात यह है कि मन्तिम कलशसे श्री अमृतचन्द्रसुरिने समयसारको टीका समाप्त करते हुए अपनी लघुता प्रकट की है व अपनी टीकामें समयसारका माहात्म्य प्रकट किया है, सिद्धान्तका प्रतिपादन नहीं किया है ? श्री अमृतचन्द्रसूरिने स्वरचित पुरुषार्थसिद्धयु पाय तथा तत्वार्थसार आदिमें भी इसी पतिको अपनाया है। आपने जो तीर्थकर प्रकृतिके उदय और दिव्यध्वनिका असतब्यवहार मयसे निमित्त-नैमित्सिकसम्बन्ध प्रतिपादित किया है वह संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि दिव्यध्वनि सामान्य केवलीको भी खिरती है तया हमारा प्रश्न भी सामान्य रूपसे केवलज्ञान व केवलज्ञानी आत्माके साथ दिव्यध्वनिके सम्बन्धविषयक है। आपने धर्मदेशना दिव्यध्वनि)को प्रवचनसार गाथा ४४ के आधारपर जो केवलीका स्वभाव भूत प्रवर्तन बतलाया है वह दिव्यध्वनिकी स्वाचित प्रमाणताका विघातक है, क्योंकि उस गाथा तथा उसकी ममतचन्द्रसूरिकृत टोकासे दियध्वनि केवली भगवान्को ही क्रिया सिद्ध होती है । इस माथाम स्वभावभतका अर्थ बिना इच्छासे है । इस बातको पुष्टि श्रो समन्तभद्राचार्य विरचित स्वयंभूस्तोत्रके निम्न लिखित पद्यसे भी होती है काय-वाक्य-मनसा प्रवरायो नाभवंस्तब मुनेश्चिकीर्षया ॥ ७५ ॥ अर्थ हे भगवन् ! आपको मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ विना इच्छाके हो हुआ करती हैं । इस तरह आपका कथन प्रमाणसंगत नहीं कहा जा सकता है। अलमें हमारा निवेदन है कि आप हमारे उल्लिखित प्रश्न के तीन खपड़ोंका उत्तर अवश्य देंगे। 'दो या दो से अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायों में जो सम्बन्ध है वह असद्भुत ही होता है यह आपने लिया है. इसमें असद्ध त पदसे बापका आशय क्या झुठसे है या अन्य किसी अर्थ से? इसका भी अवश्य स्पष्टीकरण करेंगे। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान शंका ८ मूल प्रश्न- दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवळीकी आत्मा से कोई सम्बन्ध है या नहीं ? यदि है तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित हैं या केवली भगवान्की आत्मा के सम्बन्ध से ? प्रतिशंका २ का समाधान इसके उत्तरस्वरूप बाचागंश्रयं कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्रसूरि आगमप्रमाण देकर मोमांसा को गई थी । साथ ही उस आधारसे यह बतलाया गया था कि उनकी दिव्यध्वनि स्वाभाविक होती है। प्रवचनसारकी ४४ नं० की गाथामें 'दियो' शब्द आया है, उसका अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रने 'स्वाभाविक' किया है। आचार्य कुन्दकुन्दने तो स्त्रियोंकी माया के समान उसे स्वाभाविकी बतलाया है। साथ ही अमृतचन्द्रसूरिने अपनी टोका मेघा दृष्टान्त देकर यहां 'स्वाभाविक' पदया है। लोक में पुरुष प्रयत्न के बिना अन्य जितने कार्य होते हैं उनको जिनागममें 'विस्रसा' कार्य स्वीकार किया गया है । - देखो समयसार गाथा ४०६, सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० २४ । यह तो सुविदित सत्य है कि केवली भगवान्‌के राग द्वेष और मोहका सर्वथा अभाव हो जाने के कारण गरम वीतराग निश्चयचारित्र प्रगट हुआ है । इसलिये इच्छा के अभाव में प्रयत्नके बिना हो उनके धर्मोपदेश आदिकक्रिया होती है। इतना स्पष्टीकरण करनेके बाद भी इस सम्बन्ध में मूल प्रश्नके खण्ड पाड़कर पुनः विशेष जानने की जिज्ञासा को गई है। प्रतिशंका के अनुसार उक्त प्रश्नके विभाग इस प्रकार हैं १. दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलो आत्मा के साथ कोई सम्बन्ध है या नहीं ? २. दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली आत्मा के साथ कौन सम्बन्ध है ? २. दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली के साथ सम्बन्ध सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? ५२३ ४. दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? ५. दिव्यश्वनि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है मा केवली भगवान्‌की आत्माके सम्बन्धसे ? यहाँ इन शंकाओं का समाधान करने के पूर्व प्रकृत में उपयोगी कतिपय आवश्यक सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर देना आवश्यक प्रतीत होता है । (अ) आत्मा व्याप्यव्यापक भाव से तन्मयताका प्रसंग आनेके कारण पर द्रव्योंको पर्यायोंका कर्ता नहीं है । ( आ ) सामान्य आत्मा निमित्त नैमित्तिकभावसे परद्रव्यों की पर्यायोंका कर्ता नहीं है। अन्यथा नित्य निमित्त कर्तृत्वका प्रसंग आता है । (इ) अज्ञानी जीवके योग और उपयोग ( रागभाव ) पर द्रव्यों की पर्यायोंके निमित्तकर्ता हैं । (ई) आत्मा अज्ञानभावसे योग और उपयोगका कर्ता है। तथापि पर हयोंको पर्यायोंका कर्ता कदाचित् भी नहीं है । ( उ ) आत्मा शानभावसे परद्रव्योंकी पर्यायोंका निमित्तकर्ता भी नहीं है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा ये मल सिद्धान्त हैं जिनका श्री समयसारजोको ६६ और १०० नं. की गाथा और उनकी टोकाम स्पष्टीकरण किया है। इसलिये प्रतिकारूपसे उपस्थित किये गये पूर्वोक्त प्रश्नोंपर विचार करते समय इन सिद्धान्तोंको ध्यानमें लेनेको अत्यन्त आवश्यकता है। साथ ही यह नियम भी है कि अरिहन्त जिनकी दिव्यध्वनि के समय ओछ, तालु मादिका व्यापार भी नहीं होता । कहा भी है यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न सन्दितोडोदयं नो चांछाकलितं न दोषमलिनं नोच्यासरुद्ध क्रमम् । शान्त्यमर्ष विर्भः समं पशुमणैराकर्णितं कपिभिः सकाः सर्वविदो विनष्टविपदः पायादपूर्व यचः ।। इस श्लोकम आये हुये 'न वर्णसहिसं न स्पन्दितोष्ठोदयं' ये दोनों पद ध्यान देने योग्य है । इनका तात्पर्य यह है कि दिव्यध्वनि अ, आ आदि स्वरत्रणी तथा क, ख आदि व्यंजनवाँसे रहित होती है। दिव्यध्यनिके समय ओठ आदिका व्यापार भी नहीं होता। इसके साथ एक बात और है और वह यह कि उनकी औदगिकी क्रियाको प्रवचनसारजी में क्षायिकी बतलाया है। स्पष्टीकरण करते हुए प्रवचनसार गाथा ४५ में कहा है पुण्णफला अरहंता तेसिं क्रिरिया पुणो हि ओदया। मोहादीहिं विरहिया तम्हा सा खाइग त्ति मदा ॥३॥ अरहन्त भगवान पुण्यफलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, मोहादिसे रहित है, इसलिये वह क्षायिकी मानो गई है 11४५॥ __ अहन्तः खलु सकलसत्यपरिपक्वपुण्यकल्पपादपफला एव भवन्ति । क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तबुदयानुभावसंभाषितारमसंमृतिया किलोदयिस्येव । अथैव भूतापि सा समस्तमहामोहमूर्धामिषिकस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये संमतत्वान्मोहरागडेषरूपाणामुपरजंगकानामभावाच्चंतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूनतया कार्यमतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अयानुमन्येत चेत्तर्हि कर्मविपाकोऽपि न तेषां स्वभावविघाताय ॥४५॥ ___अर्थ--प्ररहन्त भगवान् जिनके बास्तवमें पृण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भलीभांति परिपश्व हुए हैं ऐसे ही हैं और उनकी जो भी क्रिया है वह सब उस (पुण्य) के उदयके प्रभावसे उत्पन्न होने के कारण ओदायिकी ही है। किन्तु ऐसी होने पर भी वह सदा औदविकी क्रिया महामोह गजाको समस्त सेनाके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होती है, इसलिये मोह, राग, द्वेषरूपी उभरंजकोंका अभाव होनेसे चैतन्यके विकारका कारण नहीं होती, इसलिये कार्यभत बन्धको अकारभूततासे और कार्यभूत मोक्षकी कारणमततासे क्षायिको ही क्यों न माननी चाहिये ? (अवश्य माननी चाहिये ।) और जब क्षायिको हो माने तब कर्मविपाक (कर्मोदय) भी उनके (अरहन्तों के) स्वभाव विघातका कारण नहीं होता । (यह निश्चित होता है) ॥४५॥ इस प्रकार इन प्रमाणोंके प्रकाशमै ज्ञानोके ज्ञान-भावको दृष्टिसे विचार करनेपर विदित होता है कि झानो मात्र ज्ञानभावका कर्ता है, वह परभावका निमित्तकर्ता भी नहीं है । श्री समयसारकलशमें कहा है ज्ञानिनो ज्ञाननिवृताः सर्वे भावाः भवन्ति हिं। सर्वेऽप्यज्ञाननिवृत्ता भवन्स्यज्ञानिनस्तु ते ॥६॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संका ८ और उसका समाधान अर्थ-ज्ञानी के समस्त भाव ज्ञानसे रचित होते है और अज्ञानीफे समस्त भाव अज्ञानसे रचित होते हैं ॥७॥ स्पष्ट है कि अग्निहन्त भट्रारक केवली जिनके केवलज्ञानकी दृष्टिसे विचार करने पर तो मही विदित होता है कि केवलज्ञान में जिस प्रकार अन्य अनन्त पदार्थ शेयरूपसे प्रतिविम्बित होते हैं उसी प्रकार दिव्यध्वनिरूपरो परिणत होनेवाली भाषावर्गणाएं भी प्रतिबिम्बित होती है। इसलिये केवलज्ञान की विष्यध्वनिके प्रवर्तन में वही स्थिति रहती है जो अन्य पदार्थों के परिणमनमें रहती है अर्थात् केवलोका उपयोग दिपध्वनिके प्रवर्तन के लिये उपयुक्त होता हो ऐसा नहीं है। इसी प्रकार दिव्यध्वनिके लिये शरीरकी क्रिया द्वारा वाचनिक प्रवृत्ति होना भी सम्भव नहीं है। फिर भी दिव्यध्वनिका प्रवतन तो होता ही है और अरिहन्त मदारकै तीर्थकरप्रकृति के उदयके साथ वार अघाति कौका उदय तथा योगप्रवृत्ति भो पाई जाती है । अत: इस दुष्टिसे विचार करने पर यही मिति होता है कि (१२) केवली जिनके साथ दिव्यध्वनिका योग अपेक्षासे निमित्त-मैमित्तिक सम्बन्ध है ऐसा प्रवचनसार गाथा ४५ की टीकाम लिखा है। (३) केवली और दिव्यध्वनि भिन्न-भिन्न चेतन और जड़ द्रव्य है, इलिये उनका जो व्यवहारसे निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध दिखलाया गया है यह उपचरित । (४) केवलोके सत्य और अनुभय ये दो वचनयोग होते हैं इसी प्रकार दिव्यध्वनि भी सत्य और अनुभयरूप होती है, क्योंकि उसके द्वारा सत्यार्थ और अनुभयरूप अर्थका प्रकाशन होता है। (५) दिमध्वनिकी प्रामाणिकता और स्वाश्रितताको ठीक तरहसे जाननेके लिये जयधवला पुस्तक का यह प्रमाण पर्याप्त है । वहाँ कहा है शब्दो अर्थस्य निःसम्बन्धस्य कथं वाचक इति चेत् ? प्रमाणमर्थस्य निःसम्बन्धस्य कथं ग्राहकमिति समानमेतन् । प्रमाणाययोजन्य-जनकलक्षणः प्रतिबन्धोऽस्तीति चेत् न, वस्तुसामर्थस्यन्यतः समुत्पतिविरोधात् । अनोपयोगी श्लोक :-- स्वत: सर्वप्रमाणानां प्रमाणमिति गृह्यताम् । न हि स्वतोऽससी शक्तिः कतु मन्येन पार्यते ॥१२॥ प्रमाणार्थयोः स्वभावत एवं प्रासमाहकभावश्चेत् , तर्हि शब्दार्थयोः स्वमावत एष वाच्यवाचकभावः किमिन्त्रि नेप्यते, अविशेषात् ? अदि स्वभावतो वाच्यवाचकभावः फिमिति पुरुषव्यापारमपेक्षते चेत ? प्रमाणेन स्वभावतोऽथसम्बन्धेन किमिसीन्द्रियमालोको वा अपेक्ष्यत इतिसमानमतत् । शब्दार्थसम्बन्धः कृत्रिमत्वादा पुरुषव्यापारमपेक्षते । -जयधवला पु० ६,०२३९ । शांका-शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है तो वह अर्थका वाचक कैसे हो सकता है ? समाधान-प्रमाणका अर्था के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है तो वह अर्शका ग्राहक कैसे हो सकता है यह भो समान है । अर्थात प्रमाण और अर्थका कोई सम्बन्ध न होने पर भी जैसे वह अर्थका ग्रहण कर लेता है वैसे ही शब्दका अर्भके साथ कोई सम्बन्ध रहनेपर भो शब्द अर्थका वाचक हो जाय, इसमें क्या आपत्ति है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा शंका-प्रमाण और अर्थमें जन्य-जमकलक्षण सम्बन्ध पाया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि वस्तुकी शक्तिकी अन्यसे उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। यहाँ इस विषयमें उपयोगी श्लोक देते है राब प्रमाणों में स्वतः प्रमाणता स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि जो शक्ति पदार्थमें स्वत: विद्यमान नहीं है वह अन्य के द्वारा नहीं की जा सकती है ॥९२।। यदि प्रमाण और अर्थ में स्वभावसे ही ग्रााग्राहकभावसम्बन्ध स्वीकार किया जाता है तो शब्द और अर्थ स्वभावसे ही वाचन-वाचकभावसम्बन्ध क्यों नहीं मान लिया जाता है, क्योंकि जो आक्षेप और समाधान शब्द और अर्थक सम्बन्धके विषय में किये जाते हैं वे सब प्रमाण और अर्थके सम्बन्धके विषयमें भी लागू होते है, दोनामें कोई विशेषता नहीं है । का-शब्द और अधों यदि स्वभावसे ही वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध है तो फिर वह पुरुषव्यापारकी अपेक्षा क्यों करता है? समाधान-प्रमाण यदि स्वभावसे ही अर्थसे सम्बद्ध है तो फिर वह इन्द्रिय-व्यापार या आलोककी अपेक्षा क्यों करता है? इस प्रकार शब्द और प्रमाण दोनों में शंका और समाधान समान है। फिर भी पदि प्रमाणको स्वभावसे ही पदार्थाका ग्रहण करनेवाला माना जाता है तो शब्दको भी स्वभावसे ही अर्थका वाचक मानना चाहिये । अथवा शब्द प्रोर पदाथका सम्बन्ध कृत्रिग है, इसलिये बह पृरुषके व्यापारको अपेक्षा रखता है-- इस प्रकार जयधवलाके इस उल्लेखसे निश्चित होता है कि वास्तवमें दिव्यध्वनिको प्रमाणता स्वाचित है, क्योंकि यदि उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित नहीं मानी जाती है तो वह अन्वसे उत्पन्न नहीं की जा सकती। फिर भी असद्भल व्यवहारनयको अपेक्षा विचार करने पर जैसा कि हम पूर्व में लिन आये है वह तीर्थकर आदि प्रकृतियोंके उदयके निमित्तसे होने से पराश्रित भी कही गई है। यहां पर तीर्थकर प्रकृति के साथ आदि पदका उहलेख अन्य केलियोंको लक्ष्यमें रखकर किया गया है। तथा योगको अपेक्षा सर्वज्ञदेवकी भी उसमें निमित्तता है। श्री अमृतचन्द्रसूरिने समयसारके अन्तमें शब्दागमके स्वरूपको बतानेवाले जो वचन लिखे है उसमें केवल अपनी लधुता ही नहीं दिखलाई है, किन्तु शब्दको स्वाचित प्रमाणताको मुख्यकर ही वह वचन लिखा गया है। जैसा कि जयघवलाके पूर्वोक्त प्रमाणसे स्पष्ट है। इसी प्रकार “आरोपज्ञ' 'आतषचनादिनिबन्धन' 'आप्ते वक्तरि' 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक' शब्दोंका प्रयोग पूर्वाक्त अभिप्रायसे ही किया गया है। इसी प्रकार समयसार गाथा ४१५की टीकामें शब्दब्रह्मकी स्वतःप्रमाणता एक सिद्धान्तके रूपमं प्रतिपादित है, न कि लधुताप्रकारानके रुपमे । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय दौर : 3: शंका ८ दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केबलीकी आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं ? यदि है तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भगवान्की आत्मा के सम्बन्धसे ? प्रतिशंका ३ इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमे आपने दिव्यध्वनिकी उत्पत्तिके विषय में बहुत कुछ विवेचन किया जबकि दिव्यष्यनिकी उत्पत्ति सम्बन्ध में प्रश्न नहीं था। उसके पश्चात् दिव्यध्वनिकी स्वाति प्रामाणिकता बतला कर अपना उत्तर समाप्त कर दिया । दिव्यध्वनिका केवलज्ञान या केवलीकी आत्मा सम्बन्धविषयक प्रश्नको आपने छुआ तक नहीं | चुनाचें हमने अपने प्रत्युत्तर में मूल प्रश्नके निम्न पाँच खण्ड करके आपसे पुनः उन प्रथम तीन खण्डोंके उत्तर देने को जोर दिया जिनको बापने अपने प्रथम उत्तर में ओझल कर दिया था और दिनि जड़ होने के कारण उसको स्वाश्रित प्रामाणिकताका मण्डन करते हुए वार्षग्रन्थोंके प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया था कि दिव्यध्वनिके वक्ता केवलज्ञानी हैं और वक्ताको प्रमाणताचे वचनोंको प्रमाणता होती है तथा दिव्यध्वनि केवलज्ञानका कार्य है । मूल प्रश्नके खण्ड १ - दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलोकी आत्मारी कोई सम्बन्ध है या नहीं ? २- दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवली आत्मा के साथ कौन सम्बन्ध है ? ३ - (दव्यवनिका केवलज्ञान अथवा केवलोके साथ सम्बन्ध सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? ४ - दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक । ५- दिव्यध्वनि प्रामाणिक है तो उसको प्रामाणिकता स्वाधित है या केवली भगवानकी आत्माके सम्बन्धसे ? आपने अपने द्वितीय उत्तरमें भी प्रश्नके प्रथम तीन खण्डों का जो उत्तर दिया है उसमें केवली जिन और दिव्यध्वनि के सम्बन्धको गोलमाल शब्दों में बतलाने का तो प्रयत्न किया गया है, किन्तु केवलज्ञान व केवलोकी आत्माका दिव्यध्वनिसे वथा सम्बन्ध इस विषय में एक भी शब्द नहीं लिखा। इससे ज्ञात होता है कि आप प्रश्न के प्रथम तीन खण्डों का उत्तर देना नहीं चाहते, क्योंकि इनका यथार्थ उत्तर देने में आपकी मान्यता स्खण्डिस हो जाती है। आपने हमारे इन आर्पग्रन्थोंके प्रमाणों में से कुछ प्रमाणों को तो सर्वथा मोशल कर दिया। हमने नाना आग्रन्थोंके प्रमाण देकर यह सिद्ध किया था कि दिव्यध्वनिको प्रमाणता वक्ताको प्रमाणतासे है और केवलज्ञानका कार्य है, अतः दिव्यध्वनिमें पराश्रित प्रमाणता है। मात्र चार प्रमाणोंके Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जयपुर (स्वानिया ) तत्त्वचर्चा एक दो शब्दोंको लिखकर मात्र यह लिखा है--'इसी प्रकार 'आप्तीपज्ञ' 'आप्तवचनादिनिबंधन' 'आले वरि' युनिशास्त्राधिरोधवाक'का प्रयोग पूर्वोक्त प्रकारसे ही किया गया है। इन चार प्रमाणोंका इन गोलमाल पाउदा द्वारा मात्र उल्लेख किया गया है, उत्तर कुछ नहीं दिया गया। इस प्रकार प्रश्नके खण्ड नं०४ व ५ के विषय में भी हमारे प्रमाणोंका उत्तर न देकर अपनी पूर्व मान्यताको हो पकड़े रहे। प्रथम उत्तरमें आपने लिखा था 'दी मा दोसे अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें जो सम्बन्ध होता है वह असन्द्रत हो होता है ।' हमने पूछा था कि 'असद्भत' से आफ्ना क्या आपाय है ? किन्तु आपने इस विषयमें एक अक्षर भी नहीं लिखा। आपने अपने द्वितीय उत्तरमें आगमविरुद्ध तथा अपनी मान्यताके घिद्ध दो द्रव्यों तथा उनकी पर्यायोंमें परस्पर कन्किर्मके कुछ सिद्धान्त लिख दिये हैं जो कि प्रासंगिक है, क्योंकि कर्ता-कर्मसम्बन्धी मल प्रश्न ही नहीं है। आपने प्रश्न नं.१ के प्रथम उत्तरमें यद्यपि निमित्तकर्ताको स्वीकार करनेसे इन्कार कर दिया, किन्तु द्वितीय उत्तरमें हेतुकर्ता अर्थात निमितकर्ताको स्वीकार कर लिया है। सर्वार्थसिद्धि अन्यके आधारपर कालद्रव्यको भी हेतुकर्ता स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, आपने प्रथम तथा द्वितीय उत्तरमें निम्न शब्दोंके द्वारा जीवको जड़ द्रव्यका कर्ता स्वीकार कर लिया है। फिर भी आप इस प्रश्न के उत्तरमें हेतुकर्ताको स्वीकार नहीं कर रहे हैं। इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें आपने लिखा है....इसकी टीवा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है । 'आचार्य श्री अमृतचन्द्र जो समयसार गाया ४१५ को टोकामें कहते हैं इस वाक्यने कर्ता तो आचार्य अमृतचन्द्र है जो चेतन पदार्थ और कर्म बहरूप वाक्य है जो कि उनके द्वारा लिखे गये है और जिनको आपने प्रमाणस्वरूप उद्धृत किया । आपने जो यह लिखा है---'आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं या कहते हैं' मात्र इसलिये लिखा है कि आपके द्वारा उद्धृत किये गये वाक्योंम श्री अमृतचन्द्र आचार्यको प्रमाणतासे प्रमाणता आ जावे, अन्यथा आपको इन पदोंके लिखनको कोई आवश्यकता न थी। इसी प्रकार आपने द्वितीय उत्सरमें निम्न पदोंका प्रयोग किया है-'आचार्यवर्य कुन्दुकुन्द और अमृतचन्द्रमूरिके आगमप्रमाण देकर मीमांसा की गई थी। उसका अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रने स्वाभाविक किया है । आचार्य कुन्दकुन्दने तो स्त्रियोंको मायाके समान बतलाया है। साथ ही अमृतचन्द्रसूरिने अपनी टीका मेंघका दृष्टान्त देकर यहाँ स्वाभाविक पदका क्या अर्थ है. यह और गो स्पष्ट कर दिया है। प्रयत्नके बिना ही उनके धर्मोपदेश आदिकी क्रिया होती है। कहा भी है।' 'श्री अमतचन्द्रसूरिने समयसारके अन्त में शब्दागमके स्वरूपको बतानेवाले जो बचन लिखे है। इन सब वाक्योंमें शब्द पद वाक्य जड़रूप पदार्थोका कर्ता चेतनद्रव्य आचार्य महाराज है। इस प्रकार चेतनद्रव्य और जड़ पदार्थम कर्ता-कर्मसम्बन्ध आपके वचनों ही द्वारा सिद्ध हो जाता है। श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने समयसारकी प्रथम गाथा 'वोच्छामि समयपाहतुमिणमो सयकवली-भगिपर्य' इन वाक्यों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि इस समषाभूतके मूल का अर्थात् कहनेवाले श्री फेवली तथा अत-केवली है और उत्तर प्रन्यकर्ता मैं (कुन्दकुन्द आचार्य) हूँ। गाथा ५ में 'दाएहं अप्पणी सविहवेण' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया गया है कि 'भात्माके विभव द्वारा दिखलाता हूँ।' श्री अमृतचन्द्राचार्यने 'आत्मविमब' पदका इस प्रकार विवेचन किया है-'इस लोफर्म प्रगट समस्त बस्सुश्रीको प्रकाश करनेवाला और स्यात्पदसे चिहिस जो शब्दमा (अरहंतका परमागम) उसकी उपासना करि जिस विभवका जन्म हुआ है । समस्त विपश्न (अन्यवादियोंकर ग्रहण की गई सर्वथा एकान्तरूप नयपक्ष) उनके निराकरणमें समर्थ जो अतिनिस्तुष निर्वाधयुक्ति उसके अवलंबनसे जिस विभत्रका अगम है, निर्मल विज्ञान जो भारमा उसमें अन्तर्निमग्न परम गुरु सर्वज्ञदेव अपर गुरु मणधरादिकसे लेकर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणी शंका ८ और उसका समाधान हमारे गुरुपर्यन्त उनकर प्रसादरूपसे दिया गया जो शुद्धात्मतत्वका अनुग्रहपूर्वक उपदेश तथा पूर्वाचार्योके अनुसार उपदेश उससे जिस विभवका जन्म है, निरन्तर क्षरता आस्वादमें भाया और सुन्दर जो भानन्द उससे मिला हुभा जो प्रचुरसंवेदनस्वरूप स्वसंवेदन उस कर जिसका जन्म है ऐसा जिस तिस प्रकारसे मेरे शानका विभव है उस समस्त विभवसे दिखलाता हूँ । इस प्रकार के जानके द्वारा श्री कुन्दकुन्द भगवानने इस समयसार ग्रन्धकी रचना की है, इसीलिये वह समयसार ग्रन्थ पाब्दब्रह्म है, इसीलिये यह समयसार ग्रन्थ प्रामाणिक है। अक्षरों, शब्दों या वाक्योंके स्वयं मिल जानेसे यदि इस ग्रन्थको रचना हई होती तो या मात्र काययोगसे (जो कि विचारो पर्याय है) ज्ञान बिना इस समयसार ग्रन्थको रचना हुई होती तो यह ग्रन्थ प्रमाणकोटिको प्राप्त न होता, इसीलिये अर्थात प्रत्यको प्रमाणता सिद्ध करने के लिये श्री अमृतचन्द्राचायने टोकामें स्पष्ट कर दिया कि इस ग्रन्थको रचना श्री कुन्दकुन्द भगवान् ने अपने ज्ञान के द्वारा को है। श्री कुन्दकुन्द भगवान ने भी प्रथम गाथा में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं अपनी तरफसे कुछ नहीं कहता । किन्तु में भी वह हो कहूँगा जो केवली या खुलवेवलीने कहा है। इसी प्रकार गाथा ४१,४६, ५० आदि गाथाओं में भी जिणा विति, बांग्णदो जिणव खल सम्बदरसीहि' इत्यादि पदोंके द्वारा यह बतलाया गया है कि वह जो कुछ भी मैं (कुन्दकुन्द आचार्य ) कह रहा हूँ वह जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इसी प्रकार प्रवचनसार गाथा ४२, ८६,८७, ८८, आदि तथा अन्य ग्रन्थोंमें भी कहा है। फिर इस कथनके विरुद्ध अर्थात श्री कुन्दकुन्द आचादके ( मैं समग्रसारको कहता हूँ। कंवल श्रुतकेवली ने कहा है, जिनेन्द्र ने कहा है।) इन घाश्यों के विरुद्ध तथा अपने (प्रथम गाथाको टीका में 'परि. भाषण करूगा' तथा गाधा पांवको टीकाम 'ज्ञानविभवसे दिखलाता है।) इन वाक्यों के विरुद्ध टोकाक अन्त में यह कैसे लिखते कि इस ग्रन्थ या रीकाको स्वयं रचना हो गई। समयसार गाथा ४११ को टोकामें इस समयसारकी महिमा बतलाने के लिये तथा पदार्थ और शब्दका वाच्य-वाचकसम्बन्ध दिखलाने के लिये यह लिखा है-'कैसा यह शास्त्र ? समयसारभूत भगवान् परमात्माके प्रकाशनेवाला होनेसे जिसको विश्व-समय कहते हैं उसके प्रकाशसे आप स्वयं शब्दया सरीखा है।' -समयसार रायचन्द ग्रंथमाला पृ०५४१ । कलश २७८ में मात्र अपनी निरभिमानता दिखलाने के लिये यह कहा है कि 'इस टीकामें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है।' श्री पं० जयचन्दजीने भी इस कलश २१८ के भावार्थ में कहा-'ऐसा कहनेसे उद्घृतपनेका त्याग पाता है। इन सब उल्लेखोंको देखते हए हम इरा निवर्ष पर पहुँचे है जब हम जैन सिद्धान्तसम्मत पद और वाक्यके लक्षणोंको देखते हैं तो पुरुषप्रयत्नके बिना वे बनते ही नहीं है तब अमृतवन्द सूरि महाराजके गम्भीर और सुललित पद वापय भी उनके ज्ञान प्रकर्षके बिना कैसे बन सकते हैं जिनसे कि परम ब्रह्म-तत्व प्रतिपादक इस अध्यात्मशास्त्रकी रचना हुई है। अत: उनका वह उल्लेख मात्र अपना लाघव बतलाने के लिये है। भी अमृतचन्द्र आचार्य स्वयं कलश ३ में कहते हैं कि जो इस समयसारकी व्याख्या ( कथनी ) से मेरी अनुभूति-अनुभवनरूप परिणति उसकी परम विशुद्धि समस्त रागादि विभाव परिणति रहित उस्कृष्ट निर्मलता हो। यह मेरी परिणति ऐसी है कि परपरिणतिका कारण जो मोह नाम कर्म उसका अनुभाव उदयरूप विपाक उससे जो अनुभाव्य-रागादिक परिणामों की व्याप्त है उस कर निरंतर करूमाषित मैली Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा है। और मैं ऐसा कि इन्यदृष्टिकर तो मैं शुद्ध चैतन्यमान मूर्ति हूँ। --समयसार रायबन्द ग्रन्थमालो पू०४-५ । दिव्यध्वनिकी स्वाचित प्रमाण ताके लिये ओ जयश्वल पु०१ पू०२३९ के वाक्य उद्धृत किये गये हैं उनमें तो दिव्यध्वनि या केवलीका नाममात्रको भी कयन नहीं है। उसमें तो मात्र प्रमाण और पदार्थका जेयशायकसम्बन्ध तथा शब्द और पदार्थोम वाच्य-वाचकसंबंध दिखलाया गया है । इसके साथ यह स्पष्ट कर दिया है कि 'शब्द और पदार्थको अर्थप्रतिपादकता कृत्रिम है, इसलिये वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखती है । अर्थात शब्द ऐसा नहीं कहते कि हमारा यह अर्थ है या नहीं है, किन्तु पुरुषोंके द्वारा ही शब्दोंका अर्थ संकेत किया जाता है। इसीलिये लौकिक या आगम शब्दोंकी सहज योग्यता पुरुषों द्वारा राकनके आघोन ही पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिये, बिना संकेतके शब्द पदार्थका प्रतिपादक नहीं होता । -प्रमेयकमलमार्तण्ड पु० ४३१ । व्याख्याताके बिना वैद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नहीं है, इसलिए उसका बाच्यवाचकभाव व्याख्याताके आधीन है। -धवल पु. १ पृ० १६६ । जब शब्दों के द्वारा पदार्थीको प्रकाशकता ही पुरुषव्यापारको अपेक्षा रखता है तो उनमें स्थाश्रित प्रामाणिकता कैसे हो सकतो है, अर्थात् शब्दोंमें स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं है । इस प्रकार आपका दिश्यध्वनि आश्रित प्रमाण कहना आगमविरुद्ध है। उसमें केवलज्ञानको प्रमाणतासे ही प्रमाणता आई है. क्योंकि वक्ताको प्रमाणतासे वचनों में प्रमाणता आती है ऐसा न्याय है। -धबल पु० १ पृ. १६६, जयघवल पु. १ पृ०८८ । असत्य पचन वो कारणोंसे बोला जाता है। प्रथम तो राग द्वेषके कारण असत्य बोला जाता है, क्योंकि जिससे राग है उसको लाभ पहुंचाने के कारण असत्य भाषण हो सकता है। अथवा जिससे द्वेष है उराको हानि पहुंचानके लिये असत्य वचनोंका प्रयोग होता है। दूसरे अज्ञानताके वश असत्य वचन बोला जा राबता है, किन्तु केवली भगवान्के ये दोनों कारण नहीं है, अतः उनफे दिव्यध्वनिरूप वचन प्रमाण है । वहा भी है रागाद् वा द्वेषाद् वा मोहाद् वा पाक्यमुच्यते अनृतम् । यस्य तु नैते दौपास्तस्यानृतकारण नास्ति ॥ आगमो ह्यातवचनमाप्तो दोषक्षयं विदः । स्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न व्रया हेत्वसम्भवात् ॥ -धवल पु.३ पृ. १२ वर्ष--राग, द्वेष अथवा मोहसे असत्व वचन बोला जाता है, परन्तु जिसके से रागादि दोष नहीं रहते उसके असत्य वचन बोलनका कोई कारण भी नहीं पाया जाता । आप्सयचनोंको मागम जानना चाहिये । जिसने जन्म-जरादि अठारह दोषोंका नाश कर दिया है उछे आप्त जानना चाहिये । इस प्रकार जो व्यक्त दोष होता है वह असत्य वचन नहीं बोलता है, क्योंकि उसके असत्य वचन बोलनेका कोई कारण ही संभव नहीं। रामादिका अभाव भी भगवान महावीरमें असत्य भाषणके अभावको प्रकट करता है, क्योंकि मारणके अभाव में कार्यके अस्तित्वका विरोष है। और असत्य भाषणका अभाव भो बागमकी प्रमाणताका सापक है। -धवलं पु. ६५१०८। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोज पका जो शंका और उसका समाधान ५.३१ कहलाता है। यकी प्रमाणताको बतलाने के लिये कर्ताको है प्ररूपणा की जाती है। पु० १० १२७ ॥ दिव्यध्वनि में मात्र योग ही कारण नहीं है, किन्तु केवलज्ञान भी निमितकारण है। इसीलिये दिव्यपि वचन केवलज्ञानका कार्य है 'तस्य ज्ञानावा ०१०२६८ केवलज्ञानके निमित्तसे उत्पन्न हुए पद और वास्य प्रमाण है। प्रधवल ० १ ० ४४ श्री वर्द्धमान भट्टारक द्वारा उपदिष्ट होते द्रव्यमागम ( दिव्यध्वनि ) प्रमाण है। जयधवल पु० १ ०७२ व ८३ । जिनेन्द्र भगवान् मुखसे निकला हुआ वचन अप्रमाण नहीं हो सकता :-०११०३४० ॥ जिनेन्द्रदेव अन्यवादी नहीं होते । -जयषवल पु० ७ पृ० १२७ । असत्य बोलने के कारणोंसे रहित जिनेन्द्रके मुखकमलसे निकले हुए ये वचन है, इसलिये इन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता धवल पु० २५० २६ । सम जिसने सम्पूर्ण भावकर्म और पालिया द्रव्यकर्म को दूरकर देने वस्तुविषयक शानको प्राप्त कर लिया है वही आगमका व्याख्याता हो सकता है। धवल पृ० १ १० १६६ । जो पूर्व हुआ है, प्रायः अतीन्द्रिय पदार्थको विषय करनेवाला है, अविस्वभाव और युक्तिविषयपरे है उसका नाम नागम है ६ ० १५१ । 'सर्व-वचनं तावदागमः सर्वज्ञके वचन आगम समयसार गाथा ४४ टीका समणमुसाद चतुमादिनिवारणं सगाणं । सो पथमच सिरसा समयमियं सुणह बोच्छमि ॥२॥ पंचास्तिकाय अर्थ यह में कुन्दुकुन्द आचार्य इस पंचात्किायरूपसारको कहूँगा इसको तुम सुनो अम कहिये सर्वजवीतरागदेव के मुख से उत्पन्न हुए पदार्थसमूह सहित वचन तिनको मस्तक से प्रणाम करके का क्योंकि सर्वज्ञके वचन ही प्रमाणभत है। इस कारण इनके ही आगमको नमस्कार करना योग्य है। और इनका ही कथन योग्य है । वह आगम चार गठियोंका निवारण करनेवाला है तथा मोक्षफल करि सहित है। सुतं जिगोवदिहं पोमागे वयहिं । - - प्रवचनसार गाथा २४ अर्थ — पुद्गलद्रव्यस्वरूप वचनोंसे जो जिन भगवान्का उपदेश किया हुआ है वह द्रव्यभुत है । जो आत्मा क्षुधा तृषा आदि अठारह दोष रहित है यह ही आप्त कहलाता तथा उसी के वचन प्रमाण है। नायकाचार याचा ८०९ । साक्षात् विश्वतस्वाता बिना साक्षात् निर्वाध मोक्षमार्गका प्रणयन नहीं बन सकता परीक्षा के ५० २६१ आतवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ३,९४॥ - परीक्षामुख अर्थ- आप्तके वचन आदिसे होनेवाले बर्थज्ञानको आगम कहते हैं । ताकी प्रमाणता वचनमें प्रमागता आती है। इस व्यागके अनुसार अप्रमायभूत पुरुषोंके द्वारा व्यान किया गया आगम अप्रमाणताको कैसे प्राप्त नहीं होगा ? अवश्य प्राप्त होगा ० १ १० १९६ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जयपुर ( खानिया) तत्त्ववर्धा यदि मात्र योगको ही वचनोंको प्रामाणिकताका कारण माना जाये तो रागी द्वेषी पुरुष वानोंको भी प्रमाणताका प्रसंग आजावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं। रागद्वेषमोहाक्रान्सपुरुषवयनाज्जातमागमाभासम् । ६,५१ -परीक्षामुख अर्ध-शगो वषो और अज्ञानी मनुष्यके वचनोंसे उत्पन्न हुए बागमको बागमाभाम कहते है। इस प्रकार इन आगमनमानस हो जाता किमतरज्ञदेवकी दिव्यध्वनिमें प्रामाणिकता केवलज्ञानके निमित्तसे ही है, क्योंकि उनका केवलज्ञान प्रमाण है। समयसार माथा ६६ और १००का जो तात्पर्य आपने लिखा वह ठीक नहीं है। गाथा ९९ तो च्याप्य-व्यापक अपेक्षा कर्ता-कर्मका कथन करती है। माथा नं.१०. की टोकामें पं. जयचन्दजीने लिखा है-यहाँ तात्पर्य ऐसा है कि व्यष्टि कर तो कोई तथ्य अन्य किसी व्यका का नहीं है. परन्तु दृष्टिकरि किसी वग्यका पर्याय किसी अन्य वन्यको निमित्त होता है। इस अपेक्षाले अन्यके परिणाम अन्यके परिणामके निमिसकर्ता कहे जाते हैं । परन्तु परमार्थसे वन्य अपने परिणामका कर्ता है, अन्यके परिणामका अन्य दुव्य कर्ता नहीं है ऐसा जामना ॥१०॥ आपके पांच निष्कर्ष अनुसार तो यह चर्चा हो नहीं चल सकती, क्योंकि जो प्रश्न-प्रतिप्रश्न व उत्तर प्रत्युत्तर आदि लिखित रूपसे चल रहे है परमार्थसे तो उनका कर्ता पुद्गल द्रव्य है। आपके निष्कर्षके अनुसार व्याप्य-व्यापकभावसे तन्मयताका प्रसंग आनेके कारण कोई भी आत्मा इभ लिखित प्रश्नों-उत्तरी तथा प्रतिप्रश्नों-प्रत्युत्तरों आविका का नहीं है। आपके निष्कर्षके अनुसार सामान्य आत्मा भी निमित्त-नमितिकभावसे इन प्रश्नोत्तरों प्रतिप्रश्न-प्रत्युत्तररूप पुद्गल द्रव्यपर्यायोंका कर्ता नहीं है, अन्यथा नित्यकर्तृत्वका प्रसंग आ जायेगा। आपके निष्कर्षके अनसार अज्ञानी जीवके योग और उपयोग पर द्रव्यों को पर्यायोंके निमित्त कर्ता है, किन्तु आप अपनेको अज्ञानी स्वीकार करनेको तैयार नहीं है, अत: आपके योग और उपयोग भी उत्तर-प्रतिउत्तररूप पुद्गल द्रव्यको पर्यायोंके निमित्तकर्ता भी नहीं है। आरके निष्कर्ष (ई) के अनुसार श्रात्मा अज्ञानमावसे योग और उपयोगका कर्ता है तथागि पर द्रव्योंकी पर्यायोंका कर्ता कदाचित् भी नहीं है। किन्तु आप अपने में अज्ञानभाव स्वीकार करने को तैयार नहीं है, इसलिये आप अपनो पर्यायस्वरूप योग और उपयोगके भी कम नहीं है। उत्तर प्रतिउत्तररूप पुद्गल पर द्रव्यको पर्यायोंके कर्ता तो कदाचित् भी नहीं है। आपके निष्कर्ष (उ) के अनुसार आत्मा अज्ञानभायसे परद्रव्योंकी पर्यायोंका निमित्तकर्ता नहीं है अर्थात् आप इन उत्तर प्रति उत्तर के निमित्तकर्ता भी नहीं है। आपकी उपयुक्त मान्यता अनुसार जब आपका इन उत्तर प्रतिउत्तरमे कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, गाय पुद्गलके साथ इन उत्तर-प्रत्युत्तरका सम्बन्ध रह गया तो इन उत्तर प्रत्युत्तर के आधार से आपके साथ चर्चा चल नहीं सकती, और पुगल जड़ है, उसके साथ चर्चाका कोई प्रसंग ही नहीं। इस प्रकार एक निमित्तकर्ताको स्वीकार न करनेसे सब विप्लव हो जायगा और कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी। प्रवचनसार गाथा ४४ व ४५ का जो आपने प्रमाण दिया है उगसे तो यह सिद्ध होता है कि अहंत भगवान के रागद्वेष मोहका अभाव हो गया, अतः उनको मितनो भी क्रिया है वे बिना इन्छाके है, कर्मबन्धको कारण नही और पूर्व कर्म उदयमे आकर ज्ञेयको प्राप्त हो जाते हैं। इसमें दिव्यध्वनिको प्रमाणता या अप्रमाणताका प्रसंग ही नहीं।। समयसार गाथा ६७ का भी कोई सम्बन्ध इस प्रश्नसे नहीं है। केवलज्ञान में पदार्य प्रतिबिम्बित नहीं होते, क्योंकि प्रतिबिम्ब या छाया पदगल द्रश्यको पर्याय है ( देखो प्रदम नं. पर हमारा दूसरा उत्तर ), केवलज्ञान पदार्थोको जानता अवश्य है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुगणार शंका ८ और उसका समाधान ५३३ जो श्लोक आपने उद्धृत किया है उसमें तो सर्वशके वचनोंको 'सरिमहिते, 'शाम्त्य, विमः सम सागितक PATHदा पाशगंविदा भपूर्व वा विशेषणों द्वारा स्तति की अर्थात् 'सर्व आत्माओंका हित करनेवाली, शान्तिरूप, पशुओं के कानोंके द्वारा सुने जाते हैं, जिससे विपद विनष्ट हो जाती है ऐसे सर्वज्ञ भगवान् के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करो। आगे आगने लिखा है कि 'सब प्रमाणों में स्वत: प्रमाणता स्वतः स्वीकार करनी चाहिये ।' किन्तु जिस श्लोकके आधार पर यह लिखा गया है वह लोक ज्ञानसे संबंधित है, क्योंकि यह लोक ज्ञान-ज्ञेयके प्रकरणमें आया है । इस श्लोकका दिग्यध्वनिसे कोई संबंध नहीं है। आपने लिखा है 'यदि दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता स्वाश्रित नहीं मानी जाती है तो वह अन्यसे उत्पन्न नहीं की जा सकती। यदि आप हमारे पूर्व उत्तर दिये गये 'वचनोंकी प्रमाणता वक्ताको प्रमाणतारी होती है, इस बार्ष वचनपर ध्यान देते तो आपको यह कठिनाई न पड़ती। आगे आप लिखते है कि 'असद त भ्यवहारनयकी अपेक्षा विचार करने पर वह तीर्थकर आदि प्रकृतियोंके उदयके निमित्तसे होनेसे दिव्यध्वनिको प्रामाणिकता पराश्रित भी है।' तीर्थकर आदि प्रकृतियों के उदयसे तो समवशरण गंघटिकी रचना होती है। किसी भी प्रकृतिके जदयसे तो औयिक भाव होगा या पर द्रव्यका रांयोग होगा, किन्तु प्रामाणिकता तो नहीं आ सकती । यदि कर्मोदयसे प्रामाणिकता होती हो तो सिद्धोंमें जहां किसी भी फर्मका उदय नहीं प्रामाणिकताके अभावका प्रसंग आजायेगा । सो आपका यह लिखना 'तीर्थकर आदि प्रकृतिने जदयसे दिव्यध्वनिमें प्रमाणता पराश्रिल है' ठीक नहीं है। आपने लिखा कि 'योगकी अपेक्षा दिव्यध्वनिको प्रामाणिकतामें सर्वजदेवकी भी निमित्तता है' सो यह सयुक्तिक प्रतिपादन नहीं है, क्योंकि पचनकी प्रामाणिकतामें ज्ञानको प्रकर्पता ही कारण मानी गई है। अन्यथा अज्ञानी मनुष्यके वचनों में भी प्रामाणिकताका प्रसंग आ जायगा, क्योंकि वाग्योग तो उसके भी विद्यमान है। फलत: जब आप योमके माध्यमसे सर्वज्ञदेवको निमित्त माननेके लिये तैयार हो गये है तब को ही दिव्यध्वनिको प्रामाणिकताका कारण स्वीकार करना आगम संगत है। सवधिसिद्धिमें पूज्यपाद स्वामीने श्रुतको प्रमाणताको मतलाते हुए वस्ताको हो कारण माना है यो वकार :-सर्वज्ञस्तीर्थकरः इतरो वा श्रुतकेनली आरातीयश्चेति । तत्र सर्वज्ञ न परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञान विभूतिविशेषेण अर्थत आगम उदिष्टः । तस्य प्रत्यक्षदर्शित्वात् प्रक्षोणदोषत्वाच्च प्रामाण्यम् । तस्य साक्षाच्छिष्यबुंधतिशयर्खियुक्तगणधरैः धुतकेवलिभिरनुस्मृप्तप्रन्धरचनामंगपूर्वलक्षणम् । तत्प्रमाणं तत्प्रामाण्यात् । आरातीयः पुनराचार्यः कालदोषापंक्षिायुमतिबलशिष्यानुग्रहार्थ दशवकालिकायुपनिबद्धम् । तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिप्ति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव । -सर्वार्थसिद्धि पं० फूलचन्द्रजी द्वारा संपादित संस्करण पृष्ट १२३ अर्थ-वक्ता तीन प्रकारके हैं-सर्वज्ञ तीर्थकर वा सामान्य केवली तथा श्रुत केबली और आरातीय । इनमेंसे परम ऋषि सर्वज्ञ उत्कृष्ट और अधिन्त्य केवलज्ञानरूपो विभूतिसे युक्त है। इस कारण उन्होंने अर्थरूपसे आगमका उपदेश दिया। ये सर्वज्ञ प्रत्यक्षदर्शी और दोषमुक्त है, इसलिये प्रमाण है। इनके साचात् शिष्य और बुद्धि के अतिशयरूप ऋद्धिसे युक्त गणधर श्रुतकेवलियोंने अर्थरूप आगमका स्मरणकर अंग और पूर्व प्रन्योंको रचना की। सर्वज्ञदेवकी प्रमाणतासे ये भी प्रमाण है। तथा आरातीय आवाोंने कालदोषसे जिनकी आयु, मति और बल घट गया है एसे शिष्योंका उपकार करके लिये दशवकालिक आदि ग्रन्थ रचे । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ जयपुर (खानिया ) तत्त्व चाचा जिस प्रकार क्षीरसागरका जल घटमें भर लिया जाता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ भी अर्थरूपसे थे ही हैं, इसलिये प्रमाण हैं । मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमी गणो । मङ्गलं कुन्दकुन्दाय जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ॥ शंका ८ मूल प्रश्न ८ - दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलीकी आत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं? यदि हैं तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक हैं तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भग बान्की आत्मा के सम्बन्धसे ? प्रतिशंका ३ का समाधान इस मूल प्रश्नका गम और आपको अनुसरण करनेवाली कि पिछले दो उत्तरों में सांगोपांग विचार कर आये हैं। साथ ही प्रतिशंका २ में निर्दिष्ट तथ्यों पर भी विस्तार के साथ प्रकाश डाल आये हैं | हमने अपने पिछले उत्तरोंमें मूल प्रश्नको लक्ष्य में रखकर जो कुछ लिखा है उसका सार यह है-(१) केवली जिनकी दिव्यध्वनि निश्चयसे स्वाश्रित प्रमाणरूप है, व्यवहार से पराश्रित प्रमाणरूप कही गई हूँ । (२) दिव्यध्वनि के प्रवर्तनमें वचनयोग तथा तीर्थंकर प्रकृतिके उदय आदि निमित्त हैं, इस अपेक्षासे केवली जिनके साथ भी दिव्यष्यनिका निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बन जाता है । ( ३ ) यतः दो द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंमें कर्ता-कर्मसम्बन्ध असद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षा ही घटित होता है, इसलिए वह परमार्थ सत्य न होकर व्यवहारसे सत्य माना गया है। उपचरित सत्य इसीका दूसरा नाम है । इस स्पष्टीकरणसे मूल प्रश्न के पांचों उपप्रश्नोंका समाधान हो जाता है। साथ ही आगममें कौन बचन किस नयको दृष्टि में रखकर लिखा गया है यह भी सम्यक् प्रकार ज्ञात हो जाता है। फिर भी अपर पक्ष पर द्रव्यकी किसी भी विवक्षित पर्याय में निमित्तको अपेक्षा किये गये कर्तृत्व व्यवहारको परमार्थभूत मानने के कारण न तो स्थाश्रित प्रमाणताको स्वीकार करता है, न निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धको उपचरित मान्ना चाहता है और न ही कार्यके प्रति उपाचनकी अन्तर्व्याप्ति के साथ निमितोंको बाह्य व्याप्ति के सुभेलको स्वीकार करना चाहता है । उस पक्षका यदि कोई आग्रह प्रतीत होता है तो एक मात्र यही कि जिस किसी प्रकार कार्य के प्रति निमित्तों में परमार्थभूत कर्तृत्व सिद्ध होना चाहिये। इसके लिए यदि आगमसम्मत उपादानके स्वरूप में फेरफार करना पड़े तो वह अपने तर्कोंके बल पर उसे भी करने के लिए तैयार है। इसमें वह आगमकी हानि नहीं मानता। यही कारण है कि उस पक्ष की ओरसे प्रतिशंका ३ में पुनः उन्हीं ५ प्रश्नोंको उपस्थित कर प्रतिशंका २ में निर्दिष्ट की पुष्टि करनेका प्रयत्न किया गया है। अतः हम प्रतिशंका २ और ३ को लक्ष्य में रहकर उन्हीं बातोंपर नये सिरेसे आगमप्रमाणके अनुसार प्रकाश डालने का पुनः प्रयत्न करेंगे। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शका ८ और उसका समाधान ५३५ १. केवली जिनके साथ दिव्यवनिका सम्बन्ध जब हम केबली भगवान् या केवलज्ञानके साथ दिव्यध्वनिका क्या सम्बन्ध है और वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ इस प्रश्न पर विचार करने लगते है तब हमें दिव्यध्वनिके उत्पत्ति पक्ष पर भी विचार करना आव. श्यक हो जाता है, क्योंकि दिव्यध्वनि पोद्गलिक भाषा वर्गणाओंकी व्यञ्जन पर्याय है, इसलिए उपादानकी दृष्टिश भाषा घर्गणाएँ हो दिव्यज्वनिरूप परिणमती है। इस प्रकार भाषावर्गणा और दिव्यध्वनि इन दोनों में उपादान-उपादेयसम्बन्ध है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धका विचार दिव्यम्वनिकी उत्पत्ति पक्षको लक्ष्य में रखकर ही किया जा सकता है। अपर पक्ष केवली भगवान् और केवलज्ञानके साथ दिव्यध्धानका क्या सम्बन्ध है यह प्रश्न तो उपस्थित करता है, किन्तु जब इस प्रश्नको ध्यान में रखकर सम्बन्धको स्पष्ट करने के अभिप्रायसै दिपध्वनिकी उत्पत्तिके ऊपर विचार किया गया तो वह अपनी मान्यताको कमजोर होता हआ देखकर उसे छिपाने के लिए प्रतिशंका ३ में लिखता है 'आपने अपने द्वितीय उत्तरमें आगमविरुद्ध तथा अपनी मान्यताके विरुद्ध दो द्रव्यों तथा उनकी पर्यायोंमें परस्पर कर्ता-कर्म के कुछ सिद्धान्त लिख दिये है, जो कि अप्रासंगिक है, क्योंकि कर्ता-कर्मसम्बन्धी मूल प्रश्न हो नहीं है।' इत्यादि। ऐसा लिखनेके पूर्व अपर पक्षने हमारे उत्तरको गोलमाल बतलाया है सो इमका विचार तो उसे स्वयं करना है कि हमारा उत्तर गोलमाल है या उसका ऐसा लिखना गोलमाल है। एक ओर तो वह 'शास्ता शास्ति सस्तो हितम्' इत्यादि प्रमाण उपस्थित कर जिनदेवका वाणी के साथ कर्ता-कर्मसम्बन्ध बतलानेका उपक्रम करता है और दूसरी ओर तथ्यरूपसे कर्ता-कर्मसम्बन्ध आदि पर प्रकाश डालने वाले तर्कसंगत प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं तो उसकी ओरसे यह कहा जाता है कि प्रकृतमें 'कर्ता-कर्मसम्बन्धी मूल प्रश्न ही नहीं है।' यदि यहाँ अपर पक्षका प्रश्न कर्ता-कर्मसम्बन्धी नहीं था और वह उक्त प्रश्न द्वारा कोई दुसरा सम्बन्ध जानना चाहता था तो उसे प्रतिशंका ३ में हमें लक्ष्य कर यह वाक्य नहीं लिखना चाहिए मा कि "फिर भी आप इस प्रश्न के उत्तरमें हेतुक को स्वीकार नहीं कर रहे हैं।' स्पष्ट है कि अपर पक्षके मनमें दिव्यध्वनि कर्म और भगवान् तोकिर हेतुकर्ता (प्रेरककर्ता ) यही भाव समाया हुआ है तथा प्रश्न भी इसी आशयसे किया गया होना चाहिए। साधारणत: हेतुकर्ता वाब्द भागममें ३ अर्थो में प्रयुक्त हुआ है (२) एक तो इतनाको कालका लक्षण बतलाकर सर्वार्थसिद्धि आदि आगमकालको हेतुकर्ता कहा है। यद्यपि काल उदासीन निमित्त है पर इस अर्थमें भी हेतुकर्ता शब्द का प्रयोग होता है यह इस प्रसंगमें स्पष्ट किया गया है। (२) दूसरे जो क्रियावान् द्रव्य अपनी क्रिया द्वारा अपर द्रश्यकी क्रिया में निमित्त होते है उनके लिए भी पंचास्तिकाय गाया ८८ आदि आगममें हेतुकर्ता शब्दका प्रयोग हुआ है। तथा (३) तीसरे जो सजीवधारी प्राणी अपने विकल्प और योग द्वारा पर द्रव्यके कार्यमें निमित होते हैं उनके लिए भी हेतुका शब्दका प्रयोग समयसार गाथा १०० आदि आगममें किया गया है। __ इस प्रकार ३ अर्थोम हेतुकर्ता शब्दका प्रयोग आगममें दृष्टिगोचर होता है। उनमेसे किस अर्थमें अपर पक्ष के वली जिनको दिव्यध्वनिके होने में हेतु कर्ता स्वीकार करता है इसका स्वयं उसको ओरसे किसी प्रकारका स्पष्टीकरण नहीं किया गया यह आश्चर्य की बात है। आगममें सब प्रकारके प्रमाण है और वे भिन्न-भिन्न Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ जयपुर ( खानिया ) तत्व चर्चा भिप्राय लिखे गये हैं, परन्तु उन सबको एक जगह उपस्थित कर देने मात्रसे वस्तुका निर्णय नहीं हो सकता । यहाँ तो यह विचार करना है कि केवलोका दिव्यध्वनिके साथ योगके माध्यम से सम्बन्ध हूँ या तीर्थकर प्रकृति आदिके माध्यम से सम्बन्ध है या केवलज्ञान के माध्यमले सम्बन्ध है । मूल प्रश्न में केवलज्ञान अथवा केवलीको आत्मासे दिव्यध्वनिका कोई सम्व है ? यह प्रश्न पूछा गया है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि अपर पक्ष केवलज्ञान और केवलोकी आत्मा इन दोनों को एकरूप से स्वीकर करके उनके साथ दिव्यध्वनिका सम्बन्ध जानना चाहता है । अब यदि प्रकृतमें हेतुकर्ता शब्दका अर्थ त्रिकल्प और योग किया जाता है तो इस प्रकारका हेतूकर्ता रूप सम्बन्ध केवलज्ञानके साथ दिव्यध्वनिका नहीं बन सकता, क्योंकि केवली के योगका सद्भाव होने पर भी विकल्पका सर्वथा अभाव है, इसलिए योग और विकल्परूप निमित्त अर्थ में यहाँ केवलीको हेतुकर्ता कहना न तो अपर पक्षको ही मान्य होगा और न प्रकृतमें यह बर्थ किया ही गया है। कदाचित कहा जाय कि योगकी अपेक्षा केवलीको विव्यध्वनिका हेतुकर्ता कहने में क्या हानि है सो इस स्थिति और सम्बन्ध में हमारा निवेदन यह है कि आचार्य अमृतचन्द्रने प्रवचनसार गाथा ४५में केवलोके गमन, fessor आदि क्रियाओंके प्रवर्तनको जो स्वाभाविक कहा है सो वहीं उनके कहनेका यही अभिप्राय होना चाहिए कि यद्यपि दिव्यध्वनि के प्रवर्तनमें वपनयोगको प्रमुखरूपसे निमित्तता हूँ फिर भी वचनयोगको विकल्प के अभाव में हेतुकर्ता कहना उचित नहीं है। उसके कई कारण हैं । यथा- (१) केवली भगवान् केवलज्ञानसे सदा उपयुक्त होते है । उनके उपयोग में जिस प्रकार अन्य समस्त त्रिकाल और त्रिकोकवर्ती ज्ञेय प्रतिभासित होते हैं उसी प्रकार दिव्यध्वनि भी प्रतिभासित होती है । विश्यनिप्रवर्तन के लिए वे अलग से उपयुक्त नहीं होते । अतएव केवलज्ञान दिव्यध्वनिके प्रवर्तनका साक्षात् निमित्त नहीं है । तत्वार्थातिक अध्याय ६ सूत्र १ में वचनयोगको क्षयनिमित्तक मानने पर जो आपत्ति आती है उसका विचार करते हुए अन्तमें यही फलित किया है कि चूँकि केथलीकी आत्मा क्रियाशील है, अतएव उनके ३ प्रकारकी घर्गणाओं के आलम्बनकी अपेक्षा प्रदेश परिस्पन्दरूप योग होता है। यह शंका इसलिए उठी कि ज्ञानावरणादि कर्मो का क्षय अयोगकेवली और सिद्धोंके भी पाया जाता है। ऐसी अवस्था में यदि क्षयको वचनयोयका प्रमुख निमित्त माना जाता है तो अयोगकेवली और सिखोंके भी वचनयोग होना चाहिये । किन्तु उनके वचनयोग नहीं होता, इससे स्पष्ट विदित होता है कि वचनयोगका प्रमुख कारण क्षय नहीं है, किन्तु वचन वर्गओंका आलम्बन ही वचनयोगका प्रमुख कारण है । तच्चार्थथातिकका वह पूरा उल्लेख इस प्रकार है--- यदि क्षयोपशमब्धिरभ्यन्तरहेतुः क्षये कथम् ? क्षयेऽपि हि सयोग केवलिनः त्रिविधो योगः इष्यते । अथ क्षयनिमित्तोऽपि योगः कल्प्यते, अयोगकेवलिनां सिद्धानां च योगः प्राप्नोति ! नैष दोष:, क्रियापरिणामिन आत्मनस्त्रिविधवर्गणकम्बनापेक्षः प्रदेशपरिस्पंदः सयोगकेवलिनो योगविधिविधीयते, तदालम्बनाभावात् उत्तरंषां योगविधिर्नास्ति । यह उल्लेख अपने में बहुत स्पष्ट । इसमें जिस प्रकार योगप्रवृतिका प्रमुख कारण ३ प्रकारकी घर्गणाओंके आलम्बनको बतलाया है उसी प्रकार दिव्यवनिका प्रमुख कारण भाषावगंणाओंका आलम्बन हो हो सकता है, अन्य नहीं। यही कारण है कि हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तर में योगके ऊपर विशेष जोर दिया था और साथ में यह भी लिखा था कि योगकी अपेक्षा केवली या केवलज्ञानको निमित्त मानने में कोई हानि नहीं है । दिव्यध्यतिका खिरमा केवलो जिनके वचनयोग क्रियाको निमित कर होता है और वचनयोग वचनवर्गणाओंके अवलंबन पर निर्भर है। ऐसा केवलो जिनके साथ दिव्यध्वनिका निमित्त-नैमित्तिक Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सका समाधान सम्बन्ध माना गया है। फिर भी विकायके अभावमें ववनयोगको भी हैकर्ता कहना उचित नहीं है, क्योंकि वचनयोगको हेतुका मान लेने पर जब-जब वचन योग हो तब-तब दिम्ययन होनो ही चाहिए, अन्यथा बधनयोगके साथ दिव्यध्वनिको बाद्य व्याप्ति नहीं बन सकती 1 स्पष्ट है कि दिव्यघ्ननि अपने काल में होतो है और प्रचनयोग उसका मुख्य निमित्त है, साथ ही भय जीवांका पुण्योदय, तीर्थकर प्रकृतिका उदय आदि भी दिव्यध्वनिके निमित्त है । ऐसा अपूर्व योग जिनदेखकेसियालज्ञान विभूतिसे सम्पन्न होने पर ही मिलता है, इसलिए दिव्यध्वनिके होने में जिनदेवको भी निमित्त कहा जाता है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि जिनदेव स्वयं अन्य अल्पज्ञों के समान दिव्यध्वनिको प्रगट करनेके लिए व्यापारवान होते है। श्री गोम्मटसार जीवकाण्डमें लिखा है मणसहियाणं वयणं दिटुं तप्पुब्धमिदि सजोगसि । उत्ती मणोषयारेणिदियणाणेण हीणम्हि ॥ २२८ ।। मनसहित छद्मस्थ जोवोंके वचन मनपूर्वक देखे जाते हैं, इसलिए इन्द्रियज्ञानसे रहित सयंगकेयली फे उपचारसे मन कहा है ।। २२८ ।। ___ स्पष्ट गात तामि . दिति के लिए दत्तावधान हुए बिना ही अपने कालमें बचनयोग आदिको निमिस कर दिव्यध्वनि प्रकट होती है। पं० प्रबर दौलतरामजी 'सकलन यज्ञायक-' आदि स्तुति द्वारा उक्त तथ्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं भवि भागनि-वचिजोगे घसाय । तुम धुनि है सुनि विभ्रम नसाय ॥ (२) दूसरा कारण यह है कि केवलो जिनके दो प्रकारका ही परनयोग होता है-सत्य वचनयोग और अनुभय वचनयोग । इसी प्रकार दिव्यध्वनि भी तदनुसार सत्य और अनुभयके भेषसे दो प्रकारको होतो है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि दिव्यध्वनिका प्रमुख निमित्त योगको ही स्वीकार किया है। यदि केवलज्ञान दिव्यध्वनिका प्रमुख निमित्त होता तो जिप्त प्रकार केवलज्ञान एकमात्र सत्यहा स्वीकार किया गया है उसी प्रकार दिव्यध्यान भी केवलज्ञानके समान एक ही प्रकारको होती, किन्तु ऐसा नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि केवली जिनका वचनयोग ही दिव्यध्वनिके खिरनेमें प्रमख निमित्त है। २. दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता मूल प्रवन में प्रमुसहपसे दूसरा चर्चनीय विषय दिमावनिकी प्रामाणिकताके विषय में कदापोह करना है। अपर पक्षने अपनी प्रतिशंका २ और प्रतिशंका ३ में दिव्यध्यमिकी प्रामाणिकता बक्ताको प्रामाणिकताके आधार पर स्थापित की है। साथ ही दाब्दों, पदों और वाक्योंको कृत्रिम बसलाते हुए लिखा है कि 'शब्द और पदार्थको अर्थ प्रतिपादकता कुत्रिम है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारको अपेक्षा रखती है। अर्थात् शब्द ऐसा नहीं कहते कि हमारा यह अर्थ है या नहीं है, किन्तु पुरुषों द्वारा ही शब्दोंका अर्थ संकेत किया जाता है। इसीलिए लौकिक या आगम शब्दोंको सहज योग्यता परुपोंके द्वारा संकेतके आधीन ही पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिये, बिना संकेतके शब्द पदार्थका प्रतिपादक नहीं होता। -प्रमेयकमलमार्तण्ड १० ४३१ । व्याख्याताके बिना वेद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नहीं है, इसलिए उसका वाध्य-वाचकभाव व्याख्याताके माधीन है। -धवल पु०११० १९६। जब शब्दोंके द्वारा पदार्थको प्रकाशवताही पुरुष व्यापारकी अपेक्षा Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जयपुर (खानिया) तवचर्चा रखता है तो उनमें स्वाधित प्रामाणिकता कैसे हो सकती हैं, अर्थात् शब्दों में स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं है। इस प्रकार आपका दिव्वनिको स्वाश्रित प्रमाण कहना आगमविरूद्ध है । उसमें केवलज्ञानकी प्रमाणतासे हो प्रमाणता आई हैं, क्योंकि वक्ताको प्रमाणता से वचनों में प्रमाणता आती है ऐसा न्याय है। वल १ पृ० १६६, जयवल १० ८८ । शब्दको प्रामाणिकता पराश्रित कैसे है इस बातको बतलानेवाला यह अपर पक्षका सभ्य है । इस व्यद्वारा नों पर पाला गया है (१) पुरुषके व्यापारको अपेक्षा रखनेके कारण शब्दों में पदार्थो की अर्थप्रतिपादकता कृत्रिम ' (२) शब्दों के द्वारा पदार्थोंकी प्रकाशकला पुरुषव्यापारको अपेक्षा रखता है, इसलिए उनमें स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं हो सकती । (३) दिव्यध्वनि में केवलज्ञानको प्रमाणता से प्रमाणता आई है, इसलिए दिव्यध्वनिको स्वाश्रित प्रमाण कहना आगमविरुद्ध है । (४) लौकिक या आगम शब्दों की सहज योग्यता पुरुषोंके द्वारा संकेतके आधीन ही पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिये । अब इन बातों पर क्रमशः विचार करते हैं १ : तत आगम में २३ प्रकारको वर्गणाएँ बतलाई है। उनमें भाषा वर्गाका स्वतंत्र रूप से उल्लेख किया गया वितत आदि से अनक्षारात्मक या अक्षरात्मक जितने भी शब्द सुनने में आते हैं उन सब शब्दों की उत्पति एकमात्र भाषा वर्गणाओंसे होती है । यह नहीं हो सकता कि कोई भी पुरुष अपने तालु आदिके व्यापार द्वारा ऐसी पुद्गल वर्गणाओं को भी शब्दरूप परिणमा सके जो भाषावगणारूप नहीं है। पुरुषोंके तालु आदि व्यापारसे भाषावर्गणाओं की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु जो भाषा वर्गणाएँ स्वयं उपादान होकर शब्दरूप परिणत होती है उनमें पुरुषोंके तालु आदिका व्यापार निमितमात्र है, क्योंकि बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता में कार्यको उत्पत्ति होती है यह कार्यकारणभावको प्रगट करनेवाला अकाट्य सिद्धान्त हैं, जो कि भाषा वर्गणाओंके शब्दरूप कार्यके होने में भी लागू होता है, क्योंकि कोई भी कार्य इस सिद्धान्तको उलंघन कर होता हो ऐसा नहीं है । ऐसी अवस्था में जब विवक्षित शब्दों का उत्पत्ति ही केवल पुरुष व्यापार से नहीं होती तो उनमें पदार्थोंको अर्थप्रतिपादकता केवल पुरुषव्यापारसे आती हो यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति निश्चय पक्षका उलङ्घन कर केवल व्यवहार पक्षके एकान्तका ही परिग्रह करता है वही ऐसा कह सकता है कि 'शब्द और पदार्थको अर्थप्रतिपादकता कृत्रिम है, इसलिए वह पुरुषके व्यापारकी अपेक्षा रखती है।' अन्य व्यक्ति नहीं । उपादानरूप शब्दवर्गणाओं में विवक्षित अर्थप्रतिपादनको योग्यता न हो और कोई पुरुष अपने व्यापार द्वारा बेसी अर्थप्रतिपादन क्षमता उत्पन्न करदे यह कभी भी नहीं हो सकता। भगवान् पुष्पदन्त भूतबलि शब्दगत इस सहज योग्यताका प्रतिपादन करते हुए धवला पु० १४ पृ० ५५० में लिखते हैं सच्चभासाए मोसभासाए सच्चमोसभासाए असम्षमोसमासाए जाणिदव्वाणि वेसण सच्चभासता मोसभासत्ताए सच्चमोसभासत्ता असच्चमो सभासत्तार परिणामेण णिस्सारंति जीवा वाणि भासादब्बवग्गणा णाम ॥ ७४४ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोपभाषा और असत्यमोषभाषाले जिन द्रव्योंको महणकर सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यमोपभाषा और असत्यमोषभाषारूपसे परिणमाकर जीव उन्हें निकालते हैं, उन द्रव्योंकी भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ।।७४४|| इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वीरसेन आचार्य अपनी धवला टीकामें उक्त सुत्रको व्याख्या प्रसंगसे लिखते है-- भासादग्वबग्मणा सरच-मोस-सच्चमोस-असच्चमोसभेदेण च उबिहा। एवं चडचिहतं कुदी णम्वदे १ चड़चिहभासाकजपणहाणुचवत्तीदो। उधिहभासाणं पाओग्गाणि जाणि दुश्वाणि ताणि घेण सरच-मोस-सच्चमीस-असञ्चमोसमासाणं सरूवेण तालुवादिवावारेण परिणमाविय जीवा महादो णिस्सारति ताणि दुग्वाणि भासादस्वचगणा णाम । भाषा द्रष्यवर्गणा सत्य, मोष, सत्यमोष और असत्यमोषके भेदसे ४ प्रकारको है 1 शंका-यह ४ प्रकारको है ऐसा किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान---उसका ४ प्रकारका भाषारूप कार्य अन्यथा बन नहीं सकता है, इससे जाना जाता है कि वह ४ प्रकारको है। ४ प्रकारको भाषाके योग्य जो द्रव्प है उन्हें ग्रहकर तालु आदिके श्यापार द्वारा सत्यभाषा, मोषभाषा, सत्यपापा और बतायामाषा ५ वरणमाकरजीदमसे निकालते हैं, अतएव उन द्रव्यों की भाषाद्रव्यवर्गणा संज्ञा है ॥७४४॥ यह आगमप्रमाण है । इसमें साष्ट मतलाया गया है कि जो पाषा सत्यरूप परिणमती है, जो भाषा असत्यरूप परिणमती है, जो भाषा उभयरूप परिणमती है और जो भाषा अनुभयरूप परिणमती है उसका उस उस प्रकारका परिणमन न तो पुरुषके ताल आदिके व्यापारसे उत्पन्न किया जा सकता है और न ही पुरुषको इच्छा अथवा ज्ञानदिदोषसे उत्पन्न किया जा सकता है। किन्तु जिस काल में सत्याविरूप जिस प्रकारको भाषा उत्पन्न होती है उस कालमें वह सत्यादि भाषावर्गणायत अपने अपने उपादानके अनुसार हो उत्ताल होली है । मात्र उत्पत्तिके समय मथासम्भव पुरुषका ताल आदिका म्यागार तथा अन्य भब्य जीवोंका पुण्योदय आदि निमित्त अवश्य है । इनका अनादिकालसे ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक योग चला आ रहा है। अतएव शब्दों में पदार्थोकी अर्थप्रतिपादकता उनकी सहज योग्यताका सुफल है, अन्य तो उसमें निमित्तमात्र है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिये । इसी तथ्यको ध्यानमें रखते हुए आचार्य माणिक्यनंदिन अपने परीक्षामुख नामक न्यायग्रंथमें लिखा है सहजयोग्यतासंकेतवशादि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्ति हेतवः ॥ -अ० ३ सूत्र १०॥ सहजयोग्यताके सद्भाव में संकेतके वशसे शब्दादिक वस्तुप्रतिपत्ति के कारण है 11 -40 ३ सूत्र १००। जिस प्रकार ज्ञान और ज्ञेयमें ज्ञापक और ज्ञाप्य शक्ति सहज पाई जाती है, वह किसी पुरुषका कार्य नहीं है, उसी प्रकार अर्थ ( वस्तु) और शब्दोंमें प्रतिपाद्य और प्रतिपादक शक्ति सहन होतो है, वह किसी पुरुष के सासु आदिके व्यापारसे जायमान नहीं है, अतएव शब्दों में सहज ही प्रतिपादकता पाई जाती है और उसीसे विक्षित शब्द द्वारा प्रतिपाद्यभूत विवक्षित पदार्थका प्रतिपादन किया जाता है । शब्दों द्वारा पदापोंक प्रतिपादनरूप कार्यों में यद्यपि पुरुषके ताल आदिका ब्यापार अवश्य ही निमित्त है, परन्तु उपादानके अमावमें Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( सानिया) तस्वचर्चा पुरुषके ताल आदि व्यापार द्वारा अर्थप्रतिपादकतारूप शब्दकार्यको उत्पत्ति होती हो यह कभी भी संभव नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । प्रत्येक शब्द स्वभावसे अपने प्रतिनियत अर्थका ही प्रतिपादन करता है ऐसा नियम है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अष्टमदायी प १३६ में लिखा है-- निष्पर्यायं भावाभावाभिधानं नाजसैव विषयीकरोति शब्दशक्तिस्थामान्यात् , सर्वस्य पदस्यकार्थविषयस्वप्रसिदः । सदिति पदस्यासविषयत्वात् असदिति पदस्य च सदविषयत्वात् , अन्यथा तदन्यतरप्रयोग संशयात् । गोरिति पदस्यापि दिशायनेकार्थविषयतया प्रसिद्धस्य तस्यतोऽनेकत्वात् सारश्योपचारादेव तस्यैकत्वेन व्यवहरणात. अन्यथा सर्वस्यकशन्दवाच्यतापत्तेः प्रत्येकमप्यनेकशब्दप्रयोगवैफल्यात । शब्द दाद ध्रवोऽर्थभेदस्तथार्थभेदादपि शब्दभेदः सिद्ध एष, अन्यथा वायवाचकनियमे व्यवहारविलोपाम् । __ यचम क्रमके बिना भाव और अभावको नियमसे विषय नहीं करता, क्योंकि इस प्रकारको शान्दको शक्ति स्वभावसे है, सभी पद एक अर्थको विषय करनेरूपसे ही प्रसिद्ध है। कारण कि सत् इस पदका असत्अविषय है और असत् इस पदका सत् अविषय है, अन्यथा उनमें से किसी एकका प्रयोग करने पर संशय होना मवश्यंभावी है। यद्यपि 'गो' यह पद दिशादि अनेक अर्थोको विषय करनेवाला प्रसिद्ध है, परन्तु वास्तव. में 'भी' ये पद अनेक ही है, सादृश्यका उपचार करने से ही उस पदका एकरूपसे व्यवहार होता है, अन्यथा सभी पदायोको एक दान्दके वाच्य होनेको आपत्ति आती है। साथ ही प्रत्येक पदार्य के लिए पृथक्-पृथक एक-एक शब्दका प्रयोग करना निष्फल ठहरता है। जिस प्रकार शबभेदके कारण नियमसे अर्थ भेद है उसी प्रकार अर्थभेदके कारण शब्दभेद भो है यह सिद्ध होता है। अन्यथा वाच्यवाचकनियम व्यवहारका लोग प्राप्त होता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वहीं पृ० १३७ में लिखा है तथा शब्दस्यापि सकदेकस्मिन्नेवार्थे प्रतिपादनशक्किन पुनरनेकस्मिन् , संकेतस्य सरक्तिव्यपेक्षया तत्र प्रवृत्तेः । सेनावनादिशब्दस्यापि नानेकार्थे प्रवृत्तिः, करिसुरगरथपदातिप्रत्यासत्तिविशेषस्यै कस्य सेनाशनाभिधानात् । उसी प्रकार शब्दती भो एक बार एक ही अर्थमें प्रतिपादनशक्ति है, अनेक अर्थमें नहीं. क्योंकि संकेत उस शक्तिको अपेक्षारो ही बस में प्रवृत्त होता है। सेना और कर आदि शब्दकी भी अनेक अर्थ में प्रवत्ति नहीं होती, क्योंकि सेना शब्दके द्वारा हाथी घोड़ा, रथ और पदातिसंबंधी एक प्रत्यासत्तिविशेष ही कही जाती है। इससे स्पष्ट है कि प्रतिनियत शब्द स्वभावसे ही अपने प्रतिनियत अर्थका प्रतिपादन करता है। हम अपने दूपरे उत्तरके अंत में यह स्पष्ट कर आये हैं कि 'वास्तव में दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता स्त्राधित है, क्योंकि यदि उसकी प्रामाणिकता स्वाधित नहीं मानी जाती है तो वह अन्यसे उत्पन्न नहीं की जा सकती। फिर भी प्रसद्भुत व्यवहारमयकी अपेक्षा विचार करने पर उसे निमित्तों को अपेक्षा पराश्रित कहा गया है। किन्तु अपर पक्षको हमारा यह कथन मान्य नहीं है। उसका कहना है कि 'शब्दोंके द्वारा पदार्थों की प्रकाशकता पुरुषव्यापारको अपेक्षा रखता है, इसलिए उनमें स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं हो सकती। यह अपर पश्चके कथनका पार है। इससे ऐसा विदित होता है कि अपर पक्ष शञ्चगत सहज योग्यताको स्वीकार नहीं करना चाहता जो कि नागममें प्रतिपादिन है। साथ ही इससे यह भी फलित होता है कि जो उपादान जिप्स Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान कार्यप परिणमता है उसमें उस कार्यरूप होनेको योग्यता ही नहीं होती, मात्र निमित्तोंके व्यागारद्वारा जपा. दानमें उस प्रकारका कार्य हो जाता है। यदि अपर पक्षका शब्दों में स्वाधित प्रामाणिकताके निषेध करनेका यही तात्पर्य हो तो कहना होगा कि उपाधान नामकी कोई वस्तु हो नहीं है । जहाँ जो कार्य उत्पन्न होता है मात्र निमित्तोंके बलसे होता है। किन्तु आगम ऐसे मन्तव्यको स्वीकार नहीं करता, क्योंकि आगमका अभिप्राय है कि जिस समय जिस ताल आदिके व्यापार आदिको निमित्तकर जो शब्द उत्पन्न होता। यदि उपादान उसरूप हो तभी उस प्रकारके शब्दकी उत्पत्ति हो मवतो है और उसी में पुरुष के तालु आदिका व्यापार आदि निमित्त होता है । आगममें सत्यादिरूप चार प्रकारको पृथक-पृथक वर्गणाओंको स्वीकार करनेका यही तात्पर्य है। यद्यपि अनेक स्थलों पर आगममें वक्ताकी प्रमाणतासे वचनों को प्रमाणता स्वीकार की गई है, यह हम भली भांति जानते हैं। परन्तु उसका इतना ही आशय है कि रामी देषी मादिरूप यदि वक्ता हो तो वह समीचीन प्रामाणिक भाषाको उत्पत्तिका निमित्त त्रिकालभ नहीं हो सकता । रामीचीन प्रामाणिक भाषाकी उत्पत्तिमें उसी प्रकारका ही निमित्त होगा, अन्य प्रकारका नहीं। अतएव अनेकान्तको प्रमाण माननेवाले महानुमावों को ऐसा ही निश्चय करना चाहिए कि उपादानकी अपेक्षा शब्दों में स्वाश्रित प्रमाणता होती है और निमित्तोंको अपेक्षा उनमें पराश्रित प्रामाणिकताका व्यवहार किया जाता है । दिपध्वनिमें केवलज्ञानकी प्रमाणताये प्रमाणता आई है, इगलिए दियध्वनिको स्वाश्रित प्रमाण कहना आगमविरुद्ध है।' यह जो अपर पक्षका कथन है उसका समाधान पिछले वक्तव्यसे हो जाता है, क्योंकि जिस उपादानसे जिस प्रकारका कार्य उत्पन्न होता है उसमें उस प्रकारफी योग्यताको स्वीकार किये बिना उस प्रकारका कार्य नहीं हो सकता । निमित्त भो उसी कार्यके अनुकूल होता है। तभी उसमें निमित्तम्यवहारकी सार्यकता है। जैसे कुम्भकी उत्पत्ति के अनुकूल कुम्भकारका व्यापार होता है और कुम्भकारके व्यापारके अनुरूप मिट्टीम उपादान योग्यता होती है उसी प्रकार प्रातमें दिव्याध्वनिकी उत्पत्तिके अनुकूल के वली जिनका वचनयोग व केवलजान आदि होते हैं तथा इनके अनुरूप बमवर्गणाओंमें लपादानयोग्यता होती है। इसलिए दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता अपने उपादान की अपेक्षा स्वाश्रित है और निमित्तकी अपेक्षा वह पराश्रित मानी गई है। अतएव दिव्ययनिकी स्वाश्रित प्रमाणताको आगमविरुद्ध कहना आगमको अवहे. लना हो है। यह हम पूर्वमें ही बतला आये हैं कि रात्यभाषाका उपादान सत्यभाषावर्गणा ही होता है और अनुभय भाषाका उपादान अनभय भाषावणा हो है। अतएव केवलो जिनके दिव्यध्वनिके होने में सत्य और अनुभव भाषाओंका ही योग मिलता है, इसलिए केरली जिनके प्रचनयोग आदिको निमित्त कर उसी प्रकारकी दिव्यध्वनि होती है, अन्य प्रकारकी नहीं। अगर पक्षका यह भी कहना है कि 'लौकिक या आगम शब्दोंकी सहज योग्यता पुरुषोंके द्वारा संकेतके आधीन ह्री पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिए।' किन्तु उस पक्षके इस कथन पर भी बारीकोसे विचार किया जाता है तो इसमें अणुमात्र भी यथार्थता प्रतीत नहीं होतो, क्योंकि एक और शब्दों में सहज योग्यता स्वीकार की जाए और दूसरी और उसे एकातसे पुरुषों के द्वारा संकेतके आधीन मानी जाय यह परस्पर विरुद्ध है। इसे तो शब्दोंकी सहज योम्पाकी विडम्बना ही माननी चाहिए। जब कि पूर्वाचार्योने सत्यादिके भेदसे भाषा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा बर्गणाऐं ही पृथक पृथक् मानो है। ऐसी अवस्थामें उनसे उत्पन्न हुए शब्दों में केवल पुरुषों द्वारा किये गये संकेतके आधीन ही पदार्थों की प्रकाशकता बनती हो ऐसा नहीं है। दिव्यध्वनिकी यह विशेषता है कि भाषा• वर्गणाके आधारसे उत्पन्न हुए शब्द वाच्यरूप जिस जिस अर्थके वाचक होते हैं उसी उसी अर्थका ये प्रतिपादन करते है। उनका प्रतिपादन पुरुषोंकी इच्छा पर अबलंबित नहीं है। यही कारण है कि आगममें जितने भी शब्दोंका प्रयोग हआ है बे आहेत प्रवचनके समान संतानकी अपेक्षा अनादिनिधन माने गये है। ऐसा नहीं है कि भगवान महावीरको दिव्यध्वनिमें 'जीव' शब्दका प्रयोग अन्य अर्थमें हुआ है और भगवान आदिनाथकी दिन्यध्वनि में उसका प्रयोग किसी दूसरे अर्थ में हुआ होगा। आगमको प्रमागता भी इसी पर निर्भर है, वक्ताओंकी इच्छाओं पर नहीं। इसीका नाम शब्दोंकी सहज योग्यता है। प्रामाणिक वक्ता इसी आधार पर उन उन शब्दोका प्रयोग करता है । भट्टाकलंकदेव तत्त्वार्थातिक अध्याय ५ सूत्र १ में लिखते है धर्मादयः संज्ञाः सामयिक्यः ।१६। धर्मादयः संज्ञा सामयिक्यो रष्टश्याः। आहते हि प्रवचनेऽनादिनिधने अहंदादिभिः यथाकालमभिव्यक्तज्ञानदर्शनातिशयप्रकाशैरवघोतितार्थसारे रूढा एताः संज्ञा ज्ञयाः । धर्मादिक संज्ञाएँ सामयिक है ।१६॥ धर्मादिक संज्ञाएं सामयिक जाननी पाहिए । अर्हन्ताधिकके द्वारा उस उस कालमें प्रगट हए ज्ञान-दर्शनातिशयला प्रकाशके द्वारा जिसमें पदार्थसार प्रकाशित किया गया है ऐसे अनादिनिधन आईतप्रवचनमें ये धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल आदि संज्ञाएँ एढ़ जाननी चाहिए। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रभेयकमलमातंण्ड पू० ४२६ में बतलाया है शब्दस्यानादिपरम्परातोऽर्थमात्रे प्रसिनसम्बन्धरवात, तेनागतसम्वन्धस्य घटादिशब्दस्य संकेतकरणात् । - शब्दका अनादि परम्परासे अर्थमात्र सम्बन्ध प्रसिद्ध है, इसलिए तत्तत् अर्थके साथ सम्बन्धको जानकर ही घटादि शब्द का प्रयोग किया जाता है। दूसरे शब्दों में इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ४३१ में बतलाया हैयतो हि शब्दोऽर्थववेतरस्थमावतया परीक्षितोऽर्थ न व्यभिचरति इति । यत्नपूर्वक अर्थवत्व और इतर स्वभावरूप से परीचित हा शब्द अर्थके प्रति व्यभिचरित नहीं होता। अतएव प्रसिशंका ३ में एकान्तसे यह लिखना कि 'शब्द अपने अर्थको तो कहता नहीं, किस अर्थम उसका प्रयोग किया जाय यह वक्ताकी इच्छा पर अवलम्बित है, ठीक नहीं है, क्योंकि जैसा कि पूर्वोक्त प्रमाणोंसे स्पष्ट है, अनादि कालसे उस जरा शब्दको प्रयोग जो जो उसका वाच्य है उस उस अर्थमें होता आ रहा है। अतएव एक ओर तो शब्दमें ऐमो उपादान योग्यता होती है कि वह विवक्षित अर्थका ही प्रतिपादन करे और दूसरी ओर प्रामाणिक वक्ता भी कौन शब्द अनादिकालसे किस अर्थका प्रतिपादन करता आ रहा है इस बातको जानकर उसी अर्थ में उस शब्दका प्रयोग करता है। इस प्रकार अनादिकालसे शब्दोंमें जहाँ स्वाथित प्रमाणता चली आ रही वहां वह निमित्तोंकी अपेक्षा पराश्रित भी घटित की जाती है। यद्यपि लोकमै सदनपने की अपेक्षा एक ही शब्द का प्रयोग सम्प्रदायमेवसे भिन्न-भिन्न अर्थमें होता हुया देखा जाता है, इसलिए अपर पक्षकी ओरसे यह आपत्ति उपस्थित की जा सकती है कि यदि शब्दोंका Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान प्रयोग केवल वक्ताओंको इच्छा पर अवलम्बित न होता तो सम्प्रदायभेदसे शब्दोंके अर्थमें अन्तर नहीं पड़ना चाहिए था ? समाधान यह है कि ऐसे स्थलों पर गलत बाब्दों के प्रयोग में उन जन सम्प्रदायवालोंके अज्ञानको प्रमुख कारण मानना चाहिए। अतएव पूर्वोक्त कथनसे पही फलित होता है कि लोकिक और आगमिक शब्दोंको सहज योग्यता पुरुषोंके द्वारा किये गये संकेतके आधीन न होकर अपने अपने उपादानके अनुसार होती है और इसी आधार पर लोक तथा बागममें प्रत्येक शब्द पदार्थका प्रकाशक स्वीकार किया गया है। हम पहले परीक्षामखका 'सहजयोग्यता' इत्यादि सूत्र उद्धत कर आये हैं सो उस द्वारा भी यही प्रसिद्ध किया गया है कि प्रत्येक शब्दम उपादानरूपसे जो सहज योग्यता होती है उसके अनुसार होनेवाले संकेतमें वक्ता निमित्त है और इस प्रकार प्रत्येक शब्द्ध अर्थप्रतिपत्तिका हेतु है। विविध भाषाओंके सम्मिलिल शब्दकोषों तया एक भाषाके एकार्थक नाना शब्दोंको या मानार्थक एक शाब्दको बतलानेवाले कोषों कता भी इसी में है। स्पष्ट है कि अपने उपादानकी अपेक्षा शब्दों में स्वाचित प्रमाणता स्वीकार करके ही उनमें निमित्तोंकी अपेक्षा पराश्रित प्रमाणता बागममें स्वीकार की गई है। ३. भागमप्रमाणोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार शब्दोंमें प्रामाणिकता किस अपेक्षा स्वाश्रित सिद्ध होती है और किस अपेक्षासे वह पराथित मानो गई है इसका सप्रमाण स्पष्टीकरण करने के बाद अपर पक्ष ने अपने पक्षके समर्थन के लिये आगमके जिन प्रमाणोंको उद्धृत किया है वे कहाँ किस अभिप्रायसे दिये गये हैं इसका स्पष्टीकरण किया जाता है मीमांसादर्शन प्रत्येक बर्णको सर्वथा नित्य और व्यापक मानकर तथा साल्वादि व्यापारसे उनकी अभि. ब्यक्ति स्वीकार करके भी उन्हें कार्यरूपसे अनित्य स्वीकार नहीं करता। प्रमेयकमलमार्तण्ड पु० ४०१ में मोमांसादर्शनके इस मतका निरास करनेके अभिप्रायसे ही यह कहा गया है कि 'शब्द ऐसा नहीं कहते कि हमारा यह अर्थ है या नहीं है, किन्तु पुरुषोंके द्वारा हो दान्दोका अर्थ संकेल किया जाता है!' अतएव इस उद्धरणको उपस्थित कर एकान्तसे शब्दोंको पुरुषों द्वारा किये गये संकेतों के आधोन मानना ठीक नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा । फिर तो केवली जिनकी दिव्यध्वनि द्वारा जो अर्थ प्ररूपणा होती है उसे प्रत्येक श्रोता अपने अपने संकेत के अनुसार ही समझेगा, अतएव सत्रको एकार्थकी प्रतिपत्ति नहीं बन सकेगी। केवली जिनकी वाणो आया कि 'जीव है' इसे सुनकर एक श्रोता अपने द्वारा कल्पित संकेतके अनुसार समसेगा कि भगवानका उपदेश है कि 'जीव नहीं है।' दूसरा उसीको सुनकर अनि द्वारा कल्पित संकेतके अनुसार समसेगा कि भगवानका उपदेश है कि 'पुद्गल है।' और इस प्रकार वचनोंकी प्रमाणता सिद्ध न होनेसे आममकी प्रमाणता भी नहीं बनेगी। अतएव प्रकृनमें यही मानना उचित है कि शब्दका अनादि परमारासे अर्थमात्रमें वाच्यवाचकसम्बन्ध है, अतएव अर्थके साथ अवगत सम्बन्धवाले घटादि शब्दका संकेत किया जाता है। (पमेयकमलमार्तण्ड पृ० ४२९) २. मीमांसक दर्शन सर्वशकी सत्ता स्वीकार नहीं करता, फिर भी वेदार्थकी यथार्थता और उसका यथार्थ प्रतिपादन मान लेता है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर सर्वज्ञको ससा स्त्रोकार कराने के अभिप्रायसे धवला पु०११० १९६ में निमित्तकी अपेक्षा यह कहा गया है कि 'वक्ताको प्रमाणतासे वचनोंमें प्रमाणता आतो है।' Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा इसलिए इस उल्लेख परसे दिव्यध्वनिको स्वाचित प्रमाणताका निषेध नहीं होता, क्योंकि कार्य-कारण सिद्धान्तके अनुसार जैसा उपादान होता है, निमिरासी उसके अरहते । सर्वनवादीको भी कहा जायगा कि 'सक्ताकी प्रमाणतासे वचनों में प्रमाणतासे आती है। पर इसे एकान्त मानना ठीक नहीं है, अतएय इस प्रमाणसे भी दिव्यध्वनिको स्वाश्रित प्रमाणता आगविरुद्ध घोषित नहीं की जा सकती। जयधवला पुस्तक १ १० ८८ द्वारा पूर्व-पूर्व प्रमाणता स्थापित कर अन्तमें सर्वज्ञको प्रमाणता स्वीकार की गई है, क्योंकि अल्पज्ञ जनोंके लिए कौन शाब्द अपनी सहज योग्यता और तदनुसार अनादि परम्परासे आये हुए संकेत के अनुसार किस अर्थका प्रतिपादन करता है यह सर्वज्ञको प्रमाणता स्वीकार करनेसे ही ज्ञात हो सकता है। अतएव इस वचनसे भी दिव्यध्वनिकी स्वाश्रित प्रमाणताका निरास नहीं किया जा सकता। कार्यके प्रति निमित्त और उगादान की समव्याप्ति होती है और इसे ही कार्यके प्रति बाह्म और आम्पन्तर उपाधिको समग्रता कहते हैं। अतएक जैसे उपादानको अपेक्षा यह कथन किया जाता है कि सत्यभाषावर्गणारूप उपादानके अभावमें प्रत्यभाषाकी उत्पत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार (१० पु.६०१०८) निमित्तकी अपेक्षा भी यह कहा जाता है कि 'रागादिका अभाव भी भगवान महावीरमें असत्य भाषणके अभावको प्रगट करता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्यके अस्तित्वका विरोध है।' अतएव इस वचनसे भी दिव्यध्वनिकी स्वाचित प्रमाणताका निरास नहीं किया जा सकता। यही बात धवल पु. ३ पृ० १२३ २६, जयधवल पुं० १ पृ० ४४, पृ० ७२ ५ ८२ तथा पु० ७ पृ० १२७ से भी समर्थित होती है । घवल पुस्तक ११० ३६८ में दिव्यध्वनिको जो ज्ञानका कार्य कहा है सो यह कथन भो निमित्तको अपेक्षा ही किया है, क्योंकि केवली जिनके सत्य और अनुभय वचनयोगके होने का नियम है, अतएव इस अपेक्षासे दिव्यध्वनि केवली जिन तथा केवलज्ञानका भी कार्य कहा जाता है इसमें कोई विरोध नहीं है। राजवातिकका प्रमाण उपस्थितकर इस विषयका विशेष विचार पूर्व में ही कर आये है । श्री गोम्मटसार जोन. काण्डका पूर्वोक्त प्रमाण भी उक्त तथ्यके समर्थनके लिए पर्याप्त है। आगमर्म अर्थक के रूप में तीर्थकर जिन तथा ग्रन्था.कि रूपमै गणवरदेव और आरतीय आचार्योंको बतलाया है। सर्वार्थ सिद्धि पृ० १२३ में वक्ताके रूमें सर्वश तीर्थकर, सामान्य केवली तथा श्रुतकेवलो और आरातीय आचायोको बतलाया है। प्रतिशंका ३ में उक्त तथ्यको पुष्ट करनेवाले कुछ आगमप्रमाण भी दिये गये हैं । इसलिए इस विषय पर भी विशद प्रकाश डाल देना आवश्यक है। (१) यो सम्यग्दृष्टि मोब दुःखित संसारी प्राणियोको देखकर उनके उद्धारकी भावनासे ओतप्रोत होते हैं उनके हो तीर्थकर जैसी सातिशय पुण्यप्रकृतिका बंध होता है। अनन्तर जब वे अपने अन्तिम भवमें गुणस्थानक्रमसे ४ घातिया कर्मोका नाशकर साक्षात वीतराग सर्वश पदको प्राप्त करते हैं तब उनके भव्य जीवोंको परम आबाद करनेवाली दिव्यध्वनिका प्रवर्तन होता है। यहाँ विचारणीय यह है कि कार्य Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान कारण परम्परा अनुसार तीर्थंकर जिनको दिव्यध्वनिके प्रवर्तन में प्रायोगिक निमित्त कहा जाय या विलसा निमित्त माना जाय । सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ सूत्र २४ में २ प्रकारके बन्धका निर्देश करते हुए लिखा है बन्धी द्विविधी ससिकः प्रायोगिकश्च। पुरुषप्रयोगानपेक्षा वासका। सद्यथा-स्निग्धसत्वगुणनिमित्तो विद्यबुल्काजलधाराग्नीन्द्रधनुरादिविषयः। पुरुषप्रयोगनिमित्तः प्रायोगिक: अजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति द्विधा भिवः। तन्नाजीवविषयो जतुकाष्ठादिलक्षणः। जीवाजीवविषयः कर्मनोकर्मबन्धः। बन्धके दो भेद हैं-वनसिक और प्रायोगिक । जिसमें पुरुषका प्रयोग अपेक्षित नहीं है वह समिक बन्ध है। जैसे स्लिम्व और रूक्ष गणके निमित्तसे होनेवाला बिजली, उत्का, मेष, अग्नि और इन्द्रधनुष आदिका विषयभूत बन्ध पैनसिक बन्ध है । और जो बध पुरुषके प्रयोगके निमित्त होता है वह प्रायोगिक बन्ध है। इसके दो भेद है-अजी सम्बन्धो और जीवाजीयसम्बन्धी। लाख और लकड़ी आदिका अजीबसम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है। तथा कर्म और नोकर्मका जो जोबसे बध होता है वह जीवाजीवराम्बन्धी प्रायोगिक बन्ध है।' सर्भिसि के इस उतरणमे यद्यपि बन्धके दो भेदोका निर्देश किया गया है तथापि इन घरसे दो प्रकारके निमित्तोंका सम्यक ज्ञान होने में सहायता मिलती है। वे दो प्रकारके निमित्त है--विसमा निमित्त और प्रायोगिक निमित्त । जिन कार्योंके होने में पुरुषका योग और विकल्प इन दोनोवो निमित्तता स्वीकार की गई है वे प्रायोगिक कार्य कहलाते हैं। जैसे घटकी उत्पत्ति में कुम्भकारका विकल्प और योग दोनों निमित्त है । इसलिए कुम्भ प्रायोगिक कार्य कहा जामगा । तथा विकल्प और योग प्रायोगिक निमित्त कहलायेंगे। यह तो प्रायोगिक निमित्तोंका विचार है । इनसे भिन्न निमित्तोंको विवसा निमित्त कहेंगे । तत्त्वार्यावातिक अ. ५ सूत्र २४ में विससा शब्दके अर्थ पर प्रकाश डालते हुए लिखा है चिस्रला विधिविपर्यये निपातः ।। पौरुषेयपरिणामापेक्षो विधिः, तद्विपर्यये विस्रसाशब्दो निपातो रम्यः। यह विधिरूप अर्थास पिर्यय अर्शमें घिससा शब्द आया है जो निपातनात सिद्ध है। प्रकृति में पौरुषेय परिणामसापेक्ष विधि है, उससे विपरीत अर्थम विनसा शब्द जानना चाहिए। जो विमसा दान निपातनात् सिद्ध है। समयसार गाथा ४०६ की आचार्य जयसेन कृत टीकामे प्रायोगिक और वनसिक शब्दोंके अर्धका स्पष्टीकरण करते हुए लिन्ना है प्रायोगिका कर्मसंयोगजनितः वैनसिक स्वभावजः । कर्मके संयोमरी उत्पन्न हुआ गुण प्रायोगिक कहलाता है। तथा स्वभावमें उत्पन्न हुआ गुण सिक कहलाता है। समयसार माथा १०० पर दृष्टिपात करने पर जिम योग और विकल्पको उत्पादक हेतु या करी निमित्त कहा गया है उसीको प्रायोगिक रांशा है। और तद् इतर शब्दोंकी वस्रमिक संज्ञा है। इस दष्टिसे जब इस बातका विचार किया जाता है कि तीर्थकर जिन दिव्यध्वनिके प्रवर्तन में क्या प्रायोगिक निमित्त है तो विदित होता है कि उनके राग का सर्वथा अभाव होने के कारण उन्हें प्रायोगिक निमित्त कहना उपयुक्त न होगा। माना कि उनके कमंनिमित्तक योगका सदभाव पाया जाता है और उनके तीर्थकर प्रकृति तथा ६९ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा शरोरादिक नामकर्म का उदय भी विद्यमान है, परन्तु उनके मनका { भावमनका ) अभाव होने के कारण जिस प्रकारको वचन प्रवृत्ति अन्य अस्मदादि साधारण जीवोंके उपलब्ध होती है उस प्रकारको वचनप्रवृत्ति उनके नहीं पाई जाने के कारण उन्हें दिपध्वनिके प्रवर्तन में अस्मदादि जनों के समान हेतुका कहना उचित न होगा । अतएव यही सिद्ध होता है कि जिस प्रकार कषायके अभाव में केवलो जिनके योगकी अपेमा शुक्ल लेश्याका उपचार किया गया है या जिस प्रकार मनोपयोगके अभावमें केवली जिनके सूदमकाययोगके काल में सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति शुक्ल ध्यान उपचारसे माना गया है। उसी प्रकार जो योगक्रिया पायके साथ अनुरंजित होकर प्रायोगिक हेतृकों व्यपदेशको प्राप्त होतो थी वही योगक्रिया दिव्यध्वनिके प्रवर्तन हेतु है। इस अपेक्षा तीर्थकर जिनको सर्वत्र आगमम अर्थका कहा गया है। यतः इस प्रकारको विशिष्ट जोगक्रिया केवलज्ञान के सद्भाव में ही होती है । इस अपेक्षासे दियध्वनि केवलज्ञानका कार्य भी आगममें कहा गया है। आगममें अनेक नयों की अपेक्षा अनेक प्रकारसे प्रतिपादन किया गया है। श्रुतघरोंका कर्तव्य है कि जहां जिस विवक्षासे जो कथन किया गया हो उसे समझकर उसका व्याख्यान करें। इससे पूरे आगममें कैसे एक वाक्यता है, इसे समझने में सहायता मिलती है। सामान्य केवलियोंको जहाँ भी कर्ता या ब्याावा कहा गया है वहाँ उसे इसी न्यायसे जान लेना चाहिए। (२) आरातीय आचायौंको सन्थकर्ता या व्याख्याता किस अपेक्षा कहा गया है इसका स्पष्टीकरण यद्यपि पूर्वमें किये गये प्रायोगिक छाब्दके स्पष्टीकरणसे हो जाता है तथापि वहाँ इनके विषय में दो प्रकारसे विचार करना इष्ट है-एक ज्ञानभादकी अपेक्षा और दूसरे रागपरिणतिको अपेक्षा । शानभावको अपेक्षा विचार करने पर जितनी भी स्वभावपरिणति जोदके होती है उसमें पर द्रव्यके कार्यके प्रति अणुमात्र भी f निमित्तता धटित नहीं की जा सकती। अतएव इस अपेक्षासे उन्हें अन्यकर्ता या व्याख्याता कहना सम्भव नहीं है। इस अपेक्षासे तो स्वयं शब्दवर्गणाएं अपने परिणमनरूप शक्लिके कारण शब्द, पद, वाक्यरूप परिणमन करती हुई ग्रन्थविस्तार या प्रवचन विस्तारको हेतु होती है। उस में ज्ञानी का शानभाव रंचमात्र भी कारण नहीं है । अन्यथा अयोग केवली और सिद्धोंको भी वचनप्रवृत्तिमें हेतु माननेका प्रसंग आएगा । यह निश्चयनयका वक्तव्य है । व्यवहारमयकी अपेक्षा विचार करने पर तो जब जब ज्ञानी सबिकल्प अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब तब उनके चिप्समें भव्य जीवों को उपदेश देने का भी विचार आता है और ग्रन्धरचनाकी भी इच्छा जाग्रत होतो है । यद्यपि इस अवस्थामें भी वे स्वयं ऐसे रागके प्रति हेयबुद्धि ही रखते है उसे उपादेय नहीं मानते, फिर भी रागगर्वक जो जो कार्य होना चाहिए बह होता अवश्य है। इसलिए इस अपेक्षारो ये उपेक्षा मक ग्रन्थ रचनाके हेलका और श्याख्याता भी कहे गये है। प्राचार्य कून्द कन्द प्रति महषिमोंने यदि --'- कहीं 'वाच्छामि' आदि शब्दोंका प्रयोग अपने अन्थों में किया है तो वह इसो अभिप्रायसे किया है इससे अपर पक्षका जो यह कहना है कि आचार्य अमृतचन्दने समयसारयाया ४१५ की आत्मख्याति टीका और अन्तिम कलशमें बचनकी स्वाचित प्रमाणता म बतलाकर मात्र उक्त उल्लेख द्वारा अपनी लघुता प्रगट की है सो उस पक्षका यह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि यथार्थ रूपसे विचार करने पर समयसार और उसकी आत्मख्याति टीकाकी जो रचना हुई है वह शब्दोंकी अपनी तद्रूप परिणमनशक्तिका ही फल है, आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द सो उसमें राग और योगको अपेक्षा निमित्तमात्र है। हमने अपने दूसरे उत्तरमें समयसार गाथा ९९ और १०० के आधारसे जिन पांच सिद्धान्तोंको विवेचना की धी उन पर अपर पक्षने जिस टोन में टोका को है बह उपेक्षणीय हो है । फिर भी यहाँ हम जिन पाँच सिद्धान्तोंका दूसरे उत्तरम निर्देश कर आये हैं उनका सांगोपांग विचार कर लेना बावश्यक समझते हैं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ८ और उसका समाधान (१) समयमार गाथा ६८ में व्यवहारसे जिस कर्तुतका विधान किया है वह व्यबहारी जनोंका व्यामोह मात्र क्यों है इराका स्पष्टीकरण गाथा ६९ में करते हुए बतलाया है 'यदिभात्मा परद्रव्यांको करे तो वह उनके साथ नियममे तन्मय हो जाए। परन्तु तन्मय नहीं होता इस कारण वह उनका मर्ता नहीं है।' इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि एक ट्रम्पका दूसरे द्रव्यमें यथार्थ कर्तत्वका सर्वथा अभाव है। इस परसे यह सिद्धान्त फलित हुमा _ 'आत्मा व्याप्य-व्यापकभावसे तन्मयताका प्रसंग आने के कारण परद्रव्यों की पर्यायोंका कर्ता नहीं है।' इस सिद्धान्तमें आत्मा पदसे उपादानरूप आत्माका ग्रहण किया गया है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि निश्चमसे न सही, व्यवहारसे तो एक द्रव्यको दूसरे द्रब्यका कर्ता मानने में आपत्ति नहीं है। समाधान यह है कि ब्यबहारसे निमित्तपनेका ज्ञान करानेके लिए एक द्रव्यको दूसरे प्रख्यकी विवक्षित पर्यायका उपचारसे का कहा जाता है। इस कार्यका निश्चय कर्ता कौन है यह जान कराना इसका प्रयोजन है। (२) गाथा १०० में जोव परब्यको पर्यायोंका निमित्तनैमित्तिकमावसे भी कर्ता नहीं है, यह प्रतिपादन किया गया है। एमा प्रतिपादत करते हा प्रक्रम में जीवपदमे दुयाशिवामयना नियत आत्मा लिया गया है, क्योंकि यदि ऐसे जोकको परद्रपोंकी पर्यायौंका निमित्त-नैमितिकभावसे भी कर्ता मान लिया जाय तो इसके सदाकाल एकरूप अवस्थित रहने के कारण सदा ही निमित्तरूपसे कर्ता बनने का प्रसंग आयगा । किन्तु कोई भी द्रव्याथिकनयका विषयभूत द्रव्य परद्रव्यको पर्याप्रकी उत्पत्तिो व्यवहार हेतु नहीं होता ऐसा एकान्त नियम है । अतएव इस परसे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि-- सामान्य आत्मा निमित्तनैमित्तिकभाषसे परद्रव्योंकी पर्यायोंका कर्ता नहीं है। अन्यथा नित्य निमित्तिकर्तृत्वका प्रसंग आता है। (३) ज्ञानी जोवके रागादिकका स्वामित्व नहीं है। इसलिए वह रागादिकके स्वामित्वो अभावमें परट्रव्योंकी पर्यायोंका निमित्त का नहीं बनता। साथ ही वह यह भी जानता है कि प्रत्येक व्यका प्रति समय परिणमन करना उसका स्वभाव है, उसमें फेर-फार करना किसीके आधीन नहीं । अन्य द्रव्य लो उस सस परिणमन में निमित्तमात्र है। इसलिए इसपरसे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि अज्ञानी जीवके योग और उपयोग ( विकल्प ) परद्रव्योंकी पर्यायोंके व्यवहारसे निमित्त (४ ) ज्ञान भावके साथ अज्ञान भावके होने का विरोध है। इस परसे यह सिद्धान्त फलित हुआ कि आत्मा अज्ञान भावसे योग और उपयोगका कर्ता है, तथापि परद्रव्यों को पर्यायोंका कर्ता कदाचित् भी नहीं है। ( ५ ) ज्ञानभाव कहो या स्वभाव पर्याय दोनोंका एक ही तात्पर्य है । इस परसे यह सिद्धान्त 'फलित हमा कि आत्मा ज्ञानभावसे परद्रव्योंको पर्यायोंका भी निमित्तकर्ता नहीं है। ये ५ जिनागमके सारभूत सिद्धान्त है। इनके आधारसे हमारा उपहास किया जा सकता है, किन्तु Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ जयपुर (खानिया) तत्व चर्चा ये अमिट हैं । उपहास करने मात्र से इनको अप्रमाण महीं ठहराया जा सकता। इसमें सन्देह नहीं कि विकल्प और योगका स्वामित्व स्वीकार कर हमारे मन में चर्चा करनेका यदि उत्साह हुआ होगा तो ऐसी अवस्थामे अगर पसके द्वारा हमे अज्ञानी प्रसिद्ध करना सत्यका हो उद्घाटन महलाया और यदि मोक्षमार्गकी प्रसिद्धि सभामा शानभाषके प्रति आदर रखते हुए चर्चासम्बन्धी यह कार्य हुआ होगा तो अन्यके द्वारा हमें अज्ञानी कहे जाने पर भी हम अशानी नहीं बन जायेंगे यह तो अपनी अपनी परिणति है उसे वह स्वयं जान सकता है या विशेष ज्ञान विशेषु किमधिकम् । 1 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर शंका २ सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बँधा हआ है और किसीसे बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है तो उसके बंधनोंसे छूटनेका उपाय क्या है? समाधान १ सांसारिक जोन सद्भुतव्यवहारस्वरूप अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा अपने अज्ञानरूप राग, द्वेष और मोह मादि अशुद्धभावोंस बद्ध है। अग्रमामा सर्च एवं तावस्मविकल्प-निर्विकल्पपरिच्छेदात्मकस्त्रादुपयोगमयः। तन यो हि नाम नानाकारान् प. नासराव गधा समुरते: नाम : परप्रत्ययैरपि मोह-राग-द्वेषरुपरक्तात्मस्वभावत्वान्नील-पीत-रकीपाश्रयप्रत्ययनील-पात-रनस्वरुपरकम्वभाव; स्फटिकमणिरिव स्वयमक एक तत्भावद्वितीयत्वाद् बन्धो भवन्ति ॥१४॥ -प्रवचनसार गा० १७५ अर्थ-प्रथम सो सह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निर्विकल्प प्रतिभासस्वरूप है। उसमें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राग अथवा द्वेष करता है वह काला, पीला और लाल आश्रय जिनका निमित्त है ऐसे कासेएन, पीलेपन और ललाईके द्वारा उपरसस्वभाववाले फिटिक यगको पति-पर जिनका निमित्त है ऐसे मोह, राग और टेषके द्वारा उपरक्त (चिकारी) आत्मस्वभाववाला होने से स्वयं अकेला ही बन्धरूप है, क्योंकि मोह, राग, द्वेषादि भाव इसका द्वितीय है।॥१७४॥ असद्भत बनवहारनयको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ व्यकर्मों तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म के साथ बद्ध है। अत्तावदत्र कर्मणां स्निग्धरूक्षस्वस्पर्श विशेषैरेकवपरिणामः स केवलपुद्गलबंधः । यस्तु जीवस्यौपाधिकमीह-राग द्वेषपर्यायैरकवपरिणामः स केवलजीवबन्धः । यः पुनः जोक्कर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमिसमाग्रन्वेन विशिष्टतरः परस्परभवगाहः स तदुभयबन्धः ।।१७७॥ -प्रवचनसार गाथा १७७ टीका अर्थ-प्रथम तो यहाँ, काँका जो सिमानता-रूसतारूप स्पर्श विशेषोंके साथ एकत्वपरिणाम है सो केबल पुद्गलबध है; और जीत्रका ओपराधिक मोह, राग, द्वेषरूप पर्यायों के साथ जो एकत्व परिणाम है सो केवल जीवबंध है; और जीव तथा कर्म पुद्गलके परस्पर परिणामके निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह है सो उभयबंध है अर्थात जीव और कर्मपदगल एक-दसरेके परिणाम में निर्मितमात्र होवें ऐसा जो । विशिष्ट प्रकारका ) उनका एकक्षेत्रावगाह संबंध है सो वह पुद्गलजोदात्मक बंध है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा तथा शुद्ध निश्चयनयकी अपेष्टा परम पारिणामिक भावस्वरूप शुद्ध जीवके द्रव्यकर्म,भाषकर्म और नोकर्म का अभाव होनेसे वह सकल दोषोंसे विमुत्रत है । श्री नियमसारमोकी गाथा ४५ की टीकामें कहा भी है शुद्ध निश्चयनयेन शुद्ध जीवास्तिकायस्य द्रव्य-भाषनोकर्माभावात सकलदीपनिमुः । अर्थ पूर्वमें दिया ही है। इस प्रकार सांसारिक जीव किस अपेक्षा बद्ध है और किस अपेक्षासे मुक्त ( अबद्ध ) है, आगमसे इसका सम्यक निर्णय हो जानेपर वह किससे बंधा हुआ है और किसास हो. कारण वह परतन्त्र किस प्रकार है इसका सम्यक निर्णय हो जाता है। तात्पर्य यह है कि यदि अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा विचार करते हैं तो वह अज्ञानरूप अपने अशुद्धभावोंसे वास्तवमै बद्ध है । उसे यदि पद्धताका अभाव करना है तो अपनी इमो बद्धताका अभाव करना है। उसका अभाव होनेरो जो असद्भूतव्यवहाररूप बद्धता कही गई है उसका अभाव स्वयमेव नियमसे हो जाता है, क्योंकि अशुद्ध निश्चय और व्यवहारके भावाभावके सहगामो होनेका सर्वष यही नियम है। अतएव संसारी आत्मामें यदि परतन्त्रताको अपेक्षा विचार किया जाता है तो वह अशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा अपने अज्ञान भावसे बद्ध होने के कारण वास्तवमें परतन्त्र है और असद्भुतम्यवहारनयको अपेक्षा विचार किया जाता है तो उसमें उपचरितरूपमे कर्म और नोकर्मकी अपेक्षा भी परतन्त्रसा घटित होती है। इस प्रकार संसारी आत्मा किस अपेक्षा किस प्रकार बंधा है इसका सम्यक निर्णय हो जाने पर उसके बेपनोंसे छूटने के उपाय क्या है ? इसका सम्यक् निर्णय करने में देर नहीं लगती। आगममें सर्वत्र यह तो बतलाया है कि यदि संसारी आत्मा अपने बद्ध पर्यायरूप राग, द्वेष और मोह आदि अज्ञान भावोंका अभाव करने के लिये अंतरंग पुरुषार्थ नहीं करता है और केवल जिसे आगममें उपचार. से व्यवहार धर्म कहा है उसी प्रयत्नशील रहता है तो उसके द्रव्यकर्मोको निर्जरा न होने के समान है। इसी आशयको ध्यानमें रख कर श्री छहकालामें जो यह कहा है कि कोरि जनम तप तपै ज्ञान बिन कम करेंजे। ज्ञानीक छिनमें त्रिगुप्तित सहज टरे ते || वह यधार्थ ही कहा है। यह कथन केवल पं० प्रवर दौलतरामजोने ही किया हो ऐसा नहीं है, किन्तु प्राचीन परमागममें भी इसका सम्यक् निरूपण हुआ है। आवार्यबर्व अमृतचन्द्र इसी आशयको व्यक्त करते हुए समयसारजोके बलश में कहते हैं रामद्वेषोखादकं तवरष्टया नान्यदव्यं वीक्ष्यते किचनापि । सचंद्रगण्योत्पत्तिरन्तइचकास्ति म्यकात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ॥२३९॥ अर्थ-तत्त्वष्टिसे देखा जाय तो राग-द्रेषको उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य किञ्चित मात्र भी दिखाई नहीं देता, क्योंकि सर्व द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही होती हुई अन्तरंगमें अत्यन्त प्रगट प्रकाशित होती है ।।२३६।। आगा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १ और उसका समाधान ५५१ अतएव संसारी आत्माको द्रव्य-भावरूप उभय-बंधनोंसे छुटने का उपाय करते समय निश्चय-व्यवहार उभयरूप धर्मका आश्रय लेने की मावश्यकता है। उसमें भी नियम यह है कि जब यह आत्मा अपने परम निश्चल परमात्मरूप ज्ञायकभावका आषय लेकर सम्यक् पुरुषार्थ करता है तब उसके अन्तरंगमें निश्चय रत्नत्रय स्वरूप जितनी जितनी विशुद्धि प्रगट होती जाती है उसके अनुपात में उसके बाहहमें दव्यकर्मका अभाव होता हुआ बार शर्ममी भी प्राप्ति होती जाती है। यह ऐसा विषय नहीं हैं, जिन्हें करणानुयोग का सम्यग्ज्ञान है, उनकी विवेकशालिनी रिसे ओझल हो। यही कारण है कि आचार्यवर्य अमृतचन्द्र समयसार कलशमे सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि आसंसारा प्रतिपदममी रागिणो नित्यमसाः सुप्ता: यस्मिन्नपदमपदं तद्धि त्रुध्यध्वमन्धाः । एततेतः पदभिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः स्वरसभस्त: स्थायिभावत्वमसि ।।१३८॥ अर्थ-- अक्विको प्राणियो! अनादि संसारसे लेकर पर्याय पर्याय में ये रागी जीव रादा मत वर्तते हुए जिस पदम सो रहे है यह पद ( स्थान ) अपद है, अपद है (तुम्हारा पद नहीं है ) ऐमा तुम अनुभव करो 1 इस और आओ, इन ओर आओ। तुम्हारा पद यह है, तुम्हारा पद यह है जहाँ शुद्ध अतिशय शुद्ध चतन्यवात, निजरमको अतिदायताके कारण स्थायिभावत्वको प्राप्त है अर्थात स्थिर है, अविनाशो है ॥ १३८॥ द्वितीय दौर शंका ९ हमारा प्रश्न था कि-सांसारिक जीव बद्ध हैं या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बँधा हुआ है और किसीसे बँधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है त। उसके बन्धनसे छूटने का उपाय क्या है ? प्रतिशंका २ इस प्रश्नको उत्तरमै बापने संसारो जीवको परतन्त्र तो माना है, किन्तु किस 'पर' (पदार्थ) के 'तन्त्र' (भचीन) संसारी आत्मा है उम्र 'पर' का स्पष्ट उल्लेख आपके उत्तरमें नहीं आया । बन्धका विवेचन करते हए श्री कुन्दकन्दाचार्यने समयसारमें लिखा है-- जोगणिमित्त गहां जोगो मण-बयण-कायसंभूदी। भावणिमिसो बंधो भावी रदि-राग-दोस-मोहजुदो ॥१४८॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जयपुर (वानिया ) तत्त्वचर्चा अर्थ-मन-वचन-कायके हलन, चलनसे उत्पन्न हुआ आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दरूप योग होता है । उस योगसे जो कार्मण वर्गणाओंका संसारी जीषको ग्रहण होता है वह बन्ध है। बह कर्मबन्ध जीवके राग, द्वेष, मोह आदि भावोंके निमित्तसे होता है। श्री अमृतचन्द्र सूरिने इस गाथाको टीकामे लिखा है बन्धस्तु कर्मपुद्गलानां विशिष्ट शक्तिपरिणामनावस्थानम् । तदन्न पुद्गलानां ग्रहणहेनुत्वाद् बहिरङ्गकारणं योगः । विशिष्टशक्किस्थितिहेतुत्वादन्तरङ्गकारणं जीवभाव एवेति । अर्थ-कमपुद्गलोंका विशिष्ट शक्तिरूप (जीवको विकारी बनानेल्प) परिण मनसे गात्मप्रदेश में अब. स्थित होना बन्ध है।.."यहाँ पर कार्मणपुद्गलोंके ग्रहण करने का बहिरङ्ग कारण योग है । स्थिति तथा अनुभागका कारणभूत अन्तर कारण जीवका कषायरूप भाव है। राग द्वेप माह परिणाम जीवको विकारो पर्याय है जिसके साथ जोत्रका व्याप्य-व्यापकसंबंध है। रामदिन पर्याय के सात जीपका मक सुरंध नहीं हो सकता। अतः मोह राग द्वेष आदि पर्यायका जोषके साथ बंध कहना अयुक्त है। मोह राग द्वेष परिणापबंधके कारण हैं। कारण में कार्यका उपचार करके आगममें इनको भावबंध कहा है। इस तरह पंचास्तिकाय गाथा १४८ में व्यबंध और भावबंध पर ममचित प्रकाश डाला है। हमनसार द्रव्मकर्म (मोहनीयादिकम) से भावकम (द्रव्यकर्मका निमित्त कारणभत राग द्वेष आदि) होता है और भावकसे द्रब्यकर्म होता है। इस तरह दध्यक्रम भाषकर्मकी परम्परा संसारो जीवके चलती रहती है और इसीको संसार नक कहते हैं । __ श्री अमृतचन्द्रसूरिने इसी विषयपर पञ्चास्तिकाय ग्रन्थको १२८-१२६-१३०वी गाथाकी व्याख्या करते हुए अच्छा प्रकाश डाला है ___ इह हि संसारिणो जीवादनादिवन्धनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामी भवन्ति । परिणामात्पुनः पुद्गलपरिपणमात्मकं कर्म 1 फर्मणो नरकादिगतिषु गप्तिः । गत्यधिगमनाइहः । दहादिन्द्रियाणि । इन्द्रियेभ्यो विषयग्रहणं | विषयग्रहणादागद्वेषौ । राग-द्वेषाभ्यां पुनः स्निग्धः परिणामः । परिणापुनः पुद्गल-परिणामात्मकं कम । कर्मणः पुननस्किादिगति गतिः । तदत्र पुद्गलपरिणामनिमित्तो जीव परिणामो जीवपरिणाममिमित्तश्च पुद्गलपरिणामः । अर्थ-संसारी जीव अनादि कालसे मोहनीय कर्म-उपाथिसे स्निग्ध (रागादि रूप) होता है । उस स्निग्ध परिणामसे पुद्गल परिणामात्मक द्रव्यकम उत्पन्न होता है, प्रव्यकर्म के उदयस नरक आदि गतियों में गमन होता है, गतिके कारण तदनुरूप शरीर मिलता है, शरीरसे इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियोसे विषयोंका ग्रह्ण होता है, विषयसेवनसे रागद्वेग होते हैं. रागद्वेषसे आत्माके परिणाम स्निग्ध होते हैं. उस स्निग्ध परिणामसे र कर्मबन्ध होता है।''"इस तरह संसारमं पदमल कर्मके निमित्तमे जोवके रागहषादि परिणाम होते हैं और जीवके रागद्वेषादि परिणामसे पदगल कर्मपरिणमन होता है। मोहनीय आदि द्रव्यकर्म, राग द्वेष आदि आत्माके विकारी भावोंके प्रेरक निमित्त कारण हैं और राग द्वेष आदि आत्माके विकृतभाव मोहनीय आदि प्रयकर्मबन्यो प्रेरक निमित्त कारण है। जब आत्माकै प्रबल पुरुषार्थसे प्रध्यक्रमों-मोहनीय आदिका क्षय होता है तब विकारका निमितकारण Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ५ और उसका समाधान ५५३ हट जाने से आत्मा के राग-द्वेष आदि नैमित्तिक विकारभाव दूर हो जाते है। उस दशा में बास्माकी परतन्त्रता भो दूर हो जाती हैं। तदनुसार आपने जो बन्ध और मुक्ति के विषय में लिखा है कि'वह (संसारी आत्मा ) अज्ञानरूप अपने अशुद्धभावांसे बद्ध है। उसे (संसारी जीवको) यदि बद्धताका अभाव करना है तो अपनी उसी बद्धताका ( अज्ञान आदिका) अभाव करना है । उसका अभाव होनेसे जो असद्भूत व्यवहाररूप बद्धता कही गयी है उसका अभाव स्वयमेव नियमसे हो जाता है।' आपका यह बद्धता के अभावका क्रम विचारणीय है, क्योंकि समयसार में - सम्मत पडिणिवद्धं मिष्टत्तं जिणबरेहिं परिकहियं । तस्सोक्ष्येण जीवो मिच्छादिद्धि त्तिणायच्वो ॥ १६१ ।। णाणस्स पक्षिणि अण्णाणं जिणवरेहिं परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि सि पायरुषो ॥ १६२ ॥ चारितपडिणिषद्धं कषायं जिणवरेहि परिकहियं । सरसोदयेण जीवो अचरितो होदि गायत्री ॥ १६३ ॥ इन तीन गाथाओं द्वारा सम्यक्त्वका, ज्ञानका और चारित्रका प्रतिबन्धक कारण क्रमसे मिध्यात्व मोहनीय, ज्ञानावरण और पारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म बतलाया है। उन प्रतिबन्धक निमित्तकारणोंरून द्रव्यकमक प्रभावसे आत्मा मिध्यादृष्टि, अज्ञानी और असंयमी होता है । इसके अनुसार यह बात सिद्ध होती है कि मिथ्यात्व अज्ञान, असंगमरूप जीवके विकृतभाव दर्शनमोहनीय आदि द्रव्यकर्मरूप प्रतिबन्धक कारणोंके द्वारा होते हैं । अतः कार्य-कारणभाव के नियमानुसार जब प्रतिबन्धक निमित्त कारण दूर होते है तब हो आत्माके सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र गुण प्रकट होते हैं । जैसे कि रात्रि या काली आँधी, प्रबल घनपटल आदि प्रतिबन्धक कारणों के दूर हट जाने पर ही सूर्यका प्रकाश होता है । बासामये लगातार १५-१५ दिन तक वर्षा होते रहने १५-१५ दिन तक सूर्य बादलोंसे बाहर दिखाई नहीं देता । इस कारण आपका यह लिखना कि पहले अज्ञानादिका नाश होता है तदनंतर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्माका नाश अपने आप हो जाता है विचारणीय है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने पञ्चास्तिकाय में इसके विरुद्ध लिखा हैकम्मस्साभावेण य सम्वण्डू सव्वको गदरसी य । पावदि इंदियर हिदं अम्बावाहं सुहमतं ॥ १५१ ॥ गाथार्थ - द्रव्यकर्मो के अभाव से आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो जाता है तथा इन्द्रियातीत भन्याबाष अनन्त सुख प्राप्त करता है । इस गाथाकी टीका करते हुए श्री अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं- ततः कर्माभावे स हि भगवान् सर्वन्नः सर्वदशाँ स्युपरतेन्द्रियव्यापारोऽन्यावाश्रानन्तसुखश्च नित्यमेवावतिष्ठते । टीकार्थ — इसलिये द्रव्यकमका अभाव हो जाने पर वह आत्मा सर्वश. सर्वदर्शी अतीन्द्रिय अध्यबाध अमन्स सुखी सदा रहता है । ७० है Jug Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ जयपुर ( खानिया) तत्त्वपर्धा श्री अमृतचन्द्रसूरि तत्त्वार्थसार ग्रन्थमें लिखते है धातिक्रमक्षयोत्पनं केषवं सर्वभावगम् ॥१-३०॥ अर्द-धातिकोका क्षय हो जाने पर समस्त पदाथोंको जाननेवाला केवलज्ञान उत्पन्न होता है। श्री वीरसेनाचार्य धवल सिद्धान्त अन्य लिखते हैसिरोहितस्य रस्नाभोगस्य स्वावरणविगमत भावि षोपलम्भात् । -पुस्तक १ पृष्ठ ५२ ई-तिरोहित अर्थात कर्म पटलोंके कारण पर्यायरूपसे अप्रकट रन (सभ्यरज्ञान आदि) समूहका अपने आवरण कमके अभाव हो जानके कारण आविर्भाव पाया जाता है अर्थात जैसे जैसे कर्म पटलोंका अभाव होता जनानो चमेतीत रलह प्रकट हेता जाता है। इन आर्षग्रन्थों के वाइयोंसे यह बात प्रमाणित होती है कि द्रव्यकर्मोका क्षय हो जानेपर ही आत्माके केबलशानादि गुण प्रकट होते हैं। इसलिये आपकी यह बात सिद्धान्त अनुसार विपरीत क्रम है कि पहले भावकर्म यानी राग द्वेष मोह अज्ञान आदिका नाश होता है तदनंतर मोहनीय आदि ट्रम्पकर्मों का नाश होता है । सिद्धान्तविरुद्ध इस विपरीत कार्यकारण मान्यताका सुधार अपेक्षित है । आपने जो यह लिखा है कि 'मागममें सर्वत्र यह तो बतलाया है कि यदि संसारी आत्मा अपने बद्ध पर्यायरूप राग द्वेष मोह आदि अज्ञान भावोंका अभाव करने के लिये अन्तरल पुरुषार्थ नहीं करता है और केवल जिसे आगममें उपचारसे क्यवहारधर्म कहा है उसी में प्रयत्नशील रहता है तो उसके द्रव्यकोको निजरान होने के समान है। इसी आयको ध्यानमें रखकर श्रो छहलालाम जो यह कहा है कि कोटि जन्म तप तपे, ज्ञान विन कर्म झरे । ज्ञानी छिन माहि, त्रिगुप्ति ते सहज टरै ते ॥ आत्मशुद्धिको प्रक्रिया में आपकी यह मान्यता मेल नहीं खाती, क्योंकि आगमानुसार व्यवहारधर्मको प्रगति हो निश्चयधर्मकी उपलब्धि कराती है। श्री कुंदकुंद आचार्यने आत्मशुद्धि के लिये द्रव्यप्रतिक्रमण ( भूतकालमें जिन जड़ चेतन पदार्थोके निमित्तसे राग ममता आदि रूप दोष लगा हो उन पदार्थों का त्याग) और द्वन्य प्रत्याख्यान ( भविष्य कालमें होनेवाले राग द्वेष आधिक विषयभत जड़ चेतनरूप पर पदार्थाका त्याग ) पूर्वक भावप्रतिक्रमण और भावप्रत्याख्यानके क्रम पर प्रकाश डालते हुए श्री कुन्दकुन्द आचार्यने समयसारमें लिखा है अप्पडिकमणं दुविहं अप्परचक्रवाणं तहेव विष्णेयं । एणुषएसेण य अकारी अगिणी या ॥२८३ ।। अपष्टिक्कमणं दुविहं ब्बे भावे तहा अपञ्चपखाणं । एएणुवएसेण 4 अकारो प्रष्णिश्रो चया ॥२८॥ जाव अपटिक्क्रमणं अपरचक्रवाणं च दबभावाणं । कुम्वइ आदा तावं कत्ता सो होइ पायथ्यो ॥२४५|| अर्थ-अतिक्रमण (जड़-चेतन पदार्थोसे भूतकालीन राग-प्रेष आदिका न छोड़ना) तथा अप्रत्याश्यान (जड़-चेतन पदायोंके साथ होनेवाले भविष्यकालीन राग-द्वेषादि भावोंका न छोड़ना) द्रव्य और भाषके भेदसे Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका २ और उसका समाधान ५५५ बो-धो प्रकारके हैं। उन दोनों दिव्य तथा भावरूप अतिक्रमण और अप्रत्यारूपान) के त्याग देनेरूप इस उपदेश द्वारा आरमा अकारक बतलाया गया है। जब तक मारमा प्रध्य भावरूपसे अप्रतिम और अप्राममान करता है तब तक वह रागद्वेष आदिका कर्ता है, ऐसा समझना चाहिये । इसकी टोकामें श्री अमृतवन्द्रसूरिने लिखा है वह भी देखने योग्य है तत: परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमिशमस्तु, तथा सति तु रागादीनामकारक एवात्मा। तथापि थावधिमित्तभूतं हव्यं न प्रतिकामति ने प्रत्याचष्टे च ........... यावत्त भाषन प्रतिक्रामति न प्रत्याच तादत्तरकसैंव स्यात् । यदैवं निमित्तभूतं दध्यं प्रतिक्रामसि प्रत्याचप्ठे व सदैव नैमित्तिकभूतं भानं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च यदा........ साक्षादक व स्यात् ।। ___ अर्थ-इसलिये परद्रा ( अन्य जर चेतन पदार्थ ) ही आत्मामें राग द्वेषादि भाव उत्पन्न करनेके कारण हैं। यदि ऐसा न हो तो यात्मा रागादिभावोंका अकर्ता ही हो जावं । फिर भी जब तक बात्मा रागदेषादिके निमित्त मत पर पदार्थाका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं करता है तब तक यह नमित्तिक भूत राग द्वेष आदि भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं कर सकता 1 जब तक वह अपने उन नमित्तक भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं करता है तब तक उन रागद्वेषादि भावोंका कर्ता ही है । जब आत्मा निमित्तभूत परपदार्थों का प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता है तब ही नैमित्तिकभूत (पर पदार्थोके निमित्तसे होने वाले ) राग तुषादि भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता है। जब भाव प्रतिक्रमण मात्र प्रत्याख्यान करता है तब ही वह आत्मा रागद्वेषादिका अकर्ता हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द तथा श्री अमृतचन्द्रसूरिके इस कथनसे दो बातें सिद्ध होती है : (१) राग द्वेष आदि विकृत परिणामों से मुक्ति पाने के लिये प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान आदि व्यवहारधर्म अति आवश्यक है। (२) भाबशुद्धिके लिये पहले पर पदार्थोंका त्याग करना परम आवश्यक है। आपने जो अपने अभिप्राय की पुष्टि के लिये छालाकी सोधी हालका पद्यांश (कोटि जन्म तप तप ज्ञान बिन कम मर जे। ज्ञानीके छिन माहि ब्रिगुप्ति ते सहज र ते) उपस्थित किया है, वह आपके अभिप्राय के विरुद्ध जाता है, क्योंकि उससे यह सिद्ध नहीं होता कि 'सिर्फ ज्ञान द्वारा ही कर्मनिर्जरा होकर आत्मशुद्धि होती है। आप पद्य के अन्तिम अंश पर प्रान दें। वहाँ कर्मनिर्जराके लिये ज्ञानके साथ गुप्तिाप व्यवहार चारित्रको भी अनिवार्य आवश्यक रखा है। अत: यदि उस पद्य का अभिप्राय केवल ज्ञानद्वारा ही कमनिर्जरा माना जायगा तो ग्रन्थकार श्री पं० दौलतरामजीका इस पद्य संबंधी अभिप्रायका धात होगा। उन्होंने तो व्यवहार धर्मको भी महत्व देते हये इसी चौथो हाल में श्रावकके १२ व्रतोंका तथा छठी हाल में मुनिचर्याक २८ मूलगुणोंरूप व्यवहारधर्म वा व्यवहारचारित्रका पठनीय एवं मननीय सुन्दर विवेचन किया है। अतः यह पद्य आपके अभिप्रायके विरुद्ध है। शान सफल कब होता है श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसारमें भेदविज्ञानको सफलता पर प्रकाश डालते हुये लिखा है णादूण आसवाणं असुचि विवरीयभाषं च। दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्ति कुणदि जीवो ॥७२॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ जयपुर (खानिया) तत्त्वचचों अर्थ---आस्त्रव की अशुचिता ( अपवित्रता), विपरीतता तथा दुखकारणता जानकर भब्य जीय उनको निवृत्ति ( निवारण ) करता है । इसको टोकामें श्री अमृतचन्द्र सूरि लिखते है किं च यदिदमास्मासवयोभवज्ञानं किं वाऽज्ञान ? यद्यज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । शानं चेत् किमारवेषु प्रवृत्त, किमात्रवेषु निवृत आत्रवेषु प्रवृत्त चेत्तदपि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । भानवेभ्यो निवृस चेत्तहि कथं न ज्ञानादेव बन्धनिरोधः । इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानमः । यत्वात्मासवयोमेंदज्ञानमपि नारयेभ्यो निवृतं भवति सज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानाशी ज्ञाननयोपि निरस्तः । अर्थ-यदि आत्मा और कर्म मानवमें मैदशान है तो वह ज्ञानरूप है या अज्ञानरूप ? यदि अज्ञानरूप है तो वह आत्मा और आम्रपके अभेदज्ञानसे कुछ विशेष नहीं ठहरता। यदि वह ज्ञानरूप है तो क्या वह भेदज्ञान भास्त्रवों ( आसबके कारणों में प्रवृत्त है या निवस है? यदि आसवों में प्रवृत्त है (आस्रवके कारणभूत विषय भोगोंमें लगा हुआ है) तो वह भेदशानरूप नहीं, अभेदज्ञानसे उसमें कुछ विशेषता नहीं ( अर्थात् व्यर्ध है।) यदि यह ज्ञान आत्रवों से निवृत्त है तो उस ज्ञानसे ही कर्मबन्धका विरोध हो जायगा । (कर्म आसवके कारणभूत विषयभोगों-असंयमसे निवृत्त होकर संयम सहित जानसे कर्मबन्ध रुक जायगा । जो भेधविशान आलयोंसे ( कर्म मालवोंके कारणोंसे) निवृत्त नहीं होता वह भेदज्ञान ही नहीं है । इसका आशय यही है कि शानकी सफलता केवल तत्त्व जानने में ही नहीं है, अपितु आलवके कारणभूत पापक्रिया तथा विषयभोगों आदिसे निवृत्त होकर व्यवहारधर्म आचरण करनेसे है। संवर और कर्मनिर्जरा किस तरह भेदविज्ञानका उद्देश आत्माको कर्म-आस्रव तथा कर्मबन्ध से छुड़ाकर कर्मोका संवर और कर्मनिर्जरा करनेका है जिससे क्रमशः आत्मशुद्धि होते हुए मोक्ष प्राप्त हो सके । अतः सत्वज्ञान के साथ व्यवहारचारित्र भी जब आचरणमें आता है तब ही कर्मसंवर और कर्मनिर्जरा हुआ करती है। अकेला जान मुक्तिका या संघर निर्जराका कारण त्रिकालमें भी नहीं है। श्री कुन्दकुन्द आचार्यने प्रवचनसार गाथा ७ में कहा हैचारित्त खलु धम्मो' 'अर्थात् चारित्र वास्तवमै धर्म है । सथा च मोक्षपाहड़ गाथा १७ में कहा है ___णाणं चरित्तहीणं दसणहीणं तवेहिं संजुत्तं । अण्णेसु भावरहियं लिंगरगहणेण किं सोक्खं ॥ अर्थ-जहाँ ज्ञान सो चारित-रहित है, आप दर्शन ( सम्यक्त्व ) रहित है, आवश्यक आदि क्रिमा रहित लिंग जो भेष है उसमें सुख कहाँ है। संस्कृत भाषामें आद्य सैद्धान्तिक सूत्रकार श्री उमास्थामो आचार्य तत्त्वार्थसूत्र में कहते हैंस गुप्तिसमिसिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजय चारित्रैः ॥ १-२ ॥ अर्थ--यह कर्मसंवर गुप्ति समिति, समादि धर्म, अनित्यादि भावना, परीषबजय और सामायिक आदि चारित्रसे होता है। तपसा निजरा च ॥ १.३।। अर्थ-अन्तरंग बहिरंग तपसे कर्मोकी निर्जरा ( अविवाक निर्जरा ) होती है। इन दोनों सूत्रोंसे भी प्रमाणित होता है कि व्यवहारचारित्र कर्मसंबर और कर्मनिर्जराका कारण है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५५७ अनंतवार मुनिव्रत धार थी पं० दौलतरामजीने अपने छहळाला ग्रन्थको चौथी खालमें लिखा है मुनिग्रत धारि अनन्तवार प्रीवक उपजायो। पनिज आतम ज्ञान बिना सुख लेश ने पायो । अर्थ-इस जीवने अनन्तों बार मनिव्रत धारण करके नौवें ग्रेनेयिक तकका अहमिन्द्र पद पा लिया, परन्तु भेदविज्ञान के विना उसे ( अतीन्द्रिय ) सुखका लेशमात्र भी नहीं मिल सका । इसमें दो बातें ध्वनित हो रही है-(१) तो यह कि ज्ञानको सफलता कोरे तत्त्वज्ञानसे नहीं है, ज्ञानकी सफलता भेदविज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) से है । (२) भेदविज्ञानको सफलता अथवा चारित्रको सफलता भेदविज्ञान के साथ है। __णुत्रत महाव्रत आदि व्यवहार चारित प्रत्येक दशाम सफल है। यदि कोई मनुष्य अभय है, मिथ्यादृष्टि (प्रश्यलिगो) है या दूरातिदूर मत्र्य है तो वह भी मुनिचर्या द्वारा अहमिन्द्र पद पा राकता है । इससे अधिक उन्नत पद पानेको उसमें योग्यता नहीं है । अनः ऐसे अभव्य आदि मुनियोंके उद्देश्यसे श्री पं० दौलतरामजी ने पह पद्य लिखा है। दूसरे-इस पद्यसे यह बात भी प्रमाणित होती हैं कि मुक्ति के लिये भो अन्तरंग कारण ( भव्यत्व सम्यक्त्वरूप उपादानकारण ) तथा श्रावधर्म मनिधर्मरूप व्यवहार चारित्ररूप बहिरंगनिमित्त कारणको अनिवार्य आवश्यकता है । मदि उन दोनों कारणोंमेंसे एक भी कारणकी कमी होगी तो मुक्ति न मिल सकेगी। श्री कुन्दकुन्द आचार्यने व्यवहारचारित्रका कितनी दृढ़तासे समर्थन किया है । देखिये ण वि सिज्मइ वत्यधरो जिणसासणे जइ वि होह तिस्थयरो । णगो विमोक्समगो सेसा उम्मग्गया सम्वे ॥२३ ।। -सूत्रपपाहु अर्थ-जिनशासनके अनुसार यदि तीर्थकर भी वस्त्रधारी असंयमी हो तो वह आत्मसिद्धि नहीं पा सकता। धुव सिद्धी सिस्थयरो चउणाणजुदो करेह तवयरणं । णाऊण धुवं कुज्जा तवयरणं णापत्तो वि ।।६।। -मोक्षपाउद अर्थ-तीर्थकरको उसी भवरो नियमसे मुक्ति होती है। तीर्थङ्करको सम्यक्त्वके साथ तीन ज्ञान जन्मसे तथा मुनिदीक्षा लेते रामय मनःपर्यमज्ञान भी हो जाता है। इस तरह चार जामधारी होकर भी वे मुक्त होने के लिये तपश्चरण करते है ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुषको तपश्चरण अवश्य करना चाहिये। आपने अपने लेखके अन्तमें जो समयसार कलशके दो पद्य दिये है वे श्री अमक्षचन्द्र सूरिने निश्चयनयकी दृष्टिसे लिखे हैं। किन्तु उन्होंने इन पद्योंसे शुद्ध पात्मतत्त्व प्राप्त करने के लिये व्यवहारवारित्रका निषेध नहीं किया है । इसका प्रमाण उनका विरचित पुरुषार्थसिद्धधुपाय ग्रन्थ है, जिसमें कि सूरिने अहिंसा धर्मका तथा श्रावकधर्मका सुन्दर विवेचन किया है। इसके सिवाय आध्यात्मिक आचार्य श्री कुन्दकुन्ध तथा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ जयपुर (खानिया) तत्त्ववर्धा अमृतचन्द्रमूरि मामन्म मुनिचारित्रका आचरण करते रहे-यह वार्ता इस बातका प्रमाण है कि व्यवहारपारित्रको आत्मशुद्धिके लिये अनिवार्य आवश्यक समझते थे। मुलिचारिबके बिना धर्मध्यान तथा शुषलध्यान नहीं होते । सिद्धान्तको यह बात भी व्यवहारचारित्रको अनिवार्य आवश्यकताको प्रमाणित करती है। विकारका कारण द्रव्यमै निष्कारण विभाव (विकार ) नहीं होता है। विकार परनिमित्त हुआ करता है, जैसे कि जलके शीतल स्वभावमें उरणतारूप विकार अग्निके निमित्त होता है इसी बातको श्री विद्यानन्दस्वामी ने अष्टसहस्रो ग्रन्थमें पत्र ५१ पर लिखा है दोषावरणयोहोमिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । कविद्यथा स्वहेतुम्यो बहिरन्तमलमयः ॥४॥ इस कारिकाको व्याख्या करते हए दोषो हि तावदशानं ज्ञानावरणस्योदये जीवस्य स्याददर्शनं दर्शनावरणस्य, मिथ्यास्त्रं दर्शनमोहस्य, विविधमचारित्रमनेकप्रकारचारित्रमोहस्य,.......... इत्यादि लिखा है, जिसका अर्थ यह है कि जीवके अज्ञानदोष ज्ञानावरणकर्म के सदय होने पर होता है, दर्शनावरणकर्मके तदरसे प्रदर्शन, दर्शनमोहनीय कमके उदयसे मिथ्यात्व, चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे अनेक प्रकारका क्रोध, मान, राग-द्वेष आदि अचारित्र भाव होते है। इसके अनुसार आत्माके विकारी भाव ज्ञानावरणादि द्रध्यकों के निमित्तमे ही होते हैं । इसी बातको पुष्टि श्री विद्यानन्दस्वामीने आप्तपरीक्षामें भी को है। न चायं भावयन्धो व्यबन्धमन्तरेण भवति, मुक्तस्यापि तत्सङ्गात् । -पृष्ठ ५ अर्थ--यह भावबन्ध ( रागद्वेष अज्ञान आदि ) व्यबंध ( ज्ञानावरण आदि कर्मके ) बिना नहीं होता है; क्योंकि यदि दिना व्यबंधके भावबन्ध हो तो मुक्त जीवोंके भी राग द्वेष आदि भावबन्धके होनेका प्रसंग आजायगा। ___ श्री विद्यानन्दस्वामीने भावबन्ध और द्रव्यबंधके विषय में स्पष्टीकरण करते हुए आप्तपरीक्षाकी 'भावकर्माणि' आदि ११४ वीं कारिकाको व्याख्या में लिखा है तानि च पुद्गलपरिणामारमकानि जीवस्य पारतनयनिमिरास्वात्, निगमादिवत् । क्रोधादिभिः भिचार इति चेत् न, तेषां जीवपरिणामामो पास्तव्यस्वरूपत्वात् । पारतनयं हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामोन पुनः पारसन्न्यनिमितम् । अर्थ-वे पौद्गलिक द्रव्यकर्म (जानावरणादि ) आत्माकी परतन्त्रताके निमित्त कारण है जैसे कि मनुष्यके पैरोंमें पड़ी बेड़ो मनुष्यकी परन्त्रताका कारण है। ___शंका-क्रोधादि आत्माके भाव ( भावकर्म ) भी आत्माके बंधके कारण है, इसलिये उनके साथ व्यभिचार आता है ? समाधान-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि आत्माके क्रोधादि भाव स्वयं परतन्त्रतास्वरूप है, इसलिये मात्माके के भाव स्वयं परतन्त्ररूप है, आत्माको परतंत्रताके निमित नहीं हैं ।। -पृष्ठ १४६ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५५९ आचार्य महाराजने उपर्युक्त विधानसे यह बात स्पष्ट कर दी है कि आत्माके राग द्वेष वादि भाव मोहनीय आदि द्रव्यकर्म के निमित्तसे हुआ करते है, बिना सन द्रव्यकमौके निमित्तके कभी नहीं होते। इसलिये द्रव्यकर्म आत्माके रागादि भावकोंके उत्पन्न होनेके निमित्त कारण है। राग द्वेष आदि परिणामोंके निमित्तसे मोहनीय आदि द्रव्यमौका बंध हुआ करता है, इस कारण उन राग द्वेष आदि आत्माके विकारी भावोंको भावबंध कहा गया है। तदनुसार दृष्यबंधके निमित्तसे भावबंध और भावबंधके निमित्तसे द्रव्यबंध हुआ करता है। इनमें से द्रव्यबंध पर पदार्थ है और भावबंध यात्माका अपना विकारी भाव है, अतः वह आत्मस्वरूप आत्माको परतंत्रताका कारण परद्रयरूप द्रम्पकर्म ही मुख्यतासे होता है और परद्रव्य होने के कारण वास्तवमें आत्माके साथ बंध उन जानावरण आदि कार्मण व्यका हम करता है। नमः धीवीतरागाय मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमी गणी । मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ९ मूल शंका-सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बँधा हुआ है और किसीसे बँधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है तो उसके बन्धनसे छूटने का उपाय क्या है प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रश्न का उत्तर व्यवहारनय और निश्चपनपको अपेक्षा पूर्वमें दे आये हैं । इसका आशय यह हैएक द्रव्यके गुण धर्मको अन्य व्यका कहना यह अमद्भत व्यवहारनय है और स्वाश्रित कथन करना यह निश्चयनय है। इस प्रकार संक्षेपमें ये इन दोनों नयोंके लक्षण हैं 1 अतएव निश्वयनयको अपेक्षा विचार करने पर आत्मा स्वयं अपने अपराधके कारण बद्ध है, अन्य किसीने बलात् बाँध रखा हो और उसके कारण बह बघ रहा हो ऐसा नहीं है। परन्तु असद्भुत ध्यबहारनयको अपेक्षा उसके उस अपराधको ज्ञानावरणादि कर्मोपर आरोपितकर यह कहा जाता है कि ज्ञानावरणादि कमौके कारण वह बद्ध है। यह वस्तुस्थिति है। इसका सम्यक निर्णय अनेक प्रमाणोंके साथ पिछले उत्तर में किया गया था। किन्तु प्रतिशंका २ को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि सांसारिक जीव बद्ध क्यों है इसका मुख्य कारण ज्ञानावरणादि कोको समझा जा रहा है। प्रतिशंका २ में यह तो स्वीकार कर लिया.है कि जब आत्माके प्रबल पुरुषार्थसे दूग्यफर्मों मोहनीय आदिका छय होता है तब विकारका निमित्त कारण हट जानसे आत्माके राग-द्वेष आदि नैमित्तिक विकार भाव दूर हो जाते है।' पर इसके साथ दूसरे स्थलपर उसी प्रतिशंकामें यह भी लिखा है कि मोहनीय आदि द्रव्यकर्म, राग द्वेष आदि आत्माके विभाष भावोंके प्रेरक निमित्त कारण हैं और राग द्वेष आदि आत्माके विकृत माव मोहनीय बादि द्रव्यकर्मबन्धके प्रेरक निमित्त कारण है।' इस प्रकार ये परस्पर विरुद्ध विचार एक ही लेखमें प्रगट Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जयपुर (खानिया ) तत्व चर्चा किये गये हैं । प्रेरक निमित्तका अर्थ यदि निमित्त कर्ता या निमित्त करण करके उसका अर्थ 'विशेष निमित्त' किया जाता तब तो कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि कर्मो का उदय उदीरणा आत्माके राग द्वेष आदि कार्यके विशेष निमित्त हैं और आत्मा के राग-द्वेष आदि विभाव भाव ज्ञानावरणादि कर्म परिणामके विशेष निमित्त हैं। पर अभी तक प्रतिशंकासे हम जो तात्पर्य समझ सके हैं उससे यही ज्ञात होता है कि जो निमित्त बलात् कार्यक स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे पर द्रव्यमें कार्य उत्पन्न करता है वह प्रेरक निमित्त है । यदि प्रतिशंका में किये गये विवेचनका यही अभिप्राय हो तो कहना होगा कि आत्माको प्रबल पुरुषार्थ करनेका कभी अवसर ही नहीं मिल सकेगा । कारण कि प्रत्येक समय में जिस प्रकार कर्मोदय उदीरणा है, उसी प्रकार राग-द्वेष परिणाम भी है, अतः कर्म आत्माको बलात् परलत्र रखेगा और राग-द्वेष परिणाम बलात् कर्मबन्ध कराता रहेगा । इस प्रकार प्रतिसमय आत्माको कमाँके अधीन होकर परिणमना पड़ेगा और नये-नये कर्मोंको राग-द्वेषके अधीन होकर बँधना पड़ेगा। ऐसी अवस्थामें यह बात्मा त्रिकाल बन्धन से छूटने के लिये प्रबल पुरुषार्थ कभी नहीं कर सकेगा और प्रबल पुरुषार्थके अभाव में मुषितकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। तब तो जितने भी संसारी जीव हैं वे सब मुक्ति के अभाव में संसारी ही बने रहेंगे। आगम में 'प्रेर्यमाणाः पुद्गलाः' इत्यादि वचन पढ़कर प्रेरक कारण स्वीकार करना अन्य बात है पर उसका जिनागम में क्या अर्थ इष्ट है इसे समझकर सम्यक् निर्णय पर पहुँचना अन्य बात है । यह तो शास्त्र के अभ्यासी सभी विद्वान् जानते हैं कि प्रत्येक द्रश्य स्वभावसे परिणामो नित्य है । जिस प्रकार द्रव्यकी अपेक्षा नित्यता उसका स्वभाव है उसी प्रकार उत्पादव्ययरूपसे परिणमन करना भी उसका स्वभाव है । जब कि उत्पाद व्ययरूपसे परिणमन करना उसका स्वभाव है, ऐसी अवस्थामें उसे अन्य कोई परिणमा तभी वह परिणमन करे ऐसा नहीं है। इसका विशेष विचार श्री समयसारजी में सुस्पष्टरूपसे किया गया है | विचार करते हुए वहाँ लिखा है यह पुद्गल द्रव्य जीव में स्वयं नहीं बँधा और कर्मभावसे स्वयं नहीं परिणमता । यदि ऐसा माना जाये तो वह परिणामो सिद्ध होता है । और कार्मण वर्गणाएं कर्मभावसे नहीं परिणमती होनेसे संसारका अमात्र सिद्ध होता है अथवा सांख्यमतका प्रसंग आता है। जीव पुद्गलद्रव्यों को कर्मभावसे परिणमाला है ऐसा माना जाये तो यह प्रश्न होता है कि स्वयं नहीं परणमती हुई उन वर्गणाओंको चेवन बात्मा कैसे परिणमा सकता है । अथवा यदि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभावसे परिणमन करता है ऐसा माना जाये तो जीव कर्मको अर्थात् पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप परिणामाता है यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है, इसलिये जैसे नियमसे कर्मरूप (care कार्यरूप से) परिणमन करनेवाला पुद्गल द्रव्य कर्म ही है इसी प्रकार ज्ञानावरणदिरूप परिणमन करनेवॉला कार्मण पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि ही है ऐसा जानो ।११६ से १२० । तथापि आगम में 'करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता है, ग्रहण करता है, त्यागता है, बाँधता है, प्रेरता है' इत्यादि प्रयोग उपलब्ध होते हैं। स्वयं आचार्य कुन्दकुन्दने बन्धाधिकारमें बजरूप अवस्था में arest प्राप्त जीवद्रव्यकी संसाररूप पर्याय कर्म और नोकर्मको निमित्तकर हो होती है इस तथ्य को समझानेके लिये 'जह फलिमणी सुद्धो' ( २७८-२७६ ) इत्यादि दो गाथाएँ लिखते हुए 'परिणमाता है' जैसे शब्दोंका प्रयोग किया है । इस परसे बहुत से मनोपी उन दोनों गाथाओंका आश्रय लेकर 'परिणमाता' है इस पदको ध्यान में रखकर यह अर्थ फलित करते हैं कि प्रेरक निमित्तों की सामर्थ्य से दूसरे द्रव्यका विवक्षित कार्य स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे भी किया जा सकता | प्रेरक निमित्तोंकी सार्थकता इसी में मानते हैं । किन्तु उनका वन गाथाओंके आधारस ऐसा अर्थ फलित करना क्यों तभ्ययुक्त नहीं है यह हम स्वयं भगवान् Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान कुन्दकुन्दके शब्दोंमें ही बतला देना चाहते हैं। वे कस-फर्म अधिकारमें इसी बोलका स्पष्टीकरण करते हुए स्वयं लिखते है उप्पादेदि करेदि य अंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पुग्गलदग्ध ववहारणयस्स बसव्वं ।। १०७॥ अर्थ-आत्मा पुद्गल-द्रव्यको उत्पन्न करता है, करता है, बांधता है, परिणमाता है और ग्रहण करता है यह व्यवहारनयका कथन है। इस माथाको व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतबन्द्र लिखते है अयं खल्लारमा न गृह्णाति न परिणमयति नापादयति न करोति न बध्नाति व्याप्य व्यापकभावाभावात् प्राप्यं विकाय निरय व पुद्गलवाव्यात्मकं कर्म । यत्तु व्याप्य-ध्यापकभाषाभावेऽपि प्राप्यं रिकार्य निर्वयं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृहाति परिणमयरयुत्पादयति करोति बध्नाति चामप्ति विकल्पः स किलोपचारः। अर्थ-यह बात्मा वास्तवमें व्याप्यापभावक अभाबके कारण प्राप्य, विकार्य और नित्यरूप पुद्गल-द्रव्यात्मक कर्मको ग्रहण नहीं करता, परिणमित नहीं करता, उत्पन्न नहीं करता, न उसे करता है और न बांषता है, फिर भी पाय-व्यापक भावका अभाव होने पर भी प्राप्य, विकार्य और निर्वस्वं पुद्गलव्यात्मक कर्मको आत्मा ग्रहण करता है, परिणमित करता है, उत्पन्न करता है, करता है और बांधता इत्यादिरूप जो विकल्प होता है वह वास्तवमै उपचार है। इससे विदित होता है कि जिनागममें 'परिणमाता है' इत्यादि प्रयोगोंका दूसरे मनीषी प्रेरक कारण माम कर जो अर्थ करते हैं वह नहीं लिया गया है। भगवान् कुन्दकुन्दके समाग आचार्य विद्यानन्दि भी इसी अर्थको स्पष्ट करते हुए श्लोकवार्तिकमें लिखते है तत: सूकं लोकाकाशमादिवव्याणामाधाराधेयता व्यवहारनयाश्रया प्रतिपत्तन्या, बाधकामावादिति । निश्चयनयान तेषामाधारायता युक्ता, व्योमधर्मादीनामपि स्वरूपेऽवस्थानान् । अन्यस्यान्यन्त्र स्थिती स्वरूपसंकरप्रसंगात् । स्वयं स्थानोरन्यन स्थितिकरणमनर्थकम्, स्वयमस्थानो: स्थितिकरणमसंम्भाध्यं शशविपाणवन् । शक्तिरूपेण स्वयं स्थानशीलस्याम्येन व्यकिरूपतया स्थितिः क्रियत इति चेन् सस्थापि व्यफिरूपा स्थिति: तत्स्वभावस्य वा क्रियते (अतत्स्वमायस्य वा)। न च ताबत, तरस्वभावस्य, यसर्थात् करण व्यापारम्य । नाप्यतत्स्वभावस्य, सपुष्पवत्करणानुत्पत्तः । कथमेवं उत्पत्ति-विनाशयोः कारणम् ? कस्यचित् तत्स्वभावस्वासस्वभास्य वा केनचित् तत्करणे स्थितिपक्षोक्तदोषानुषंगादिति चेत् । न, कथमपि सन्निश्चयनयात् सर्वस्य विस्रपोत्पाद-यय-धौव्यव्यवस्थितः। व्यवहारनयादव उत्पादादीनो सहसुकत्वातीतः । श्लोकवार्तिक ५, १६, पृ० ११अर्थ--इसलिये यह अच्छा कहा कि लोकाकारा और धादि द्रक्ष्योंका आधाराधेयभाव ब्यवहारनयसे जानना चाहिये, क्योंकि इसका बाधकप्रमाण नहीं है। निश्चयनयसे उनमें आधाराधेयभाव नहीं है, क्योंकि आकाशकी तरह धर्मादि द्रव्योंका भी स्वरूपमे अवस्थान है। तथा अन्य व्यकी अन्य द्रव्य में स्थिति मानने पर स्वरूपतंकरदोष प्राप्त होता है। स्वयं स्वरूपस्थित पदार्थका दूसरेसे स्थितिकरण होता है ऐसा मानना Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जयपुर (खानिया ) तश्वचर्चा निरर्थक है, क्योंकि स्वयं स्वरूप में अस्थित पदार्थका दूसरेके द्वारा स्थितिकरण ऐसे हो नहीं बनता जैसे शशविषाणका दूसरेके द्वारा स्थितिकरण नहीं बनता। स्वयं शक्तिरूपसे स्थानशील पदार्थको अन्य पदार्थ व्यक्ति (प्रगद-पर्याय) रूप स्थिति करता है। यदि ऐसा * जाया है पार्थ मायाले दूसरे पदार्थकी व्यक्तिरूप स्थिति करता है या अतत्स्वभाववाले पदार्थको । तत्स्वभाववालेकी तो कर नहीं सकता, क्यों कि ऐसा मानने पर करण-व्यापारकी भ्यर्थता होती है। अतत्स्वभाववालेकी भी नहीं कर सकता, क्यों कि आकाशकुसुम जैसे नहीं किया जा सकता उसी.प्रकार असत्स्वभाववाले पदार्थको स्थिति करना भी नहीं बनता । यदि ऐसा है तो दूसरा पदार्थ उत्पत्ति और विनाशका कारण कैसे होता है? क्योंकि तत्स्वभाववाले या अतत्स्वभावधाले किसी पदार्थका किसो दूसरेके द्वारा करना मानने पर स्थितिपक्षमें जो दोष दे आये है वे सत्र प्राप्त हो जायेंगे। नहीं, क्यों कि किसी भी प्रकारसे निश्वयनयको अपेक्षा विचार करने पर सम्पूर्ण पदार्थो का विस्तता उत्पाद, व्यय और घोपको व्यवस्था है। व्यवहारनयको अपेक्षासे विचार करने पर ही उत्पादादिफ सहेतुक प्रतीत होते है । इस प्रकार इन प्रमाणोंसे यह भलीभांति सिद्ध होता है कि एक द्रब्यकी विवक्षित पर्याय दूसरे द्रव्यको विवक्षित पर्यायमें अणुमात्र भी हेर-फेर नहीं कर सकती। केवल कार्यजननक्षम योग्यता तथा निमित्त-उपा. दानकी समस्याप्तिका ज्ञान न होने के कारण ही यह विकल्प होता है कि अमुकने अमुक किया, वह न होता तो वह कार्य हो उत्पन्न नहीं हो सकता था, किन्तु पूर्वोक्त उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि प्रत्येक कार्य अपनो उपादान शक्तिके बल पर ही होता है। इसी अर्थको स्पष्ट करते हुए षट्खण्डागम जीवस्थानचूलिका पृ० १६४ में भी कहा है-- कुदो ? पयष्टिविसेसाबो। ण च सम्वाइंकमाई एयंतेण वज्जात्थमवेक्सिय चे उप्पाजंति,सालिवीजादी जवंकुरस्स वि उप्पत्तिप्पसंगा । ण म तारिसाई सन्याई तिसु वि कालेसु कहिं वि अन्थि,बेसिं बक्षण सालिबीजस्स जवकुरुपायणसणी होज्ज, अणवस्थापसंगादो । तम्हा कम्हि वि अंतरंगकारणादो चेव काजुष्पगी होदि शि णिच्छओ काययो । ___ अर्थ-क्योंकि प्रकृतिविशेष होनसे सूत्रोक्त इन प्रकृतिवांका यह स्थितिबन्य होता है। एकान्तसे बाह्य अर्थकी अपेक्षा करके नहीं उत्पन्न होते है, अन्यथा शालिधान्यके बीजसे जोके अंकुरकी भी उत्पत्तिका प्ररांग प्राप्त होगा। किन्तु उस प्रकारके दम तोनों ही कालोंमें किलो भी क्षेत्र में नहीं हैं कि जिनके बल से शालिधान्यके चीजको जोके अंकुररूपसे उत्पन्न करनेको शक्ति हो सके। यदि ऐसा होने लगे सो अनवस्था शेष प्राप्त होगा, इसलिपे कहीं पर भी अर्थात् सर्वत्र अन्तरंग कारणसे ही कार्यको उत्पत्ति होती हैं ऐसा निश्चय करना चाहिये। यहाँ भिन्न टाईपके वाक्य ध्यान देने योग्य है । इस द्वारा दृढ़तापूर्वक आचार्य वीरसेनने यह स्पष्ट कर दिया है कि सर्वत्र कार्यको उत्पत्ति मात्र अन्तरंग कारण ही होती है। मात्र जिस अन्य द्रव्यकी वियनित पयार्यको उसके ( कार्यके ) साथ वाह्य व्याप्ति होती है उसमें निमित्तताका उपबहार किया जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य वोरसेन वंदनाभावविधानाद्यनुयोगद्वारों में कहते है तस्थ वि पहाणमंतरगं कारणं, तम्हि उपकस्से संते बहिरंगकारणे थोवे वि बहुअणुभागवाददसणादो अंतरंगकारणे थोवे संत बहिरंगकारणे बहुए संते वि बहुअणुभागधादाणुषलंभादो। -धवला पु. ११०३६ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान अ.-उसमें भी अन्तरंगकारण प्रधान है, क्योंकि उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंग कारण स्तोक रहने पर भी बहत अनभागधात देखा जाता है। तथा अन्तरंग कारणके स्तोक होने पर बहिरंग बहुत होते हुए भी बहुत अनुभागपास नहीं उपलब्ध होता। यह जिनागमका तात्पर्य है, जिससे वस्तुस्वभाव पर सम्यक् प्रकाश पड़ता है। पूर्वमें प्रश्न नं० ६ एवं उसको प्रतिशंकाओं के उत्तर स्वरूप लिखे गये लेखोंमें हमने जिनागमके इसी तात्पर्यको ध्यान में रखकर नय और व्यवहारनयको अपेक्षा उसर दिया था। किन्तु हमें देखकर आश्चर्य हुआ कि निश्चयनय और व्यवहारनयको अपेक्षासे जिन्नागममें जो सम्यक व्यवस्था की गई है उसे गौण कर और व्यवहारमयके विषयको मुख्यकर (निश्चयरूप ) मानकर इस प्रतिशका द्वारा यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि कर्मोंने बलात जीवको बांध रखा है। अपने अभिप्रायकी पुष्टिमें अन्य व्यवहारनयके सूचक प्रमाणोंके साथ समयमारको 'सम्मतपडिणिबई' इत्यादि तोन गाथाएं उपस्थित कर उनमें आये हए "मिच्छत्त, अण्णाणं, और कसाय' पदोंका अर्थ प्रतिशंकामें मिथ्यात्व द्रव्यकर्म, मानावरणीय द्रव्यकम और चारित्रमोहनीय द्रव्यकर्म किया है किन्तु यहाँ पर इन पदोंका अर्थ मुख्यरूपसे मिथ्यात्वभाव, अशानभाव और कषायभाव लिये गये हैं। इनके निमित्तरूप कौका यदि ग्रहण हमा है तो गौणरूपसे हो । पण्डितप्रवर राजमलजीने इन तीन गाथाओंको टीकामें आये हुए 'सन्यस्तब्यमिदं समस्तमपि कम' (१०६) इम कलशका अर्थ करते हुए 'कर्म' शब्दका अर्थ मुख्यरूपसे जीवके भाव हो किया है। उसको टोकाका वचन इस प्रकार है ......"इसौ के जो कोई जीव तेने, तत् इदं कहतां सोई कर्म जो उपर ही कहयो थो, समस्तं अपि कहतां जावंत कै शुभ क्रियारूप अशुभ क्रियारूप अन्तर्जदपरूप बहिर्जल्परूप इस्यादि । करतूती रूप कर्म कहता क्रिया अथषा ज्ञानाचरणादि पुद्गलको पिंड अशुद्ध रागादि जीवके परिणाम इसौ कर्म...""-समयसास्कलश टीका पृ० १११ (सूरत वीर सं० २४५७) यद्यपि निमित्तोंका सम्यक् ज्ञान करानेके लिये आगममें कर्मोको मुख्यतासे व्यवहारनय प्रधान कथन बहुलतासे गया है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु इस जीवफे संसारका कारण इसका अपना अपराध ही है ऐसा ज्ञान हए बिना उसकी अज्ञान, मोह राग, द्वेष अरुचि होकर स्वभावका पुरुषार्थ नहीं हो सकता, इसलिये प्रत्येक संसारी जीवको निमित्तोंके विकल्पसे निवृत्त होकर यही निर्णय करना कार्यकारी है यदिह भवति रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतरदपि परेषां दूषणं नास्ति तव । स्वयमयमपराधी तत्र सपत्यबोधो भवतु विदिसमस्तं यास्वबोधोऽस्मि बोधः ।।२२०॥ -समयसार कलश अर्थ-इस आत्मामें जो रागल्वेषरूप दोषोंको उत्पत्ति होती है उसमें परद्रव्यका कोई भी दोष नहीं है, वहां तो स्वयं अपराधी यह अज्ञान ही फैलता है-इस प्रकार विदित हो मोर अज्ञान अस्त हो जाये, में तो ज्ञान है। आगे चलकर इस प्रतियांका में अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया गया है कि द्रव्यप्रतिझमण और तूपअप्रत्याख्यानका माग पहिले होता है। तथा भाव-अप्रतिक्रमण और भाव-अप्रत्याख्यानका त्याग बादमें होता Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जयपुर ( वानिया) सस्वचर्चा है। इस बातको प्रमाणित करने के लिये समयसारजी गाथा २५३-२८४.२८५ के उल्लेख दिये गये हैं 1 तथा अमृतचन्द्रसुरिजी की टीका भी दी है । टीकासे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि(१) रागद्वेष आदि विकृत परिणामोंसे मुक्ति पाने के लिये प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान मादि व्यवहारधर्म अतिवावश्यक है। (२) भाषशुद्धि के लिये पहिने पर पदार्थोका त्याग करना परम आवश्यक है 1 दोनों निष्कर्ष संख्यामें दो होकर भी एक हो भाव व्यक्त करते हैं। वे इस तात्पर्यको प्रकट करते हैं कि द्रम्पप्रतिक्रमण और द्रन्धप्रत्यास्पान अर्थात् व्यवहारधर्म या व्यवहारचारित्र या द्रव्यचारित्र मुख्य है। परीवस्य सरिने पोकामें व्यत्यागके साथ ही भाव-त्याग जब तक नहीं होता तब तक जीवको रागादिका कर्ता बताकर भावत्यागकी मुख्यताको ही स्वीकार किया है। जिससे यह मुचित होता है कि भावप्रतिक्रमण और भावप्रत्याख्यानके साथ जो द्रव्यप्रतिक्रमण और द्रव्य-प्रत्याख्यान होता है वही जिनागममें मान्य है । टोकाके ये शब्द ध्यान देने योग्य है। यदेव निमित्त भत्तं वन्य प्रतिकामति प्रत्याच च तदैव नैमित्तिकमतं भावं प्रतिकामति प्रत्याचष्टे च, यदा तु भाव प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकतेव स्याप्त । अर्थ-जब वह निमित्तभूत दूधयका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है तभी नैमित्तिकभूत भावोंका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान करता है, और जब इन भादोंका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान होता है तब वह साक्षात् अकर्ता ही है। -समयसार गाथा २८३-२८४ टीका प्रतिशंकामें 'व्यवहारचारित्र प्रत्येक दशामें सफल है' इस प्रतिमा वाक्यके साथ जो सर्क दिए गये हैं वे सम्यक नहीं है,क्योंकि मियादृष्टि, अभय और दूरातिदूर भव्य जीव भी मुनिचर्या (व्यवहारचारित्र) के द्वारा अहमिन्द्र पद पा सकता है, जो मोक्षमार्गकी दृष्टिसे मिध्यादर्शनका सहभावी होने के कारण मिथ्यावारित्रका ही नाम पाता है। व्यवहार-चारित्राभास तो उसे कह सकते है पर श्यवहारवारिवनी । जहाँ व्यवहारचारित्र और निश्चयचारित्रम साधक-प्ताध्यपना बताया है वहाँ सम्यग्दर्शन पूर्वक व्यवहार चारिखको व्यवहारसे साधक ही बताया गया है, मिथ्याचारित्रको नहीं। अतः निश्चय चारित्रके साथ बाह्य चारित्रको ही व्यवहारचारित्र कहते हैं, वहां निश्चयचारित्र ही मुख्य है क्योंकि वह आत्माका वीतराग भाव है। सर्वार्थपिद्धि ( अ० ७, मू०१६ ) में पूज्यपादस्वामीने यही व्यक्त किया है। वहाँ प्रश्न किया है कि ऐसा होने पर शून्यागार प्रादिमें वसनेवाला मुनि अगारी और किसी कारण घर छोड़कर अनमै बसनेवाला व्यषित अनगार माना जायगा । वही आचार्य उत्तर देते हैं कि नेप दोषा, मावागारस्य विवक्षितत्वात् । अर्थात् अगार पवसे भावागार ही अर्थ लिया गया है। आगे लिखा है कि-- घने वसमपि च गृह बसन्नपि तदभावदनगार इति च भवति । भावागारका त्याग अर्थात जब अगारके प्रति रागभाव न रहे तब वह घरमें बैठा हो, या वनमें बसता हो 'अनगार' कहा जायगा। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान इस प्रकार विचार करने पर प्रतीत होता है कि जिनागममें सर्वत्र भावचारित्र या निश्चयचारित्रकी ही प्रधानता है, क्योंकि वह मोक्षका साक्षात् हेतु है। उसके होने पर साथमें गुणस्थानपरिपाटीके अनुसार म्यवहारचारित्र होता ही है, उसका निषेध नहीं है । परन्तु ज्ञानीको सदा स्थलाएरमणकी दृष्टि अनी रहती है, इसलिये मोक्षमार्गमे उसको मुख्यता है। मोक्षमार्गका तात्पर्य हो यह है। इस प्रतिशका में प्रसंगवश इसी प्रकारकी सम्बन्धित और भो अनेक चर्चाएं आई है, परन्तु उन सबका समाधान उक्त कथनसे हो जाता है, अतः यहाँ और विस्तार नहीं किया गया है। तुतीय दौर शंका मूल प्रश्न-सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बंधा हुआ है ? और किसीसे बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह बद्ध है तो छूटनेका उपाय क्या है? प्रतिशंका ३ इस मूल प्रश्नके निम्न ४ खण्ड हो सकते हैं:(अ) संसारी जोत्र बर है या मुक्त ? (आ) यदि बद्ध है तो किमसे बंधा हुध है ? (इ) बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? (ई) वदि वह बन है तो छूटने का उपाय क्या है ? (अ) संसारी बोष बद्ध है या मुक्त? इस प्रश्न के सम्बन्ध में आपने अपने प्रथम उत्तर में यह लिखा था कि 'शद्ध निश्च सनयकी अपेक्षा परम-गारिणामिक भावस्वरूप शुद्ध जीवके अन्यकर्म,भावकम और नोकर्मका अभाव होने से वह सकल दोषोंसे विमुक्त है।' इसके प्रमाण नियमसार गाथा ४५को टोकाका वाक्य दिया गया 1 इसका उपर्युक्त प्रश्नसे सम्बन्ध ही नहीं है, क्योंकि परम पारिणामिक भावस्वरूप शुद्ध जीव तीनों कर्मों व सकल दोषोंसे विमुक्त ( रहित ) है । इसमें न बहका कथन है और न मुक्त (बंधपूर्वक मुक्त) का कथन है। 'यदि मुक्तसे अबढ़का अभिप्राय लिया जाये तो मात्र बद्धका उत्तर हमा, किन्तु फिर भी बद्धके विषय में तो कोई उत्तर नहीं दिया गया। दूसरे उत्तर में भी इसके विषय में कुछ नहीं लिखा गया। आपके इस लिखनेसे यह जीव शुद्ध निश्चय नपको अपेक्षासे विमुखत ( अवद्ध) है' यह भी सिद्ध हो जाता है Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया)तत्वचर्चा कि व्यवहार नयसे यह संसारी जीव बद्ध है जैसा कि श्री अमृतचन्द्र सुरिने कलश २५ में कहा है कि 'एकस्य बद्धो न तथा परस्य' अर्थात् 'यह जोव व्यवहारनपसे बंधा है, निश्चय नयसे बंधा हुआ नहीं है।' यह हमको भी इष्ट है। (आ) यदि बंधा हुआ है तो किससे बंधा हुआ है ? इसके प्रथम उप्सरमें आपने कहा था कि 'यह जीव सद्भूत व्यवहारनगसे अपने रागादि भावोंसे बंधा हुआ है । असदभत व्यवहारनयको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मों तथा औदारिक शरीर आदि नोकोकि साथ बद्ध है। इसके पश्चात प्रसंगके बिना पुदगलबंधादिका कथन किया। फिर कहा 'अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा जीव अज्ञानरूप अशुद्ध भावोंसे वास्तत्रसे बद्ध है।' इसपर हमने यह लिखा था कि रागादिक तो कर्मोदयजनित व्यवहारनपसे आत्माके विकारी भाव है, जो बंधके कारण होनेसे भाषबंध कह जाते हैं, उनसे जीवका कयंचित व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध तो है, क्योंकि विकारी पर्याय है। किन्स स्वपर्यायके साथ बंध्य-बंधकभाव कदापि नहीं हो सकता। इसका आपने कोई उत्तर नहीं दिया। इसका अर्थ है कि वह आपको स्वीकृत है। (४) बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? आपने प्रथम उत्तरमें कहा था 'संसारी आत्मा अशुद्ध निश्चयनमकी अपेक्षा अपने अज्ञान भाबसे बद्ध होने के कारण वास्तवमै परतन्त्र है और असद्भुत व्यबहारनयको अपेक्षा उपचरितरूपसे कर्म और नोकर्मकी अपेक्षा भी परतन्त्रता घटित होती है। इसके सम्बन्ध में हमने आप्तपरीक्षा कारिका ११४ को टीकाका प्रमाण देते हुए यह सिद्ध किया था कि आत्मा पौगलिक द्रव्यकों के कारण परतंत्र हो रहा है और रागादि भाव परतन्त्रता स्वरूप है, इसलिये आत्माके भाव स्वयं परतन्त्ररूप है, आत्माको परतन्त्रताके निमित्त नहीं है। इसका भी आपने कोई उत्तर नहीं दिया । इसका अर्थ है कि यह भी स्वीकार है। मूल प्रश्नके इन तीनों खण्डोंके प्रश्नोत्तरोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन तीन खण्डोंके विषयमें हममें और आपमें कोई मतभेद नहीं है । अदभूतव्यवहारनय का लक्षण प्रथम उत्तरमै है । बापने इसी प्रश्नके अपने द्वितीय उत्तर में सर्व प्रथम असदभत व्यवहारनवका लक्षण इस प्रकार किया है-एक द्रव्यके गुण-धर्मको अन्य द्रव्यका कहना यह अद्भूत व्यवहारमय है ।' किन्तु प्रथम उत्तरमें यह कहा था-'अयद्भुत व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ द्रज्यकर्मों तथा औदारिक शरीरादि नोकर्मके साथ बंधा है ।' अर्थात् दो भिन्न वस्तुओंका परस्पर सम्बन्ध असदभूत व्यवहारनयका विषय है। इसी लक्षणको आपने आठ प्रश्नके प्रथम सप्तरमैं इन शब्दों द्वारा लिखा है-'दो या दोसे अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायों में जो सम्बन्ध होता है वह असद्भुत ही है। इस प्रकार आपके द्वारा एक ही प्रश्नके दो उत्तरोंमें असद्भुत व्यवहारनयके दो लक्षण कहे गये हैं। किन्तु यहाँ पर बंधका प्रकरण है और बंध दो भिन्न वस्तुओं में होता है । अतः इस प्रश्नमें 'भिचषस्तुविषयोऽसद्भतज्यवहारः' 'अर्थात् भिन्न वस्तु जिसका विषय हो वह असद्भत व्यवहारनय है', यह लक्षण उपयोगी है। दूसरे यह लक्षण आध्यात्मिक दृष्टिसे है और 'स्वाश्रितो निश्चयः' यह लक्षण भी आध्यास्मिक दृष्टिसे है । अतः दोनों लक्षण अध्यात्मदृष्टिदाले लेने चाहिये । जब निश्चयका लक्षण अध्यात्मनयको अपेक्षासे ग्रहण किया जा रहा है तो व्यवहारलयका लरण भी अध्यात्मनयवाला लेना चाहिये । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान चौथे खण्ड में यह प्रश्न शेष रह गया कि छटनेका उपाय क्या है? इसका असर भी बहुत सरल था कि 'सम्यग्दर्शन-जान-चरित्र' छूटनेका उपाय है। किन्तु यह उत्तर न देकर प्रथम उत्तर में यह लिखकर कि व्यवहारधर्मस बीब छट नहीं सकता, व्यवहारधर्मका सर्वथा निषेध करना प्रारम्भ कर दिया । आपका ऐसा करना अप्रासंगिक था, क्योंकि निश्चय व व्यवहार धर्मसम्बन्धी स्वतंत्र प्रश्न नं.४ है। फिर भी हमको इस पर लिखना पड़ा। अब द्वितीय उत्तरमें आपने निश्चय-व्यवहारधर्म के साथ-साथ प्रेरकनिमित्त तथा नियतिके नवीन प्रसंग उपस्थित कर दिये । यद्यपि निमित्त के लिये स्वतंत्र प्रश्न नं०६ तथा नियतिके लिये स्वतंत्र प्रश्न नं०५ है। फिर भी उत्तरों में अप्रासंगिक कथनोंसे चर्चा जटिल बन जाती है और उलझन पैदा हो जाती है। यह तो सुनिश्चित है कि व्यवहारधर्म साधन और निश्चयधर्म साध्य है। श्री कुन्दकुन्द भगवानने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि ग्रन्धोंम तथा श्री ममतचन्द्रमुरिव श्री जयसेन आपार्यने श्री समयसार, श्री प्रवचनसार व श्री पंचास्तिकायको टोकाओंमें सथा श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहम, श्री ब्रह्मदेवसूरिने बृतद्रव्य संग्रहको टीका तथा अन्य आचार्योने भी भिन्न-भिन्न अन्योंमें यह कथन किया है कि व्यवहारधर्म तीर्थ या स्वर्णपाषाण और निश्चयचर्म तीर्थफल अथवा स्वर्ण है। इसका विस्तारपूर्वक विवेचन प्रश्न नं. ४ के प्रपत्र में हो चुका है जिसमें बहद्रव्यसंग्रह गाथा १३ की टोकाका प्रमाण देते हुए यह भी बतलाया गया है...जो निश्चय-व्यवहारको साध्य-साधकभावरो मानता है वह सम्यग्दृष्टि है अर्थात् ओ निश्चय-व्यबहारको साध्य-सारपसाव नहीं पाता प्रहा . इस हम्पय जय प्रमाण प्रश्न नं.४ में दिये जा चुके हैं। उनको पुनः लिखकर उत्तरका कलेवर बढानेसे कुछ लाभ नहीं है। मात्र प्राचीन गाथा दी जाती है जइ जिणमय पचजह ता मा चवहारणिच्छए मुबह । पुषण विणा छिजइ तित्थं अण्णण उण तच ॥ -समयसार गाथा १२ की टीका अर्थ-हे भव्य जीवो ! यदि तुम जिन मतफा प्रवर्तन करना चाहते हो तो काबहार और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार नयके बिना तो तीर्थ (साधन)का नाश हो जायगा, निश्चयके बिना तत्व (साध्य)का नाश हो जायमा। ___ इतना स्पष्ट आगम होने पर भी आप लिखते हैं-'निश्वय रत्नत्रयस्वरूप जितनी विशुद्धि प्रगट होती जाती है उसके अनुपात में उसके बाह्य में द्रव्यकर्म का अभाव होता हुआ ब्यबहारधर्मको भी प्राप्ति होती जाती है ।' आपका यह लिखना आगमविरुद्ध है । प्रथम तो द्रब्य कर्मोदयके अभाबमें अन्तरंग विशुद्धता प्रगट होतो है, क्योंकि मलिनताका कारण द्रव्यामोदय है और कारण के अभाव में कार्यका भी अभाव हो जाता है । जैसे दोपकके अभाव में प्रकाशका भी अभाव हो जाता है इसी प्रकार व्यकर्मोदयके अभाव में मलिनताका अभाव हो जाने से विशुद्धता प्रगट हो जाती है। जिस प्रकार प्रकाशका अभाव दीपकके अभावका ज्ञापक तो है, क्योंकि दीपक और प्रकाशमैं अविनाभादिसम्बन्ध है, किन्तु कारण नहीं है उसी प्रकार अन्तरंग विशुद्धता कर्मोदसके अभावका ज्ञापक तो है, किन्तु प्रकट कारण नहीं है । जैसे-जैस कमपटलोंका अभाव होता जाता है वैसे-वैसे ही अप्रकट सम्यग्दर्शनादि रलस मुह होता जाता है (पत्रले १ पृ. ४२) प्रथमोपशम राम्यग्दर्शनको उत्पत्तिका क्या क्रम है, जिनको इसका ज्ञान है वे भलिभाँति जानते है Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा कि मिथ्यात्वोदयमें अनिवृत्तिकरण कालमें प्रथम स्थितिके और द्वितीय स्थितिके मध्यके दर्शमोहनीय निषेकोंका अभाव हो जानेसे अन्स रायाममें दर्शनमोहनीयका द्रव्य नहीं रहता और द्वितीय स्थितिके दर्शनमोहनीय कर्मका उपधाम हो जानेसे प्रथम स्थितिकालके समाप्त होनेपर प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है, क्योंकि वहाँ पर दर्शनमोहनीयका अभाव पहले ही हो चुका था (लघिसार)। दूसरे उपर्युक्त गाणाके विरुद्ध निश्चय रत्नाको साधन और व्यवहार रत्नत्रयको साध्य बतलाया वै । आप आगमविरुद्ध कार्यकारणभावको विलोमरूपसे कहते है यही मतभेदका कारण है। दूसरे उत्तर में 'निश्चवनयको अपेक्षा विचार करनेगर जोब स्वयं श्राने अपराधके कारण बद्ध है, अन्य किसोने बलात बाँध रखा है और उसके कारण वह बंध रहा हो ऐसा नहीं है ।' आपका ऐसा कथन आगमविरुद्ध है, क्योंकि निश्वयनयको दृष्टि में आत्मा बद्ध नहीं है। जैसा कि समयसार गाथा १४१ को टीका श्री अमृतचन्द्र आचार्यने कहा है-'जीत्र और पुदगलकमको एक बन्ध पर्यायपनसे देखनेपर उनमें अत्यन्त भिन्नताका अभाव है, इसलिये जीवमें कर्म बद्धस्पष्ट है, ऐसा व्यवहारलगका पक्ष है। जीवको तथा पुदगलको अनेक द्रब्यपन से देखनपर उनमें अत्यन्त भिन्नता है, इसलिये जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है. यह निश्चयनयका पक्ष है।' इसीको कर्ता कर्माधिकार कलश नं० २५ में इन शब्दोंमें कहा है-'एकस्य बद्धो न तथा परस्य' अर्थात् व्यवहारनयकी अपेमा आत्मा बद्ध है, निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मा बद्ध नहीं है। क्योंकि निश्वयनयका विषय दो द्रव्योंका या दो द्रव्योंकी पर्यायोंका सम्बन्ध नहीं और अकेले जीबके बंधको उपपत्ति नहीं बनती जैसा कहा भी है--'स्वयं पकस्य पुण्यपापानवसंघरनिराधमोक्षानुपपस। -समयसार गाथा १३ रीका आप लिखो हैं--पालन शानदारयको अपेक्षा उसके उस अपराधको ज्ञानावरणादि कर्मोंपर आरोपित कर यह कहा जाता है कि ज्ञानावरणादि कमौके कारण यह पद' असभा ज्यालयकी अपेक्षा जोव ज्ञानावरणादि कर्मोंसे बद्ध है यह बात सत्यार्थ है, किन्तु आपने इस सत्य सरल कथनको तरोड़-मरोड़कर आरोपित आदि शब्दों के प्रयोग द्वारा असत्य तथा जटिल बनानेका प्रयास किया है जो शोभनीक नहीं है। व्यवहार और निश्चव दो नय है और भगवान का उपदेश भी इन दो नयों द्वारा हुआ है। दोनों ही मयोंका विषय अपना-अपनो नयकी दृष्टि से सत्यार्थ है। किन्तु एक नयको दृष्टि में दूसरे नयका विषय न होनेस उस दूसरे नयके विषयको अभूतार्थ कहा जाता है । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे नयका विषय आकाशके पुष्पके समान सर्वथा अप्रत्यार्थ है । इम्रो वातको श्री अमृत चन्द्र सूरि समयसार गाथा १४ में इन शब्दों द्वारा प्रकट करते हैं-अनादि कालो बँधे हुए आत्माका, पुद्गलकमों से बंधने-स्पर्शित होनेरूप अवस्थासे अनुभव करनेपर बद्धस्पृष्टता भूतार्थ है-पत्यार्थ है, तथापि पुद्गलसे किंचित् मात्र भो स्वर्शित न होने योग्य आत्पस्वभावके समीप जाफर अनुभव करने पर बद्धस्पृष्टता अभतार्थ है-असत्यार्थ है।' अर्थात् जीवको एक ही बंध अवस्थाको व्यवहार और निश्चय दो भिन्न-भिन्न दृष्टिषोंसे देखने पर सत्यार्थ और असत्यार्थ दिखाई देलो है । इसका यह अर्थ नहीं है कि व्यवहारनय असत्यार्थ है या व्यवहार मय का विषय सर्वया असत्यार्थ है। 'जीव ज्ञातावरणादि कर्मों से बद्ध है' जब यह उपवहारनयको दृष्टि से सत्यार्थ है तो उसमें जो आरोपादि शब्दों का प्रयोग हुआ है वह विपरीत मान्यताके कारण हुआ है। श्री श्लोकदातिक पृ० १३१ पर भी कहा है ___ तदवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विधः सम्बन्धः संयोग-समवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमाधिकः एव न पुनः कल्पनारोपितः, सपंथाप्यनवद्यत्वात् । ___ अर्थात् व्यवहारनय से दो पदार्थों में रहनेवाला कार्यकारणभाव परमार्थ है, काल्पनिक नहीं तथा सर्वथा निर्दोष है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान अन्य प्रश्नों के उसमें आपने भी व्यवहारनय विषयको सत्यार्थ माना है। 'मोहनीय मावि द्रव्यकमोंका क्षय होता है तब विकारका निमित्त कारण हट जानेसे आत्माके रागद्वेष आदि नैमितिकभाव दूर हो जाते है, व 'कर्म, रागद्वेष आदि आत्मा के विभागभावोंके प्रेरक निमित्तकारण हैं और रागद्वेष आदि आत्मा के विकृत भाव मोहनीय आदि कर्मके प्रेरक निमित्त कारण हैं । इन दोनों कोंको आप परस्पर विरुद्ध बतलाते हैं किन्तु इन दोनों कचना कोई विद्धता नहीं है। जिस प्रकारका जिसने अनुमानको लिये प्रातिया कर्मो का उदय होता है उसके ते हैं। इसका सविस्तर कथन प्रथम प्रश्न के द्वितीय पत्र हम कर चुके हैं। स्थावर्ती क श्रेणीवाले जीवके परिणाम बहुत विशुद्ध होते है और उदयगत मोहनीय अतिसूक्ष्म होती है, किन्तु उस सूक्ष्म लोभके अनुरूप आत्माके परिणाम होत है उदद्यागत घातिया कर्मों के अनुरूप आत्मा के परि शाम होते है, इसलिये कर्मों को प्रेरक कारम कहा है। सहकारी कारणोंके सम्बन्ध सहित राग-द्वेषरूप आत्मापरिणाम से कर्मबंध होता है अतः आत्मपरिणाम कर्मसंघ के कारण हैं । कहा भी है- सूक्ष्मसाम्पराय कर्मो को शक्ति प्रेयते कर्म जीवन जीवः प्रेयंत कर्मणा । एतया: प्रेरको नान्यो नी नाविकसमानयोः ॥ १०६ ॥ ५६९ - उपासकययन पृ० २९ ज्ञानपीठ बनारस अथवा यशस्तिलकप अर्थ- जीव फर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीवको प्रेरित करता है। इन दोनोंका सभ्यम्य मौका ओर विके समान है। कोई तीसरा इन दोनोंका प्रेरक नहीं। क्लेशाय कारणं कर्म विशुद्धे स्वयमात्मनि । मोष्णमम्बु स्वतः किन्तु तदौष्ण्यं वह्निसंश्रयम् ॥ २४७ ॥ - उपासकाध्ययन क्लेशका कारण है। जैसे जल स्वयं गर्म नहीं होता, अर्थ - आत्मा स्वयं विशुद्ध है और कर्म उसके किन्तु आग के सम्बन्धसे उसमें गर्मी आ जाती है । कर्मोदयले ( रागद्वेष मोह ) का कारण है। हो जाने पर रागद्वेषादि कार्यका भी अभाव हो जाता है। प्रकार कहा है । जब दोनों कथन आगमानुकूल हैं तब उनमें जिनमके अनुरूप कार्य हो वह प्रेरक तिमि मा को यह कैसे ज्ञात हो गया कि जो निमित्त बलात् कार्य स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे पर में उत्पन्न करता हो वह प्रेरक निमित्त है ।' स्वालका अर्थ परिणमन है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभावसे प्रतिक्षण परिणमन करता रहता है। यह लक्षण सब द्रव्यों में घटित हो जाता है, इसलिये यह उनका स्वकाल है। इसी प्रकार श्रीमान् ६० फूलचो भी ० ६५ के विशेषार्थ कहा है- कमका क्षय हो जानेपर वर्षात् कारणका अभाव मोलशास्त्र अध्याय १० प्रथम सूत्र भी इस परस्पर विरोध आपको कैसे दृष्टिगोचर हो गया । स्वकालका अर्थ ग्रहण होनेसे उसका अर्थ परिणमन लिया गया है। जितने भी पदार्थ है वे यद्यपि सदा ही परिणमनशील हैं स्यापि इस परिणमनकी धारामै एकरूपता बनी रहती है, जीवका अजोब ही जाय, या अजीवका जीव हो जाय ऐसा कभी नहीं होता। कालके इस लक्षण द्वारा आगे पीछेका प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरे आप भी जानते हैं और प्रत्यक्ष अनुभव में भी आता है कि विकारी पर्यायोंका कोई काल सर्वधा नियत नहीं है। जिस समय उभय ( अंतरंग ७२ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जयपुर (स्लानिया ) तत्त्वचर्चा बहिरंग) निमित्ताधीन जो कार्य हो गया वह ही उसका स्वकाल है। प्रतिसमय परिणमद करना द्रव्यका स्वभाव है, किन्तु अशुद्ध द्रव्य के अमुक समय अमुक ही पर्याय होगी ऐसा सर्वथा नियत नहीं है। जब काल, सर्वथा नियत नहीं सो आगे-गीछेका कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। इसका विशेष विधचन प्रश्न नं०५ में है। आप लिखते है जिस प्रकार कर्मोदय-उदोरणा है, उसी प्रकार राग हेप परिणाम भी हैं। अत: कर्म आत्माको बलात् परतंत्र रखेगा और राग द्वेष परिणाम बलात् कर्म बंध कराता रहेगा। ऐमी व्यवस्था में यह आत्मा त्रिकाल में बन्धनसे टूटने के लिये प्रबल पुरुषार्थ कभी नहीं कर सकेगा और प्रबल परुषार्थक अभा में मुक्तिको व्यवस्था नहीं बन सकेगी।' जो कर्मशास्त्रसे अनभिज्ञ है उनको इस प्रकारकी शंका उठा करती है, किन्तु जो कर्मशास्त्र के विशेषज्ञ है वे भलीभांति जानते है कि प्रत्येक समयमें जो द्रव्यकम बंधता है उसमें नाना वर्गणाएँ होती है और सभी वर्गणओम समान अनुभाग (फलदान शक्ति नहीं होती, किन्तु भिन्नभिन्न वर्गणाओंमें भिन्न-भिन्न अनुभाग अर्थात किसी वर्गणामें जघन्य किसी में मध्यम और किसों में उत्कृष्ट अतु. भाग होता है। मध्यम अनुभागके अनेक भेद है और वर्गणा भी नाना है। इस प्रकार जिस समय जमा अनुभाग उदयमे माता है जो अनुरूप का परिणाम होते है, क्योंकि कर्म के अनुभवनका नाम उदय है । कर्मणामनुभवनमुदयः । उदयो मोज्यकालः । -प्राकृतपंचसंग्रह प०६७६ भारतीय ज्ञानपीठ अर्थात कर्मका अनुभवन उदय है और कर्म के भोगनेका काल ही उदय है। हर समय एक प्रकारका उदय नहीं रहता, क्योंकि वर्गणाओंके अनुभागमें तरतमता पाई जाती है। जिस समय मंद अनुभाग उदयम आता है उस समय मंद कपाषरूप परिणाम होते है और उस समय ज्ञान व वीर्यका वायोपशमविशेष होनेसे आत्माको शक्ति विशेष होती है। उस समय यदि यथार्थ उपदेश आदिका बाह्य निमित्त मिले और यह जीव तत्त्वविचारादिका पुरुषार्थ करे तो सम्यक्त्व हो सकता है । जैसे जिस समय नदीका वगाय मंद होता है उस समय मनुष्य यदि प्रयत्न करे तो पार हो सकता है । यह ही प्रश्न श्री ब्रह्मदेष सूरिके सामने भी उपस्थित हुआ था। उन्होंने बुहब्यसंग्रह गाथा ३७ को टोकामें इस प्रकार समाधान किया है जो ध्यान देने कोग्य है यहाँ शिष्य कहता है-संसारी जीवके निरन्तर कर्मबन्ध होता रहता है, इसी प्रकार मोंका उदय भी होता रहता है, शुद्ध आत्मध्यानका प्रसंग ही नहीं, तब मोक्ष कैसे हो सकती है? इसका उत्तर देते हैंशत्रुको निर्दल अवस्था देखकर जैसे कोई बुद्धिमान विचार करता है कि यह मेरे मारने का अवसर है, इसलिये पुरुषार्थ करके शत्रुको मारता है । इसी प्रकार कमांकी भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती, स्थिति औ अनभागकी न्यनता होने पर जब कर्म लघु अर्थात मंद होते हैं तब बसमान मध्य जीव, आगम भाषासे क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना प्रायोग्ण और करण इन पांच लब्धियों। और अध्यात्मभाषाम निज शुद्धात्माके सम्मुख परिणाममयी निर्मल भावना विशेषरूप खड्गसे पौरूष करके कर्म शत्रुको नष्ट करता है। इसी बातको इष्टोपदेशके टोकाकारने भी इन शब्दों द्वारा कहा है ऋत्य बि बालयो जीवो कस्थ वि कम्माइ हुप्ति बलियाई । जीवस्स य कम्मरस य पुश्वविद्धाइ बहराइ ।। -इटोपदेश गाथा ३१ टीका Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान अर्थ-कभी जीय बलवान होता है तो कभी कर्म बलवान हो जाता है। इस तरह जीव और कर्मों का अनादिसे त्रैर चला आ रहा है। इससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि सदाकाल कर्मोदय एक प्रकारका नहीं रहता, इसलिये जब जोव बलवान होता है तब जीव अपना हित चाहता है जैसा कि इष्टोपदेश गाथा ३१ में कहा है जीवो जीवहित ..... स्वस्वप्रभावभूयस्वे स्थार्थ को वा न वाञ्छति ।। अर्थात् जीव, जीवका हित चाहता है । सो ठीक हो है, अपने प्रभावके बढ़ने पर अपने स्वार्थको कौन नहीं चाहता । अर्थात् जीवके बलवान् हो जाने पर जीव अपना अनन्तसुखरूपी हित करता है । इन बागमप्रमाणोंसे सिद्ध हो जाता है कि कर्मको प्रेरक निमित्तकारण मानने पर भी मोक्षरूपी पुरुषार्थमें कोई कठिनाई नहीं आती। प्रेमाणाः पुद्गला:' का जो वाध्य अर्थ है वह ही जिनागममें इष्ट है, क्योंकि शब्दोंका और अर्थका परस्पर वाच्य-वाचवराम्बन्ध है। इस सम्बन्धको स्वीकार न करके शब्दोंका यदि अपनी इच्छा अनुसार अर्थ किया जायगा तो सब विष्लन हो जायगा संसारमें कोई व्यवस्था न रहेगो । 'प्रेक्षमाणाः' शब्दसे यदि आचार्यों को प्रेरक अर्थका बोध कराना इष्ट नहीं था लो वे अन्य शब्दका प्रयोग कर सकते थे। अत: आपका यह लिखना 'आगम में प्रेयमाणाः पुद्गलाः इत्यादि वचन पढ़कर प्रेरक कारण स्वीकार करना अन्य बात है पर उसका जिनागममें क्या अर्थ इष्ट है इरो समश कर सम्यक् निर्णयपर पहुंचना अन्य बात है।' ठीक नहीं है, क्योंकि स्वइच्छा अनुसार अर्थका अनर्थ करके अपनी गलत मान्यताको पुष्ट करना उचित नहीं है। आपने जो समयसार गाथा ११६ का टीकार्थ उद्धृत किया है उससे यह सिद्ध नहीं होता कि जीव परिणाम निमित्त बिना ही पुद्गल द्रव्य कर्मभावरूप परिणम जाता है । उसमें तो मात्र उन अन्य मतोंका खण्डन किया है जो द्रव्यको सर्वथा अपरिणामी अर्थात् नित्व कूटस्थ मानते हैं। यदि आपके अभिप्रायानुसार यह मान लिया जावे कि आत्मपरिणाम निमित्त बिना पदगल कर्मभावहा परिणम जाता है तो समयसार गाया ८०.८१ से विरोष आ जायगा जिस में 'जीवपरिणामहेदु' शब्द है। करता है, परिणमाता है. उत्पन्न करता है. ग्रहण करता है, त्यागता है, जांधता है, प्रेरता है' इत्यादि शब्दों द्वारा आगममें प्रायः प्रेरकनिमित्तको सामथ्र्यको प्रकट किया है। स्त्रकालका उत्तर ऊपर दिया जा चुका है। रामयसार गाया १०७ व उसकी टोकासे स्पष्ट है कि वह गाथा निमित्तकारणकी अपेक्षासे नहीं लिखी गई, किन्तु उपादानकी अपेक्षा लिखी गई है। जैसा कि टोकामें व्याप्यव्यापक' शब्दसे स्पष्ट है। इससे प्रेरक निमित्तकर्ताका खण्डन नहीं होता । निमित्तकर्ताको आपने स्वयं प्रश्न नं०१ब प्रश्न नं०१६ के उत्तरमें स्वीकार भी किया है। श्लोकवातिक ए० ४१. का कथन प्ररक निमित्तकारणके विषयमें नहीं है, किन्तु धर्मादि द्रव्योंके विषयमें है जो अप्रेरक हैं। दूसरे निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध निश्चयमयका विषय नहीं है, किन्तु व्यवहारनयका विषय है, क्योंकि दो या दोसे अधिक भिन्न वस्तुओंका परस्पर सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है। जैसा कि 'भिन्नवस्तुविषयाऽसद्भुतन्यवहारः।' आलापपद्धतिमें कहा है और बापने भी इसी प्रश्न प्रथम तत्तरमें माना है। इसीलिये थो श्लोकवार्तिक १०४१. पर यह स्पष्ट लिख दिया है कि 'व्यवहारमयको अपेक्षास विचार करने पर ही मुत्पादादिक सहेतुक प्रतीत होते है।' और पृ० १५१ पर भी लिखा है- 'व्यवहारनयका Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ जयपुर (खानिया ) तब चर्चा आश्रय करने पर कार्य कारणभाव दो पदाथोंमें रहनेवाला भाव सिद्ध होता है वह वास्तविक है, काल्पनिक नहीं है, सर्वया निर्दोष है।' ६ ९० १९९ में , रति तथा देवगति, समचतुरस्वसंस्थान आदि ११ शुभनामकर्म व गोत्र कमका उत्कृष्ट स्थितिबंध दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम बतलाया है और सूत्र १८ में नपुंसकबंद, अरति शोक, भग, जुगुच्छा तथा नरकगति तिर्यग्यगति, एकेन्द्रियजाति पंचेन्द्रियजाति आदि नामकर्मकी प्रकृतियोंका व नीमगोत्रका उत्कृष्ट स्थितिबंध बीस कोकोही सागरोगन कहा है। इसपर प्रश्न स्वाभाविक है कि नोकषाय, नामकर्म व गोत्रको उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध एक समान होना चाहिये यह विभिन्नता क्यों ? इसका उतर भी वीरसेनस्वामीने पृ० १६४ में दिया है उसका तात्पर्य यह है कि (१) मूत्र १६ को प्रकृतियोंकी अपेक्षा सूत्र १८ को प्रकृतियोंमें विशेषता है, इसलिये इनके उत्कृष्ट स्थितिबंध में मर है। (२) सभी कार्य एकान्तसे वाह्य अर्थ ( कारण ) को अपेक्षा करके ही नहीं उत्पन्न होते । इसलिये कहीं पर भी अंतरंग कारण ही उपादान कारणके समान } कार्यको उत्पति होती है ऐसा निश्चय करना चाहिये । यहाँ पर शालि धान्यके बीजसे जोको उत्पतिका निषेध करने से भी यह ही फलितार्थ होता है कि अंतरंग कारणसे ही अर्थात् उपादानकारणके समान ही कार्यको उत्पत्ति होती है, क्योंकि, उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति वचनात् । I अर्थात् उपादानकारणके सदृश कार्यकी उत्पत्ति होती है ऐसा आगमका वचन है। मं० २में 'कान्स' शब्द पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस नं० २ में उनको मान्यताका निषेध किया गया है जो उपादानको शक्ति बिना हो ना निमित्तकारणों से कार्यको उत्पत्ति मानते है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि निमित्तकारणोंके विना हो कार्यको उत्पत्ति हो जायगी। 'एकान्तमेादके प्रयोग को कोई आवश्यकता में थी कार्य उपादान के सदृश होता है तथापि ऐसा भी नहीं है— उसपर बाह्य कारणोंका प्रभाव न पड़ता हो ! बहके बही बीज होनेपर भी भूमिकी विपरीततासे निष्पत्ति ( फल ) की विपरीतता होती है, अर्थात् भूमिमें उसो वोजका अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमिमें वही अन ख़राब हो जाता है वा अन्न उत्पन्न हो नहीं होता ( प्रसार गाथा २५४ को टीका | इसी प्रकार वा अरु एक हो प्रकारका हैं, किन्तु नीम के वृक्ष सम्बन्यसे वह कटुक रसरूप परिणम जाता है और इसके ससे वह मधुर रस परिणम जाता है । इस प्रकार के अनेकों दृष्टान्त आगम में दिये गये हैं और प्रत्यक्ष भी अनुभव में आते हैं । इस प्रकार धवल पू६० १६४ से निमित्तकारणका लण्डन नहीं होता, मात्र इतना सिद्ध होता है कि उपादानके कार्य होता है। लोगे लोहे के आभूषण बनेंगे और सुवर्ण आभूषण यी यह वो नियम है तु अमुक अमुक ही आभूषण बनेगा ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि काको उत्पति अंतरंग और बहिरंग निताधीन है ऐसा वस्तुस्वभाव है। (स्वयंभू ६० ) अनः यह लिखना ' कार्यको उत्पत्ति मात्र । | 'सत्र अंतरंग कारणसे ही होती है।' एकान्त मिथ्यात्वका द्योतक सभा आगम व प्रत्मविरुद्ध है तथा स्ववचन बाधित भी है क्योंकि आप ०११ के प्रथम उत्तर में स्वभाव पर्याय में कालादि साधारण निमित्त तथा विकारी पर्याय विशेष निमित्त स्वीकार किये हैं। इसी प्रकार अन्य प्रश्नो के उत्तर भी आपने अंतरंग और Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५७३ बहिरंग दोनों कारणों से ही कार्यको उत्पत्ति स्वीकार की है। प्रश्न नं. १के वितीय उत्तर में मापने स्त्रय लिखा है-ऐसा नियम है कि प्रत्येक प्रश्यके किसी भी कार्यके पृथक उपादान कारणके समान उत के स्वतंत्र एक या एकसे अधिक निमित्तकारण भी होते हैं । इसीका नाम कारवसाकल्य है । और इसीलिये जिन आगममें सर्वत्र यह स्वीकार किया गया है कि उभय निमित्तसे कार्यकी उत्पत्ति होती है। आपने घवल पु.१२ १०३६ को कुछ पक्तियोंको उद्धृत करते हुए वह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अंतरंग कारण प्रधान है। यदि वह पूर्ण प्रकरण दे दिया गया होता तो यह स्पष्ट हो जाता कि अंतरंग कारण से क्या प्रयोजन है। अब प्रश्न यह रह जाता है कि सर्वच अंतरंग कारण प्रधान है या इस स्थलपर प्रधान है ? सर्वप्रथम विवक्षित स्थलकी मीमांसा की जाती है। पृ. ३५ सूत्र ४६ में यह कहा गया है कि 'भाषकी अपेक्षा नामकमकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है।॥४६॥' इसके पश्चात् सूत्र ४७में यह कहा गया है कि 'उससे ( नामकर्मको जघन्य वेदनासे ) वेदनीयकर्मकी जघन्य वेदना अनन्तगुणी है १४७॥ वेदनीयकर्मकी जघन्य बंदना चौदहवें गुणस्थानके अन्तिम समय में होती है । जिसके असाता धेदनीयका उदय होने के कारण साता वेदनीयका द्विचरम समयमें क्षय हो गया है और चरम समयमें मात्र असातावेदनीय रह गई है। और नामकर्मका जघन्य अनुभाग, हतसमुत्पत्तिक कर्मयाले सुक्ष्म निगोदिशा जीके होता है। इसपर यह शंका हुई कि बदनीय कर्म ( असाता वेदनीयकर्म) का अनुभाग सपकश्रेणीम संसात हजार अनुभाग काण्डकघातों के द्वारा प्राप्त हो चुका है, इसलिये जो चिरंतन अनुभागकी अपेक्षा अनलगुणा हीन होता हुआ अयोगवलीके अन्तिम समयमें एक निवेकका अवलंबन लेकर स्थित है वह भला जो अपक्थेणीम घातको नहीं प्राप्त हुआ है और जो संसारी जीवोंके काण्डकघातोंके द्वारा अपने उत्कृष्टको अपेक्षा अनन्तगुणा हीन है, ऐसे नामकर्मके अनुभागले अनन्तगुणा कोसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए श्री दोरोन स्वापी लिखते है-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि केवल भकषाय परिणाम ही अनुभागघातका कारण नहीं है (अर्थात् कर्मों को फलदानशक्तिके घातका कारण नहीं है) । किन्तु प्रकृतिगत शक्तिकी अपेक्षा रखनेवाला परिणाम अनुभागपातका कारण है। उसमें भी तरंग कारण प्रधान है, उसके उत्कृष्ट होनेपर बहिरंग कारण स्तोक रहनेपर भी अनुभागघात बहुत देया जाता है तथा अंतरंगके स्तोक रहनेपर बहिरंग कारणके घहुन होते हुए भी अनुमागघात बहुत नहीं होता।' यहाँ पर यह विचार करना है कि अंतरंग कारण कौन है 'अपाय परिणाम' मा प्रकृतिगत शक्ति की अपेक्षा रखनेवाला परिणाम । अकषाय परिणाम तो जौबका है और 'प्रकृतिगत शक्तिकी अपेक्षा रखनेवाला परिणाम' पुद्गलका है । यहाँपर पुद्गल परिणामको अंतरंग परिणामसे ग्रहण किया है और जीवपरिणामको बहिरंग कारण ग्रहण किया है। जो मात्र आत्मपरिणामस मोक्ष मानते है उनके लिये यह विद्यारणोय हो जाता है कि दृश्यकमकी शनित भी अपेक्षित है, मात्र अपाय परिणामसे ही कमौका घारा संभव नहीं है। इसी धवल पुस्तक १२ में सहकारी कारणों की प्रधानता स्वीकार की गई है 'शंका-एक परिणाम भिन्न कार्योको करनेवाला कैसे होता है? नहीं, क्योंकि, सहकारी कारणों के सम्बन्ध भेदसे उसके भिन्न कार्याक करने में कोई विरोध नहीं है।' -पृ. ४५३ । 'शंका-एक संक्लंकासे असंण्यात लोकप्रमाण अनुभागसम्बन्धी छह स्थानोंका बन्ध कैसे बन सकता है। उत्तर--यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, अनुभागबन्धाध्ययसानोके असंख्यात लोकप्रमाण छह स्थानोंसे सहित सहकारी कारण भेदके कारण, एक ही रांबलेशसे ।कारी कारणोंके भेदीकी संध्याके बराबर अनुभाग स्थानोंके बन्धमें कोई विरोध नहीं आता।--पु. ३० । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वपर्चा 'असंख्पात लोकमात्र उत्सर (बहिरंग) कारणों की सहावसायुक्त उत्कृष्ट अन्तिम एक विशुद्धिके द्वारा बांधे जानेवाले अनुभागके स्थान असंख्यात लोकमात्र है।'-१० १२० । इसी वंदना भावविधानानुयोगड़ा के इन तीन कथनास यह सिद्ध हो गया कि बाह्य सहकारी कारणोंके भेदसे एक ही परिणामसे नाना प्रकारका अनुभागबन्न होता है। अर्थात् मात्र सहकारी कारणोंके भेदसे अनुभागबन्ध में अन्तर पड़ जाता है। यहां पर सहकारी कारणकी प्रधानता है। इस विषय में एकान्त नियम नहीं, किन्तु अनेकान्त है । कहीं पर अन्तरंग कारणकी प्रधानता होती हैंतो कहीं पर महकारी कारणों को प्रधानता होता है। सहकारी कारणों की प्रधानताको स्पष्ट करते हुए श्री वीरसेन स्वामी धवल पु० १ संतपस्वणाणुयोगद्वार सूत्र १२१ की टीका में लिखते है 'मात्र संयम ही मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्तिका कारण नहीं है, किन्तु अन्य भी मनःपर्ययज्ञानकी पत्तिके कारण है. इसलिये उन दसरे इंतुओं के न रहनेसे समस्त संयतीके मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। वे दूसरे कौनसे कारण है ? विशेष जानिक द्रव्य, क्षेत्र, कालादि अन्य कारण हैं जिनके बिना संयतों के मन:पर्थयज्ञान उत्पन्न नहीं होता है।' इस प्रकार 'मात्र उपादान कारणसे ही कार्यको उत्पत्ति हो जाती है और बाह्य कारण अकिंचित्कर है इस एकान्त मान्यताका इन आगम प्रमाणोंसे रखण्डन हो जाता है। प्रश्न नं०६ के उत्तरीकी चरचा तो यथास्थान की जा चकी है। आपने यह लिखा है कि व्यवहारके विषयको निश्चयरूप मानकर उत्तर दिये गये है। इसमें यदि "निश्चय' से अभिप्राय वास्तवका है तो हमको इष्ट है। यदि अभिप्राय मिश्चयनयसे है, तो आपने निरनयनयको स्वरूप पर दृष्टि नहीं दी। निश्चयनयकी दृष्टि में न बंध है, न मोक्ष है। बन्च तो व्यवहारनयका विषय है। आप अन्धको भी निश्चयनयका विषय बनाकर बाह्य कारणांका लोग करना चाहते है जो कि आगम और प्रत्यक्षसे विरुद्ध है। रामयसारकी 'सम्मत्तपतिपिवळू' इत्यादि तोन गाथाओंमें 'मिच्छतं अपणा और कथाय' का अभिप्राय द्रव्यकमसे है, जैना कि इन वोग माथाको उत्थानिका, दोका तथा कलश ११० से १४ है। उत्थानिका इस प्रकार है कमप्पो मोक्षहेतुतिरोधायिभाव दर्शयति । अर्थ-आगे कर्मका मोलके कारणभत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रोंका तिरोधामिएन दिखलाते है। - दूसरी टीकाको उत्थानिका अथ पूर्व मोक्ष हेतुभूतानां सम्यवत्वादिजीवगुणानां मिथ्यस्यादिकर्मणा प्रच्छक भवतीति कथितम् । इदानीं सदगुणाधारभूतो गुणी जीवो मिथ्यात्वादिकर्मणा प्रच्छाद्यते इति प्रकटीकरोति । ___ अर्थात् पूर्व गाथा १६० में 'सवणपणदरिसी कम्मरएण अवच्छण्णो' (सबको जाननेवाला और देखनेवाला है तो भो कर्मरूपी रजमे आच्छादित हुआ) पदके द्वारा यह बतलाया जा सका है कि मोक्ष के कारण सम्यक्त्वादि जीवगण मिथयात्वादि कमौके द्वारा आच्छादित हैं। अब उन गुणोंका आधारभूत गुणी जीव, मिथ्यात्वादि कोंके वारा आच्छादित है इस बातको प्रकट करते है। इन तीनों गाथाओंकी टीकाम श्री जयसेन आचार्य लिखते है-- शुभाशुभमनोवचनकायन्यापाररूपं तद्न्यापारेणोपार्जितं बाशुमाशुभकर्म मोक्षकारणं न भवनि । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका और उसका समाधान 404 अर्थात् शुभाशुभ मन-वचन-कायका व्यापार तथा उस व्यापारसे उपार्जित शुभाशुभ कर्म मोक्षके कारण नहीं होते । - शुभाशुभ मन-वचन-काययोग के द्वारा शुभाशुभ कर्मका आसव होता है ऐया तत्वार्थसूत्र अध्याय द्रव्पकर्मका छह कहा गया है। इस टोकासे भी स्पष्ट है कि इन तीन गाथाओं कर्मसे अभिप्राय से है। इस गाथाओंके दूसरे कला में लाये हुए चावल्यामुपेति' (जब तक कर्म विनाका नव है) तथा 'समुल्लसस्यवंशतो कर्म' (कर्मके उदयको जबरदतीने आरमाके पद बिना कर्म होता है) इसी कलशको जयचन्द्र उत्थानका महान् विधम् तथा अनेकों प्रत्यों के आगमानुकूल अनुवाद करनेवाले श्रीमान् इस प्रकार लिखते हैं - आगे आशंका उत्पन्न होती है कि अविस्तसम्यग्दृष्टि आदिके जब तक कर्मोदय हैं तब तक ज्ञान मोक्षका कारण कैसे हो सकता है। इसका भी १११ का जो है कि लोग गायायोंमें कर्मका प्रकरण है। कलश मं० आपने दिया है उनमें भी अनावरणादि मुगल' पदयातक है। आप लिखते है कि 'यद्यपि निमित्तोंका सभ्यानान करानेके लिये मागम कर्मीको व्यवहारनयप्रधान कथन बहुबललासे आया है इसमें सन्देह नहीं, परन्तु हम अबको संसारका कारण इसका अपना अपराध है ।' 'इसमें यद्यपि निमित्तोंका सम्यग्ज्ञान करानेके लिये वे शब्द किसी आगमके तो है नहीं, किन्तु आपको जो नवीन कल्पना है जो कि मान्य नहीं है। व्यवहारनय प्रधान इसलिये है कि दो भिन्न क्योंका परस्पर सम्बन्ध व्यवहारनयका विषय है, निश्चयनयका विषय नहीं है ऐसा आपको भी स्वीकार है। 'अपराध' सहेतुक है या निर्हेतुक हैं? यदि निर्हेतुक है तो वह जीवका स्वभाव हो जायगा और नित्य हो जायगा क्योंकि जो स्व-प्रत्यय नहीं वह स्वाभाविक पर्याय है ऐसा आपने प्रश्न नं० ४ व ११ के उत्तर में स्वीकार किया है। दूसरे जिसका कोई हेतु नहीं होता और विद्यमान है वह नित्य है ( आप्तपरीक्षा पृ० ४ वीर सेवामन्दिर ) यदि अपराध सहेतुक है वो हेतुके अभाव के बिना अपराधका भी अभाव नहीं हो सकता। जैसा कि समयसार गाथा २०३-२८५ की टीका श्री अमृतचन्द्र आचार्दनं स्पष्ट शब्दों में लिखा है- 'आत्मा आपसे रागादि मावका अकारक है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि पर अन्य तो निमित्त है और नामसिक आत्मा के रागादिक भाव (अपराध) है। जब तक रागादिकका निमित्तभूत पर का प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान न करे तब तक नमिशिकनूत भगादि भारों (पथ) का प्रतिक्रमण प्रत्याश्यान नहीं हो सकता। इसलिये अपराधके कारण पर-द्रव्यका प्रथम त्याग होना चाहिये। उस के पश्चात् ही अपराधका दूर होना सम्भव है यह है कि अपराध दूर हुए विश्व कल्याण नहीं हो सकता, किन्तु उस अपराध श्यागका मार्ग वध है पर वस्तुस्वाग बिना अपराधका माग सम्भव नहीं है। दिगम्बरेतर समाज तो बाह्य स्थान दिना भी अपराधका त्याग मानते है किन्तु दिगम्बर धर्ममें तो प्रथम पर द्रश्यका त्याग बतलाया है। अथवा पूर्व संस्कारवश कुछ दिगम्बरी मो इतर समाज के समान प्रथम अपराम स्यागको बतलाते है। आपने २२० उद्धृत किया किन्तु वह तो एक कलश । किये लिखा गया है, जो मात्र २११ में 'रामजन्मनि निमित परसे हो रामदत्त मानते है। जैगा कि गल नं० परद्रव्यमेव कलयन्ति ये तु ते' ( जो पुरुष रागको उत्पत्ति में परद्रव्यका ही निमित्तपना मानते है ) इन Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ जयपुर (खानिया ) सस्वचर्चा शब्दोंसे स्पष्ट है 1 यदि ऐसा न माना जाये तो कलश नं. २२०का कलश नं.१६ बधाधिकार तथा टीका गाथा नं० २८३-२८५ रो विरोधका प्रसंग आजावेगा, किन्तु एक ही ग्रन्थमें पूर्वापर विरोष सम्भव नहीं है। आगने लिखा है कि राति-दर भव्य भी मुनिचर्या (व्यवहारचारित्र )के द्वारा अहमिन्द्र पद पा सकता है, किन्तु आपका ऐसा लिखना आगमानुकुल नहीं है, क्योंकि दूगतिदूर भव्य को शीलबली विधवाका दृष्टान्त दिया गया है। अर्थात् जिस प्रकार शीलवतो विधवाके पतिका निमित्तकारण न मिलनसे पुत्रकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, उसी प्रकार रातिदुर भव्यको गुरु उपदेश आदिका निमित्त न मिलने से सम्यग्दशन को प्राप्ति नहीं होती, इसीलिये दरातिदूर भव्य जीव मुनिलिंग अथवा व्यबहारचारित्र धारणकर अहमिन्द्र नहीं हो सकते । दूरातिदूर भव्य-नित्यनिगोदरें होते हैं, क्योंकि उनको कभी भी निमित्तकारण नहीं मिलेगा । जयधवल पु० १ पृ० ३८९ पर कहा भी है-'किन्हीं जीवोंके अवस्थित दिमक्तिस्थान ( मोहनीय कर्मके २६ प्रकृतिकस्थान ) अनादि अनन्त होता है, क्योंकि जो अमव्य है या अभव्योंके समान नित्यनिगोदको प्राप्त हुए भाग हैं उनके अवस्थित स्थानके सिवाय भुजगार या अल्पतर स्थान ( अन्य स्थान) नहीं पाये जाते है। इस प्रकार दूरातिदूर मध्यके विषयमें आपका कथन आगमानुकूल नहीं है। 'व्यवहारचारित्र प्रत्येक शामें सफल हैं' ऐसा कहने से हमारा यह प्रयोजन रहा है कि जो भव्य है उनके लिये तो व्यवहारबारित्र परम्परा मोक्षका कारण है तथा निश्चय पारित्रका साधक है और जो अभव्य है उनको कुगनिमें गिरनेसे बचाता है। इस विषय में निम्न उपयोगी श्लोक है बरं प्रसैः पदं देवं नायतैबत नारकं । छायातपस्थयोमदः प्रतिपालयतोमहान् ॥३।। -इष्टोपदेश अर्थ-व्रतोंके द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु अवलोके द्वारा नरकपद प्राप्त करना अच्छा नहीं है । जैसे छाया और धूपमें बैठनेवालोंमें अन्तर पाया जाता है, वैसे ही व्रत अनतके आचरण पालन करनेवालोंमें अन्तर पाया जाता है। निश्चय व्यवहार चारित्रकी चर्चा प्रश्न नं० ४ के उत्तर में सविस्तार हो चुकी है। उसको पुनः यहाँ लिखनेसे पुनरुक्तिका दोष आ जायगा । इस सम्बन्ध में प्रश्न नं.४ पर हमारा प्रपत्र देखना चाहिये । अपने सर्वार्थसिद्धि ७।१९ की टीका उद्धृत की है। उसमें आपने इन पदों पर पान नहीं दिया हैचारित्रमोहोदये सत्यपारसम्बन्ध प्रत्यनिवृत्तः परिणामी भावागारमित्युच्यते । चरित्रमोहके जदय होनेसे (२. परसे सम्बन्धका त्याग नहीं किया ऐसे जो परिणाम वें भावागार कहे जाते हैं। इस तो आपके मत का ही खण्डन होता है-(१) कर्मोदयको होनेपर आत्म-परिणाम होते हैं यहाँ ऐसा कहा गया है जो आपकी मान्यताके विरुद्ध है। (२) 'घरसे सम्बन्धका त्याग नहीं किया' ( अर्थात् परवस्सुका त्याग नहीं किया ) इसरो भी यह सिद्ध हुआ कि परवस्तुका त्याग किये बिना भावोंका त्याग नहीं हो सकता । यह ही तो श्री अमृतचन्द्र सूरिने समयसार गाथा २८३-२८५ की टीकामें कहा है। जिसको आप स्वीकार नहीं कर रहे हैं। भावागारका त्यागनाला घरमें नहीं रह सकला, किन्तु वान्यागारमें ठहर सकता है । आपने यहां पर अर्थ ठीक नहीं किया। आपने स्वयं अर्थ इस प्रकार किया था—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर भावागार विवक्षित है। चारित्रमोहनीयका उदय होनेपर जो परिणाम घरसे निवृत्त नहीं है वह भावागार कहा जाता है । वह जिसके है वह वनमें निवास Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५७७ करते हुए और घर में रहते हुए भी आगारी है और जिसके इस प्रकारका परिणाम नहीं बह अनगार है । (ज्ञानपीठ सर्वार्थ सिद्धि पृ० ३५७)। इस अर्थमें अनारको घरमें बैठना नहीं लिखा जन कि वर्तमान अर्धमें अनगारको घर बैठना लिखा है जो आगम अनुकूल नहीं । आप लिखते हैं कि 'निश्चय चारित्र होनेपर व्यवहारचारित्र होता है। यदि आपके कथनानुसार निश्चयचारित्रपत्रक व्यवहार चारित्र माना जावेगा तो भावसंयमका सातवां गणस्थान होनेपर वस्त्रत्याग, कैशलोंच, महानत धारण आदि व्यवहारचारित्रको क्रिया होगी, जिसका अर्थ यह होगा निकामmarn वस्त्रधारी के हो जायगा और ऐसा होनसे सवस्त्रमक्ति सिद्ध हो जायगी जिसका दिगम्बर जैन आप ग्रन्थों में खण्डन है। जिनके पूर्व संस्कार बने हुए हैं ऐसे दिगम्बर तो कह सकते है कि निश्चयचारित्रवर्वक उपहार चारित्र होता है, किन्तु जिनको दिगम्बर जैन मार्षगन्यापर श्रद्धा है वे तो यह हो कहेंगे किम केशलोंच, वस्त्रत्याग, महावत आदि ग्रहणके द्वारा मुनिदीशाके होनेपर सप्तम गुणस्यान सम्भव है। जिसके किंचित् माप भी त्यागरूप चारित्र महो अर्थात् मद्य, माम, मध्र, नयनी त और पांच उदुम्बर फलका त्याग नहीं वे जिनपर्मोपदेशक भी पात्र नहीं है अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनाम्यमुनि परिवर्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पायाणि शुरुधियः ॥७॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय अर्थ-अनिष्ट दुस्तर और पापोंके स्थान इन आठों ( ५ जदंबरफल, मद्य-मांस-मधु )का त्याग कर के निर्मल बुद्धिवाले पुरुष जिनधर्मके उपदेशके पात्र होते हैं । मोक्षप्राप्तिका बहुत सुन्दर उपाय थी अमृतचन्द्र सूरिने निम्न श्लोक द्वारा बतलाया है जिसमें निश्चय व व्यवहारको समान रखा है सम्यक्त्वचारित्रवोधलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः। मुख्योपचाररूपः प्रापयति परे पदे पुरुषं ॥२२॥ -पुरुषार्थसिहयुपाय अर्थ-निश्चय व्यवहाररुप सम्यग्दर्शन-चारित्र-ज्ञानलक्षणवाला मोक्षमार्ग आत्माको परम पद प्राप्त कराव है गर्थात् निश्चय-व्यवहाररूप धर्म ह्री बन्नसे छूटनेका उपाय है। नोट-इस विषय में प्रश्न नं. ४ का पवहार धर्म व निश्चध धर्मका विवरण देखिये । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल भगवान् वीरो मंगलं गौतम गणी मंगलं कुन्दकुन्दायें जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ९ सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है वो किससे बंधा हुआ है मूल एइन ९ और किसीसे बँधा हुआ हानसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यदि वह षद्ध है तो उसके बन्धन से छूटने का उपाय क्या है ? - प्रतिशंका ३ का समाधान १ उपसंहार अपने प्रथम उत्तरमें हो हमने यह स्पष्ट कर दिया था कि संमारी जीव मढ निश्चयनयकी अपेक्षा बढ है और वह रागादि विकारी भयोंसेबद्ध है, व्यवहारको अपेक्षा उसमें वह होने का आवहार है और इस अपेक्षासे वह शनावरणादि कर्मोसे वद्ध है। शुद्ध निश्चयसे वह गदा है इसलिए इनसे बद्ध नहीं है । परतन्त्रताका विचार भी इसी प्रकार कर लेना चाहिए । बन्धन से छूटने के उपायका निर्देश करते हुए बतलाया था कि अपने परम निश्चय परमात्मस्वरूप आत्माका अवलम्बन लेनेसे तन्मय परिणमन द्वारा वह मुक्त होता है। साथ ही यह भी बता दिया गया था कि उसके अन्तरंग में निश्चय रत्नत्रयस्वरूप जितनी जिवमी विशुद्धि प्राप्त होती जाती है उसके अनुपात में इसके द्रव्य-भाव कर्मका मी अभाव होता जाता है । इस पर अपर पक्षका कहना है कि 'जोनका राग-द्वेषादि भावोंके साथ व्याप्यध्यापक सम्बन्ध है, ध्य बन्धक सम्बन्ध नहीं । इसलिए जीव ज्ञानावरणादि क्रमोंसे बद्ध और परतन्त्र है। मोहनीय आदि द्रव्यकर्म राग-द्वेषादि विकारी भावोंके प्रेरक निमित्त कारण है तथा आत्माके राग-द्वेष आदि विकृत भाष मोहनीय आदि द्रव्य कर्मदम्बके प्रेरक निमिल कारण है। जब आत्मा के प्रबल पुरयार्थये मोहनीय आदि का cou* क्षय होता है तब विकारका निमित्त कारण जानेसे राग-द्वेष आदि नैमित्तिक विकार भाव दूर हो जायें हैं। उस दायें आत्माको पता भी दूर हो जाती है।' जाड अपने दूसरे उत्तर में हमने अपने प्रथम उत्तरका तो समर्थन किया हो है, साथ ही पिछली शंका में जिन विशेष बातोंकी चरचा की गई है उन पर भी विचार किया है। इसमें प्रेरक कारणका आशय क्या है इस पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है । २. प्रतिशंका ३ का समाधान प्रतियांका उपस्थित करते हुए अपर पक्षने मूल प्रश्नको चार खण्डों में विभाजित कर दिया है। इनमे से (अ) खण्डका जो उत्तर हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तर में दिया है वह नयविभागको दिखलाते दिया गया था। ( आ ) खण्डका उत्तर भी उससे हो जाता हुए 1 ( आ ) इस खण्ड पर प्रकाश डालते हुए अपर पक्षका कहना है कि रागादिक तो कर्मोदय जनित व्यत्रहारनयले आमाके विकारी भाव है जो बन्धके कारण होनेसे भाव कहे जाते है व्यापक तो है क्योंकि विकार पर्याय है किन्तु स्वर्याके साथ हो सकता ।' उनसे जीवका कथंचित सम्बन्ध कदापि नहीं Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५७२ समाधान यह है कि द्रव्यकर्मके उदयको निमित्तकर आत्मामें जो विकारी भाष रागादि उत्पन्न होते है ये अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके ही है । अध्यात्ममें शुद्ध निश्चयनमकी मुख्यता है । इसलिए उन्हें नहीं व्यवहारनयले जीवका कहा गया है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन समयसार गापा ५७ की टीकामें लिखते है-- ननु वर्णादयो बहिरंगास्तत्र व्यवहारेण क्षीर-नीरवल्पंइलेषसम्बन्धी भवतु नाचाभ्यन्तराणा रागादीनाम्, तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यमिति ? नैवम्, द्रव्यकमबन्धापेक्षया योऽसौ असवृत्तव्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनाथं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते । वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्धनिश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः । शंका---वादिक बहिरंग है। वहाँ व्यवहारसे क्षोर-नोरके समान संश्लेयसम्बन्ध होश्रो, अभ्यन्तर रागाविकका यह सम्बन्ध नहीं बनता, वहाँ अशुद्ध निद वय होना चाहिए ? समाधान-ऐता नहीं, क्योंकि द्वन्यकर्मबन्धकी अपेक्षा जो असमत व्यवहार है उसको अपेक्षा तारसम्यका जान कराने के लिए रागादिको अशुद्ध निवनय कहा जाता है। वास्तव में तो शुद्ध निश्चयको अपेक्षा अशुद्ध निश्चय भो व्यवहार हो है, यह उक्त कथनका भावार्य है। इससे साष्ट ज्ञात होता है कि रागादि जोदके है इस कवनको जो व्यवहार कहा गया है वह शुद्ध निश्चयकी अपेक्षा प्रशुद्ध निश्चय भी व्यवहार है इस तस्यको ध्यान में रख कर हो कहा गया है । अपर पक्षने जीव और रागादिक में पाय-व्यापकभाव तो स्वीकार किया ही है, इसलिए वे अशुद्धनिश्चयरो जीवके हो है ऐसा स्वीकार करने में भी आर पक्षको आपत्ति नहीं होनी चाहिए। अपर पक्षका कहना है कि वे रागादि भान) 'बन्धके कारण होनेसे भावबन्ध कहे जाते है । समाघान यह है कि ये मात्र बन्धके कारण होनेसे भावबन्ध नहीं कहे गये है, किन्तु वस्तुतः जीव उनके साथ एकत्व (तादात्म्प) हा परिणाम रहा है, इसलिए यथार्थ में जीवके साथ बद्ध होनेसे आगममें उन्हें भाववन्धरूप कहा गया है । घबला पु० १४ पृ० २ में बन्धका लक्षण करते हुए लिखा है दब्यरस इन्वेण इन्च-मावाणं वा जो संजोगी समवाओ वा सो बंधी णाम । द्रव्यका द्रवपके माथ तथा द्रव्य और भावका क्रममे जो संयोग और ममवाय है वह बन्ध कहलाता है। इससे सिद्ध है कि रामादि भाव व्यकर्मबन्धके कारण होनेमायसे भावबन्ध नहीं कहलाते, किन्तु एक तो वं जीवके भाव है और दूसरे जीय उनसे बद्ध है, इसलिए उन्हें भावबन्ध कहते हैं। अपर पक्ष इसके लिए धवला पु० १४ पर दृष्टिपात करले, सब स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। __ अपर पक्षका कहना है कि 'स्वपर्यायके साथ बन्ध्य-बन्धक सम्बन्ध कदापि नहीं हो सकता।' समाधान यह है कि आगममें बन्धके तीन भेद बतलाये है-पद्गलबन्ध, जावबन्ध और तदुभयबन्ध । इनका स्वरूप निर्देश हम प्रथम उत्तरमें कर आये हैं । इनमेसे पुद्गलबन्ध और तदुभवबन्ध ये दोनों बाध असद्भुत व्यवहारनयसे कहे गये है । तथा जीवबन्ध अशुख निश्चयनयका विपर है। प्रवचनसार गा० १८९ की टीकामें आचार्य जयसेन लिखते है किंघ रागादीनेवात्मा करोति तानेच भुक्तं चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्वयनयो हव्यकर्मबन्धप्रतिपादकासद्वतन्यवहारनयापेक्षया शुद्ध व्यनिरूपणात्मको विवक्षितनिश्चयस्सथैषाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते 1 व्यकर्माण्यात्मा करोति मुंक्त स्यशुमद्रव्यनिरूपणात्मकारङ्गतम्यवहारनयो भण्यते । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा रागादिको ही आत्मा करता है और उन्हीं को भोगता है यह निश्चयनयका लक्षण है । किन्तु यह विनय द्रव्यकर्मबन्धके प्रतिपादक अद्भूत व्यवहारनयको अपेक्षा शुद्ध द्रव्य अर्थात् स्वाश्रित निरूपण स्वरूप विवक्षित निश्चयन्त्य उसीप्रकार अशुद्ध निश्चयनच कहा जाता है । व्यकमको आत्मा करता है और भोगता है इस प्रकार अशुद्धद्रव्य अर्थात् पराश्रित निरूपणस्वरूप असद्द्भूत व्यवहारनय कहा जाता है । ५८० स्पष्ट है कि जैसे जीव और कर्ममें कर्ता-कर्मभाव तथा भोषता-भोग्य भाव अमद्भुत व्यवहारनयका विषय है वैसे ही इन दोनों में बन्ध्यबन्धकभाव यह भी असद्भूतव्यवहारनयका विषय है । असद्द्भूत व्यव हारका लक्षण हैं-भेद होने पर भी अभेदका उपचार करना । प्रवचनसार गा० १८८ की आचार्य जयसेनकृत टीका में कहा भी हैभेदऽप्यभेदोपचार लक्षणेना सतव्यवहारेण बन्ध इत्यभिधीयते । इस प्रकार जवत अगम प्रमाथी के प्रकाश में विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि दो द्रव्यों में बन्ध्यबन्ध सम्बन्ध यथार्थ तो नहीं है। किन्तु अद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा दो द्रव्योंमें परस्पर अत्यन्त भेद होने पर भी अभेदका उमार करके वह कहा जाता है । इसो तथ्यको वे प्रववनसार गाथा ९६ की टीका में स्पष्ट करते हुए लिखते है- था व लाभादि कषायितं रक्षितं समीप्यादिरयेण रक्षितं सदभेदेन रकमित्युच्यते तथा स्वस्थानीय आत्मा ठोश्रादिद्रव्यस्थानीय मोहरागद्वेषैः कषायितो रक्षितः परिणती मीठस्थानीय कर्मपुद्गलैः संश्लिष्टः सन् भेदेऽप्यभेदोपचारलक्षणेनासद्भूतव्यवहारेण बन्ध इत्यभिधीयते । जैसे वस्त्र लांघ्रादि द्रव्यों कषायित-रंजित होकर मजीठा आदि रंग द्वन्यसे रंगा जाकर अभेदसे रक्त ऐसा कहलाता है उसी प्रकार वस्त्रस्थानीय आत्मा लीनादि द्रव्यस्थानीय मोह, राग, द्वेषसे मोह राग परिणत होता हुआ मजीदास्थानीय कर्मपुद्गलोंसे संश्लिष्ट होकर भेदमे भो अभेदका उपचार करके अद्भुत आहारनयसे बन्ध ऐसा कहा जाता है । इससे यह स्पष्ट है कि आत्मा वर्म पुद्गलोसे बद्ध है यह कथन असद्भूतव्यवहारनयका ववतथ्य होने से उपचरित ही है । अस्तविक वन्य बन्ध्यकसम्बन्ध कोई दूसरा होना चाहिए, अतः आगे उसीका विचार करते है१. भावबन्ध स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय गाथा १४७ की टीका में लिखते हैं तद मोहरागद्वेषस्निग्धः शुभोऽशुभो वा परिणामो जीवस्य भाववन्धः । इसलिए यहाँ पर मोह, राग, द्वेषसे स्निग्ध हुआ शुभ और अशुभ परिणाम जीवका भावबन्ध है । २. समयसार गाथा ७४ की टीका में आचार्य जयसेन लिखते है एते कोधायास्रवाः जीवेन सह निवद्वा सम्बद्धा औपाधिकाः । ये क्रोधादि आसव जीवके साथ निबद्ध अर्थात् सम्बद्ध है जो अधिक है । आचार्य कुन्दकुन्द उक्त गाथामे 'जीवणिबद्धा एट' पदका प्रयोग किया है। ३. जीवका नगादिके साथ बन्ध है इसे स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाथा १७७ में लिखा हैजीवरस रागमादीहिं जीवका रागादिकके साथ बन्ध है । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५८१ इसकी सूरिकृत टीकामें बतलाया हैजीवस्यौपाधिकमोह-राग-द्वेषपर्यापैरेकन्वपरिणामः स कंवलजीवबन्धः । जीवका औपाधिक मोह, राग और द्वेषरूप पर्यायों के साथ जो एवात्य परिणाम है बह केवल जीव. बन्ध है। ४. बध्य-बन्धकभाव जीव और उनके रागादिभावों में किस प्रकार घटित होता है इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र प्रवचनसार गाथा १७५ को टोकामै लिखते है ___ भयमारमा सर्व एव तावत्सविकल्पनिर्विकल्पपरिच्छेदात्मकवादुपयोगमयः । तन यो हि नाम नानाकारान् परिच्छेधानानासान मोह वा राग वा द्वेष वा समुपैति स नाम सेः परप्रत्ययैरपि मोहरागद्वेषरुपरमात्मस्वभावत्वासीलपीतरतीपाश्रयमध्ययनीलपीतरकत्वैरुग्दनस्वभावः स्फटिकमणिरिव स्वयमक एवं तद्भावद्वितीयस्वान्धो भवति । प्रथम तो यह आत्मा सर्व ही उपयोगमय है, क्योंकि वह सविकल्प और निविकल्प प्रतिभासस्वरूप है। उममें जो आत्मा विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह, राय अथवा द्वेष करता है बह नील, पीत मोर रक्त पदार्थोक आश्रयहेतृक नीले एन, पीलेपन और ललाईरूपसे परक्त स्वभावकाले स्फटिक मणिको भौति यद्यगि जीवमें मोह, राग और द्वेष परको हेतु करके उन हुए हैं तो भी उनसे उपरक्त आस्मस्वभाव वाला होनेसे स्वयं अवेला ही बन्धरूप है, क्योंकि जीबक व रागादिभाव उसके द्वितीय है। ५. अकेला जीव ही बन्ध है इसे स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार गाथा १८ की सूरिकृत टोकामे लिखा है यथात्र समदेवारले ससि लोध्रादिभिः कवायितत्वात् मनिष्टरमादिभिरपश्लिएमेक र.रष्ट वासः तथारमापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागतषः कपाधिसत्वात् कर्मरजोभिरूपश्लिष्ट एको बन्धो दृष्ध्यः , शवदस्य विषयत्वाग्निश्चयस्य । जैसे लोकम वस्त्र सप्रदेशी होने से लोध आदिसे कसला होता है और इसलिये वह मजीठादिके रंगसे मंश्लिष्ट होता हुआ अवेला ही रक्त देखा जाता है उसी प्रकार आत्मा भो सघदेशी होनेस यथाकाल मोह, राग, दूषसे कषयित (मलिन) होने के कारण फर्मर जसे दिलष्ट होता हुआ अकेला ही बन्ध है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि निश्चयता विषय शुद्ध ( अकेला ) द्रव्य है। ६. इसी प्रवचनसारके परिशिष्ट में निश्चयनयसे अकेला आत्मा ही बन्ध और मोधस्वरूप है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है निश्चयनयेन केवलनध्यमानमुच्यमानबन्ध-मोशोचितस्निधरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुबम्ध-मोक्षयोरद्वै तानुभूतिः । अकेले वध्यमान और मुच्यमान ऐसे इन्ध-मोक्षोचित स्निग्यस्य और रूक्षत्व गुण में परिणत परमाणुके समान निश्चयनवसे एक आत्मा वध और मोक्ष में मतका अनुसरण करने वाला है ।। ये कतिपय आगमप्रमाण है कि ये राग, द्वेष और मोहरूप जीवभाव यतः जीवके साथ बद्ध है, अत: अज्ञानभायसे परिणत यह यात्मा हो निश्चयसे उनवा बन्धक है। इस प्रकार जीव और रागादिभादौम भले प्रकार बाय-बन्धक सम्बन्ध सिद्ध हो जाता है। मात्माम रागादि भाव उत्पन्न हों और वे भावबन्ध भी कहलायें, साथ ही परका आश्रय कर Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा आत्मा ही उन्हें उत्पन्न करे, फिर भी अज्ञानभावसे परिणत आत्माको उनका बन्धक स्वीकार न करना युक्तयुक्त नहीं है। ___ विभाष शब्दका स्पष्टीकरण करते हुए अनगारधर्मामृत अध्याय १ श्लोक १०६ की टोकामें लिखा है विभावो हि बहिरङ्गनिमितम् । विभाव बहिरंग निमित्तको कहते हैं। इसलिए जितनी भी वैभाविक पर्याय उत्पन्न होती हैं वे सब स्व-परप्रत्यय होनेसे रागादिकका व्यवहार हेतु परको स्वीकार करनेपर भी निश्चय हेतु अज्ञानभावसे परिणत आत्माको स्वीकार कर लेना हो उचित है । अत: एक द्रय वन्ध्य बन्धकमात्र अपने गुणधर्मति साथ निश्चयसे बन जाता है। परमागमका भी यही अभिप्राय है। इसलिए न तो अपर पक्षका यह लिखना ही ठीक है कि किन्तु स्वपर्यायके साथ बन्ध्य-बन्घकभाक कदापि नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर सब कार्यों की उत्पत्ति केवल परसे माननी पड़ती है । विन्त ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर सिद्धोंमें भी रागादिभावोंके स्वीकार करनेका अतिप्ररांग उपस्थित होता है। और न अपर पक्षका यह लिखना ही ठोक कि 'इसका आपने कोई उत्तर नहीं दिया। इसका अर्थ है कि वह आपको स्वीकृत है। क्योंकि जब कि हमने अपने प्रयम उत्तरमें हो यत्र मष्ट कर दिया था कि 'संसारी जीव अंशुद्ध लियच यनयको प्रपेक्षा अपने रागांद भावोंसे बद्ध है और असदभूतव्यवहार नमको अपेक्षा कमोंसे बद्ध है।' ऐसी अवस्थामें संसारी जीव विस अपेक्षा बद्ध है और किससे किस प्रकार है इन दोनों खण्डोंका इत्तर हो जाता है। (इ) बंधा हुआ होनेसे वह परतन्त्र है या नहीं ? यह अपर पक्ष द्वारा उपस्थित किये गये मूल प्रश्न का तीसरा खण्ड है । हम इसका नविभागसे उत्तर देते हुए प्रथम वार ही लिख आर्य है कि 'संसारी आत्मा अशुद्ध निश्च यनयको अपेक्षा अपने अज्ञानभाषसे बद्ध होने के कारण वास्तव में परतन्त्र है और सद्भुत व्यवहारनयकी पक्षा उपचरित रूपसे कर्म और नोकर्म की अपेक्षा भी परतन्त्रता घटित होती है। किन्तु नयवभागसे दिये गये सबगिपूर्ण इस उत्तरको अपर पक्ष सम्पक नहीं मानना चाहता है। वैसे हमने जसे 'सांसारिक जीव बद्ध है या मुक्त ? यदि बद्ध है तो किससे बंधा हुआ है ।' मूल प्रयनके इन दो खण्डोंका उत्तर देते हुए शुख निश्चयनयके पक्षको भी उपस्थित कर दिया था । उसी प्रकार संसारी आत्मा सर्वथा परतन्त्र नहीं है, न यविभागसे इस पक्षको भी साथ में उपस्थित कर देना चाहिए था 1 फिर भी हमने इस पक्षको उपस्थित न कर संभारी जीवमें किम नपसे कमी परतन्त्रता घटित होती है मात्र इतना ही निर्देश किया था। संसारी जीव मात्र परके कारण परतन्त्र है इस एकान्त के स्वीकार करने पर न केवल मोक्षमार्गकी व्यवस्था गड़बड़ा जायगो। किन्तु जीवके संसारो और मुक्त ये भेद भी नहीं बनेंगे और इस प्रकार जीवद्रव्यका अभाव हो जानेसे प्रजोत्र द्रव्यका भी अभाव हो जायगा। इन्हीं सब बातोंका विचारकर हमने नविभागसे उक्त उत्तर दिया था। किन्तु अपर पक्षने इस तथ्यको ध्यानमें न लेवार और आरलपरीक्षाके उद्धरण उपस्थित कर पिछली प्रतिशंकामें यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि 'आत्मा पौलिक द्रव्य मौके कारण परसन्न हो रहा है और Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५८६ रागादिभाव परतन्त्रतास्वरूप है, इमलिए आत्माके भाव स्वयं परतन्त्ररूप है। आत्माके परतन्त्रताके निमित्त नहीं है।' समाधान यह है कि आप्तपरीक्षाका उक्त कथन व्यवहारमय बना है। उसके आधारसे पौद्गलिक वोंको एकान्तसे परतन्त्रताका कारण मान लेना उचित नहीं है। यथार्थ में मात्मा किस कारणसे परतन्त्र हो रहा है इस कथनके प्ररांगसे निदरेय जयवचनका उल्लेख करते हुए वे ( विधानन्दि) ही आनायं तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ०४८४ मे लिखते है कवायपरतन्त्रस्थात्मनः साम्परायिकानवः, तदपरतन्त्रस्येयर्यापथास्रवः इति सूनाम् । कषायसे परतन्त्र हए आमाके साम्पराधिक आस्रव होता है और उससे परतन्त्र नहीं हा आत्माके ईर्यापथ आस्रव होता है यह नाचत ही कहा हैं। इस पर पुनः प्रदन हुआ कि एक आत्मामें परतन्त्रता बनती है और दूसरे में नहीं इसका क्या कारण है ? इसका समाधान करते हुए वे पुनः लिखते हैं कषायहेतुकं घुसा पारतन्न्यं समन्ततः । सरवान्तरानपेक्षीह पमध्यगमँगवत् ।।८।। कपाश्रविनिवृत्ती मु पारतन्ध्यं निवन्यते । ययेह कस्यचिच्छारतकषायावस्थितिक्षणे ।। ५ ।। इस लोकमें जैसे पद्मके मध्य स्थित भौरकी परतन्त्रता कषायहेतुक होती है उसी प्रकार इस जीवकी सत्वान्तरानपेक्षो समन्तत: परतन्त्रता कपायहेतुक होती है ॥८॥ परन्तु कषायके निकल जाने पर परतन्त्रता भी निकल जाती है। जैसे इस लोक में किसीके कषायके शान्त होने पर उसी समय परतन्त्रता निकल जाती है ।। || यह वास्तविक कथन है । भ्रमरको व.गल अपने आधीन नहीं बनाता है, किन्तु इसका मूल हेतु उसकी क्रयाम-कमलविषयक आसक्ति ही है। इसीप्रकार मह जीन कर्माधीन कपायके कारण ही होता है, अतः निश्चयसे परतन्त्रतामा मल कारण जीयकी कृपायी। अपर पक्ष एकान्तका परिग्रह कर और क.पायको पारतव्यस्वरूप मानकर केवल कमको ही परतन्त्रताका हेतु मानता चाहता है जो युवत नहीं है, क्योंकि परतन्त्रता रूप मायकी उत्पत्ति व्यवहारसे जहाँ परहेतुक कहो गई है वहां से निश्चय स्वतक ही जाना चाहिए । असहस्रो पृ०५१ में जीवमें अज्ञानादिदोषांकी उत्पत्ति कैसे होती है इसका निर्देदा बारह लिखा है तन्देतुः पुन गवरणं कर्म जीयस्य पूर्वस्वपरिगामश्च । स्वपरिणामहंतुक एवाज्ञानादिरित्ययुतम् , तस्य कायाचिकटवविरोधात् , जीवत्वादिवत् । परपरिणामहेतुक एवेत्यपि म व्यवतिष्ठते, मुकाश्मनोऽपि तत्प्रसंगात । सर्वस्य कार्यस्योपादानसहकारिसामग्रीजन्यतयोपगमा सथा प्रतीतश्च । उन अज्ञानादि दोषोंका हेतु तो आवरण कर्म और जीवका पूर्व स्वपरिणाम है। स्वपरिणामहेतुक ही अशानादि दोप है यह कहना अयुक्त है, क्योंकि ऐसा मानने पर उनके काचित्पनेका विरोध होता है, जीवत्वादिके समान । परपरिणामहेतुक ही अज्ञानादि दोष नहीं बन सकते, क्योंकि ऐसा मानने पर - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तस्वधर्चा उनका मुक्तात्माओंमें भी सद्भाव माननेका प्रसंग उपस्थित होता है। सभी कार्य उपादान और सहकारी सामग्रोसे उत्पन्न होते हुए स्वीकार किये गये है और वैसी प्रतीति होती है। अपर पक्षके प्रश्नोंका पूर्ण उत्तर आगमको उक्त बड़े टाईपमें मुद्रित पंक्तियोंसे हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृत आत्माको परतन्त्रताका मुरुप हेतु जोरके कषावादि परिणामोंको हो मानना उचित है, क्योंकि उनके होनेपर हो परमें परतन्त्रताको व्यवहारहेतुता स्वीकार की गई है, अन्यथा नहीं । इस प्रकार अपर पक्षने अ०, आ. और ३० इन तीन खण्डोंके बिषयमें पूर्व पचके रूप में जो विचार रखे हैं ठीक नहीं हैं। अपर पक्ष जब तक स्वाश्रित निश्चय कथन को यथार्थताको स्वीकार नहीं करता और मात्र पराश्रित स्पयहार कथनके आधार पर की गई कार्यकारणको व्यवस्थाको असद्भुत व्यवहार ( उपचरित) रूप नहीं स्वीकार करता तब तक मतभेदका समाप्त होना कठिन है। हमने मूल प्रश्नमें जितनी बातें पूछी गई धौं जन सबका उत्तर दिया है । अपर पक्ष अपने मूल प्रश्न और अपनी पिछलो प्रतिशंकाको सामने रखकर पिछले दोनों उत्तरों पर दृष्टिपात करने की कृपा करें। अपर पक्षने जयपुर (खानियां ) में १७ प्रश्न पूछे थे। उन सबका सम्मिलित उत्तर यह है कि आगममें इन प्रश्नों के उत्तर स्वरूप जितना भी स्वाश्रित विवेचन उपलब्ध होता है वह यथार्थ है और जितना पराश्रित विवेचन उपलब्ध होगा वह पचरित है। ३. सद्भूत व्यवहारलयके विषयमें स्पष्टीकरण व्यालापपद्धति में असद्भूत व्यवहारनयके दो लक्षण कहे गये हैं१. अन्यत्र प्रसिवस्य धर्मस्थान्यत्र समारोपणसमद्भूतन्यवहारः । १. अन्यत्र प्रसिद्ध धर्मका अन्यत्र समारोप करना असद्भूत ब्यवहार है। २. भिन्नवस्तृविषयोऽसद्भूतव्यवहारः । २. भिन्न वस्तुको विषय करना असद्भूत व्यवहार है। प्रथम लक्षणके अनुसार नौ प्रकारके उपचारको परिगृहीत किया गया है और दूसरे लमणके अनुसार असद्भूत व्यवहार के भेदको विषय करनेवाला बतलाया गया है । ये दो लक्षण दो वृष्टिगोंसे किये गये है। प्रथम लक्षणके द्वारा अनादिरूढ़ लोकव्यवहारकी परमार्थके साथ कैसे संगति बैठती है इसकी व्यवस्था की गई है और दूसरे लक्षगके द्वारा मोक्षमार्गमें साधकको आस्मद्रव्यमें भेदव्यवहारके प्रति कैसी दृष्टि होनी चाहिए इसे स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार पृथक-पृयक प्रयोजनोंको ध्यान में रखकर आगममें चारों प्रकारके व्यवहारोंको दो प्रकारसे निरूपित किया गया है। हमने इसी प्रश्न के द्वितीय उत्तर में असद्भुत व्यवहारनगके प्रथम लक्षणको ध्यान में रखकर तो स्पष्टीकरण किया ही है। सबै प्रश्नके प्रथम उत्तर में भी उसी दृष्टि को ध्यान में रखकर स्पष्टीकरण किया गया है । दोनों कथनोंमें शब्दभेद अखष्य है, पर दोनोंका बाशय एक ही है। दो भिन्न वस्तुओंका परस्पर जो भी सम्बन्ध कहाँ जायगा वह एक दूरुपके गुण-धर्मको दूसरेका बतलाकर ही सो कहा जायगा। स्पष्टीकरण इस प्रकार है Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका और उसका समाधान असद्भुत व्यवहारका लक्षण है-एक व्यके गुणधर्मको अन्य द्रव्यका कहना । उदाहरण-असदभूत व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठ द्रव्यकर्मों तथा औदारिक शरीरादि नोकर्म के साथ आत्मा बंधा है। यद्यपि संसारी आत्मा वास्तवमें अपने राग-द्वेषादि मावोंसे बद्ध है। तथापि शानावरणादि कर्मों और शरीरादि नोकर्मको निमित्तकर उनकी उत्पत्ति होती है, इसलिए निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धको देखते हुए जोष इनसे बद्ध है ऐसा व्यवहार किया जाता है। यहाँ जो वका अपने गुण-पर्यायोंके साथ जो बद्धता धर्म उपलब्ध होता है उसका ज्ञानावरणादि कर्मों बादिमें आरोपकर आत्मा उनसे बद्ध है यह कहा गया है। प्रश्न ८ के प्रथम उत्तरमें भी इसी दृष्टिको ध्यानमें रखकर ही 'दो या दो से अधिक द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें जो सम्बन्ध होता है बह असद्भुत ही होला है।' यह वचन लिखा गया है । दोन एक है । भाषा वर्गणाओं में भाषारूप परिणमने की निमित्तता ( उपादान कारणता) है, उसका आरोप तीर्थकर आदि प्रकृतियों में करके उन्हें कहा गई पानी पितिक; यह जा सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध यद्यपि असद्भूत- उपचरित है। फिर भी ऐसा व्यवहार नियमसे होता है उसका मुख्य कारण काल प्रत्यासत्ति है, क्योंकि बाह्य व्याप्तिका नियम इसी आधार पर बनता है। इससे स्पष्ट है कि असदभतब्यवहारके हमारे द्वारा कहे गये ये दो लक्षण नहीं है, समझाने की दो पद्धतियाँ है। अपर पक्षका कहना है कि किन्तु महाँ पर बन्धका प्रकरण है और वन्ध दो भिन्न वस्तुओंमें होता है। अतः इस प्रश्नमें भिन्नवस्तुनिषयोऽसद्भूतव्यवहारः । अर्थात् भिन्न वस्तु जिसका विषय हो यह असदभुत अनहारना है, यह लक्षण उपयोगी है। दूसरे वह लक्षण आध्यात्मिक दृष्टिले है और 'स्वाश्रितो निश्चयः' यह लक्षण भी आध्यात्मिक दृष्टिसे है। अत: दोनों लक्षण अध्यात्मष्टिवाले लेने चाहिए । जब निश्चयका लक्षण अध्यात्मालयकी अपेक्षा सहण किया मा रहा है तो व्यवहारनयका लक्षण भी अध्यात्मनयवाला लेना पाहिए।' समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु भेदाभेदस्वरूप है। वहाँ अभेदको विषय करनेवाला निश्चयनय है और भेदको विषय करनेवाला व्यवहारनय है तन्न निश्चयनयोऽभेदविषयो व्यवहारी भेदविषयः 1-आलापपद्धति । आलापपद्धतिम निदमयनय और व्यवहारनमके ये लक्षण मध्यात्मदृष्टिसे ही किये गये हैं। 'स्वाश्रितो निश्चयनयः' इस लक्षणमें भी स्व पद मभेदको हो सूचित करता है। हो 'पराश्रितो व्यवहारनयः' इरा लक्षण माया हा 'पर' शब्द भेद व्यवहारको तो पर कहता ही है। किसी भी प्रकार के उपचार व्यवहारको भी पर कहता है । इसलिए इस लक्षण द्वारा जहाँ अनादिरूढ़ लोक व्यवहारका निषेध हो जाता है वह भेदम्यबहारका भी निषेध हो जाता है। इस प्रकार स्वाथित निश्चय नयके कथन में दोनों प्रकारका व्यवहार निषिद्ध है ऐसा महाँ समझना चाहिए। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा एक बात और है और वह यह कि आध्यात्मिक दृष्टि से व्यवहारनयके इस लक्षणमें "भित वस्तु पदसे पर द्रव्य और उनके धमाका सहप नहीं हुआ है । वे तो आरमासे सर्वथा भिम है ही, इसलिए उनका प्रश्न ही नहीं है। उनमें तो जिस किसी भी प्रकार स्व व्यवहार होता है उसका तो त्याग करना ही है। साथ एक मात्मामें गुणभेद या पर्यायभेद द्वारा कथनला जितना भी व्यवहार होता है, आलम्बनको दृष्टिसे उसकी भी उपेक्षा करदो है, क्योंकि धम-धर्मीका स्वमावसे अभेद हैं, तो भी संज्ञा, लक्षण आदि रूपस भेव उत्पन्न कर उन द्वारा समझाने के लिए अखण्ड यस्तुका कथन किया जाता है। अत एवं प्रकुतमें 'भिन्न वस्तु' पदसे कहे गये गुणभेद और पर्यायभेदका हो ग्रहण होता है, क्योंकि दृष्टिमें अभेदकी मुख्यता होनेपर गुणभेद और पर्यायभेद भिन्न वस्तु हो जाते है। आलापपद्धतिमें इसी दृष्टिको साधकर उक्त दोनों नयों और उनके भेषांका निरूपण हुआ है, क्योंकि वहाँ 'भिन्न वस्तु' पदसे पर बस्तृका ग्रहण न होकर गुणभेद और स्त्राश्रित पर्यायभेदका ही मुख्यतासे ग्रह्ण हुआ है । ऐसी अवस्थामें आध्यात्मिक दृष्टि से जीव किससे बँधा है ऐसा प्रश्न होनेपर उसका यह उत्तर होगा कि उपचरित असद्भत व्यवहारनयको अपेक्षा जीव अपने रागादि भावोंसे बँधा है, क्योंकि जीव कोंसे बंधा है इसे तो आध्यात्मिक दृष्टि स्वीकार ही नहीं करती। यही कारण है कि हमने प्रकृतमें आगमिक दृष्टिको ध्यानमें रखकर उक्त प्रश्नका समाधान किया है । निश्चयनय और व्यवहारनयके आलापपद्धति में ये लक्षण दिये हैंअभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः 1 भेदोपचारसया वस्तु व्यचड्डियत इति व्यवहारः। अभेद और अनुपचाररूपसे वस्तु निश्चित की जाती हैं यह निश्चय है तथा भेद और उपचाररूपसे वस्तु व्यवहृत की जाती है यह भाबहार है। दूसरी बात यह है कि अपर पक्षने अधिकतर प्रायः सभी प्रश्न दो द्रश्या निमित्त नैमित्तिक व्यवहारको मुख्यतासे किये हैं, इसलिए हमें आगामक दृष्टिको ध्यानमें रखकर उत्तर देना पड़ा । १६ वे प्रश्नमें अवश्य हो यनय-म्यवहारमयके स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए कहा गया था, इसलिए उस प्रश्नका उत्तर लिखते समय हमने अवश्य ही अध्यारमष्टिको मुख्यता प्रदान की है। किन्तु उसके प्रति अपर पक्षने जैसी उपेक्षा दिखलाई वह उस पप द्वारा आगे उपस्थित कियं गये दोनों प्रपोंसे स्पष्ट है। तीसरी बात यह है कि अध्यात्ममें केवल आध्यात्मिक दृष्टिसे ही व्यवहारका प्रतिपादन नहीं हुआ है । किन्तु आगमिक दृष्टिको ध्यान में रखकर भी व्यवहारका प्रतिपादन हुभा है, क्योंकि परमार्थ दृष्ट्रियालेके लिए दोनों प्रकारका व्यवहार हेय है यह ज्ञान कराना उसका मुख्य प्रयोजन है । इसलिए भी हमने अपने उत्तरामें उक्त पद्धतिको अपनाया है। ऐसी अवस्थामै अपर पक्षके यह लिखनेको कि 'जत्र निश्चयका लक्षण अध्यात्मकी अपेक्षासे ग्रहण किया जा रहा है तब व्यवहारनयका लक्षण भी अध्यात्मनयवाला लेना चाहिए। कोई सार्थकता नहीं रह जाती। . ४. कर्मबन्धसे छूटनेका उपाय (ई) यदि वह बद्ध है तो छूटनेका उपाय क्या है ? यह मूल प्रश्नका चौथा खण्ड है। इसका उत्तर हमने निश्चय-क्यवहाररूप दोनों नयोंसे दिया था। प्रथम सत्तर हमने लिखा है Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५८७ १. 'आगम में सर्वत्र यह तो बतलाया है कि यदि संसारी आत्मा अपने बद्ध पर्यायरूप राग, द्वेष और मोह आदि अज्ञान भावोंका अभाव करनेके लिए अन्तरंग पुरुषार्थ नहीं करता है और केवल जिसे आगममें उपचारसे व्यवहारवमं कहा है उसमें प्रयत्नशील रहता है तो उसके द्रव्यकमको निर्जरा न होने के समान है ।' I २. 'अतएव संसारी आत्माको द्रव्य भावरूप उभय बन्धनोंसे छूटने का उपाय करते समय निश्वयव्यवहार उभयरूप धर्मका आश्रय लेने की आवश्यकता है । उसमें भी नियम है कि जब यह आत्मा अपने परम निश्चल परमात्मरूप ज्ञायकमात्रका आश्रय लेकर राम्यक् पुरुषार्थ करता है तब उसके अन्तरंग निश्वय रत्नत्रयस्वरूप जितनी जितनी त्रिशुद्धि प्रगट होती जाती है उसीके अनुपात में उसके बाह्य में द्रव्यकर्मका अभाव होता हुआ व्यवहारधर्मकी भी प्राप्ति होती जाती है।' यह मूल प्रश्न हमारे प्रथम उत्तरका वाक्यांश हूँ। इसमें व्यवहारधर्मका विषेध नहीं किया गया हैं। फिर भी अपर पक्षको इस उत्तरसे सन्तोष नहीं है। अपर पक्षका कहना है कि 'इसका उत्तर भी बहुत सरल था सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र छुटनेका उपाय है। किन्तु इतने सामान्य उत्तरसे मूल समस्याका समाधान होना सरल न होने ही हमें थोड़ा विस्तारसे खुलासा करना आवश्यक प्रतीत हुआ । बाह्य क्रिया आत्माकाहीं है ऐसा ज्ञान करने से हानि नहीं होती। किन्तु स्वभाव सम्मुख हो आत्मपुरुषार्थ प्रगट होता है। अपर पक्ष के सामने इसकी उपयोगिता सष्ट करनी हैं और इम उक्त निरूपण प्रथम उत्तर में किया गया है । अपर पक्ष समझता है कि हमने अपने प्रथम उत्तरमें व्यवहारधर्मका सर्वथा निषेध किया है। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है | हमारे किस वाक्यले उस पक्षने यह आशय लिया इसका उसको ओरसे कोई स्पष्टी करण भी नहीं किया गया है। साधक के सविकल्प दशा में प्रवृत्तिरूप व्यवहार धर्म होता है इसका भला कौन समझदार निषेध करेगा। हाँ यदि व्यवहार करते-करते उससे निश्चय की प्राप्ति हो जाती है ऐसी जिसको मान्यता है। साथ हो जो व्यवहारधर्मको निश्चयमंकी प्राप्तिका यथार्थ सायन मानता है उसका निषेध किया जाता है और इसे ही अपर पक्ष व्यवहारधर्म का निषेध समझता है तो समझे । मात्र उस पक्ष की समझ हमारा कथन सदोष हो जायगा ऐसा नहीं है । उदाहरणार्थ एक २८ मूलगुणों का पालन करनेवाला मिष्यादृष्टि है और दूसरा मिध्यादृष्टि नारकी या देव है । ये दोनों यदि सम्यग्दृष्टि बनते हैं तो स्वभावसन्मुख होकर तीन करण परिणाम करके ही तो बनेंगे। इनके सम्यग्दृष्टि बनेका अन्य मार्ग नहीं है। अपर पक्ष से यदि पूछा जाय तो वह पक्ष भी यही उत्तर देगा | स्पष्ट है कि न तो व्यवहारधर्म करते-करते निश्वयधमंकी प्राप्ति होती हैं और न ही व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका यथार्थ साधन माना जा सकता है। अपर पक्षको यदि स्वीकार करना है तो इसी तथ्यको स्वीकार करना है। इसे स्वीकार करने पर उस पक्ष की यह समझ कि 'हम व्यवहारधर्मका सर्वश्रा विषेष कर रहे हैं' सुतरां दूर हो जायगी । हमने इस प्रश्न उत्तर में निश्चयधर्मके साथ व्यवहारधर्मकी भो चरचा की है। इसे अपर पक्ष अत्रासंगिक समझता है । किन्तु ऐसी बात नहीं है, क्योंकि जब संसारी जीवके संसारसे छूटनेके उपायका निर्देश किया जायगा तब निश्वयभ्रमंके साथ व्यवहारधर्मका निरूपण करना अनिवार्य हो जाता है। यदि पर पक्ष प्रश्नोंको सीमामें रहा आता तो लाभ ही होता । किन्तु उसको ओरसे सोमाका ध्यान ही नहीं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ जयपुर (खानिया) तत्व चर्चा रखा गया । लाचार होकर हमें प्रतिशंकाओंके आधार पर अपना उत्तर लिखने के लिये बाध्य होना पड़ा | उदाहरणार्थं अपने इसी सोय पत्रक में अपर पक्षने साध्य साधकभावको चरचा छेड़ दो है जब कि इसके लिए प्रश्न नं० ४ है । इतना ही नहीं, अपर पक्षने इस प्रसंग में जिन को रखा है उनकी भी यह विविध प्रनोंमें अनेक बार चरवा कर चुका है। ऐसी अवस्थामें हमें उनका उत्तर लिखना पड़ता है, इसका इलाज नहीं | अपर पक्षने अपने पिछले पत्रक कर्मको राग-द्वेष आदिका प्रेरक निमित्त लिखा और राग-द्वेषको कर्मका प्रेरक निमित्त लिखा । यही कारण है कि हमें इसके सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करना आवश्यक हो गया । कोई भी समाधान करनेवाला यदि प्रश्नकर्ताको प्रत्येक जातका विचार न करे तो उससे सम्यक् समाधान होना कभी भी सम्भव नहीं है। भोजन के समय यदि व्यापारकी वरचा की जाती है तो कभी-कभी उसका उत्तर देना भी अनिवार्य हो जाता है। प्रपर पक्ष हमसे शिकायत करनेकी अपेक्षा अपने पर दृष्टिपात करने की कृपा करे, सब बातोंका समाधान हो जायगा । संसारी प्राणी उलझन स्वयं उत्पन्न करता है और दोषी दूसरेको सरझता है, इस मिथ्या व्यवहारका निषेध जितने जल्दी हो जाय, लाभकर हो हैं । आचार्य कुन्दकुन्द मुनि और जयसेन अग्र्यानेि जहाँ भी धर्मको साधन और निश्वयधर्मको साप लिखा है वहाँ वह कथन समयसार गाथा ८ के विवेचन को ध्यान में रखकर ही किया है। व्यवहार धर्म निश्वय धर्मका साधन है इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मको सरपन करता है । किन्तु उसका आशय इतना ही है कि व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका व्यवहारसे हेतु है । जो हेतु होता है वह उसका साधन कहा जाता है और जो साधा जाता है वह साध्य कहा जाता है। इस प्रकार साधन - साध्यभाव व्यवहारधर्म- निश्चयधर्म में है इसका निषेध नहीं है। सम्यग्यदृष्टि ऐसे ही साधन-साध्याभावको दोनोंमें स्वीकार करता है, इसलिए वह सम्यग्दृष्टि है । किन्तु इससे अन्यथा माननेवाला मिध्यादृष्टि है यह बृहद्रव्यसंग्रह के कथनका आशय है । व्यवहारधर्मको कर्ता कहना और निश्चयधर्म को उसका कर्म कहना यह इन दोनों में निमित्तनैमित्तिक व्यवहारका ज्ञान करानेके लिए आगम में अद्भूत व्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर fear गया है। बृहद्यसंग्रह गाथा ३५ को टीकामें लिखा है निश्वयेन विशुद्धज्ञानदर्शन स्वभाव निजात्मनश्व भावनोत्पासुखसुधारसस्वादवलेन समस्त शुभाशुभरागादिविकल्प निवृत्ति तम् । व्यवहारेण तत्साधकं हिंसानुतस्ते या मह्मपरिग्रहास्य यावजीवनिवृत्तिलक्षणं पंचविधं व्रतम् । निश्चयनयको अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान दर्शनस्वभावरूप निज आत्मतत्वको भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतके स्वाद के बल से समस्त शुभाशुभ रागादि विकल्पोंसे निवृत्त होना अल है । तथा व्यवहारनयसे उसका साधक हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे यावज्जीवन निवृत्तिलक्षण पोच प्रकारका व्रत है । यह बागमवचन है । इसमें निश्चय बतका साधक दर्शन-ज्ञानस्वभावरूप निज आत्मतत्त्वकी भावनाको बतलाया गया है। यह निश्चय है और व्यवहार नयसे इसका साधक अशुभनिवृत्तिरूप पाँच प्रतों को बतलाया गया है। यह व्यवहार कथन है। इससे स्पष्ट है कि आगम में जहाँ भी व्यवहारधर्मको निश्चयका साधक लिखा है वहाँ वह कथन असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा से ही किया गया है । यद्यपि निश्चयधर्मकी प्राप्ति होती तो है शुभाशुभ विकल्की निवृत्ति होनेपर ही । ऐसा नहीं है कि अशुभरूप हिंसादिरूप विकल्पसे निवृत्त होकर शुभरूप अहिंसादि विकल्प के सद्भाव निश्चय मंकी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान प्राप्ति हो जाती है या सरो निश्चयधर्मकी प्राप्ति हो जाती है। जब भी उस (निदषयधर्म) को प्राप्ति होती है तब अशुभके समान शुभ विकल्पसे निवृत्त होकर स्वभावसन्मुख हो तस्वरूप परिणमन द्वारा ही होती है । परावलम्बो विकल्प तो इसकी प्राप्तिमें किसी भी अवस्थामें साधक नहीं हो सकता। फिर भी स्वभावसन्मुख होने के पूर्व अशुभ विकल्प न होकर नियमसे भ विकल्प होता ही है, इसलिए ही व्यवहार. नयसे व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका राषक कहा है। इससे यह ज्ञान होता है कि जो निरचयघर्गको प्राप्तिके सन्मखासको सिमाहरलापाण और स्वर्णमें जो साधक-साध्यभावका निर्देश किया है उसका भी यही आशय है। हमने जो यह वचन लिखा है कि निश्चय रलत्रयस्वरूप जितनी विशुद्धि प्रगट होती जाती है उसके पातमें उसके बादमें द्रश्यकमका अभाव होता हआ व्यवहार धर्म को भी प्राप्ति होती जाती है। वह दोनोंका अविनाभाव सम्बन्ध कसा है यह दिखलानेके लिए हो लिखा है। पहले कोई नहीं होता । साथ-साथ होते हैं यह लिखक र व्यवहार में सम्यक्पनेको हेतुताका निर्देश किया गया है। जो व्यवहार पहले मिथ्या था यह निश्चय रत्नत्रयको प्राप्ति होनेर मम्यक् व्यवहार पदवीको प्राप्त हो जाता है यह उन कथनका तात्पर्य है। जैसे जो ज्ञान पहले मिथ्या था वह सम्यवत्त्वकी प्राप्ति होने पर सम्यक हो जाता है उसी प्रकार ब्रतादिके आवरणला जो व्यवहार पहले मिथ्या था वह निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होनेगर सम्यक हो जाता है। इसको चाहे किन्हीं शब्दाम कहिए, हानि नहीं । इस कार्य-कारणपरम्परामें किसी प्रकारका व्यत्यय उपस्थित नहीं होता । अन्यथा आचार्य अमृतचन्द्र समयसार गाथा ७४ को टोकामें यह कभी न लिखते-- ___ यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रनेभ्यो निवर्तते । जैसे जैसे विज्ञान पनस्वभाव होता है वैसे वैसे आसूत्रोंसे निवृत्त होता है। अपर पक्ष हमारे कथनको विलोमरूपसे समझता है तो समझे । किन्तु क्या वह पक्ष इस कथनको मी विलोमरूप कहनेका अभिप्राय रख सकता है ? कभी नहीं । आक्षेप करना अन्य बात है पर पूरे जिनागम पर दृष्टि रखना अन्य बात है। अपर पक्षका कहना है कि 'अन्तरंग विशुद्धता कर्मोदयके अभावका ज्ञापक तो है किन्न कारण नहीं है।' यह पढ़कर हम बड़ा आश्चर्य हुआ। यदि अपर पक्ष तत्वायरलोकवातिक प० ६५ के इरा वचन पर या इसी प्रकारके अन्य आगमवचनों पर दृष्टिमात कर लेता तो आग्रहपूर्ण ऐसा एकान्त वचन कमी न लिखता। तत्त्वावलोकबातिकका वह वचन इस प्रकार है तेनायागिजिनस्यान्यक्षावर्ति प्रकीर्तितम् । रत्नत्रयमशेषाप्रविघातकारणं ध्रुवम् ।४।। इसलिए अयोगिजिनका अन्त्य क्षणवर्ती रत्नत्रय नियममें समस्त अघाँका विधात करनेवाला कहा गया है। यहाँ पर 'अघ' पद नामादि अवातिकर्म और उनको निमित्त कर हुए भावोंका सूचक है । कर्म हीनशक्ति होकर व उदीरित होकर झड़ जायें इसीका नाम तो अविपाकनिर्जरा है और इसका । जीवका विशव परिणाम है. इसलिए जैसे जैसे जीवका अन्तरंग विशद्ध परिणाम होता जाता है वैसे बैंसे कर्मोदयका अभाव होता जाता है इस सत्यको स्वीकार करने में अपर पक्षको आपत्ति नहीं होनो चाहिए । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा पाँचवे गुणस्थानमें यदि अप्रत्याख्यानाचरणका सत्व रहते हुए भी उदय नहीं होता और उसका स्तिबुक संक्रमण होता रहता है तो इसका मुख्य कारण पाँचवें गुणस्थानकी विशुद्धि हो है। मोक्षमार्गमें ऐसा ही कार्य-कारणभाव मुख्यतासे घटित होता है। यह विलोमप्रतिपादन नहीं है। धवला पु० १ पृ० ५.२ में 'स्वावरण' पद केवल द्रव्यकर्मको हो सूचित नहीं करता, किन्तु अन्तरंगमें सो अबिशुद्धि बनी हुई है उसे भी गूचित करता है। आत्मा शुद्धोपयोगके बलसे जैसे जैसे अविशुद्धिको दूर करता जाता है धैसे वैसे उसके निमित्तभूत कर्मों का भो अभाव होता जाता है यह उक्त उवरणका त्राशय है। अपर पक्षने प्रथमोपशम सम्यकत्वकी उत्पत्तिके क्रमका निर्देश किया है और साथ ही जिनको इसका मान है।' यह वचन भी लिखा है। इस पर हमे यह मान लेनमें आपत्ति नहीं है कि अपर पक्षको इसका विशेष ज्ञान है, हमें उतना ज्ञान नहीं है । पर कम ज्ञानके साथ ही यदि हम यह जानना चाहें कि अनिवृत्तिकरणमें प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति के मध्यवर्ती ददानमोहनीयके निषकोंका जो अन्तरकरण होता है उसका कारण आत्मोत्व विशुद्धि है या दर्शनमोहनीयका उदय ? तो यही उत्तर तो होगा कि वहां पर जो आत्मोत्थ विशुद्धि है वह उसका कारण है । इसका आशय यह हआ कि जैसे जैसे विद्धि में वृद्धि होतो जाती है वैसे वैसे मिथ्यात्त्रका उदय उत्तरोत्तर क्षीण होता जाता है और अन्तमें वाँके योग्य उत्कृष्ट विशुद्धि से युक्त आत्माके होनेपर जिस समय वह अपने पुरुषार्थसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है उसी समय मिथ्यात्न परिणाम और उसके निमित्तभूत मिथ्यात्व कर्मके उदयका अभाव रहता है। वहीं पर अन्तरायाम प्रमाण दर्शनमोहनीयका अभाव तो है ही। ऐशा यह योग है । इसीको कहीं बाह्य दृष्टि से मो विवेचित किया जाता है उसमें आपत्ति नहीं । किन्तु उराका आशय क्या है यह लेना चाहिए । ___ अपर पक्षने 'जह जिष्णमयं पवजह' गाथा उद्धत को है। उसमें व्यवहार और निश्चय दोनोंकी स्वीकृति है। इसका निषेध तो किसीने किया नहीं है। जैसे व्यवहारमयसे गुणस्थान-मागणास्थान आदिरूप भेदपवहार है घेरा ही निश्च यनयसे तत्त्व की भी स्वीकृति है। तीर्थका स्पष्टीकरण करते हुए स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है स्यगत्तयसंजत्तो जीवो वि हवेई उसमं तिथं । संसार तरह जदो रयणसयदिव्वणावाए ॥११॥ रत्नन्यसे युक्त जीव उत्तम तीर्थ है, क्योंकि यह रत्नत्रयरूपी दिव्य नाषसे संसारको पार करता है ॥१६॥ इससे स्पष्ट है कि वास्तव में तो निश्चय रत्नत्रययुक्त आत्मा'ही उत्कृष्ट तीर्थ है। किन्तु उसके साथ जो व्यवहार रत्नत्रय होता है उसे भी व्यवहारसे तीर्थ कहना उपयुक्त है, क्योंकि निश्यय व्यवहारका ऐसा ही योग है। अतएव उक्त गाथापरसे यदि कोई यह फलित करे कि बाह्य व्यवहारसे परमार्थकी प्राप्ति हो जाती है। उसे स्त्र भावका अबलम्बन लेकर एकान होने की आवश्यकता नहीं है तो उक्त माथा परसे ऐसा आशय फलित करना ठीक नहीं है । अतएव भेद विज्ञानपूर्वक आत्मजा गृति ही कर्मबन्धनसे छूटनेका यथार्थ उपाय है ऐसा यहाँ निर्णय करना चाहिए | Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५. निश्चय जीव रागादिसे पर है इस तथ्यको समर्थन अपर पक्षने हमारे 'निश्चयनयको अपेक्षा विचार करने पर जीव स्वयं अपने अपराधके कारण ब है, अन्य किसीने बलात् बाँध रखा हो और उसके कारण वह बंध रहा हो ऐसा नहीं है। इस वचनको आगमविरुद्ध लिखा है। अपर पक्षने यहाँपर अपने पक्षके समर्थन में जो प्रमाण उपस्थित किये हैं। उनमें बुद्ध निश्चयनय के विषयका निर्देश किया गया है। किन्तु यहाँपर 'आत्माश्रितो निश्चयनय:' इस क्षणको ध्यान में रखकर उक्त बचन लिखा गया है। अज्ञानी जीव रागादिरूप स्वयं परिणमता है, अन्य कोई उसे रागादिरूप परिणमाता नहीं । अतएव जीवके शुभाशुभ परिणाम भावबन्ध हैं और जीत्र उनसे बद्ध है इसे निश्चयस्वरूप मानने में आगमसे कहीं बाधा आती है इसे अपर पक्ष ही जाने । ะ ५९१ हम इसी उत्तर में प्रवचनसार गा० १८६ को आचार्य जयरोनकृत टीकाका उद्धरण दे आगे हैं । उसमें रागादिको ही आत्मा करता है और उन्होंको भोगता है इसे निश्चयनयका लक्षण कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि अवर पक्षने जो उक्त वचनको आगमविरुद्ध लिखा है सो उस पक्षका ऐसा लिखना हो आगमविरुद्ध है, उक्त वचन आगगविरुद्ध नहीं है । इसके लिए द्रव्यसंग्रहको 'बवहारा सुहवुक्ख' इत्यादि गाथा देखिए । अपर पचने समयसार गाथा १३ की टीकाका 'स्वयमकस्य' इत्यादि वचन उद्धृतकर यह सिद्ध किया है कि अकेले जीव बन्धको उत्पत्ति नहीं हो सकती | समाधान यह है कि उक्त वचन द्वारा निश्चय व्यवहार ariant स्वीकार किया गया है। उस द्वारा बन्ध पर्यायी दृष्टिसे यह बतलाया गया है कि जीव स्वयं रागादि रूप परिणमता है, अतएव रागादिरूप बन्धपर्यायका निश्चयसे वह स्वयं कर्ता है, अन्य द्रव्य उसका कर्ता नहीं । किन्तु जब भी वह रागादिरूपसे परिणमता है तब उसको कर्मका आश्रय नियमसे होता है । इसोको अकेले जीवमं बन्धकी उत्पत्ति नहीं होती है यह कहा जाता है । उक्त वचनका इससे भिन्न कोई दूसरा आशय नहीं है। तभी ती समयसार में यह कहा है यदि जीवका कर्मके साथ ही रागादि परिणाम होता है अर्थात् यदि दोनों मिलकर रागादिरूप परि जमते हैं ऐसा माना जाय तो इसप्रकार जीव और कर्म दोनों रागादिभावको प्राप्त हो जायें। किन्तु रागादि रूप परिणाम तो अकेले जीवके ही होता है, अतएव कर्मोदयरूप निमित्तसे भिन्न ही वह जीवका परिफाम हैं || १३९ - १४० ॥ रागादिका नाम भावबन्ध है इसे तो अपर पक्ष स्त्रीकार करेगा ही। ऐसी अवस्था में वह स्वयं निर्णय करे कि यह किसका परिणाम है और यथार्थ में इसे किसने किया है ? उसका अपर पक्ष यही उत्तर तो देगा कि उपादानरूपसे इसे स्वयं जीवने किया है, कर्म तो उसमें निमित्तमात्र हैं। इससे सिद्ध हुआ कि निश्चयसे जीव अपने अपराध के कारण स्वयं रागादि भावोंसे बद्ध हो रहा है । यदि वह कर्मका आश्रय एवं परमें इष्टानिष्ट बुद्धि करना छोड़ दे तो उसके रागादिके विलय होने में देर न लगे । ६. उपचार तथा आरोप पदकी सार्थकता संसारी जीव ज्ञानावरणादि कर्मोसे बद्ध है ऐसा कहना असद्भूत व्यवहारका भवतव्य है, इसे स्वीकार करके भी अपर पक्षने लिखा है कि 'किन्तु आपने इस सत्य सरल कथनको सरोड़-मरोड़ कर मारोपित यदि शब्दोंके प्रयोग द्वारा असत्य तथा जटिल बनानेका प्रयास किया है जो शोभनीय नहीं है ।' आदि । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा समाधान यह है कि जब अपर पक्षने संसारी जीव ज्ञानावरणादि कमौसे बद्ध है इस कथनको असभूत पवहारनयका तप स्वीकार कर लिया है तो उसे असद्द्भूतव्यवहारनयके लक्षण के अनुसार यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि आत्मा में जो अपने विकारी गुणपर्यायोंके साथ बद्धता पाई जाती है असल ज्ञानव्याजाता है कि आत्मा ज्ञानावरणादि कर्मोंसे है । ऐसा स्वीकार करना ही सत्यार्थ है। ऐसा स्वीकार कर लेनेसे सद्भूत व्यवहारनय और निश्चयनवसे भिन्न अद्भुत हार विषयको व्यवस्था बन जाती है । फिर तो उसे आकाशकुसुमके समान कल्पनारोपित घोषित करने को अपर पक्षको आवश्यकता भी नहीं रह जायगो और नवमें सत्यार्थता भो उस पक्ष की प्रतीति में आ जायगी । अद्भूत व्यवहारनयके लक्षण आदिके विषय में विशेष खुलासा इसो उत्तर में पहले हो कर आये हैं । इससे अपर पक्ष के ध्यान में यह अच्छी तरह नाजायगा कि तरोड़-मरोड़ कर अपर पक्ष हो अपना पक्ष रख रहा हैं, हम नहीं । अपर पस यदि असद्वारके लक्षण बाधार पर लिखता तो उसे हमारे द्वारा प्रयोग किये गये 'उपचार' शब्द और 'आरोप' शब्दको सार्थकता भी समझ में जा जाती अपर पक्षको स्मरण रखना चाहिए कि इन शब्दों का प्रयोग न किया जाय तो असद्भूतव्यवहारके विषयका स्पष्टीकरण करना सम्भव ही नहीं हो सकता । ५५२ अपर पक्षका कहना है कि 'किन्तु एक नयकी दृष्टिमें दूसरे नयका विषय न होने से उस दूसरे नयके बिषयको अभूतार्थं कहा जाता | किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दूसरे नयका विषय आकाशके पुष्प के समान सर्वधा असत्यार्थ है ।' समान यह है कि अद्भूत व्यवहारनयका विषय आकाशपुष्पके समान सर्वथा असत्यार्थ है यह तो हमने कहीं लिखा नहीं है और न ऐसा है हो। यह शब्दयोजना तो अपर पक्षने को है, इसलिए इसमें संशोधन उसीको करना है। फिर भी निश्चयनय वस्तुके स्वरूपका प्रतिपादन करता है अतएव निषेध धर्मवाला है और असद्भूत व्यवहारनय दूसरे के धर्मको उससे भिन्न वस्तुका कहता है, इसलिए वह प्रतिषेध्य धर्मवाला है, इसलिए माचायोंने निश्चयनयके विषयको सर्वत्र भूतार्थ हो कहा है तथा व्यवहारनयके विषयको एक दृष्टिसे भतार्थ और दूसरी दृष्टिमे अभूतार्थ कहा है । जिसका निदर्शन आचार्य अमृतचन्द्रका यही वचन है जिसे अवर पक्षने यहाँ अपने पक्ष समर्थन में उपस्थित किया है ( समयसार गाथा १४ की टीका ) । अपर पक्षने उक्त टोकाववनका आशय लिखनेके बाद फलितार्थ रूपमें जो यह वचन लिखा है कि 'अर्थात् जीवकी एक ही बन्ध अवस्थाको व्यवहार और निश्चय दो भिन्न भिन्न दृष्टियोंसे देखने पर सत्यार्थ और असत्यार्थ दिखाई देती है ।" सो यह वचन उचित ही लिखा है। इसे अपर पक्षने किस आशवसे लिखा है यह तो हम जानते नहीं । किन्तु शब्दयोजना पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि जीवको एक ही बन्ध अवस्था अर्थात् रागादिरूप जो बन्धपर्याय है वह व्यवहारनयसे सत्यार्थ है -- सद्भूत है। किन्तु शुद्ध दृष्टिसे असत्यार्थ है, क्योंकि शुद्धनय में भेदव्यवहार गौण है । इससे अपर को यह स्पष्ट हो जायगा कि असद्भूत व्यवहारनयके विषयका स्पष्टीकरण करते समय हमने जो 'आरोपादि' शब्दों का प्रयोग किया है यह विपरीत मान्यताका फल है ? या अपर पक्ष स्वयं अपनी विपरीत मान्यता बनाकर ऐसा लिख रहा है । श्लोकवातिक पृ० १५१ में आचार्य अमृतचन्द्रने 'सदेवं व्यवहारन यसमाश्रयणे' इत्यादि वचन किस Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५९३ आशयसे लिखा है इसके स्पष्टीकरण के लिए उनके द्वारा प्रयुक्त 'व्यवहारनयसमाश्रयणे यह वचन ही पर्याप्त है। विशेष खुलासा पांच-छटे प्रदन के तृतीय उत्तर में किया ही है । हमने अन्य किन प्रश्नोंके उत्सरमें व्यवहारनयके विषयको सत्यार्थ किंग रूप में माना है इसका अपर पक्षने हमारे कथनका कोई प्रमाण अपस्थितन किया, इसलिए अगर पसके अन्य के उत्तरमें आपने भी ध्यवहारमयके विषयको सत्यार्थ माना है इस कथन पर हमने विशेष विचार करना उचित नहीं समझा । अपर पक्ष यदि प्रेरक निमित्तकारणका अर्थ व्यवहारनवसे करणनिमित्त या कर्तानिमित्त करता है और इस मान्यताका स्याग कर देता है कि समर्थ उपादान अनेक योग्यताओंवाला होता है, इसलिए जब जैसे निमिस मिलते है उनके अनुसार कार्य होता है। तथा इस तथ्यको स्वीकार कर लेता है कि उत्तर काल में जो कार्य होता है उसे समर्थ उपादान उस कार्यके अनुरूप अपनी विवक्षित एक द्रव्य-पर्याययोग्यतासे मम्पन्न होकर निश्चयसे स्वयं उत्पन्न करता है, क्योंकि प्रत्येक कार्य उपादान के सा होता है-उपादानमदशं कार्य भवतीति यावत् । कारण कि उसके बाद वह उसो कार्यको उत्पन्न करने को सामथ्र्यवाला है यह नियत है, तभी उन दोनों में उपादान-उपादेयभाव बनता है तो हमें 'स्व-परप्रत्यय पदमें जो 'पर' शब्दका प्रयोग हुआ है उसे प्रेरकनिमित्त कारण कहने में अणुमात्र भी आपत्ति नहीं है। उपासकाध्ययन इलोक १०६ में इसी आशयम 'प्रयते, शब्द का प्रयोग हुआ है । तथा २४७ लोकमें इसी अभिवायसे कर्मको क्लेशका कारण कहा गया है। निश्चय-च्यव. हारकी ऐसी युनि है । मात्र इसीको बायाभ्यन्तर उपाधिको समग्रता कहते हैं। अपर पक्षने लिखा है कि जिस प्रकारका जितने अनुभागको लिये घातिया कर्मोंका उदय होता है उससे आत्माके परिणाम अवश्य होते है ।' किन्तु यह कथन ठीक नहीं है। इस विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाम गाथा ५७में लिखते हैं कम्म वेदयमाणोजीची भावं करेदि जारिसर्य सो सेण तस्स कसा हवदि सिसासणे पविदं ॥५॥ कर्मको वेदता हुआ जोब जैसा भाव करता है, इससे वह उस ( भाव ) का कर्ता होता है ऐसा जिनशासनमें कहा है ॥ ५७ ॥ इससे स्पष्ट है कि आत्मा अपना भाव करने में स्वतन्त्र है। उसमें कर्मको पराधीनता नहीं है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए उसको टीकामें आचार्य जयसेन लिखते है कर्मको बेदर्नवाला अर्थात बीसराग निर्भर आनन्द्रलक्षण प्रचण्ड अखण्ड ज्ञानकाण्डपरिणत आत्म. भावनासे रहित होने के कारण और मन,वचन,कायलक्षण व्यापाररूप कर्मानुसे परिणत होनेके कारण जीव भाप कर्ता होकर जैसे भाव ( परिणाम ) को करता है वह जीच उसी करणभूत भाषके कारण कर्मभावको प्राप्त हुए उस रागादि भावका कर्ता होता है ऐसा शासन (परमागम ) में कहा है यह उन गाथाका तात्पर्य है। -मूल टीका आधारसे आचार्य अमृत चन्द्र उक्त गाधाकी टीका करते हुए लिखते हैअमुना यो येन प्रकारेण जीवेन भावः क्रियते स जीवस्तस्य भावस्य तेन प्रकारेण कर्ता भवतीति । इस विधिसे जीवके द्वारा जिस प्रकारसे जो भाव किया जाता है वह जीव उस भाषका उस प्रकारसे का होता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा ___ यहा 'येन प्रकारेण' तथा 'तेन प्रकारेण' पद ध्यान देने योग्य हैं। इन पदों द्वारा अपने भाव करने में जीवकी स्वतन्त्रता घोषित की गई है। इसके साथ जीवकी इतनी विशेषता और है कि परको निमित्त कर उत्पन्न हुए इन भावों में यह जीव उपयुक्त हो या न हो यह उसकी अपनी दूसरी विशेषता है । यह मोक्षमार्गकी चाबी है । मोक्षके द्वारका उद्घाटन इसी चावीसे होता है । अन्य जितना कथन है वह सब व्यवहारवचन है। आचार्य अमृतचन्द्र समः सा० गा० १७२ की . टोकामें लिखत है जो वास्तव में ज्ञानी है उसके बुद्धिपूर्वक राग-द्वेष-मोहरूपी आस्रव भावों का अभाव है । इसलिए वह निरालव ही है। परन्तु इतनी विशेषता है कि वह ज्ञानी भी जब तक ज्ञान (आत्मा } को सर्वोत्कृषभाषसे देखने, जानने, अनुचरण करनेके लिए अशक होता हुआ जघन्यभावसे ही ज्ञान (आत्मा) को देखता, जानता और अनुचरता है तब तक उसके मी जघन्यभात्रको अन्यथा उत्पशि नहीं हो सकती, इससे अनुमीयमान अत्रुद्धिपूर्वक कमलक विपाकका सद्भाव होनेसे पुद्गल कर्मका बंध होता है। अतः तब तक आत्मा ( ज्ञान ) को देखना गहिए, जानना चाहिए और अनुचरण्या चाहिए जब तक ज्ञान (आत्मा) का पूर्ण भाष है उतना मले प्रकार देखने जानने और अनुचरणमें भाजाय तबसे लेकर साक्षात् ज्ञानी होता हुआ वह आत्मा निरास्वव ही रहता है। अपर पक्षकी इसी दृष्टिको ध्यान में लेना है। इसे ध्यानमें बनेपर उम पक्षका कोन कथन भागमानुकूल है और नहीं है तो क्यों नहीं है यह भी उसके व्यान में आ जायगा। अपर पक्ष यदि यह नहीं मानता है कि 'जो निमित्त बलात् कार्यके स्वकालको छोड़कर आगे-पीछे पर द्रव्य उत्पन्न करता हो वह प्रेरक निमित्त है तो हम उसका स्वागत करते हैं। ऐसी अवस्था उसे पंचाध्यायी ५०६५ का उद्धरण देनको कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। वहाँ स्वद्रव्य, सक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावके निर्देशके प्रसंगसे स्वकाल दाब्द पर्यायके अर्थ में आया है। यही विचार यह करना है कि पर्याय तो अनन्त हैं और उनका लक्षण क्रमभावीपना है, इसलिए उनका उत्पाद-पय क्रमानुपाती होला है या नहीं? इसीके समाधानस्वरूप उपादानके आधार पर यह स्पष्ट किया जाता है कि जितनी उत्पादरूप पर्याये हैं उनके उतने ही समर्थ उपादान है, इसलिए उनका उत्पाद क्रमानुपाती ही होता है और उनके व्यवहार हेतु भी क्रमानुपाती क्रमसे उसी विधिसे मिलते रहते हैं। निश्वयव्यवहारकी ऐसी ही युति है। इसी अवस्थामें सम्यक अनेकान्त घन सकता है, अन्यथा नहीं । अन्यत्रहित पूर्व समयवों पर्याययुक्त द्रव्य समर्थ उपादान है और अव्यवहित उत्तर समयवर्ती पर्याययुक्त द्रव्य उसका उपादेय है यह क्रम है। इसी क्रमसे सब कार्य होते हैं। निमित्त व्यवहार के योग्य अन्यका संयोग भी इसी क्रमसे मिलता है। इस क्रमको कोई महाशय अन्यथा नहीं कर सकता। अभी अपर पक्ष उपारा काध्ययन का 'प्रेयते कर्म जीवेन' इत्यादि बचन उद्धृत कर आया है । हम तो कर्मशास्त्र के विशेषज्ञ नहीं है। उसके विशेषज्ञ हमें अपर पक्षको मानने में आपत्ति भी नहीं है। अतएव हम यदि यह जानना चाहे कि अपर पक्षने जो अपने पक्षके समर्थन में उक्त उल्लेख सपस्थित किया है वह सार्बकालिक नियमको ध्यान में रखकर उपस्थित किया है या इसे कायाचिरक नियमके रूप में उपस्थित किया है। यदि सार्वकालिक निमम समझकर उपस्थित किया है तो अपर पक्षने कर्मशास्त्रको विशेषताको प्रकाशमें लाने के Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका २ और उसका समाधान अभिप्रायसे जो यह लिखा है कि 'किन्तु जी कर्मशास्यके विशेषज्ञ हैं वे भलीभांति जानते हैं कि प्रत्येक समममें जो द्रव्यकर्म बंधता है उसमें नाना वर्गमाएँ होती है और सभी वर्गणाआम समान अनुभाग (फलदान शक्ति) नहीं होतो, किन्तु भिन्न-भिन्न वर्गणाओम भिन्न-भिन्न अनुभाग अर्थात किसी वर्गणामें जघन्य, किसी में मध्यम मोर किसी में उत्कृष्ट अनुभाग होता है । मध्यम अनुभागके अनेक भेद है और वर्गणा भी नाना है । इस प्रकार जिस समय जैसा अनुभाग उदयमें जाता है उसके अनुरूप आत्माके परिणाम होते हैं।......"जिस समय मंब अनुभाग उदयमें आता है उस समय मंद पायल्प परिणाम होते हैं और उस रामय ज्ञान व वीयंका क्षयोपशम विशेष होनेमे आत्माकी शक्ति विशेष होती है। उस समय यदि यथार्थ उपदेश आदिका बाा निमित्त मिले और यह जीव तत्त्वविचारादिका पुरुषार्थ करे तो सम्यक्त्व हो सकता है ।' आदि । वह युक्तियुक्त नहीं ठहरता, क्योंकि इसमें भी तीव्र-मन्द भावसे परस्पराश्रयता बनी रहने के कारण न तो बाहमा कर्मोदयके विरुद्ध पुरुषार्थ कर सकता है न हो ज्ञानका उदय हो सकता है और न ही उपदेश आदिका बाह्य निमित्त मिल सकता है, क्योंकि कर्मोदयमात्र मोक्षमार्गका प्रतिबन्धक है, अत: 'कमदिय बलात् राग-द्वेषको उत्पन्न करते हैं और राग-द्वेष बलात् वर्मका बन्ध कराते हैं' इम सिद्धान्तके स्वीकार करने पर माक्षमागका पुरुषाय कभी नहीं बन सकेगा यह जो आपत्ति हमने दी है वह उचित ही है। यदि अपर पमने 'प्रेय ते कर्म जीनेन' इत्यादि बचन कदाचिरक नियमके रूपमें उपस्थित किया है तो हमसे अपर पक्षक इस सिद्धान्तका खण्डन हो जाता है कि 'कम जाव में बलात राग-दूपादिको उत्पन्न करता है। अतः प्रकृतमें यह सव कथन व्यवहारनयका वक्तव्य ही समझना चाहिए। ब्रह्मदेव सुरिने बृहद्रव्यसंग्रह गा० ३७ में जो कुछ लिखा है, वह ठीक ही लिखा है। उन्होंने एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में बलात कार्य करता है इस सिद्धान्तको स्वीकार करके वह वचन नहीं लिखा है, अतएव उनका वैमा लिखना उचित ही है। उनके लिखनेका आशय ही इतना है कि यदि यह जीव कर्मोदय और इसके फलमें उपयुषत न हो तो वह संसारपरिपाटीसे मुक्त हो सकता है। अपर पसने इष्टापदेश गाथा ३१की टीकासे 'काय नि बलिओ कम्मो' यह वचन उद्धृत किया है। किन्तु इसका भी आशय इतना ही है कि जब तक यह जीव उदयाधीन होकर परिणमता है तब तक कर्मकी बलवत्ता कही जाती है 1 कौने उदयाधीन किया नहीं। वह स्वयं उसके आधीन हुआ है। किन्तु जब यह जीव कर्मोदय में तन्मय न होकर अपने स्वभावके सन्मुख होता है तब मात्माकी बलवत्ता कही जाती है । इष्टोपदेश गा० ३१ को समन टीका पर दृष्टिपात करनेस यही भाव व्यक्त होता है। अपर पक्षने लिखा है कि 'नेयमाणाः पुद्गलाः का जो वाच्य अर्थ है वह हो जिनागममें इष्ट है, क्योंकि शब्दोंका मौर का परस्पर वाच्य-वाचक सम्बन्ध है। किन्तु प्रश्न तो यही है कि प्रेयमाणा' पदका वाच्यार्थ क्या है ? इस तो स्पष्ट किया नहीं और लम्बी-चौड़ी टीका कर डाली। इसीका नाम तो चतुराई है। जिनागममें तो इसका यह अर्थ है कि राग मेषसे मल मम आत्माके योग और विकल्पको निमित्तकर जो पुदगल शब्दरूप परिणमत हैवप्रयमाण पुद्गल कहलाते हैं। अच्छी बात है यदि अपर पक्ष इस वाच्यको स्वीकार कर लेता है और अन्य ट्रम्प अन्य द्रव्यमें बलात कार्य कर देता है इत्यादि प्रकारको गलत मान्यताको त्याग देता है। ऐसी अवस्था में उसके द्वारा आगमका अर्थ करने में जो अनर्थ हो रहा है उसका सूतगं न्याय हो जायगा । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ जयपुर (खानिया ) नत्वचर्चा समयसार २१६ आदिम जवकी जो परिणामी नित्य सिद्ध किया है यह स्वमतका हो निरूपण है । परमलका खण्डन उसका मुख्य लक्ष्य नहीं है । प्रत्येक कार्य में बाह्य निमित्तका स्वीकार है इसमें सन्देह नहीं। चाहे वह अगुरुलघु गुणका परिणमन हो या अन्य परिणमन, बाह्य निमिचकी स्वीकृति सर्व है । किन्तु यह परिणामी स्वभाव में बाधा न आवे इस रूप में ही है, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यका बलात् कार्य करता है इस रूपमें नहीं । प्रत्येक परिणाम बाह्य निमित्तसे मिलकर नहीं होता, उससे पृथक रूप में उपादान में ही होता है, इसलिए उस परिणामको उपा दान ही उत्पन्न करता है, बाह्य निमित्त नहीं । समयसार गाथा ८०, ८१, ८२ का यही आशय है । यही कारण है कि समयसार गाथा १०७ में 'करता है, परिणमता है, उत्पन्न करता है, ग्रहण करता है, त्यागता है, बता है' इत्यादि कथनको अद्भूत व्यवहारनयका वक्तभ्य कहा है। अपर पक्ष इस गाथा के इस वचन पर श्रृष्टि डालने का कष्ट करे - यत्तु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि प्राप्यं विकार्यं निर्वृत्यं च पुद्गलवन्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिण मयुत्पादयति करोति बध्नाति वात्मेति विकल्पः स किलोपचारः । तथा व्याप्यव्यापकभावका अभाव होने पर भी प्राप्य को आत्मा ग्रहण करता है, परिणमाता है, उत्पन्न करता विकल्प होता है वह उपचार है । विकार्य और निर्वृत्य पुद्गल द्रव्यात्मक कर्म करता है और बजता है इत्यादिरूप जो । इससे अपर पक्षका जो यह विचार है कि 'वह गाथा निमित्त कारणकी अपेक्षासे नहीं लिखी गई, किन्तु उपादानकी अपेक्षासे लिखी गई उसका निरास हो जायगा । गाथा में हो जब 'आदा' पद कर्ताके अर्थ में और ' पुग्गलम्' पद कर्मके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। ऐसी अवस्था में यह लिखना कि वह गाथा निमित्त कारणकी अपेक्षासे नहीं लिखी गई, किन्तु उपादानको अपेक्षासे लिखी गई बहुत बड़ा साहस है । टीका यही कहती है कि आत्मा और पुद्गल कर्ममें व्याप्यव्यापकभाव नहीं है, फिर भी जो यह कहा जाता है कि 'आत्माने पुद्दल कर्मको उत्पन्न किया वह अज्ञानीका विकल्पमात्र है, अतएव उपचरित कथन है, क्योंकि उपादान हो अपने कार्यको उत्पन्न करता है, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके कार्यको उत्पन्न नहीं करता । मात्र अन्य द्रव्य अन्य के कार्यको उत्पन्न करता है ऐसा विकल्पमूलक व्यवहार होता है। हमने प्रश्न नं० १ व १६ में निमितककी स्वीकृति समयसार गाथा १०० के अनुमार ही दो है । किन्तु इससे अपर पक्ष प्रेरक निमित्त कर्ताका स्वच्छासे जैसा अर्थ करता है उसका समर्थन नहीं होता । विवाद शब्द प्रयोगमें नहीं है, उसके अर्थ करने में है । fair safest स्त्री आदि विषयोंके आधीन देखकर स्त्रीको उपदेश नहीं दिया जाता कि तुमने इसे अपने जान क्यों बना रखा है, किन्तु पुरुषको ही उसके यथार्थ कर्तव्यका भान कराया जाता है । इससे स्पष्ट है कि यह जीव परमें आनन्दकी मिथ्या कल्पनावश स्वयं विषयाधीन बनता है, विषय उसे पराधीन नहीं बनाते । यहाँ जीवके पराधीन बनने में विषय बाह्य निमित तो है, उसके कर्ता नहीं । इसी प्रकार कार्यमें बाह्य निमित्तका क्या स्थान है, इसका सर्वत्र निर्णय कर लेना चाहिए । तत्त्वार्थश्लोकातिक पृ० ४९० में यद्यपि प्रारम्भ में आकाश द्रश्य और अन्य द्रव्योंको आधाराधेयताका विचार किया गया है। परन्तु आगे वह कथन यहीं तक सीमित नहीं रहा है। किन्तु उम्र द्वारा सब द्रव्यों में उत्पादादिक विस्सा हैं या सहेतुक इसका उत्तर निश्चयनय और व्यवहारनय से दिया गया। | अतः अपर पक्षका Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ५९७ यह लिखना कि कि 'श्लोकवातिक पृ० ४१० का कथम प्रेरक निमित कारणके विषय में नहीं है, किन्तु धर्मादि द्रव्योंके विषयों है जो अप्रेरक है ।' युक्तियुक्त नहीं है। अपर पक्षका कहना है कि निमित्त नैमित्तिकसम्बन्ध निश्चयनयका विषय नहीं है । पर इससे क्या ? देखना यह है कि यह सम्बन्ध परित है या नहीं। हम इसी उत्तरमें पहले बसद्भुत व्यवहारका आगमसे स्पष्टीकरण कर आये है। उसमें भेदमें अभेदका उपचार करना इसे असदुद्भूत व्यवहार बतलाया गया है। इससे यह सम्बन्ध उपचरित ही सिद्ध होता है। अपर पक्षने अपने पक्षके समर्थन में आलापपद्धतिके 'मिसवस्तुविषयो' इस प्लक्षका सहारा लिया है। किन्तु वहाँ एक वस्तु में भेद व्यवहारको भिन्न वस्तु कहा गया है । अपर पक्ष भेदोंके जो उदाहरण दिये है उन पर दृष्टिपात करले, सब स्पष्ट हो जायगा। वैसे यह लक्षण भो पद्धति में किये गये असदर्भत व्यवहारनयके 'अन्यत्र प्रसिद्धस्य' इत्यादि लक्षणका पुरक ही है। समयसार गाथा १६ की आत्मख्याति टीका व्यवहारनयका 'इह हि व्यवहारनयः"...."परभा परस्य विदधाति' यह लक्षण किया है। इससे हमारे उक्त कथनको पुष्टि हो जाती है । अतएव उक्त लक्षणके आधारसे भी निमितनैमित्तिकसम्बन्ध उपचरित लो सित होता है। इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें हमने इसी आशयसे इसका निरूपण किया है। तत्त्वार्थरलोकवातिक प० १५१ में द्विष्ठ कार्य-कारणभावको व्यवहारनयसे परमार्थमत् लिखा है। इसलिए अपर पक्ष इस उल्लेखको बहुत महत्व देता है। अनेक प्रपत्रों में उस पक्षने इसकी अनेकवार बरचा की है। अब विचार यह करना है कि वहाँ विद्यानन्दि आम ऐसा दो नि! कि बीउदय रूप, वंदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार आदिको संवृतिसत मानता है। क्योंकि यह दर्शन पर्यायोंमें अन्वित होनेवाले ट्रम्पको नहीं स्वीकार करता। तस्वको मात्र क्षणिक मानता है। किन्तु जैनदर्शनको यह स्थिति नहीं है । अतएव उपादान और उपादेयके कालभेदकी अपेक्षा भिन्न होने पर भी एक प्रत्यासत्तिके कारण इनमें कथंचित् तादाम्प बन जानसे आचार्य विद्यानन्दिने सद्भुत व्यवहारनपको हमानमें रखकर द्विष्ठ (दोमें स्थित) कार्य-कारणभावकी वस्तुत: परमार्थसत कहा है, क्योंकि उपादान अपने स्वरूपसे स्वत:सिद्ध है और उपादेय अपने स्वरूपसे स्वतःसिद्ध है। इनमें उपादान और उपादेवरूप धर्म वास्तविक है। इस मुम्बन्ध में आचार्य विद्यानन्दिके ये शब्द लक्ष्य में लेने योग्य हैं। वहीं पु०१५० में लिखते हैं कार्यकारणभावस्य हि सम्बन्धस्याबाधितप्तथाविधप्रत्ययारूपस्य स्व सम्बन्धिनो वृतिः कवितादास्यमेवानेकान्तवादिनोच्यते । अबाधित तथाविध प्रत्यवारूद कार्य-कारणभावरूप (उपादान-उपादेय-भावरूप) सम्बन्धको अपने सम्बधियों में वृत्ति कथञ्चित तादात्म्यरूप ही अनेकान्तवादियों ने स्वीकार की है। यह आचार्य विद्यानन्दिका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। 'दवं व्यवहारनयसमाश्रयणे इत्यादि वचन लिख कर उन्होंने मुरूपतासे हसी कार्य-कारणभावको अर्थात उपादान-उपादेयभावको परमार्थसत कहा है। इसके लिए तत्त्वार्थश्लोकवातिक पु.१५० अवलोकनीय है । बाह्म सामनो और कार्यमें कार्य-कारणभाव (निमित्त नमित्तिकभाव) केवल कालप्रत्यासत्तिको ध्यान में रखकर स्वीकार किया गया है. क्योंकि कालप्रत्यासत्तिरूपसे जैसे बाह्य सामग्रीकी सत्ता है उसी प्रकार कार्यव्यकी भी सत्ता है। इस रूपसे ये दोनों परमार्थसत् है 1 इससे द्रिष्ठ कार्य-कारणभावको परमार्थसत् कालप्रस्यासत्तिवश कहा है यह भी ज्ञात हो जाता है और इनमें निमित्त नैमित्तिकव्यवहार असद्भूतथ्यवहारनयका विषय कैसे है यह भी शात हो जाता है। -- Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) सत्वचर्चा अपर पक्षने घवला १०६ १० १५४ के उल्लेख के सन्दर्भमें उपादान कारणके अनसार स्थितिबन्ध में विशेषताको स्वीकार कर लिया यह उचित ही किया है, क्योंकि सर्वत्र सभी कार्य उपादानके अनुसार होते हैं यह परमार्थसत् कथन है । इस उल्लेख में 'पबडिविसेसादी' पदका यही आशय है। इस विशेषताका उल्लेख आचार्य वीरसेनमे घवला और जयधवला दोनोंमें शताधिक वार किया है। कहीं 'सहावदो' लिखा है । इसके लिए धवला पु० ४ पृ०३४३ ३ ४६८, पु० ५ पृ० ८८ पु० ६ पु० १४८ व ३१७, पु०१० पृ० २२६१ २४०, पु० ११ १० २४६, म ३०६, पु० १२ पृ. ३७, जयपचला पु०७पृ०७४,७५, ८३, ८४, ६५, ६६, १११, २४०, २४२, व २७४ आदि पृष्ठ द्रष्टव्य है । “पयजिविसमादो' इसके लिए धवला पु०६ पृ० १७८, १६३, १६४, पु०१२ पृ०४६ तथा जयधवला पु० ७ पु० ७५, ८५,६०,६४, ९५, ६७, १८, १६, १११,११५, ११६,११७, १२१,१३१,१३२ आदि पृष्ट अवलोकनीय है। इन सब उल्लेखों द्वारा उपादानको महत्ता ही घोषित को गई है। ऐसी अवस्थामें धवला गु० ६ पृ० १६४ के सस्त उल्लेख में आये हुए 'एग्रसेण' पदका अपर पक्षने जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि इस पद द्वारा दाशार्थ सापेक्षपनको कहनेवाले पकधारपक्षके एकान्त का निपेचकर परनिरपेक्ष निश्चयपश्न का समर्थन किया गया है । कारण कि सभी कार्य निश्चयसे परनिरपेक्ष ही होते हैं । व्यवहारसे ही उन्हें सहेतुक स्वीकार किया गया है, क्योंकि निश्चयनय मात्र वस्तुस्वरूपका उद्धाटन करता है, इसलिए यह परनिरक्षरुपसेही मान्यरूपके विरूलाने में प्रवृत्त होता है। परन्त व्यवहारलयकी यह स्थिति नहीं है। कारण कि सापेमभावसे वस्तुकी सिद्धि करना उसका प्रयोजन है। उदाहरणार्थ भव्यों और अभव्योंका स्त्ररूप परनिरपेश स्वतःसिद्ध है। माल इनका मनहार परस्पर सापेक्ष होता है। इसीप्रकार प्रकृतमें जान लेना चाहिए । यही कारण है कि आचार्य वीरसेन ने धवला पु० ७ १० ११७ में सभी कार्य बाह्याचं कारण निरपेक्ष होते हैं। इस तथ्यको स्वीकार करते हुए लिखा है पात्यकारणणिरवेस्खो वत्थुपरिणामो। इससे स्पष्ट है कि प्रकृतमें अगर पक्षने 'उक्त उल्लेखमें आये हुए 'एयंतेण' पदका जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है। इसी प्रसंगमें अपर पक्षका कहना है कि 'यद्यपि कार्य उपादानके सदृश होता है तथापि ऐसा भी नहीं है कि उमपर बाझ कारणोंका प्रभाव न पड़ता हो ।' आदि। किन्तु अपर पक्षका ऐसा लिखना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि जिसे अपर पक्ष 'प्रभाव पड़ना' कहता है वह क्या कोई वस्तु है या कयनमात्र है? यदि वस्तु है तो क्या आगमके विरुद्ध यह स्वीकार किया जाय कि एक वस्तु के गुणधर्मका दूसरी वस्तुमें संक्रमण होता है । यदि नहीं तो वह कथनमात्र है इसके सिवाय उसे और क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । यही कारण है कि 'एक द्रव्ध दूसरे द्रव्यके कार्यको करता है' इसे आगममें असद्भूतब्यबहारनयका विषय बतलाया गया है। अपर पक्षने यहां पर बीज और भूमिका उदाहरण उपस्थित कर यह सिद्ध करना चाहा है कि एक ही बीज अलग अलग भूमिके कारण अलग अलग फलको उत्पन्न करता है और इसकी पुष्टि प्रवचनसार गाथा २५५ का उल्लेख किया है। समाधान यह है कि अन्तरंगको सिद्धि करना यही तो व्यवहार हेतुका मुख्य प्रयोजन है। वह स्वयं अन्तरंगरूप नहीं हो जाता, किन्तु अन्तरंगको सिद्धि करता है। पण्डितप्रवर पाशा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान धरजीने अनगारधर्मामत अ०१ में 'काद्या वस्तुनो भिचाः' इत्यादि श्लोक (१०२) इसी आशयसे लिखा है । नियम यह है कि जितने कार्य होते हैं उतने ही उनके अन्तरंग (उपादान) कारण और बाह्य कारण होते हैं। धरला पु०७ पृ०७० में इसका समर्थन करते हए अवार्य वीरसेन लिखते हैं तदा कजजमेत्ताणि चेव कम्माणि वि अस्थि ति णिच्छओ कायग्यो।। इसलिए जितने कार्य हैं उतने ही उनके कम है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इसलिए यदि प्रवचनसारके उक्त उल्लेखमें बाद्य कारणको अपेक्षा विबेचन हुआ है तो इस परसे ऐसा मलत अभिप्राय नहीं फलित करना चाहिए कि 'अन्तरंग कारणके एक होने पर भी बाह्य कारणके भेदसे कार्यम भेद देखा जाता है, क्योंकि वस्तुतः बीज एक नहीं है। जिसने दाने हैं सब अपने अपने स्त्रचतुष्टयको लिये हुए पृथक् पृथक् है । इसलिए सिद्धान्त यह फलित होता है कि सबको वाह्याभ्यन्तर सामग्री पृयक्-पृथक होनेसे पृथक पृयव फलनिष्पन्न होता है । नियत आभ्यन्तर सामग्रीके साथ नियत वाद्यसामग्रीके हानेका योग है। इसलिए उनको निमित्तकर नियत फलकी ही उत्पत्ति होती है। धवला पु.६ १.१६४ के उक्त उल्लेखको और प्रवचनसार गाया २५५के उल्लेखको मिलाकर समझनेको आवश्यकता है। कारणपरम्परामें नियत निश्चय पक्ष के साथ नियत व्यवहार पक्षको स्वीकार करने पर ही अनेकान्तकी सिद्धि होती है, अन्यथ। कही। बार पक्ष ने इस प्रसंगमें अन्य बहुतसी बातें लिखी है। उन सबसे अपर पक्षक सभी प्रपत्र भरे पड़े है। हरा लिए उन सबको हम विशेष चरचा नहीं करेंगे। किन्तु स्वयम्भस्तोत्र ६० का उल्लेख कर अपर पक्षने जा यह लिखा है कि कार्यको उत्पत्ति अन्तरंग बहिरंग निमित्ताधीन है ऐसा बस्तुस्वभाव है। यह अवश्य हो विचारणीय है । अपर पक्षके इस कथनको पड़कर ऐसा लगा कि वह अपने पक्षके समर्थन के अभिनिवेश, यहाँ तक कहने के लिए उद्यत हो गया। उस पक्ष को ऐसा लिखकर 'हम वस्तुस्वभावको पराधीन सिद्ध करने जा रहे हैं। इस बातका अणुमात्र भी भय न हुआ इसका समग्र जैन परम्पराको आश्चर्य होगा। प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रुवस्वभाव है । इनकी एक सत्ता है। लक्षण, संज्ञा आदिके भेदसे ही इनमें भेद स्वीकार किया गया है। पर्यायका लक्षण है-तद्भाव । तत्त्वार्थसूत्र अ०५ में कहा भी है-'तभावः परिणामः' (गू० ४२ ) इसकी व्याख्या करते हुए असहस्री पृ० १२६ में लिखा है तेन तेन प्रतिविशिष्टेन रूपेण भवनं हि परिणामः, सहक्रमभाविषवशेषपर्यायेषु तस्त्र भावादव्यापत्यसम्सवात् , तदभावे च द्रव्ये प्त उस उस प्रतिविशिष्ट रूपसे होना ही परिणाम हैं, क्योंकि सहभादी और क्रमभात्री अशेष पर्यायोंमें वार्थात् गुणों और पर्यायों में उक्त लक्षणका सद्भाव होनेसे अव्याप्ति दोष नहीं आता। यदि उसका अभाव माना जायती द्रव्यम परिणामविशेष नहीं बन सकता। इससे स्पष्ट है कि गणपर्यायवत्व यह द्रश्यका स्वरूप है। ऐमी अवस्थामें यदि कार्यको अपर पक्षके मतानुसार निमित्ताघोन स्वीकार कर लिया जाय तो वस्तुस्वभाव के परावीन हो जानेसे वस्तुको ही पराधीन स्वीकार करने का प्रसंग उपस्थित होता है जो अनुभव, तर्क और आगम तीनों के विरुद्ध है। स्पष्ट है कि कोई भी कार्य निमित्ताधीन नहीं होता। निमित्तकी निमितता विवके शाश्वत नियमानसार प्रत्येक समयमै विशिष्ट स्वभावय वन वस्तु के साथ बाह्य व्याप्तिमात्र है। कार्यकारणपरमाराम या अन्यत्र निमित्तको स्वीकार करनेका.इतना ही तात्पर्य है। यह कार्यकी सापेक्ष रूपसे सिद्धि करता है, इसलिए उसमें कर्ता आदिका Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा व्यवहार किया जाता है। यदि बाह्य सामग्री कार्यका वास्तबिक कर्ता हो तो वह कार्यको 'स्व' हो जायगी और ऐसी अवस्थामे बह व्यवहार कथन न कहला. साविसपनेको मेगा 'माया हो माना जायगा ! असएव 'कार्यको उत्पत्ति अन्तरंग-बहिरंग निमित्ताधीन है ऐसा वस्तूस्वभाष है यह लिखना अपर पक्षके लिए योग्य नहीं है, हमने प्रश्न ११ के प्रथम उत्तरमें तथा प्रश्न १ के द्वितीय उत्तरमें बाह्य सामग्रीको ध्यानमें रख. कर जो भी लिखा है वह व्यवहारदष्टिको ध्यान में रखकर ही लिखा है। अपर पक्ष निश्चय व्यवहारको भेदक रेखाको यदि स्वीकार कर लेता है तो विश्वास है कि जिन तथ्योंका हम अपने उत्तरों में निर्देश कर रहे हैं उन्हें स्वीकार करने में उस पक्षको किसी प्रकारको हिचकिचाहट नहीं होगी। हमने बदला पु०१२ पू०३६ का उद्धरण उपस्थित कर अन्तरंग कारणको कार्यके प्रति विशेषता ख्यापित की थी उसे अपर पक्षने किसी हद तक अपने विशेष विवरण के साथ मान्यता प्रदान की इसकी जहाँ प्रसन्नता है वहां यह संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि अन्तरंग कारण प्रत्येक वस्तुका स्वरूप है अतः वह यथार्थ होने से उसके आधारपर बनाया गया नियम सर्वत्र एक समान लागू होता है। अपर पक्षने इसी पुस्तकसम्बन्धी पृ०४५३, १०३८. और ए०१२० के जो सल्लेख उपस्थित किये हैं उनसे भी उक्त कचनका ही समर्थन होता है। विचारके लिए हम सर्व प्रथम अपर पक्ष के निर्देशानुसार पु. ४५३ का उल्लेख लेते हैं । जो जीव शानायरणीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है उसके यदि अप्रयुकर्मका बन्ध हो तो कसा होता है इसी तथ्यका विचार इस प्रकरणमें चल रहा है । अन्तिम दो शंका-समाधान इस प्रकार है शंका---ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट स्थिसिमायोग्य परिणामों के द्वारा आयुकर्मका चतुःस्थानपतित बन्ध कैसे होता है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके योग्य परिणामोंमें भी अन्तमुद्दतमात्र आयुकी स्थिति के बन्धके योग्य परिणाम सम्भष हैं। शंका--एक परिणाम भिन्न कार्योंको करनेवाला कैसा होता है ? समाधान-सहकारी कारणों के सम्बन्धभेदसे उसके मित्र कार्योंके करनेमें कोई विरोध नहीं है। यह आगमवचन है। अब यहाँ इस बातका विचार करना है कि वे सहकारी कारण कौन है जिनके सम्बन्धभेदसे एक परिणामको भिन्न कार्यों का करनेवाला कहा गया है? जहाँ तक स्वामीका सवाल है, जो एक जीव (मनुष्य या तिर्यच) ज्ञानावरणकी उत्कृष्ट स्थिति बांध रहा है वही आयुकर्मकी चतु:स्थानातित स्थिति बांध रहा है, इसलिए स्वामिभेद तो है नहीं । परिणामभेद भी नहीं है, क्योंकि एक ही परिणामसे दोनोंकी जक्त स्थितिका बन्ध हो रहा है। इसी प्रकार काल और क्षेत्रका भी भेद नहीं है, क्योंकि जिस काल या क्षेत्रमें विवक्षित जीव शानावरणको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर रहा है उसी काल था क्षेत्रमे वह आयुकर्मको भी चतु:स्यानपतित स्थितिका बन्ध कर रहा है । इस प्रकार जो बाह्य सामग्री ज्ञानावरणके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके लिए प्राप्त है वही बाह्य सामग्रो आयुकर्मके चतुःस्थानपतित स्थितिबन्धके लिए भी प्राप्त है। फिर ऐसी कौनसी सहकारी सामग्री है जिसके सम्बन्धभेदसे एक परिणाम भिन्न कायोंको करनेवाला प्रकृतमें स्वीकार किया गया है? क्या कारण है कि उसी सामग्रीके सद्भावमें जानावरणका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो और आयुकर्मका चतुःस्थानपतित यथायोग्य स्पितिबन्ध हो? अर्थात् उत्कृष्ट विभागके प्रथम समय में आयुकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो, और बादमें आगममें बतलाई हुई विधिके अनुसार असंख्यात भागहानि आदिको लिए हए स्थितिबन्ध हो। इतना ही क्यों? कोई कर्मवर्गणा ज्ञानावरणादिरूप परि Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान णमे और कोई आग्रु कर्मरूप परिणमे, ऐसा क्यों ? इत्यादि अनेक प्रश्न हैं जो यहाँ समाधान चाहते हैं । अपर पक्षने मात्र उक्त उद्धरण तो उपस्थित कर दिया पर उसका आशय क्या है यह स्पष्ट नहीं किया। इसलिए अपर पक्ष यदि इस उद्धरण परसे यह तात्पर्य फलित करना चाहे कि कहीं कार्यमें आभ्यन्तर सामग्रोकी प्रधानता रहती है और कहीं बाह्य सामग्रीकी प्रधानता रहती है तो ऐसी मान्यताके बनाने में उसे किसी भी उल्लेखसे सफलता नहीं मिल सकती। विचार कर देखा जाय तो यहाँ पर आचार्य सहकारी सामग्रीसे शक्तिभेदको लिए हुए ज्ञानावरण और आयुकर्मकी अपने-अपने स्थितिबन्धके योग्य सामग्नीको ही ग्रहण कर रहे हैं, क्योंकि जितने भी कार्य होते है वं अन्तरंग-बहिरंग सामग्रोस प्रतिबद्ध होकर ही होते हैं। (धवला पु०१२ पृ. ३७)। घयला पु०६ पृ० १४८ में आचार्य वीरसेन लिखते हैं कि जिस समयप्रबद्ध में सीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम स्थितिवाले परमाणु पुद्गल होते हैं उन में एक समय, दो समय, तीन समय आदिसे लेकर तीन हजार वर्षप्रमाण काल. स्थितिवारे पुद्गल स्वभावसे नहीं होले । इससे स्पष्ट है कि प्रतिनियत बाह्य सामग्रीके साथ प्रतिनियत माभ्यन्तर सामनांक हानका प्रतिनिधभह और उसी प्रतिनियमका धवला पु०१२ पृ० ४५३ में उक्त शब्दों द्वारा उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार पु०३८० ११२० के अपर पक्ष द्वारा उल्लिखित उल्लेखों के विषयमें भी स्पष्टीकरण समझ लेना चाहिए । सहकारी कारण कार्यको अन्तरंग सामग्री के लिए भी कहा जाता है। इसके लिए तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृ० ६५ के 'दण्डकपाटप्रतरलोकपूरण-' आदि बनन पर तथा सर्वार्थसिद्धि अ०१ सू०७ पर दृष्टिपाल कीजिए । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों सहकारी सामग्री या सहकारी साधन कहलाते हैं। जहाँ सामान्य निर्देश हो वहाँ प्रकरणको देखकर उसका अर्थ करना चाहिए। अपर पलने लिखा है कि 'जो मात्र यात्मपरिणामसे मोक्ष मानते है उनके लिए यह विचारणीय हो जाता है कि द्रव्यकमको शक्ति भी अपेक्षित है, मात्र कषाय परिणामोंसे हो कर्मों का पात सम्भव नहीं है।' समाधान यह से कि कर्मों का घात स्वयं उनके अपने परिणामका फल है, जपाय परिणाम तो उसमें निमित्तमात्र है। उसी प्रकार आत्माका मोक्ष स्वयं आस्माका कार्य है, द्रव्य कमों की निर्जरा तो उसमें निमित्त मात्र है। ऐसो ही निश्चय-व्यवहार की व्यवस्था है। एक दूसरेता कार्य नहीं करता। किन्तु जमकी प्रमिद्धिका हेतु होने. से वह व्यवहारहतु कहलाता है। अपने कार्यका निश्चय हेतु वह दून्य स्वयं होता है। यदि अपर पक्षने उक्त वचन द्वारा इसी तय्यको सूचित किया है तो उसे रार्यत्र कार्य-कारणपरम्परामें इस नियमको स्वीकार करने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ऐसी अवस्था में उस पक्षको समर्थ उपादान किसे कहते है और बाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार क्यों किया जाता है इसे हृदयंगम करने में कठिनाई नहीं जायगी । पवला पु०१ पृ० ३६६-३६७ में मनःपयंयज्ञानकी उत्पसिके बाह्म हेतुओं का निर्देश किया गया है, आभ्यन्तर हेतुका नहीं। प्राभ्यन्तर हेतु समर्थ उपादान है। उससे युक्त संयमपरिणाम और द्रव्य-क्षेत्र. कालादि मनापर्यययज्ञानको उत्पत्तिके बाह्य हेतु है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। अवधिज्ञानको उत्पसिके सम्बन्ध में ऐसा ही एक प्रश्न धवला पु०१३ पृ. २६ में उठाकर उसका दुसरे प्रकारसे समाधान किया गया है। उस्लेख इस प्रकार है जदि सम्मत-अणुब्बद-महन्चदेहितो ओहिणाणमुपस्तदिती सञ्चसु असंजदसम्माइहि-संजदासंजदसंजदेस ओहिणार्ण किया उवलभदे? एस दोसो ? असंखेज्जलोगमेशसम्मत-संजम-संजमासजमपरि Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा णामेसु ओहिणाणावर गव खओवसमणिभिताणं परिणामाणमथोवशादो । ण च ते सच्चे संभवंति तथ्य डिक्खपरिणामाण बहुरोण दुवलदीए श्रोदशाहो । शंका --- यदि सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतके निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सब असंयतधम्मस्पृष्टि, संपात और संयविज्ञान क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमरूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण है । उनमें से अअविज्ञानावरण क्षयोपशमके निमित्तभूत परिणाम अतिस्तोक हैं, सबके सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत हैं, इसलिए उनकी उपलब्धि बहुत थोड़ी होती हैं । ये दो समाधान है। एकका उल्लेख अपर पक्षने किया है और दूसरा यह है । इससे स्पष्ट है कि आचार्य एक ही प्रश्नका समाधान विविध प्रकारसे करते हैं, जिनसे प्रत्येक कार्यकी प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको सूचना मिलती है। अतएव यह व्याप्ति बन जाती है कि प्रत्येक कार्यकी आभ्यन्तर सामग्री के अनुरूप ही बाह्य सामग्री होती है। इसमें व्यत्यय नहीं होता | मात्र बाह्य सामग्री पर द्रव्यका परिणाम होने से वह कार्य की यथार्थ जनक नहीं है । इसी अर्थ में उसे कार्य के प्रति अकिंचित्कर कहा जाता है जो युक्तियुक्त हैं। पर वह निश्चयकी सिद्धिका हेतु है, इसलिए व्यवहारनयकी अपेक्षा उसके माध्यम से वस्तुकी सिद्धि करने में आपत्ति नहीं । पर ऐसे कयनको उपचरित कथन ही समझना चाहिए । हमने प्रश्न ६ के उसरमें लिखा था कि 'व्यवहारके विषयको निश्चय मान कर उत्तर दिये गये है। हमें प्रसन्नता है कि अपर पक्षने हमारे उक्त कथनको 'यदि निश्चयसे अभिप्राय वास्ता है तो हमको इष्ट है । इन शब्दों में स्वीकार कर लिया है। किन्तु उस पछने इसी प्रसंग में जो यह लिखा है कि 'यदि अभिप्राय निश्चयनयसे है तो आपने निश्वयनयके स्वरूपपर दृष्टि नहीं दी ।' आदि। समाधान यह है कि हमारी निश्चयनय के स्वरूप पर बराबर दृष्टि है। स्वाधित अभेदरूप जितना भी कथन है वह निश्चयनका विषय है । जब आत्मोपलब्धि के अभिप्रायसे यह जीव प्रवृत्त होता है तब उसकी दृष्टिमें बन्ध-मोक्ष आदिरूप भेदव्यवहार तथा उपचारित व्यवहार गोण ( उपेक्षित) होकर एक मात्र स्वाति ममेदरूप ज्ञायकस्त्रमात्र आत्माका अ लम्वन रहता है, क्योंकि इसके अवलम्बनसे तत्स्वरूप परिणमन द्वारा ही आत्मोपलब्धि होना सम्भव है । इसकी प्राप्तिका अन्य मार्ग नहीं है। किन्तु जब यह जीव संसारी बने रहने के कारणका विचार करता है तब भी भेदव्यवहार और उपचरित व्यवहार दृष्टिमें गौण होकर अज्ञानरूप परिणत आत्माको ही उसका प्रधान हेतु मानता है । स्वाति अभेदरूप कथन दोनों हैं, अन्तर इतना है कि मोक्षमार्ग में आलम्बनकी ''दरूप ज्ञायक आत्मा लिया गया है और संसार के प्रमुख कारणको दृष्टिमें 'स्व' पदसे अज्ञानमात्ररूप परिणत आत्मा लिया गया है। निश्चयका जो सामान्य लक्षण हूँ चढ़ सर्वत्र घटित होता । यही कारण है कि प्रथम नय शुद्ध निश्वयनय कहलाता है। इसका स्वरूप निर्देश करते हुए नवचक्रादि संग्रह पृ० ७१ में लिखा है कम्माणं सज्जनगदं जीवं जो गहड़ सिद्धसंकासं I भइ सो सुद्धणओ खलु कम्मो वाहिणिरवेक्खो ॥१९१॥ जीवको जो सिद्ध जीवोंके समान ग्रहण करता है वह नियमसे कर्मोपाधिनिरपेक्ष कर्मोके मध्य स्थित शुद्ध नय कहलाता है ॥१६१॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ६०३ सथा इसके अतिरिक्त जो निश्चयनयका दूसरा भेद है वह सोपाधि अभेदरूप वस्तुको कहता है, इसलिए उस की अशुद्ध निश्चयनय संज्ञा है । कालिक वस्तुस्वरूप पैसा नहीं है, इसलिए इसे अशुस निश्चय नय कहा गया है। साथ ही शुद्ध निश्चयनयको दृष्टि में इसे व्यवहार माना गया है। पर निश्चयनयका पटित होनसे यह भी निश्चयनय है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसा वस्तुका स्वरूप है निश्चयनय उसको उसी रूप में कहता है। बकालिक वस्तू स्वरूपको कहनेवाला शुद्ध निश्चय नय है, इसलिए उसको दृष्टि में पर्यायरूप बन्ध-मोक्षका निषेध किया गया है। परन्तु रागादिरूप परिणल आत्मा यदि निश्चयस्त्ररूप न माना जाय और उसे कहनेवाले नयको निश्चयन न कहा जाय तो रागादि आत्माके प्रतिविशिष्ट स्वरूप नहीं ठहरेंगे और ऐसी अवस्था बन्ध-मोक्षका अभाव होकर आत्माका ही अभाव मानना पड़ेगा । हमें इस बातका आश्चर्य है कि अपर पक्ष आगममें निश्चयनय और व्यवहारनयके जो लक्षण और भेद किये है उस पर दृष्टिपात तो करता नहीं और इच्छानुसार टोका कर अपने अभिप्रायकी पुष्टि करना चाहता है । आलापपद्धतिमें निश्नयनयके लक्षण और भेदोंका निर्देश इन शब्दों में किया है तत्र निश्चयोऽभेदविषयः ।.....'तत्र निश्चयमयो द्विविधः -शुद्ध निश्चयोऽशुद्धनिश्चयश्च । अतएव प्रकृतम निश्चयनयको लक्ष्य में रखकर अपर पक्षने 'यदि अभिप्राय निश्चयनयसे है तो आपने निश्चयनयके स्वरूप पर दृष्टि नहीं दो ।' आदि जो कुछ लिखा है वह सब युक्तियुक्त नहीं । अपर पक्ष बन्धको व्यवहारनयका विषय समझता है पर ऐसी बात नहीं है, क्योंकि रागादि बन्धका परिणत आत्मा अशुद्ध निश्चयनयका विषय है, उसका गुण-गुणी आदि भेदरूपसे कथन सद्भत व्यवहारनयका विषय है और जीव द्रश्यकर्मोसे बद्ध है इस प्रकार सर्वथा भेदमें अभेदरूप कथन असद्भुत व्यवहारनयका विषय है। अध्यात्मदृष्टि में सद्भूत व्यवहारनयकाहजो विषय पहाँ बतलाया गया है वह असद्भूत आवहारनयका विषय हो जाता है, क्योंकि अच्यात्ममें रागादि परभाव हैं। उनको जोत्रका कहना असद्भुत व्यवहारनयका विषय है। इतना यहाँ विदोष समझना चाहिए। निश्चयनयसम्बन्धी विशेष स्पष्टीकरण इसके पूर्व ही कर आये हैं। अपर पक्षने यहाँ पर 'सम्मत्तपखिणिवई' इत्यादि तीन गाथाओंका उल्लेखकर मिथ्यात्वादि पदसे मुख्यतया द्रश्वकर्मका ग्रहण किया है, जब कि उक्त गाथाओंमें मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय शब्दों का प्रयोग है। इनकी टोकाम पण्डितप्रवर जयचन्दजीने भी इन्हीं शब्दोंको मूल आगमके अनुमार रखा है। अपर पक्षको इनका अर्थ करने में भ्रमका कारण 'क' शब्द है। कर्म शब्द दोनों प्रोंमें प्रयुक्त होता है--मावकर्म और द्रश्यकर्म । आत्मगुणोंका मुख्यतया प्रतिबन्धक भावकर्म है और उसका निमित्त होनेसे द्रव्यकर्म असद्भूत व्यवहारन यसे उसका प्रतिबन्धक कहा जाता है। समयसार गाथा ८८ में ये मिथ्यात्वादि भाव दोनों प्रकारके बतलाये हैं। मागमका भी यही अभिप्राय है। प्रवचनसार गा०११७ की टीका लिखा है किया खल्वान्मना प्राप्यत्वाकर्म, सन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुदगलोऽपि कर्म । क्रिया वास्तवमें आत्माके द्वारा प्राप्त होनेसे कर्म है। उसके निमित्तसे परिणमनको प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कम है। इसी तथ्यको गाथा १२२ में और भी स्पष्ट किया है। वह लिखा है परिणामो सयमादा स पुण किरिय त्ति होदि जीवमया। किरिया कम्मं ति मदा घम्हा कम्मरस ण टु कत्ता ॥१२२॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ जयपुर (खानिया) तरवचची परिणाम स्वयं आत्मा है और यह जीवमय क्रिया है तथा क्रियाको कर्म माना गया है, इसलिए मान्मा हन्यकर्मका मर्ता नहीं है ।।१२२॥ इस सम्बन्धमें उसकी टीका बिशेषरूपसे अबलोकनीय है। अपर पक्षने यहाँ अपने पक्ष के समर्थन में जितने वचन दिये है उन सबमें कहीं भी द्रव्यकमकी मध्यता परिलक्षित नहीं होती। आचार्य जयसेनशा जो 'शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररूपं' इत्यादि वचन अपर पचने उपस्थित किया है उसमें भी प्रधानला मिथ्यात्वादि भावोंको ही दी गई है। इसलिये प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि वस्तुत: मिथ्यात्वादि भाव आत्माके सम्बकत्व आदिके प्रतिबन्धक है। ये मिथ्यात्वादि भाव द्रव्यकर्म के संयोगमें उपलब्ध होते है, इसलिये असदभूत व्यवहारमयसे द्रश्यकर्मका उदय भी इनका प्रतिबन्धक कहा जाता है । द्रव्यकर्म हेतुः तस्य, इम्यकर्मसंयुक्तत्वोपलभ्यमानत्वात् (प्रवचनसार गा० १२१ टीका ) यही भाव हमने अपने पिछले उत्तरमे प्रगट किया है और पूरे प्रकरणपर दृष्टिगात करनेसे यही उचित प्रतीत होता है । इसमें निश्चयपक्ष और व्यवहारपक्ष दोनों का अन्तर्भाव हो जानेसे एकान्सका परिहार भी होजाता है। पं० श्री जमवन्द्र जो महान् विद्वान तथा अनेक ग्रन्थोंके आगमानुकूल अर्थ करनेवाले थे। उन्होंने इन तीन गाथाओंकी जिन शब्दों में व्याख्या की है तथा इनको टीकाका अर्थ स्पष्ट किया है, कम से कम अपर पक्ष उन्हीं शब्दों तक अपनेको सीमित रखता तब तो उनके नामस्मरणकी कुछ सार्यकता थी, अन्यथा उनका नाम ले कर अपने एकान्त पक्षके समर्थन में कुछ सार नहीं । __अपर पक्षका कहना है कि 'निमित्तोंका सम्यक जान करानेके लिए ये शब्द किसो आगमके तो है नहीं, किन्तु आपकी निजी नवीन कल्पना है जो कि मान्य नहीं है।' सो मालूम पड़ता है कि अपर पक्षा बन्ध मोक्षको तो जानना चाहता है पर उनके निमित्तोंको नहीं जानना चाहता। तभी तो उक्त शब्दोंको जस पक्षने टीका योग्य माना है। वास्तवमें देखा जाय तो मागममें छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पांच अस्तिकाय आदिका जितना भी उपदेश पाया जाता है वह सब सम्यक ज्ञान कराने के लिए ही जपलब्ध होता है । अस्तु, अपर पक्षने अपराध सहेतुक है या निहेतुक इसकी चरचा करते हुए यह तात्पर्य फलित किया है कि 'इसलिए अपराधके कारणरूप पर द्रव्यका प्रथम त्याग होना चाहिए उसके पश्चात् ही अपराधका दूर होना सम्भव है । आदि ।' समाधान यह है कि बाह्य वस्तुका त्याग और बाह्य वस्तुविषयक रागका त्याग ये दो वस्तु नहीं हैं, दो कथन हैं। अतएव यथार्थमें जहाँ बाह्य वस्तुविषयक रागसे निवृत्ति है वहीं बाह्य वस्तुके त्यागका व्यवहार यथार्थ माना जाता है, अन्यथा वह कोरा त्याग है । बाह्म वस्तुविषयक अपराध बना रहे और बाह्य वस्तुका त्याग उसके पूर्व हो जाय ऐसी मान्यताका समर्थन करना बपर पक्षको ही शोभा देता है। दिगम्बर परम्परा और इतर परम्पराको प्ररूपणामें अन्तर यह है कि जहाँ बाह्य वस्तु वखादिविषयक राग नहीं है वहाँ बाह्य वस्तुविषयक ग्रहणका न तो विकल्प है और न प्रवृत्ति ही है यह तो दिगम्बर परम्पराकी मान्यता है और इतर परम्पराको मान्यता यह है कि बाह्य वस्तु वस्त्रादिविषयक ग्रहणका विकल्प भी बना रहे और वैसी प्रवृत्ति भी हो तो भो वस्त्रादिविषयक राग नहीं होता। स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा विवक्षित निश्चयकी प्राप्तिके साथ सद सुकूल व्यवहारको ही समीचीन मानती है, जब कि इतर परम्परा निश्चय को प्राप्तिके पूर्व ही अकेले व्यवहारको यथार्थ मानती है। यही कारण है कि 'कोटि जनम तप तपै ज्ञान बिन कर्म झरेजे।' इत्यादि रूप समीचीन कथन दिगम्बर परम्परा तक ही सीमित हैं। इस विषय में दिगम्बर परम्पराका हार्द क्या है इसे भगवान् कुन्दकुन्दने समयसार गाया २६५ में स्पष्ट किया है। वहाँ छ लिखते है Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ ओर उसका समाधान वधु पहुच जं पुण अज्झनसाणं तु होइ जीवाणं । ण व वरदो दु बंधी बंधी थि || २६५॥ ६०५ जीवोंके जो अध्यवसान होता है वह वस्तुको अवलम्बन कर होता है । तथावि वस्तुसे बन्ध नहीं होता, अध्यवसानसे बन्ध होता है ||२६|| आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथाकी उत्थानिकामे ये शब्द लिखे हैं- न च वाद्यवस्तु द्वितीयोऽपि वन्यहेतुरिति शंक्यम् । इसका आशय स्पष्ट करते हुए पं० श्री जयचन्द्र जी आगे कहते हैं कि जो बाह्य वस्तु है यह बन्धका कारण है कि नहीं ? कोई समझेगा कि जैसे अध्य वसान बन्धका कारण है वैसे अन्य वाह्य वस्तु भी बन्धका कारण है सो ऐसा नहीं है, एक अध्यवसान ही बन्धका कारण है- इसको आत्मख्याति टोकानें लिखा है- अध्यवसानमेव बन्धहेतुः न वाद्यवस्तु, तस्य वन्पतोरत्यवसानस्य हेतुमेव परितार्थत्वात् । त किमर्थो ह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थम् । अध्यावसान ही बया कारण है, बाह्य वस्तु नहीं, क्योंकि कन्यका कारण जो अध्यवसान है उसके हेतुरूपसे ही उसकी चरितार्थता है । को बाह्य वस्तुका प्रतिषेध किसलिए किया जाता है ? समाधान- अध्यवसान के प्रतिषेधके लिए । बाह्य वस्तु बन्ध क्यों नहीं होता इसका समाधान आरायं जयसेनने इन शब्दोंयें किया है— अन्वयव्यतिरेकाभ्यां व्यभिचारात् । तथा हि-- बाह्यवस्तुनि सति नियमेन बन्धो भवति इति अन्यो नास्ति तदभावे बन्धो भवतीति व्यतिरेकोऽपि नास्ति । बाह्य वस्तु के साथ या अन्वयव्यतिरेक नहीं बनता, इसलिए बाह्य वस्तु बन्धका कारण नहीं है। यथा---बाह्य यस्तुके होनेपर नियमसे बन्ध होता है इसलिए अन्यय नहीं बनता तथा वाह्य वस्तु के अभाव में बन्ध होता है इसलिए व्यतिरेक भी नहीं बनता । इससे स्पष्ट है कि जिसे अपर पक्ष बाह्य वस्तुका त्याग कहता है वह तभी पदार्थ कहलाता है जब अध्यवसानका त्याग हो । दिगम्बर परम्परा ऐसे हो त्यागको यथार्थ कहती है । आगम में इच्छाको प्रमुख रूप से परिग्रह कहनेका कारण भी यही है। आचार्योंका आशय यह है कि जहाँ बाह्य वस्तुविषयक इच्छा नहीं है वहाँ बाह्य वस्तुका ग्रहण धन ही नहीं सकता। उसका पाए तो इच्छा समागमें समाहित है हो । यही दिगम्बर परम्परा हूँ जो नित्यशः वन्दनीय है । इस प्रसंग अपरपक्षने कलश नं० २२० आदिको चरणा की है। परदन हो और राग-द्वेष न हो तथा परद्रव्य न हो और रामदेबको उत्पत्ति हो यह सम्भव है, इसलिए परद्रव्प स्वयं राग-द्वेषका उत्पादक नहीं है। इस तथ्यको स्पष्ट करनेके लिए कलश २२० लिखा गया है । परद्रव्यमें निमित्त व्यवहार कब होता है जब उसमें यह Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा रागी, वेषो और मोही होता है यह तथ्य कलश २२१ द्वारा स्पष्ट किया गया है। परके लक्ष्यसे राग, द्वेष, मोह होता है. इसलिए जिनागममें परके त्यागका भी उपदेश है पर उस द्वारा परमें इष्टानिष्ट या निज ब मुक्त होनका हो त्याग कराया गया है यह आशय समयसार गाया २८३.२८५ का है। अतः इन सबकी संगति है। पूर्वापर विरोध तब आता है जब परको रागादिकी उत्पत्ति में व्यवहार हेतु न स्वीकार कर उसे यथार्थ हेतु स्वीकार किया जाता है। अपर पक्षको परको यथार्थ हेतु माननकी अपनी मान्यताका ही त्याग करना है। इसके त्याग होते ही जो हम लिख रहे है उसकी यथार्थता अपर पक्षको सूतरां भासित होने लगेगी। इससे यह तथ्य सुतरा फलित हो जाता है कि परद्रव्य अपनेसे भिन्न दूसरे व्यके कार्यका स्वयं निमित्त नहीं है, किन्तु उससे सम्पर्क कर जब अन्य द्रव्य पापार करता है तब उसमें निमित्त व्यवहार होता है। हमने लिखा था कि 'दुरातिदूर भव्य भी मुनिचर्या (व्यवहारचारित्र) के द्वारा अहमिन्द्र पद पा सकता है 1' इस पर टीका करते हुए अपर पक्षने जयधवला पु० २ पृ० ३८६ का उल्लेख उपस्थित कर उक्त अभिप्रायका खण्डन किवा है जयघवलाका वह वचन इस प्रकार है केसि पि अणादिलो अपज्जवसिदो, अभध्वेसु अभच्चसमाणभब्वेसु च णिच्चणिगोदभावमुपमएसु अषट्ठाणं मोतूण भुजगारमापदराणमभावादी। ___ किन्हीं जीवोंके अवस्थित विभत्रितस्थान अनादि-अनन्त होता है, क्योंकि जो नित्य निगोदभावको प्राप्त हुए अभव्य और अभव्योंके समान भष्य है उनके अवस्थित स्थानके सिवाय भुजगार और अल्पतरस्थान नहीं पाये जाते हैं। इसलिए उक्त उल्लेखसे इस तथ्यका समर्थन नहीं होता कि 'जो दूरातिदूर भप है वे निगोदमें ही रहते हैं । वे मुनिलिंग अथवा व्यवहारचारित्र धारण कर अहमिन्द्र नहीं हो सकते ।' मेरी समससे जयधवलामें उक्त उल्लेखका अर्थ करने में गलती हुई है, अतः उसमें सुधार अपेक्षित है । दृष्टान्त इष्टार्थका शान कराता है। पर वह सर्वथा लागू नहीं होता। यह विषय परामर्श विशेषकी अपेक्षा रखता है, इसलिए उस पर परामर्दा होना चाहिए। इसे विवादका विषय बनामा उचित नहीं है। अपर पक्षने पिछले पत्रको 'व्यवहारचारित्र प्रत्येक दशामें सफल है' यह लिखा था। यहाँ उक्त कथनके आशयको स्पष्ट किया है। हमें व्यवहारचारित्रको परम्परा मोक्षका कारण कहने में या उसे निश्चयचारित्रका साधक कहने में आपत्ति नहीं है। हमारा कहना तो इतना ही है कि अपर पक्ष जो इन शब्दोंका अर्थ करता है वह ठीक नहीं है । व्यवहारके स्वरूप और प्रयोजनको समझा कर उन्हें इन शब्दोंका अर्थ करना चाहिए। यदि हमसे कोई पूछ कि जो मिथ्पादृष्टिसे सम्यग्दृष्टि बनता है उसके मिथ्यादृष्टि अवस्थामैं इसके पूर्व कितनो विशेषता हो जाती है तो हम अपर पक्षके कथनानुसार यह तो कहेंगे ही कि यह सच्चे देव-गुरु-शास्त्रमें गुरूपदेश आदिको ग्रहण कर श्रद्धावान् हो जाता है, आदि । किन्तु इसके सिवाय यह भी कहेंगे १. वह मोश्चमार्ग में द्रव्यलिंगकी महिमा न स्वीकार कर भापलिंगकी महिमा स्वीकार करने लगता है । साथ ही उसके विशुद्धि आदि लब्धियोंका सन्निधान नियमसे होता है। २. पंच परमेष्टीके सिवाम वह अन्य सबको पूजा-भक्तिसे विरत हो जाता है। ३. षद्रव्यादिके प्रज्ञानपूर्वक निश्चय मोक्षमार्गके उपदेशको वह श्रद्धापूर्वक स्वीकार करता है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९ और उसका समाधान ६०७ ४ इन्द्रिय विषयों में तीव्र आसक्ति अभावरूप उसके सम्यग्दृष्टि अनुरूप बाह्य भूमिका नियमसे बन जाती है। ५. उसके द्रव्यरूपये २५ दोषों और छह नायक स्थान होकर सम्यक्त्वके आठ अंगोंके प्रति आदरभाव प्रकट हो जाता है । आादि । किन्तु वह सब होने पर भी उसे सम्यक्त्व प्राप्त हो हो जायगा ऐसा नहीं है। उसको जब भी प्राप्ति होगी स्वभावयन्युत हो कर सत्यरूप अनुभूतिके प्रकाशमें ही होगी। इसलिए प्रत्येक भव्य जीवको मात्र मन्त्ररूपायरूप बाह्य प्रवृत्ति में मग्न न होकर स्वभावसन्मुख होने का सवत अभ्यास करते रहना चाहिए । अपर पक्ष हमारे कथमके आशयको स्वीकार कर ले तो फिर हमारा उस पासे कोई विरोध नहीं है। मोमार्थके निरूपण में सांसारिक लालनको दृष्टि रखता है है, क्योंकि स्वर्गादिक्की प्राप्ति मोक्षमार्गको प्राप्ति नहीं है और न यह भी नियम है कि जो स्वर्गादि यति अधिकारी होते हैं उन्हें मोक्षमार्गकी प्राप्ति नियमसे होती है, अभ्यको नहीं होती। इसलिए यथार्थको जानकर स्वभाव प्राप्तिमें उद्यमशील होना यही प्रत्येक व्यका कर्तव्य है। अगर पदाने सर्वार्थसिद्धि ७, ११ की चरचा करते हुए जिन तीन बातोंका निर्देश किया है उनका उत्तर है १. इस जीवको परका त्याग करना है इसका अर्थ-परका सम्पर्क त्यागना है। स्पष्ट है कि पर दुखदायक नहीं, परका सम्पर्क दुःखदायक है । परका सम्पर्क करे या न करे इसमें आत्मा स्वाधीन है । २. कर्मोदय उपयुक्त होना या न होना इसमें आत्मा स्वतन्त्र है। २. परमे यया त्याग करना इसका अर्थ घरविषयक राम-मूच्या त्याग करता है। यहीं घरका माग व्यवहार नहलाता है। इसके शिवाय घरका ध्यान बन्न वस्तु नहीं। आचार्य अमृतचन्द्र गा० २८३ - २८५ की टीकामें जो कुछ का है उसका स्पष्टीकरण पहले इसो उत्तर में कर आये हैं । तथा यहाँ भी अपर पक्षके तीन विकल्पों को ध्यान में रखकर क्रमश: किया है । भागाकाराला बुद्धिपूर्वक घर में नहीं ठहरता यह तो ठीक है, पर घर में ठहर नहीं सकता है यह ठीक नहीं है। शून्यागारमै मूर्च्छा हो जाय तो वह भी पर ही है। पर भावनिक होती नहीं चरना करना व्यर्थ है । यकी 'गृहे प' का अर्थ हमने घर में बैठा किया है। इसे अपर पक्ष आगमानुकूल नहीं मानता । घरने रहना और बेडमा इसमें विशेष क्या फरक हो गया इसे कही पक्ष जाने हमें यह इष्ट है कि भावन लिए आत्मा शिवाय अन्य सब पर पर हैं। इसलिए वह अपने आत्मायें ही ठहरता है, स्थित होता है, बैठता है वह शून्यागार ठहर सकता है यह कहना मी व्यवहार ही है । निश्चयवहारका अविनाभाव है। इसलिए हमने निश्चयचारित्र के साथ व्यवहारचारित्र के होने की यात 'बुविहं पि सोक्सहे साने पाऊल' (प्रध्यसंग्रह गा० ४७ ) इस सिद्धान्तको ध्यान में रखकर कही थी। अपर पक्षका कहना है कि 'यदि यह माना जायगा तो सावाँ गुणस्थान होनेपर वस्वत्यान केशलोंच, महाव्रतधारण आदि व्यवहारचारिकी क्रिया होगी।' समाधान यह है कि यह क्रिया तो भावमुनि होने के पूर्व Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ जयपुर ( खानिया) सस्वचर्चा नियमसे होजाती है, क्योंकि यह क्रिया उसका बाह्य परिकर है, किन्तु वह सम्यक् व्यवहारचारित्र निश्चय चारित्रके होनेपर ही कहलाती है। अतएव हमने जो कुछ भी लिखा है वह आगमको ध्यान में रख लिखा है। दिगम्बर परम्परामें ऐसे व्यवहारको ही समीचीन माना गया है जो निश्चयपूर्वक होता है। पुरुषार्थसिद्धयुपायमें ऐसे मोशमार्गका ही निर्देश किया गया है । अतएव आत्मसिद्धिके इच्छुक प्रत्येक घरिमाका कर्तव्य का वह योहानी कानाको स्थापित करे, उसीका ध्यान करे, उसीको अनुभव गोचर करे और उसी आत्मामें निरन्तर रमे। अन्य द्रव्योंमें भूलकर भी विहार न करे। इसप्रकार प्रस्तुत प्रतिशंकाका सांगोपांग समाधान किया। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर नमः श्री वीतरागाय मगलं भगवान् चीरो मङ्गलं गौतमो गणी। मङ्गले कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्माऽस्तु मङ्गलम् । शंका १० जीव तथा पुद्गलका एवं यणुक आदि स्कन्धोंका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? -यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं। समाधान १ इस प्रश्नका सम्यक उसर प्राप्त करने के लिए पहले जोन और पुद्गल तथा दो आदि परमाणांक मध्य किस प्रकारका बन्ध जिनागममें स्वीकार किया गया है यह जान लेना आवश्यक है। जीव और पुद्गल के बन्धका निर्देश प्रवचनसार गाथा १७७ की दीका में इस प्रकार किया है या पुनः जीव कर्मघुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमितमानवम विशिष्टतरः परस्परमवगाहः स तदुभयबन्धः । जीव तथा कर्मपुद्गलके परस्पर परिणामके निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है घह तदुभयवन्ध है। इसी प्रकार दो या दो से अधिक परमाणुओंका परस्पर निमित्तमात्र विशिष्टतर परस्पर अवगाह लक्षण जो बन्ध होता है वह स्कन्ध कद्लाता है। जिस प्रकार वैशेषिक दर्शनमै संयोगको स्वतन्त्र गुण माना गया है उस प्रकार जिनागम मे उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। यही कारण है कि हाँ व्यवहारनयका आश्रय लेकर दो द्रश्योके परस्पर निमित्तमात्रसे जो विशिष्टतर परस्पर अबगाह होता है उसे बन्वरूप स्वीकार किया गया है। ऐसी अवस्थामें यदि स्त्रचतुष्टयको अपेक्षा विचार करते है तो दो या दो से अधिक द्रव्य उक्त प्रकार परस्पर अवगाहको प्राप्त होकर भी अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे पृथक-पृथक हो अपनीअपनो सत्ता रखते हैं. अतएव निश्चयनयसे बन्ध नहीं है । जैसा कि स्कन्धको अपेक्षा पंचास्तिकाय गाथा ८१ को टोका में कहा भी है। स्निग्ध-रूक्षत्वप्रत्ययवधशादनेकपरमापवेकवपरिणतिरूपस्कन्धान्तरितोऽपि स्वभावमपरित्यज्यन्नुपायसंख्यवादेक एव द्रयमिति । अर्थ-स्निग्ध-रुक्षत्वके कारण बन्ध होनेसे अनेक परमाणओंको एकत्व परिणतिरूप स्कन्ध के भीतर Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (बानिया ) तस्वचर्चा रहा हो तयापि स्वभावको न छोड़ता हुआ संख्याको प्राप्त होने पे ( अर्थात् परिपूर्णके समान पृथक् गिनतो में आनेसे ) अकेला ही द्रव्य है। __ भ्यवहार और निश्चयसे इसी विषयको स्पष्ट करते हुए नियममारमें भी कहा है पोग्गल उच्चइ परमाणू णिच्छपुण इदरेण । पोग्गलदग्बो शिपुणो ववदेसो होदि खंधस्स ॥२९॥ अर्थ-निश्चयसे परमाणको पुदगल द्रव्य कहा जाता है और व्यवहारसे स्कन्धको पुदगल द्रव्य ऐसा नाम होता है ॥२६॥ गुद्गलदम्यव्याख्यानोपसंहारोऽयम्--स्वभावशुद्धपर्यायात्मकस्य परमाणोरेच पुद्गलब्धव्यपदेशः शुद्धनिश्चयेन । इतरण व्यवहारनयन विमावपर्यायात्मना स्कन्धपुद्गलानां पुदगलत्वमुपचारत सिद्ध भवति । __ यह पुद्गल द्रव्य के कनेका संहार -द्ध निश्चगमगमे स्थभावशुद्ध पर्यायात्मक परमाणुको ही पुद्गलद्रव्य ऐसा नाम होता है । इतर अर्थात् व्यवहारनयसे विभावपर्यायात्मक स्कन्धपुद्गलॊको पुद्गलपना उपचारसे सिद्ध होता है। इसी विषयको बहुत ही स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करते हुए प्रवचनसार गाथा १६१ को टौकाम लिखा है-- अनेकपरमाणुगम्यस्वलक्षणभतस्वरूपास्तिस्वानामनेकस्वेऽपि कथञ्चिदेकरखेनावभासनात् । क्योंकि अनेक परमाणु द्रब्योंके स्व लक्षणभूस स्वरूपास्तित्व (स्वद्रव्यचतुष्टय) अनेक होने पर भी कथं. चित (स्निग्धत्व-रुक्षत्वकृत बन्धपरिणामकी अपेक्षासे) एकत्वरूप अवभासित होते है। इसप्रकार जब कि दो सजातीय द्रव्यों के बन्धको ही व्यवहारसे बन्ध लिखा है तो जोत्र पुद्गल दो विजातीय द्रव्योंके बन्धको भी व्यवहारस्वरूप कैसे नहीं कहा जायगा । इस प्रकार व्यवहारनयसे ही पदगल और पुद्गलका तथा जीव और पदगलका बन्ध आगममें कहा गया है। इससे यह फलित हुआ कि जिस ट्रष्यके जिस कालमें जैसी अवस्था होती है केवली भगवान उसे ठीक उसी प्रकारसे जानते है, और जिस प्रकारसे वे जानते हैं वही आगममें प्रतिपादित है। द्वितीय दौर शंका १० प्रश्न यह है-जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धोंका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं ? प्रतिशंका २ आपने अपने उत्तर में जीव तथा पुदगलका एवं घणुकादि स्कन्धोंका बन्ध स्वीकार करते हुए प्रवचनसार गाथा १७७ की टोकाका उद्धरण देते हुए बतलाया है कि 'जीव तथा कर्म पगलके परस्पर Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६११: परिणाम निमित्तमात्र से जो परस्पर विशिष्टतर अपवाह होता है वह तदुभयवन्ध है। इसी प्रकार दोसे अधिक परमाणुओंका परस्पर निमित्तमात्र विशिष्टतर परस्पर अवगाहलक्षण जो बन्म होता है यह कहलाता है।' आगे आपने लिखा है कि वैशेषिक दर्शन में संयोगको जैसा स्वतन्त्र गुण मा है वैसा जिनागममें संयोगकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं स्वीकार की है और इस आधारपर आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि उपर्युक्त प्रकार दो द्रव्यों परस्पर निमितभाषसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाहरूपसे बग्ध होता है वह व्यवहारनयका आश्रय लेकर ही होता है । इसमें निम्न बातें विचारणीय है (१) इस बन्धमें आपने जो परस्पर बद्ध होनेवाले दो द्रव्योंमें परस्पर निमित्तता स्वीकार की है उस परस्पर निमित्ततारो आपका अभिप्राय क्या है ? (२) विशिष्टतर परस्पर अवगाहले आपने क्या समझा है ? (३) व्यवहारनयका आश्रय लेकर वन्य होता है इसमें व्यवहारमय और उसको बन्ध होने आश्रयताका क्या आशय है ? इसके भी आगे आपने लिखा है कि उक्त प्रकार से परस्पर बग्गाहको प्राप्त होकर भी घनेवाले दोनों द्रव्य या दोसे अधिक सभी द्रव्य अपने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे पृथक् पृथक् ही अपनो अपनी सत्ता रखते है, अतएव आपका कहना है कि निश्वश्रनयसे बन्ध नहीं है। इसके लिए आपने पचास्तिकायगाचा कोकाका प्रमाण भी उपस्थित किया है, जिसके आधारपर आपने कहा है कि 'निश्वयसे परमाणुको पुद्गल द्रव्य कहा जाता है और व्यवहारसे स्कन्धको पुल द्रव्य कहा जाता है।' इसमें भी हमारा आपसे प्रश्न है कि पृथक-दो आदि परमाणुओं या दो बादि परमाणुओं में आप क्या अन्तर स्वीकार करते हैं? और उस अन्तरको बाप वास्तविक मानते हैं। या नहीं ? हमने यह प्रदन आपके समक्ष इसलिये उपस्थित किया है कि हम देखते हैं कि जहाँ पृथक्-पृथक् अनेक परभणु व्याघात रहित हैं वहाँ हम यह भी देखते हैं कि अनेक परमाणुओंका स्थूल स्कन्ध म्याघाट सहित देखने में भाता है। हम देखते हैं कि शरीर में पोट लगने पर जीव और नोकरून पुदगलके एकरूप पिण्डका ही यह परिणाम है कि जीवको दुःखका अनुभव होने लगता है। बरसात में जो नदियों में पानी की बाद माती है और वह जो हमारे सामने प्रलयका दर्दनाक रूप उपस्थित कर देती है यह भी अनेक पुद्गल परमाणुओं के स्थूल एक खण्ड स्वरूपताका ही परिणाम है। कहाँ तक गणना की जाय, जो कुछ भी दृश्य जगत है ह सब जी और पुद्गल एवं नागा परमाणुओंके सत्य में अनुभूत होनेवाले का हो परिणाम है तो आपकी दृष्टया यह सब अवास्तविक ही है अर्थात् कुछ नहीं है क्या ? और यदि कुछ है और वह वास्तविक है तो फिर निश्चय एवं व्यवहारका जो भेद आग बतला रहे है उसका फलितार्थ क्या है ? कृपया स्पष्ट कीजिये । जहाँ तक हमने आपके लेखसे यह समझा है कि जीव और पुद्दलके परस्पर बन्धमें तथा नाना परमाणुओं के बम्बमें जो कुछ स्कन्धरूपता देखने में भाती है उसे आप अवास्तविक हो मानना चाहते हैं तो हम पुनः आपसे पूछना चाहते है कि सर्वज्ञको इस अवास्तविक पिण्डरूप जगत्का ज्ञान होता है या नहीं? इस Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ अयपुर ( खानिया) तस्वी प्रश्नका संकेत हमने अपने मूल प्रश्नमें भी किया था जिसे आप यह कहकर अपने उत्तर में टाल दिया है कि 'जिस द्रव्यको जिस कालमें जैसी अवस्था होती है केवली भगवान ठीक उसी प्रकारसे उसे जानते हैं।' हम पुनः आपसे कहना चाहते है कि थाप हमारे मल प्रश्नका तथा इस प्रतिप्रश्न में दर्शाये गये अन्य प्रपनीका स्पष्ट उत्तर देनेका प्रयत्न करेंगे। गंत्र मूल प्रश्न-जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धोका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं? प्रतिशंका २ का समाधान मूल प्रश्नका उत्तर अनेक शास्त्रीय प्रमाण देकर पूर्वमें यह दे आये है कि व्यवहार नयकी अपेक्षा बन्धी प्रतिशंका २ में पूना में प्रश्न उपस्थित किये गये है। १-इस बन्धमे आपने जो परस्पर बद्ध होनेवाले दो ग्योंमें परस्पर निमित्तता स्वीकार की है, उस परस्पर निमित्ततासे आपका अभिप्राय क्या है ? २-विशिष्टतर परहार अमगाहसे आपने क्या समझा है ! ३--व्यवहारनयका आथय लेकर बध होता है उसमें व्यवहारनय और उसको बन्धमें होनेवाली आनयताका क्या आशय है ? ४--उसके आगे हमारे वक्तव्यको ध्यान में रखकर यह प्रतिशंका की गई है कि पृथक-पृथक् दो आदि परमाणुओंमें तथा स्कन्धस्वरूप दो आदि परमाणुओंमें आप क्या अन्तर स्वीकार करते हैं ? और उस अन्तरको आप वास्तविक मानते हैं या नहीं ? ५--इसके आगे कुछ निस्कर्षको फलितकर यह प्रश्न किया गया है कि सर्वज्ञको इस अवास्तविक पिण्डरूप जगत्का ज्ञान होता है या नहीं? में पांच मुख्य शंकाएं हैं। समाधान इस प्रकार है-- जीवने अज्ञानरूप मोह, राग, द्वेष परिणाम तथा योग द्रब्धकर्मके बन्धका निमित्त है और ज्ञानावरणादि कर्माका उदय अज्ञानरूप जीव भावाके होने में निमित्त है। इसी प्रकार दो पुद्गल परमाणुलोम स्विस्थ ओर रूअ गणको घधिकता परस्परमें अन्धका निमित्त है, इसी प्रकार पुदगल स्कन्ध में भी बन्धका निमित जान लेना चाहिये । यही यहाँ दो द्रव्योंकी परस्पर बद्धताको निमित्तता है। जिन्हें अन्यत्र संश्लेष बन्थ लिखा है उसका ठीक स्पष्टीकरण विशिष्टतर परस्पर अवगाह' पदसे होता है। यों तो छहों द्रव्य व्यवहारनय की अपेक्षा एक क्षेत्रमें उपलब्ध होते हैं। परन्तु वहाँ उन सबका निमित. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६१३ नैमित्तिक मापसे विशिष्टतर अवगाह उपलब्ध नहीं होता। हाँ उनमें से जिनमें निमित-नमित्तिकभावसे विशिष्टतर अवगाह उपलब्ध होता है उनमें ही अन्धव्यवहार किया जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 'व्यवहारनयका आश्रय लेकर' इसका अर्थ 'व्यवहारनयकी अपेक्षा' इतना ही है। व्यवहारमय यह ज्ञानपर्याय है। दो द्रव्योंका निमित्त-नैमित्तिकभावसे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है उसे ज्यवहारनयकी अपेक्षा बन्ध कहा है यह हमारे कथनका तात्पर्य है। और इसी अभिप्रायसे हमने मूल प्रश्नका उत्तर देते हुए यह वाक्य लिखा था 'यहाँ व्यवहारनयका आश्रय लेकर दो द्रव्योंके परस्पर निमित्तमासे जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है उसे बन्धरूपसे स्वीकार किया है।' इस वाक्यमें 'व्यवहारनयका आश्रय लेकर' इस नाक्यका 'व्यहारनय की अपेक्षा' ऐसा अर्थ करके उसको ' न से स्वीकार किया है। हम वाक्य के साथ सम्बन्ध कर लेने पर पूरे वाश्यका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। पृथक्-पृथक दो आदि परमाणों में स्वभाव पर्याय होती है जो एक समान भी हो सकती है और विसदृश भी हो सकती है। समा स्कन्धस्वरूप दो आदि परमाणुओंमें विभाव गर्याय होती है। नियम यह है कि बन्न होने पर यदि दो परमाणुओंका बन्ध हो तो हीन गुणवाला परमाणु दो अधिक गुणवाले परमाणुरूप परिणम जाता है, इसलिए प्रथणुक स्कन्धका सदशा परिणाम ही होता है। किन्तु मगो स्कन्ध मात्र परमाणुओंका बन्ध होकर ही नहीं बनते । बहससे स्कन्ध अनेक स्कन्धाके मेजसे भी बनते है, अतः उनमें सदृश और विसदृश दोनों प्रकारके परिणमन उपलब्ध होते हैं। जो सभोके अनुभवका विषय है । यही इनमे अन्तर है। पिण्डरूप जगतको अवास्तविक शब्दका प्रयोग करना अमोत्पादक है। आगममै सत्ता दो प्रकारको मानी गई है -स्वरूपसत्ता और उपचरितसत्ता। स्वरूपसत्ताकी अपेक्षा प्रत्येक परमाणु स्वतन्त्र है, दो या दोसे अधिक परमाणु सर्वया एक नहीं हए है। किन्तु बन्च होनेगर उनमें जो एक पिण्डसना प्राप्त होती है वह उपचरित सत् है । अतएन केवली जिन जैसे स्वरूप सतको जानते है वैसे ही जगचरित मततो भी जानते हैं । वर्गणाखण्ड प्रकृति अनुयोगद्वारमें कहा भी है - सई भगवं उप्पण्णणाप्पदरिसी संदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स आगदि गदि चयणोधबाद बंधं मोवं इढि निदि अणुभागं तक्कं केलं माणी माणसियं भुत्त कदं पहिसविदं आदिकम्म अरहकम्मं सवलोए सम्व/बे सन्चभावे सम्मं समं जाणादि विहरदि त्ति ||१२|| अर्थ- उत्पन्न हुए केवलज्ञान और केवलदान से युक्त भगवान् स्वयं देवलोक और असुरलोकको साथ मनुष्य लोकको आगति, गति, चयन, उपपाद, बम, मोक्ष, वृद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, राय जीवों और सब भावोंको सम्यक प्रकारसे युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते है ।०२। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ जयपुर (खानिया ) तस्वथा तीस दौर शंका प्रश्न यह था--जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धोंका बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अयास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं ? प्रतिशंका ३ इस प्रश्न पर आपका उत्तर आ जाने पर उसके आधारपर जो विषय चर्चनीय हो गये थे और जिनका उत्तर आपस प्रारत करनेको भावनासे अपनी प्रतिशंका २ में हमने निबद्ध किये थे, वे निम्नप्रकार है: १-इस बन्धमै आपने जो परस्पर रद्ध होनेवाले दो द्रव्योंमें परस्पर निमित्तता स्वीकार की है उस परस्पर निमित्ततासे आपका क्या अभिप्राय है? -विशिष्टतर परस्पर अवगाहसे आपने क्या समझा है? ३-व्यवहारनयका आश्रय लेकर बध होता है इसमें व्यवहारनय और उसको बाध होने में आश्रयताका क्या आशय है ? ४--पृथक् पृथक् दो आदि परमाणुओंमें तथा स्कन्धस्वरूप दो आदि परमाणुओंमें आप क्या अन्तर स्वीकार करते है ? और इस अन्तरको आप वास्तविक मानते हैं या नहीं ? ५-(यदि जगत् अवास्तविक पिण्डरूप है तो) सर्वज्ञको इस अवास्तविक पिडारूप जगत्का ज्ञान होता है या नहीं? उक्त चचनीय विषयों में से प्रथम चर्चनीय विषयका उत्तर देते हुए यद्यपि आपने स्वीकार किया है कि जीव अज्ञानरूप मोह. राग द्वेष परिणाम तथा योग दृष्यकर्मके बन्धका निमित्त है। लेकिन 'ज्ञानावरणादि कर्मो का उदय अज्ञानरूप जीव भानोंके होने में निमित्त है' यह बाक्य प्रत्युसरमें देखकर तो आश्चर्वका ठिकाना ही नहीं रह सकता है, कारण कि जितने अंशमें ज्ञानावरण कर्मका उदय जीवमें विद्यमान रहता है उससे तो ज्ञानका अभावरूप अज्ञान ही होता है जिसे द्रव्यकर्मके बन्धका कारण न तो आगममें माना गया है और न आप ही ने माना है । आपके द्वितीय वक्तव्यमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि 'अज्ञानरूप मोह, राग, द्वेष परिणाम तथा योग द्रव्यकर्म के बन्धके निमित्त हैं। इसमें भागमका भी प्रमाण देखिये..." मित्तं अविरमण कसाबजोगा य सपणसपणा दु । बहुविहभेया जीवे तस्सेव क्षपणपरिणामा ॥१६॥ जाणावरणादीयस्स ते कम्मरस कारणं होति । तेसि पि होदि जीवो य रागदोसादिमावकरो ।। १६५|| -समयसार आस्त्रवाधिकार Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६१५ टीका-मिथ्यात्यापिरतिकशाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, शानावरणादिपुद्गलकत्रिवणनिमित्तस्वारिकलावाः । तेषां तु तदास्रवणनिमिसरवनिमिर नया सवाषनोहा। वरनकिल निमिसस्वाद् रागषमोहा एन आस्रवाः । -आत्मच्याति टीका गाथाओंका अर्थ टीकाके अर्थस ही समझा जा सकता है, अतः यहाँ टीकाका हो अर्थ दिया जाता है । मिथ्यात्व, अदरति, कषाय और योग ये सब पुद्गलके विकार हैं, ये यूंकि ज्ञानावरणादि पुद्गलकमौके मानवमें निमित्त होते हैं. अतः इन्हें आसव नामसे कहा जाता है। पुद्गल के विकारभूत इन मिध्यान्नादिकम शानावरणादि कमकि आवश्णको जो निमित्तसा (कारणता) पायी जातो है. उसके निमित्त जीवके. अज्ञानमय राग, द्वेष और मोहरूप परिणाम है, इसलिये ज्ञानावरणादि कोक आस्रवणके लिय मिथ्यात्वादि गुगल विकारों में पायो जानेवाली निमित्तताको उत्पत्ति में भी कारण होनेसे आत्माके परिणामस्वरूप राग, द्वेष और मोहरूप माव हो अम्रय है। यहाँ राग, द्वेष और मोहरूप भावोंको ही अज्ञान शब्दका पाच्य अर्थ स्वीकार किया गया है और उन्हींको आसव (बन्धका कारण) कहा गया है। यदि कहा जाय कि मोह, राग और द्वेष उपयोग (ज्ञान) के ही तो विकार है और वह उपयोग जानावरण कर्मके क्षयोपशमसे ही उत्पन्न होता है, इसलिये अज्ञानमें ज्ञानावरण कर्मक उदयको निमित्त बहना ठीक है, तो इसका उत्तर यह है कि जिस उपयोगके विकारको राग, द्वेष और मोह कहा गया है वह तो ज्ञानावरण कमके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञानभाव ही है, ज्ञानावरण कर्मके सदमसे होनेवाला ज्ञान के अभावरूप अज्ञानभाव वह नहीं है । समयसारमै कहा भी है उवओगस्स अणाई परिणामा तिणि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अधिरदिभावो य णायडवी ॥८॥ अर्थ-मोह कर्मसे युक्त जीवके उपयोग (ज्ञान) के अनादिसे ही मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिरूप विकार जानना चाहिये। गाथाम जो उपयोग शन्द आया है उसका अर्थ ज्ञान ही होता है, ज्ञानका अभाव नहीं। मिथ्यात्व और अविरतिक बीचम जो अज्ञान शब्दका पाठ गाथामें किया गया है वह भी शानके अभावरूप अर्थका बोधक नहीं है। किन्तु उस ज्ञानमावका ही बोधक है जो मोहकमके उदय विकारी हो रहा है। ऐसा तो प्रतीत नहीं होता कि इतनी मोटी गलती आगमको अजानकारोमै बुद्धिभ्रमस ही की गई हो । वास्तविक बात तो यह मालूम देती है कि मोक्षमार्गमें सिर्फ वस्तुस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जा रहा है और चारित्रके विपयमे तो यह ख्याल है कि वह तो अपने श्राप नियति के अनुसार समय कानेपर हो ही जायगा, उसके लिये गुरूपार्थ करनेको आवश्यकता नहीं है। बस । एक यही कारण मालूम देता है कि बन्धके कारणाम शानावरणकमके उदयसे होनेवाले ज्ञान के अभावरूप अशानभावको कारण मानना आवश्यक समझा गया है और यह वाक्य लिखा गया है कि 'ज्ञानावरणादि कर्मोंका उदय अज्ञानरूप जीवके भावोंके होनमे निमित्त है।' परन्तु यह भी माटो भूलका ही परिणाम है, क्योंकि यदि वस्तुस्वरूपके ज्ञान के लिये पुरुषार्थको महत्त्व दिया जाता है तो 'चारित्र अपने आप हो जायगा --यह सिवान्त संगत नहीं हो सकता है । यदि यह कहा ------- - ---- Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा जाय कि ज्ञानके साथ पारिवके लिए मो पुरुषार्थ करना चाहिये तो 'भावलिंग होने पर उपलिंग होता है' ( देखो प्रश्न १ का उत्तर ) इस सिद्धान्तको कैसे मान्यता दी जा सकती है ? फिर तो जितना ज्ञानी बनने के लिए जनताको उपदेश दिया जाता है, कमसे कम उतना ही उपदेश चरित्रवान् बनने के लिये भी क्यों नहीं दिया जाता ? तथा आवहारचारिणको बयथार्थ और उपचरित मानते हुए केवल संसारका कारण क्यों कहा जाता है ? वास्तविक बात यह है कि चारित्रका पालन करना तलवारको घारपर चलने के समान है, इसलिए अपने जीवनको कष्टकर भानेवाली प्रवृत्तियों अलग रखकर केवल वस्तुस्वरूपका ज्ञान करने तक सीमित करके भी मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है - ऐसो धारणा जिसने बना ली हो वह व्यक्ति जीवनके लिये कष्टभावले चारित्र के मार्गपर बसने के लिये क्यों उत्साहित होगा ? लेकिन ऐसे व्यक्तिको यह तीसरी भूल होगी। कारण कि समयसार में इस बातका स्पष्ट कथन किया गया है कि केवल वस्तुस्वरूपका ज्ञान कर लेने से मनुष्य यष्टि नहीं हो सकता है प्रमाण निम्न प्रकार है | किं चयमात्मावयोर्भेदज्ञानं तत्किमशानं किं वा ज्ञानम् ? यथज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । ज्ञानं चेत्, किमात्रचेषु प्रवृतं किं वास्त्रवेभ्यो निवृत्तम् ? आत्रवेषु प्रवृत्तं चेदपिं तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । आसवेभ्यो निवृत्तं तर्हि कथं न ज्ञानादेव श्रधनिरोधः इति निरस्तो अज्ञानांशः क्रियानयः । यस्वात्मादयोर्भेदज्ञानमपि नाखवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशी ज्ञाननयोऽपि निरस्तः । समयसार गाथा ७२ की आत्मख्याति टीका अर्थ – यह जो आत्मा और आलवका भेदज्ञान है उसका ज्ञान उस व्यक्तिको, जो अपने को भेदज्ञानी समझता है, रहता है या नहीं । यदि उस भेदज्ञानका ज्ञान उसे नहीं रहता है तो उस व्यक्ति और जिसे अभी तक आत्मा तथा आसवका भेदज्ञान ही नहीं हुआ है उसमें विशेषता (अन्तर) ही क्या रह जायगी ? यदि कहा जाय कि भेदज्ञानका ज्ञान उस व्यक्तिको रहता है, तो फिर प्रश्न उठता है कि यह व्यक्ति ज्ञानका ज्ञान रखते हुए आस्रवोंमें प्रवृत्ति करता है अथवा आस्रवोंकी प्रवृतियोंको बन्द कर देता है ? यदि कहा जाय उसकी आबो प्रवृत्तियाँ तो होती रहती है, तो फिर भी वही बात होगी कि जिसे अभी तक आत्मा और आस्रव में भेदज्ञान नहीं हो पाया है उस व्यक्ति से इस व्यक्ति में क्या अन्तर रह जायगा ? इसलिये जिसे आम और भेदज्ञान प्राप्त हो चुका है, उसका भेदज्ञान तभी सार्थक होगा, जब कि वह आस्रवोंमें होनेवाली अपनी प्रवृत्तियाँ भी बन्द कर देगा और तभी उस व्यक्तिको ज्ञानसे ही बया निरोध होता है' ऐसा कहना उपयुक्त होगा। इसका आशय यह है कि एक तरफ शान रहित क्रिया करना निरर्थक है तो दूसरी तरफ क्रियारहित जानो निर है। 12: द्वितीय वर्चनीय विषयका उत्तर देते हुए जो विशिष्टतर परस्पर अपगाह' का स्पष्टीकरण किया गया है उससे सिर्फ इतनी बात स्पष्ट होती है कि एक ही क्षेत्र स्थित छहों द्रव्योंका जैसा परस्पर संस्पर्शरूप सम्बन्ध है उससे यह विलक्षण है तथा अन्यत्र जिसे संश्लेष बन्ध लिखा है वहो यह है, परन्तु जब यह कहा व्यवहार किया जाता है और यह भी कहा जाता फिर तो आपकी दृष्टिसे वह कल्पनारोपित हो जाता है कि उस विशिष्टतर परस्पर अवगाह में हो बन्धका हूँ कि वह निमित्तनैमितिकभावके आधारपर ही होता है, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६१७ होगा, क्योंकि निमित्तनैमिकभावन कार्यकारणभाव तथा व्यवहार इन दोनों को आप उपचरित, कल्पनारोपित और अद्भूत हो स्वीकार करते हैं। ऐसी हालत ने छह इत्योंके परस्पर संस्पर्श और विशिष्टतर परस्पर अवगाह इन दोनोंमें अन्तर ही क्या रह जायगा ? यह आप ही जानें । : 2: तीसरे चर्चनीय विषयका जो उत्तर अपने दिया है वह निष्प्रकार है 'व्यवहारनवको अपेक्षा से दो द्रव्यां परस्पर निमित्तमात्र से जो विशिष्टतर परस्पर अवगाह होता है उसे बन्धरूप स्वीकार किया है।' इस विषय लिया गया था उसमें से 'व्यवहारनया लेकर यह पहले उत्तर पत्र में जो पद हटाकर उसमे व्यवहारमयको अपेक्षा से यह पद जोड़ दिया गया है, लेकिन इससे अर्धमे कोई अन्तर नहीं आता है। हमारा कहना तो यह है और जैसा कि हमने ऊपर वर्चनीय विषय दोघे अभी अभी लिखा है कि आपको दृष्टिमेनिमित्तमितिभाव और उपहार दोनों ही जद उपचरित आरोपित और अद्भूत ही हैं तो इनके सहारेपर में भी अद्भूतता आये बिना नहीं रह सपेगी तय व्यवहारमयरूपी शानांशका विषय वह कैसे होगा ? क्योंकि असद्भूत विषय जिसकी कोई सत्ता ही नहीं है यह 'गधे के सींग' तथा "आकाश के फूल के समान ही है, अत: चाहे व्यवहार हो या चाहे मिलन हो, अथवा चाहे केवलज्ञान ही क्यों हो वह किसका भी विषय नहीं हो सकता है 1 记 : ४ : चचचनसम्बन्ध में हम आपसे यह कहना है कि आपके द्वारा कही हुई दो आदि परमाणुओं स्वभावर्या होती है वह समान भी होती है और विभी होती है यह बात ठीक है, परन्तु 'परस्पर बन्ध हो जानेपर दो आदि परमाणुओं की जो पर्याय होगी, वह विभागपर्याय होगी ' यह बात आपके मतले कैसे संगत होगी ? जब आप बन्धको अवास्तविक मानते हैं, यह बात आपको सोचना है । आगमसम्मत हमारे पक्ष में तो दो द्रव्योंके बन्धमे विभाव पर्यायकी संगति इसलिए बैठ जाती है। कि यह पक्ष बन्ध, व्यवहार, निमित्तनैमित्तकभाव आदिको अपने अपने रूपमें वास्तविक ही स्वीकार करता है। 11: पानवीय विषय उसमें आपने लिखा है कि इनमें गया भवास्तविक शब्द प्रमोत्पादक है।' यदि 'अवास्तविक चन्द प्रयोग अग हो सकता है तो उसको भी किया जाता है. परन्तु पहले यह तो मालूम होगा कि बन्यादिकी सत्ता क्या किसी भी रूप में अस्वीकार करने है। अभी तक तो हम इस पर पहुंचे है कि आप बन्धको व्यवहारको और निमिसमैमित्तिकभाव आदि भूत अर्थात् सत्ताहीन ही स्वीकार करते हैं। आप ससा के स्वरूपसत्ता और उपचरितता ऐसे दो भेद भले ही स्वीकार कर लें, परन्तु जब उपपरिसको आप करोषित हो मानते है तो वह सत्ताहीन ही होगी, फिर ऐने भेद करने से क्या लाभ? हां। यदि पिण्डरूप सत्ताको कोई प्रकार भी सत् मानने को तैयार हैं, जो निर्णय कीजिये कि उसका वह प्रकार क्या हो सकता है । सत्ताहीन पिण्ड तो केवलज्ञानका भो विषय नहीं हो सकता है, जैसे गधे के सीग और आकाश के फूल केवलज्ञानके विषय नहीं होते हैं, इसलिए आपका यह लिखना भी संगत प्रतीत नहीं होता ७८ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा कि 'केचली भगबान जैसे स्वरूपसत्को जानते है वैसे उपचरितसत्को भी जानते है । इस कारण आपके द्वारा दिया गया प्रकृति अनुयोगद्वारका सद्धरण भी आपके पक्षका समर्थन नहीं कर सकता है । अब थोड़ा आगम प्रतिपादित वस्तुव्यवस्था पर भी विचार कर लेना उपयुक्त जान पड़ता हैसर्व प्रथम प्रवचनसारकी गाथा ६७ को देखिये, वह क्या प्रतिपादन करती है दन्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया असण्णया भणिया । तेस गुण-पज्जयाणं अव्या दन्च ति उवदेशी ॥ इरा गाथामें आचार्यश्री ने द्रव्य, मण व पर्याय इन सबको अर्थ बतलाते हुए इन सभी का द्रव्यम समावेश किया है जो कि परमार्थरूपसे वस्तु है । टीकामें आचार्य अमृतचन्द्र ने इस बिषयको बहुत स्पष्ट करके दिखला दिया है । विस्तार होनेके भयसे यहाँ टीकाका उद्धरण नहीं दिया है, अत: वहाँ देखने का कष्ट कीजिये। अब ज्ञेयतत्त्वाधिकार (२) को गाथा १ को देखिये अस्यो खलु दश्चमी दष्पाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि । तेहिं पुणो पज्जाया पज्जयमुना हि परसमया ॥५३॥ टीका-इह किल यः कश्चन परिच्छिद्यमानः पदार्थः स सर्व एवं विस्तारसयतसामान्यसमुदायात्मना नयेणाभिनिवृत्तत्वाद् द्रव्यमयः । द्व्याणि तु पुनरेकाश्रयविस्तार-विशेषात्मकैरमिनिवृतस्त्राद् गुणात्मकानि । पर्यायास्तु पुनरायतविशेषात्मका उक्तलक्षणैव्यैपि गुणैरप्यभिनिवृत्तवाद दृष्यात्मका अपि गुणात्मका अपि । तनानेकद्रव्यात्मकैक्यप्रतिपत्तिनियन्धनो द्रव्यपर्यायः । स द्विविधः-समानजातीयोऽसमानजातीयश्च । तत्र समानजातीयो नाम यथा-अनेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्यणुक इत्यादि । असमानजातीयो नाम बथा. जीवपुद्गलास्मको देवो मनुष्य इत्यादि । गुणद्वारणायतानैक्यप्रतिपचिनिबन्धनो गुणपोयः। सोऽपि द्विविध:स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तदन्याणामात्मीयामायागुरुलघुगुणद्वारण प्रतिसमयसमुदीयमानषट्रस्थानपतितवृद्धिहानिनानास्वानुभूतिः । विभाचपर्याया नाम-रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतादात्म्योपदर्शितस्वभावविशेषानेकरयापत्तिः । टीकाका अर्थ-लोक में जितना कुछ ज्ञेयरूप पदार्थ है वह सब बिस्तारसामान्य अर्थात् तिर्यकसामान्य और आयतसामान्य अर्थात् अव॑तासामान्य-इन दोनों के समूहरूप द्रव्य के रूप में अस्तित्वको प्राप्त हो रहा है, अतः द्रव्यरूप है | जितने द्रक्ष्य है वे सब गुणात्मक है, क्योंकि विस्तार गुणका नाम है और इस तरह प्रत्येक द्रव्य एक आश्रय में रहनेवाले विस्तारविशेषों अर्थात् गुणभेदोंके आधार पर अस्तित्वको प्राप्त हो रहा है। इसी प्रकार आयत पर्यायका नाम है और वे पर्याय उक्तलक्षण वाले द्वन्धों तया गुणांके आधारपर हो अस्तित्वको प्राप्त हो रही है, इसलिए पर्याय द्रश्यात्मक भी है और गुणात्मक भी हैं। इन दोनों प्रकारको पर्यायों में से जो पर्याय अनेक द्रव्योसे बने हुए ऐक्यवा ज्ञान करानेका कारण है वह द्रव्यपर्याय है। द्रव्यपर्याय दो प्रकारको है-एक तो समानजातीय द्रव्यपर्याय और दूसरी असमानजातीय द्रव्यपर्याप । इनमें से समानजातीय द्रश्नपयि तो दयणुक आदि पुद्गलात्मक है और असमान मातीय द्रश्यपर्यायें जोव तथा पुद्गलके मिश्रणमे निष्पन्न होनेवाली देव, मनुष्यादि पर्याय है। गुणोंके द्वारा आयत अर्थात् ऊर्ध्वरूपमें अनक्यको प्रतिपतिको कारणभूत गणपर्यायें हैं। ये गुणपर्यायें भी दो प्रकारको है-स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । रामस्त द्रव्य अगुरुलधुगुणांके द्वारा प्रत्येक समयमें होनेवाली षड्गुणहानि-वृद्धिरूप स्वभावपर्यायें हैं और विभावपर्यायें रूपा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६१९ दिक तथा ज्ञानादिककी स्व ( उपादान ) तथा पर ( निमित्त ) इन दोनों के सहयोग से उत्पन्न होनेवाली पूर्व और उत्तर अवस्थाओं में आनेवाले तारतम्यके आधारपर दिखाई देनेवाले स्वभावविशेषरूप हैं । उक्त गायाकी यह टीका जीव तथा पुद्गलकी बंधपर्यावकी एवं धणुकादिरूप स्कन्धकी वास्तुविकताका उद्घोष कर रही है। लागे पंचास्तिकाय ग्रन्थका भी प्रमाण देखिये - धावा संदेश य संपदेसा होंति परमाणू | इदि से चतुब्वियप्पा पुग्गलकाया मुणेयश्वा ॥ ७४ ॥ अर्थ-स्कन्ध स्कन्ध खण्ड, उन खण्डोके खण्ड और परमाणु इस तरह पुद्गल द्रव्योंको चाररूप समझना चाहिए। श्लोकवार्तिक पृ० ४३० पर तस्वार्थसूत्र के 'अवणः स्कन्धाश्च' सूत्रकी व्याख्या करते हुए आचार्य विद्यानन्दिने लिखा है नाण एवेत्येकान्तः श्रेयानू, स्कन्धानामशबुद्धी प्रतिभासनात । स्कन्धकान्तस्ततोऽस्त्विस्यपि न सम्यक् परमाणूनामपि प्रमाणाित् । " अर्थ- पुद्गल द्रव्य केवल अणुरूप ही ऐसा एकान्त नहीं समझना चाहिये, कारण कि इन्द्रियां से स्कन्धों का भी ज्ञान होता है। केवल स्कन्धांको मान लेना भी ठोक नहीं है, कारण कि परमाणु भी प्रमाणसिद्ध पदार्थ हैं । इसी प्रकार तत्वार्थ सूत्र अध्याय ५ में 'भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते' (५ - २६ ) इस सूत्र द्वारा स्कन्धोंकी तथा 'भेदादणु: । ( ५- २७ ) इस सूत्रद्वारा अणुको उत्पत्ति बतलायी गयी है । अष्टशती और अष्टसहस्रीका भी प्रमाण देखिये -- कार्यकारणादेरभेदेकान्ते धारणाकर्षणादयः । परमाणूनां संघातेऽपि माभूवन् विभागवत् ॥६७॥ इसके आगे अष्टमी की पंक्तियों पहिये - त्रिभक्तेभ्यः परमाणुभ्यः संहतपरमाणूनां विशेषस्योत्प सेर्धारणाकर्षणादयः संगच्छन्ते । - अष्टसहस्री पृष्ठ २२३ कारिका ६० को व्याख्या दोनोंका अर्थ - कार्य और कारण में सर्वथा मभेद माननेमे परमाणुओंका स्वांध बन जाने पर धारण और आकर्षण नहीं होना चाहिये । अर्थात् परमाणु अकेले में धारण और आकर्षणरूप क्रिया होना जैसे सम्भव नहीं है उसी तरह संघातमें भी जम क्रियाका होना कार्य और कारणका अभेद माननेपर नहीं होगा। चूँकि पृथक् विद्यमान परमाणुओं की अपेक्षा संहत ( स्कन्धरूप) परमाणुओं में विशेषता आ जाती है, अतएव उनका धारण और आकर्षण संभव हो जाता है । ये सब प्रमाण पृथक् पृथक् पाये जानेवाले अणुत्रोंकी और उन अणुओं की बद्धता से निष्पन्न द्वणु कादि स्कंधों की वास्तविकताको सिद्ध करते हैं । बंध होनेपर एकत्व हो जाता है, अर्थात् दोनोंकी पूर्व अवस्थाका त्याग होकर एक तीसरी अवस्था उत्पन्न हो जाती है। श्री पूज्यपाद आचार्यमे सर्वार्थसिद्धिमें कहा भी है- Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० जयपुर (खानिया ) तमचर्चा mi fa qua (21) ततः पूर्वावस्थामन्यवनपूर्वकं सासयिकमवस्थान्तरं प्रादुर्भवतीत्येकत्वमुपपद्यते (५/२४) अर्थात् — बंधकी अपेक्षा एक है। संघ से पूवस्थाका त्याग होकर उनसे भिन्न एक तीसरी अवस्था उत्पन्न होती है, अतः उनमें एकरूपता आजाती है । इससे भी बन्धकी वास्तविकता हो सिद्ध होती है । है इन सब प्रमाणोंके प्रकाश में स्कन्ध, देश, प्रदेश आदि पुद्गल द्रव्योंकी समानजातीय पर्यायें तथा जो और पुद्गल के मिश्रण से बननेवाली देव, मनुष्पादि पर्यायें तभी उत्पन्न हो सकती है जब कि मूल द्रव्यके अनित्यांशभूत स्वकाल और स्वभावमें परिणमन हो जाये। यदि उक्त पर्यायोंमें द्रव्य के अनित्यांशभूत स्वकाल और स्वभाव भी तरह जो ऐसी हालका निर्माण कभी संभव नहीं होगा । परन्तु बात दरअसल यह है कि परमाणु जब घणूक, प्रयणुक आदि स्कंनको अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब वे अपनी कत्वपयको छोड़कर स्कन्धरूप पर्यायको धारणकर लेते हैं। यदि ऐसा न हो तो फिर सूक्ष्मताको प्राप्त अणुओंके स्कन्धमें स्थूलता तथा अदृश्यता के स्थानपर दृश्यला किसी भी प्रकार संभव नहीं होगी । इसलिये परिवर्तित स्वरूणस्तित्वको लिये हुए ही स्कन्धपरिणति उन पुद्गलों में आती है । यह परिणति उसी पुद्गल द्रव्यर्क स्निग्मत्व और रूक्षस्य गुणकी विकृतिरूप उपादान शक्ति से निर्मित कंचित् एकत्वरूप है, इसलिए बन्चरूप अवस्था जिसे स्कंध कहो, चाहे अनेक द्रश्योंकी समानजातीय या असमानजातीय पर्याय कहो, ये सभी द्रव्यगत विशेष ही हैं, अतः वह पर्याय भी अर्थ है, वास्तविक परिणमन है, उन द्रव्योंसे जुदा नहीं है । नैयायिक लोग तो गुणपदार्थको गुणीसे भिन्न मानते हैं, इसलिए उनके मतसे संयोग द्रव्यसे भिन्न एक गुण है। जैनागम यद्यपि द्रव्यसे भिन्न संयोगको गुण नहीं मानता है तो भी वह दो द्रव्योंके बत्मक परि मनको तो स्वीकार करता ही है। तो फिर दो पुद्गलों को अंघात्मक अवस्थारूप समानजातीय द्रव्यपर्यापको तथा जीव पुद्गलाको बंधात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायकी अवास्तविक कैसे कहा जा सकता है। प्रवचनसार ० १२० पर भी लिखा है - तत्रैव चानेकपुद्गलारमको अणुक्रम्यणुक इति समानजातीयो वव्यपर्यायः - गाथा ९३ टीका अर्थ — अनेक पुद्गलोंके रूप ही वचणुक और शुक में सब समानजातीय द्रव्यपर्याय ही है । ऐसी स्थिति में इन्हें वस्तुस्वरूप हो माना जाना युक्तिसंगत और आगमसम्मल है। मतः इन्हें व्यवहारनमाश्रितता के आधार पर उपचरित (कल्पनारोगित) बतलाना कहाँ तक उचित है । इसीलिये प्रवचनसार के ज्ञेय तत्त्वाधिकारको गाथा १ की टीका करते हुए आचार्य श्री अमृतचन्द्र अन्त में बहुत स्पष्ट लिखा है कि - सर्वपदार्थानां द्रव्यगुणपर्यायस्वभावप्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयसी । अर्थ- सर्व पदार्थो की द्रव्य-गुण- पर्यायरूप स्वभावकी प्रकाशक भगवान् सर्वज्ञ अर्हन्तदेव द्वारा उपदिष्ट व्यवस्था ही सत्य है । इसी प्रकार इन्हीं पर्यायोंके आधार पर ही उत्पाद व्यय श्रीष्मकी व्यवस्था प्रतिपादित की गयी है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६२१ जो परमाण, दुवणक और व्यणक आदिमें कात्यको हौ लक्षित करता है। यदि स्वरूपास्तित्व में जो अंध पर्यायको प्राप्त है वह यदि परिवतित हए बिना ही रह जाये तो फिर द्वयणकादि पर्याय कैसे बनेंगी? इतना अवश्य है कि परमाणका जो अनुगामी अंश द्रव्याथिक नयगम्य होगा, वही अपरिवर्तित ह जावेगा और उसके अपरिवर्तित बने रहने पर भी जो पर्याय होती है उनको स्व-गरप्रत्यय माना गया है । विस्तरेण अलम् । इस पर आप विचार कीजिये । यही हमारा अन्तिम अनुरोध है । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो मणी । मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका १० जीव तथा पुद्गलका एवं द्वयणुक आदि स्कन्धों का बन्ध वास्तविक है या अवास्तविक ? यदि अवास्तविक है तो केवली भगवान उसे जानते हैं या नहीं ? प्रतिशंका ३ का समाधान इस प्रश्नका समाधान करते हुए पिछले दो उत्तरों में बतलाया गया था कि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभाव से जीव और पदगलोंका तथा पुद्गल-पुद्गलका जो विशिष्टतर अवगाह होता है उसकी बंध संज्ञा है। यह वास्तविक है या अवास्तविक ? इसका निर्णय करते हुए बतलाया गया था कि सत्ता दो प्रकारकी मानो गई है--स्वरूपसत्ता और उपचरित सत्ता । स्वरूपसत्ताको अपेक्षा प्रत्येक परमाणु या भीष अपने अपने स्वचतुष्टयमें ही अवस्थित रहते है, इसलिए स्वतन्त्र है, क्योंकि वो या होसे अधिक परमाणु या जीव और पृद्गल सर्वथा एक नहीं हुए हैं। किन्तु बन्ध होने पर जामे जो एक क्षेत्रात्र माहरूप एक पिण्डरूपता प्राप्त होती है वह उपचरिलमत् है । अतएव केवली जिन जैसे स्वरूपगत् को जानते है वैसे ही एक पिण्ड व्यवहारको प्राप्त उपचरित सतको भी जानते है, क्योंकि परस्पर निमित्त-नैमित्तिकभावसे उस उस पर्यायपरिणत एकक्षेत्रावगाहरूप वे केवलोके ज्ञान प्रतिभासित होते है । तत्काल प्रतिमाका ३ विचारके लिए प्रस्तुत है। इसमें सर्वप्रथम प्रतिशंका २ में उठाये गये ५ प्रश्नोंको पुनः निबद्ध कर प्रथम प्रश्नका उत्तर देते हुए हमारे द्वारा लिखे गये एक वाक्य पर आपत्ति की गई है। वह बाक्य इस प्रकार है-- 'जीवके अज्ञानरूप मोह, राग-द्वेष परिणाम तथा योग द्रब्धकर्मके बन्धके निमित्त हैं और ज्ञानावर णादि कमौका उदय अज्ञानरूप जीवभावोंके होनमें निमित्त है।' सो यद्यपि यह वाक्य शास्त्रविरुद्ध तो नहीं है, परन्तु अपर पक्षने 'ज्ञानावर णादि कर्मोंका उदय अज्ञानरूप जीवभाव के होने में निमित्त है। इस बाक्यको पढ़कर इसपर अत्यधिक आश्चर्य प्रगट करते हुए लिखा है-'लेकिन ज्ञानावरणादि कोका बन्दय अशानरूप जोवनावों के होने में निमित्त है यह वाक्य Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा प्रत्युत्तरमें देखकर तो आश्चर्यका ठिकाना ही नहीं रह सकता है। कारण कि जिसने अंदा में ज्ञानावरण कर्मका उदय जीवमे विद्यमान रहता है उससे तो ज्ञानका अभावरूप अज्ञान ही होता है जिसे द्रव्यकमके बन्धका कारण न तो आगममें माना गया है और न आपने ही माना है। आपके द्वितीय वक्तव्य में स्पष्ट लिखा हुआ है कि 'अज्ञानरूप मोह, राग, द्वेष परिणाम तथा योग द्रव्यकर्म के बन्धके निमित्त हैं।' यह हमारे पूर्वोक्त वाक्यके सन्दर्भ में अपर पक्षका वक्तव्य है । प्रसन्नता है कि इस अपर पक्षद्वारा उस वाक्यांशको सदोष बतलानका उपक्रम नहीं किया गया जिरा द्वारा संसारी जोवके अज्ञानरूप रागादिभावों और योगको निमित्तकर ज्ञानावरणादि दसकर्मके बन्धका विधान किया गया है। आर पक्षको उक्त उद्धृत वाक्यका उत्तरार्द्ध सदोष प्रतीत हुआ है। किन्तु उसने यदि सावधानीसे उक्त वाक्यांदा पर विचार किया होता तो हमें विश्यास है कि वह इस अप्रासंगिक चर्चासे इस प्रतिशंकाके कलेवर को पुष्ट करनेका प्रयत्न नहीं करता। कारण कि उक्त वाक्यके पूर्वार्ध द्वारा जहाँ ज्ञानावरगादि कर्मबन्धके निमित्त कारणोंका निर्देश किया गया है वहाँ उसके उत्तरार्ध द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मों के उदयको निमित्त कर होने वाले जीवके अज्ञान, अदर्शन, अचारित्र और अदानशीलता आदि अज्ञानरूप भावोंका निर्देश किया गया है । ये भाव जीवके चैतन्य स्वभावको स्पर्श नहीं करते, इसलिए इन सबको अज्ञानरूप कहा गया है। मालूम नहीं कि अपर पक्षने उक्त वाक्यमें आये हुए 'अज्ञानरूप जीवभावों इतने कैयनको देखकर उनसे अज्ञानरूप राग द्वेष, मोह तथा योगका परिग्रह कैसे कर लिया। यदि गगादि भाव अज्ञानरूप माने जा सकते है तो अज्ञान, अदर्शन आदि भायोको अज्ञानरूप मानने में आपत्ति ही क्या है । जो राग-द्वेषादि भाव ज्ञानावरणादि कर्मके हेतु है उनका नामोल्लेखपूर्वक निर्देश जब अनन्तर पूर्व हो किया है ऐसो अवस्थामें अज्ञानरूप जीवभावोंसे अज्ञान, अदर्शन आदि औदयिक भाव लिये गये है यह अपने आप फलित हो जाता है। अतएव अपर पक्षने जो इस प्रकारको आपत्ति ठाई है वह ठीक नहीं है, इतना संकेत करने के बाद हम उनके उस निष्कर्ष पर सर्व प्रथम विचार करेंगे जो उस पक्षने इस आपत्तिके प्रसंगसे फलित किया है । वह निष्कर्ष इस प्रकार है 'वास्तविक बात तो यह मालूम देती है कि मोक्षमार्गमे सिर्फ वस्तुस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जा रहा और चारित्रके विषय में तो यह स्याल है कि वह तो अपने नियति के अनुसार समय आने पर ही हो जायगा, उसके लिए पुरुषार्थ करनेको आवश्यकता नहीं है। बस ! एक यही कारण मालम देता है कि चन्धके कारणों में ज्ञानावरण कम के उदयसे होनेवाले ज्ञानके अभावरूप अज्ञानभावको कारण मानना आवश्यक समझा गया है और यह वाक्य लिखा गया है कि 'नानावरणादि कर्मोका उदय अज्ञानरूप जीवभावों के होने में निमित्त है।' आदि। सो इप्तका उत्तर यह है कि जब किसीके मन में दूसरोंके प्रति विपरीत धारणा वन जाती तो वह किसी भी कथनसे उल्टा-सीधा कुछ भी अर्थ फलित कर स्वयं भ्रममें पड़ता है और दूसरे के लिए भी भ्रमका मार्ग प्रशस्त करता है। हमें तो प्रकृतमें अपर पक्षका ऐसा हो आचरण प्रतीत होता है, क्योंकि अपर पक्षने जिम मातको आपस्ति योग्य माना है उसमें तो केवल इतना ही बतलाया गया है कि ज्ञानावरणादि कमौका उदय किन भावोंके होने में निमित्त है । वे भाव कर्मबन्धके हेतु है यह बात उसमें जब कही ही नहीं गई ऐसी अवस्थामें हमने ज्ञानावरण कर्मके उदयमें होनेवाले अज्ञान भावको कर्मबन्धका हेतु बतलाया, यह बात अपर पक्षने कैसे फलित कर ली, आश्चर्य है। हमारे वाक्यमें ज्ञानावरण के साथ 'आदि' शब्द जुड़ा है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शका १० और उसका समाधान ६२३ साथ ही "अज्ञानरूप जीवभावों इस प्रकार प्रवचन पदका निर्देश है। ऐसी अवस्थामै अपर पक्षने उसका अर्थ 'ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होनेवाले शानके अभावरूप अज्ञानभाष' कैसे किया, इसका बही शांत चिससे विचार करे। अतएव उस बाक्य परसे यह फलित करना कि 'मोक्षमार्गमें सिर्फ वस्तूस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जा रहा है और चारित्रके विषयमं तो यह ख्याल है कि वह तो अपने आप निमित्तिके अनुसार समय आनेपर ही हो जायगा, उसके लिए तरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं है।' कथन मात्र है, क्योंकि हमारा कहना तो यह है कि जो मुमुनु आत्मसिद्धि के लिए प्रयत्नशील है उनके लिए तत्त्वज्ञान पूचक हेय-उपादेयका विवेक और उसके साथ अन्तरङ्ग कषायका शमन करते हुए यथा पदवी चारित्रको स्वीकार कर उसे जीवन का अंग बनाना उतना ही आवश्यक है जितना कि चिरकालसे विपरीत दृष्टि पंगु पुरुषके लिए स्वयं इष्ट स्थान पर पहुँचने के हेतु मार्गदर्शक आँखोंका निर्मल होना और उसके साथ यथाशक्ति पंगुपनेको दूर करते हुए यथासामथ्ये मागेका अनुसरण करना आवश्यक है। हमें इस बात की तो प्रसन्नता है कि अपर पचने प्रकूत में इस तथ्यको तो स्वीकार कर लिया है कि हमारी ओरसे जो प्ररूपणा की जाती है वह वस्तुस्वरूपका ज्ञान करानेके अभिप्रायसे ही की जाती है। उसमें किसी प्रकारकी विपरीतसा नहीं है। तभी तो उसकी ओरसे यह वाक्य लिखा गया है कि 'मोक्षमागमें सिर्फ वस्तुस्वरूपके ज्ञानको ही महत्त्व दिया जारहा है ।' अन्यथा उस पक्षकी शंका चारित्रके विषयमें न उठाई जाकर सम्यक ज्ञानके विषय में उठाई जानी चाहिए थी। परन्तु वस्तुस्थिति हो दूसरी है। वास्तवमें तो वर्तमानमे चारित्रका अर्थ बाह्य क्रिया बतलाकर बाह्य क्रियाकाण्डमें ही जनताको उलझाये रखनेके अभिप्रायसे हमें लांछित किया जा रहा है। इसलिार अपर पक्षको यह प्रवृत्ति अवश्य ही टीकास्पद है, ऐसा हमारा स्पष्ट मत है। सत्वार्थकार्तिक १० १ पृ. १७ में 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' इस सूत्रकी व्यारूपा करते हुए लिखा है एषो पूर्वस्य लाभे भजनोयमुत्तरम् । इन सम्यग्दर्शनादि तीनोम से पूर्व अर्थात् सम्यग्दर्शन और तत्सहचर सम्यग्ज्ञानका लाभ होनेपर सम्पचारित्र भजनीय है। इतसे विदित होता है कि राम्यग्दर्शन के साथ होनेवाला शान ही सम्पज्ञान है, और इन दोनोंके होनेपर जो आत्मस्थितिरूप पारित होता है वही सम्यक्चारित्र है। ये तीनों आत्माको स्वभावपर्याय है, अथवा इन तीनमप स्वयं आत्मा है। क्या अपर पक्ष या यतला सकता है कि ऐसे सम्बकचारिमधर्मका और उसके साथ होनेवाली सदनकल बाह्म प्रवृत्तिका हममें से किसी ने कभी और कहीं निषेध किया है क्या ? निषेध करनेकी बात तो दूर रहो, आत्माके निज वैभवको प्रकाशित करनेवाले अध्यात्मका जहाँ भी उपदेश दिया जाता है वहाँ मही कहा जाता है कि जो केवल 'मैं शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, नित्य हूँ' ऐसे विकल्पमें मग्न होकर लतस्वरूप आत्माको नहीं सनुभवता यह तो मारमासे दूर है ही, साथ ही जो विकल्प और शरीरके आपोन क्रियाधर्मके अवलम्बन द्वारा माशमार्गको प्राप्ति मानता है वह आत्मासे और भो दूर है। अतएव बाह्य क्रियाधर्म में आत्महित है इस पामोह को छोड़कर प्रत्येक भव्य जीन को आत्मप्राप्तिके मागमे लगना चाहिए। यह हम मानते है कि आत्मप्राप्तके मार्गमें लगे अन्य जीवका क्रियाधम सर्वथा छुट नहीं जाता, क्योंकि सम्पदर्शनकी प्राप्तिके Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वधर्चा बाद भी रागसे अनुरंजित जपयोगके काल में क्रियाधर्म तो होता ही है, उसका निषेध नहीं। बात केवल इतनी है कि ज्ञानो पुरुष उसे केवल अपना स्वभाव न मानकर उसरूप प्रवृत्ति करता हुआ भी निर्विकल्प समाधिको ही हितकारी मानता है जो कि सम्यक्त्वारिक स्वरूप है। पं० प्रबर आशाघरजीने सागारधर्मामृत का प्रारम्भ करते हुए 'सद्धमरागिणाम्' पद देकर यह प्रसिद्ध किया है कि अन्सरङ्गमें जिनके मुनिधर्म (आत्मधर्म) में गाढ़ प्रीति उत्पन्न हुई है उसीका गार्हस्थ्य जीवन सफल है। सविकल्प दशामें यथापदवी व्यवहारधर्म जहाँ उस उस काल में प्रयोजनीय माना गया है, वहाँ उसके होते हुए भी आत्मकार्य में सावधान रहना जीवन माना गया है। यह आध्यात्मिक उपदेशको पद्धति है। इसो पद्धतिका अनुसरण कर अनादिकालसे सर्वत्र अध्यात्मके उपदेश दिये जानेकी परिपाटी है। ऐसी अवस्थामें प्रतिशंका ३ में प्रवृल विषयको लक्ष्य रखकर जो भाव व्यक्त किया गया है उसे मात्र कल्पनाके कुछ भी नहीं कहा जा सकता। निवति किसो एक कार्यक लिए आगममें स्वीकार की गई हो और दूसरेके लिए स्वीकार को गई हो ऐसा नहीं है। साथ ही कोई एक कार्य पुरुषार्थपूर्वक होता हो और दूसरा बिना पुरुषार्थके हो जाता हो ऐसा भी नहीं है । इनका गीण मुख्यपना विवक्षामें हो सकता है, कायमें नहीं । इसी प्रकार जो भो कार्य होता है उसका कोई निमित न हो यह भी नहीं है। एकान्तके प्रति आग्रहवान् व्यक्ति हो ऐसो कल्पना कर सकते है कि अमुक कार्य मात्र पुरुषार्थ से होता है, अमुक कार्य मात्र निर्यात के अनुसार अपने आप हो जाता है और अमक कार्य मात्र निमित्तके बलसे होता है। जिन्होंने अपने जीवन में अनेकान्तस्वरूप आत्मधर्मका रसास्वाद लिया है में त्रिकाल में ऐसी मिथ्या कल्पना नहीं कर सकते । कार्यमें पुरुषार्थ, नियति, निमित्त आदि सबका समनाम है ऐसा निश्चय जिनके चित्तमें है वे ही मोक्षमाग के पायक बनने के अधिकारी हैं। अतएव जैसे आत्मविवेकको जागृत करनेके लिए परम पुरुषार्थको आवश्यकता है उसी प्रकार आत्मस्थितिरूप चारित्रको संपादित करने के लिए भी निरलसभावसे आत्मपुरुषार्थी होना भी आवश्यक है । सब आत्मकायोंक सम्पादन में पुरुषार्थ प्रथम कर्तव्य है। अतएव चचनीय विषयों में से प्रथम चर्चनीय विषयका उत्तर देते हुए हमने जो यह लिखा है कि 'ज्ञानावरणादि कमों का उदय अज्ञानरूप जीवभावोंके होने में निमित्त है।' सो उक्त वाक्यको सदोष बतलाते हुए उसपरसे अन्यथा कल्पना करना थेयस्कर नहीं है। हम प्रथम प्रश्नके उत्तरमें यह लिख आये है कि 'जैसा कि भावलिग होने पर व्यलिंग होता है, इस नियमले भी सिद्ध होता है।' आदि, सो इस वाक्यके ऊपरमे भी अपर पक्षने अपने मनगढन्त विचार बगा लिये है । उसने यदि इस वाक्यके आगे लिखे गये पूरे कथनपर ध्यान दिया होता और उसके सन्दर्भ में इस वाक्यको पढ़ता सो आशा थी कि वह अपनी कल्पित कल्पनाओंसे प्रतिशंकाके कलेवरको नहीं सजाता । स्या यह सच नहीं है कि भावलिंगके अभाव में नग्नता आदि रूप धारण किया गया लिंग मोक्षमार्गकी प्राप्तिमें अणमात्र भी साधक नहीं है? और क्या यह सच नहीं है कि ऐसे भावशन्य द्रव्यलिंगको धारण कर जो महानुभाव तलवारको धारपर चलने के समान विविध प्रकारका कायक्लेदा करते हैं उनका वह कायकलेश मोक्षमार्गकी प्राप्तिमें अणमात्र भी साधक नहीं है। लिग सत्यार्थपनको तमो प्राप्त हो सकता है जब वह भावलिंगका अनुवर्ती बनना है । इमी तथ्यको हमने प्रथम शंकाके उत्तरमें 'भावलिंगके होनेपर द्रवलिंग होता है।' इत्यादि वाक्यों द्वारा व्यक्त किया था । हमारे द्वारा व्यक्त किये गये थे भावपूर्ण वचन इस प्रकार है 'जमा कि भावलिंगके होनेपर द्रव्यलिंग होता है इस नियम से भी सिद्ध होता है। यद्यपि प्रत्येक मनुष्य भावलिंगके प्राप्त होने के पूर्व ही दम्पलिंग स्वीकार कर लेता है. पर उस द्वारा भावलिंगको प्राप्ति Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ शंका १० और उसका समाधान द्रव्यलिंगको स्वीकार करते समय ही हो जाती हो ऐसा नहीं है। किन्तु जब उपादानके अनुसार भावलिंग प्राप्त होता है तब उसका निमित्त द्रव्यलिग रहता ही है।' अपर पक्ष तत्वज्ञानको चाहे जितना गौण करनेका प्रयत्न करके बाह्य क्रियाकांडका चाहे जितना समर्थन क्यों न करे और अपने इस प्रयोजनको सिद्धिके लिए समयसारके टोका वचनांको उनके यथार्थ अभिप्रायकी ओर ध्यान न देकर भले ही उद्धृत करे, परन्तु इतने मात्र मोक्षमार्गम केवल क्रियाकांडको महरव नहीं मिल सकता, क्योंकि समयसारकी उक्त गाथा ७२ की आस्मल्याति टोकामें जो 'अज्ञान' और 'आसन्न पदोंका प्रयोग हुआ है वह राग-पादि भावों के अर्थमें ही हुआ है. बाह्य क्रियाकांडके अर्थमें नहीं । चारित्रका लक्षण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें लिखते है चारित्त' खलु धम्मो धग्मो जो सो समो त्ति णिहिटो । मोहनयोहविहीणो परिणामो अपणो ३ समो ॥ ७ ॥ चारित्र बाम्तन में कम है. लो मर्म मामापोगा जिन्द्रदेव रहा है और साम्प माह तथा क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम है ।।७।। इराकी टीका करते हुए आचार्य अभृत चन्द्रने और भो भावपूर्ण शब्दों द्वारा चारित्रकी व्याख्या की है। बे लिखते हैं स्वरूपे चरणं चारित्रम् । स्वसमप्रवृत्तिरित्यर्थः । तदेव वस्तुस्वभावत्वाबू मः। शुद्धचैतन्यप्रकाशनमित्यर्थः । चारित्र क्या है इसको सर्वप्रथम व्याख्या आचामेनर्यने को-स्वरूप सरणं चारित्रम्'-स्वरूपमें रमना चारित्र है । स्वरूपमें रमना किस वस्तुका नाम है इसे स्पष्ट करते हुए वे कहते है-'स्वसमय प्रवृत्तिरित्यथ:--- जो रागद्वेयादि विभावभावों और समस्त परभावोंसे रहित ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्व है उसमें तन्मय हो प्रवर्तना स्वसमयप्रवृत्ति है। ऐसा करनेमे क्या होगा इसका उत्तर देते हुए वे पुन: लिखते है-'तदेव वस्तुस्व. भाववादम:'-स्वस मयप्रवृत्तिसे जो स्वरूपलाभ होता है वही वस्तुका स्वभाव होने के कारण धर्म है। कोई कहे कि ऐसे धर्म की प्राप्ति होने पर मी आत्माको क्या लब्ब माता आचार्य उत्तर देते हैं-'शुद्धचैतन्य प्रकाशनमिन्यथः'-इस तरह जो धर्मको प्राप्ति होती है वही तो शुद्ध चैतन्यका प्रकाशन है । वास्तवम देखा जाय तो यही आत्माका सच्चा लाभ है। या अपर पक्ष यह बतला सकता है कि ऐसे स्वरूपरमणताका चारित्रको प्राप्ति तत्त्वज्ञानके बिना कभी हो सकती है। यदि कहो कि तत्त्वज्ञानके अभ्यास विना स्वरूपरमणतारूप उक्त प्रकारके वारिपकी प्राप्ति होना पिकालम संभव नहीं है तो फिर हमारा निवेदन है कि तत्त्वज्ञानका उपहास आईए, हम आपका स्वागत करते हैं। हम और आप मिलकर ऐसा मार्ग बनाएं जो तस्वज्ञानपूर्वक चारित्रकी प्राप्तिमें सहायक बने । अस्तु, द्वितीय चर्चनीय विषयका स्पष्टीकरण करते हुए हमने परमागममें 'बन्ध' पदका म्या अर्थ स्वीकृत है इसका स्पष्टीकरण किया या । इसपर आपत्ति करते हुए अपर पश्वका कहना है कि 'परन्तु जब यह कहा जाता है कि उस विशिष्टतर परस्पर अवगाह में ही 'बध' का व्यवहार किया जाता है और यह मो कहा जाता है कि वह निमित्त नैमित्तिकभावके आधार पर ही होता है, फिर तो आपको दृष्टिसे यह कल्पनारोपिल ही Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा होगा, क्योंकि निमित्त-नैमित्तिक भाषरूप कार्यकारणभाव तथा व्यवहार इन दोनोंको आप अपचरित, कल्पना. . रोपित और असद्भुत ही स्वीकार करते हैं। ऐसी हालतमें ६ द्रव्योंके परस्पर संस्पर्श और विशिष्टतर परस्पर अत्रगाह इन दोनों में अन्तर ही क्या रह जायगा ? यह आप ही जानें ।' सो इस आपत्तिका समाधान यह है कि पर पक्षने ६ द्रब्यांके परस्पर संपर्श और विशिष्टतर परस्पर अवगाह इन दोनों में दान्तर ही क्या रढ़ जायगा ! हममे ऐसा प्रश्न करके संभवतः इस बातको तो स्वीकार कर लिया है कि छह द्रव्यांका परस्पर संस्पा उपचरित, कल्पनारोपित और असद्भुत ही है। केवल वह पक्ष विशिष्टतर परस्पर अन्नगाहको उपचरित सत स्वीकार करनेस हिचकिचाता है। उसके हिवकिचानेका कारण यह मालूम देता है कि वह समझता है कि यदि ऐसे अवगाह ( बन्ध ) को उपचरित मान लिया जायगा तो निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्धको व्यवस्थाः गड़बड़ा जायगी। किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है। देखिए, लोकमें थी का घड़ा ऐसा व्यवहार होता है, किन्तु ऐसा व्यवहार होनेमात्रसे बड़ा घीका नहीं हो जाता। मात्र अन्य घड़ासे विवक्षित चड़ेका पृथक ज्ञान कराने के अभिप्रायमे ही मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहा जाता हैं। इसी का नाम लोकव्यवहार है। उसी प्रकार जिस दृश्यको वितषित पर्यायमें निमित्त व्यवहार किया गया है बह विवक्षित कार्यको उत्पन्न करता हो ऐसा नहीं है, किन्तु उसके सदभावमें उपादानने अपना जो कार्य किया है उसको सिद्धि या ज्ञान उस द्वारा होता है ऐमी बाह्य व्याप्ति देखकर ही उसे विवक्षित अन्य प्रकी पर्यायका निमित्त यह संज्ञा प्राप्त होती है और उसके सद्भाव में हमा कार्य नैमित्तिक कहा जाता है, इसलिए निमिसनैमित्तिक व्यवहारको उपचरिता असद्भुत मानकर कार्यकारणपरम्पराके रूप में उसे स्वीकार कर लेनेपर भी लोकम और बागममें किसी प्रकारको बाथा उपस्थित नहीं होती। यदि अपर पक्षके मतानुसार निमित्त ध्यवहारयोग्य बाह्य सामग्रीको कार्यका जनक यथार्थ स्पर्म स्वीकार किया गया होता तो आगममें उसे व्यवहार हेतु न लिखकर यथार्थ हेतु लिखा गया होता, किन्तु आगम उसकी सर्वत्र श्यवहार हेतुरूपसे ही घोषणा करता है, ऐसी अवस्थामें अन्य द्रब्यकी पर्याय में निश्चयका ज्ञान करानके अभिप्रायसे किये गये निमित्त व्यवहारको उपचरित मानना हो समीचीन है । आगममें इस प्रकारके सत्योंका निरूपण करते हुए गोम्मटसार जौवकाण्डमें लिखा है जणवद सभ्मदि ठवणा णाम रूवे पद्धच्चववहारे । संमावणे य भावे उवमाए दसविहे सच्चे ॥२२॥ जनपदसत्य, सम्मतिसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यमत्य, व्यवहारसत्य,, सम्भावनासत्य, भावसत्य और उपमासत्य इस प्रकार सत्य १० प्रकारका है ।।२२।। अपर पक्ष यह भलीभाँति जानता है कि जिसका जिमचन्द्र या कोई दूसरा नाम रखा जाता है उसमें उस नाम शब्दस व्यक्त होनेवाले अर्थकी प्रधानता नहीं होती, फिर भी उससे उसी व्यक्तिका ज्ञान होता है। इसलिये नामकी सत्यमें परिगणना की गई है। एक स्थापनासत्य भी है। जिसमें अरिहंतपरमेष्ठी की स्थापना की जाती है उसमें अनन्त ज्ञानादि गुण नहीं पाये जाते, फिर भी बुद्धिमें उसके आलम्बनसे इष्टार्थकी सिद्धि होती है, इसलिये स्थापनाकी सत्यमें परिगणना की गई है। इसी प्रकार इन सत्यों में और भी कई ऐसे सत्य हैं जिन्हें नममादि नयोंकी अपेक्षा स्वीकार किया गया है। अतएव दो द्रव्योंके मध्य विवक्षित पर्यायोंको अपेक्षा निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको उपचरित स्वीकार कर लेने मात्र से लोकव्यवहारमें किसी प्रकारकी बाधा उपस्थित होती है ऐसा तो नहीं है। हाँ, छह द्रव्योंके परस्पर संस्पर्श तथा विशिष्टतर परस्पर अवगाह इन दोनों को जो पृथक Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान पृथक् किया गया है उसके स्वीकार करने में हेतभेद अवश्य है-जहाँ प्रथममें आकाशक्षेत्रको अपेक्षा एक क्षेत्रमें छहों द्रष्योंकी अवस्थिति व्रतलाना मात्र मुख्य प्रयोजन है वहीं दूसरेमें निमित्तमित्तिकताका ज्ञान कराना मुख्य प्रयोजन है । उसमें सर्वप्रथम जोव और कर्मक परस्पर विशिष्टतर अवगाहको जो बन्ध ( उभयवन्ध ) कहा है वह किस अपेक्षासे कहा गया है इसपर दृष्टिपाल कर लेना चाहते हैं। प्रवचनसार गाथा १७४ की टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र कहते है एकावगाहभावावस्थितकम-पुद्गलनिमित्तीपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसम्बन्धः कर्मपुद्गलबन्धव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव ॥ १७ ॥ तथापि एकावगाहरूपसे रहनेवाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगाधिरूढ़ राग-द्वेषादि भावोंके रााणका सम्बन्ध कर्मपुद्गलोंके साथके बन्धरूप न्यबहारका माधक अवश्च है ॥१७४।। यहाँ जीव और कमरे एक क्षेत्रावगाहरूप विशिता अथगाहको स्पष्ट शब्दाम बन्धव्यवहार कहा गया है यह तो स्पष्ट ही है। अन्द इस व्यवहारको आगममें किस रूपगें स्वीकार किया गया है इसके लिए बुहद्रव्यसंग्रह गाथा १६ को टोकापर दृष्टिपात कीजिये कमयन्धपृथग्भूतस्वशुद्धात्मभावनारहितजीवस्यानुपचरितासद्भूतव्यवहारण द्रव्यपन्धः । कर्मबन्धरो पृथग्भूत गिज शुद्धात्म भावनासे रहित जीनके अनुगचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रष्यबन्ध है। इस प्रकार जीव और कर्मवा नो बन्ध कहा जाता है वह अनुपपरित असदभूत व्यवहारनयसे ही कहा जाता है यह उक्त आगम प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है। अब पुद्गल-पुद्गलका जो एकरवपरिणामलक्षण बन्द कहा है इसका क्या तात्पर्य है इसपर विचार करते है । धवला पु० १३ पृ० १२ में एकत्वका अर्थ करते हुए लिखा है पोमालव्वभावेण परमाणुपोग्गलम्स सेसपोग्गलेहि सह प्रयत्नवलंभादो । पुद्गल ट्रस्परूपसे परमाणु पुद्गलका शेष पुद्गलोंके साथ एकत्ल पाया जाता है। इससे मालूम पड़ता है कि बन्धप्रकरणमें जो दो पुद्गल द्रक्ष्योंका एकत्त्रपरिणाम कहा है उसका प्राशय ही इतना है कि दोनों पुद्गल अपने स्वरूपको न छोड़ते हुए यथासम्भव सदृश परिणामरूपसे परिणम जाते हैं। वे अपने स्वरूपको नहीं हो छोड़ते है इसका स्पष्टोकरण वहीं पृ० २४ में इन शब्दोंमे किया है तदो सरूवापरिच्चाएण सम्वष्यणा परमाणुस्स परमाणुम्मि पवंसो सवफासी। इसलिए अपने-अपने स्वरूपको छोड़े विना परमाणुका परमाणु में सर्वात्मना प्रवेश सर्वस्पर्श कहलाता है। इससे यह ज्ञात होता है कि स्कन्ध अवस्थामें रहते हुए भी कोई भी परमाणु अपने-अपने स्वचतृष्टयका त्याग नहीं करते । जैरो प्रत्येक परमाणु अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, भावहासे अवस्थित रहते हैं वैसे ही प्रत्येक समयमें होनेवाली अपनी-अपनी पर्यायरूपसे भो वे अवस्थित रहते है । अब हमें इस बातका विचार करना है कि स्कन्ध अवस्था में भी यदि प्रत्येक परमाणु अपनी-अपनों पर्यायरूप परिणत होता रहता है तो स्कन्द अवस्था कैसे बनती है ? समाधान यह है कि शब्दमय और एवंभूतनयके विषयभूत भावबन्धपूर्वक हुए द्रक्ष्यबन्यको अपेक्षा नैगम, संग्रह, व्यवहार और स्थूल अजुसूधनयसे Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा यह व्यवस्था बन जाती है। इसका विशद विचार घवला पु० १४ में किया है। यहाँ पृ० २७ में बन्धमें कौनसा सम्बन्ध विवक्षित है इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है को एत्थ संबंधी पेपदे संजोगलक्सयो समाक्सो वा ? तत् संजोयो दुविहो--- देसपच्या सतिक गुणगण्यासत्तिको चेदि तस्थ देसपच्चासनिकभी शाम दोपणं दव्वाणमवयवकास काऊण जमच्छ सो देखयच्चासत्तिको संजोगो । गुणे िजमण्याहरणं सो गुणपश्यासक संजोगो समवायसंजोगो सुगमो । शंका-यहाँ कौन-सा सम्बन्ध लिया गया है ? समाधान-संयोग दो-देशप्रत्यासतिकृत और गुणप्रत्यासत्तिकृत दो द्रव्योंके अवयवोंका स्पर्श करके रहना यह देवप्रत्यासत्तिकृत सम्बन्ध है तथा गुणों द्वारा जो एक-दूमरेका अनुसरण करना यह गुणप्रत्यासतिकृत सम्बन्ध है। समवायसम्बन्ध सुगम है। इससे स्पष्ट है कि स्कन्ध अवस्थामें वे दोनों पुद्गल सर्वथा एक नहीं हो जाते, किन्तु द्रव्य, क्षेत्र काल और भावरूपसे वे अपनी-अपनी सत्ता रखते हुए भी क्षेत्रप्रत्यासत्ति और गुणप्रत्यासत्तिको प्राप्त हो जाते हैं. इसलिए स्कन्धव्यवस्था बन जाती है। । अतः स्वरूपसत्ता सबकी भिन्न-भिन्न है । फिर भी उनका देशकृत और भावकृत ऐसा परिणाम होता है जिससे उनमे बम्व्यवहार होने लगता है। यही लय कहलाता है के वध स्वदेश और स्कन्धप्रदेश में भेद इसी आधार पर अगममे स्वीकार किये गये हैं। यही कारण है कि पंचास्तिकाय गाया ७६ में यथार्थ में परमाणुको हो पुद्गल कहा गया है तथा सब प्रकारके स्कन्धों को पुद्गल कहना इसे व्यवहार बतलाया गया है । तत्त्वार्थश्लोकातिक पृ० ४०६ में परमार्थसत् कहा है बहु देवप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्तिको ध्यान में रखकर ही कहा है। प्रत्यासति और भावप्रत्यासत्तिका होना इसका नाम ही एकस्वपरिणाम है। इसके सिया एकर परिणामको अन्य कुछ मानना दो द्रव्योंको सत्ताका अपलाप करना है । स्कन्धकी जो मोंको । इस परसे अपर पक्ष स्वयं निर्णय कर ले कि वो भ्यों किया जानेवाला बन्धव्यवहार साधार है या कल्पनारोपित वस्तुतः उस पक्षने उपचारकसनको आकाश कुसुमके समान फल्पनारोपित मान लिया यही घारणा उस पक्ष को बदलनी है। ऐसा होनेसे कहाँ कोन कथन किस रूप में किया गया है इसके स्पष्ट होने में देरी न लगेगी । :21 प्रथम उत्तर में हमने 'व्यवहारनयका आध करवादि वचन लिखा था। इस पर प्रतिशंका २ में यह पृच्छा की गई थी कि 'व्यवहारनयका आश्रय लेकर बन्ध होता है इसमें व्यवहारमय और उसकी वन्य होने में यताका क्या आशय है ? इसका खुलासा करते हुए हमने पिछले उत्तर लिखा था कि 'व्यवहार नयका आश्रय लेकर इसका अर्थ व्यवहार नयको अपेक्षा इतना ही है। इसीको अपर उपहारका आश्रय कर इस पदका हटाना और 'व्यवहार नवकी अपेक्षा' इस पदको जोड़ना लिख रहा है। नई बात इस प्रश्न में नहीं कही गई है। जो कुछ दुहराया गया है उसका उत्तर द्वितीय प्रश्न के प्रसंग अनन्तर पूर्व ही लिए आये हैं। अन्य कोई समाधान के Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १० और उसका समाधान ६२९ आगम में व्यवहारनयके आश्रयसे व्यवहाराश्रयाद्यश्च ( नयचक्रादिसं० पृ० ७९ ) तथा 'व्यवहार. नमकी अपेक्षा' बवहारादी ( नवचक्रादिरांच० पृ० ७८ इस तरह दोनों प्रकारके प्रयोग मिलते हैं। अतः किसी प्रकार भी लिखा जाय इसमें बाधा नहीं है। उसे में यह समझना चाहिए कि प्रथम उत्तर में लिखे पर अपर पक्ष द्वारा शंका उपस्थित करने पर अपने दूसरे उत्तर में हमने उसका स्पष्टीकरण माथ किया था। : ४ : I पौधे प्रश्नका समाधान यह है कि 'पधिकादिगुणानां तु' ( त० सू० ५ ३६) सिद्धान्त अनुसार प्रत्येक परमाणु विभावरूप होता हुआ देशप्रत्यासतिको शप्त हो जाता है। इसका नाम ब प्राप्त बन्ध है । जिनागम में दो या दो अधिक परमाणुओं का ऐसा ही स्वीकार किया गया है। इस प्रकार जिनागमसे बन्धकी व्यवस्था बन जाती है। हमारा कहना भी यहां है यदि अपर पक्षको हमारे कचनमे और जिनागमके कथनमें कहीं अन्तर प्रतीत होता था वो उसका निर्देश करना था क्या जिनगम में बन्धको अद्भूत व्यवहारनयका विषय नहीं लिखा है और क्या जिनागममें अमद्भूत व्यवहार और उपचारको एकार्थक नहीं लिखा है ? जब कि ये दोनों वाजिनागम में लगी है तो अपर पक्ष इन्हें इसी रूपमें स्वीकार करनेमें क्यों आनाकानी करता है? यदि उस पक्षको जिनागभ में जो जिस रूप में लिखा है वह उसी रूप में स्वीकार है तो हम उससे आग्रहपूर्वक निवेदन करते हैं कि उस पक्षको 'उपचार' पदका अर्थ कल्पनापित लिखना छोड़ देना चाहिए । : ५ : पाँच प्रश्नका समाधान यह है कि वर्तमान जिमागमे निश्चयनय और व्यवहारभयकी प्ररूपणा जिस रूपये की गई है वह जिनवाणी होती है यह जिनदेवने ही तो कहा है कि निश्चयको भूतार्थ कहते है और व्यवहारको अभूतार्थ कहते है भूतार्थका आश्रय करनेवाले मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है अतः वे इस कथन के प्रतिपाय अर्थको नियमसे जागते है। वास्तविक बात यह है कि यदि अपर पक्ष उपचारको कल्पनारोपित कहना छोड़ दे तो केवलज्ञानमें वे विषय किस प्रकार प्रतिभासित होते है यह आसानी से समझ आ जाय, क्योंकि उनके ज्ञान से यह भाता है कि पटके निश्चय षट्कार मिट्टी में ही हैं उसी प्रकार यह भी भागता है कि जब जब मिट्टी पट रूपसे परिणमत है तब तब कुम्भकारादिशी अमुक प्रकारकी क्रिया नियमसे होती है। वे यह अच्छी तरहसे जानते है कि निश्चय षट्कारक धर्म जिराके उसी में होते हैं, दूसरे में नहीं होते। किसका किसके साथ अम्बयतिरेक है इसे हम अल्पज्ञानी तो जान लें और वी न जान सकें यह कैसे हो सकता है। आकाश कुसुम नहीं है, इसलिए वह उनके ज्ञानका विषय नहीं, पर यदि कोई आकावाकुसुमका करता है तो उसे ये अश्श्य जानते है। अपर पक्ष पिण्डको सत्ताहीन कहता है। किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि संख्यात, अस्थत और अन्य परमाणुओं की देवकृत और माकृत को प्रत्यासति होती है उसीको माग संपत या कयादि नामोंसे पुकारा गया है। ऐसी प्रत्यासत्तिका निषेध नहीं निषेध है उन परमाणुओं की स्वरूप मलाके छोड़नेका अतः इस रूप में केवलोक कथा ज्ञान नियमसे होता है इसमे बाधा नहीं। देशकृत और भावकृत प्रत्यासतिरूपसे गधे के सींग नहीं होते न हों पर गाय-भैंस आदि तो होते है। इसी प्रकार देश-भावकृत प्रत्यासतिरूपसे आकावकुसुम नहीं होता न हो पर वृक्षोंमें, लता और गुल्मों से होते है। जहाँ जिस रूप में को होता है वहाँ उस रूपये कालविशेषण L Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० जयपुरे (खानिया ) तस्व चर्चा विशिष्ट उसे वे अवश्य जानते हैं। यह केवलज्ञानकी महिमा है। इसी महिमाका निर्देश घवला वर्गणाखण्ड प्रकृति अनुयोगद्वार के 'सहं भयव' इत्यादि सूत्र में किया गया है । अपर पक्ष आगम प्रतिपादित वस्तुव्यवस्थाकं विचारके प्रसंगसे प्रवचनसार गाया ८७ देनेके बाद ‘अस्थो खलु दब्यमञ्ज’ गाया और उसकी आचार्य अमृतचकृत टीका उपस्थित की हैं. 1 अपर पक्षने इस टीकाका जिम रूपमें अर्थ किया है उसमें हम नहीं जायेंगे । यहाँ ती मात्र टीका बाधारसे विचार करना है । अपर पक्ष इसके अन्त में लिखता है कि 'उक्त गाथाको यह टीका जीव तथा पुद्गलकी बन्धपर्यायको एवं घणुकादिरूप स्कन्धको वास्तविकताका उद्घोष कर रही है।' यह तो प्रत्येक समझदार अनुभव करेगा कि टीकामे नयदिमाग किये बिना सामान्यसे निर्देश क्रिया गया है । यहाँ दो या दो से अधिक पर्यायोंको एक कहा गया है। इससे यदि कोई यह समझे कि उन अथ्योंको स्वरूपमत्ताका स्थाग होकर यह मनुष्यादिरून या मणुकादिरूप परिणाम उत्पन्न हुआ है मो यह बात नहीं है । यदि अपर पक्ष उसी प्रवचनगारकी गाथा १५२ को ज्ञानार्थ अमृतचन्द्रकृत टोका पर दृष्टिपात कर लेता तो यह वर्णन किस अपेक्षासे किया गया है यह स्पष्ट हो जाता। वहीं लिखा है www स्वलक्षणभूतस्त्ररूपास्तित्त्व निश्चितस्यैकस्यार्थस्य स्वलक्षणभूतस्वरूपावित्वनिश्चित एवान्यस्मि अथें विशिष्टरूपतया सम्भावितात्मलाभोऽथों ऽनेकद्रव्यात्मकः पर्यायः । स खलु पुद्गलस्य पुद्गलान्तर इष जीवस्य पुद्गले संस्थानादिविशिष्टतया समुपजायमानः सम्भाव्यत एव । उपपन्नश्चैवंविधः पर्यायः । अनेकद्द्रव्यसंयोगाध्मथ्वेन कंवलजीवच्यतिरेकमा यस्यैकद्रव्यपर्यायस्यास्वहितस्यान्तरा वासनात् । स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे निश्चित एक द्रव्यका स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे हो निश्चित दुसरे द्रव्य में विशिष्ट (देश-भावप्रत्याशत्ति) रूपसे उत्पन्न होता हुआ अर्थ (भाव) अनेक द्रव्यात्मक पर्याय है । वह नियमसे जैसे एक पुद्गल की दूसरे वृद्गल में तत्पस होती हुई देखी जाती है वैसे ही जीव की पुद्गलमें संस्थानादि विशिष्टरूप से उत्पन्न होती हुई अनुभव में आती हो है । और ऐसो पर्याय नियम से बन जाती है, क्योंकि जो केवल जीवको प्रतिरकमात्र है ऐसी अस्खलित एक द्रव्यपर्यायका अनेक द्रव्योंके संयोगरूपसे भीतर अव भासन होता है । इससे स्पष्ट है संयोग अवस्था में भी जीवकी पर्याय जीवमें होती है और पुद्गलकी पर्याय पुद्गल में होती है । वहाँ संयोग अवस्था में जो रूप रसादिरूप परिणाम होता है वह पुद्गलका ही होता है, जीवका नहीं | और इसी प्रकार ज्ञान दर्शनादिरूप जो परिणाम होता है वह जीवका ही होता है, पृदुगलका नहीं 1 रूप- रसादिरूप और ज्ञान-दर्शनादिरूप ये दो परिणाम एक कालमें एक साथ होते हुए स्पष्टतया प्रतिभासित होते हैं । ऐसी अवस्था में बन्धमें अनेक द्रव्योंकी पर्यामको यथार्थ में एक कहना उचित नहीं है । व्यवहारनय से ही वे एक कही गई हैं । संस्थानादिके विषयमें तथा ह्यणुकादिकं विषयमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए । पंचास्तिकाय गाथा ७४ में जो स्कन्ध बादिका निर्देश किया है सो उसका विचार भी उक्त न्यायसे कर लेना चाहिए । स्लोवाकि० ४३० मे निश्वयनय और व्यवहारनग इनकी अपेक्षा क्रमशः अणु और स्कन्ध इन भेदों को स्वीकार किया गया है, सो इससे भी पूर्वोक्त अर्थका ही समर्थन होता है । तत्त्वार्थसूत्र अ०५ के 'भेद-संघातम्य उत्पद्यन्ते' (सु० २६ ) इस सूत्र में देश- भावप्रत्यासतिरूप परिणामको 'संघात' और इसके भंग होनेको 'भेद' कहा गया है। अष्टसहस्री पृ० २२३ द्वारा भी यही भाव Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० और उसका समाधान ६३१ are किया गया है। जब अनन्तानन्त परमाणु देश-भावप्रत्यासत्तिपनेको प्राप्त होते हैं तब उनमें स्कन्ध व्यवहार बन कर धारण आकर्षण आदि क्रियाओंकी भी उत्पत्ति हो जाती है। इससे स्कन्ध क्या वस्तु है यह भी स्पष्ट हो जाता है और परमाणुओंको स्वरूपसत्ता भी बनी रहती है। अपर पक्ष स्कत्व या बन्ध वास्तविक यह तो लिखता है पर उनका स्वरूप क्या है यह स्पष्ट नहीं करना चाहता | २७ का वहाना वस्तव्य है उसमें किस रूपमें एकत्व स्वीकार किया गया है इसके लिए तत्वार्थदलोकवार्तिक पृ४३० के इस वचन पर दृष्टिपात कीजिये जीव-कर्मणोर्वग्धः कथमिति चेत् ? परस्परं प्रदेशानुप्रवेशान्न विकल्पपरिणामामोरं ग्यानुपपतेः । दांका और पुद्गलका बन्ध है? समाधान- परस्पर प्रवेश अनुप्रवेशले उनका वन्य है एकत्व परिणामसे नहीं, क्योंकि दोनों एक द्रव्य नहीं हैं । अपर पाले यहाँ इन स्कन्ध आदि और मनुष्यादिपर्यायी उत्पत्ति मिश्रण से बतलाई है। यदि वह मिश्रण शब्दका स्पष्टीकरण कर देता तो वह पक्ष क्या कहना चाहता है यह समझ में आ जाता। अपर पक्षने मूलद्रव्य काल और स्वभाव इन दोनोंको अनित्य माना है इसका हमें आश्चर्य है। स्वकाल तो व्यतिरेकरूप होनेसे अनित्य होता है इसमें सन्देह नहीं पर स्वभाव तो अवधी होता है, वह अनित्य कैसे होता है। यह वही जाने माना स्वकाल अनित्य होता है पर प्रत्येक द्रव्यको पर्याय उसकी उसीमें तो होगी। वह अनित्य है, इसलिए वह स्वरूपचतुष्टय से बाहर नहीं की जा सकती। जैसे प्रत्येक द्रव्यका स्वरूप य मुक्त अवस्थामे बना रहता है ये वह संयोग अवस्था भी बना रहता है। संयोग अवस्था विभागका होना और मुक्त अवस्था में स्वभाव पर्यायका होना यह अन्य बात हैं । परमाणुओं का स्वरूपास्तित्य बना रहकर भी देश-भावप्रत्यासत्तिविशेषके कारण स्कन्धव्यवहार होता है तथा सूक्ष्मता, स्थूलता, वृश्यता या अदृश्यता बन जाती है। इसीको अवर पक्ष पुगलों परिवर्तित स्वास्तिको लिये हुए स्कन्धपरिमति कह रहा है। - ― वह सत्य है, वास्तविक है उसे नहीं मानोगे जैनदर्शन नैयायिक दर्शन के समान संयोगको गुण नहीं मानता इसे अपर पक्षने स्वीकार कर लिया इसकी हमें मन्नता है। किन्तु अपर पलने जो संयोगको दो का बन्धात्मक परिणमन बतलाया को विवाद तो इसमें है कि यह क्या है? अपर पक्ष यह तो सिता है कि तो यह आपत्ति आयेगी, वह आपत्ति आयेंगी आदि, पर वह है क्या ? यह नहीं लिखता । कल्पनारोपित आदि कुछ शब्द पुन रखे हैं, इसलिए घूम-फिर कर उन शब्दोंका प्रयोग कर देना तथा व्यवहारयके वक्तव्य को उपस्थित कर तले परमार्थभूत ठहरानेका उपक्रम करना यह कोई वस्तुशिद्धिका प्रकार नहीं है। अस्तु, जैन दर्शनको तया स्कम्प आदिको किस रूपमें स्वीकार किया है इसका हमने आगम प्रमाणके साथ स्पष्ट निर्देश किया है। हमें विश्वास है कि अपर पर उसे स्वीकार कर इस विवादको समाप्त कर देगा। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर : १: शंका ११ परिणम के स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो भेद हैं, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? समाधान १ सब द्रव्यों को स्वभाव पर्यायें स्वप्रत्यय होती है तथा जीव और पुद्गलकी विभाषपर्यायें स्वन्परप्रत्यय होती हैं। यहाँ स्वप्रत्यय पद द्वारा उसी द्रव्यकी उपादान दशक्ति लो गई हैं और स्व-परप्रत्यय पद द्वारा विविक्षित द्रव्यकी उपादान शक्ति के साथ उस उस पर्यायके कर्ता ओर करणरूप निमित्तों का ग्रहण किया गया है । इस दृष्टिसे स्वभाव पर्याय और विभाव के कारणोंका निर्देश करते हुए प्रवचनसार गाथा १३ की टीका में कहा भी है सोऽपि द्विविधः -- स्वभावपर्यायी विभावपर्यात्रश्च । तत्र स्वभावपर्यायो नाम समस्तद्रव्याणामामीयात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण प्रतिसमयसमुदीयमान पदस्थानपतितवृद्धि हानिनानाश्वानुभूतिः । विभावपर्याय नाम रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्व-परप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तराव स्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभावविशेषानेकरवापत्तिः । वह भी दो प्रकार है-स्वभायपर्याय और विभावपर्याय। उसमें समस्त द्रव्योंको अपने-अपने अगुरुलघुगुणद्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित हानि-दुद्धिरूप अनेकत्वको अनुभूति स्वभावपर्याय है । तथा रूपादिके या ज्ञानादिके स्व-परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्था में होनेवाले तारतम्य के कारण देखने में आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति विभात्रपर्याय है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जिसप्रकार स्वपरप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें कालादि द्रव्यों की विविक्षित पर्याय यथायोग्य माश्रम निमित्त होती हैं उसी प्रकार स्वप्रत्ययपर्यायों की उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंकी विविक्षित पर्यायें यथायोग्य बाश्रय निमित्त होतो है । परन्तु उनकी दोनों स्थलोंपर कथनको अविवक्षा होने से यहाँ उनकी परिगणना नहीं की गई है । यही स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय इन दोनोंगें भेद है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षितीय दौर शंका ११ प्रश्न मह थापरिणमन के स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो भेद है, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? प्रतिशंका २ आपने इस प्रश्नका जो उत्तर दिया है उसमें आपने लिखा है कि 'सभी द्रव्योंकी स्वभावपर्याय स्वप्रत्यय होती है तथा जीव और पुदगलकी विभावपर्याय स्परप्रत्यय होती है। इस कथनके विषहमारा केबल का है। कहायाकयपि यस्तु स्प्रत्यय पर्याय स्वभावरूप ही होती है, परन्तु वस्तुको सभी स्वभावपर्याय स्वप्रत्यय नहीं होती है। जैश आपने संपूर्ण द्रव्योंकी अगुरुलघुगुणद्वारा प्रतिसमय प्रवर्तमान षट्गुण हानि-वृद्धिरूप पर्यायांको स्वप्रत्यय पर्याय स्वीकृत किया है। यह तो ठीक है, परन्तु आकाश द्रव्यको परपदार्थावगाहकत्व गुणको अवगाहमान परपदार्थोके निमित्तसे होनेवाली पर्याय, धर्मद्रत्यकी गतिपरिणत जीवों तथा पुद्गलोंके निमित्तसे होनेवाली गतिहेतुकत्व गुणको पर्यायें, अधर्म द्रव्यको स्थितिपरिणत जीवों और पुद्गलोंके निमित्तसे होनेवाली स्थितिहेतु कल्व गुण की पर्यायें, कालद्रव्यको वृत्तिविशिष्ट संपूर्ण द्रव्यों के निमित्तसे होनेवाली वर्तनागुणकी पर्यायें, मुक्त जीवकी शेयभूत पर पदार्थोके निमिससे होनेवालो ज्ञानगुणको उपयोगाकार परिणमनरूप पर्याय, कर्म तथा नोकमसे बद्ध संसारी जीवोंको कर्मक्षय तथा कर्मोपशमके होनेपर उत्पन्न होनेयाली क्षायिक और औपशयिक पर्याय तथा ज्ञेयतापन्न अणुरूप तथा स्कन्धरूप पुद्गल द्रव्योंको ज्ञात्तता आदि विविध पर्याय-इस प्रकारको सभी पर्याय उस उस वस्तुको स्वाभाविक पर्याय होते हुए भी स्वपरप्रत्यय ही हुआ करती है. स्वप्रत्यय नहीं । इसी प्रकार जीवोंको नर-मारकादि पर्याव तथा पदगलांकी कर्म और जीवशरीरादिरूप पर्याय विभाव रूप होने के कारण यद्यपि स्व-परप्रत्यय मानी गई है तथापि यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिये कि ऊपरके विवेचनके अनुमार प्रत्येक वस्तुकी बहुतसी स्वाभाविक पायें भी स्वपर.प्रत्यय पर्यायों में अन्तर्भूत होती है । आगममें भी वस्तके स्वाभाविक स्वपरप्रत्यय परिणमनोंको स्वोकार किया गया है । यथा-- ज्ञेयपदार्थाः प्रतिक्षणं भङ्गत्रयेण परिणमन्ति प्रथा ज्ञानमपि परिच्छित्यपेक्षया भङ्गत्रयेण परिणमति । -प्रवचनसार गाथा १७ जयसेनीया टीका अर्थ-ज्ञेय पदार्थ प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और प्रोब्धमय भङ्गयसे परिणत होते रहते हैं उसीके अनुसार ज्ञान भो भङ्गत्रयरूपसे परिणत होता रहता है। इसी प्रकारके प्रमाण जयधवलमै भी पाये जाते हैं । आगममें जहाँ आकाश, धर्म, अधर्म कालद्रव्योंक स्वरूपका वर्णन किया गया है वहीं यथायोग्य पर द्रव्यों के प्रति इनके उपकारको भी चर्चा की गई है। जीवोंकी परपधार्थज्ञातत्व और परसदार्थशिस्त्र आदि Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया) तस्वचर्चा योग्यताओं एवं राग, द्वेष, मोह प्रादि परिणतियोंकी चर्चाओंसे भी आगम ग्रन्थ भरे पड़े है तथा विविध प्रकारके भौतिक विकास के रूप में पुद्गल परिणतियां तो प्रत्यक्ष ही हमें दिखाई दे रही हैं और जिनका उपयोग लोकमें हो रहा है तथा हम और आप सभी करते चले आ रहे हैं । ___ इस तरह विश्व के संपूर्ण पदार्थोंमें यथायोग्य होनेवाली पर्यायोंको उपर्युक्त प्रकार से स्वप्रत्यय, स्वाभास्थिरप्रत्यय जोर वैमाधिका स्परप्रत्यय परिणमनों में ही अन्तर्भूत करना चाहिये । आपने अपने उत्तरके अन्त में स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनों में अन्तर दिखलाने के लिये जो यह बात लिखी है कि जिस प्रकार स्वपरप्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंको विवक्षित पर्याय यथायोग्य आश्रय निमित्त होतो है उसी प्रकार स्वप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्तिमें कालादि द्रव्योंको विवक्षित पर्याय यथायोग्य आश्रय निमित्त होती है, परन्तु उनको दोनों स्थानोंपर कथनकी अविवक्षा होने से यहां उनकी परिगणना नहीं की गई है यही स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय इन दोनोंमें भेद है।' आपको यह बात विचारणीय है, क्यों क स्वप्रत्यय और स्वपरपत्मय दोनों परिणमनों में केवल आश्रयनिमित्तोंके कथन करनेकी अधिवक्षा और विरक्षा मात्रका हो भेद नहीं है। आपने भी अपने उत्तर में स्त्र भाव पर्याय और विमाव पर्यायके कारणोंका निर्देवा करते हुए प्रवचनसार गाथा ९३ की टीकाका उद्धरण देकर यह स्वीकार किया है कि स्वपरप्रत्यय परिणमान में स्वके साथ पर भी कारण होता है 1 टीकाका व उपके हिन्दी अर्थका उल्लेख आपके सत्तरपत्रमें है। आपने अपने उत्तरके प्रारम्भ में तो स्पष्ट रूपसे स्वपरप्रत्यय परिणमनमें . का और करणरूप निमित्तोंको स्वीकार किया है जो कर्ता और करणरूप निमित्त स्वप्रत्यय परिणमन में आपको भी मान्य नहीं है। इस तरह स्थप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमनमें यदि कोई वास्तविक अन्तर है तो वह अन्तर यही है कि स्वप्रत्ययपरिणमनमें कर्ता-करणरूप निमित्त कारणोंको नहीं स्वीकार किया गया है जब कि स्वपरप्रत्यय परिणमनके होने में इनकी अनिवार्य आवश्यकला रहा करती है विशेष विचारणा यह होती है कि जब अध्यात्मबादके अनुसार कार्य-कारणभावकी विवंचना करते हुए दो प्रकारको ( स्वप्रत्यत्र और स्वपरप्रत्यय) पर्यायोंका कथन किया गया है ऐसी दशा में स्वप्रत्यय पर्याय उपादानकी परिणति होनेसे स्वाधित है, इसलिये उसे स्वप्रत्यय नाम देना समुचित है, परन्तु स्वपर प्रत्यय पर्यायको उपादानको परिणति होने के कारण केवल उपादानजन्य माना जाय तो उसे स्व-परप्रत्यय कहना असंगत ही है। वास्तविक दृष्टिसे विचार किया जाय तो उपादानके साथ कारण-रूप ऐसा कौनसा पदार्थ है जो उपादानको समतलामें बैठकर उस पर्यायका निर्माण करे और तब उसके आधारपर उसका स्वप्रत्यय पर्यायसे मास्तविक भेद स्थापित हो सके। जब कि आपकी मान्यताके अनुसार जो आप्रय कारण कालादि पर पदार्थ है और जिन्हें आपने स्वप्रत्यय तथा स्वपरप्रत्यय दोनों तरहको पर्यायों में समानरूपसे कारण माना है तो उन पर्यायोंको उत्पत्तिमें केवल सनकी विवक्षा और अविषक्षा मासे वास्तविक अन्तर कैसे लाया जा सकता है। यहाँ पर यह भी एक विचारणीय बात है कि आगमके निर्माता आयायं उक्त दोनों पर्यायोंका कारण भेदमे पृथक-पृथक विवंचन करते हुए केवल कालादि आश्रय निमित्तांकी विवक्षा और अविवशामात्रसे पार्थक्य दिखलायें ऐसा मानना उनके गहरे ज्ञानके प्रति हमारी मतनुभूतिका द्योतक है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और इसका समाधान उपर्युक्त कथनसे यह बात विशदरूपसे स्पष्ट हो जाती है कि कालादि आश्रय निमित्तकारणोंको विवक्षा और अविवक्षा मात्रसे उल्लिखित पर्यायभेद नहीं बन सकता है, किन्तु निमितकारणोंको विविषतासे ही दोनों पकती योका : सन् द युक्तिसंगत सिद्ध होता है। निमित्त कारणोंकी यह द्विविधता निमितों की प्रेरकता और अप्रेरकताके आश्रय है। इस तरह जिस परिणमनमें उपादानके साथ कर्ता-करण आदि प्रेरक निमित्तोंका ब्यापार यावश्यक नहीं है उसे स्वप्रत्यय परिणमन कहना चाहिये और जिस परिणमन में उपादानके साथ कर्ता-करण आदि प्रेरक निमित्तोंका व्यापार आवश्यक हो उसे स्वपरप्रत्यय परिणमन मानना चाहिये । शंका ११ मूल प्रश्न-परिणमनके स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय दो भेद हैं, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? प्रतिशंका २ का समाधान प्रवचनगार गाया १३ को टोकाका उल्लेख कर हम पिछले समाधान में यह बता चुके हैं कि पर्याय दो प्रकारकी होती हैं-(१) स्वभावपर्याय (२) विभावपर्याय । शुद्ध जोव, परमाणु व धर्म आदि चार द्रव्योंमें अपने २ अनन्त अगुरुलधुगुणों द्वारा प्रतिसमय षडगुणी हानि-वृद्धिरूप उत्पादव्यय होते हैं, वे स्वभावरूप पर्याय हैं और संसारी जीवोंके ज्ञानमें इन्द्रिय, आलोक, मानावरण क्षयोपशमादि निमित्तोंकी, तथा पुद्गल स्कंधोंमें रूपबादिके निमित्तोंकी अपेक्षासे अपने उपादानके साथ होनेवाली पर्याय विभावपर्याय है। इन दोनों प्रकारको पर्यायोंग काल आदि जो उदासीन निमित्त है उनको विवक्षा न करके प्रतिसमय जो अगुरुलधुकृत पर्याय होती है उन्हें स्वप्रत्यय पर्याय कहा है। उदाहरणार्थ-धर्माधर्मादि द्रव्यों में काल आदिके साथ-साथ गतिहेतुत्व-स्थितिहेतृत्व आदि धर्मोके आश्रयसे जीव और पुद्गलोंमें जो गति-स्थिति आदि पर्याय होती है, वे भी अपनी विभिन्नरूप गति स्थिति आदिसे धर्म अधर्म द्रव्योंके पर्याय परिवर्तन में व्यवहारसे आश्रय निमित्त है। ___ इसो आशयको ध्यान में रखकर श्री अकलंकदेव तथा पूज्यपाद स्वामीने राजवातिक तथा सर्वार्थसिद्धिके अध्याय ५ सूत्र ७ मे यह वचन लिखा है द्विविधः उत्पादः-स्वनिमित्तः परप्रत्ययश्च । स्वनिमित्तस्साबस्- अनन्तानां अगुरुलवगुणाना भागमप्रामाण्यात अभ्युपगम्यमानानां षट्स्थानपतिखया वृद्धचाहान्या च प्रयतमानानां स्वभावादेषा उत्पादो व्ययश्च | परप्रत्ययोऽपि अश्वाइगति-स्थिति-अवगाहन हेतुत्वात् आगे-क्षणे तेषां भेदात् तद्हेतुत्वं अपि भिवं इति परप्रस्ययापेक्षा उत्पादो विनाशश्च व्यपहियते।। अर्प-उत्पाद दो प्रकारका है-स्यनिमित्तक और परनिमित्तक । आगम प्रामाण्यसे स्वीकृत अनन्त अगुरुलघुगुणोंमें षट्गुणो हानि-बुद्धिरूपसे प्रवर्तमान उत्पाद-व्यय स्वभायसे होता है वह स्वनिमित्तक उत्पाद Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा व्यय है तथा घोड़े आदिकी गति तथा स्थिति कर अवगाहनहेतुरूप अवस्थाओं में क्षण क्षण में भेद होनेसे उन पर्यायोंमें परप्रत्यय उत्पाद व्ययका व्यवहार किया जाता है । तात्पर्य यह है कि धर्माद द्रव्योंमें परिणमन तो स्वप्रत्यय ही होता है, जो यथार्थ है, तथापि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जीवों की गति आदिको अपेक्षा क्षण-क्षण में भेद होने से उनमें परप्रत्यय परिणामका भी व्यवहार किया जाता है । इसी तरह जोत्रकी स्वभाव पर्याय तो स्वप्रत्यय ही है, तथा पुद्गलरूप फर्म तोकर्मके निमित्तसे जो पर्या होती है वह विभातीय स्वपरप्रत्यय कही जाती है। इसी प्रकार पुद्गल परमाणुकी स्वभावपर्याय स्वप्रत्यय है और स्कंधरूप पर्याय विभावर्याय स्वपर प्रत्यय कड़ी जाती है । एक बात ध्यान में रखनेकी है कि स्वपरप्रत्ययरूप पर्याय में परको निमित्तताका यह अर्थ नहीं है कि उपादान की तरह निमित्त भी समतुला में बैठकर उस पर्यायका निर्माण करता हो। यह व्यवस्था आगमकी नहीं है। इसका कारण यह है कि पर्यायका स्वामित्व में है, पर पदार्थ तो निमित्तमात्र है। ऐसे स्थलों परनिमित्तकी मर्यादा वह आध्यय निमित्त नहीं है, किन्तु विशेष निमित्त है यही आगम परम्परा है । तृतीय दौर : ३ : शंका ११ परिणमनके स्वप्रत्यय और स्वपर प्रत्यय दो भेद हैं, उनमें वास्तविक अन्तर क्या है ? प्रतिशंका ३ हम अपनी द्वितीय प्रतिशंकाएँ इस बातको विस्तार के साथ स्पष्ट कर चुके है कि विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों में यथायोग्य होनेवाली पर्यायों को स्वप्रत्यय, स्वाभाविक स्वपरप्रत्यय और वैभाविक स्वपरप्रत्यय परिण मन में ही अन्तर्भूत करना चाहिये । आपने भी अपने द्वितीय प्रत्युतर में स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय-ऐसे दो भेद स्वीकार करनेके अनन्तर लिखा है कि 'द थ्योंके गतिहेतुत्व-स्थितिहेतुत्व आदि धर्मोके माश्रयसे जीव और पुद्गलोंमें जो गतिस्थिति आदि पर्यायें होती है ये भी अपनी विभिरूप गति स्थिति आदिसे धर्म-अधर्म नादि द्रव्योंके पर्याय परिवर्तनमें व्यवहारसे आश्रम निमित्त है।' ओर आगे राजवार्तिक तथा सर्वार्थसिद्धि अध्याय ५ सूत्र ७ का प्रमाण उपस्थित करते हुए धर्म-अधर्म आदि द्रव्यों में भी परप्रत्यय परिणमन आपने स्वीकार कर लिये हैं । आपके द्वारा स्वीकृत इस परप्रत्यय परिणमनको हमारे द्वारा स्वीकृत स्वाभाविक स्वपरप्रत्यय परिण मन में ही अन्तर्भूत करना चाहिये, कारण कि जैन संस्कृति में स्वकी अपेक्षा रहित केवल परके द्वारा किसी भी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९९ ओर उसका समाधान ६३७ वस्तु परिननको नहीं स्वीकार किया गया है और यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गांधा ११८ में पुद्गल के कर्मरूपसे परिणमित होने के सिलसिले में तथा गाया १२३ में जीवद्रव्य क्राधादि रूपसे परिणति होने के सिलसिले में यह बात स्पष्ट कर दी है कि केवल प्रत्यय परिणमत नहीं हो सकता है । वे गाथायें निम्न प्रकार हैं जीवो परिणामयदे पुग्गलदव्याणि कम्मभावेण । ते सयमपरिणमंते कहं णु परिणामयदि वेदा ||११|| अर्थ- जो यदि पुद्गल द्रव्यको कर्मभाव परिणत कराता है तो जग पुद्गल की परिणत होनेकी योग्यता के अभाव में जो उसको कैसे (कर्म) परिकरा सकता है? इसी प्रकार - गलकम्मं कोही जीवं परिणाम एदि कोहस । सं सयमपरिणमंत कहं णु परिणामयदि कोहो ॥२३॥ अर्थ — क्रोधरूप पुद्गल परिणत होनेकी योग्यता के सकता है ? कर्म यदि जीवको क्रोधभावमं परिणत कराता है तो उस जीव में अपनी निज अभाव में वह पूगल कर्म क्रोध उसको कैसे (कोपरूप ) परिणत करा आचार्य अमृतचन्द्रने भो उक्त गाथाओंको व्याप करते हुए अपनी आत्मस्वाति टीकाएँ लिखा है--- नवत्स्वयमपरिणमानं परेण परिणामनिपात अर्थ -- जिसमें परिणत होने की निजी योग्यता नहीं है उसे दूसरा कैसे परिणत करा सकता है ? अर्थात् नहीं करा सकता है | यही बात आचार्य अमृतचन्दने गाथा १२३ की व्याख्या करते हुए उक्त टीका भी लिखी है। इस प्रकार जीवके ज्ञानगुणके यह्य पदार्थों के जाननेरूप उपयोगाकार परिणमनको तथा धर्मादि द्रव्योंके गतिहेतुत्यादि गुणोंके जीयों और गालोंकी गति आदिके आधार पर होनेवाले परिणामोंको स्वाभाविक स्व परप्रत्यय परिणमन ही कहना चाहियें। इन्हें वैभाविक स्वपरप्रत्यय परिणमन इसलिये नहीं कहा जा सकता है कि ये सब परिणमनविभावरूप परिणम नहीं है स्वपरिणमन भी इन्हें ये नहीं कहा जा सकता है कि इन परिधमनोंमें एक तो पकी में स्वीकार की गयी है, दूसरे आगममें जहाँ भी स्वप्रत्यय परिणमा कम मिलता है वहां सर्वत्र केवल अगुण द्वारा होनेवाली यकीन वृद्धि परिणमनको ही स्वप्रत्यय परिणमन बतलाया गया है। आगे आपने लिखा है कि 'मनुष्य, पशु, पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जीवोंको गति आदिको अपेक्षा क्षणक्षण में भेद होनेसे उनमें (धर्मादि द्रव्यों में ) परप्रत्यय परिणामका भो व्यवहार किया जाता I इसके विषय में हमारा आपसे कहना है कि व्यवहार शब्दका अपने स्थान-स्थान पर उपवार हो अर्थ किया है और उपचारका भी अर्थ कल्पनारोपित किया है। मो ऐसा अर्थ आगम में सर्वत्र नहीं लिया गया है। इसके लिए प्रश्न नं० १७ की हमारी प्रतिशंका ३ को देखिये, उसमें हम व्यवहार के विविध अर्थ बत लानेवाले है जिनका उपयोग आगममे यथासंभव और पवाश्यक अर्थ में हो किया गया है। इसलिये यहाँ पर भी राजनातिक तथा सर्वार्थसिद्धिके अध्याय ५ सूत्र ७ में धर्मादि द्रव्योंमें होनेवाले पर परिणमन प्रसंग Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा में जो 'व्यवहियते' पाठ किया गया है उसका अर्थ उपवरित अर्थात् कल्पनारोपित नहीं करना चाहिये, कारण कि मनुष्य, पशु-पक्षी आदिको सद्भूत गति आदि निमित्तोंकी सहायतापूर्वक उत्पन्न होनेसे जन परिणमनों की धर्मादि द्रव्योंमें सद्भूतता ही मानने योग्य है, अन्यथा यदि धर्मादि द्रब्योंके गतिहेतुकत्वादि गुणामें कटस्थता आ जानेसे फिर धर्मादि द्रश्य उपयुक्त मनष्य पश-पक्षी आदिको भिन्न-भिन्न गति आदिमें सहायक नहीं हो सकेंगे। दूसरी बात यह है कि धर्मादिक्ष्यों में होनेवाले परसापेक्ष परिणमनोंको व्यवहारमात्र कहकर यदि कल्पनारोपित हो माना जायगा, तो ज्ञेयभूत पदार्थोके निमित्तसे होनेवाले ज्ञानके उपयोगाकार परिणमनोंको भी कल्पनारोषित (असद्भूत) ही माननेका प्रसंग उपस्थित हो जायगा। इसलिये जिस प्रकार ज्ञानके ज्ञेयभूत परपदाको अपेक्षासे उत्पन्न होनेवाले जानके उपयोगाकार परिणमन कल्पनारोपित (असदभूत) नहीं है उसी प्रकार परपदासापेक्ष होकर उत्पन्न होनेवाले घर्मादि द्रव्यों के परिणमन भी कल्पनारोपित (असद्भुत) नहीं है। अन्तमें आपने लिखा है कि 'स्वपरप्रत्ययरूप पर्याय में परको निमित्तताका यह अर्थ नहीं है कि उपादानकी तरह निमित्त भी समतुलामें बैठकर उस पर्यायका निर्माण करता हो।' इस विषयमें भी हमारा कहना यह है कि हमने जो स्वपरप्रत्यय परिणमनमें उपादानभूत और निमित्तभूत वस्तुओंमें विद्यमान कारणभावकी परस्पर विलसता रहते हुए भी कातिम दोनों की सम पेक्षा रहनेके कारण उपादान और निमित्त दोनों तरहकी वस्तुओंको 'समतुला' शब्द द्वारा समान सम्पन्न बसलाया है, सो हमने 'समतुला' शब्दका प्रयोग इस आशयसे नहीं किया है कि उपायामके समान निमित्तको भी कार्यरूप परिणत होना चाहिये अथवा उपादानके समान निमितको भी कार्यका भावय बन जाना चाहिये । किन्तु इस आशयसे किया है कि उपादानके स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यकी उत्पलिमें सहायक कारणरूप निमिसको उतनी ही अपेक्षा रहा करती है जितनी कि कार्यके आथयभूत उपादान की रहती है। अर्थात उपादान और निमित्त याने आषयकारण और सहकारी कारण इन दोनों में से एककी उपेक्षा कर देने पर कार्य (स्वपरप्रत्ययरूप परिणमन) कभी भी उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि कार्योत्पत्तिमें जहाँ तक उपादान और निमित्तके बलाबलका सम्बन्ध है वहाँ तक तो यही माना जायमा कि उपादानशक्तिके अभाव में निमित्त किंचित्कर बना रहता है और इसी प्रकार उपादान भी निमित्तके सहयोगके विना कुछ नहीं कर सकता है। इस तरह परस्पर विलक्षण अपने-अपने ढंगको कार्योत्पादनकारणता रखते हुए भी कार्योत्पादनको दृष्टिसे दोनों ही समान. रूपसे शक्तिशाली है, इसलिए उसमें ( कार्योत्पादन में ) दोनों हो एक दूसरेका मुख ताकनेवाले हैं। इस तरह जज दोनों एक दूसरेको अपेक्षा रक्षकर ही कार्योत्पादन कर सकते हैं, तो केवल सहायकमात्र होनेसे उपादानको कार्यपरिणतिमें निमितकी उपयोगिता उपादानसे कम रहती हो ऐसा सोचना गलत है। यही कारण है कि स्वामी समन्तभद्रने कार्यको उत्पत्ति बहिरंग और अन्तरंग अर्थात् निमित्त और उपादान दोनों तरहके कारणोंकी समग्रताके सभावमें हो मानो है और यह भी प्रमाणित किया है कि द्रव्यगत स्वभाव ऐसा हो है कि बहिरंग सथा अन्तरंग उभय कारणांकी समग्रता पर हो कार्यको उत्पत्ति हो सकती है। उनका वचन निम्न प्रकार हैबाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्यप ते द्वध्यगतः स्वभावः ॥३०॥ -स्वयंभस्तोत्र इसका अर्थ ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । यहाँ पर 'दस्यगत-स्वभावः' पदसे इसका निराकरण हो जाता है कि किसी एक कार्योत्पत्तिके प्रति निमित्तता और उपादानवा दोनों हो एक वस्तु के धर्म है, और Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और उसका समाधान इसका भी निराकरण हो जाता है कि निमित्तता उपादानताके पोछे-पीछे चलनेवाली वस्तु है तथा इसका भी निराकरण हो जाता है कि निमितताको उपादानता समुस्खन करती है, और यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार अगुरुलघु गुणोंसे वस्तुम होनेवाले षड्गुणहानि-वृद्धिरूप परिणमनोंकी स्वप्रत्ययता अर्थात स्वनिमित्तक कार्यपना द्रव्यगत स्वभाव है उसी प्रकार वस्तुके जो भो अन्तरंग ( उपादान ) और बहिरंग (निमित्त) कारणों के सहयोगसे परिणमन हुआ करते है नमें पाशी जानेनानीला मरदार निमित्तक-कार्यपन भी द्रव्यगत स्वभाव ही है। मान के परिणमन ही ऐसे है या उनका स्वभाव ही ऐसा है कि स्व ( उपादान ) और पर ( निमिस ) का परस्पर सहयोग हुए बिना वे कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकते हैं। समयमारकी आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति टीकामं निम्नलिखित कलश पद्य पाया जाता है न जातु रामादिनिमित्तभावमारमात्मनो याति यथाककान्तः । सस्मिन्निमित्तं परसंग एवं वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥१७५॥ इस पद्यमें पठित 'वस्तुस्वभावः' पद भी इसी अर्थका प्रकाशन कर रहा है कि परके सम्बन्धसे ही आत्मा रागादि उत्पन्न हो सकते है, ऐसा ही वस्तुस्वभाव है। आप्तपरीक्षा आचार्य श्री विद्यानन्दोने लिखा हैसामग्री जनिका कार्यस्य नैक कारणम्, ततस्तदन्यध्यतिरेकावेव कार्यस्यान्वेषणीयो। -धीरसेवामंदिर प्रकाशन पृ० ४५ अर्थ-काकी जनक सामग्री ( कारणों को समग्रता) होती है, एक कारण कार्यका जनक नहीं होता है, इसलिये 'सम्पूर्ण कारणों के अन्वय और व्यतिरेकका अन्वेषण करना चाहिये। यद्यपि यह वाक्य माशर्यने नैयायिककी ओरसे पूर्वपक्षके रूपमें उपस्थित किया है, परन्तु पूर्वपक्षको समाप्ति पर 'सत्यमतत्' पद द्वारा इसे स्वीकृत कर लिया है । आगे पु० ४५ पर लिखा है प्रत्येक सामध्येकदंशानो कार्योत्पत्तौ अन्वयव्यतिरेकनिश्चयस्य प्रेक्षापूर्वकारिभिः अन्वेषणात् । अर्थ-प्रेक्षापूर्वकारी ( बुद्धिपूर्वक कार्य करनेवाले ) लोग कार्यको उत्पति में संपूर्ण कारणोंके अलगअलग अन्वय ध्यतिरेककी खोज किया करते है।। बात भी दरअसल ऐसी है कि यदि लोकमें कोई कार्य गड़बड़ो में पड़ जाता है तो पतुर जानकार उसके प्रत्येक साधनकी और दृष्टि डालता है कि किस साधनकी गड़बड़ोसे यह कार्य गड़बड़ हो गया । पटको बनानेबाला जुलाहा पटनिर्माणके साधनभूत तन्त, तुरी, बेम, शलाका आदि सभी साधनों पर समानरूपसे दृष्टि रखता है कि सब साधनोंकी स्थिति अच्छी है या नहीं. अथवा यह भी देखता है कि इनमसे किसी साधन की कमी तो नहीं है । सर्वसाधारण लोग भी किसो कार्यके करनेसे पहले उसके कारणों पर यथाबुद्धि दृष्टि डाल लिया करते हैं। ___कहाँ तक इस विषयको बढ़ाया जाय, प्रत्येक मनुष्य यहां तक कि ओ निमित्तकारणको अवास्तविक, उपचरित या काल्पनिक सिद्ध करने में लगे हुए हैं वे भी अपने अनुभव और अपनी प्रवृत्तियोंकी ओर भो घोड़ा दृष्टिपात करें तो उन्हें मालूम होगा कि वे निमित्त उपादान दोनोंको ही समला पर बिठलाकर कार्योत्पत्तिके प्रति अग्रसर होते है । वे जानते हैं कि उनका कार्य निमित्तोंका सहारा लिये बिना नहीं सम्पन्न हो सकता है, इसलिये निमित्तोंको अपनाते हैं, फिर भी उन्हें अवास्तविक या काल्पनिक कहनेसे नहीं चुकतं, यह महान आश्चर्यको बात है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) सत्वपर्धा निमित्त भी उपादानकी ही तरह वास्तविक है, उपयोगी है, काल्पनिक या अनुपयोगी नहीं है, वह उपचरित या आरोपित भी नहीं है, इत्यादि आवश्यक बातों पर प्रश्न १७ में प्रकाश डाला जायगा । वहाँसे देखिये। नोट-इस विषयमें प्रश्न नं० १, ५, ६ और १७ देखिये तथा इनके प्रत्येक दौरका विषय भी देखिये। मंगल भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुदार्थो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ११ मूल प्रश्न ११–परिणमनके स्वप्रत्यय और स्व-परप्रत्यय दो भेद हैं, उनमें यास्तविक अन्तर क्या है? प्रतिशंका ३ का समाधान इस प्रश्नके प्रथम उत्तर में समाधान करते हुए बतलाया गया था कि स्वभावपर्याय और यिभावपर्यायके भेदसे पर्याय दो प्रकारको होती है। स्व-प्रत्यय पर्यायों का नाम हो स्वभाव पर्याय है और स्व-परप्रत्यय पर्यायोकोही विभाव पर्याय कहते हैं। साथ ही इनमेंसे किस ख्यमें दोनों या एक कौन-कौन पर्याय किस प्रकार होती है इसका स्पष्टीकरण करते हए समर्थन में प्रवचनसार गाया ६३ को टीका उपस्थित की गई यो। अन्समें यह भी बलला दिया गया था कि "जिस प्रकार स्व-परप्रत्यय पर्यायोंकी उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायें ययायोग्य आश्रगनिमित्त होती है उसी प्रकार प्रत्यय पर्यायोंको उत्पत्तिमें भी कालादि द्रव्योंकी विवक्षित पर्याय यथायोग्य माधयनिमित्त होती है। वे साधारण-निमित्त है, इसलिए उनकी दोनों स्थलोंमें कथनकी अविवक्षा है । यही इन दोनों में भेद है? ऐसा लिखनेका हमारा आश्रय यह था कि 'स्वप्रत्यय' शब्द में आया हुआ 'स्व' शब्द अपने उपादानको सूचित करता है और स्व-परप्रत्यय पदमें आया हुआ 'स्व' शब्द अपने उपादानको तथा 'पर' शब्द अपने असाधारण ( विशेष ) निमित्तोंको सूचित करता है। इतना स्पष्ट निर्देश करनेपर भी प्रतिशंका २ में एक तो ३ प्रकारकी पर्यायांकी स्थापना करके अनन्त अगलय गणद्वारा द्रव्योंको प्रतिसमय प्रयतमान षडगण-हानि-वद्धिरूप पर्याय मात्र स्व.प्रत्यय स्वीकार की गई है । इनके होनेमें एकान्तरूपसे मात्र निश्चय ( उपादान ) पक्षको ही स्वीकार किया गया है और व्यवहार ( उपचार ) पक्षको तिलाऊजलि दे दी गई है । जब कि प्रत्येक निश्वयका तदनुकूल व्यवहार अविनाभावरूपसे होता हो है ऐसा आगमका अभिप्राय है। स्वामी समन्तभद्र के बचनानुसार चाहे वह स्वभावकार्य हो और चाहे विभावकार्य, दोनोंमें बाह्य और बाभ्यन्तर सपाधिको समग्रता तभी बन सकती है जब कात्पित्तिमें उपादान और व्यवहार हेतु दान की सम व्याप्ति स्वीकार को जाये ।-देखिये स्वयंभस्तोत्र श्लोक ६०। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और उसका समाधान ट्सरे मागममें सर्वत्र स्वभावपर्यायौंको स्व-प्रत्ययरूषसे ही उल्लिखित किया गया है। फिर भी उसका विचार किये बिना प्रतिशका २ में अनन्त अगम्लघु गणरूपसे प्रवतमान षड़गणहानि-वृदिरूप पर्यावोंके सिवाय अन्य समस्त स्वभावपर्यायोंको स्वपरप्रत्यय सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। तथा इनके अनेक माम भी गिनाये गये हैं। इस प्रकार प्रतिशंका २ में स्वभावपर्यायोंको दो भागों में विभक्त कर दिया गया है, जब कि आगममें स्वभावपर्यायों के उक्त प्रकार से दो भेदोंका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। वस्तुत: बागममें जहाँ भो स्वभावपर्यायका लक्षण निर्देश करते हुए व्योंको अगुरुलघु गुणद्वारा षड्गुणो हानि-बुद्धिरूप स्वप्रत्यय पर्यायोंका उल्लेख आता है वहाँ बह षव्यसम्बन्धी सब स्वभावपर्यायमें घटित होनेवाले सामान्य लक्षणके रूप में ही उल्लिखित किया गया है। तोसरे हमने तो प्रथम उत्तरमें इतना ही लिखा था कि 'जो साधारण निमित्त होते हैं उनको दोनों स्थलों पर कथानकी अविवक्षा होनस परिगणना नहीं की जाती।' फिन्त प्रतिशंका २ में इस प्रकारको वाक्यरचना निबद्ध को गई है जिससे यह ध्वनित हो कि 'हम स्वभावपर्यायों में साधारण निमित्तोंके कपनकी अविवक्षा ओर विभावपर्यावोंम साधारण निमित्तांके कयनको विवक्षा इतने मात्रसे दोनोंमें भेद स्वीकार करते हैं।' यह एक प्रकारसे हमारे ऊपर आरोप है, किन्तु प्रथम उत्तर में न तो हमारी ओरसे ऐसा लिखा ही गया है और न ऐसा वस्तुस्थिति हो है। प्रथम उत्तरके प्रारम्भ में ही हम यह स्पष्ट कर आये है कि 'स्वभावपर्यायों में स्वप्रत्यय पदद्वारा उसो द्रव्यको उपादान शाक्ति ली गई है और विभाव पर्यायोंमें स्व-परप्रत्यय पबद्वारा विवक्षित द्रव्यको उपादान शक्ति के साथ उस-उस पर्यायके कर्ता और करण निमितोंको भी स्वीकार किया गया है। स्पष्ट है कि प्रतिशंका २ अनेक ऐसे मन्तव्योंसे ओत-प्रोत है जिनका आगमसे समर्थन नहीं होता। दूसरे उत्तरम हमने उन्हीं तथ्यों पर पुनः प्रकाश डाला है जिनका सम्यक प्रकारसे निर्वश प्रथम उत्तरके समय कर आये है। इसमें तत्वार्थवातिक और सर्वार्थसिदि. ५ सू०७का टोकापचन इसलिए उद्धृत किया गया था ताकि अपर पक्षकी समझमें यह बात भलीभांति आ जाए कि स्वभावपर्याय इसलिए ही स्वप्रत्वय स्वीकार की गई है, क्योंकि उनकी उत्पत्तिमें विभावके हेतुभूल बाह्य निमित्तोंका सर्वथा अभाव है। उनमें भी यद्यपि आश्रय निमित्तांका निषेध नहीं है। राजवालिक और सर्वार्थसिद्धिके उत्रन उल्लेख में 'पर' शब्दका प्रयोग इसो अर्थ में किया गया है। किन्तु दूसरे पक्षने इस उल्लेखको अपने मन्तव्यको पुष्टिमें समझकर उससे यह अभिप्राय फलित करने की चेष्टा की है कि स्वभाव पर्याय भी विभाव पर्यायांके समान स्वपर प्रत्यय होता है । हाला कि अपर पक्षने प्रतिशंका २ के अन्त में यह लिखकर कि 'इस तरह जिस परिणमनमें उपादानके साय कर्ता-करण मादि प्रेरक निमित्तोंका व्यापार आवश्यक नहीं हूँ उसे स्वप्रत्यय परिणमन कहना चाहिए।' स्वभावपर्यायोंका स्वप्रत्यय मो स्वीकार कर लिया है जो आगमको दृष्टिसे हमें तो इष्ट है ही, आर पक्षको भी स्वीकृत होना चाहिए । इस प्रकार मूल प्रश्न, उसका उत्सर, प्रतिशंका २ और उसका असर इन सबका यह सिंहावलोकन है। आगे प्रतिशंका ३ के प्राधारसे विचार करते हैं १. पर्यायें दो ही प्रकारकी होती हैं प्रतियांका ३ में हमारे द्वारा पूर्वम उद्घृत तत्वार्थवातिक और सर्वामिद्धि अपाय ५ सूत्र ७ के वचनका उल्लखकर यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि हमने भी स्वभाव पर्यायांको परप्रत्यय स्वीकार कर लिया है और इस प्रकार अपनी पुरानी मान्यताको पुष्टि करते हुए लिखा है कि 'विश्व के सभी पदार्थों में Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ जयपुर (खानिया ) त यथायोग्य होनेवाली पर्यायोंको स्वप्रत्यय स्वाभाविक व परप्रत्यय और वैभाविक स्वरप्रत्यय परिण ही अन्तत करना चाहिए इसी प्रसंग एक नमूनेदार यह वाक्य भी लिखा है कि 'जैन संस्कृति स्वकी अपेक्षा रहित केवल परके द्वारा किसी वस्तुके परिणमनको नहीं स्वीकार किया गया है।' विचारकर देखने पर विदित होता है कि इस वाक्य सर्वप्रथम यह चतुराई की गई है कि जो विध्य है उसे विशेषण बताया गया हूं और जो विशेषण है उसे विशेष्य बनाकर अपने अभिप्रायकी पुष्टि की गई है। साथ ही यह जाहिर करने के लिए कि आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार से भी हमारे उक्त अभिप्रायकी पुष्टि होती है, उसकी गाया ११ और १२३ तथा उपका टीका वजन भी प्रमाणस्य उद्धृत किया गया है उद्धृत वचन जो अर्थ किया गया है वह क्यों ठीक नहीं हूँ इसका विचार तो हम आगे करनेवाले है। कर देना चाहते है कि इस बार अनेक स्थलोंपर अपर पक्षाने जैनदर्शन या उनके स्थान में जैन संस्कृति शब्दका प्रयोग किया है। ऐसा करने में जो भी रहस्य हो उसे तो अपर पक्ष हो जाने प्रतिकामे ऐसे प्रयोगका खुलासा न होनेके कारण हम उसे सर्वत्र जैनदर्शन वा जैन धर्म के अर्थ हो स्वीकार करेंगे | I यहाँ मात्र इतना संकेत धर्मका प्रयोग न कर दूसरी बात यह है कि उस वचन द्वारा विशेष्यविशेष बनाकर जो यह स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक परिणमन में 'स्व' की अपेक्षा रहती है, वह तो विचारणीय है ही, साथ हो यहाँ 'स्व' पदसे क्या अभिप्रेत है यह स्पष्ट न हो वह भी विचारणीय है। राम मोरसे विचार करने पर विदित होता है कि है यह वाक्य भ्रामक ही प्रतियांक ३ में इस वाक्य द्वारा भले हो जैन संस्कृतिको उद्घोषणा की विचार कर देखने पर यही विदित होता है कि इस वाक्यमें जो कुछ भी कहा गया है वह जैन नहीं ही है । इससे जैन संस्कृति पर पानी फिर जाएगा इतना अवश्य है । गई हो पर संस्कृति ती अब थोड़ा इस वाक्य में जो कुछ कहा गया है उसके विधिपरक अर्थ पर विचार कीजिए— इसका विधिपरक निर्देश होता है कि 'स्व'को अपेक्षा सहित 'पर' के द्वारा परिणमन सभी वस्तुओंका जैन संस्कृतिमें स्त्रीकार किया गया है।' यह उक्त वाक्यका विधिपरक निर्देश है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि अपर पक्ष अपना यह मत जैन संस्कृतिके नामपर प्रचारित करना चाहता है कि प्रत्येक परिणयनमें 'स्व' की अपेक्षा रहती है अवश्य पर होता है वह दूसरे के द्वारा हो। आश्चर्य है कि ऐसे विनापूर्ण वचनको जैनसंस्कृतिको विशेषता घोषित किया गया है। कदाचित् ईश्वरवादी ऐसा वचन प्रयोग करें तो उनके लिए वह क्षम्य है, जन-संस्कृतिके वाहकों द्वारा तो ऐसा धन प्रयोग भूल भी नहीं होना चाहिए। נ अब हम प्रकृत विषय पर आते हैं। प्रकृतमें यह विचार चल रहा है कि सब क्योंमें जितनी भी पर्यायें होती है उन सबका वर्गीकरण करने पर वे ३ प्रकारकी न होकर मात्र २ ही प्रकारको होती है जहाँ कहीं साधारण निमित्तोंकी विवक्षावश स्वभाव पर्यायोंके वर्णनके प्रसंगसे परप्रत्यय शब्दका प्रयोग हुआ भी है तो इसमें मात्र पर्यायोंकी विविधताका समर्थन नहीं किया जा सकता, क्योंकि आगम में इन्हीं पर्यायोंको स्व प्रत्यय पर्याय कहा है । और जहाँ केवल स्वप्रत्यय पर्यात्रांका लक्षण आया है वहीं इन्हीं को लक्ष्यमें रखकर निर्दिष्ट किया गया है। आगे हम उदाहरण के रूपमें यहाँ कुछ ऐसे प्रमाण उपस्थित करेंगे जिनसे प्रतिपांका में स्वीकृत स्वाभाविक स्वन्नर प्रत्यय पर्यायें हो स्वभाव पर्यायें हैं यह भलीत ज्ञात हो जाएगा, क्योंकि जहाँ भो 'स्वप्रत्यय' शब्दका प्रयोग हुआ है वह इन्हीं के लिए हुआ है। सर्वप्रथम प्रमाणस्वरूप अनन्तसुखको कोजिए । इसका विवेचन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार हैलिखते Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - शंका ११ और उसका समाधान अइसयमादसमुख्य विसयातीदं अपोयममणंतं । अन्युच्छिप च सुहं सुधुचओगप्पसिद्धार्ण |॥१३॥ शुद्धोपयोगसे निष्पन्न हुए आत्माओंका सुख अतिशय, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अविच्छिन्न है ॥१३॥ इसकी टोकामें आचार्य अमृत चन्द्र लिखने है आसंसारापूर्वपरमाद्भुताहादरूपवादात्मानमेवाश्रिय प्रवृत्तत्वात्पराश्रयनिरपेक्षस्वादन्यन्तविलक्षणत्वासमस्तायतिनिरपामित्वान्नरन्तयनवतमानत्वाच्चातिशयवदात्मसमुत्थं विषयातीसमनीपम्यमनंतमन्युच्छिन्न शुद्धोपयोगनिःपन्नानां सुखमतस्तस्सर्षथा प्रार्थनीयम् ॥१३॥ (१) अनादि संसारसे जो पहले कभी अनुभव नहीं आया ऐसे अपूर्व परम अद्भुत आहादप होने से अतिशय, (२) आत्माका ही आश्रय लेकर प्रवर्तमान होनेसे आत्मोपन्न, (३) पराधयसे निरपेक्ष होनसे विषयातीत, पन्त हिमाण हो.मेरा बाप () सपरत मी काल में कभी भी नाशको प्राप्त न होनेसे अनन्त और (६) बिना ही अन्तरके प्रवर्तमान होनेसे अविच्छिन्न सुख शुद्धोपयोगसे निष्पन्न हुए आरमाओंके होता है, इसलिए वह सर्वथा प्रार्थनीय है ।।१३।। यहीं माथामें उक्त सुखको 'आदपमुत्थ' कहा है जिसका तात्पर्य आत्मासे उत्पन्न अर्थात प्रत्याय' ही होता है, 'स्व-पर-प्रत्यय' नहीं। इस पदको व्याख्या करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है -'आत्मानमेवाश्रित्य प्रवृत्तवान ।' इसका अर्थ है 'आत्माका ही प्राश्रय लेकर प्रवर्तमान होनेसे ।' इससे स्पष्ट विदित होता है कि प्रत्येक व्यकी जो स्वभाव पर्याय होती है, आगममें उसे स्वप्रत्यय ही कहा है। वह स्वप्रत्यय ही क्यों है इसका खुलासा मचायं अमृतचन्द्र के 'पराश्रय निरपेक्षत्वात्' इस वचनसे हो जाता है। इस प्रकार निश्चित होता है कि जिस पर्यायकी उत्पत्ति में पराश्रय निरपेक्षता हो और स्वयं अपने आश्रयसे उत्पन्न हुई हो वह स्वप्रत्यय होनेसे स्वभाव पर्याय है। स्वभाव पर्यायका आगममें इससे भिन्न कोई दूसरा लक्षण वा दूसरा नाम दष्टिगोचर नहीं होता । उदाहरण के लिए पद्मनन्दि पंचविशतिकाके धर्मोपदेश प्रकरणके इश दलोक पर दष्टिपात कोजिए सतताम्यस्तभोगानामग्यससुखमाग्मजम् । अप्यपूर्व सदित्यास्था चित्तं यस्य स तत्ववित् ।।१५०॥ इम पर दृष्टिगत करनेसे विदित होता है कि इसमें जिम अपूर्व सुखका निदंश है उसे आत्मजआत्मोत्य ही बतलाया गया है। कविवर राजमल्लजो इसो तथ्यको पुष्टि करते हए अध्यात्मकमलमार्तण्डमैं लिखते है कि जो फ्यायें द्रब्यान्तरनिरपेक्ष हाती है वे स्वभा गुण पर्यायें है। वह वचन इस प्रकार है धर्मद्वारण हि ये भावा धर्माशात्मका हिव्यस्य । ध्यान्तरनिरपेक्षास्ते पर्यायाः स्वभावगुणतनवः ॥१४॥ आत्मोत्थ और स्व प्रत्यय पदका अर्थ एक ही है वह हम पूर्वमें ही लिख आये हैं। इस तथ्यको और भी विशदएपमें समझने के लिए पंचास्तिकास गाथा २६ को आवार्य अमृतचन्द्रकृत टीकाके इस वचन पर भी दृष्टिपात कीजिए Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ जयपुर (खानिया ) तब चर्चा स्वप्रत्ययममूर्तसम्बदमध्याबाधमनन्तं सुखमनुभवसि च । तत्रार्थबार्तिक अ० १ सू० २ में क्षयोपशमसम्यक्त्वको उत्पत्ति में सम्यक्त्व प्रकृति निर्मित है इस बात को ध्यान में रखकर प्रश्नकर्ताने यह प्रश्न किया है कि सम्यक्त्व प्रकृतिको भो मोक्षका कारण कहना चाहिए | इसका अन्तिम समाधान करते हुए भट्टाकलंकदेव लिखते हैं आव स्वशक्त्या दर्शनपर्यायेणोपयते इति तस्यैव मोक्षकारणत्वं युक्तम् । इस उद्धरणमें भी सम्यक्त्वकी उत्पत्ति स्वयं आत्मशक्तिके वलसे हो होती है यह स्पष्ट किया गया है। जो उक्त अर्थके समर्थन के लिए पर्याप्त है । इस प्रकार उक्त आगम प्रमाणोंके बलसे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जिस प्रकार विभाव पर्यायोंकी उत्पत्ति में कालादि द्रव्योंकी पर्यायसे निमित्तता होनेपर भी सर्वसाधारण निमित्त होनेसे प्रत्येक विभाव की उत्पत्ति निमित्तरूपसे उनका उल्लेख नहीं किया जाता उसी प्रकार स्वभाव पर्यायों को दस में कालादि द्रव्योंकी पर्यायरूपसे निमित्तता होनेपर भी सर्वसाधारण निमित्त होनेसे प्रत्येक स्वभाव पर्यायोंकी उत्पत्ति में निमित्तरूप से उनका उल्लेख नहीं किया जाता। यही कारण है कि आगममें सभी स्वभाव पर्याव स्व-प्रत्यय हो निर्दिष्ट की गई हैं । वस्तुतः स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय इनके विभाजनका मुख्य हेतु वह है जिसका निर्देश हम प्रववनसार गाथा ६३ और उसको पुत्रोक्त टीकामें कर आये है। आशय यह है कि जो पर्यायें परनिरपेक्ष अपने स्वभावका ही आश्रय लेकर उत्पन्न होती हैं वे स्वभाव पर्यायें हैं और जो पर्यायें अपनी उत्पत्तिके काल में उत्पन्न होनेवालों पर द्रव्यकी पर्यायों को ( निमित्तीकृत्य ) कर्ता या करण निमित्त करके उत्पन्न होती हैं वे विभाव पर्यायें हैं। स्वभाव पर्यायों को स्वप्रत्यय और विभाव पर्यायोंको स्व-परप्रत्यय कहने का यही मुख्य कारण है । यहाँ इतना विशेष जान लेना चाहिये कि विभाव पर्यायोंमें जो विशेष निमिल होते है उन्हें कर्ता निमित्त, करण निमित्त या प्रेरकनिमित्त कहनेका कारण यह नहीं है कि वे बलात् अन्य द्रव्य में पर्यायों को उत्पन्न करते हैं। यदि वे अन्य द्रव्यको पर्यायोंको बलात् उत्पन्न करें तो दो द्रव्यों में या ती एकताका प्रसंग उपस्थित हो जायगा या फिर एक द्रव्य में दो क्रियाओंका कर्तुत्व स्वीकार करना पड़ेगा जो जिनागमके विरुद्ध है । अतएव परद्रव्यमें निमित्तकी विवक्षावश कर्ता आदिका व्यवहार उपचरित ही जानना चाहिये । इस प्रकार स्वभावयें स्वप्रत्यय क्यों कहलाती हैं इसका साष्टीकरण करते हुए विभाव पर्यायें स्वपरप्रत्यय क्यों कही गई हैं इसका भी प्रकरण संगत स्पष्टीकरण हो जानेपर उक्त प्रकार से पर्यायें दो ही प्रकार की है यह सिद्ध होता है । २. पर्यायोंकी द्विविधताका विशेष खुलासा इस प्रकार स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय पर्यायें दो ही प्रकारकी है ऐसा निश्चय हो जानेपर प्रकृत में इस चातका विचार करना है कि क्या द्रव्योंको कुछ पर्यायें ऐसी भी हैं जिनमें कालको भो निमित्तरूपसे नहीं स्वीकार किया गया है, क्योंकि अपर पक्षका कहना है कि 'अगुरुलघुगुणके द्वारा होनेवाली द्रव्यकी षड्गुणहानि-वृद्धि रूप परिणमनों को ही स्वप्रत्यय परिणमन नललाया गया है।' इसलिए यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है। आगे इसका विचार करते हैं १. अनन्तर पूर्व बने आगम प्रमाण देकर हम यह तो बतला ही आये हैं कि स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय पर्यायें दो ही प्रकारकी होती है । संसारी जीव और पुद्गलस्कन्धों में जितने विभाव ( आगन्तुक ) भाव हैं वे सब Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और उसका समाधान स्व-परप्रत्यय पर्याय हैं और शेष स्वप्रत्यय पर्याय परिगणित की गई है। किन्तु ये जितनी भी पर्यायें होती है उन सबमें काल द्रत्र्य आश्रयहेतु है । तत्त्वार्थवातिक ० ५ मूत्र २२ में लिस्ना है वर्तनायुपकारलिंगः कालः । २३ । उमा वर्तनादयः उपकारा यस्यार्थस्य लिंग स कालः । वर्तनादि उपकार जिसका लिंग है वह काल है । २३ । कहे गये वर्तनादि उपकार जिस अर्थ के लिंग है वह काल है। इससे विक्षित होता है कि प्रत्येक दृश्यको जितनो भी पर्याय होती हैं उन सबका सामान्य बाह्य हेतु काल है । इसी तध्वको स्पष्ट करते हुए हरिवंशपुराण सर्ग ६ में कहा है निमित्तमान्तरं तन्न योग्यता वस्तनि स्थिता। बहिनिश्चयकालस्तु निश्रितस्तत्त्वदर्शिमिः ॥ ७॥ इन परिणामादिरूप पर्यायोंमें अन्तरंग हेतु वस्तु स्थित योग्यता है और बहिरंग हेतु काल है ऐसा तत्त्वदशियोंने निश्चित किया है ।।७।। इससे स्पष्ट विदित होता है कि आगम में जहाँ भी अगुरुलधुगुणनिमित्तक पनुगणहानि-वृद्धिरूप पर्याय निर्दिष्ट की गई हैं वहाँ मात्र अन्तरंग हेतुका बान कराने के लिए ही वैसा निर्देश किया गया है । उसका यह अभिप्राय नहीं है कि उनका बहिरंग हेतु निश्चय काल भी नहीं है। जहाँ विभावको निमित्त भूल बहिरंग सामग्री नहीं होती वहाँ शहरंग हेतुगसे कालको नियमसे स्त्रोकार किया गया है ऐसा आगमका अभिप्राय है। किन्तु स्वभावपर्यायों में उसके कथनको अविवक्षा रहती है इतना अवश्य है। २. आकाशका अवगाहहेतुत्व यह सामान्य गुण है । विवार यह करना है कि आकाश में उत्पाद-व्यय कैसे घटित होता है ? तत्त्वार्थवातिक अ० ५ मूत्र १८ में इसका विचार किया गया है । वहाँ बतलाया है न्यार्थिगुणभाचे पर्यायार्थिकग्राधान्यात स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवद्धि-हानि विकल्यापेक्षया अवगाहकजीव-पुद्गलपरप्रत्ययावगाह विवक्षया च श्राकाशस्य जातत्वोपपत्तेः । द्रव्याथिक नयक गौण करनगर पर्यायाषिक नयको प्रधान तान्नश स्वप्रत्यय अशुरुलघुगुणवृद्धि-हानिरूप भेदको विवक्षासे और जीव-पुद्गल परप्रत्यय अवगाह भेदको विवक्षारो आकाशका उत्पाद बन जाता है । यह ऐसा प्रमाण है जो इस बातका साक्षी है कि ऐसा एक भी कार्य नहीं है जिसमें उभयनिमित्तताका निर्देश नहीं किया गया हो । यहाँ अवगाहभेदसे आकाशका उत्पाद बतलाते हुए उसे अगुरुलघुगुणनिमित्तक स्वप्रत्यय बसलाकर भी परप्रत्यय कसे घटित होता है यह सिद्ध किया गया है। ३. इसी प्रकार तत्वार्यवात्तिक अ• १ सूत्र २९ में इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए लिखा है एवं धर्मास्तिकायादिष्यपि अमूर्तत्वाचेतनत्वासंख्येयप्रदेशत्वगतिकारणस्वभावास्तित्वादयोऽनन्तभेदागुरुलधुगुणहानिवृद्धिविकारः स्वप्रत्यौः परमत्ययश्च गतिकारणत्वविशेषादिभिः अविरोधिनः परस्परविरोधिनश्च विज्ञयाः। इसी प्रकार, धर्मास्तिकायादिक में भी स्वप्रत्यय अनन्त अगुहलघु गुग हानि-बृद्धि विकारोके द्वारा और परप्रत्यर गतिकारणत्वविशेषादिके द्वारा अमर्तत्व, अचेतनत्व, असंख्येयप्रदेशस्त्र, गतिकारणस्वभाव और अस्तित्व आदिक अविरोधो और परस्पर विरोधी धर्म जान लेने चाहिए । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा ४. अपर पक्ष के सामने ये प्रमाण तो रहे ही होंगे। उसके सामने स्वामी समन्तभद्रका 'बाह्येतरोपाधिसमग्रतेय' यह वचन भी रहा होगा। इसमें स्पष्ट बतलाया गया है कि लोक में जितने भी कार्य होते है ये सब बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रतामें होते हैं। यह नियम वचन है जो इस नियमकी घोषणा करता है कि बाह्य और आभ्यन्तर उपकरणों की समग्रता में हो सब कार्य होते हैं। अतएव जिन्हें अपर पक्ष अगुरुलघु गुणके द्वारा षड्गुणी हानिवृद्धिरूप स्वप्रत्यय परिणमन कहता है उन्हें भी बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रता में उत्पन्न हुए जानना चाहिए। पूर्वमें हमने तस्वार्थकार्तिक के जो दो उद्धरण उपस्थित किये हैं उनसे भी इसी तथ्यको पुष्टि होती है । ५. हरिवंशपुराण सर्ग ९ में भी ऐसा ही एक अनुरूप आत्मपरिणाम और परोपामि इन दोनोंका अगुरुलघुत्वात्मपरिणाभसमन्विताः । परोपाधिधिकारित्वादनित्यास्तु कथंचन ||७|| ६४६ लोक आता है। इसमें भी प्रत्येक परिणामके प्रति परिग्रह किया गया है । श्लोक इसप्रकार है ६. जो विभाव पर्यायें हैं वे भी बहुगुणी हानि -वृद्धिरूप होती है। इसके लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ३२३ से ३२६ पर दृष्टिपात कीजिए। इन गाथाओं में श्रुतज्ञानकी पड्गुणी हानि-वृद्धिरूप पर्यायोंका निर्देश किया गया है । स्वभाषपर्यायें षड्गुणी हानि बृद्धिरूप होती है इसे तो अपर पक्ष भी स्वीकार करता ये कति प्रमाण हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि सभी परिणाम बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समतामें ही होते है। अतएव अपर पक्षका अगुरुलघु गुणके द्वारा बड़गुणो हानिवृद्धिरूण परिणाम इसके अपवाद हैं ऐसा आशय व्यक्त करना आगमविरुद्ध तो हैं ही, तर्क और अनुभवके भी विरुद्ध है । कथनसे यह जानकारी तो मिलती ही है कि अविभागप्रतिच्छेदों की षट्स्थानपतित हानिवृद्धिका यह कथन सब द्रश्योसम्बन्धी पर्यायोंकी अपेक्षा किया गया है। साथ ही यह जानकारी भी मिलती है। कि जहाँ पर गुणविशेषकी पर्यायोंके कथानकी विवक्षा न होकर मात्र स्वभाव पर्यायका कथन करना इष्ट होता है यहाँ वह सर्वत्र घटित हो ऐसे सामान्य लक्षणका निर्देश किया जाता है । प्रवचनसार गाथा ६३ की सूरिकृत टोका में तथा नियमसार गाथा १४ की टीका आदिमें पर्यायोंके दो भेद करके स्वभाव पर्यायके निर्देशके प्रसंगले यही पद्धति अपनाई गई है । यतः वहाँ स्वभावपर्यायका सामान्य लक्षण बतलाना दृष्ट है और स्वभाव पर्याय (स्वप्रत्यय पर्याय) विभाव की हेतुभूत बाह्य उपाधि से रहित होती है, इसलिए वहाँ उसका निर्देश करते समय जैसे विशेषणरूप से गुणविशेषका उल्लेख नहीं किया गया है उसी प्रकार विशेषणरूपसे बाह्य उपाधिका भी उल्लेख नहीं किया गया है। इसी प्रकार सर्वत्र जान लेना चाहिये। किन्तु पर्याप इस सामान्य लक्षण में रूपादि, ज्ञानादि या गतिहेतुत्वादि जिस गुणको विशेषणरूपसे उल्लिखित कर दिया जायगा वहाँ वह उस उस गुणकी स्वभाव पर्याय हो जायगी और यदि इसके साथ पर प्रत्ययरूप उपाधिका उल्लेख कर दिया जायगा तो वह उस उस गुणकी विभाव पर्याय कहलाएगी। इस तथ्य को विशेषरूपसे समझने के लिए प्रवचनसार गाथा ९३ की टीका हृदयङ्गम करने योग्य है । प्रत्येक द्रव्य के परिणाम दो ही प्रकारके होते हैं इसका समर्थन अष्टसहस्री पु० ५४ के इस वचनसे भी होता है । faraat ग्रात्मन: परिणाम :-- स्वाभाविक आगन्तुकञ्च । तत्र स्वाभाविकोऽनन्तज्ञानादिरात्मस्वरूपत्वात् । मलः पुनरज्ञानादिरागन्तुकः, कर्मोदय निमिसकश्यात् । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और उसका समाधान ६४७ आमाका परिणाम दो प्रकारका है (१) स्वाभाविक (२) बायतुक इनमें स्वरूप होने अनन्त ज्ञानादि स्वाभाविक परिणमन है और कमंदय निमित्तक अज्ञानादि दोष यागन्तुक परिणमन है । इस प्रकार पर्वा दो ही प्रकारकी होती है इसका समर्थन समग्र जैन वाम करता है। जिन सीसरे प्रकारकी पर्यायाँका उल्लेख अपर पक्षने किया है वास्तव में यह उसका पूरे जैनागमको सम्यक प्रकारान न लेने का ही फल है । ३. उपाधिके सम्बन्धमें विशेष खुलासा यहाँ प्रकरण संगत होनेसे मोटा उपाधिके सम्बन्धमे स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। एक ऐसी ध्वजा लीजिये जो बागृसे संयोग कर रही है और एक दूसरा ऐसा पत्थर लीजिए जो बासे संयोग नहीं कर रहा है। देखने पर विदित होगा कि जिसके साथ वायुके संयोगरूप उपाधि लगी हुई है वह स्वयं बायुके ईश्मरूप गुणकी योग्यतावाली होनेसे रण परिणाम परिणत वायुके संयोगको निमित्त कर स्वयं तदनुरूप लहराने लगती है और दूसरा पत्थर जो कि अपने में ईरण गुणका अभाव होनेसे वायु संयोग नहीं कर रहा है, उपाधिरहित होनेके कारण स्थिर बना रहता है अर्थात् नहीं लहराता है किन्तु यहाँ ध्वजा और पत्थरके इन दोनों प्रकारके परिणमनेकाको निमित्तता है, अवगाहनमे आकाश प्रकीनिमित्तता है। तथा ध्वजा फहराने में धर्मद्रव्यकी निमित्तता है और पत्थरके स्थिर रहने में अधमं द्रव्यकी निमित्तता है तथापि इन काल आदि द्रव्योंके रहनेपर भी इनको निमित्त कर उन दो किसी में भी सोपाधिपना दृष्टिगोचर नहीं होता। इससे स्पष्ट विदित होता है कि साधारण निमित्त विशेष उपाधि संज्ञान प्राप्त होने के कारण इनको अपेक्षा स्वभाव को सोपाधि कहना उपयुक्त नहीं है। अतः पर्याय दो ही प्रकारको होती है-एक स्व प्रत्यय या स्वभाव पर्यायें और दूसरी स्व-परप्रत्यय या विभाव पर्मायें। इनके सिवाय जिनके होनेने साधारण निमित्त भी नहीं है ऐसी कोई तीसरे प्रकारकी पर्यायें होती हों ऐसा जिनागमका अभिप्राय नहीं है । ४. गाथाओंका अर्थ परिवर्त्तन यह तो मानी हुई बात है कि जो भी परिणमन होता है वह 'स्व' में होता है, 'रूप' के द्वारा होता है और वह स्वयं कर्ता वनकर स्वतन्त्ररूपसे उस परिणयनको करता है, क्योंकि कर्ताका 'स्वतन्त्रः कर्ता' मह लक्षण बरामें तभी घटित होता है। इतना अवश्य है कि यदि वह सोपाधि परिणमनको करता है तो वहाँ उसका भी निर्देश किया जायगा समयसार गाया ११६ से लेकर १० गाथाओं द्वारा प्रत्येक के इसी परिणाम स्वभावकी सिद्धि की गई है। किन्तु प्रतिशंका में अपने अभिप्रायकी पुष्टि के लिए उनमेसे ३ कतिपय गाथानोंके अर्थमें परिवर्तन किया गया है। आगे हम मही स्पष्ट करके बतानेवाले है कि उन गाथाओं और उनके टीका वचनों जो अरिवर्तनका उपक्रम किया गया है उसकी पुष्टि उन गाथाओं और उनके टीका वचनों कथमपि नहीं होती । वे गाथा ११८ और १९३ हैं । ११८ गाया इस प्रकार है जीवो परिणाम पुगलदष्वाणि कम्मभावेण | ते सयमपरिणमंते कदं णु परिणामयदि वेदा ॥ ११८ ॥ और यदि पुगको फर्म से परिणमाता है तो स्वयं कर्मरूपसेन परिणमन करते हुए उनको चेतन जीव कैसे परिणमाता है ।। ११८|| यह इस गाथाका शब्दार्थ है । इसके प्रकाश में प्रतिशंका ३ में किये गये इसके अर्थको पढ़िये- Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खामिया) तस्य चर्चा 'जीव यदि पुद्गलयको कर्मभावसे परिचत कराता है तो उस पुद्गल द्रव्यमें निजकी परिणत होनेकी योग्यता के अभाव में जीव द्रव्य उसको कैसे ( कर्मरूप ) परिणत करा सकता है। ३ गाथा ११६ से १२० तरुको गाथानोंका एक पंचक है। उनमें से बोधकी ११८ संख्याको गाथा लेकर और उसका अर्थ बदलकर उसके द्वारा प्रतिका में अपने अभिप्रायको पुष्टि करनेका प्रयत्न किया गया है। उक्त गाथाके तीसरे पादमें 'ते सयमपरिणमंत' पद है। इसका अर्थ होता है 'स्वयं नहीं परिणमनेवाले उनको किन्तु प्रतिशंका में इसका अर्थ किया गया है— 'उम पुद्गल द्रव्यमें निजकी परिणत होने को योग्यता के अभाव में जीव द्रव्य उसको ।' ६४८ इसी प्रकार गाया १२३ के 'तं सयमपरिवर्त' पदके वर्धमें तथा गाथा ११८ को आत्मरूपाति टीकाके 'न तावत् वत्स्थयमपरिणममानं परेण परिणामयितुं पायेंत' इस वचनको उद्धृत कर इसके न तावत् स्वयमपरिणममानं' पदके अर्थ में भी परिवर्तन किया गया है। गाया ११६ से लेकर १२५ तककी गाथाओं द्वारा पुद्गल और जीवका स्वयं कर्ता होकर परिणामीपना aa किया गया है। उसी अर्वको पुष्टि उक्त दो गाथायें और उनका टीका वचन आया है। इन द्वारा यह बताया गया है कि जो और जो-जो परिणाम ( पर्याय ) होते हैं उनको ने स्वयं स्वतन्त्ररूपये कर्ता बनकर करते हैं । किन्तु प्रतिशंका ३ में इस अभिप्रायको तिलाञ्जलि देकर उक्त प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है कि जोव और पुल मात्र परिणमनेको योग्यता होती है। स्वयं परिणमना उनका अपना कार्य नहीं उन्हें परिणमाना उपाधिका कार्य है। यदि उक्त गाथाओं और उनके टोका वचनोंका यही अर्थ होता तो उन गाथाओं की उक्त टीकामें जो यह कहा गया है कि - 'स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुशयः परमपेक्षन्ते ।' – 'स्वयं परिणमनेवाला तो परिणमानेवाले दूसरेकी अपेक्षा करता नहीं, क्योंकि वस्तुतियों दूसरेको अपेक्षा नहीं करती।' सो इसके कहने की क्या आवश्यकता थी। इससे सिद्ध है कि प्रतियंका में अपर पाने उक्त गाथाओं और उनके टोका वचनका जो अर्थ किया है वह समीचीन नहीं है। बाने प्रतिशंका ३ में तत्वावातिक और सर्वार्थसिद्धि अ० ५ ० ७ के आधारसे जो यह लिखा है। कि 'यदि मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको सद्भूत गति आदि निमितोंकी सहायता पूर्वक उत्पन्न होनेसे उपर णामोंकी धर्मादि द्रयोंमें भूतता हो मानने योग्य है, अन्वया यदि धर्मादिभ्योंके गतिहेतुत्वादिगुणों कूटस्थता जा जानेसे फिर धर्मादि उपर्युक्त मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको भिन्न-भिन्न गति आदिमं सहायक नहीं हो सकेंगे।' सो इस सम्बन्ध इतना हो कहना है कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदिको जो गति हो रही है वह सद्भूत है इसमें संदेह नहीं। इसी प्रकार धर्मादि उम्पोंगे जो प्रति समय परिणमन हो रहा है वह भी सभूत हैं, इसमें भी संदेह नहीं । इन्हें हमने कहीं अद्भूत कहा भी नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वभाषते पर्यायकी अपेक्षा परिणमनशील होनेके कारण ये अदभूत है भी नहीं तथा इसी प्रकार प्रतिसमय अपने उत्पादस्वभाव के कारण रूपसे उत्पन्न होता है, आयस्वभाव के कारण परून व्ययको प्राप्त होता है और प्रो स्वभावके कारण द्रव्यरूपये न उत्पन्न होता है और न व्ययको ही प्राप्त होता है। ऐसी वस्तु व्यवस्था है, फिर भी एक पर्यायसे दूसरी पर्याय जो अन्तर प्रतीत होता है वह अन्तर दूसरेके संयोग करनेका परिणाम (फल) होने कारण बलग-अलग प्रत्येक पर्याय उपाधिको भी स्वीकार किया गया है इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अष्टसहली पृ० ११२ में कहा भी है- Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और उसका समाधान विनसा परिणामिनः कारणान्तरानपेक्षोपादादित्यव्यवस्थानात् , तद्विशेषे एव हेनुभ्यापारोपगमात् । विलसा ( स्वभावसे ) परिणमनशील द्रव्यका दूसरे कारणोंको अपेक्षा किये बिना उत्पादादित्रयको यवस्था है, प्रत्येक समय में होनेवाली पर्याय विशेष हो हेलका व्यापार स्वीकार किया है। इस प्रकार यह निश्चित होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें उत्पादादिप्रय स्वभावसे होते हैं उनमें कारणान्तरों को अपेक्षा नहीं होतो, अन्यथा यह द्रव्य का स्वभाव नहीं माना जा सकता। फिर भी एक समयकी पर्यायसे जो दुगरे समयकी पर्याय भेद होता है तो उस भिन्न पर्यायको उत्पन्न तो करता है स्वयं द्रश्य हो, किन्तु उस पर्यायको उत्पन्न करते समय अन्य प्रग्यको जिस पर्यायको उपाधि बनाकर वह उस पर्यायको उत्पन्न करता है उस उपाधि ) में निमित्तानेका व्यवहार होने के कारण उसकी सहायतासे उसने उम पर्यायको उत्पन्न किया यह व्यवहार किया जाता है। इस व्यवहारको उपचरित माननेका यही कारण है । इसलिए ऐसे व्यवहारको उपचरित माननेसे न तो किमी द्रव्यमें कूटस्थता आती है, न अन्य व्यको जिस पयायमें निमित्त व्यवहार किया गया है वह असद्भुत ठहरती है और न ही विवक्षित द्रव्यमें जो कार्य हा है वह भी असदभुत ठहरता है। ऐसा होने पर भी निमित्त व्यवहार असदभुत है ऐसा मानने में कोई बाधा गो नहीं आनी । प्रतिशंका ३ में ज्ञानके उपयोगाकार परिणमनको दृष्टान्तरूपमें उपस्थित कर ज्ञेयभूत पदार्थो को उसका निमित्त बतलाया गया है पो इन शेयभूत पदाको प्रकृतम ज्ञापक निमित्तोंके रूप में स्वीकार किया गया है या कारक निमित्तोंके रूप में यह प्रतिशंका ३ में स्पष्ट नहीं किया गया है। वैसे जिस अभिप्रायकी पुहिम उपमोगाकार परिणमनको उल्लिखित किया है उससे तो ऐसा ही विदित होता है कि प्रतिशंका ३ में ज्ञेयभूत पदार्थों को उपयोगाकार परिणमनके कारकनिमित्तरूपले हो स्वीकार किया गया है और इस प्रकार बौद्धमतका अनुसरणकर उपयोगाकार परिणमनकी उत्पत्ति ज्ञेयोंके आधित स्वीकार की गई है। किन्तु यदि अपर पक्षको यहो मान्यता है तो उसे आममसम्मत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आगम ( तत्त्वावलोकवार्तिक मा० १ ० १४ ) में निमित्त दो प्रकारके बतलाये हैं-नापक और कार । जयभत पदार्थ उपयोगके ज्ञापक. निमित्त है, कारक निमित्त नहीं । अतएव प्रकृतमें यह उदाहरण लागू नहीं होता ऐसा यहाँ समझना चाहिए । समतुलाका खुलासा करते हुए प्रतिशंका ३ में जो यह भाव व्यक्त किया गया है कि 'स्व-परप्रत्यय परिणमनम उपादानभूत और निमित्सभन वस्तुओंमें विद्यमान कारणभावकी परस्पर विलक्षणता रहते हुए भी कार्योत्पत्ति में दोनों को समान अपेक्षा होती है।' सो प्रकृतमें यही विचारणीय है कि उपादानसे विलक्षण निमित्तरूपसे स्वीकृत उनमें रहनेवाली वह कारणतः क्या वस्तु है जो उनमें पाई जाती है। यदि उनकी उम रूपसे कार्यक्रे साथ बाह्य पाप्तिका होना इसी कारणताका व्यवहार किया जाता है तो यह जिनागममें स्वीकृत है। इसके सिवाय अन्य किमी प्रकारको यथार्थ कारणता उनमें बन नहीं सकती, क्योंकि कायं पृथक व्यका परिणाम है और जिनमें उस कार्यको अपेक्षा निमित्त व्यवहार हआ है वे गरी सर्वथा भिन्न है। इन दोनोंमें परस्पर अत्यन्ताभाव है। जो कार्यका स्वचतुष्टय है, उसका निमित्त व्यवहारके योग्य अन्य द्रव्यों में अत्यन्ताभाव है और उनका अर्थात् निमित्त व्यवहारके योग्य अन्य द्रव्योंका जो स्वतृष्टय है उसका कार्य द्रव्यमें अत्यन्ताभाव है। ऐसी अवस्था में एकमें कार्य वर्म रहे और उसका कारण धर्म दूसरे में रहे यह कैसे हो सकता है अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकता। इसलिए वास्तविक कारणताको अपेक्षासे दोनोंको समतुलामें नहीं बिठाया जा सकता। यही कारण है कि उपादानमें कारणता परमार्थभूत स्वीकार को गई है बद्न स्वरूपसे स्वतःसिड उपादान है और जिनमें निमितव्यवहार किया जाता है उनमें वह कार णता उपवरित है, वाक %3- - ८२ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० अयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा बे स्वरूपसे स्वतःसिस परद्रव्यके कार्यके कारण नहीं है। अतएब दोनों में कारणताको यथार्थ माननेका आग्रह करना उचित नहीं है एसा यहाँ रामवाना चाहिए। यह लिखना कि 'कार्योत्पादन में निमित्त और उपादान दोनों ही एक दूसरेका मुख ताकनेवाले हैं' अति साहसकी बात है । विचारकर देखा जाय तो यह ऐसा साहसपूर्ण कथा है जो व्यके लक्षण पर ही सीधा प्रहार करता है । ऐमा मानने पर तो किसी भी वस्तुका स्वरूप स्वतःसिद्ध नहीं बनता है। वस्तुके स्वरूपका विवेचन करते हुए पंचाध्यायीमें लिखा है-- सर सल्लाक्षणिक सन्मानं वा यतः स्वतःसिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च ॥४॥ जिस दर्शनमें वस्तुका वस्तुत्व हो प्रतिसमय अर्थक्रियाकारित्व माना गया हो उस दर्शन पर ऐसी बात लादना आश्चर्य ही नहीं महान आश्चर्य है। कोई ऐसा लण नहीं जब प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य न करता हो और कोई ऐसा क्षण नहीं जब उपाधि योग्य अन्य द्रव्यका योग न मिलना हो | यह सहज योग है । इसे मिथ्या विकल्पों द्वारा बदला नहीं जा सकता । ऐसा स्वीकार कर लेने पर किसीको किसीके पीछे नहीं चलना है और न किसीको किसी का मुंह ही ताकना है। सब अपनी-अपनी स्थिति में रहते हुए परस्परकी अपेक्षासे अपने-अपने योग्य उचित व्यवहारके अधिकारी होते हैं। कार्यसे सर्वथा भिन्न पर द्रव्यको पर्यायमें कर्ता आदि व्यवहार करने को उपातिका निर्देश करते हुए पंडितश्वर आवाघरजी अनगारधर्मामृत अ० १ में लिखते हैं कीमा पजनी मिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साभ्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदरक ।।१२०१॥ जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धि के लिए कर्ता आदिक वस्तुसे भिन्न साधे जाते है बह ब्यवहार है और कर्ता आदिकको वस्तुसे अभिन्न जानने वाला निश्चय है ।।१२०॥ इस प्रकार विवक्षिस पर्यायषत अन्य द्रव्यमें मिमित्त व्यवहार क्यों किया जाता है और इसमें भी कर्ता आदिरूप व्यवहार करने का क्या प्रयोजन है यह आगमानुसार सम्यक् प्रकारस ज्ञात हो जानेपर न तो उपादान और निमित्त इनसे किसीको परमुखापेक्षी मानकी आवश्यकता है और न ही किसीको किसीके पीछे लगनेकी आवश्यकता है । अपने-अपने उपादान के अनुसार प्रत्येक मा प्रत्येक समयमै विवक्षित कार्यरूपसे परिणमसे है और उस उस कार्य में निमित्त व्यवहारके योग्म अन्व द्रव्योंको प्रत्येक समयकी पर्याय निमित व्यवहारको प्राप्त होतो रहती हैं। ऐसी कार्यकारणपरम्पराके अनुसार वस्तुमर्यादा है और इसीलिए उनमें यथायोग्य उपादान-उपादेय व्यवहार और निमित्तनैमित्तिक व्यवहार प्रत्येक कालमें बनता रहता है। स्वामी समन्तभद्रनं बाह्येतरोपाधि' ( स्व० स्तो०, इलोक ६० ) इत्यादि इकोक इसी अभिप्रायसे निबद्ध किया है । सभी कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रताका होना द्रव्यगत स्वभाव है यह व्यवस्था भी तभी बनती है जब पूर्वोक्त कथनको पूरी तरह स्वीकार कर लिया जाता है। प्रकृतम हमें इस बातका आश्चर्य होता है कि एक ओर तो प्रतिशंका ३ में प्रत्येक कार्यके प्रति निमित्तोंका व्यापार इसलिए आवश्यक बतलाया जाता है कि उसे न स्वीकार किया जायगा तो धर्मादि द्रव्याम कुटस्थता आ जायगो और दूसरी मोर अनन्त अनुरुलघुगुणोंकी षट्गुणी हानि-वृष्विरूप प्रत्येक समयके कार्यको बाह्य उपाधिके बिना केवल आभ्यन्तर उपाधिजन्य स्वोकर करके भी उसमें कूटस्थता नहीं मानी जाती है और फिर आश्चर्य इस Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ११ और उसका समाधान ६५१ का होता है कि ऐसा स्वीकार करनेपर भी अपर पक्ष 'बाह्येतरोपाधि' की समता सिद्धान्तको भो for नहीं मानता। हमारे स्वालसे अपर पनके द्वारा प्रस्थापित यह नया मत ही इस सभ्यकी घोषणा करता है कि दास्यं स्वतन्त्ररूपसे अपने कार्यको करता है तथापि विवक्षित परद्रव्यकी पर्याय उसकी प्रसिद्धिका हेतु है, इसलिए उपचार से उसकी भी कारक साकल्य में परिगणना की गई हैं। आचार्य ने जो 'न जातु रागादिनिमितभावं' इत्यादि कलश लिखा है उसमें 'संग' पद ध्यान देने योग्य है। यह शब्द ही इसका खण्डन करता है कि अन्य में सद्भिनकी कार्यकरण शक्ति वस्तुतः होती है। आचार्यश्यं दस द्वारा यह बतला रहे है कि इरा जीवने अनादिस परके द्वारा हिताहिल होगा' ऐसा मानकर जो अपने विकल द्वारा परका संग किया है वही विकल्प इसक संसारी बने रहनेका मुख्य कारण है । वे कहते हैं कि 'स्व' का संग तो अनपायी हैं, वह अपराध नहीं है। अपराध यदि है तो परका संग करना ही है। परमें निमित्त व्यवहार होने का यही कारण है । आप्तपरीक्षा पृ० ४४-४५ में आचार्य विद्यानन्दीने बाह्य और आभ्यन्तर उपाविरूप सामग्री के साथ या एकदेशरूप सामग्री के साथ जो कार्यका अन्यव्यतिरेक बचलाया है वह ठीक ही बतलाया है, क्योंकि जिस प्रकार आभ्यन्तर उपाधि के साथ कार्यको आभ्यन्तर व्याप्ति उपलब्ध होती है उसी प्रकार बाह्य उपाधिके साथ भो कार्यको वाह्म aur जिनागम में स्वीकार की गई है। बाह्य उपाधिके साथ कार्यकी बाह्य व्याप्तिका उपल होना ही तो इस तथ्य गमक है कि इस कार्यका कोई यथार्थ उपादान अवश्य है जिसने स्वयं स्वतन्त्र रूपसे कर्ता, करण और आश्रय आदि बनकर परिणामस्वभावी होनेसे इस कार्यको उत्पन्न किया है। स्पष्ट है कि जिनागम में जो निमित्त उपादानको स्वीकृति है और उनकी कार्यके प्रति जो बाह्य आभ्यन्तर व्याप्ति बतलाई है वह भिन्न-भिन्न प्रयोजन से हो बतलाई है, अतएव उसे सभ्यक् प्रकारसे जानकर उसका उसी रूप में पान होना चाहिए, तभी वह व्याख्यान यथार्थ माना जा सकता है । 1 रहो लोककी बात सो जो चतुर जानकार होता है वह संयोग काल में होनेवाले कार्यों में बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारको उपाधिका विचार करता है, कल्पनाको तरंगों के आधारसे कार्यकारण परम्पराका विचार करनेवाले पुरुषों की बात निराली है | आगम में दोनों की मर्यादाका निर्देश किया है, अन्वयव्यतिरेक के farm इसका परिज्ञान होता है। किन्तु जो बाह्य सामग्रीको विकलताको देखकर यह अनुमान करता हूँ कि केवल बाह्य सामग्री अभाव में यह कार्य नहीं हो रहा है और उस समय उपादान शक्ति की जो विकलता हूँ उसे नहीं अनुभवता उसका जैसा अनुमान करना ठीक नहीं है। इसलिए त्रकृत में यही निर्णय करना चाहिए कि जिस समय प्रत्येक द्रव्य निश्चय उपादान होकर अपने कार्य के सम्मुख होता है उस समय निमित्त व्यवहार के योग्य बाह्य सामग्रीका सद्भाव नियमसे होता है । यहीं जिनागम है और यही मानना परमार्थ सत्य है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर १: शंका १२ कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्रकी श्रद्धाके समान सुदेव, सुशाम्न, सुगुरुकी श्रद्धा भी मिथ्यात्व है, क्या ऐसा मानना या कहना शास्त्रोक्त है ? समाधान १ कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्रको श्रद्धा गृहीत मिथ्यात्व है तथा सुदेव, सुशास्त्र, सुगुरुकी श्रद्धा व्यवहारसम्यग्दर्शन है । इमो तथ्यको स्पष्ट करते हुए श्री नियमसारजीमें कहा है अत्तागमतच्चाणं सदहणादो हवेइ सम्मत्तं ॥५॥ अर्थ-अन. आग और नन्दोक पक्षातो रकम होता है। उसकी टोकामें स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है म्यवहारसम्यक्रवस्वरूपाण्यानमेतत् । यह व्यवहार सम्पनत्वके स्वरूपका कथन है। सम्यग्दाष्टके ऐसी श्रद्धा अवश्य होती है और वह ऐसे कथनको शास्त्रोक्त मानता है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर शंका १३ पुण्यका फल जब अरहंत नफ होना कहा गया है ( पुण्यफला भरहंता प्र. सा. ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है उसे 'सर्वातिशायि' पुण्य घतलाया है ( सर्वातिशायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् ) । तब ऐसे पुण्यको हीनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? __समाधान १ यह तो सुनिदित सत्य है कि सर्वत्र प्रयोजनके अनुसार उपदेश दिया जाता है। ऐसी उपदेश देने की पद्धति है। पुण्य-पापका आसव-बन्ध पदार्थोंमे अन्तर्भाव होता हैं और ये दोनों दार्थ अजीव पदार्थके साथ संसारके कारण है । इसलिये भगवान् कुंदवुदने हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रयके भेदसे पुण्य और पापमें भेद होनेपर, भी द्रव्याथिकनयसे उनमें अभेद बतलाते हुए उन्हें संसारका कारण कहा है। वे कहते है-- कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं । कह सं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ।।१४५।। अर्थ :-अशुभ कर्म कुशील है और शुभ कर्म सुशील है ऐसा तुम जानते हो, किन्तु वह सुशील कैसे हो सकता है जो शुभकर्म ( जीवको) संसारमें प्रवेश कराता है ।।१४५।। आचार्य महाराज इस विषय में इतना ही कहना पर्याप्त न मानकर उसे प्रात्माको स्वाधीनताका नाश करनेयाला तक बतलाते है। वे कहते हैं तम्हा दु कुसीलेहि य रायं मा कृणह मा व संसर्ग । साहीणी हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ||१४७१। अर्थ :-इसलिये इन दोनों कुशीलोंके साथ राग मत करो अथवा संसर्ग भी मत कगे, क्योंकि कुशीलके साथ संसर्ग और राग करनेसे स्वाघोनताका नाश होता है ॥१४॥ अशुभ कर्मका फल किप्तीको इष्ट नहीं है, इसलिये उसकी इच्छा तो किसोको नहीं होतो । किन्तु पुण्य कर्मके फलका प्रलोभन छुटना बड़ा कठिन है, इसलिए प्रत्येक मन्य प्राणीको मोक्षमार्गमें रुचि उत्पन्न हो और पुण्य तथा पुण्यके फलमें हो अटक न जाय इस अभिप्रायसे सभी आचार्य उसकी निन्दा करते आ रहे है। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर पं० प्रथर द्यानतरायजीने दशलक्षणधर्म पुजामें स्त्री को विषवेलकी उपमा दी है । इसका अभिप्राय यह नहीं कि वे परम पुण्यशालिनी तीर्थकरकी माता अथवा ब्राह्मी, सुन्दरी, गीता, राजुल, चन्दना आदि जगत्पूजनीय सती साध्वी स्त्रियोंकी निन्दा करना चाहते हैं। इसो प्रकार अशुचि भावनामें शरीर-भोगोंके प्रति अरुचि उत्पन्न करने के अभिप्रायसे यदि पारीरको चिन उत्पन्न करनेवाले अपने नौ द्वारासे Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा मल-मूत्र आदि मलोंको बढ़ानेवाला कहा गया है तो इसका अर्थ यह नहीं कि उस द्वारा १००८ सुलक्षणोंके घारी उत्तम संहनन्दवाले जगत्पूज्य तीर्थंकरके शरीरको निन्दा की गई है। स्पष्ट है कि जहाँ जो उपदेश जिस अभिप्रायसे दिया गया हो वहीं उस अभिप्रायसे उसे शास्त्रोक्त मानना चाहिये । द्वितीय दौर : 2: शंका १३ प्रश्न था कि पुण्यका फल जब अन्त होना तक कहा गया है ( 'पुण्यफला अरहंता' प्र० स० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है, उसे सर्वातिशायी पुण्य बतलाया है (सर्वातिशात्रिं पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतिव्वकृत् ) तब ऐसे पुण्यको होनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानता क्या शास्त्रोक्त है ? प्रतिशंका २ हमारा यह प्रश्न हेतुर्गाभित था 'पुण्य क्यों ग्राह्य है ? - त्याज्य क्यों नहीं है ?' इस बातको सिद्ध करने के लिये हमारे इनमें दो शास्त्रीय वाक्योंके साथ सुन्दर हेतु भी उसी प्रश्न में यथास्थान विद्यमान है । आप यदि उनपर निष्पक्ष भाव से दृष्टिपात करते तो पुण्यके महत्त्व और उसको उपयोगिताको अवश्य निःसंकोच स्वीकार करते। आपने ऐसा नहीं किया । संसारी भव्य प्राणी, जोकि यथार्थ में अपना हितैषी है, उसका उद्देश्य सदा यहाँ रहता है कि मैं अरहंत पद प्राप्त करके जगत्का लक्ष्धार करूँ और मुक्ति प्राप्त कर स्वयं सर्वोच्च नित्य-अन्यायाध सुखी, पूर्ण जातादृष्टश नूँ । बुद्धिमान् भव्य प्राणका यह पुनीत उद्देश्य पुण्य क्रियाओं द्वारा ही सिद्ध हुआ करता है । यह एक निर्विवाद सर्वशास्त्रसंमत बात है; इसी बात को हमारे सर्वोच्च आध्यात्मिक आचार्य श्री कुन्दकुन्दने सर्वमान्य ग्रन्थ प्रवचनसार में 'पुण्यफला अरहंता' आदि ४५ वीं गाया द्वारा स्पष्ट एवं समर्पित किया है । कुन्दकुद आचार्य प्रत्येक मक्तको निष्पक्ष भाग एवं शुद्धभाव से उस उल्लेखको उपेक्षा नहीं करना चाहिये । आपने उत्तर देते समय आध्यात्मिक वाचायके उक्त नष्ट संकेतपर दृष्टिपात नहीं किया और न उसपर अपना अभिमत हो प्रकट किया। यह स्वयं एक चिन्तनोप वार्ता है जो कि बोतराम चर्चाका एक विशेष अंग है ! हमारे लिये आर्ष वाक्य ही तो पथप्रदर्शक हैं उनके अवलम्बनसे ही हमको सिद्धान्त निर्णय करना है । आपने अपने लेख में उत्तर देते हुए प्रारम्भमें जो यह लिखा है कि 'सर्वत्र प्रयोजनके अनुसार उपदेश दिया जाता है, ऐसी उपदेश देनेकी पद्धति है ।' Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६५५ हम इसे हृदयसे स्वीकार करते हैं, परन्तु आप अपनी इस मान्यता पर ही गंभीरता से विचार कर प्रकाश डालें कि जो बात चतुर्थ कालमें भो ग्राह्य थी वह वर्तमान अवनत युग में अग्राह्म या त्याज्य कैसे हो गई ? जिससे पुण्यको त्याज्य बतलानेकी आवश्यकता आज प्रतीत होने लगी। मानवोचित कत्र्तव्य से प्रायः विमुख आज कलकी जनता के लिए तो पुण्याचरणकी मोक्षगमन के योग्य चतुर्थकालकी अपेक्षा और भी अधिक आवश्यकता है । जिस काल में तीर्थकर, सामान्य केवली तथा चरमवारी महर्षियोंका समागम सुलभ था, उस चतुर्थकालमें वे आत्मशुद्धिके लिए जनसाधारणको आचरण करनेका उपदेश देते थे, जिससे प्रभावित होकर चक्रवर्ती सम्राट् तक उसे शिरोधार्य करके महाव्रती पुष्पाचरण करते हुए अपना मनुष्यभन सफल किया करते थे, शुभभावमय पुण्य चारित्रका अवलम्बन लेकर महान् बहिरङ्ग अन्तरङ्ग तपश्चरण करते हुए शुद्धभाव पाकर मुक्ति प्राप्त किया करते थे, भरतचक्रवर्ती, बाहूबली आदिको पुण्यचर्या सर्वविदित है । 'तत्र मुक्ति प्राप्ति के लिए शारीरिक तथा मानसिक क्षमताके अयोग्य निकृष्ट पश्चमकालमें उस परम्परा मोक्षदायक पुण्यभावका उपदेश त्याज्य हो' यह एक महान बाश्चर्यजनक बात इसलिये भी है कि आजके प्राणी के लिए आत्मकल्याणार्थ सिवाय पुण्याचरणके अन्य कोई मार्ग अवशिष्ट नहीं, तथा च आजका सर्वोच्च कोटिका आध्यात्मिक उपदेष्टा भी, स्वयं न तो पुण्य कर्म के शुभफलको त्याग सकता है, न वह पुण्याचरणके सिवाय अन्य कोई उच्च कोटिका शुद्धोपयोगी आचरण कर सकता है, और न वह आत्महित के लिए पुण्यत्रन्धके सिवाय अन्य कुछ ( सर्व कर्मविध्वंस) कर सकता है। तब बतलाइये कि यदि वह दूसरोंको पुण्यावरण त्याग देनेका उपदेश दे तो उसका उपदेश आज कलकी पात्रता के अनुसार क्या उचित माना जाता है ? क्या आज के श्रोताकी पात्रता चतुर्थकालसे भी उच्च है ? इन बड़े टाईप मुद्रित वाक्योंपर निष्पक्ष स्पष्ट प्रकाश डालेंगे ऐसी वाञ्छनीय भाषा है । आपने जो अपने पक्ष पोषण में समयसार ग्रन्थको १४५ वीं गाथा उपस्थित की है, उस गाथा के रहस्य को स्पष्ट बतलानेवाली श्री अमृतचन्द्र सूरिकी टीवनको देखनेका भी यदि आप कष्ट करते तो आशा है पुण्यपोषक इस पथ का उल्लेख करनेका प्रयास माग कभी न करते टीकाकारने शुभ-अशुभ भाव के अनेक विकल्प करके अन्तिम वाक्य जो लिखा है वह मननीय है। टीककार ऋषि लिखते हैं शुभाशुभौ मोक्ष अन्धमार्गीं तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलम ग्रत्वादनेकौ तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म । अर्थ — शुभ तथा अशुभ ( क्रमशः) मोक्षका और बन्धका मार्ग है ( अर्थात् शुभ मोक्षका मार्ग है जब कि अशुभ बन्धका मार्ग हैं ) । अतः दोनों पृथक हैं, किन्तु केवल जीवमय तो मा मार्ग है और केवल पुद्गलमय बन्धका मार्ग है । वे अनेक हैं एक नहीं है, उनके एक न होने पर भी केवल पुद्गलमय वन्यमार्गको आतितके कारण बावके अभेदसे कर्म एक ही है। इस प्रकार इस गाथाकी टीकाका अभिप्राय जीवमय पुण्यको मोक्षमार्ग बतलाकर पुण्यकी उपादेयता - की पुष्टि करता है। अतः यह टीका आपके उद्देश्यके विपरीत है । इसके अनन्तर आपने अपने पाको पुष्ट करनेके लिए उसी समयसार ग्रन्थको एकसी सैंतालीसवीं गाथा उपस्थित को है, किन्तु उसको उपस्थित करते समय सम्भवतः आपने यह विचार करनेका कष्ट नहीं Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ जयपुर ( खानिया ) तस्वचा उठाया कि इस गाथामें शुभ-अशुभ कर्मके साथ संसर्ग करने तथा उनके साथ राग करनेका निषेत्र ग्रन्थकारने किया है। आत्माके पुण्य-शुभ परिणामोंको त्यागनेका उल्लेख इस गाथामें किसी भी शब्दसे प्रगट नहीं किया गया । अतः आपका यह प्रमाण प्रकृतमें आपके अभिप्रायका पोषक नहीं है। टीकाकारको निम्नलिखित दीका दर्शनीय हैकुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसगों प्रतिषिद्धी बन्धहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरेगुकुट्टनी संसगंवत् । अर्थ-कुशोलरूप शुभ-अशुभ कर्मों के साथ राग ( मानसिक भाव ) और संसर्ग ( वाचनिक तथा शारीरिक प्रवृत्ति ) प्रतिषिद्ध है, क्योंकि शुभाशुभ कर्म के साथ राग और संसर्ग बन्धका कारण ई, जैसे मनोज अमनोज्ञ कृत्रिम हथिनीके साथ वनिवासी स्वतन्त्र हाथोको (परतन्त्र बनाने के कारण ) राम और संसर्ग करना निषिद्ध है। हमारा प्रश्न पुण्य आचरणके विषय में था। तदनुसार आपको पण्य आचरण त्याज्य प्रमाणित करने वाला ही शास्त्रीय प्रमाण देना चाहिये । हमने शुभ कर्म की उपयोगिताका समर्थन करनेवाला प्रश्न नहीं किया, अपि तु शुभाशुभ कर्मध्वंग करनेवाले तपोमय एवं परम्परासे मुक्तिके कारणभूत पुण्य आचरणके विषयमें हो हमारा प्रश्न है । अतः आप पुण्य-पाप द्रव्यकर्मकी बात छोड़कर पुण्यभाव-भोपयोगरूप व्यवहार सम्यक चारित्र पर शास्त्रीय प्रमाण सहित प्रकाश डालिये। इस प्रकार आपने अपने पक्षको पुष्टिमें जो तीन बातें कहीं है, उन पर पर्याप्त प्रकाश डालकर, अब कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रन्धोंके पठनीय, माननीय एवं आचरणीय प्रमाण उपस्थित करते हैं। ये प्रमाण आपकी मान्यता को बदलने में आपके लिए अच्छे सहायक होंग। श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसार अ० ३ में लिखते है : असुमोपयोगरहिदा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्ता वा णिरधारगति लोग तेसु पसरथं लहदि भत्ती ॥ २६ ॥ अर्थ-अशुभ उपयोगसे रहित शुद्धोपयोगी अथवा शुभोपयोगो मुनि जनताको संसारसागरसे पार कर देते है, उन मुनियोंका भक्त प्रयास्त सुख या प्रशस्त पद प्राप्त कर लेता है। श्री अमृतचन्द्रसूरि इस गाथाको टीका करते हर लिखते है यथोक्कलक्षणा एवं श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्तरागीच्छेदादशुभोपयोगवियुक्ताः अन्तःसकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुखोपयोगयुक्ताः प्रशस्तरागविषाकाकदाचिच्छुभोपयोगयुक्ताः स्वयं मोक्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति तद्भक्तिभावप्रवृत्तप्रशस्तभा: भवन्ति परे च पुण्यभाजः । अर्थ-पूर्वोक्त लक्षणवाले मुनि मोह, द्वेष और दूषित रागरूप अशुभ उपयोगसे रहित, समस्त कषायों से रहित होने के कारण कदाचित् शुद्धोपयोगी और प्रशस्त रागके उदयसे कदाचित् शुभोपयोगो मुनि स्वयं मोक्षायतन ( मोमस्थान ) रूप होनेसे जगतको तारते रहते हैं । जो व्यक्ति उनकी भक्ति करते हैं वे भो शुभपरिणामी बनकर पुण्यात्मा हो जाते हैं। इसी ग्रन्थका एक अन्य प्रमाण देखिये एसा पसत्यभूदा समणाणं वा पुण घरस्थाणं । चरिया परति भणिदा ता एष परं लहदि सोक्षं ॥३-२५४॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान अर्थ-मुनियोंको प्रशस्त चर्या तथा गृहस्थोंकी प्रशस्त चर्या उत्तम है । वे मुनि तया गृहस्थ अपनी उसी प्रशस्त चर्याद्वारा मोशसुखको प्राप्त करते हैं । टीकाम श्री अमृत चन्द्रसूरिका भाव भी गाथाके अभिप्रायका पोषक है एवमेष शुद्धामानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदय शुद्धात्मप्रकाशिका समस्तविरतिमुपेयुषी कषायणसद्भावाप्रवर्तमानः शुद्धात्मवृत्ति-विरुदरागसंगतत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु समस्त विरतेरभावेन शहात्मप्रकाशनस्याभावाकषायसनावाप्रवतमानोऽपि स्फटिकसंपणाकतेजस इधसा रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्मतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुण्यः । अर्थ-इस तरह यह शुद्ध आत्माका अनुरागरूप शुभ आचार है । यह शुभाचार शुद्ध आत्माको प्रकाशक सर्व विरतिवः ले मुनियों के कषाय अंश रहनेसे शुभ प्रवृत्ति में वर्तमान मुनियोंके शुद्धात्मानुभवके विरोधो राग भाव होनेसे गौण है । गृहस्थोंके सकल चारित्रके अभाव द्वारा शुद्धात्माका प्रकाश न होनेसे और कवायके सद्भावसे तथा रागयुक्त अशुद्ध आत्माका अनुभव होते रहने से परम्परासे परम निर्वाणसुखका कारण होनेसे मुख्य है। इस तरह टीकाकार श्री अमृल चन्द्रसूर अपनी टोकामें श्री कुन्दकुन्द आचार्यके अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मुनिचर्या तथा श्रावक-चर्यारून शुभोपयोग-पुण्याचरण सरागचारित्र या व्यवहार चारित्र मोक्षका कारण है, अतः उपादेय है । इन दो प्रमाणोंसे यह बात सिद्ध होती है कि भोपयोग, पुण्य अथवा व्यवहार चारित्र एक ही अर्थ वाचक पर्याय शब्द हैं । इनको सरागनारिम या सराग धर्म भी कहा जाता है। यह पण्य भाव या शभोपयोग राग भावके सहयोगसे पुण्य कर्मबन्धका कारण है. उसीके साथ-साथ अपनी मथासम्भव विषयमोगोंसे तथा पापक्रियाओंसे एवं मिथ्यात्वको विरक्तिके कारण संवर और निर्जराका भी कारण है । यही विरक्ति मक्ते-२ शुद्ध परिणति में परिणत हो जाती है। इस दृष्टिसे शुभोपयोग या पुण्य भाव शदोपयोगका कारण है। सातवें गुणास्थानका पुण्य भाव ही आठवें गुणास्थानके शुद्धोपयोगमै परिणत हो जाता है। अर्थात् सातिशय अप्रमत्त (सातवें) गुणस्थानके अन्तिम समयको पर्याव शुभोपयोगमयो है और उससे दूसरे समयको आत्मपर्याय शुद्धो. पयोगमयी होती है । इन कारण शुभांपनांग शुद्धोपयोगका साक्षात् कारण भी है और पांचवें छठे गुणस्थानका शुभोपयोग शुद्धोपयोगका परम्परा कारण है । ___इस कार्यकारणभावसे पुण्यभाव या शुभोपयोग परम उपयोगी है। संबर और निर्जराका कारण होनेसे धर्मरूप है । निश्चय धर्म या गुनोपभोग यदि फल हैं तो शुभोपयोग उसका पूर्ववर्ती पुष्ष है। इस कारण सम्बष्टिका पुण्य परम्परासे मुक्तिका कारण होनेसे प्रत्येक व्यक्तिके लिये ग्राह्य या उपादेय है । आठदे गुणस्थामसे नीचेवाले प्रत्येक ब्यक्तिके लिये रंचमात्र भी हेय या त्याज्य नहीं है। इसी बातको पुष्ट करते हुए श्री परम आध्यात्मिक श्री देवसेन बाचायने भावसंग्रह ग्रन्थमें लिखा है : सम्मादिट्ठी पुण्णं ण होह संसारकारण णियमा । मोमवस्स होड़ हडं जड चिणियाणं पा सो कुणह॥ अर्थ---सम्यग्दृष्टिका पुण्यभाव नियमसे संसारका कारण नहीं है । सम्यग्दृष्टि जोव यदि निदान न करे. तो उसका पुण्य मोक्षका कारण होता है। अतः मक्षिका कारणभूत पुण्य त्याज्य किस तरह हो सकता है। ८३ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ जयपुर (वानिया ) तत्त्वचची अणुव्रत-महाव्रतका आवरण तो कुछ दूरको बास है, किन्तु जिनेन्द्र भगवान्का दर्शन करनेरूप पुण्य भाव भी कर्मनिर्जराका कारण होनेसे धर्मरूप है । घबल ग्रंथमें इसका समर्थन करते हुये थी वोरसेन आचार्य ने लिखा है: कधं जिणचिदंसर्ग पढमसम्मत्तुष्पत्तीए कारणं ! जिणबिंबदसणेण णिवत्तणिकाचिदस्स वि मिएकत्तादिकम्मकलावस्त रषयदसणादो । -धवल पुस्तक ६ पृ. ४२७ अर्थ-प्रश्न-जिनेन्द्र प्रतिमाका दर्शन प्रथम सम्यक्त की उत्पत्तिमें किस प्रकार कारण है ? उत्तर-जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमाका दर्शन करनेसे निधत्ति निकाचितरूप मिथ्यात्व आदि कर्म समूहका क्षय हो जाता है। जयधवल में शुभ परिणामोंको कर्मक्षयका कारण बतलाते हुए श्री वीरसेन आचार्य लिखते है :सुहसुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्त्रयाणुववसीदो । जय-धवल पु. १ पृ.५ अर्थ-शुभ और शुद्ध परिणामोंगे यदि कोका क्षय होना न माना जावे सो फिर किसी तरह कर्मोका क्षय ही हो सकेगा। अर्थात् शुभ परिणामों (पुण्यभाबों) से भी कोका क्षय हुमा करता है। श्रीबीरसेन स्वामी श्री धवल सिद्धान्त ग्रंथमें शुभोपयोगरूप धर्मध्यानका कर्म निर्जराके लिये कारण रूपमें उल्लेख करते ए निम्मप्रकार कथन करते है : जिणसाहुगुणुक्कितणपसंसणा घिणयदाणसंपण्णा ! सुहसीलसंजमरदा धम्मरमाणे मुणेयम्वा ॥५५॥ किं फलमेदं धम्मज्माणं ? अक्खवयेसु विउलामरसुहफलं गुणसेणीए कम्मणिज्जराफलं च । खवएसु पुण असंखेज्जगुणसेढीकम्मपदेसणिज्जरणफलं सुकम्माणमुक्कस्साणुभाग-विहाणफलं च । अतएव धर्मादनपेतं धबध्यानमिति सिहं । -धवल पु. १३ पृ०७६-७७ अर्थ-जिन और साधुके गुणोंका कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दान सम्पन्नता, श्रुत, शोल और संचममें रत होना-ये सब बातें धमध्यानमें होती है, ऐसा जानना चाहिये। बांका-इस घमध्यानका क्या फल है ? । समाधान--अक्षाफ जीवोंको देवपर्यायसम्बन्धी विपुल सुख मिलाना उसका फल है और गुणश्रेणी में कर्मको निर्जरा होना भी उसका फल है। तथा क्षचक जीवोंके तो असंख्यात मुणवेणीरूपसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभकर्मोके उत्कृष्ट अनुभागका होना उसका फल है । अतएव जो धर्मसे अनऐत है वह धर्मध्यान है, यह बात सिद्ध होती है । घो अमृतचन्द्र सूरि व्यवहारधर्मके विषय में लिखते हैं : असमनं भाषयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धी यः । स विपक्ष क्रतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः ॥२११॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६५९ अर्थ - अपूर्ण रत्नत्रय अर्थात् शुभोपयोगवाले व्यक्ति के भाव मोक्षके उपाय रूप होते हैं । उस व्यक्ति जो कषायांश होता है, वह कर्म-बन्धकारक है, उसका पूर्ण रत्नत्रय ( व्यवहारचारित्र अंश) कर्मबन्धका कारण नहीं हूँ । अर्थात् अपूर्ण रत्नत्रयस्वरूप सरागसंयम या ( ५-६ ७वें गुणस्थानका ) पुण्य माचरण कर्मबन्ध के साथ कर्ममोक्षका भी कारण है । श्री देवसेन आचार्य भावसंग्रह निर्जराका कारण हैं: आवासयाई कम्मं विज्ञावच्चं य दाणपूजाई । जं कुडू सम्मदिट्ठी तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥ ६१०|| अर्थ-दृष्टि जो छ आवश्यक कर्म, वैयावृत्य, दान, पूजा बादि करता है, वे सब कार्य कमकी निर्जराके कारण हूँ | श्री परमात्मप्रकाशकी टीकामें श्री ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं यदि निजशुद्धात्मैवापादेय इति मत्वा तत्साधकत्वेन तदनुकूलं तपश्चरणं करोति, तत्परिज्ञानसाधकं च पठति तदा परस्पराचा मोक्षसाधकं भवति, नो चेत् पुण्यकारणं तत्रैवेति । -- अ० २ गा० १९१ की टीका अर्थ-यदि निज 'शुद्ध आत्मा ही उपादेय है, ऐसा मानकर उसके साधकपने से उसके अनुकूल तप करता है और शास्त्र पढ़ना है तो वह परम्परासे मोक्षका ही कारण है, ऐसा नहीं कहना चाहिये कि वह केवल पुण्यबन्धका ही कारण है । ये निदानरहितपुष्यसहिताः पुरुषास्ते भवान्तरे राज्यादिभोगे लब्धेऽपि भोगांस्तयक्त्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा चोध्वगतिगामिनो भवन्ति । - अ० २ गा० ५७ की टीका भव में राजादिके भोग पाकर भी उन अर्थ – जिन पुरुषोंने निदानरहित पुण्यबन्ध किया है वे दूसरे भोगोंको छोड़कर बलदेव आदिके समान जिनदोक्षा ग्रहण कर मोक्षको जाते हैं । उभयभ्रष्टता यदि पुनस्तथाविधावस्थामलभमाना ( निर्विकल्पसमाध्यलभमाना अपि सन्तो गृहस्थावस्थायां दानपूजादिकं त्यजन्ति तपोधनावस्थायां षडावश्यकादिकं च व्यस्वोभयभ्रष्टाः सन्तः तिष्ठन्ति तदा दूषणमेवेति तात्पर्यम् । - अ० २ दोहा ५५ की टीका अर्थ — जिसने उस प्रकारकी अवस्थाको प्राप्त नहीं किया निर्विकल्प समाधि प्राप्त नहीं को है ) वह यदि गृहस्थ अवस्था में दान, पूजा आदि छोड़ देता है और मुनि अवस्था में षट् आवश्यकको छोड़ देता हूँ तो वह दोनों ओरसे भ्रष्ट हैं और वह दूषण हो है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा निष्कर्ष इस तरह परम आध्यात्मिक ऋषि श्रीआचार्य कुन्दकुन्द, श्रीअमृत चन्द्र सूरि, श्री वीरसेन आचार्य आधिके आर्ष प्रमाणोंसे प्रमाणित होता किपण्यभाव अर्थात दौथे, पांचवें, छटे व गातवें गणस्थानका शभपरिणाम या व्यवहार चारित्र कोंके संवर तथा निर्जराका भी कारण है। ( इनमें जितना रागांश है उससे शुभास्रव बन्ध होता है तथा जितना निवृत्ति अंश है उससे निर्जरा होती है। सानिशय अप्रमत्त गुणस्थानके अन्तिम समयका पुण्यभाव दूसरे समयमें शुद्धोपयोगरूप हो जाता है । इस तरह जब पुण्यभाव और शुद्ध भावमें उपादान-उपादेयभाव है तब शुद्ध परिणतिका भी जनक पुण्यभाव त्याज्य या हेय किस तरह हो सकता है ? अर्थात् सम्यग्दृष्टिका पुण्यभाव स्याज्य नहीं है। अत: प्रवचसारवर्ती श्री कुन्दकुन्द आचार्यका वचन-पुण्णफला अरहन्ता' श्री कुन्दकुन्दाचार्य के प्रत्येक भवतको श्रद्धा साध सत्य मानते हुए अरहन्त पदपर भी बिठा देनेवालें पुण्यभावको हेय ( छोड़ने योग्य) कभी न समझना चाहिये न कहना चाहिये, क्योंकि बिना पुण्यभाव के ( गुणस्थान क्रमानुसार ) शुद्धभाव विकालमें भी नहीं हो पाते। शंका १३ पुण्यका फल जब अरहन्त होना तक कहा गया है ( पुण्यफला अरहता प्र. सा० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है, उसे सर्वानिशायी पुण्य बताया है ( सर्वासिशायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् ) तब ऐसे पुण्यको हीनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? __ प्रतिशंका २ का समाधान समाधान में यह स्पष्ट बताया गया था कि सबंत्र प्रयोजनके अनुसार उपदेश दिया जाता है । प्रतिशंका २ में उसे हृदयसे स्वीकार भी कर लिया गया है, फिर भी यह प्रश्न उठाया गया है कि 'जो बात चतुर्थ कालमें भी ग्राहा थो वह पंचमकालमै अग्राह्य फैमी ?' समाधान यह है कि मोक्षमागका प्ररूपण कालभेदसे नहीं बदलता है, पुण्ण और पाप ये दोनों कर्म के भेद हैं और इन्हें नाश कर हो मोक्ष प्राप्त होता है यह जैनमार्गकी प्रक्रिया है, जिसे सब जानते हैं। 'पुण्यका फल अरहन्त है, वह सर्वातिशायि पुण्यसे त्रैलोक्यका अधिपति बनता है।' ये शास्त्रों में वाक्य प्रमाणीभूत है पर देखना यह है कि किस बिधशासे इनका निरूपण है। बारहवें गूणस्थानमें सर्वमोहके श्रीण हो जानेपर जो वीतराग भाव होता है वह अरहन्त पद ( केवलीपद) का निश्चयसे हत है। उस समय जो शुभप्रकृतियोंका कार्य है उसमें इसका उपचार होनेसे उस पुण्यको भी अरहन्त पदका कारण ( उपचार ) से भागममें कहा गया है । अन्यथामोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायशयाच केवलम् । -त. सू०, अ० १०, सू०१ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६६१ इस आगम वचन द्वारा जो मोहके क्षय और धानावरण-दर्शनावरण-अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान बतलाया है उसमें उक्त प्रमाणकी संगति कैसे बैठ सकती है। वीतराग अन्तरंग - बहिरंग परिवहरहित केवल भगवान् अनुमान पर पदार्थ स्वामी नहीं है। फिर भी उन्हें तीन लोकका स्वामी कहा गया है सो क्या यह निश्चय कथन है या मात्र लोग लोक प्राणियां श्रद्धाभाजन होनेसे उनमें तोन लोकके अधिविका उपचार हैं, विचार कीजिये । स्पष्ट है कि इस उपचरित अधिपतित्वका कारण ही उम सर्वातिशायी पुष्पको कहा गया है। सम्पदृष्टि जोके भेदविज्ञानको जागृति साथ पापविरक्ति तथा शुभप्रवृति होती है। यतः यह निश्चयधर्मका सहचर हूँ । अतः हम व्यवहार धर्मस्त्ररूप पुण्याचरणका उपदेश आगम में दिया गया है पर पुण्य मोक्षका हेतु नहीं है। मोक्षका हेतु तो वह वीतरागता है जो पुण्यभावके साथ चल रही है। अतः परमार्थमे gor और पापको बन्धका तथा वीतराग भावको मोक्षका कारण मानना यथार्थ है । समयसार गाथा १४५ का प्रमाण हमने देकर यह सिद्ध किया था कि वह सुशील कैसे हो सकता है। जो शुभ कर्म जीवको संसार में प्रवेश कराया है। गाथा अभिप्रायको ठीक कर इसे पुण्य पोषक बतलाया गया है जो असंगत है। गाथा के उत्तरार्धका सीधा अन्वय है कि : 'वत् संसारं प्रवेशयति कथं तत् सुशी भवति' अर्थात् जो जीवको संसारमें प्रवेश करता है उसे कैसे कहें। टीका भी गाय अनुरूप ही है, टीकाके अर्थ करनेमें विपर्यास हुआ है इतना ही संकेत मात्र हम यहाँ करना चाहते हैं उसे जागेको गाथा १४६ और १४७ के प्रकाश देखें तो सब स्पष्ट हो जायगा । गाथा १४७ की टीका में यह स्पष्ट बतलाया है किकुशीलमाशुभकर्म सह रागसंगी प्रतिषिद्धी अर्थ- कुशलस्वरूप शुभ और अशुभ कर्मोोंके साथ हेतु है। हेतुत्वात् । राग और संसर्गका निषेध है, क्योंकि वे ब कुन्दकुन्दस्याने समयसार जी की दृष्टिसे पुण्य पापको समानता इनमें स्पष्ट रूपसे बताई है। तब 'पुष्फला अहंता' का अर्थ दण्डी कुन्दकुन्दस्वामीने प्रवधनसार में किस गरी दिखा है यह विवेकियोंके ज्ञान में सहज ही आ जायगा । पुण्यका त्याज्यपना इसी दृष्टिसे आगम में प्रतिपादित है और पुण्यके साथ होने बाबा और लक्ष्य देकर पुण्यको उपचारसे उपादेय भी पाया गया है। दोनों दृष्टिय प्यान में लेने पर कोई विशेष नहीं रह जाता। यदि उक्त प्रदन] पुण्यावरू शुभाशुभ कर्म और शुभाशुभ परिणामते अभिप्राय नहीं है, किन्तु 'चरण से है जैसा कि प्रतिका २ में लिखा है तो पुष्यका अर्थ यहाँ 'क' समझा गया और पवित्रा चरणका अर्थ पुण्यपापमल रहित वीतराग भाव हो हुआ सो वीतराग भावका फल 'अरहन्त पद' है, ऐसा मानने में कोई आपति नहीं है पर मूल प्रश्न में पुण्याचरण शब्द नहीं या 'पुण्य' शब्द था, अतः उसकी मीमांसा । की गई थी। वीतराग भाव वाचरण ही सर्वत्र सिद्धिका कारण है यह प्रतिशंकामे प्रयुक्त उदाहरणों से भी स्पष्ट है। प्रतिशंका २ के बत निष्कर्ष निकालते समय यह बात लिखते हुए कि 'शुभपरिणाम संदरनिर्जराका भी कारण है, वह भी स्वीकार कर लिया गया है कि जितना शांत है उससे सुभाखव-बंध होता है तथा जितना निवृति अंश है उससे संगर- निर्जरा होती है। इस निष्कर्षमें ही जब शुभ रागाको बंधमा लिया गया है सब यह प्रश्न स्वयं प्रश्न नहीं रह जाता। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय दौर शंका १३ पुण्यका फल जब अरहंत होना तक कहा गया है (पुण्यकला अरबंता प्र० सा० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है उसे सर्वातिशायी पुण्य बतलाया है, ( सर्वाति शायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतित्वकृन् ) तब ऐसे पुण्यको हीनोपमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? प्रतिशंका ३ यह प्रश्न जीवके पुण्य भावको अपेक्षासे है। इस बातको हमने अपने द्वितीय प्रपत्र में हार कर दिया या तथा यह भी स्पष्ट कर दिया था कि शुभोनयोग, पुण्यभाव पबहार धर्म एवं व्यवहार चारित्र-ये एकार्थवावी शब्द है । फिर भी आपने पुण्यरूप व्यकर्मको अपेक्षासे हो उत्तर प्रारम्भ किया है। द्रश्यकर्मकी अपेक्षा से स्पष्टीकरण अस्त किया जायगा। प्रथम तो जीवके भावकी अपेक्षासे स्पष्टीकरण किया जाता है। आपने लिखा है कि 'सम्यग्दृष्टि जीवके भेदविज्ञानको जागृति के साथ-साथ पापसे विरक्ति तथा शुभप्रवृत्ति होती है।' इस मिथित अखण्ड पर्यायका नाम शुभोपयोग है। इसमें प्रशस्त राग भी है तथा सम्यक्व व पापोंसे विरक्तिरूप चित्तको निर्मलता भी है। श्री पंचास्तिकाय गाथा १३१ की टोकामे शुभभावका यह हो लक्षण दिया गया है: यत्र प्रशस्तरागश्चितप्रसादश्च तत्र शुभपरिणामः। अर्थ-जहाँ प्रसस्त राग तथा चित्तप्रसाद है वहीं शुभ परिणाम है । यह टोका मूल गाथाके अनुरूप ही है। मूल गाथामें भी 'चित्तप्रसाद' दिया है। चित्तप्रसादका अर्थ चित्तको स्वच्छता, उज्वलता, निर्मलता, पवित्रता प्रसादका अंग्रेजी में भो अर्थ Purity किया है। यह निमलता पापांसे विरक्ति आदि रूप ही तो है । श्री प्रवचनसार गाथा में भी कहा है कि जिस समय जीव अराभ, शुभ या शुद्ध रूप परिणमता है उस समय वह अशुभ, शुभ या शुभ है। अर्थात् एक समयमें एक ही माव होता है और उस समयकी अखण्ड (पूर्ण) पर्यायका नाम ही अशुभ, शुभ या शुद्ध भाव है। अतः यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दृष्टिले मात्र समांशका नाम शुभ भाव नहीं है किन्तु उसकी मिश्रित अखण्ड पर्माय ही का नाम शुभ भाव है। उसमें रागांशसे बंध और निर्मल अंशसे संबर-निर्जरा होते हैं। उस शुभ भाव वा व्यवहार धर्म में भी लक्ष्य या ध्येय वीतरागता एवं शुद्ध अवस्था अर्थात् मोक्ष को प्राप्ति हो रहती है। पर्यायकी निवसता के कारण वह जोव वीतरागता में स्थित नहीं हो पाता है। इस कारण उसको राग व विकल्प करने पड़ते हैं, किन्तु उस राग या विकल्प द्वारा भी वह वीतरागताको ही प्राप्त करना चाहता है। जैसे पं० श्री दौलतरामजोने कहा है संयम घर न सके संयम धारणकी उर घटापटी। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का १३ और लमका समाधान जो जिस वस्तु का इच्छुक होता है वह उसी वस्तुके पारो की श्रद्धा, ज्ञान न पूजादि करता है । जैसे धनुर्विद्याका इच्छुक धनुर्वेद के विशेषज्ञका तथा धनार्थी राजा आदिका श्रद्वान, मान व पूजासत्कारादि करता है । कहा भी है यो हि यत्प्राप्त्यर्थी सः तं नमस्करोति यथा धनुर्वेदप्राप्यर्थी धनुर्विदं नमस्करोति । इसी प्रकार वह व्यवहार सम्यग्दृष्टि वोतरागताकी प्राप्तिका इच्छुक होनेसे वीतराग देव, वीतराग गुरु और वीलरागताका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका ही श्रद्धान, ज्ञान एवं पुजा, सत्कार, सेवा आदि करेगा। जैसे धनवेदक विशेषज्ञ या राजादिको पूजा सत्कारादि घनविद्य! या धनकी प्राप्ति साधक निमित्त कारण है, उमी प्रकार वातराग देशदिको पूजादि भी वीतरागता प्राप्त करने में साधक निमित्त कारण है । अर्थात् धीतराग देवादिकी पूजादि रूप आचरण वीतरागताके ही कारण है । श्रोतगग देवके गुणोंमें जो उमका अनुराग है, वह उन गृणों की प्राप्तिके लिये ही है । कहा भी है-'वन्दे शष्ट्गुणलव्यये' अर्थात् उन गुणोंकी प्राप्तिके लिये हो वन्दना करता हूं। उसका यह भाव नहीं कि मैं सदा इसी प्रकार बना रहूँ। किन्तु वह उसी समय तक पूजादि करता है जब तक वह स्वयं वीतरागी नहीं बन जाता है। जैसे धनुविद्याका इच्छुक उसी समय तक गुरुका आश्रय लेता है जब तक वह स्वयं धनुर्वेद विशेषज्ञ नहीं बन जाता है। कहा भी है भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवनि तादृशः । वर्तिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति ताशी ॥ १७ ॥ -समाधिशतक अर्थ-यह जीव अपनेसे भिन्न अर्हन्त-सिद्धस्वरूप परमात्माकी उपासना करके उन्हीं के समान अहन्त-सिद्धरूप परमात्मा हो जाता है। जैसे कि बत्ती, दीपकसे भिन्न होकर भी, दीपककी उपासनासे दीपकस्वरूप हो जाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भगवान की उपासना पासकको भगवान ही बना देती है। परमपं जाणतो जोई मुञ्चेइ मलबलोहण । णादियदि णवं कम्मं शिद्दिष्टुं जिणवरिंदेहिं ॥४॥ -मोक्षपाहुड अर्थ :-जो योगी परमात्माको ध्यावता संता वर्ने है सो मलक. देनहारा जो लोभकषाय ताकरि छूटे है और नवीन कर्मका आश्रय न होय है-ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है अर्थात परमात्माके ध्यानसे संवर तथा निर्जरा होती है एवं लोभके छुट जाने पर केवलशान स्वयं प्राप्त हो जाता है। श्री प्रवचनसार गाथा ८० में भी कहा है: जो जाणदि अरहंत दग्वताणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अग्याणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।।८।। अर्थ-जो अरहन्तको द्रव्यपने, गुणपने और पांघाने से जानता है वह अपनी आत्माको जानता है और उसका मोह अवश्य लय (नाश) को प्राप्त हो जाता है। जैसे कोई पुरुष धन कमाने के लिये कोई व्यापार शुरू करता है । उस व्यापार में जो कुशल है ससका आश्रय भी लेता है और दुकान पर आवश्यक व्यय (खर्च) भी करता है। किन्तु इस प्रकार व्यय करवे, कई Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा गुनी आय (आमदनी) करता है। यह व्यापारी बराबर ध्ययको कम करता जाता है और आयको बढ़ाता जाता है। उस व्यापारमें प्रय होते हुए भी क्या उस व्यापारको व्यय या हानिका मार्ग कहा जा सकता है ? कदाधित नहीं कहा जा सकता है। वह तो आयका ही मार्ग है। इसी प्रकार शभोपयोगी जीव वीतरागताको प्राप्तिके लिये वीतराग देव, गुरु तथा शास्त्रका आश्रय लेता है और उनकी भक्ति पूजाधि करता है। इसमें जितना रागांश है उससे प्रशस्त बन्ध भी होता है, किन्तु विरक्ति अंश द्वारा बन्धसे निर्जरा कई गुनी अधिक होती है, क्योंकि वह उस समय सांसारिक इच्छाओं तथा भोगोसे एवं पंच पापसे विरक्त हैं। इस प्रशस्त बन्धसे भी ऐसी सामग्री (व्य, क्षेत्र, काल तथा भव) प्राप्त होती है जो मोक्षमार्गको माधक होती है। वह स्वयं वीतरागताको बढ़ाता हुआ शुभरागको छोड़ता जाता है और इस प्रकार विशुद्धि बड़तो जाती है । अन्तमें सम्पूर्ण मोहनीय कर्मका क्षय कर परम वीतरागी हो जाता है। ऐसी दशामे प्रशस्त बन्ध होते हुए मी, क्या उस शुभ भाव (व्यवहार धर्म) को बन्धका मार्ग कहा जा सकता है? कदापि नहीं कहा जा सकता है। यह तो मोक्षका ही मार्ग है अर्थात् संसार सागरके पार करने को तीर्थ है । श्रो समयसार गाथा १२ व उसकी टीकामें भी यही कथन किया है कि जब तक आत्मा शुद्ध न हो जाय तबतक व्यवहार प्रयोजनवान् है। एक प्राचीन गाथा देकर यह सिद्ध किया है कि व्यबहार छोड़ देनेसे तीर्थ (माग) छूट जायया । यह स्पष्ट ही है कि मार्ग छूट जाने पर मोक्ष को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। सुद्धो सुद्धादेसो गायत्रो परममावदरिसीहि । घबहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे लिंदा भावे ॥१२॥ -समयसार अर्थ--जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान् हुये तथा पूर्ण ज्ञान चारित्रवान हो गये उन्हें तो शुद्ध (आरमा) का उपदेश (आशा) करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरम भावमें-अर्थात् श्रद्धा तथा ज्ञान चारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुँच सके हैं, साधन अवस्था हो स्थित है वे व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं। टीकाका उत्तरार्ध-ये सु प्रथमहितीयाद्यनेकपाकपरंपरापच्यमानकातस्वरस्थानीयमपरमं भावमर्नुभवति तेषी पर्यतपाकोतीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीपरमभावानुभचनशून्यत्वादशुद्ध द्रव्यादेशिसयोपदर्शितप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयवास्परिज्ञासमानस्तदावे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्यमेव व्यवस्थितस्यात् । उक्तं च-जन जिणमयं पवजह ता मा घवहारणिच्छप, मुयह । एकण विणा किन तिथं अण्णण उण तच्च । अर्थ-जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों (तावों) को परम्परासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जो (वस्तुका) अनुत्कृष्ट-मध्यम भावका अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम सावसे उतरे हुए शुद्ध स्वर्णके समान उत्कृष्ट भावका अनुभव नहीं होता, इसलिये, बद्ध द्रव्यको कहनेवाला होनसे जिसने भिन्न-भिन्न एकएक भावस्वरूप अनेक भाव दिखलाये है ऐसा व्यवहारनय विचित्र अनेक वर्णमाला के समान होनेसे जाननेमे आता हुअा उस काल प्रयोजननात् है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थक फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है। (जिसे तिरा जाये वह तीर्थ है, ऐसा व्यवहार धर्म है, और पार होना व्यवहार धर्म का फल है अथवा अपने स्वरूपको प्राप्त होना तीर्थफल है)। अन्यत्र भी कहा है कि यदि तुम जिनमतका प्रवाना करना चाहते हो तो व्यवहार Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६६५ और निश्चय दोनोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारमय के बिना तो तीर्थ-व्यवहारमार्गका नाश हो जायगा और निश्चयतय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा । grafi भावार्थका उत्तरार्थ :- जहतिक यथार्थ ज्ञान श्रद्धानकी प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं हुई हो बहाँतक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है ऐसे जिन वचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिन वचनों को कहनेवाले श्री जिनगुरुकी भक्ति, जिनबिम्बके दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्ग में प्रवृत्त [होना] प्रयोजनवान् है । जिन्हें श्रसन- ज्ञान तो हुआ है, किन्तु साचात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वऋति कार्य परद्रव्यका अलम्बन छोड़ने अणुव्रत, महात्रतका ग्रहण समिति, गुप्ति और पंच परमेशीका ध्यान रूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंको संगति एवं विशेष जाननेके लिये शास्त्रोंका अभ्यास करना, इत्यादि व्यवहार मार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरोंको प्रवर्तन कराना - - ऐसे हारनयका उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान् है । व्यवहारनयको कथंचित् समस्या कहा गया है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप arrant ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगको साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिये उल्टा अशुभ प्रयोग ही आकर भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादिगति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा। इसलिए बुद्धन का विषय को साक्षात शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्ति जबतक न हो तबतक व्यवहार भी प्रयोजनवान् है - ऐसा स्वाद्वाद मतमें श्री गुरुमों का उपदेश है ( सोनगढ़ निवासी श्री हिम्मतलालकृत टोका हिन्दी अनुवादसहित] मारोठसे प्रकाशित समयसारके पृष्ठ २५ से २७ तक । ) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-वारिकी पूर्णता १३ गुणस्थानतक साम्रक अवस्था है और वहाँतक प्राप्त हो जानेपर साधक ( मार्ग ) का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है। भावार्थ विशेष ध्यान देनेयोग्य है, क्योंकि इसमें गाथा तथा टोकाका भाव स्पष्ट किया गया है । पण्डितश्वर जयचन्दजोने भो भावार्थमे यहो आशय प्रगट किया है । उपरोक्त कथनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि मिध्यादृष्टिके द्वारा किया हुआ व्यवहार भो सम्यक्त्वकी प्राप्ति के लिये साधन है। इस विषयको आगम प्रमाणसहित आगे स्पष्ट किया जायगा । टीका के अन्त में दो गई प्राचीन गायासे स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहार धर्मके बगैर शुद्ध आत्माको प्राप्ति नहीं हो सकी। शुद्ध आत्माको प्राप्त किये बगैर तज्जन्य सुखका अनुभव भी नहीं हो सकता है । जैसे मिठाई का स्वरूप जानने मात्र से मिठाईका स्वाद और सज्जन्य सुन्न नहीं प्राप्त हो सकता है। निश्चयके वगैर साध्य नहीं रहेगा और माध्य बगैर साधन किसका किया जायगा । अतः व्यवहार व विश्वव दोनों आवश्यक है। पुष्यरूप व्यवहार प्राथमिक अवस्था में कार्यकारी है, क्योंकि यह निश्चयरूप साध्यका साधन है । कहा भी है---- व्यवहारनयेन भिन्नसाध्यसाधन भात्रमवलम्ब्यानादिभेदवासितबुद्धयः सुखेनैवावतरन्ति तीर्थ प्राथमिकाः । गुणस्थान में होती है । अतः उपरोक्त कथनानुसार १२ व्यवहारधर्म प्रयोजनवान् है । सो ठीक है, क्योंकि साध्य के - पंचास्तिकाय पृ० २४५ - २४६ रायचन्द ग्रन्थमाला गर्थात् जो जीव अनादि कालसे लेकर भेदभाव कर वासितबुद्धि है, वे प्राथमिक व्यवहार अवलम्ब होकर मिन साध्यसाधनभावको अंगीकार कर तोर्थको प्राप्त करते हैं । ८४ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा श्री अमृत उपर्युक्त इसी बात को श्रीमान् पं० फूलचन्द्रने स्वयं इन शब्दोंद्वारा स्वीकार किया है— कहीं-कहीं शुमक्रियाको धर्म कहा जाता है। माना कि यह कथन उपचारमात्र है । पर कहीं-कहीं उपचार कथन भी ग्राह्म होता है। कारण कि शुभक्रियामें हिंसादि अशुभ क्रियाओंकी निवृत्ति छिपी के लिए जीवको यद्यपि अशुभ और शुभ दोनों प्रकारकी क्रियाओंसे निवृत्त होना है, किन्तु प्रागवस्था में अशुभसे निवृत्ति भी प्राय मानी गई है। यही कारण है कि ग्रन्थकारने धर्मके स्वरूपका विवेचन करते हुए हिंसा आदि अशुभ क्रियाओंके त्यागकी भी धर्म कहा है। - पंचाध्यायी पृ० २६७, वर्णी ग्रन्थमाला श्री समयसार गाथा १४५ की टीका में भी जीवके शुभभावको मोक्षमार्ग बतलाया है, जिसका उद्धरण हम दूसरे प्रपत्र में दे चुके हैं। परन्तु आपने उसपर यह आपत्ति उठाई हूँ कि 'टोकाके अर्थ करने पर्या हुआ है। अतः पंडितप्रवर जयचन्दजीकृत तथा अहिंसा मंदिर, दिल्ली से प्रकाशित अर्थ नीचे दिये जाते हैं-'शुभ अथवा अशुभ मोक्षका और अन्धका मार्ग ये दोनों जुड़े हैं। कंवल जीवमय तो मोक्षका मार्ग हैं और केवल पुद्गलमय बन्धका मार्ग है । - पं० श्री जयचन्द्रजी शुभ अथवा अशुभ मोक्षका और बन्धका मार्ग 'ये दोनों पृथक है, केवल जीवमय तो मोक्षका मार्ग हैं और केवल पुद्गलमय बन्धका मार्ग है । - दिल्ली से प्रकाशित श्री समयसार के उपरोक्त स्पष्ट प्रमाण वहारधर्मको मोक्षमार्ग सिद्ध करते हैं। इस सम्बन्ध में श्री वल, जयधवल आदिक ग्रन्थोंके प्रमाण द्वितीय पत्रिका में दिये जा चुके हैं। अब आगे कुछ अन्य प्रमाण भो दिये जाते हैं : तं देवदेवदेवं अदिवरवसह गुरू तिलोयस्स | पणमंत जे मणुस्सा ते सोक्खं अवश्य जंति | - श्री प्रवचनसार गाधा ७९ के बाद श्री जयसेन टीका में दी गई है । अर्थ – उन देवाधिदेव, यतिवरवृषभ त्रिलोक गुरुको जो मनुष्य नमस्कार करता है वह अक्षय (मोक्ष) सुखको प्राप्त करता है। देवगुरूणं भत्ता गिरवेयपरंपरा विचितिता । झारा सुचरिता ते गहिया मोश्खमग्गमि ॥ ८० ॥ -- मोक्षप हुड अर्थ — जो देव गुरुके भक्त हैं, निर्वेद कहिये संमार-देहू -भोगते त्रिरागता की परंपराक्को तिन करे हैं, ध्यान विषे रत हैं, बहुरि सुचारिकवाले हैं, ते मोक्षमार्ग दि ग्रहण किये हैं । देवगुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजुदेसु अणुरतो । सम्मत्तमुखहंतो ज्ञाणरओ होद जोई सो || ५२|| - मोक्ष पाहुड Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६६७ अर्थ-को योयो सम्यक्त्व क घरता संता देव तथा गुरु विर्षे भक्तियुक्त है. बहुरि साधर्मों संयाभ्यां में अनुरक्त है सोई योगो ध्यानमै रत होय है। निम्नलिखित गाथाएँ आमार्य कुन्दबुन्द विरचित थी रयणसारकी है : भयवसणमलविवज्जियसंसारसरीरभीगणिचिणी। अवगुणं यसमगमो दंसणसुद्धो दु पंचगुरुभत्तो ।।५।। अर्थ :--मय व व्यसनके गलसे रहित और संसार शरीर-भोगोंसे विरक्त पंचपरमेष्ठीका भक्त अष्टगुणांगसे पूर्ण सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है । देवगरूसमयभत्ता संसारसरीरभोयपरिचता । स्यणत्तयसंजुसा ते मणुवा सिवसु पत्ता ।।९।। अर्थ-देव-गुरु-शास्त्र भक्त, संसार-शरीर-भोगस विरक्त और रत्नत्रय सहित मनुष्य हो शिवमुखको प्राप्त करता है। दाणं पूजा सीलं उपवासं बहुविहं पि रखवणं पि । सम्मजुदं मोक्षसुहं सम्म विण दीहसंसारे ॥१०॥ अर्य--दान, पूजा, शील, उपत्रास और बहु प्रकार क्षमादि भी, यदि सम्यक्त्व सहिन है तो मोक्ष सुखके कारण है, यदि सम्यक्त्व रहित हैं तो दोघं संसारके कारण है। जिणपूजा मुणिदाणं करेइ जो देह सत्तिरूवेण । सम्माइट्ठी सावयधम्मी सो होइ मोक्रसमग्गरो ।।१३।। अर्थ-जो शक्तिपूर्वक जिनपूजा करता है और मुनियों को दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रादकधर्मी मोक्षमार्गरत होता है। पूया (य) फलेण तिलोए सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो । दाणफलेण तिलोए सारसुह मुंजदे णियदं ॥१४|| शुद्ध मनवाला पुरुष पूजाके फलसे नीन लोकमें देवोंकर पूज्य होता है और दानके फल से नियमपूर्वक तीन लोकमें सारसुख (मोक्ष सुन) भोगता है। निम्नलिखित गाथाएं आचार्य श्री कुन्दकुन्दकृत श्री मूलाचारकी है : अरहसणमोकारं भाषेण य जी करेदि पनडमदी। सो सबबुक्खमोक्रवं पावदि अचिरेण कालेण ॥६॥ अर्थ – भक्सिसे एकाग्रचित्त होकर जो अरहन्तको नमस्कार करता है वह अति शीघ्र ही सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त होता है। श्रो धवल पुस्तक १ पृ० १ पर यही गाया प्रमाणरूपसे दो गई है। इसी प्रकार माथा : में सिद्ध नमस्कारसे, गाथा १२ में आचार्य नमस्कारसे, माथा १४ में उपध्याय नमस्कारसे, और गाथा १६ में साधु नमस्कारसे सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त होना कहा है। एवं गुणजुन्ताणं पंचगुरुणं विशुद्ध करणेहिं । जो कुणदि णमोक्कारं सो पाच दि णिन्वुदि सिग्धं ॥१७॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अर्थ-इस प्रकार गुणयुक्त पंचपरमेष्ठियोंको जो भव्य निर्मल मन, वचन तथा नायसे नमस्कार करता है वह निर्षाण सुखको प्राप्त करना : भत्तीए जिणवराणं खोयदि य पुरवसंचियं कम्म । आयरियपसाएण य विजामंता व सिझति ।।८१॥ अर्थ-जिनेश्वरको भक्तिसे पूर्व संचित कर्मका नाश होता है । आचार्यको कृपासे विद्याओंको तथा मन्त्रोंको सिद्धि होती है। द्वादशांगमें तीन भक्ति संसार विच्छेदका कारण है। ...-श्री घनल पु० १ पृ० ३०२ दाणु ण विष्णउ मुनिवरह कवि पुजिउ जिपपाहु । पंच प्य बंदिय परमगुरू किमु होसह सिंघलाहु ।।१६।। -परमात्मप्रकाश अ०२ अर्थ-मुनीश्वरोंको दान नहीं दिया, जिनेन्द्र भगवान् को नहीं पूजा, पंच परमेष्ठीको वन्दना (पूजा) नहीं को, तब मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है। जन्मारण्यशिखी स्तवः स्मृतिरपि क्लेशाम्बुधे? पदे। भक्कानो परमी निधिः प्रतिकृतिः सर्वार्थसिद्धिः परा । बन्दीभूतपसोऽपि नोतिहतिर्नन्तुश्च ये वो मुदा । दातारी जयिनी मवन्नु घरदा देवेश्वरास्ते सदा ।।११५॥ –श्री समन्समदरचित स्तुतिविद्या अर्थ-जिनका स्तवन संसाररूप अटवीको नष्ट करनेके लिये अग्निके समान है, जिनका स्मरण दुःखरूप रामुद्रसे पार होनेके लिये नौकाके समान है, जिनके चरण भक्त पुरुषों के लिये उत्कृष्ट निधान (खजानों) के समान है, जिनकी श्रेष्ठ प्रतिकृति (प्रतिमा) सब कार्योको सिद्धि करनेवाली है, जिन्हें हर्षपूर्वक प्रणाग करनेवाले एवं जिनका मंगलगान करनेवाले नग्नाचार्यहपसे रहते हुये भी मुझ-समन्तभद्रको उन्नति में कुछ बाघा नहीं होती, वे देवोंके देव जिनेन्द्र भगवान् दानशील, कमंशत्रुओं पर विजय पानेवाले और सबके मनोरथोंको पूर्ण करनेचाले होवें। कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां क्षयं भरत गच्छनि । क्षीणकर्मा पदं याति यस्मिननुपमं सुखम् ।। १८३॥ -श्री पद्मपुराण पब ३२ अर्थ-हे भरत ! जिनेन्द्रदेवकी भक्तिसे कर्म क्षयको प्राप्त हो जाता है और जिसके कर्ममय हो जाता है वह अनुपम सुखमे सम्पन्न परम पदको प्राप्त होता है। नमस्यत जिनं भक्ष्या स्मरतानारतं तथा । संसारप्तागरं येन समुत्तरतं निश्चितम् ॥१२५|| -श्री पद्मपुराण पर्व ३९ अर्थ-भक्तिपूर्वक जिमेन्द्र भगवानको नमस्कार करो और निरन्तर जन्हींका स्मरण करो, जिससे निश्चयपूर्वक संसारसागरको पार कर सको। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६६९ एकापि समर्थयं जिनमकिदुगति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु मुक्तिश्रियं कृतितः ।।१२५ --उपासकाध्ययन अर्थ-अकेली एक जिन-भक्ति ही जीवके दुर्गतिका निवारण, पुण्यका संचय करनेमें तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मीको देने में समर्थ है। नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृनपापसंक्षयः । बोधवृसरुययस्तु सद्गताः कुर्वते हि जगतां पति नरम् ॥४२॥ -पद्यनन्दि पंचविशति भ.. अर्थ-परमात्माके नाममात्रको कथासे हो अनेक जन्मों में संचित किये हुए पापोंका नाश होता है तथा उक्त परमात्माम स्थित ज्ञान, चारित्र, सम्यग्दर्शन मनुष्यको जगत्का अधोश्वर बना देता है । मरद व जियन व जीयो अयदाचारस्त णिच्छिदा हिंसा । पथदरस स्थिबंधो हिंसामत्तण समिदस्म ॥२५॥ -प्रवचनसार अर्थ-जीव मरे या जिये, अप्रयत्न आचारबालेके हिसा निश्चित है। प्रयत्नपूर्वक गमिति पालन करनेवालेके (बहिरंग) हिंसामात्रसे बन्ध नहीं है। समिति पालन करना व्यवहारधर्म है। ऐसे व्यवहार धर्मको पालन करनेसे, बहिरंगमें जोवादिको हिसा हो जाने पर, बन्ध नहीं होता है। इसी आशरको 'श्री पुरुषार्थासद्धि अगाय में बहुत स्पष्ट किया गया है । ऐसी परिस्थितिम यह कहना कि व्यवहार धर्मरूप शुभभाव मात्र रागांश का नाम है और उससे बन्च ही होता है, उपचार मात्रसे सहचर होने के कारण मोक्षमार्ग कहा गया है यह कथन कैसे बागमसे मेल खा सकता है, अर्थात् प्रागमविरुद्ध ही है । ऐसे अनेकों ग्रन्थ भी प्रमाण है जिन आगममें गृहस्थांके लिये देवपुजा, गुरू पस्ति तथा दान आदि और मुनियोक लिये स्तवन, वन्दना, प्रतिज्ञमण, प्रत्याख्यान आदिरूप व्यवहार धर्म नित्य षडावश्यक कार्योमें गभित किया है । यदि यह कार्य मात्र बन्धके ही कारण हैं तो क्या महर्षियोंने बच्छ कराने और संमार डुबानका उपदेश दिया है । ऐमा कभी सम्भव नहीं हो सकता है । इनको इसी कारण आवश्यक बतलाया है कि इनसे मोक्षको प्रापिन होली है, जैसे कि उपरोक्त प्रमाणोंसे सिद्ध है। अब प्रश्न यह होता है कि इस व्यवहार धर्म के समग प्रशस्त रागसे जो सातिशय पुण्यबन्ध होला है तथा यह संसारका कारण है। परमार्थ दृष्टि से इम व्यवहारधमको पालन करने वाला शुभोपयोगी जीत्र उस रागांशसे पंचेन्द्रियोंके विाय या सांसारिक सुखकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं करता है। पंचेन्द्रिय. विषय और सांसारिक सुखसे, हय शासकर, विरक्त हो गया है। उसकी आसक्ति तो वीतरामताम है। इस रागको छोड़ने का हो पूर्ण प्रयत्न है। अत: इससे बन्च होते हुए भी यह रागांश संभारका कारण नहीं हो सकता है। संसारका कारण तो वास्तविकमें राम में राग (उपादेव बुद्धि)है। उसकी तो विरागताम उपादेय बद्धि है। इन पुण्य प्रकुतियोंके उदयसे ऐ व्य, क्षेत्र, काल तथा भवको प्राप्ति होती है जो मोक्ष-मार्गमें सहायक है, बाधक नहीं हैं। उन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भवके आश्रयसे मोक्षके लिये Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जयपुर (खानिया ) तस्व साधना होती है। अतः पुण्यबन्ध भो मोचा साधक है। महान आचाप इसे सातिशय पुण्य कहा और इससे रस आदि पदकी प्राप्ति बनाई है। निन्दु' नरहितपरिणामोपार्जिततार्थ करत दुत्तम संहननादिविशिष्टपुण्यरूपधर्मोऽपि (सिद्धगते ) सहकारी कारणं भवति । अर्थ — निदानरहित परिणाम उपार्जित तीर्थकर प्रकृति तथा उत्तम संहननादि विशिष्टरूपी धर्म भी सिद्धतिका सहकारी कारण होता है। - पंचास्तिकाय गाथा ८५ श्री जयसेनाचार्यकुल टीका अरहन्तवाद प्रायः तीर्थकर पदके लिये प्रयोग होता है। श्री प्रवचनसार गा० ४५ में जो कहा है। 'पुष्णफला भरहन्ता' यहाँ यदि पुष्यका आशय पुण्य द्रव्यकर्मसे लिया जाय तो अरहन्तका अर्थ तीर्थंकर होता है | तीर्थंकर प्रकृति सबसे उत्कृष्ट पुष्य प्रकृति है । उसका उदय १३वें गुणस्थान से ही प्रारम्भ होता है। उसके उदयसे हो तीर्थंकर पदको प्राप्ति होती है। यदि पुण्य का अर्थ भाव पुण्य लिया जाय तो श्रो समयसार प्रमाणोंसे यह सिद्ध हो हो जाता है कि पुण्यभाव ( व्यवहार धर्म ) से केवलआपने पूछा कि 'मोहक्षयज्ञान दर्शनावरणान्तरायक्षया केवलम् की डालते हुए लिखा है कि रूमके गाथा १२ आदि उपर्युक्त ज्ञानकी प्राप्ति होती है। संगति कैसे बैठ सकती है १४ यमे केवलज्ञान नहीं होता है। दसवें तथा बारहवें गुणस्थानकी मिश्रित अखण्ड पर्यायका नाम पुण्यभाव है। पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति आदि रूप व्यवहारचरित्र १वे गुणस्थान में भी होता है । ( देखिए श्री भवन पुस्तक १४ पृ० ८६ ) उस पुण्यभावसे मोहनीय कर्म तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायका क्षय होता है और इन कर्मोंके क्षयरो के बलशान उत्पन्न होता है। इस प्रकार संगति ठीक बंटतो है, न बैठनेका प्रश्न ही नहीं होता है । आपका यह लिखा कि १२ गुणस्थान में पुण्यप्रकृतियोंके उदयसे होनेवाले भावकर नाम पुण्प्रभाव है- आगमानुकूल नहीं है । "तीन लोकका अधिपतित्व' इन शब्दोंस स्व-स्वामी सम्बन्ध बतलानेका आशय नहीं है। इनका जयं हे तीन लोके प्राणियों द्वारा पूज्य ऐसा पद अर्थात् तोर्थंकर पद । जैसे कहा जाता है "शिवरमणि बरी - शिववधूके पति आदि । क्या इन शब्दों द्वारा पति-पत्नी सम्बन्ध द्योतित करनेका आशय है ? कदापि नहीं। इन शब्दों से शिवपदको द्योतित किया जाता है। सर्वसाधारण भी इस बात को जानते है । अतः स्व-स्वामी सम्बन्धको लाना, निष्परिग्रह तथा उनचार आदि कथन करना मागमका विपर्यास अर्थ करना ही हो सकता हैं, अन्य कुछ नहीं । यदि मिथ्यादृष्टि भी परमार्थकी अपेक्षा व्यवहार धर्म पालन करता है तो उसके लिए वह सम्पत्वको प्राप्तिका कारण होता है । आगममें सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके प्रत्यय बतलाते हुए जिनबिम्बदर्शन तथा जिनमहिमा दर्शन भी प्रत्यय ( कारण ) बतलाये है । ( श्री दल पु० ६ पृ० ४२ श्री सर्वार्थसिद्धिम० १ सूत्र ७ की टीका आदि ) | मिध्यादृष्टिको हो तो सम्यक्त्व को उत्पत्ति होगी । सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्यको उत्पत्तिका प्रश्न हो पैदा नहीं होता है। जिनदर्शनरूप शुभ भाव मिथ्यात्व के खण्ड-खण्ड हो जाते हैं और सम्यक्त्व प्राप्ति होती है— इसके कुछ प्रमाण ऊपर दिये जा चुके हैं । २-३ प्रमाण नीचे और जिये जाते है - कथं जिणविदंसणं पढमसम्म सुपतीए कारणं ? जिणाबिंबदंसणेण णिधक्षणिकाचिदस्य वि मिच्तादिकम्म कलाषस्स खयदंसणादो ।' श्री वल पु०, ६५० ४२७ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान का समाधान ६७१ अध-जिनबिबका दर्शन प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण किस प्रकार है ? समाधान-जिनबिंब दर्शनसे निर्यात और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्णकलापका क्षय देखा जाता है, जिससे जिनविबका दर्शन प्रथम सम्वरवतो उत्पत्तिका कारण या है। जिणरचरणबुरु णमंति जे परमभतिराएण । ते जम्मलिमूलं सणंति वरभावसाचेण ।।१५३।। -मात्रपाहुड अर्थ-- पुरुष परम भक्ति अनुराग कर जिनवरके चरणकमलको नम है ते अभावरूप दास्त्र कर जन्म कहिये संसाररूपी वेस ताका मूल जो मिथ्यात्व आदि ताहि खणे है, नष्ट करें है। दिटे तुमम्मि जिणवर दिद्विहरासेसमोहृतिमिरेण । सह पढ़े जह दिटुं तं मए तच्चं ॥२॥ -पद्यनन्दि पंचशिति अ०१४ अर्थ है जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर ददान में बाधा पहँचानेवाला ममस्त मोह ( दर्गनमोह ) रूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथास्थित तत्त्व को देख लिया है, अर्थात् सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है। जो मिथ्याधि, परमार्थको न जानते हुए, मात्र विषय सामग्री नया सांसारिक सुद्धको प्राप्तिक त्यसे अप्रज्ञास्त रागसहित कुछ शुक्रिया करता है और उससे जो पुण्यबन्ध होता है, वह पुण्यभार तथा पुग्यबन्ध संसारका ही कारण है । श्री प्रवचनसार प्रथम अध्याय आदि ग्रन्थोंमे ऐसे पुण्य या शुभभावको ही पूर्णतया हेय दिखलाया गया है । किन्तु परमार्थ दृष्टिसे किये हुए शुभभाष मा व्यवहार धर्मका कथने श्री प्रवचनसार ततोय अध्याय आदि ग्रन्थों में है और रमको मोशका साधन बनाया है। बहुत स्थानों पर आमममें व्यबहाराभास ( एकान्त मिथ्या व्यवहार ) का भी व्यवहारके न मसे कहकर निषेध किया गया है । इत्यादि विशेषता भी ध्यान रखने योग्य है। थो समयसार गा० १४५ व १४७ में (जिनको आपने उद्बुत किया है ) मात्र पुण्य तथा पापरूप द्रव्यकोका ब्यारूशन है। पृण्य या पापभावका नहीं है। यहां पुण्य तया पाप कर्मोवो बन्धकी अपेक्षा समान बतलाया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि वह एकान्तरूपसे सर्वथा समान ही है । जो मांसारिक विषय भोगोंकी अपेक्षासे पुण्य कसंबवको ही उपादेय ग्रहण कर उसमें हो तल्लीन रहते हैं उनको समझाया जा रहा है कि पुण्य में राग मत करो। एरो जोवको परमार्थकी तो खबर ही नहीं है। किन्तु १४५ की टोकामें श्री मुरिजीने स्पष्ट कर दिया है कि परमार्थदृष्टि सहित) जोयका शुभभात्र मोक्षका कारण है जिसका उद्धरण पत्रिका में दिया जा चुका है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा मंगलं मंगलं भगवान् वीशे मंगलं गौतमो गणी । कुन्दकुन्दयों जैनधर्मोऽस्तु शंका १३ मंगलम् ॥ मूल प्रश्न १३ – पुण्यका फल जब अरहंत होना तक कहा गया है ( पुण्णकला अहंता प्र० सा० ) और जिससे यह आत्मा तीन लोकका अधिपति बनता है उसे सर्वातिशाली पुण्य बतलाया है, (सर्वातिशायि पुण्यं तत् त्रैलोक्याधिपतिश्वकृत् ) तत्र ऐसे पृष्यको होनोगमा देकर त्याज्य कहना और मानना क्या शास्त्रोक्त है ? प्रतिशंका ३ का समाधान १. सारांश हमने प्रथम उत्तर में वह स्पष्ट कर दिया था कि 'पुण्य और पाहन दानोका आस्त्र ओर बन्धनत्वमे अन्तर्भाव होता है ।' साथ ही यह भी बतला दिया था कि 'अशुभ कर्म का फल किमीको इष्ट नहीं हैं, इसलिए उसकी इच्छा तो किसीको नहीं होती । किन्तु पुण्यकर्म के फलका प्रलोभन छूटना बड़ा कठिन है, इसलिए प्रत्येक भव्यप्राणीकी मोक्षमार्ग में रुचि उत्पन्न हो और पुण्य अथा पुण्यके फळमें अटक न जाय इस अभिप्राय से सभी आचार्य उसकी विविध शब्दों द्वारा निन्दा करते आ रहे हैं । यह शास्रोत है।' अगर पक्षने अपनी प्रतिशंका २ में अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'हमारा प्रश्न पुण्य आचरणके विषय में था । इसके बाद कुछ आगम प्रमाण देकर उसका समर्थन किया है । अपने दूसरे उत्तर में हमने उक्त प्रतिशंका पर सांगोपांग विचार कर अन्तमें अपर पक्षके शब्दोंको ध्यान में रख कर ही यह स्पष्ट कर दिया था कि 'जितना रागांश है उससे आस्रव बन्ध होता है और जितना शुद्धवंश है उससे संवर निर्जरा होती है।' उक्त प्रतिशंका में सारांश लिखते हुए इस तथ्यको अपर पक्षने गी स्वीकार कर लिया है । २. प्रतिशंका ३ के आधारसे विचार प्रतिशंका ३ को प्रारम्भ करते हुए अपर पलने लिखा है - "यह प्रश्न जोवके पुण्यभावकी अपेक्षासे इस बात को हमने अपने प्रपत्र में स्पष्ट भी कर दिया था तथा यह भी स्पष्ट कर दिया था कि शुभांपयोग, पुण्यभाव, व्यवहारधर्म एवं व्यवहारचारित्र ये एकार्थवाची शब्द है । फिर भी आपने पुण्वरूप द्रव्यकर्म करे अपेक्षासे ही उत्तर प्रारम्भ किया है।' समाधान यह है कि हमने जो उत्तर दिया है वह सबके सामने है, अतः उसमें तो हम नहीं जायेंगे । यहाँ मूल शंका और अपर पक्षके इस वक्तव्य पर अवश्य ही विचार करेंगे । अपर पक्षने यह प्रश्न प्रवचनसार गाथा ४५ ( पुष्णफला अरहंता ) के आधारसे निबद्ध किया या इसमें सन्देह नहीं, क्योंकि मूल प्रश्न में हो अपर पक्षने इस गाथा के प्रथम पादका उल्लेख किया है 1 प्रवचनसारमें यह गाया क्यों लिखी गई है इसके लिए गाथा ४३-४४ के संदर्भ में इसके आशयको समझना होगा । गाथा ४३ में 'संसारी जीवोंके उदयगत कर्माश जिनवरने नियमसे कहे हैं। उनमें मोही, रागो और द्वेषी Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान કડી भाचार्य अमृतचन्द्र लिखते होता हुआ यह की धमका अनुभव करता है यह कहा गया है। इनको टोका है कि इस सिद्ध है कि किया और क्रियाका पात्र मोहोदय अर्थात् मोहके उदयमें बत होनेके कारण होता है. ज्ञानसे नहीं होता अर्थात् ज्ञानस्वभाव में युक्त होने के कारण नहीं होता-अतो मोहोदयात् क्रिया- क्रियाफले, न तु ज्ञानान् । पुण्यरूप इस पर यह शंका होने पर कि अन्तक्रिया वो देखी जाती है पर उसका फल नहीं देखा जाता सो क्यों ? कुन्दकुन्दने इन्हीं दोनोंका ४४ और ४५ संस्थाक गाथाओं द्वारा उतर दिया है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृत मूल प्रदन में 'पुष्णफला' में आये हुए ष्ण परसे कर्मका उद ही गृहीत है। गगनादि क्रियाको गाथा ४५ के पूर्व द्वारा औदयिक स्त्रीकार करने का भी यही आशय है। ऐसा मालूम पड़ता है कि अब पीकर प्रकृति आदि पुण्य कर्मकि उदयको दृष्टि ओसल करके अन्य मागमे अपने को जोबिल बनाये रखना चाहता है । बन्यथा वह पक्ष मूल प्रश्न जिस आशय से किया गया है वहीं तक अपने को मोमित रखकर अपने विचार प्रस्तुत करता और उन्होंक पुछि सास्थधार भी उपस्थित करना अस्तु. हमने पिछले उत्तर दिया था 'सम्यग्दृष्टि जीवके भेदविज्ञानकी जागृति के साथ-साथ पारत्रिरक्लि होती है। इस पर रक्षा करना है कि पर्यायानामभोग है। इसमें प्रशस्त राग भी है तथा सम्यक्त्व व परिणित्तिकी निजता भी है ।' अपने विचारको अपर पक्षचरिताय गाथा १३१ को टोकाको उपस्थित किया है। इसमें प्रशस्त राग और चित्तप्रमाद जहाँ है वह शुभ परिणाम है यह कहा गया है। अब आगम इन दोनों शब्दों का अर्थ किया है इस पर विचार करता है। आचार्य कुन्दकुन्दनं पंचास्तिवाय गावा १३५ में प्रगत राग, अनुकम्पपरिणति और जिसकी अकुलता इन लीगको शुभ परिणाम कहा है। इन तीनोंका अर्थ करते हुए आचार्य जयमेन इसकी टीका लिखते क्या - अथ निरापदार्थाश्रतिपक्षभूतं शुभाति शोरागोव प्रशस्तः वीतरागपरमात्मदस्याद्विलक्षणः परमं निर्भरगुणानुरागरूपः प्रशस्त धर्मानुरागः । अणुसंसिदो परिणामी अनुकम्पायंत्रित परिणामः दयाहां मनोवचन कायापाररूपः शुभपरिणामः । चित्तविकालुष्यं मनसिकोपादिरुपपरिणामी नास्ति पुण्णं जीवरस दिपक व शुभपरिणाम सन्ति तस्य जीवस्य स्ययकारणभूतं भावपुण्यमानवतीति सूत्राभिप्रायः । अब निरास आम्भवदार्थ प्रतिपभूत सुभाषनका व्याख्यान करते हैं- शमी जस्स साधीराग जिसका प्रदान है अर्थात् जिसका वीतराग परमात्मा द्रव्यमे विलक्षण जो पंच परमेष्ठो में अत्यन्त गुणानुराम धर्मानुराग है। अनुकंपानंसिदो व परिणामी जिसका अनुया गुस्त परिणाम है अर्थात् जिनका दया सहित मन, वचन, काम व्यापारम्य शुभ परिणाम है तथ प्री-जसके चित्त का नहीं है अर्थात् क्रमादिरूप कलुष परिणाम नहीं है। पुष्णं जीवस्स आसवदि जिसके पूर्वोक्त ये तीन शुभ परिणाम है उस जीवके द्वय पुष्पके आलवका निमितभूत भावपुण्यासब है यह मूल गाथाका तात्पर्य है । यहाँपर 'वीतराग परमात्मन्यसे विलक्षण' यह विशेषण उक्त तीनों परिणामोंपर लागू होता है । ८५ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्र चर्चा इससे स्पष्ट है कि शुभ परिणाम, शुभ भाव या शुभोपयोग उक्त विधिसे तीन प्रकारका ही होता है१. अरिहन्तादिविषयक प्रशस्त राग २ दयापरिणाम अर्थात् अणुव्रत महाव्रतादिरूप शुभ परिणाम और ३. चित्तमें कोधादिरूप कलुषताका न होना । प्रशस्त राग क्या है इसकी व्याख्या करते हुए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द पंवास्तिकाय गाथा १३६ में लिखते हैं ६७४ अरहंत साहु भती घम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा । अणुगम पि गुरूणं पसस्थरायो शिसि ॥ १३६ ॥ ठान ले तथा गुरुओं का अनुगमन करना यह सब रशिद्ध प्रशस्त राग कहलाता है ।। १३६ ।। यहाँपर धर्म पदसे व्यवहार चारित्रका अनुष्ठान लिया गया है । आचार्य अमृतचन्द्र इसकी टीका में लिखते हैं- अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवल भक्तिप्रधानस्याज्ञानिनां भवति । उपग्लिन भूमिकाग्राम लब्धास्पदस्यास्थान रागनिषेधार्थ वीरागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवति । यह ( प्रशस्त राग ) स्थूल लक्ष्यवाला होनेसे केवल भक्तिप्रधान अज्ञानीके होता है । तथा उपरितन भूमिका में स्थिति न प्राप्तकी हो तब अस्थान राग ( इन्द्रियादि विषयक राग ) का निषेध करनेके लिए अथवा तीव्र रागज्वरका परिहार करनेके लिए कदाचित् ज्ञानीके भी होता है || १३६ ॥ जयसेनाचार्य शब्दों में इसका आशय यह है— तत्प्रशस्तरागमज्ञानी जीवो भोगाकांक्षारूपनिदानबन्धेन करोति स ज्ञानी पुनर्निर्विकरूपसमायभावे विषय कषायरूपाशुभरागविनासार्थं करोतीति भावार्थः । उस प्रशस्त रागको अज्ञानी जीव भोगाकांक्षारूप निदानबन्धके साथ करता है। किन्तु ज्ञानी जीव निर्विकल्प समाधि के अभाव में विषयकषाय अशुभ रागका विनाश करनेके लिए करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्दने अनुकम्पा क्या है इसका निर्देश आगे १३७ वीं गाथा में किया है। अतएव इन प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि अपर पक्ष सम्यदर्शन व सम्यक्चारित्र शुद्धिके साथ कषायको जिस मिश्रित अखण्ड पर्यायको कल्पना कर उसे शुभभाव या शुभपयोग कहना चाहता है वह ठीक नहीं है । यह उस पक्षी अपनी कल्पना है | आगमका यह आशय नहीं है । जब यह जीव संसारके प्रयोजनभूत पंचेन्द्रियोंके विषयों आदि में उपयुक्त रहता है तब अशुभपयोग होता है, जब पंच परमेष्ठी आदिको भक्तिस्तुति आदिमें, व्रतोंके पालने में तथा अन्य शुभ प्रवृत्ति में उपयुक्त रहता है तब शुभपयोग होता है और जब विज्ञानघनस्वरूप अपने आत्मा में उपयुक्त होता है तब शुद्धोपयोग होता है । प्रवचनसार गाथा ९ का यही आशय है । जीव उपयोगलक्षणवाला है। वह अपने इस लक्षण से सदा अनुगत रहता है यह उधव गाथा मे बललाया गया है हम अभी प्रवचनसार गाथा ४३ का आशय लिख माये है। उसके साथ इस गाथाको पढ़ने पर इसका आशय स्पष्ट हो जाता है । ' Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६७५ यह अपर पाही स्वीकार करेंगा कि मांय दा हो प्रकारको होती है--स्वभावपर्याय और विभावपर्याय । सम्यग्दर्शन यह श्रद्धागुणको स्वभाव पर्याय है। यह चारि गुणकी पर्यायसे भिन्न है, इसलिए इसके साथ तो चारित्र गुणकी मिश्रित अखण्ड पर्याय बन नहीं सकती। चारित्र गुणको अवश्य ही संयमा' संयम और संयमरूप मिश्र पर्याय होती है, क्योंकि उसमें शुद्धयश और अशुद्धर्थश दोनोंका युगपत् सद्भाव होता है । उपमें जो शुद्धग्रंश है वह स्वयं संवर-निर्जरास्वरूप होनेसे संवर. निर्जराका कारण भी है । पण्डितप्रदर दौलतराम जी छहदालाके मंगलाचरण में इसीकी स्तुति करते हुए लिखते हैं तीन भुत्रनमें सार वीतराग-विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारिके ।।१।। यह अपने प्रतिपश्चभूत अशुद्धचंशका व्यय होकर उत्पन्न हुई है, इसलिए इसका स्वयं संवर-निर्जरा स्वरूप होकर संबर-निर्जराका कारण बनना युक्त ही है। तथा उस मित्र पायमें जो अद्धि अंश शेष है वह स्वयं अशुद्धिस्वरूप होनसे आसव-बन्धरूप है और मानव बन्धका कारण भी है। इस प्रकार शुद्धपर्याय और अशद्ध पर्यायके भेदसे जहाँ पवि दो प्रकारकी है वहाँ विषयभेदसे उपयोग तीन प्रकारका है-अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग । जब इस जोवका परलक्षी उपयोग होता है तब वह नियमसे मोह, राग या द्वेष से अनुरंजित होकर प्रवर्तता है। उपयोगके शुभ और अशुभ इन दो भेदोंके होनेका यही कारण है। उनमसे इन्द्रियविषयों में अनरक्त होना अशभोपयोग है। कारण स्पष्ट है । तथा उक्त तीन प्रकारकी शुभ प्रवृत्तियों में उपयुक्त होना शुभोपयोग है । है तो यह भी रागसे अनुरंजित हो, उससे बहिभूत नहीं है । परन्तु इसमें जिन्होंने मुक्ति प्राप्त की है या मुक्तिमार्गका अनुसरण कर रहे हैं उनके प्रति अनुरागको मुख्यता है, इसलिए इसे अशुभोपयोगमें परिगणित न कर उससे भिन्न बतलाया है। इनमेंसे अशुभीपयोग मुख्यतया मिथ्याटिके होता है और शुभोपयोग यथायोग्य सम्यग्दृष्टिके होता है। सम्यग्दृष्टिके अशुभोपयोगकी गोणता है, किन्तु सम्यग्दष्टिके मात्र दाभोपयोग ही होता हो यह बात नहीं है, उनके शद्धोपयोग भी होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि निरन्तर आत्मस्वभावका अवलम्बन कर प्रवर्तना ही अपना प्रधान कतं समझता है । उसके अशुभफे परिहार स्वरूप शुभप्रवृत्ति होती है, परन्तु उसे बन्धका कारण जान हेयबुद्धिसे ही वह उसमें प्रवर्तता है । सम्यग्दृष्टिके शुभ प्रवृत्तिका होना अन्य बात है और उसके शुभप्रवृत्तिके होते हुए भी उसमें हेय बुद्धिका बना रहना अन्य बात है। सम्बग्दष्टि मोक्ष के साक्षात् साधनभूत आत्मस्वभावको हो उपादेय समझता है, इसलिए उसकी उसके सिवाय अन्य सबमें स्वभावतः । हेयबुद्धि बनी रहती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार शुभोपयोग क्या है और वह पुण्यभात्र, व्यवहारधर्म र ध्यवहार चारित्ररूप कैसे है यह स्पष्ट हो जाने पर अपर पक्षकी इम कल्पनाका अपने आप निराशा हो जाता है कि 'शुभोपयोग या शुभ भाव सम्यक्त्व व चारित्रकी मिश्रित अखण्ड पर्यायरूप है।' अपर पक्षका कहना है कि 'उस शुभ भाव था अपवहार धर्ममें भी लक्ष्य या ध्येय बौतरागता एवं शुद्ध अवस्था अर्थात मोक्षकी प्राप्ति ही रहती है। पर्यायकी निर्बलताके कारण वह जीव वीतरागता स्थित नहीं हो पाता है। इस कारण उसको राग व विकल्प करने पड़ते हैं। किन्तु उस राग या विकल्पद्वारा भी बह वीतरागताको ही प्राप्त करना चाहता है।' आदि। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा समाधान यह है कि सर्व प्रथम तो अगर पतको यह ध्यान में लेता है कि राग या विकल्प विरुद्ध स्वभाववाले है और उनसे वीतरागता विरुद्ध स्वभाववाली है, क्योंकि राग या विकल्पका अन्य ध्यतिरेक परके साथ है और वीतरागताका अन्ववयतिरेक आत्मस्वभाव के साथ है । नलिए सर्वप्रथम तो यह निर्णय करना आवश्यक है कि मुझे सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयस्त्ररूप आत्मवकी प्राप्ति आत्म-स्वभाव के लक्ष्यसे रूप परिणमन द्वारा हो होगी, राग या विकल्प द्वारा त्रिकाल में प्राप्त नहीं होगी । अपर पक्ष कह मकता है कि आत्मस्वभाव के लक्ष्यसे तत्स्वरूप परिणमन द्वारा वीतरागताकी प्राप्ति होती है, ऐसा विचार करना भी तो विकल्प हो है ? समाधान यह है कि इसमें भेद विज्ञानको मुख्यता है और रागको गौणता है, इसलिए स्वभावको दृढ़ता होने वह विकल्प स्वयं छूट जाता है और आत्मा स्वभावसन्मुख हो तत्वरूप परिणम जाता है। इसीका नाम है आत्मानुभूति । यह निराकुल जानमुखस्वरूप होने से स्वयं वीतरागतास्व दुगरे अपर ने जब कि व्यवहारधर्म में मोक्षप्राप्तिको लक्ष्य स्वीकार किया है । ऐसी अवस्था में उस पक्षको निश्रियाद से उसके स्थान में यह स्त्रीकार कर लेना चाहिए कि उसकी प्राप्तिका साक्षात् साधन भूतार्थनयका विषयभूत आत्माका आश्रय करना ही उपाय है, अन्य सब जैसे नंगार रहते हुए भी मोक्ष माधना तभी होती है जब संसार में ययुद्धि हो जाती हैं । इम प्रकार व्यवहार धर्मरूप प्रवर्तले हुए मो जिसकी उसमें हेय बुद्धि हो जाती है वही स्वभाव आलम्बन द्वारा सरस्वरूप परिणमनरूपमक्षिका अधि कारी बनता है, अभ्यं नहीं । व्यवहारधर्म स्वयं आत्माका कर्तव्य नहीं है । वह तो पुरुषार्थहीनता का फल है । तीसरे अपर पक्ष 'उस शुभ भाव या व्यवहार धर्म में भी लक्ष्य या ध्येय वीतरागता एवं शुद्ध अवस्था अर्थात् मोक्षको प्राप्ति हो रहती है । यह वचन लिखकर आत्माके पंचमे विषय या व्रतानि विषयक विकल्पको शुभभाव या उपवहार धर्म कहते है इस लक्ष्यको स्वयं स्वीकार कर लिया है । अतएव अपर पक्ष ने सम्यक्त्व व चारिकी मिश्रित अखण्ड पर्यायको व्यवहार धर्म कहते हैं इस मान्यताको छोड़कर यही स्त्रीकार कर लेना चाहिए कि व्रताविरूप जीवकी शुभ प्रवृत्ति या शुभ विकाको हो आगममें व्यवहार धर्म कहा है । वह रागानुरंजित जीवका परिणाम होनेसे बन्धका ही कारण है । यहाँ पर यह शंका होती है कि उपयोग के समान पर्याय को भी विभाव पर्याय स्वभाव पर्याय और मिश्र पर्याय ऐसा तीन प्रकारका मानने में आपत्ति हो क्या है ? समाधान यह है कि जिसे चारित्रको मिश्र पर्याय कहते हैं उसमें जितना शुद्धवंश है वह स्वप्रत्यय जांनकी अवस्था है, क्योंकि वह स्वभाव के लक्ष्य से अपनी प्रतिपक्षी अवस्थाका नाश कर उत्पन्न हुई है, और जितना अशुद्धवंश हैं वह स्व-परप्रत्यय जीवको अवस्था है, क्योंकि वह परके लक्ष्यसे अपनी पूर्व प्रवृत्त विकाररूप अवस्थाके अनुरूप उत्पन्न हुई है, इसलिए शुङ्खधंशका स्वभाव पर्याय में और अशुद्धघशंकर विभाव पर्याय अन्तर्भाव हो जाने के कारण हमले पर्यायको दो ही प्रकारका बतलाया है। आगममे भी पर्यायको दो ही प्रकारका बतलाया है। प्रवचनसार गाथा ६३ में गुण पर्याय इन भेदोंको बतलाते हुए लिखा है— सोऽपि द्विविधः-स्वभावपर्यायो विभावपर्यायश्च । वह गुणपर्याय भी दो प्रकारकी है - स्त्रभाव पर्याय और विभाव पर्याय | आलापद्धति में भी लिखा है विकाराः पर्यायाः । ते द्वेधा स्वभाव-विभावपर्यायभेदात् ! Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शंका १३ और उसका समाधान ६७७ गुणधिकारका नाम पर्गय है। वे भावपर्याय और त्रिभावपर्णायके भेदसे दो प्रकार की है। इमी तथ्यको नयवक्रदिसंग्रह प्र० २६ आदिमें 1ष्ट किया है। वहां लिखा है साभावं तु बिहावं दवाणं पजयं जिदिद। सम्वमि च सहा विभावं जीव-पुग्गलाणं च ।।५।। जिनदर्शने द्रों का प्रयाएँ दो प्रकारकी कमी-वभाव पर्याय और विगावपर्याय । मात्रा मन दयों को होता है । विभावगर्याय मात्र जीवों और पद्गलों में होती है ॥१८॥ आगे जीवमें विभाव गुणगायों का निर्देश करते हुए लिखा है मदिमदाहीमणपजयं च अपणाण तिगि जे भणिया । एवं जीवम्स इमे बिहानगुणपजया सन्चे ।।२।। आगमने जो मन, श्रत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान और तीन अज्ञान क., गये है, ये सब अबकी विभात्र गूगा पर्याय है ।।२४।। जीवन मिथ्यात्व व रागादि विगाव गणपर्याय है यह तो सार हो है, इमलिा उनका यहाँ उल्लेख नहीं किया। जीवया स्वभावगुण पर्यायांका निर्देश करते हुए वहाँ लिखा है---- ri दस सुह वीरियं च उहयकम्मपरिहोणं । तं मुदं जाण तुम जीवे गुणपआय सच्चं ॥२६॥ जो द्रव्य भाव दोनों प्रकार के कर्मोस रहित ज्ञान, दर्शन, सुख और बोगर्याय होतो है उन सबको तुम जोवको गद्ध स्वभाव ) पर्याय जानी ।।२६॥ घमगे स्पष्ट है कि आगम भमस्त पयोंका विचार को दो प्रकार से किया गया है। पझपार्थगिद्धघुसायमें जो २१२, २१३ और २१४ नोक लियो है ननमें नलागकि जितने अंगम गम्यग्दर्शन, मम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित है उतने अंशमें बन्धन नहीं है और जितने अंगमें राग है उतने अंश बन्धन है। प्रबननगार गाथा १८०-१८१ में लिखा है परिणाम बन्ध। जो परिणाम मग, द्वेष और मोहसे युक्त है। उममें मोह और प्रेषरूप परिणाम अशुभ है तश् शुभ और अशुगरूप गग है ।।१८।। इनमें से अन्य (अरिहन्तादि ) के विषय में जो शुभ परिणाम होता है उसे पुण्य करते है तथा इन्द्रिय विषय आदि अन्य विषयमें जो अशुभ परिणाम होता है उसे पाप करते है और जो अन्यको लाकर परिणाम नहीं होता है उसे आगममें दुःखो शवका कारण बतलाया है ॥१८१।। गाथा १८१ की टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र उक्त विषयको स्पष्ट करते हुए लिखते हैं द्विविधस्तावत् परिणामः--परद्रव्यप्रवृत्तः स्वदन्यप्रवृतश्च । तत्र परवय्यप्रवृत्तः परोपरकत्वाद्विशिष्टः परिणामः । स्वद्रव्यप्रवृत्तम्तु परानुपरकत्वादविशिष्टपरिणामः। तत्रीकीही विशिष्टपरिणामस्य विशेषाशुभपरिणामोऽशुभपरिणामश्च । तत्र पुण्यपुद्गलबन्धकारणत्वात् शुभपरिणामः पुण्यम् , पापपुद्गलबन्ध Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा कारणरबादशुभपरिणामः पापम् । अविशिष्टपरिणामस्थ तु शुद्धत्वन कस्यापास्ति विशेषः । स काले संसारदुःखहेतुकमपुद्गलमयकारणस्त्रासंसारदुःखहेतुकर्मपुद्गलक्षयात्मको मोक्ष एव ॥ १८१।। प्रथम तो परिणाम दो प्रकारका है-परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्न्य प्रवृत्त । इनसे परद्रव्य प्रवृत्त परिणाम परमें उपरक्त होनेसे विशिष्ट परिणाम है और स्वगम्य वत्त परिणाम परमें उपरक्त न होने से अविशिष्ट परिणाम है। उनसे विशिष्ट परिणाम के पूर्वोक्त दो भेद है...शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम । उनमें से पुण्यरूप पुद्गलके बन्धका कारण होनसे शुभ परिणाम पुण्य है और पापरूप पुद्गलके बन्धका कारण होनेसे अशुभ परिणाम पाप है। अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होनेसे एक है, उसमें भेद नहीं है। वह कालमें संसार दुःख के हेतुभूत कर्म पुदगलके क्षयका कारण होनेसे संसार दुःखफे हेतु कर्मपुद्गलके अयरूप मोक्ष ही है ।।१८१॥ आचार्य जयसेनने इसो गाथाकी टीका एक महत्त्वपूर्ण प्रश्नको उपस्थित कर उराका समाधान किया है। प्रश्न है कि नयविवक्षामे मिथ्यादहिसे लेकर क्षोणकषायतक सभी गणस्थानों में तो अशाच निश्चयनय होता ही है अर्थात् अशुद्ध पर्याययुक्त जोव रहता ही है । इसलिए वही अशुद्ध निश्चयमें धाद्धोपयोग कैसे प्राप्त होता है ? यह प्रश्न है इसका समाधान करते हुए वे लिखते है ___ घस्वेकदेशपरीक्षा तावनगलक्षणं शुभाशुभाजुन दध्यावलम्बनमुपयोगलक्षणं चेति, सेन कारणेनाशुन्छनिश्चयमध्येऽपि शुद्धात्मावलम्बन स्वात शुन्दध्येयत्वात् शुद्धसाधकत्वाच्च शुन्खोपयोगपरिणामो लभ्यत इति नयलक्षणमुपयोगलक्षणं च यथासम्भवं सर्चन ज्ञातव्यम् । वस्तुके एकदेशकी परीक्षा तो नयका लक्षण है तथा शुभ, अशुभ और शुद्धद्रव्यका अवलम्बन उपयोगका लक्षण है। इस कारण अशुद्धनिश्चयस्वरूप आत्माके होनेपर भी शुद्ध आत्माका ( शुद्धनयका विषयभूत आत्माका ) अवलम्बन होनेसे; शुद्ध ( चिमचमत्कारस्वरूप. त्रिकाली जायक आत्मा) ध्येय होनेसे तथा झाद्ध 'सम्यग्दर्शनादि स्वभावपर्यायरूप ) आत्माका साधक होनेसे वहाँ भी शुद्धोपयोगरूप परिणाम प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार भयके लक्षण और उपयोगके लक्षणको यथासम्भव सर्वत्र जानना चाहिये । इस प्रकार इतने विवेचनसे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममें सर्वत्र परावलम्बी प्रशस्त रागसे अनुरंजित परिणामको ही शुभोपयोग कहा है । सम्यक्त्व मुक्त मिनित अखण्ड एक पर्यायको नहीं । तथा इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि पुण्यभाव, व्यवहारधर्म या व्यवहारचारित्र इसी शुभोपयोगके पर्याय नाम हैं और यह परावलम्बो भाव होनेसे नियमसे बन्धका हेतु है । शुभोपयोगमें वीतराग देव, थोतराग गुरु और वीतरागताका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंका श्रद्धान, ज्ञान एवं पूजा, स्तुति, सत्कार सेवा परिणाम होता ही है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु यह परावलम्बी भाव होने से इस अवस्थामें भी वह स्वावलम्बी भावके प्रति ही आदरवान बना रहता है। यदि वह उस अवस्थामें · अपने लक्ष्यको भूल जाय तो उसी समय वह नियमसे मिथ्यादृष्टि हो जाता है । स्वभावकी प्राप्ति तो नियमसे स्वमानके अवलम्बनस्वरूप उपयोगके होनेपर ही होती है, परके अवलम्बनरूप उपयोगसे नहीं। ऐसी धना तो सम्यग्दृष्टिके होती ही है। फिर भी सम्यग्दर्शनादिरूपसे परिणत आत्माके सविकल्पदशामें वीतराग देवादिके प्रति भक्ति-श्रद्धारूप विकल्पका और योगप्रवृत्तिका नियमसे उत्थान होता है । वह ( व्यवहारचर्म ) भेदविज्ञान के कारण प्राप्त शुद्धि क्षति नहीं कर सकता, क्योंकि उसका Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और प्रसका समाधान ६७९ सहचारी भाव है । मात्र इस अभिप्रायसे उसमें निमित्त व्यवहार किया जाता है। उसे साधक कहनेका यही तात्पर्य है। यह आत्मशुद्धिको दान करता है ऐसा अभिप्राय इससे नहीं लेना चाहिये । सम्यग्दृष्टि जीव सदा अरिहन्तादिका पूजक क्यों नहीं बना रहना चाहता इसका कारण भो यही है । अपर पक्षको इस दृष्टिकोणसे विचार करना चाहिये । इससे वस्तुस्थितिके सष्ट होने में देर नहीं लगेगी। अपर पक्षने समाधितन्त्रका प्रमाण उपस्थित कर उसपरसे सह निर्ष फलित किया कि भगगनको लपासना उपासकको भ बना देती है। समाधान यह है कि यदि अपर पक्ष उस वचनका यह आशय समझता है तो वह पक्ष 'उसका भाव यह नहीं कि मैं सदा इसी प्रकार पूजक बना रहूँ।' ऐसा लिखकर भगवान् की उपासनाका निषेष हो क्यों करता है ? जब कि भगवान्को उपासनासे ही उपासक भगवान बन जाता है तो उसे परम ध्यान आदिरूप परिणत होने का भाव नहीं करके मात्र भगवानको उपासना करनी चाहिए, क्योंकि उसीसे वह भगवान बन जायगा? अदि अपर पक्ष इसे नयवचन समझता है तो उसे समाधिशतकसे उस वचनके उसी आशयको ग्रहण करना चाहिए जिमका प्रतिपादन उसमें किया गया है। अपर पक्षने इस अधनके साथ श्लोक ६८ पर हपाल किया ही होगा। इन दोनों को मिला कर पहनेपर क्या तात्पर्य फलित होता है इसके लिए समयसार फलशके इस काव्यपर दृष्टिपात कीजिए एष ज्ञानधनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्य-साधकमान विधकः समुपास्यताम् ॥१५॥ साध्य-साघकभावके भेदसे दो प्रकारका एक यह ज्ञानस्वरूप आत्मा, स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको मित्य सेवन करने योग्प है. उसका सेवन करो ||१५|| इसका भावार्थ लिखते हुए पण्ठिलप्रवर राजमलजो लिखते हैं भावार्थ इसौ-जु एक ही जीवद्रव्य कारणरूप तो अपुन ही परिणमै छ, कार्यरूप तो अपुन ही परिणय छ । तिहिते मोक्ष जातां कोई द्वन्यान्तरको सारी नहीं । तिहितें शुद्धात्मानुमव कीजै । इसका चालू हिन्दी में अनुवाद है भावार्थ इस प्रकार है कि एक ही जीवद्रव्य कारणहा भी अपने ही परिणमता है और कार्यरूप भी अपने ही परिणमता है । इस कारण मोक्ष जाने किमो द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है, इसलिए शुद्ध आत्माका अनुभव करना चाहिये। मोक्षप्राभृत गाथा ४८ में परमात्मा पदका अर्थ 'ज्ञानधनस्वरूप निज आत्मा है। उसका ध्यान करनेसे अर्थात तत्स्वरूप हो जानेसे यह जोत्र सब दोषोंसे मत हो जाता है और उसके नये कम आनन नहीं होता।' ऐसा किया है। अपर पक्षने प्रवचनसार गाथा ८. को उपस्थितकर इसका अर्थ भर दे दिया है और इसके बाद उसे स्पर्श किये बिना व्यापारीका उदाहरण देकर अपने अभिमतका समर्थन किया है। गाथा में यह कहा गया है कि जो अरिहन्तको जानता है वह माने आत्माको जानता है। अर्थात् बरिहन्तका ज्ञान अपने प्रात्माका शान करने में निमित्त है। इसमें यह तो कहा नहीं गया है कि जो अरिहन्तके अवलम्बनसे पूजा-भक्तिरूप प्रवर्सता रहता है उसके परमात्मस्वरूप नायकभावके अवलम्बनरूपसे न प्रवर्तने पर भी मोहका समल नाश Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० जयपुर ( खानिया ) नत्वचची हो जाता है । स्पष्ट है कि इस गाधाका आशय ही इतना है कि द्रम्प, गुण और पर्यायरूपसे जो अरिहन्तको जान लेता है उसे उस रूपसे अपने आत्माका ज्ञान नियमये हो जाता है, क्योंकि निश्चयनयगे रहन्तके स्वरूपमें और अपने स्वरूपमें अन्तर नहीं है। जो आत्मा इस प्रकार आत्मस्वरूपको जानकर तत्स्वरूप परिणमता है उसका मोह नियमसे विलयको प्राप्त होता है यह तथ्य उक्त गाथामें प्ररूपित किया गया है। इसलिए इस परसे अपर पक्षने जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है। अपर पक्ष ने व्यापारका उदाहरण उपस्थित किया है, किन्तु उससे भी यही सिद्ध होता है. कि राग, ध, भोजन महानि है, . सात्मलाभ होना सम्भव नहीं है। समयसार गाथा १२ में यह नहीं कहा गया है कि व्यवहारधर्म में परमार्थकी प्राप्ति होती है, अत: इससे भी अगर पक्ष के अभिप्रायका समर्थन नहीं होता। अपर पक्षने यहां जो जक्त गाथात्रामवार्थ उद्धन किया है उसका बापाय स्पष्ट है। यथापदवी व्यवहार प्रयोजनवान है इसका निषेध नहीं। निषेध यदि किसी बातका है तो व्यवहारके अवलम्बनसे परमार्थ की प्राप्ति होती है इसका, क्योंकि व्यवहार कर्मम्वभाव वाला है और परमार्थ ज्ञानस्वभाववाला है, अतः परावलम्बी कर्मस्वभाववाले व्यवहारसे म्वावलम्बी वानस्वभाववाले परमार्थको प्राप्ति त्रिकाल में होना सम्भव नहीं है। इससे स्पष्ट है कि जब सम्पष्टिका व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका यथार्थ साधन नहीं, ऐमी अवस्थाम मिथ्याष्टिका व्यवहार निदचयधर्मकी प्रास्तिका यथार्य साधन कसे हो सकता है। 'उइ जिणमयं पवनह' इस माथामें दोनों नयोंको स्वीकार करनेकी बात कही गई है। उसका वाशय यह है कि यदि व्यवहार नयको नहीं स्वीकार किया जायगा तो गुणस्थानभेद और मागंगास्थान भेद आदि नहीं बनेगा और निश्चयनयको नहीं स्वीकार किया जायगा तो तत्वकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। इसमे यह कहाँ कहा गया है कि व्यवहारधर्मके वगैर निश्चयधर्मकी प्राप्ति नहीं होतो । मायाम कोई दुसरी बात कही गई हो और उससे दूसरा अभिप्राय फलित करना यह कहाँ तक ठीक है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। अपर पक्षने मिष्ठान्न का उदाहरण दिया है सो इस उदाहरणसे हमारे पक्षका ही समर्थन होता है, क्योंकि जैसे मिष्ठान्नके स्वादको इच्छावाला व्यक्ति मिष्ठानका ही अबलम्बन करेगा, आमका नहीं; तसी प्रकार नात्मानुभूतिका इच्छुक व्यत्रित आत्माका ही अवलम्बन करेगा, अम्मका नहीं । इसीलिए तो आगम कहता है कि परावलम्बो व्यवहारघमसे स्वावलम्बी आत्मधर्मकी प्राप्त नहीं हो सकती। अनाविभेदबासित बुद्धिबालेके लिए भेदनयका अवलम्बन लेकर श्रद्धान क्या है और श्रद्धान करने योग्य क्या है वह जामकर आत्माके अवलम्बनसे मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त होना चाहिये यह तथ्य आचार्य अमूलचन्द्र ने अनादिभदवासितबुद्धयः 'इम वनन द्वारा स्पष्ट किया है। इसमें व्यवहारधर्मसे निदयधमकी प्राप्ति होती है यह नहीं कहा गया है। हम पहले समयसार कलश १५ का 'पप ज्ञानधनों' इत्यादि बचन जतकर आये है । उसी तथ्यको यहाँ दूसरे शब्दों में स्पष्ट किया है। अनादि भेदवासित बुद्धिवालाको दूसर प्रकारसे मोक्षमार्गको प्राप्ति होती है और दुसरीको दूसरे प्रकार से उसकी प्राप्ति होती मिध्यादष्टि हो या सादि मिथ्याष्टि, जैसे इन्हें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेका एक ही मार्ग है वैसे ही मोक्षमार्गको प्राप्त करनेका एक हो मांगे हैं--परसे भिन्न स्वको जानकर उसका अवलम्बन करना, मोक्षमार्गको प्राप्त करने या उसमें उत्तरोत्तर विशुद्धि प्राप्त करने की अन्य समस्त क्रिया उसी आधार पर होती है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान पंचाध्यायो पृ. २६७ के भावार्थका यह आशय तो है नहीं कि अशुमसे निवृत्ति मौर शुभमें प्रवृत्ति होने मावसे निश्चय धर्मकी प्राप्ति हो जाती है। क्या ऐसा है कि कोई व्यक्ति २५ मूलगुणोंका अच्छी तरहसे पालन कर रहा है, इसलिये उसे अधःकरण आदि तीन करण परिणाम किये बिना निषचय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जावेगी? यदि नहीं तो व्यवहार धर्मसे निश्चम धर्मको प्राप्ति होती है ऐसा कहनेकी उपयोगिता हो क्या रह जाती है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे । यहाँ यह सदाहरण अनादि मिथ्यादृष्टि और जिसका वेदक काल व्यतीत हो गया है-ऐसे स्वादि मिथ्याष्टिको लक्ष्यमें रखकर उपस्थित किया है । स्पष्ट है कि निश्चय धर्मकी प्राप्तिके समय परावलम्बी व्यवहारधर्मरूप विकल्प छूट कर स्वका अबलम्बन होना आवश्यक है। समयसार गाथा १४५ में जीवके शुभ भावको व्यवहारनपसे मोक्षमार्ग बतलाया है, परन्तु बन्धमार्गके आश्रित होनेसे वहीं शुभ और अशुभ दोनोंको एक कर्म कहा है। अपर पक्षने यही पं० जयचन्द्रजीके अनुवादसे और दिल्ली संस्करणसे जो वचन उद्धृत किये है वे अधूरे हैं । भ्रमका निरास करने के लिये यहाँ हम उन्हें पूरा दे रहे हैं-'शुभ अथवा अशुभ मोक्षका और बन्धका मार्ग ये दोनों प्रश्रक है, केवल जीवमय तो मोक्ष का मार्ग है और केवल पुद्गलमय बन्धका मार्ग है। वे अनेक है एक नहीं है, उनके एक न होनेपर भी सेना पुदगलमय अन्धमाकी माश्चितता के कारण भाषयके अभेदसे कर्म एक ही है। अपर पदाने प्रवचनसारको आचार्य जयसेनकृत-टीकासे 'तं देवदेवदेव' यह माथा उद्धृत की है। इसके आशयको स्पष्ट करते हुए स्वयं आचार्य जयसेन लिखते है से तदागधनफलेन परम्परयाक्षयानन्तसौख्यं यान्ति लमन्त इति सूत्रार्थः । वे उनकी आराधनाके फलस्वरूप परम्परा अक्षयानन्त सुखको प्राप्त करते है यह उक्त गाथाका अर्थ है। इससे यह व्यवहार (उपचार) नय वचन है यह सुतरां सिद्ध है ।। मोक्षप्राभुतको ८२वौं गाधाम व्यवहार और निश्चय दोनों का निरूपण है। यही तथ्य उसकी ५२वीं गाथामें स्पष्ट किया गया है। सो इसका कोन निषेध करता है। मोक्षमार्गी जीवकी सविकल्प दशामें क्या परिणति होती है और निर्विकल्प दशामें क्या परिणति होतो है यह हमने अनेक बार स्पष्ट किया है। अपर पक्ष यदि यह कहना त्याग दे कि व्यवहारघमसे निश्चयधर्मकी प्राप्ति होती है तो विवाद ही समाप्त हो जाय । मोक्षमागीके व्यवहारधर्म होता ही नहीं यह तो हमारा कहना है नहीं। ऐसो अवस्था, वह्न इन प्रमाणोंको उपस्थित कर क्या प्रयोजन साधना चाहता है यह हम नहीं समझ सके ! अपर पक्षने रयणसार और मूलाचारकी भी कतिपय गाथायें उपस्थित को है। उनमें भी पूॉक्त तथ्यको ही स्पष्ट किया गया है। नियम यह है कि निश्चयनय यथार्थका निरूपण करता है और व्यवहारनय अन्यके कार्यको अन्यका कहता है । इन लक्षणोंको ध्यान में रखकर उक्त सभी गाथाओं के अभिप्रायको स्पष्ट कर लेना चाहिये। जिन गायाओंमें जिनके अन्तरंग गुणांका निर्देश है वह निश्चय कथन है। धवला पु०१J. ३०२ के वचन का यह आशय है कि सम्पष्टिके द्वादशांगमें श्रद्धा नियमसे होती है । इसलिए यहाँ वादशांगभक्तिको हो व्यवहारसे संसार विच्छेदका कारण कहा गया है। परमात्मप्रकाशमें सम्यग्दृष्टिके देव-गुरु-शास्त्रविषयक सम्यक् श्रद्धाका निर्देश किया गया है । यह सम्यक्त्वका बाह्य लक्षण है । इससे अन्तरंगको पहिचान होती है। इसलिए जिसकी सच्चे देव, २८ मूल ८४ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा गुणोंका समप्रभावसे पालन करनेवाले वीतराग गुरु और वीतराग वाणीमें श्रद्धा-भक्ति नहीं है वह अन्तरंगमें सम्यग्दृष्टि न होनेसे मोक्षका पात्र नहीं हो सकता। यह कथन यथार्थ है। अपर पच यदि परमात्मप्रकाशके इस कथनपर सम्यक् प्रकारसे दृष्टिपात करे तो उसका हम स्वागत ही करेंगे। आचार्य समन्तभदने स्तुतिविद्या में सम्पदृष्टिको जिनदेवमें कैसो भक्ति होनी चाहिये उसे हो सष्ट किया है। पद्मपुराण, उपासकाध्ययन और पयनन्दिपंचविद्याविकाके वचनोंका भी यही आशय है । इसमें सन्देह नहीं कि यथार्थ व्यवहार क्या है और उसका क्या अाय है इसे सम्यग्दृष्टि ही जानता है। आर पक्षने प्रवचनसार गाथा २१७ उपस्थित कर उससे व्यवहारधर्म का समर्थन किया है। किन्तु इस गाथाका यथार्थ भाशय समझनेके लिए उसको टोकापर दृष्टिपात करनेको आवश्यकता है। आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है __अशुद्धोपयोगोऽन्तरंगच्छेदः परप्राणव्यपरोपी बहिरंगः । तत्र प्राणव्यपरोपसभा सदसद्भावे वा तदविनामाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्धचदशुद्धोपयोगसद्धावस्य सुनिश्चितहिंसाभावप्रसिद्धः। तथा तद्विना माविना मयताचारेण प्रमियदशुद्धोपयोगासद्धावपरस्य परमाणन्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाभावप्रमिद्धेश्चान्तरंग एव छेदो बलीयान् न पुनर्वहिरंगः । एवमप्यन्तरंगच्छेदायतनमानस्वाद बहिरंगकोदोऽभ्युपगम्येसैष ।।२१७॥ अशुद्धोपयोग अन्तरंग छेद है, परप्राणोंका विच्छेद बहिरंग छेद है । किन्तु वहाँ जिसके अशुद्धोपयोगका अविनाभावो अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका सद्भाव है उसके परप्राणोंका विच्छेद होनेपर या न होने पर दोनों अवस्थाओंमें, हिसाभावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है। तथा जिसके अशुखोपयोगके बिना होनेवाले प्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव पाया जाता है उसके परप्राणोंका विच्छेद होनेपर भी, बन्धको अप्रसिद्धि होनेसे हिंसाके अभावको प्रसिद्धि सुनिश्चित है। इससे स्पष्ट है कि अन्तरंग छेद ही बलवान है, बहिरंगच्छेद बलवान नहीं है। ऐसा होनेपर भी अन्तरंग छेदका आयतनमात्र होनसे बहिरंग छेदको स्वीकार करना ही चाहिए। स्पष्ट है कि इस गाथाद्वारा अशदोपयोगमात्रका निषेध कर शद्धोपयोगको प्रसिद्धि की गई है. क्योंकि शुद्धोपयोग बन्धका कारण न होकर स्वयं संवर-निर्जरास्वरूप है। समिति निश्चयस्वरूप भी होती है और व्यवहारस्वहा भी। यहाँ निश्चय समिति बन्धका कारण नहीं है यह दिखलाकर उसको महत्ता प्रस्थापित की गई है यह उक्त कयनका तात्पर्य है। मालम पड़ता है कि अपर पक्षने इस याथाके पूरे बाशयको ध्यान में न लेकर हो यहाँ उसे अपने पक्ष के समर्थन में उपस्थित किया है। हमें विश्वास है कि वह पक्ष वहीं माथा २१६ को आचार्य अमृतचन्द्रकृत टोकाके इस वचनपर दृष्टिपात कर लेगा अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्व छेदनान् । तस्य हिंसनात् स एवं च हिंसा । अशुद्धोपयोग ही छैद है, क्योंकि उससे शुद्धोपयोगस्वरूा श्रमणपने ( मुनिपने ) का छेद होता है और उसकी हिंसा (छेद) होनेसे वही हिंसा है। इससे जहाँ यह ज्ञात होता है कि वास्तवमें शुद्धोपयोगरूप वर्तना ही मुनिपना है, अन्तरंगमें आत्मशुद्धिरूप निर्मलनाके सद्भाव में भी शुभोपयोगको अपेक्षा मुनिपना कहना यह उपचार कथन है, जिसे उसका आयतन होनेसे स्वीकार करना चाहिये । वहाँ यह भी ज्ञात होता है कि परमागममें Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ ओर उसका समाधान यथार्थ बोटराग परिणामको हो स्वीकार किया गया है, राजपरिणामको नहीं पुरुषार्थसिद्धमुनाप हिंसा और अहिंसाका विवेक कराते हुए जिनागमके सारको बड़े हो प्रांजल शब्दोंमे स्पष्ट करते हुए लिखा है ફ્ર अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवस्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनानमस्य संक्षेपः ||२४|| यथार्थ में रागादि भावोंका उत्पन्न न होना अहिंसा है और उन्हीं रागादि भावोंकी उत्पत्ति हिंसा है यह जिनागमका सार है ||१४| यतः शुभभाव प्रशस्त रागभावरूप है, अतः वह बचका हो कारण है ऐसा निश्चय करना ही जिनमार्गको यथार्थ बढा है। यहाँ पर कोई कह सकता है कि यदि शुभभाव शुभोदयमा व्यवहार र अन्यका हेतु है तो उसका जिनागम में उपदेश क्यों दिया गया है ? रामाधान यह है कि शुभ १. एक तो निवृतिरूप प्रयोजनको ध्यान रखकर उसका उपदेश दिया गया प्रवृत रहनेसे ही परमार्थको प्राप्ति हो जायगी इस दृष्टिसे उसका उपदेश नहीं दिया गया है। २. दूसरे जिसे आत्माका निर्मल अनुभूतिमूलक भेदविज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे जीवको संयमासंथम अथवा संयम आदि रूप आगेकी शुद्धिका ज्ञान करानेके हेतु आगममें ऐसा कथन आया है कि जो अपुत्र आदि १२ व्रतोंका अथवा महाव्रत आदि २८ मूलगुणोंका पालन करता है वह देशसंयमी अथवा सकलसंयमी है । आगमके इस कथनका आशय यह है कि दो कषाय या तीन कषायके प्रभावस्वरूप जिस शुद्धि के सद्भाव में उसके साथ-सान बल या महात्रतादिके शुभभाव दिनाहट होते हैं, बिना हट सहजरूपसे होनेवाले उन मावोसे अपारूप मोखरी शुद्धिका संकेत मिलता है। आगमने महाव्रत अंगीकार करो, समिति गुप्तिका पालन करो इत्यादि रूपसे जो व्यवहारका उपदेश उपलब्ध होता है उसका यहो आशय है कि जिस अकपायरूप वृद्धि के साथ-साथ बिना हट उक्त प्रकारके विकल्प होते हैं उस शुद्धिको प्रथम करो, स्वात्मावलम्बी पुरुषार्थ उक्त शुद्धिको प्राप्त करो। इस प्रकार इस प्रयोजनको लक्ष्यमें रखकर नायममें व्यवहारका उपदेश दिया गया है। ३. तोसरे समग्र रत्नत्रयकी अवस्थारूपसे ज्ञानीके वर्तते समय उपयोगको अस्थिरतावश ज्ञानका परिणाम और योगप्रवृत्ति कैसी होती है इसका सम्पदान करनेके लिए भी जिनागमद्वारका उपदेश दिया गया है । परमागम में व्यवहारधर्मको प्ररूपणाके ये तीन मुख्य प्रयोजन हैं। इन्हें यथावत् रूपसे जानता हुआ ही शानी होनेपर वर्तता है, इसलिए उसके प्रवृत्ति व्यवहारमंके होनेपर भी निश्चयको क्षति नहीं पहुँचती ज्ञानी के निश्वानयने साध्यानभाव इस दृष्टि बनता है, अन्य प्रकार से नहीं 1 I अपर पक्षने भावकों और मुनियोंके जिस आवश्यक कमौका निर्देश किया है वे निश्चय भी है और व्यवहाररूप भी। नियममार इनका स्पष्ट निर्देश किया है। निश्चय प्रतिक्रमणका स्वरूप निर्देश करते हुए बाबा कुंद कुंब वहाँ लिखते है Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ __ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा मोत्तण बयणरयणं रागादीभावधारणं किच्चा । अपाणं जो शायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ॥१३॥ वचन रचनाको छोड़कर तथा रागादि भावोंका वारणकर जो आत्माको पाता है उसके प्रतिक्रमण होता है ॥५३|| यह निश्वय प्रतिक्रमणका स्वरूप है। आचार्य निश्चय प्रायश्पकका स्पष्टीकरण करते हए गाया १४३. १४४ में बतलाते है कि जो श्रमण अशुभ भाव सहित वर्तता है वह अन्यवश (पराधोन) श्रमण कहलाता है, इसलिये उसके तो प्रावश्यकरूप कर्म होता हो नहीं। किन्तु जो श्रमण नियममें शुभ भावसे वर्तता है वह भी अन्यवश घमण है, इसलिये उसके भो आवश्यक कर्म नहीं होता। ___ यह उक्त दोनों गाथाओंका आशय है । इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ निश्चयधर्म होता है वहीं प्रशस्त रागादिरूप परिणाममें व्यवहारधर्मका उपचार किया जाता है। निश्चय धर्म यथार्थं धर्म है और व्यवहारधर्म उपचार धर्म है। अपर पक्षका कहना है कि जिन आगम में गृहस्थों के लिये देवपूजा, गुरूपास्ति तथा दान और मुनियों के लिये स्तवन बन्दना प्रतिक्रमण प्रत्यारूपान आदि रूप व्यवहार धर्म नित्य षडावश्यक कार्योंपे गमित किया है। यदि यह कार्य मात्र बन्धके हो कारण है तो क्या महषियोंने बन्ध कराने और संसारमें खाने को उपदेश दिया हैं । ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता है। इनको इसी कारण आवश्यक बतलाया है कि इनसे मोक्षप्राप्ति होतो है।' समाधान स्वरूप सर्वप्रथम तो हमारा कहना यह है कि वस्तु विचारके समय यदि अपर पर ऐसे तर्कको उपस्थित नहीं करता तो यथार्थ के निर्णय करने में अनुकुलता होती। ऐते तक श्रद्धालु जोवोंको भावनाको उद्वेलित करने के लिए हो दिये जाते है, इसलिए ये यथार्थका निर्णय करने में सहायक नहीं हुआ करते ।। अब रही यह बात कि आचार्योंने इनका उपदेश क्यों दिया है सो इस प्रश्नका समाधान हम इसी उत्तरमे पहले कर आये है। परमार्थरूप मोशहेतुके सिवाय अन्य जितना कर्म है उसका प्रतिषेध करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समयसारमें लिखते हैं मोत्तण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवति । परमट्टमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खो विहिभो ।।१५६॥ निश्चयनयके विषयको छोड़कर विद्वान व्यवहाररूपसे प्रवर्तते हैं, परन्तु परमार्थके आश्रित यतियों के हो कर्मों का नाश आगममें कहा गया है ॥१५६।। उचत गायाकी उत्थानिकामें आचार्य जयसेन लिखते हैं अथ निश्चयमोक्षमार्गहेतोः शुद्धात्मस्वरूपाद् यदन्यच्छुभाशुभमनो-वचन-कायध्यपाररूपं कर्मतन्मोक्षमार्गो न भवति इति प्रतिपादयति । अब निश्चय मोक्षमार्गके हेतु शुदात्मस्वरूपसे अन्य जो शुभ और अशुभ मन, वचन, कायके व्यापाररूप कर्म है वह मोक्षमार्ग नहीं है यह बतलाते है । व्रत, तप आदि शुभोपयोग या व्यवहारधर्म यथार्थ मोक्षमार्ग क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण उक्त गाथाको टीकामें दोनों आचार्योंने स्पष्ट किया है। आचार्य अमृत चन्द्र लिखते हैं Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६८५ या खल परमार्थमोक्षहेतोरतिरिको व्रत-तपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोक्ष हेनुः स सर्वोऽपि प्रतिबिन्द्रः, तस्य इभ्यान्तरस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानमवनस्याभवनात् । परमार्थमोक्षहेतोरेकाष्यस्वभावस्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् ॥१५॥ कुछ लोग परमार्थरूप मोक्षहेतुसे भिन्न जो व्रत, तर इत्यादि शुभ कर्मस्व मोक्षहेतु मानते हैं, उस समस्त ही का निषेध किया है, क्योंकि वह अन्य द्रव्यके स्वभाववाला (पगलस्वभाववाला है, इसलिए उस रूपसे ज्ञानका होना नहीं बनता। मात्र परमार्थ मोचहेतु हो एक दूवर समाववाला है, इसलिए उस रूपसे ज्ञानका होना बनता है ॥१५६।। ये कतिपय प्रमाण है जिनसे व्यवहार घमके स्वरूपपर यथार्थ प्रकाश पड़ता है । अपर पक्षने सम्यक्त्व व चारिवको मिषित अस्यण्ड पर्यायका नाम व्यवहारधर्म रखा है। इस कारण वह पत्र व्यवहारधर्मको बन्धस्वरूप और बन्धका कारण स्वीकार करने में अड़चन देख रहा है इसे हम अच्छी तरहसे समझ रहे हैं। किन्तु कहीं किस परिणामका क्या फल है, यदि यह बतलाया जाता है तो उसका अर्थ संसारमै घुमाना या संसारमें डुबाना नहीं होता है। बल्कि शानी उससे यही प्राशय ग्रहण करता है कि मुझे यह विकल्पको भूमिका भी त्यागने योग्य है । विकल्पमें है और उसे छोड़नेका पुरुषार्थ करना है यह भी तो ज्ञान की ही महिमा है। अपर पक्षका कहना है कि 'अतः इससे बन्ध होते हुए भी यह रागांश संसारका कारण नहीं हो सकता है ।' समाचान यह है कि आत्रब और बन्ध इन्द्रोंका नाम तो संमार है। रागमें जितने काल अटका है उतने काल तो संसार है ही। इसे संसार स्वीकार न करने में लाभ हो क्या ? एक रागपरिणामका बह माहात्म्प है कि उसके फलस्वरूा यन्न जोन कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक यात्रव-वन्धको परम्परामें रचता-पचता रहता है। जिसका जो स्वरूप है उसे स्वीकार करने में हानि नहीं, लाभ है। अन्यथा विवेकका उदय होना असम्भव है। ज्ञानीके रागमें उपादेय बुद्धि नहीं होती यह भेदविज्ञानका माहात्म्य है, व्यवहारधर्मका नहीं। ___अज्ञानी भी स्वर्ग जाता है और ज्ञामो भी पुरुषार्थहीनता वश स्वर्ग जाता है । वहाँस च्युत होकर दोनों ही राजपुत्र होते है। धर्मोपदेश भो सुनते हैं आदि । क्या कारण है कि ज्ञानी उसी भवसे मोक्ष जाता है, अज्ञानी नहों। इससे साष्ट है कि बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव न मोक्ष दिलाते हैं और न संसार हो । अपने अज्ञानका फल संसार है और अपने ज्ञानस्वभावके अवलम्बनका फल मोक्ष है। यहो परमार्थ सत् है । बाह्य द्रव्यादि निमित्त है यह तो व्यवहार है। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हुआ कि पर्याय विभाव और स्वभावके भेदसे मुरूपतया दो ही प्रकारको है तथा उपयोग शुभ, अशुभ और शुद्धके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमेंसे शुभोपयोग एक तो प्रशस्त रागरूप होता है, दूसरा अनुकम्पा परिणामरूप होता है और तीसरा नित्तम क्रोधादि कलुष परिणामके अभावरूप होता है। यह तीनों प्रकारका उपयोग प्रशस्तविषयक शुभरागसे अनुरंजित होता है, इसलिए यह स्वयं आस्त्र व-वन्यस्वरूप होनेसे बन्धका कारण भी है। पंचास्तिकाय गा.८५ को टोकामें आचार्य जयसेनने 'गतिपरिणत जोवों और पुदगलोंको गतिमें धर्मद्रव्यको निमित्तताका समर्थन करनेके अभिप्रायसे 'निदानरहितपरिणामापार्जित-' इत्यादि वचन लिखा है । सो इसका आशय इतना ही है कि जो जीव स्वभावसम्मुख हाकर अपने में आत्मकार्यकी प्रसिद्धि करता Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ जयपुर (खानिया ) तर्चा है. उसके पुण्यरून द्रव्यकर्ममें निमितताका व्यवहार ऐसे ही किया जाता है जैसे गतिकार्यको अपेक्षा द्रव्यमें मिलाका व्यवहार होता है । न धर्मद्रव्य गतिका कर्ता है और न पुण्यकर्म हो मोक्षका कर्ता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ज्ञानके मोक्षकार्यके सम्पादन के समय बाह्य परिकर कैसा होता है यह समत वचन द्वारा प्रसिद्ध किया गया है। ३. मान्य कतिपय प्रश्नोंका समाधान १. अपर पचने प्रवचनमार गा० ४५ की चरचा करते हुए लिखा है कि 'यदि पुण्यका अर्थ भावपुण्य लिया जाय तो श्रो समयसार गाथा १२ आदि उपर्युक्त प्रमाणों यह सिद्ध हो हो जाता है कि पुण्यभाव ( व्यवहारधर्म) से केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है।' आदि समाधान यह है कि हम पहले हो शुभोगयोग अपर नाम व्यवहारधर्मका खुलासा कर खाये है। उससे स्पष्ट है कि बारहवें गुणस्थानमें जिसे आगम में व्यवहारचर्म कहा गया है वह होता हो नहीं । परावलम्बी प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म छटे गुणस्थान तक ही होता है । उसके आगे कषायलेशका सद्भाव हॉनेस कारणकी अपेक्षा नोर्वे गुणस्थान तक भेरूप छेोपस्थापना संयमका निर्देश किया गया है। अतएव १२ वे गुणस्थान में दुष्प्रभाव की कल्पना करना और उससे केवलज्ञानको उत्पत्ति बतलाना उचित नहीं है । पण्डितवर अश्शावरजो अनगारधर्मामृत अ० १ श्लो० ११० को टोका में लिखते हैं-तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमव्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशेन शुद्धमयरूपः शुद्धोपयोगी वर्तते । तदनन्तर अप्रमत्त आदि क्षीणकषाय पर्यन्त गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदविवक्षित एकदेशरूपसे शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग वर्तता है। यहाँ 'त्रिक्षिकदेशेन ' पदका आशय यह है कि ७ वें से लेकर १२ वें गुणस्थान तक इस जीवके शुन्यके विषयभूत एकमात्र त्रिकाली शायकमावका अवलम्बन होकर तस्त्ररूप परिणमनद्वारा शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग वर्तता है। अतएव १२ में गुणस्थानके अन्तिम समयके योग्य निश्चय रत्नत्रयपरिणत आत्मा ही केवलज्ञानको उत्पन्न करता है, बन्धस्वरूप व्यवहारधर्म नहीं ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए । अपर पक्ष इससे पूर्ववर्ती प्रतिशंकामें लिखा है- 'निश्चयधर्म या शुद्धोपयोग यदि फल है तो शुभयोग उसका पूर्ववर्ती पुष्प है।' इससे भी स्पष्ट है कि अपर पक्ष भी स्वयं वृद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म के पूर्व छटे गुणस्थान तक शुभोपयोग या आहारवर्म स्वीकार कर चुका है। अतएव अपर पक्ष के मतानुसार हो शुभयोगरूप व्यवहारमं १२ में गुणस्थानमें नहीं बन सकने के कारण व्यवहारमंसे केवलज्ञानको उत्पत्ति बतलाना सर्वथा आगमविरुद्ध है । जैसे अपर पक्षने पिछली प्रतिशंकामे ७ वे गुणस्थान तक शुभोपयोग स्वीकार किया है । किन्तु पूर्वोक्त आागम प्रमाणसे स्पष्ट है कि ७ वे गुणस्थानमें शुभोपयोग न होकर शुद्धोपयोग हो होता है । अप्रमत्त गुणस्थानके दो भेद हैं--- स्वस्थान अप्रमत और सातिशय अप्रमत्त। वहीं श्रेणि आरोहण के पूर्व जीवके धर्मध्यान होता है और श्रेणिमें शुक्लध्यान होता है ऐसा आगमका अभिप्राय है । सर्वार्थसिद्धि असू. २७ में लिखा है- श्रेण्यारोहणास्प्राक् धर्म्यं श्रेण्योः शुक्ले"। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान श्रेणिके आरोहणके पूर्व धर्म्यध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में दोनों शुक्लध्यान होते हैं । इसी तथ्यको तत्वार्थश्लोकवातिक और तत्वार्थवातिकमें उक्त सूत्रको व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया गया है। इसलिए प्रश्न होता है कि सात नामशान में भी सम्मान के गोपयोग होना चाहिए ? किन्तु वस्तुस्थिति यह नहीं है, क्योंकि धर्म्यध्यान शुभोपयोगरूप ही होता है ऐसा एकान्त नियम नहीं है। वह रागादि विकल्परहित आत्मानुभूतिरूप भी होता है और वीतराग देवादि, अणुनत-महानतादि तथा परजीव विषयक अनुकम्पा आदि रागविकल्परूप भी होता है। इनमेसे रागादि विकल्परूप धबध्यान मुख्यतया पतुर्धादि सोन गुणस्थानों में होता है और रागादि विकल्परहित धय॑ध्यान स्वस्थान अप्रमत्तसंयतके होता है। इसी तथ्यको बाचार्य जयसेनने पंचास्तिकाय गाथा १३६ की टोकामें 'रागादिविकल्परहितधमध्यान-शुक्लध्यान येन'--रागादि विकल्प रहित धर्मध्यान और गुश्लध्यान इन दोकं द्वारा--इन शब्दों द्वारा स्पष्ट किया है। स्पष्ट है कि ७ वें गुणस्थानमें स्वस्थान अप्रमत्तके षम्यध्यान होकर भी वह शुद्धोपयोगरूप ही होता है । अपेशाविशेषसे चतुफीद गुणस्थानों में भी क्वचित कदाचित शोपयोगको व्यवस्था बन जाती है। आगम प्रमाणांका उल्लेख अन्यत्र किया ही है। समयसार माथा १२ को टोका, रागादि विकासे परिणत जोवके लिए व्यवहारनय प्रयोजनवान है, अशुद्ध सोने के समान । इसोका नाम अपरमभावमें स्थित है। ऐसे जीवके लिए प्रतादिका पालन करमा, वीतराग देवादिकी स्तुति आदि करना, बोतराग मार्गकी प्ररूपक जिनवाणी सुनना प्रयोजनवान् है। किन्तु जो १६ बणिक शुद्ध सोनके समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप परमात्मतत्वके अनुभवन में निरत है उनके लिए व्यबहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है यह कहा गया है । इसका अर्थ यह कहा हआ कि '१२ गुणस्थानमें भोपयोग होता है, अतः पुण्यभावसे केवलज्ञानको उत्पत्ति होती है ?' अपर पक्षने उक्त गाथा और उसकी टीकाओंसे यह अर्थ कैसे फलित कर लिया इसका हमें आश्चर्य है। ज्ञानी जीवको अशद्ध मात्माका होना कहाँ तक सम्भव है इसका भी तो उस पक्षको विचार करना था। ६ टे गुणस्थानके आगे १२३ गुणस्थान तक एकमात्र शुद्धनय-शुद्धात्मानुभूलिरूप शुद्धोपयोग ही होता है, अतः केवलज्ञानको उत्पत्ति शुभा. चारसे न होकर शुद्धात्मानुभूति परिणत आत्मा हो उसमें प्रगाढ़ता करके फेवलशानको उत्पन्न करता है ऐसा यही निर्णय करना चाहिए । २. प्रवचनसार गाथा ४५ की दोनों टोकापर दृष्टिपात करनेसे विदित तो यही होता है कि यहाँ 'पुण्य' पद द्रब्यकर्म के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। आचार्य जयसेन 'पुण्यफला अरहता' पदको व्याख्या करते हुए लिखते है पञ्चमहाकल्याणकपूजाजनकं त्रैलोक्यविजयकरं यत्तीर्थकरनाम पुण्यकर्म तत्फलभूता अर्हन्सा मन्ति । पञ्चमहाकल्याणक पजाका जनक और तीन लोकको विजय करनेवाला जो तीर्थकर नामक पुण्यकर्म है उसके फलस्वरूप अरिहन्त होते है। ___ अपर पचने प्रस्तृत प्रतिशंकामें इसका थोड़ा-सा स्पष्टीकरण अवश्य किया है। किन्तु मूल शंका जिस अभिप्रायसे की गई थी उससे तो यह भान प्रगट नहीं होता था। ऐसा मालम पड़ता था कि अपर पक्ष केवलज्ञानकी प्राप्ति भी द्रव्य पुण्यकर्म या शुभाचारका फल मानता है। इसो तथ्यको ध्यान में रखकर हमने Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८८ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा जो लिखा था उसका आशय यह है कि यदि अरिहन्त पदको प्राप्ति यथार्थमें पुण्यकर्मका फल माना जाय तो आगम में 'मोहयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तरायशयाच्च केवलम् (त० सू०१०- १) इस वचनकी कोई उपयोगिता नहीं रह जायगी । प्रश्न १५ के उत्तर में हमने इस पर न तो कोई आपति डालो है और न आपत्ति डालो हो जा सकती है। किसी या सूर्यका आशय स्पष्ट करना इसे आपत्ति डालना नहीं कहते । प्रकृत प्रतिशंका में अपर पक्षने 'तीन लोकका अधिपतित्व' इस वाक्यके व्याशयको स्पष्ट किया है। तो क्या इसे उस वाक्यपर आपत्ति डालना कहा जायगा। यह समग्र तस्यचरचा जिनागमका निश्चय व्यवहार आदि विषयमें आशय स्पष्ट करने के अभिप्रायसे की जा रही है तो क्या इसे जिनागमपर आपसि डालना कहा जायगा ? इस प्रश्नका उत्तर अपर पक्ष स्वयं अपने विवेकसे प्राप्त कर ले। आक्षेपात्मक शब्दप्रयोग करना अन्य बात है और अपने परिणामों का संतुलन रखते हुए तत्रविमर्श करना अन्य बात है। यदि सभी साधर्मी भाई दूसरे साधर्मी भाइयोंपर कीचड़ उछालनेको भाषाका परित्याग कर विवेकके मार्गपर चलना प्रारम्भ कर दें तो इससे वीतराग मार्ग की ही प्रभावना होगी । 4. जर पक्षने० १४ ० ८६ का नामी कर यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है कि 'पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति आदि रूप व्ववहारचारित्र १२ गुणस्थान में भी होता उस पुण्यभावसे मोहनीय कर्म तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायका क्षय होता है और इस कर्मके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है।' समाधान यह है कि धवला पुस्तक १४५० ८६ में अप्रमाद' पदकी व्याख्या की गई है। यहाँ लिखा है को अप्पमादो ? पंचमहम्वयाणि पंच समदीओ तिष्णि गुप्तीओ णिस्सेलकसाग्राभावो च अप्पमादो जमि । अप्रमाद क्या है ? पाँच महाव्रत, पाँच समिति तीन गुप्ति और निःशेष कषायका अभाव अप्रमाद है । यहाँ पाँच महाव्रत आदिरूप परिणामसे निःशेष कषायके अभावका पृथक् रूपसे निर्देश किया है । इससे स्पष्ट हैं कि बायें गुणस्थान में निःशेष कषायका अभावरूप अप्रमाद भाष लिया गया हैं। वहाँ आचार्यका विकल्परूप पाँच महाव्रतादिका सद्भाव दिखलाना इस वाक्यका प्रयोजन नहीं है। विकल्परूप पांच महाप्रसादि छटे गुणस्थान में हो होते हैं, आगे तो स्वरूपस्थितिरूप एकमात्र वीतराग चारित्र ही होता है। वहीं एवें गुणस्थानतक जो छेदोपस्थापना संगमका निर्देश किया है वह मात्र कपालेशके सद्भाय के कारण किया है, बतएव इस वचन आधारसे १२ वे गुणस्थान में पुण्यभाव - शुभाघारकी प्रसिद्धि करना और उससे केवलज्ञानकी उत्पत्ति बतलाना आगमसम्मत कथन नहीं कहा जा सकता । ४. अपर पक्षने हमारा कथन बताकर लिखा है कि '१२वे गुणस्थानमें पुण्य प्रकृत्तियोंके उदयसे होनेवाले भावका नाम पुष्पभाव हैं ।' किन्तु हमने अपने पिछले दोनों उत्तरोंपर दृष्टिपात किया है। एक तो हमने ऐसा वचन लिखा हो नहीं है। मालूम नहीं कि अपर पक्षने उक्त वचनको कल्पनाकर उसे हमारा कैसे बतला दिया। दूसरे मनुष्य गति तीर्थंकर प्रकृति ये जीवविपाको पुण्यप्रकृतियाँ हैं। इनके उदयको निमित्तकर मनुष्यगति तथा तीर्थकर आदि नोनागमभाव पर्याय होतो हैं । ये १४वें गुणस्थातक बतलाई है। इस अपेक्षासे यदि १२वे गुणस्थान में नोभागमभावरूप पुण्यभाव स्वीकार भी किया जाय तो यह कथन 'आगमानुकूल नहीं है, अपर पक्षका ऐसा Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६८९ भिखना कहाँतक आगमानुकूल है इसका वह स्वयं विचार करे। इस विषयमें बहु वक्तव्य होते हुए भी हम और कुछ नहीं लिखना चाहते। ५. अपर पलने 'तीन लोकका अधिपतित्व' को अपनी व्याख्या द्वारा स्वयं उपचरिम घोषित कर दिया । फिर भी हमने उसे 'उपचरित कथन' लिख दिया तो अपर पक्ष हमारे इस कथनको आगमका विवर्याम बतलाने लगा इसका हमें आश्चर्य है । इस सम्बन्धम हमने पिछले उत्तरम क्या लिखा है उसे पुनः उद्धृत कर देते है-'बारह गुणस्थानमें सर्वमोहके क्षीण हो जानेपर जो चौतरागभाव होला है घर अरहंत पद ( केवलो पद) का निश्चयनयसे हेतु है। उस समय जो आम प्रकृतियोंका कार्य है उसमें इसका उपचार होनसे उस पुण्यको भी अरहन्त पदका कारण ( उपचारसे ) भागममें कहा गया है।' हमारा उक्त कथन अपने में स्पष्ट है। इसमें न तो कहीं स्व-स्वामिसम्बन्धको चरचा है और न ही निष्परिग्रह शब्दका ही प्रयोग किया गया है। हम तो इस परसे इतना हो समझे है कि कुछ टीका करनी चाहिम, इसलिए अपर पक्षने यह टीका की है। ६. अपर पा लिखा है कि यदि निशानामा परमार्थको अपेक्षा व्यवहारधर्मका पालन करता है तो उसके लिए बह सम्यक्त्वको प्राप्तिका कारण होता है ।' आदि । समाधान यह है कि प्रकृतमें उक्त वाक्यमें आगे हा परमार्थको अक्षा' इस पदका क्या अर्थ है यह विचारणीय है । इस वाक्यका अर्थ 'व्यवहारवर्मको परमार्थ मानकर' वह तो हो नहीं सकता, क्योकि आगममें निश्चयधमके साथ जो शुभाचार परिणाम होता है, उसे व्यवहारधर्म कहा गया है। इसलिए बहुत सम्भव है कि अपर पक्षने उक्त वाक्यका प्रयोग 'परमार्थको लक्ष्यमें रखकर' इस अर्थमें किया होगा । यदि यह अर्थ अपर पक्षको इष्ट है तो अपर पक्षके उक्त कपनका यह आशय फलत होता है कि जो सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके सन्मुख होता है उसके बाहमें परमागमका श्रवण, जीवादि नो पदार्थोंका भूतार्थकपसे विचार, वीतराम देवादिकी उपासना-भक्ति आदि पुण्य किया नियमसे होती है। उसके अशुभाचरण नहीं होता, क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही शुद्धनयके विषयभूत आत्माके अवलम्बनसे तत्स्वरूप परिणमन द्वाग स्वानुभूति लक्षणवाले सम्यवत्व को प्राप्त होता है । स्पष्ट है कि यहाँपर सम्यक्व प्राप्तिका निश्चय कारण तां दादनयके विषयभूत ज्ञायकस्वभाव आत्माका अवलम्बन हांकर उपयोगका तत्स्वरूप परिणमन ही है, वाह्य विकल्परूप पुण्यभाव नहीं। फिर भी बाह्य में इस जीवकी ऐसी भूमिका होती है, इसलिये शुभाचार या पुण्यभावको उसका व्यवहार हेतु कहा जाता है। श्री पवला पु. ६१० ४२ में तथा सर्वार्थसिद्धि १-७ में इमी आशयसे सम्यक्त्वक बाह्य साधनोंका निर्देश किया है। सम्बत्व प्राप्तिके समय यथासम्भव बाह्य परिकर ऐसा ही होता है इसमें सन्देह नहीं । मुख्यता तो उसकी है जो सम्यक्त्व प्राप्तिका यथार्थ कारण है 1 बह न हो और बाह्य परिकर हो सो सम्बस्व प्राप्त नहीं होता। इसलिए उसको प्राप्तिका वही निश्चय हेतु है यह अपर पक्षके उक्त कथन से ही सिद्ध हो जाता है। ७. 'सम्यक्त्वकी उत्पत्ति मिथ्याष्टिको होती है' इसका तो हमने निषेष किया नहीं। पर मिध्यादृष्टि रहते हुए नहीं होतो, मिथ्यात्व पर्यायका व्यय होकर ही सम्यक्त्वको उत्पत्ति होती है ऐमा उसका अर्थ समझना चाहिये । तथा भेदविवक्षा, सम्यक्त्रो भो सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है यह लिखा या कहा जाय तो भी कोई हानि नहीं, क्योंकि द्वितीयादि समयों में जो सम्यक्त्व पर्याय उत्पन्न होती है वह सम्यवस्वीके ही - - - - Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० जयपुर (खानिया) त्वच होती है शादि मतः मिध्यात्व पर्यायका व्यय कर जीव हो सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, अतः आत्मस्वभाव के सन्मुख हुआ आत्मा ही उसका साधकतम करण और निश्चय कर्ता है यह सिद्ध होता है। ८०६०४२७ का कथं जिम्बिणं इत्यादि वचनद्वारा अतिवृतिकरण के प्रथम समय में स्थित जोवपरिणामका निर्देश किया गया है। उसको जिनबिम्बका देखना कहा गया है, क्योंकि बहोपर मध्यस्थादि कर्मके निवसि-निकाचित्र वग्धका बिन्द होता है। अतएव इस वचनका कर्मशास् अनुसार अर्थ करना ही उचित है। व्यवहारका वक्तव्य इसोको कहते हैं भावपाड़ गाथा १५३ तथा पदिति १४-२ का भी यही आशय है कि जो स्वभाव सम्मुख हो आत्माको प्राप्त करता है उसकी जिनदेवादिमें प्रगाह भक्ति नियमसे होती है। ९. अपर पक्षने जा यह लिखा है कि जो मियादृष्टि परवार्थको न जानते हुए मात्र विषयसामग्री तथा सांसारिक सुखको प्राप्ति लक्ष्यसे अप्रशस्त रागमहित कुछ शुभ क्रिया करता है और उनसे जो होता है, वह पुष्पभाव तथा पुण्य संसारका ही कारण है आद पुण्यवग्य यो इस सम्बन्ध इनमा हो कहना है कि अप्रवराग हो और शुभ क्रिया तथा शुभह नहीं हो सकता । यह परस्पर विरुद्ध कथन है। प्रशस्त रागका ही शुभक्रिया तथा शुभभाव के साथ अन्वयव्यतिरेक है, अप्रशस्त रागका नहीं। इसी प्रकार शुभक्रियाका शुभभाव के साथ ही अन्वयव्यतिरेक हैं, अन्यके साथ नहीं। आग निदान उल्लेख अवश्य है, पर उसका यह अर्थ नहीं कि पूयक्ति आदिरूप परिव्याम शुभ निदान है। उसके फलस्वरूप पंचेन्द्रियोंके विषयोंकी कामना करना निदान अवश्य है यहाँ तो केवल प्रश्न इतना ही है कि ओ शुभ मन, वचन, कायका व्यापार होता है उसने आप ही सही बन्ध होता है या नहीं ? इस विषय में समस्त परमागमका एकमात्र यही अभिप्राय है कि उससे नरकादि दुर्गति हेतुभूत पापकर्मका अन्न होकर सिके कारण पुण्यकर्मका बन्ध होता है। यह जीव सम्यष्टि है, इसलिए इस अपेक्षासे उसे परम्परा सुविसका हेतु कहना अन्य बात है। इसका आशय तो इतना ही है कि रत्नत्रयपरिणत उपत ata मोक्षका पात्र होता है, इसलिए उसके महचर शुभगाव में भी मोक्षहेतुताका व्यवहार किया जाता है । १०. अवर पक्षका यह लिखना भी ठीक नहीं कि 'प्रसार प्रथम अध्याय आदि प्रयोग मात्र पार्थको नको मी पूर्णतया हेय बनलाया गया है क्योंकि जिसके पुण्यमात्र उपादेय बुद्धि है वह सम्यग्दृष्टिका लक्षण नहीं है और न उसे परमार्थ का जानने वाला ही कहा जा सकता है। कारण कि जिसको पुष्यमात्रमें उपादेय वृद्ध है उसकी उसके फल उदय बुद्धि न हो यह नहीं हो सकता का द्वारा पकड़े गये आत्मनिन्दा तर चीरके समान हो वह बाह्य क्रियाओं में प्रवृत्त होता है। अन्तरंग में तो वह इन क्रियाओंको करते हुए भी एकमात्र अनन्त सुखके निधान निज परमात्मतत्त्वको ही आश्रय करनेयोग्य मानता है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिमें यही अन्तर है । इसी दृष्टिसारगाथा ११ को टीका 'अतः द्रोपयोग उपादेयः शुभोपयोगो यः प्रतोपयोग उपादेय है और शुभोपयोग हेव है यह वचन कहा गया है। यह प्रवचनसार प्रथम अध्यायका ही वचन है 1 इसमें सम्यग्दृष्टि शुभोपयोगको या परमार्थको न जाननेवाले मिध्यादृष्टिके भोपयोगको मात्र हेर बतलाकर शुभमको लाया गया है। इस प्रकार प्रवचनकार अ० २ गा० १५६ में सम्बदृष्टि कैसी और Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १३ और उसका समाधान ६९१ भावना करता है इसका निर्देश करते हुए जो यह लिखा है कि वह विचार करता है कि मैं अशुभोपयोग शुभोपयोगसे रहित होकर समस्त परद्रव्योंमें मध्यस्थ होता हुआ ज्ञानस्वरूप आत्माको ध्याता हूँ। गाथा इस प्रकार है असुहोवोगरहिदी सहावजुत्तो ण अपाणदवियन्हि । होज मज्झस्थोऽहं णापगम पगं झाए ।।६।। यह सम्यग्दृष्टि होको तो भावना है। श्रुन, गुरूपदेश और युक्ति के बलस मिथ्पादष्टि भी गरव्यभावोंसे भित्र आत्माका निर्णय कर जब उक्त प्रकारकी भावना करता हुआ आत्मस-मुख होकर जाम लोन होता है तभी तो वह मम्पदृष्टि बनता है। सम्यग्दृष्टि बनने या सम्पदृष्टि बनकर आगे बढ़ाने का इसके सिवाय अन्य कोई मार्ग नहीं है। समयसार गाथा १४६ में चार प्रकारसे शुभाशुभमात्र जोपपरिणाम होकर भी अज्ञानमय भात्र होनेमे दोनों एक हैं, इसलिए कारण अभेदने दोनों को एक कर्म बतलाया गया है। दूसरे शुभाशुभ जो द्रव्यकर्म है वे दोनों केवल पुद्गलमय होनेसे एक हैं. इसलिए स्वभावके अभेदसे उन दोनोंकाक कर्म कहा गया है। तीसरे इनके योगसे जो शुभाशुभ फल मिलता है वह भी केवल पुद्गलमय होनसे एक है. इसलिए अनुभव अभेदसे दोनोंको एक कहा गया है। चौथे शुभ-मोक्षमागं केवल जो वमय होनरी और अशुभ-बन्धमार्ग केवल पुद्गलमय होनसे उन्हें अनेक बतला कर भी दोगोंके ही पुदगलमय बन्धमार्गके आश्रित होने में आश्रयक अभेदसे दोनोंको एक कर्म कहा गया है। इसमे स्पष्ट है कि समयसार गाथा १४५ द्वारा शुभाशुभ द्रव्यकों के समान शुभाशुभरूप दोनों प्रकारके भावकमौका भी निषेध किया गया है और गाथा १४७ में इन दोनोंको स्वाधीनताका विनाश करनेवाला कहा गया है । शुभभाव भी अशुभभाबके समान औदयिकभाव तथा उममें उपयुक्त आस्माका परिणाम है और 'ओदइया अन्धयरा' इस सिद्धान्तके अनुसार वह बन्धका हो कारण है, अलः ज्ञानी की अशुभभावके समान शुभभावमें भो हेय बुद्धि ही होती है ऐसा यहाँ समझना चाहिए, क्योकि पुरुषार्थकी हीनताबमा शुभभाव और तदनुसार व्यापार हामा अन्य बात है, किन्तु इसमें हेयबुद्धि का होना अन्य बात। ज्ञानोके शभभाव अवश्य होता है और तदनुसार मन, वचन, कायका पागार भी होता है इसमें आपत्ति नहीं। किन्तु ऐसा होते हुए भी उसकी उसमें हेपबुद्धि बनी रहती है तो ही वह मार्गस्थ है-जान, वैराम सम्पन्न है यह्न उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रतिशंकाका मर्दाङ्ग समाधान किया। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर :१: शंका १४ पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणन होनेपर स्वतः छूट जाता है. या उसको छुड़ाने के लिये किसी उपदेश और प्रयत्नको जरूरत होती है ? समाधान १ आत्मा के शुद्ध स्वभावरूप परिणसिके कालमें निर्विकल्प अवस्था होती है। ऐसे समयमै उसके बाह्म उपदेशादिका योग बन ही नहीं सकता। साथ ही उसका उस अवस्थामे प्रति समयका पुरुषार्थ स्वहस स्थिति के अनुरूप ही होता है। इस कारण उस अवस्था, उसे पुण्यको घड़ाने के लिए न तो किसी उपदेशकी आवश्यकता पड़ती है और न ही किसी स्वतन्त्र प्रयत्नकी भी। किन्तु जिस क्रमसे उसकी प्रात्मविशुद्धि बढ़ती जाती है उस क्रमसे यथास्थान आत्मविशद्धिका योग पाकर पापके समान पुण्य भी स्वयं छूटता जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्यवयं अमृतचन्द्र समयसार गाथा ७४ की टीकामें कहते है सहजविज़म्ममाणचिकितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथा आत्रवेभ्यो निवर्तते, यथा यथा आत्रवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानधनस्वभावो भवतीति । तावत् विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत् सम्यगासवेभ्यो निवसते, तावदानवेभ्यश्च निवतने यावत् सम्यग्विज्ञानघनस्वभाषो भवतीति ज्ञानानपनिवृत्योः समकालरवम् । सहजरूपप्ते विकाशको प्राप्त चित्तशक्तिसे ज्यों-ज्यों विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है त्यों-त्यों आत्रयोंसे निवृस होता जाता है (यह कथन निश्चयपक्षको मुख्यतासे किया गया है ) और ज्यों-स्यों आत्रयोंसे निवृत्त होता जाता है त्यों-त्यों विज्ञानस्वभाव होता आता है (यह कथन ब्यवहारमयकी मुख्यतासे किया गया है तथा इन्हों दोनों नयोंकी अपेक्षा यह भी लिखा गया है कि-) उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना सम्यक प्रकारसे आस्रबास निवृत्त होता है और सतना आस्तवोंसे निवृत्त होता है जितना सम्यकप्रकारसे विज्ञानघनस्वभाव होता है। इस प्रकार ज्ञानको और बारबों को नियुक्तिको समकालपना है। इस प्रकरणसे यहाँ इतना समझ लेना चाहिये कि निश्चय और व्यवहार में दो पक्ष है । तदनुसार प्रत्येक स्यानपर इनका उस उस स्थानके योग्य सुमेल होता है। यहाँपर इनकी समकालता इमी आधारसे बतलाई गई है। विविक्षित उपादान और विवक्षित निमित्तकी अपेक्षा कार्य-कारण परम्परामें भी इसी प्रकार प्रत्येक समयमें दोनोंकी समकालता है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय दौर शंका १४ पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आस्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होनेपर स्वतः छूट जाता है या उसको छुड़ानेके लिए किसी उपदेश और प्रयत्नकी जरूरत होती है ? प्रतिशंका २ आपने अपने उत्तरमें लिखा है-'किन्तु जिस क्रमसे उमको आत्मविशुद्धि बढ़ती जाती है उस क्रमसे यथास्थान प्रात्मविशुद्धिका योग पाकर पापके समान पुण्य भी स्वयं छूटता जाता है। इसके लिए जो गाथा ७४ समयसारको टीकाका प्रमाण दिया है वह आपके इप कायनको पुष्ट नहीं करता है । यह उत्तर हमारे प्रश्नसे सम्बन्धित नहीं है, क्योंकि हमारा प्रश्न पुण्यको चरम सीमाके अथवा आत्माक शुद्ध स्वभावरूप परिणत अस्पा विषयमें था और पुण्यके छूटन के विषयमें था। फिर भी आपने अप्रासंगिक 'पापके स्वयं छूटने का उल्लेख किया है। आपका यह कपन आगमविरुव है ।। हिंसा, असत्य आदि सब पापोंकी बुद्धिपूर्वक प्रतिज्ञास्य त्याग किया जाता है जैसा कि धवल पुस्तक १पृ० ३६६ पर कहा है सर्वसावग्रयोगात् विरतोऽस्मीति सकलसावद्ययोगविरतिः सामयिकशुद्धिसंयमो दम्यार्थिकत्वात् । अर्थ-में सर्वप्रकारसे सावध योगसे विरत है' इस प्रकार द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा सफल साबध योगके त्यागको सामायिकशुद्धिसंयम कहते हैं। इसो कपनको पुष्टि श्री कुंदकुंद भगवान्के प्रवचनसार गाथा २०८-२०९ में साधुके २६ मूलगुणोंका वर्णन करते हुए तथा श्री अमृतचन्द्र जी सूरिके इन वाक्योंसे होती है--- सर्वसानयोगप्रत्याख्यानलक्षणेकमहायतब्यक्तवशेन हिमानूनस्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरस्यात्मकं पंचत्रतं प्रसं। अर्थ-सर्व सावधयोगके त्यागस्वरूप एक महाव्रतके विशेष होनेसे हिंसा, असत्य, चोरी, ( अब्रह्म) और परिग्रहकी विरत्तिस्वरूप पंच महानत है । इन आगमप्रमाणोंसे यह सिद्ध है कि हिमादि पापोंका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है। किन्तु पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुंचकर अथवा आत्माके शुद्धस्वभावरूप परिणत होनेपर छट जाता है, अतः स्वयं छुटनेको अपेक्षा पुण्य और पापको रामान बताना उचित नहीं है। जितने भी जीव आजतक मोक्ष गये है, जा रहे है और जानेंगे वे सर्व पागका चिपूर्वक त्याग करके हो मोम गये हैं, जा रहे हैं और जावेंगे । शंका १४ पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर अथवा आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होनेपर स्वतः छूट जाता है या उसको छुड़ाने के लिए किसी उपदेश और प्रयत्नकी जरूरत होती है ? Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रश्नका उत्तर देते हुए जो कुछ लिखा गया है उसके आधारसे उपस्थित की गई प्रतिशंका २ से विदित होता है कि यह तो मान दिलाना है कि पर: किए होती है वैसे-से पुण्य स्वयं छुटता जाता है। मात्र प्रतिशंका २ पापको प्राधार बनाकर उपस्थित को गई है। उसमें बतलाया गया है कि पापका छोड़ना पड़ता है, जब कि विशुद्धिका वोग पाकर पुण्य स्वयं छूट जाता है। समाधान यह है कि चाहे पुण्यभाव हो या पापभाव दानाक छुटनको प्रक्रिया एक प्रकारको ही है । उदाहरणार्थ एक ऐसा गृहस्थ लीजिए जो मुनि वनको अगीकार करता है । विचार करने पर विदिन होता है कि जब वह मुनिधर्म को अंगीकार करता है तब व्यवहारसे वह भी अणुशतादिरूप पुण्यभावका त्याग कर ही महानतादिरूप पुण्यभावको प्राप्त होता है, इसलिए यह कहना कि पापका त्याग करना पड़ता है और विशुद्धिका योग पाकर पुण्य स्वयं छूट जाता है ठोक प्रतोत नहीं होता। पर यह सव कथन आगममें व्यवहानियको अपेक्षा किया गया है। वस्तुतः विचार करनेपर पुण्यभावका योग पाकर पापभाष स्वर्य छूट जाता है और विशुद्ध का योग पार पुण्यभाव स्वयं टूट जाता है। पापभाव, पुण्यभाव और गुद्धभाव ये तीनों मात्माकै परिणाम है । अतः उत्पाद-व्ययके नियमानुसार जब एक भावको प्राप्ति होती है तो उससे पूर्वके भाव का स्वयं व्यय हो जाता है। प्रतिशंकामें जितने प्रमाण दिये गये हैं उन सबका व्यवहारनयकी मुख्षतामे ही वन उन शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है। परमार्थसे विचार करने पर पाप, पुण्प या शुद्धरूप उत्तर पर्याय के प्राप्त होनेपर पूर्वको पर्यायका पप होकर हो उसकी प्राप्ति होती है। तृतीय दौर शंका १४ मूल प्रश्न यह है-पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँच कर अथवा आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होने पर स्वतः छूट जाता है या उसे छुड़ाने के लिये किसी उपदेश या प्रयत्नकी जरूरत है? प्रतिशंका ३ आपने इसके प्रथम उत्तरमें यह तो स्वीकार कर लिया था कि 'द स्वभाषा परिणतिके काल में पुण्य स्वयं छूट जाता है', किन्तु प्रसंगसे बाहर यह भो लिच दिया कि पाप भी स्वयं छूट जाता है । यद्यपि पापके सम्बन्ध में प्रश्न नहीं था तथापि अपनी मान्यता के कारण आपने पापको स्वयं छुट जानेवाला लिख दिया तथा इसके लिये किसी आर्ष ग्रन्धका प्रमाण भी नहीं दिया। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १४ और उसका समाधान इसपर प्रतिशंका प्रस्तुत करते हुए श्री पवल व प्रवननसारका प्रमाण देकर हमने यह सिद्ध किया था कि पापोंका बुद्धिपूर्वक त्याग किया जाता है, वे स्वयं नहीं छूटते । आपने दुसरे उत्तरमे हमारे द्वारा प्रदत्त प्रमाणोंको यह लिखकर कि "जितने प्रमाण दिये गये है उन सबका व्यवहारनयको मुरुपतासे ही उन शास्त्रों में प्रतिपादन किया गया है' अवहेलना की और लिखा है 'घस्तुतः विचार करनेपर पुण्यभावका चोग पाकर पापाव स्वयं छूट जाता है। इसके साथ साथ आपने यह भो लिखने का प्रयास किया है 'गृहस्य भी अगुव्रतादि पुण्यभावका त्यागकर महाव्रतरूप पुण्यभावको प्राप्त होता है। आपने इस उत्तर में भी किसी आगमप्रमाणको उद्धृत नहीं किया है। निश्चयनयकी अपेक्षासे तो आत्मा न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है (ममयसार गाचा ६) और न राग है, न द्वेष है,न पुण्य है,न पाप है (समयसार गाथा ५०-५५), किन्तु ज्ञायक है, अत: निश्चयनयको अपेक्षासे रागद्वेष या पुण्य-पापके छोड़ने या छूटनेका कथन ही नहीं हो सकता । जब राग-द्वेष, पुष्य, पाप व्यवहारनयको अपेक्षासे है (सममसार गाथा ५६) तो इनके छोड़ने या घटनेका कथन भी व्यबहारनयसे होगा। श्री कुन्दकुन्द स्वामी तथा श्री अमृतचन्द्रसुरिने प्रवचनसार तया श्री वीरसेन स्वामीने ववल ग्रन्थमैं सर्व सावा योगके त्यागके विषय में लिखा है वह आपकी दृष्टि में अवास्तत्रिक है, इसीलिये आपने यह लिख दिया कि वास्तविक तो पावभाव स्वयं छूट जाता है । आप हो इतना साहस कर सकते हैं, हमारे लिये तो आर्षवाक्य वास्तविक है। गृहस्थक संघमासयम पांचवां गुणस्थान होना है अर्थात महिलाका त्याग होता है और स्थावर हिंसाका त्याग नहीं होता। अब वह मुनिदीक्षा ग्रहण करता है तब वह रायम अंशका त्याग नहीं करता, किन्तु शेष असंयमका त्यागकर पूर्ण संयमी बन जाता है। यहां पर भी उसने शेष असंयमरूपी पापका हो त्याग किया। जब आप अपने प्रथम उत्तरमें यह स्वीकार कर चुके हो कि पुण्य स्वयं छूट जाता है उसको छहानके लिये किसी उपदेदा या प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती तो अब उसके विरुद्ध कैसे लिखते है कि पुण्यभावका भी त्याग किया जाता है। संयमाचरण चारित्रके दो भेद है-१. सागार संघमाचरण और निरागार संयमाचरण चारित्र । श्री कुन्दकुन्द स्वामीने चारित्रपरहर गाथा २१ में इस प्रकार कहा है दुविहां संजमचरणं साधार तह हवे णिरायारं । सामारं सांये परिग्गहरहिय ग्थल णिशयारे ।।२।। अर्थात् संयम चरणके दो भेद है-सामार संयमचरण और निगगार संघमचरण । इनमें सागार संयमघरण परिग्रहसहित गृहस्थके और निरागार संयमवरण परिग्रह यहित मुनियाके होता है । पंचेव पुब्वियपदं गुणव्वयाई हति सह तिण्णि । सिवावय चत्तारिय संयमचरणं च सायारं ॥२३॥ अर्थ-पांच अणुव्रत, तीन गुणयत और चार शिक्षाप्रत यह बारह प्रकारका सागार संयमचरण है । पंचेंदियसंवरणं पंच बया पंचविसकिरियास। पंच समिदि तब गुत्ती संयमचरण णिराया ॥२८॥ अर्थ-पांच इन्द्रियों का संयर, पांच महाव्रत, पन्चौस क्रिया, पांच समिसि, तीन गुप्ति....वह निराकार संयमचरण है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९.६ जयपुर (स्वानिया ) तस्वचर्चा इन दोनों प्रकार के संयमवरणोंसे पक्षमादि गुणस्थानोंमें प्रतिसमय गुणश्रेणी निर्जरा होती है जिसे करणानुयोग के विशेषज्ञ भली-भाँति जानते हैं । कर्मनिर्जरा तथा आत्माको पवित्रता के कारण है, इसीलिये व्रतोंको पुण्यभाव कहा जाता है। इस सम्बन्धमं विशेष कथन प्रश्न नं० ४ में किया जा चुका है, पुनरुक्ति दोषसे यहाँ नहीं किया गया है । इस प्रकार पाप छोड़ा जाता है और पुण्य अपनी चरम सीमाको पहुँचकर स्वयं अथवा आमाके शुरु स्वभावरूप परिणमन होनेपर स्वतः छूट जाता है । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी । मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका १४ पुण्य अपनी चरम सोमाको पहुँचकर अथवा आत्मा के शुद्ध स्वभावरूप परिणत होने पर स्वतः छूट जाता है या उसे छुड़ाने के लिए किसी उपदेश या प्रयत्नकी जरूरत है ? प्रतिशंका ३ का समाधान हमारी ओरसे इस प्रश्नका प्रथम बार जो उत्तर दिया गया था उसमेंसे यह अंश तो प्रतिशंका २ में स्वीकार कर लिया गया है कि 'आत्माके शुद्ध स्वभावरूप परिणत होने पर पूण्य स्वयं छूट जाता है ।' किन्तु पाप स्वयं छूट जाता है' यह कथन दूसरे पक्षको मान्य नहीं है । पर पक्षने अपने इस अभिप्रायका समर्थन प्रतिशंका २ में तो किया ही है, प्रतिशंका ३ भी इसी अभिप्रायके समर्थन में लिखी गई है। साथ ही इसमें कुछ ऐसी बातें और लिखी गई हैं जिनका उद्देश्य समाजको भ्रममें डालना प्रतीत होता है । अस्तु, हम दूसरे पक्ष की ऐसी बातोंका उत्तर तो नहीं देंगे, किन्तु इतना अवश्य ही स्पष्टोकरण कर देना चाहते हैं कि प्रमाण प्ररूपणाके समान नयप्ररूपणा भी जिनागमका अंग है । अतएव जिनागममें जहाँ जिस नयखे प्ररूपणा हुई है वहाँ उसे उस नयसे समझना वा अन्यके लिए प्रतिपादन करना क्या यह वास्तव में जिनागमको अवहेलना है या उससे विपरीत अर्थ फलितकर अपने विपरीत अभिप्रायको पुष्टि करना यह वास्तव में जिनागमकी अवहेलना है, इसका दूसरा पक्ष स्वयं विचार करें । पापमाद, पुण्य भाव और शुद्ध भाव ये तोनों आत्माकी परिणतिविशेष हैं। इनमें से आत्मा जब जिस भावरूपसे परिणत होता है तब तन्मय होता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में कहा है जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो । सुद्रेण सदा सुद्धो हवदि हि परिणामसमाची ||९|| जो परिणाम होता है और जब शुद्धभावरूपसे परिणमता है तब शुद्ध होता है ||६|| होनेसे जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमता है तब शुभ या अशुभ (स्वयं) यह वस्तुस्थिति है | इसे दृष्टिपथ में रखकर हमें मूल प्रश्न पर विचार करते हुए सर्व प्रथम यह देखना है कि चरम सीमाको प्राप्त हुए पुण्यका क्षय और बात्माके शुद्ध स्वभावको प्राप्ति ये दोनों क्या हैं, इन Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १४ और उसका समाधान दोनोंके कारण एक हैं वा भिन्न-भिन्न, तथा ये दोनों एक कालमें होते है या भिन्न-भिन्न कालमें ? यह तो मामा नहीं जा सकता कि चरम सीमाको प्राप्त हए पूण्यका क्षय और आत्मा के शुद्ध स्त्रमावकी प्राप्ति इन दोनों में सर्वथा भेद है, क्योंकि ऐसा मानने पर कार्योत्पादः क्षयः'क्षय कार्योत्पाद ही है (आप्तमीमांसा श्लोक १८ ) इस वचन के साथ विरोष आता है। इन दोनोके कारण भी पृथक-पृथक नहीं माने जा सकते, क्योंकि ऐसा मानने पर 'हेसोनियमात ये दोनों एक हेतसे होते हैं ऐसा नियम है ( वही) इस वचनके साथ विरोध माता है । इन दोनोंके होने में कालभेद भी नहीं है. क्योंकि ऐसा मानने पर 'उपादानस्य पूर्वाकारण शयः कार्योत्पाद एवं'-उपादानका पत्रकारसे क्षय कार्यका उत्पाद ही है इस बचनके साथ विरोव आता है। अतएव जिस प्रकार यात्मलक्षी सम्यक पुरुषार्थ द्वारा आत्माके शुद्धस्वभावकी प्राप्ति होने पर चरम सीमाको प्राप्त हुए पुण्यका स्वयं छूट जाना प्रतिशंका २-३ में स्वीकार कर लिया गया है उसी प्रकार शुभ भावके अनुरूप परलक्षो पुरुषार्थ द्वारा पुण्यभावके प्राप्त होने पर पापभावका स्वयं छुट जाना भो मान्य होने में आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि तोमो स्थलों में न्याय समान है। यहाँ सर्वप्रथम पुण्यभाव या पापभाव स्वयं छट जाता है इस कथनका क्या तात्पर्य है इसका स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। बात यह है कि शुद्धभावके समान ये दोनों आत्माके भावविशेष है। इसलिए एक भावका उत्पाद होनेपर दूसरे भावका ब्यय नियमसे होता है। उत्पाद और श्रम इनको जो पृथक पृथक कहा गया है वह संज्ञा, लत्रण आदिके भेदसे ही पृथक्-पृथक कहा गया है-'लक्षणात पृथक ( आप्तमीमांसा श्लोक ५८), अतएव जो पूर्वभावका ध्यय है वहो उत्तरभावका उत्पाद है, इसलिए यह कहना कि 'रापभावको छोड़ना पड़ता है' संगत प्रतीत नहीं होता। ऐसा कहना भाषाका प्रयोगमात्र है। पहले कोई पापभावको बलात् छोड़ता हो और बादमें पुण्य भावको ग्रहण करता हो ऐसा जिनाममके किसी भी वचनका अभिप्राय नहीं है । समझो, किसीने 'मैं सर्व साधसे विरत है ऐसा भाव किया, केवल वचनात्मक प्रतिमा ही नहीं की, क्योंकि उक्त प्रकारसे पवनात्मक प्रतिज्ञा ( व्यापार ) करनेपर भो भाव भो उक्त प्रतिज्ञा के अनुरूप हो हो जाय ऐसा कोई नियम नहीं है। आगममें व्रतो का लक्षण बतलाते हुए निःशल्यो ब्रती-जो माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीनों शल्पोंसे रहित होता है वह प्रती है ( तत्वार्थसूत्र अ०७ सूत्र १८) यह वचन इसी अभिप्रायसे दिया है। अतएव प्रकृतमें यही निर्णय करना चाहिए कि पुण्यरूप परिणाम होनेपर पाप भाव स्त्र टूट जाता है, क्योंकि पुण्यभावका उत्पन्न होना ही पापभावका छूटना है। यह दूसरी बात है कि पुण्यभावके होममें कहीं बाह्य उपदेशादि सामग्री निमित्त होती है और कहीं वह स्वयं अन्तरंगमें व्रतादिके स्वीकाररूप होता है । यद्यपि घवला पु०१ पु० ३६६ का प्रतिज्ञका २ में उद्धरण दिया गया है, परन्तु उसका अभिप्राय हमारे उक्त कथनके अभिप्रायसे भिन्न नहीं है । अन्तरंगमें जो सर्व साबश्व योगसे विरतिरूप परिणाम उत्पन्न होता है उसे ही धी धवलाजी में में प्रतिज्ञापमें निर्दिष्ट किया गया है। प्रतिज्ञा वाचनिक भी होती हैं और मानसिक भी । कोई वानिक वा मानसिक जैसी भी शुभप्रतिज्ञा कर रहा है उसीके अनुरूप अन्तरंग में परिणामकी प्राप्ति होना यह शुभभाव है जो कहीं पापभावको निवृत्तिरूप होता है और कहीं अन्य प्रकारके शुभभावकी निवृत्तिरूप होता है। हमने अपने प्रथम और द्वितीय उत्तरमें यही अभिप्राय व्यक्त किया था। प्रवचनसार गाथा २०८ और २०६ से भी यही आशय झललता है। अतएव हम पूर्वमें जो कुछ लिल आये है वह सब आगमानुकूल ही लिव आये हैं ऐसा यह समझना चाहिये। द्वितीय उत्तरम हमने धवला प्रथम भाग और प्रवचनसारके उक्त उल्लेखोंको व्यवहारमयकी प्ररूपणा ८८ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा बतलाया था। परम पारिणामिक भावको ग्रहण करनेवाले शुद्ध निश्चयनयका निर्देश करते हुए अपर पक्षको ओरसे भी यद्यपि पुण्य-पाप आदि भेद कयनको व्यवहारनवकी प्ररूपणा स्वर्व स्वीकार किया गया है, फिर भी हमारी ओरसे पापभाव छोड़ना पड़ता है यह कमन व्यवहारमयको प्ररूपणा है ऐसा लिम्बनेपर हमपर अकारण रोष प्रगट किया गया है जो शोभनीक प्रतीत नहीं होता। 'गृहस्थ भी अणुनतादि पुण्यभावका त्यागकर महामतरूप पुण्यभात्रको प्राप्त होता है' यह कथन हमारो ओरसे पर्यायदृष्टि से लिखा गया था, क्योंकि प्रत्येक पर्यायका यह स्वभाव है कि उसका व्यय होकर उत्तर पर्यायका उत्पाद होता है। फिर भी प्रतिशंका ३ में इसका इस प्रकार तोड़-मरोड़ कर खंडन किया गया जो स्वयं प्रतिशंका पक्षको ही कमजोर बनाता है। यह तो प्रत्येक आगमाभ्यासी जानता है कि जो संयमारांयमी संयमभावको अन्तरंग में स्वीकार करता है वह आंशिक संयम्भावको निवृत्तिपूर्वक पूर्ण संयमभावको अन्तरंगमें स्वीकार करता है अर्थात् इसके पूर्व जो उसके बाह्याभ्यन्तर आंशिक संयमरूप प्रवृत्ति होती थी उसके स्थान में पूर्ण रायमरूप प्रवृत्ति होने लगती है। संतानकी अपेक्षा आंशिक संयमभाव पूर्ण संयमभाव अन्तनिहित है यह दूसरी बात है। अतएव जो कथन जिस अभिप्रायस जह! किया गया हो उसे समझकर ही वस्तुका निर्णय करना चाहिये । शास्त्रके रहस्यको हृदयंगम करने की यही परिपाटी है। आगे प्रतिशंका ३ में संयमासंयमवरण और संयमाचरण क्या है इसका स्पष्टीकरण करते हुए जो यह लिखा है कि 'इन दोनों संयमाचरणोंसे पंचमादि गुणस्थानोंमें प्रतिसमय गुणश्रेणि निर्जरा होली है जिसे करणानुयोगके अभ्यासी भलीभाँनि जानते हैं।' मो इस विषयमें यही निवेदन करना है कि जिस प्रकार करणानुयोगके अभ्याली यह जानते हैं कि इन दोनों संयमाचरणों में गुणवेणि निर्जरा होती है उसी प्रकार वं यह भी जानते है कि स्वभावके लक्ष्यसे यहाँ प्राप्त हुई जिस आत्मविशुद्धिके कारण ये दोनों संयमाचरण पंचमादि गुणस्थान संज्ञाको प्राप्त होते हैं, एकमात्र वही आत्मविशुद्धि, गुणश्रेणिनिर्जराका प्रधान हेतु है अन्य शुभोपयोग या अशुभोपयोग नहीं। ____ इस प्रकार पूर्वोक्त कथनसे यह निविवाद सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार आत्माके शुद्ध स्वभावरूपसे परिणत होनेपर पुण्यमाव स्वयं छूट जाता है उसी प्रकार आत्माके पुण्यरूपसे परिणत होनेपर पापभाव भी स्वयं छूट जाता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर शंका १५ जब अभाव चतुष्टय वस्तुस्वरूप हैं (भवस्यभावोऽपि च वस्तुधमः) तो वे काय व कारणरूप क्यों नहीं माने जा सकते । तदनुसार घातिया कर्मोका ध्वंस केवलनानको क्यों उत्पन्न नहीं करता ? समाधान १ इसमें सन्देह नहीं कि जैन आगममें चारों प्रकारके अभावों को भावान्तर स्वभाव स्वीकार किया है। किन्तु प्रकृत मे चार धातिकमों के त्रसका अर्थ भावान्तर स्वभान करनेपर कर्मके वसाभावरूप अकर्म पर्यायको केवलज्ञानको उत्पत्तिका निमित्त स्वीकार करना पड़ेगा। जिसका निमित्तरूपसे निर्देश आगममें दृष्टिगोचर नहीं होता, अतः इससे यही फलित होता है कि पूर्वमें जो ज्ञातावरणीयरूप कर्मपर्याय अज्ञानभावको उत्पत्तिका निमित्त थी उस निमित्तका अभाव होनेसे अर्थात उसके अकर्मरूप परिणम जानेसे अज्ञानभावके निमित्तका प्रभाव हो गया और उसका अभाव होनसे नैमित्तिक अज्ञान पर्यायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रगट हो गया । द्वितीय दौर प्रतिशंका १५ प्रश्न था-जय अभावचतुष्टय वस्तुस्वरूप हैं (भवत्यभावोऽपि च वस्तुधमः) तो वे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घातिया कौंका ध्वंस केवलज्ञानको क्यों मुत्पन्न नहीं करता? प्रतिशंका २ वस्तुस्थिति यह है कि जनागम अभावको भावान्तररूप स्वीकृत किया गया है, इसलिये घातिया कर्मोक क्षय (ध्वंस) को पुद्गलकी अकर्म पर्यायके रूप में स्वीकृत किया जाता है। चूंकि घातिया कर्मोको कर्म Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० अयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा रूपता केवलज्ञानके प्रकट होने में बाधक थी अतः उनका ध्वंस (अक्रमरूपता) केवलज्ञान के प्रकट होने में निमित्त है, क्योंकि यह उल्लेख सर्वसम्मत है निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः । अर्थात् निमित्तका अपाय हो जानेपर उसके निमित्तसे होनेवाला कार्य भी दूर हो जाता है। इस आगमसम्मत कार्यकारणकी प्रक्रियाको स्वीकृत करते हुए भी आप यह लिखते हैं कि 'वंसका अर्थ भावान्तर स्वशव करनेपर कर्मको ध्वंसाभावरूप अकम पर्यायको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त स्वीकार करना पड़ेगा।' सो आप निमित्तसे दूर क्यों भागना चाहते है ? सर्वत्र प्रसिद्ध कार्य-कारणभाषको शृङ्गलाको तोड़कर मास्तिर आप क्या सिद्ध करना चाहते हैं ? कार्यकी सिद्धि में जब उपादान और निमित्त दोनों कारणोंकी उपयोगिता सर्वसम्मत है सब आप केवल उपादानका पक्ष लेकर निमित्तको क्यों छोड़ देना चाहते है ? उपादानका यह एकान्त हो समस्त विवादोंकी जड़ है। आगे आप लिखते हैं जिसका निमित्तरूपसे निर्देश भागममें दृष्टिगोचर नहीं होता।' सो क्या मोहमयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्य केवलम् । --तस्वार्थसूत्र अ० १०, सूत्र : इस सूत्रपर आपने लक्ष्य नहीं किया ? वहाँ स्पष्ट बतलाया है कि मोहका क्षय होनेके बाद शेष जानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके क्षयसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है। इसी सुत्रकी पूज्यपाद विरचित सर्वार्थसिद्धिके उल्लेखपर भी अपने लक्ष्य नहीं दिया ऐसा जान पड़ता है। फलितार्थ निकालते हुए आप लिखते है कि पूर्व में जो ज्ञानाचरणो मरूप कर्मपर्याय अज्ञानभाबको उत्पत्तिका निमित्त थी उस निमित्तका अभान होनेसे अर्थात् उसके अकर्म रूप परिणम जानेसे अज्ञानभाषके निमित्तका अभाव हो गया और उसका अभाव होनेसे नमिसिक अज्ञान पर्यायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रकट हो गया ।' यहाँ आप जब मानावरणादि कर्मपर्यायको अज्ञानभावकी उत्पत्तिमें निमित्त स्वीकार कर रहे है तब मानावरणीय कर्मपर्यायके ध्वंसको जो कि अकर्म पर्यायल्प होता है अज्ञानमावके अमावरूप केवलज्ञानको उत्पत्तिम निमित्त क्यों नहीं मानना चाहते हैं ? यह समझ में नहीं आता। 'केवलज्ञान स्वभावसे प्रकट हो गया' इसका अभिप्राय तो यह है कि केवलजान कहीं बाहर से नहीं आया । ज्ञानावरणकर्मके उदयसे जामगुणको जो केवलज्ञानका पर्याय अनादिकालसे प्रकट नहीं हो सकी थी वह साधरण करनेवाले ज्ञानावरण तया साथ ही शेष तीन घातियकर्मोंका क्षय हो जानेसे प्रकट हो जाती है। भेदनयसे तद्भव मोक्षगामीका ज्ञानगुण और अभेदनयसे उसको आत्मा ही केवलजानका परिणत हो रहा है, इसलिए उपादान कारणकी अपेक्षा केवलज्ञानका उपादान कारण उसका ज्ञान गुण और आत्मा है, परन्तु निमित्त कारणकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि कर्मों का शय निमित्त कारण है । अनेकान्तको शलीसे विचार करने पर सर्व विरोध दूर हो जाता है। तत्त्वार्थसुत्र, पञ्चास्तिकाय आदि ग्रन्थों में औपशमिकादि पाँच भानोंका जो वर्णन आमा है उनमें केवलज्ञानको क्षायिकभाव कहा है और क्षायिकभावका लक्षण यही किया गया है कि जो कर्मोंके क्षबसे हो वह शायिकभाव है। जैसा कि कहा गया है Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १५ और उसका समाधान ज्ञानावरणस्यात्यन्तक्षप केवलज्ञानं क्षायिक तथा केवलदर्शनम् । ७०१ सर्वार्थसिद्धि [अ०२सूत्र ४ अर्थ-ज्ञानावरण के अत्यन्त क्षय ज्ञान उत्पन्न होता है, अतः वह क्षाविभाव है। इसी प्रकार केवलदर्शनको भी साविकमाव समझना चाहिये। ज्ञानदर्शनावरणक्षयात् केवलेशाविके । - राजवार्त्तिक अ० २ सूत्र ४ अर्थ-ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयसे होने के कारण केवलज्ञान और केवलदर्शन क्षायिकभाव है। यही भाव उक्तवाविककी निम्नङ्कित वृतिमें भी प्रस्ट किया गया है- ज्ञानावरणस्य कर्मणः दर्शनावरणस्य च कृत्स्नस्य क्षया केवले ज्ञान-दर्शने क्षायिकं भवतः । अर्थ - पूर्ववत् स्पष्ट है । शंका १५ मूल प्रश्न- जब अभाव-चतुष्टय वस्तुस्वरूप हैं (नवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्म) तो दे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं जातेसार पानि का वंश केवलज्ञानको क्यों उत्पन्न नहीं करता ? प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रदनके उत्तर में यह स्पष्ट किया गया था कि 'पूर्वमें जो ज्ञानावरणीय कर्मविवशानभावको उत्पत्तिका निमित्त भी उस निमित्तका अभाव होनेसे अर्थात् अकर्मरूप परिणम जानेगे अज्ञानभाव के निमित्तका अभाव हो गया और उसका अभाव होनेसे नैमित्तिक अज्ञान पर्यायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रगट हो गया।' प्रतिशंका २ में पुनः इसकी चरचा करते हुए ज्ञानावरणको अभावरूप अकर्मपर्यायको केवलज्ञानको उत्पत्तिका निमित्त बतलाया गया है। इसी प्रकार अन्यत्र जहाँ जहाँ भी खायिक भावको उत्पत्तिका उल्लेख कर्मोके क्षय आगममें लिखा है वहाँ वहाँ सर्वत्र प्रतिका में इसी नियमको स्वीकार किया गया है। इसके समर्थन में 'मोह'गज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।' यह सूत्र उद्धृत किया गया है। हम वित्ति नहीं बहाते उनसे घबड़ाने का कोई कारण भी नहीं, क्योंकि जब हम यह अच्छी वह जानते हैं कि जो हमारी संसारी परिपाटी चल रही है उसमे स्वयं हम अपराधी है। जो निर्मितोंको तरहसे जो अपना इष्टानिष्ट होना मानते है, घबड़ानेका प्रसंग यदि उपस्थित होता है तो मात्र उनके सामने ही होता है । यहाँ तो मात्र विभार इस बातका करता है कि क्या मोहपात्' इत्यादि सूत्रमें आये हुए 'क्षय' पदसे उसकी अपको केवलज्ञानकी उत्पत्तिनिमित्तसे स्वीकार किया गया है, या वहाँ आपायका Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा मात्र इतना दिखलाना प्रयोजन है कि स्वभाव पर्यायकी उत्पत्तिके समय उससे पूर्व जो विभाव पर्यायके निमित्त थे उनका वहाँ अभाव है। यह तो आगम परिपाटो को जाननेवाले अच्छी तरहसे जानते हैं कि मोहनीय कर्म का क्षय १०वें गुणस्थानके अन्त में होता है और ज्ञानाबरणादि तीन कर्मीका क्षय १२वें गुणस्थानके अन्तमें होता है। फिर भी केवलज्ञानको उत्पत्ति के कथनके प्रसंग मोहनीय कर्मके क्षयका भी हेतुहासे निर्देश किया गया है। ऐसो अवस्थामें क्या यह मानना उचित होगा कि मोहनीन कर्मका क्षय होकर जो अकर्मरूप पुद्गल वर्गणायें हैं वे भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति में निमित्त है। मेरी नम्र सम्मतिमें उक्त वचनका ऐमा अर्थ करना उचित नहीं होगा । अतएव पूर्वमें उक्त प्रश्नका जो उत्तर दे आये है यहो प्रकृतमें समोचीन प्रतीत होता है। ततीय दौर शंका १५ जब अभावनतुष्टय वस्तुस्वरूप हैं ( भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मः ) तो वे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घातियाकर्मोका ध्वंस केवलझानको क्यों उत्पन्न नहीं करता? इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमें आपके द्वारा यह तो स्वीकृत कर लिया गया था कि 'चारों प्रकारके अभावों ( अभाव चतुष्टय )को भावान्तरस्वभाव स्वीकृत किया है। किन्तु 'चार धातिया कोका वंस केबलशानको उत्पन्न करता है' इसको स्वीकार नहीं किया गया था। और आपने यह भी लिखा था कि ऐसा निर्देश आगममें दृष्टिगोचर नहीं होता। आपके इस प्रथम उत्तरको ध्यानमें रखकर श्री तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि तथा राजबार्तिक आदि अन्योंके प्रमाण उद्धत करते हुए यह बतलाया गया था कि श्री उमास्वामो आचार्य, श्री पूज्यवाद स्वामी, श्री अकलंकदेव और श्री कुन्दकुन्द स्वामीने कमोंके सयसे क्षामिकभाव तथा केवलज्ञानकी उत्पत्ति कही है. परन्तु उस ओर आपको फिर भी दृष्टि नहीं गई । यहाँ यही प्रतीत होता है कि आप अभावका कारण नही मानना चाहते हैं। परन्तु जब हम आगमको देखते हैं तब जगह अगह अभावको कारणरूप स्वोकृत किया गया देखते हैं, क्योंकि अभाव तुच्छाभावप नहीं है, किन्तु भावान्तरस्वभाव है। इस संदर्भ में आप समन्तभद्र स्वामौका युक्त्यनुशासनमें निम्नांकित समुल्लेख देखिए--- भवस्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भाषान्तरं भाववदहतस्ते । प्रमीयते च व्यपदिश्यते च षस्थव्यवस्थांगममयमम्बत् ॥५५॥ अर्थ-हे चोर अर्हन् ! आपके मतमें अभाव भी वस्तुधर्म होता है। यदि वह अभावधर्म का अभाव न Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १५ और उसका समाधान ७०३ होकर धर्मीका अभाव है तो वह भावकी तरह भावान्तर होता है और इस सबका कारण यह है कि अभावको प्रमाणसे जाना जाता है व्यपदिष्ट किया जाता है तथा वस्तुव्यवस्थाके अंगरूप में निर्दिष्ट किया जाता है। जो अभावतस्व] वस्तुयवस्थाका अंग नहीं है वह मावेकान्तको तरह अप्रमेय ही है। धवला पुस्तक ७ पृ० ६० पर-याए बद्धी || सूत्रका व्यायाम करते हुए धोवीरसेन स्वामी लिखते है पण च केवलावरणखओ तुच्छो ति ण जयसे, केवलप्पाणावरणबंधसंतोदयाभावस्स अनंतरि-वेरसम्म दिगुणेहिं जीवस्य तुच्छतविरोद्वादो भावस्स-अभाव ण विरूदे भावाभावreator विस्ससेणेव सध्वम्यणा आलिंगिकणाहिदाणमुत्रलं भादो ण च उनलंभमाणे विरोधो अस्थि अवलद्विवियरस तस्स उवली अमितविरोहादी | अर्थ-आधिक सिसे जीवन होता है ॥४७॥ केवलज्ञानावरणका लय तुच्छ अर्थात् अभावरूपमात्र है, इसलिये यह कोई कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता, ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, केवलज्ञानावरण के अन्त्र, सत्व और उदयके अभाव सहित तथा अनन्तवीर्यवैराग्य सम्यक्त्व व दर्शन आदि गुणोंसे युक्त जीव द्रव्यको तुच्छ माननेमें विशेष आता है किसी भावको अभावरूप मानना विरोधी बात नहीं है, क्योंकि भाव और अभाव स्वभावते ही एक दूसरेको सम रूपसे आलिंगन करके स्थित पाये जाते है जो बात पाई जाती है उसमें विरोध नहीं रहता, क्योंकि, विशेष का विषय अनुपलब्धि है और इसलिए जहाँ जिस वातको उपलब्ध होती है उसमें फिर विरोधका अस्तित्व मानने में ही विशेष बाता है। इस सन्दर्भों को देखते हुए आशा है आप पुनः विचार करेंगे। यो उमास्वामी आचार्य के मोक्षाज्ञानदर्शनावरणान्तरापक्षयाणा केवलम् । - त० सू० अ० १० सू० १ अर्थात महका क्षय होनेके बाद ज्ञानावरण दर्शनावरण, और अतरायके क्षयले केवलज्ञान उत्पन्न होता है।.... इन वाक्यों पर आपके द्वारा यह आपत्ति उठाई गई है कि 'मोहनीय कर्मका क्षय दश गुणस्थान के अन्त में होता है और ज्ञानावरणादि तीन कमौका जय बारहवें गुणस्थानके अस्तु होता हैं, फिर भी केवलज्ञानको उत्पत्ति के कथन के प्रसंग में मोहनीय कर्मके क्षयको भी हेतुरूपसे निर्देश किया गया हैं। ऐसी अवस्थामें क्या यह मानना उचित होगा कि मोहनीय कर्मका क्षय होकर जो अकर्मरूप पुल वर्गपुद्गल जाएँ हैं वे भी केवलज्ञानकी उत्पत्ति निमित्त हैं।' इस विषय में हमारा नम्र निवेदन यह है कि श्री उमास्वामी महान् विद्वान् बाचार्य हुए हैं। उन्होंने सागरको गागर में बन्द कर दिया कर्यात् द्वादशांगको दशाध्याय सूत्रमें गुम्फित कर दिया। हमको आशा नहीं थो कि ऐसे महान् आषायके वचनों पर भी पाप आपत्ति डालकर खण्डन करनेका प्रयास करेंगे। यदि आप इस सूत्र पर सर्वार्थसिद्धि टोका देखनेका प्रयास करते तो सम्भव या कि सूत्रके लण्ड पर आपकी लेखनी नहीं बनती। शंका की गई कि 'मोहज्ञानदर्शनावरणान्तरायशया केवलम् यह सूत्र बनाना चाहिये था क्योंकि ऐसा करनेसे सूत्र हलका हो जाता ? इसका उत्तर देते हुए श्री पूज्यपाद स्वामी लिखते है- क्षयक्रमप्रतिपादनार्थी वाक्यमेदेन निर्देशः क्रियते । प्रागेव मोहं क्षयमुपनीयान्तमुहूर्त क्षीणकषाय Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा म्यपदेशमघाप्य ततो युगज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायाणां क्षयं कृत्वा केवलमवाप्नोति इति तत्क्षयो हेतुः केवलोत्पत्तेरिति हेतुलक्षणे विभकि-निर्देशः कृतः । -स. सि., अ. १०, सू० । अर्थ-क्षयके क्रमका कथन करने के लिये वाक्योंका भेद करके निर्देश किया है । पहले ही मोहका क्षय करके अन्तमहतं कालतक क्षोणकषाय संज्ञाको प्राप्त होकर अनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराम कर्मका एक साथ क्षय करके केवलज्ञानको प्राप्त होता है। इन वोका खय केवलज्ञानकी उत्पत्तिका हेतू है ऐसा जानकर 'हेतुरूप' विभक्तिका निर्देश किया है। इस सूत्रसे सिद्ध होता है कि मोहनीयकर्म का क्षय ज्ञानाचरणादि तोन चातिया फोंके क्षयका कारण है और उनके क्षय से केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न होता है। अतः मोहनीय कमका क्षय केवलज्ञानको उत्पत्तिमें साक्षात् कारण नहीं है। प्रायः केवलज्ञानको उत्पत्ति में ज्ञानावरणके शयको अभावरून तुच्छ वस्तु बताकर कारणताका निषेध कर देते हैं । उसका समाधान यह है कि अभाव तुच्छरूप नहीं है, किसी भावान्तररूप ही है। चाहे यह पुद्गलका रूपान्तर ही हो, जब वह प्रतिबन्धात्मकताको छोड़कर प्रतिबन्धाकाभावरूपमें ढल जाता है तब ही ज्ञान उत्पन्न होता है। उस प्रतिबन्धकामावरूप सहकारी कारणके बिना भी शान नहीं उत्पन्न होता । इसलिये बह ज्ञानका (सहायक) कारण अवश्य है, प्रतिबन्धकाभावको तुच्छ बसाकर कारणतासे हटाना अज्ञानमूलक बात है। घातिया कर्मोके क्षयसे केवलज्ञान (अहंत पद) प्राप्त होता है यह बात स्वीकार करते हुए आपने स्वयं इस सूत्रको प्रश्न नं०१३ के उत्तर में उद्धृत किया है। बाधक कारणों का अभाव भी कार्योत्पत्तिमं कारण होता है जैसा कि मूलाराधना गाथा ४ की टीकामें कहा है अन्वय-व्यतिरेकसमधिगम्यो हि तफलभावः स एच । तावन्तरण हेतुना प्रतिज्ञामाग्रत एव । कस्यचिस्मा वस्तुचिन्तायामनुपयोगिनीति प्रतिबन्धकसभावानुमानमागमेऽभिमते सावदसति न घटते । अर्थ-जगतमें पदार्थों का सम्पूर्ण कार्य-कारणभाव अन्वय-व्यतिरेकसे जाना जाता है 1 अन्वय व्यतिरेकके बिना कोई पदार्थ किसीका कारण मानना केवल प्रतिमामात्र ही है। ऐसी प्रतिज्ञा वस्तुके विचारके कुछ भी उपयोगी नहीं है। आगममें स्पष्ट है कि प्रतिबन्धक कारणोंसे कार्यको उत्पत्ति नहीं होती। जैसे सहकारी कारणोंके अभावमें कार्य सिद्ध नहीं होता वैसे ही प्रतिबन्धक कारणोंके सद्भाव में कार्य नहीं होता । सार यह है कि सहकारी कारण होते हए यदि प्रतिबन्धक कारणोंका अभाव होगा तो कार्य सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं। . स्वयं श्रीमान् प० फूलचन्द्रने भी मोक्षशास्त्र पृ० ४५५ (वर्णी ग्रन्थमाला) पर लिखा है बात यह है कि जितने भी क्षायिकमाव है वे सब आरमाके निजभाष हैं पर संसारदशाम चे कर्मोसे घातित रहते है और ज्यों ही उसके प्रतिबन्धक कर्मोका अभाव होता है त्यों ही वे प्रकट हो जाते हैं। इस आगमसे सिद्ध होता है कि प्रतिबन्धकके अभावसे कार्यको सिद्ध होती है। केवलज्ञान तो आत्माको शक्तिरूपसे द्रध्याथिकनगको अपेक्षा प्रत्येक आत्मामें है जो ज्ञानावरण कर्मोदय के कारण उवक्त नहीं हो पाता । ज्ञानावरण कर्मरूपो बाधक कारणोंका भय हो जानेसे व्यक्त हो जाता है । अत: ज्ञानावरणादि घातिया कोका क्षय केवलज्ञानकी उत्पत्ति कारण है यह हमारे मूल प्रश्नका उत्तर है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १५ और उसका समाधान ७०५ आपने अप्रासंगिक यह लिख दिया है कि 'हमारी संसारकी परिपाटी चल रही है उसमें हम स्वयं अपराधी है।' यहाँपर यह विचार करना है कि 'अपराध' क्या मात्वाका स्वभाव है या आगन्तुक विभाग ( विकारी भाव ) है ? उपयोग के समान यदि अपराधको भी आरमका कालिक स्वभाव मान लिया जावे तो उसका कभी नाश नहीं होगा और आगन्तुक विभाव है तो वह अवश्य ही कारणजन्य होगा। सिद्धान्ततः रागादि अपराध आवन्तु होनेसे परसंग हो उपमाने गये है। जैसा कि माटकलमपसार अमृतचन्द्र स्वामीका वचन है बन्धाधिकार अर्थ - आत्मा स्वयं ही अपने रागादि विकारका निमित नहीं होता, उसमें अवश्य ही परपदार्थका रांग कारण है। जिस प्रकार कि सूर्यकान्तमणि स्वयं अग्निका निमित नहीं है, किन्तु उसके उत्पन होने में सूर्य रश्मियोका सम्पर्क कारण है। वस्तुका यही स्वभाव है। इससे सिद्ध होता है कि हमारा अपराधी होना भी मोहनीय कर्मोदपके अधीन है। जब तक माहोय कर्मकाय नहीं होता तब तक अपराध अवश्य बना रहेगा, क्योंकि निभिसभामाका अभाव सम्भव नहीं है । क्षय पुनश्च मोहपाशान दर्शनावरणन्तरायचयान केवल स्वार्थसूत्र अध्याय १० सूत्रका खण्डन करते हुए आपसे यह युक्ति दी थी कि 'मोहनीय कर्मका दस गुणस्थानके अस्त होता है और जाना वरणादि तीन कर्मका क्षय बारहवें गुणस्थान के अन्तमें होता है फिर भी केवलज्ञानकी उत्पत्तिकथनके प्रसंग मोहनीय कर्मके अबको हेनुरूपसे निर्देश किया गया है। इसका उत्तर सर्वसिद्धिका उल्लेख करते हुए श्री पूज्यपाद आचार्यके वचनों द्वारा दिया जा चुका है। किन्तु इस आपत्ति के विरुद्ध श्री पं० फूलचन्द्रजी स्वयं इस प्रकार लिखते हैं — न जातु समादिनिमितभावमामात्मनो याति यथार्ककान्तः । तस्मिनिमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ५१३॥ दूर इस कैवल्य प्राप्तिर्फ लिये उसके प्रतिवन्धक कसौंका दूर किया जाना आवश्यक है, क्योंकि उनको किये बिना इसकी प्राप्ति सम्भव नहीं । वे प्रतिबन्धक कसे चार हैं। जिनमें से पहले मोहनीय कर्मका क्षय होता है। यद्यपि मोहनीय कर्म केवल्य अवस्थाका सांधा प्रतिबन्ध नहीं करता है तथापि इसका अभाव हुए बिना शेष कमोंका अभाव नहीं होता, इसलिए यह भी कैवल्य अवस्थाका प्रतिबन्धक माना । इस प्रकार मोहनीयका अभाव हो जानेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में तीनों कर्मीका नाश होता है और तत्र जाकर Three स्था प्राप्त होती है। ० सू० पृ० ४५२४५२ पण प्रथन: डा ८९ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ मंगलं मंगलं जयपुर (खानिया) तस्त्वचर्चा भगवान् वीरो मंग कुन्दकुन्दाय कुन्दकुन्दायों जैन धर्मोऽस्तु गौतमो गणी । मंगलम् ॥ शंका १५ जब अभाव चतुष्टय वस्तुस्वरूप है ( भवत्यभावाऽपि च वस्तुधर्मः ) तो वे कार्य व कारणरूप क्यों नहीं माने जा सकते ? तदनुसार घाटियाकमका ध्वंस केवलज्ञानको क्यों उत्पन्न नहीं करता १ प्रतिशंका ३ का समाधान इस प्रश्नके प्रथम उत्तरमे यह बतला दिया गया था कि 'प्रकुल में ध्वंसका अर्थ सर्वथा भावान्तर स्वभाव लेने पर प्रातिकमोंको अकर्म पर्यायको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त का मानना पड़ेगा जो आमम्मत नहीं है। अतः हो नभात निति से उनका पाल (वय) होने पर अज्ञान भावका अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभावसे प्रगट हो गया यह अर्थ करना महत संगत होगा ।' यथा इस पर प्रतिका करते हुए प्रतिशंका २ में मुख्यरूपसे पातिकमौका ध्वंस ( अकर्मरूपता ) केवल ज्ञान के प्रगट होनेमे निमित्त है यह स्वीकार किया गया है। इसमें अन्य जितना व्याख्यान है वह इसी अर्थको पुष्टि करता है। इसके उत्तर में पुनः प्रथम उत्तरको पुष्टि की गई। साथमें दूसरी आपत्ति भी उपस्थित की गई । तत्काल प्रतियांका सामने है । उसमें सर्वप्रथम हमारी ओर से चारों अभावोंको भावान्तर स्वभाव स्वीकार करनेकी जहाँ एक और दुष्ट को गई है वहीं दूसरी ओर हमारे ऊपर यह आरोप भी किया गया है कि 'चार घातिया कर्मोंके ध्वंसे केवलज्ञान होता है इस प्रकारका वचन आगम नहीं उपलब्ध होठा' ऐसा हम उत्तर में लिख आये है किन्तु जब हमने पूर्वके दोनों उत्तर बारीकी से देखे हो विदित हुआ कि बात कोई दूसरी है और उसे छिपाने के लिए यह उपक्रम किया गया है, इसलिए यहाँ सर्वप्रथम हम अपने उत्तरके उस अंशको उद्भुत कर देना चाहते है जिसके आधार ऐसा आरोप किया गया है वह वहले इस प्रकार हैकिन्तु प्रकृतमें चार घातिकर्मोके ध्वंसका अर्थ भावान्तर स्वभाव करने पर कर्मके ध्वंसाभावरूप अक्रमं पर्यापको केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निमित्त स्वीकार करना पड़ेगा। जिसका निमित्तरूप निर्देश आगममं दृष्टिगोचर नहीं होता ।' ( प्रथम उत्तर से उद्धृत ) इस उत्तर में 'प्रकृत में ' यह पद ध्यान देने योग्य है । इस द्वारा यह बतलाया गया है कि यद्यपि 'ब्वंस' भावान्तर स्वभाव होता है इसमें सन्देह नहीं पर प्रकृत उसका मह अर्थ नहीं लेना है। अब इस अंश प्रकाशमें प्रतिशंका ३ के उस अंशको पढ़िए जिसे हमारा कथन बतलाया गया है । 'आपके द्वारा '''''''' किन्तु चार घातिया कर्मोौका ध्वंस केवलज्ञानको उप करता है इसको नहीं स्वीकार किया गया था । और आपने यह भी लिखा था कि ऐसा निर्देश आगम में दृष्टिगोचर नहीं होता ।' ये दोनों उल्लेख हैं। इन्हें पढ़ने यह भलो त ज्ञात हो जाता है कि इन दोनोंमें कितना अन्तर है जहाँ शंकाकार पक्षको भावान्तर स्वभाव लिखकर अकर्मक की उत्पतिका जनक Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १५ और यसका समाधान ৩৬ बतलाता है वहां हमारा यह कहना है कि प्रकृतमें वंसका यह अर्थ गहीस नहीं है, क्योंकि चार पानिकों को वसरूप अकर्मपर्याय केवलज्ञानको उत्पन्न करती है ऐसा आगममें वह्नीं निर्देश नहीं है। अपने पक्षको मिद्धिके लिए प्रतिर्शका ३ में धवला पु०७१०९० का 'खइयाए लदीए' यह सूत्रवचन उद्धृत किया गया है, जिसमें 'प्रतिपक्षी कर्म के से कार्योत्पत्ति होती है।' ऐमा बतलाया गया है, मारे अभिप्रायको दो पुष्टि होती है। किन्तु अपर पक्षके द्वारा अपने अभियायको पहिम ऐमा एक भी उद्धरण उपस्थित न किया जा सका जिसमें कर्मको भावान्तरस्वभाव अकर्मपर्यावसे क्षाविकभावकी उत्पत्ति बतलाई गई हो।' ऐसा प्रतीत होता है वि अपर 'पा कहाँ गलती हो रही है इसे समझ गया है, इसलिए प्रति शंका ३ में उम की ओरसे धसको भावान्तरस्वभाव कहकर अकर्म पर्याय केवलज्ञानको उत्पत्तिका जनक है इस बात पर विशेष जोर न देकर दगरी दूसरी बातोसे प्रतिशंकाका कलेवर वृद्धिमत किया गया है । और मानों हम हवंसको तुमछाभावहा मानते हैं यह बतलानेका उपक्रम किया गया है। अतः प्रकृत में चार घातियाकोके हर्बम का अर्थ क्या लिया जाना चाहिये इस पर सर्व प्रथम विवार कर लेना इष्ट प्रतीत होता है। जाप्तमीमांसा बतलाया है.. कार्योत्पादः अयो हतोनियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तो जात्यागवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवन ॥५४॥ यत: उत्लाद और जयके होने में एक हेतका नियम है, इसलिए क्षय कार्योत्पाद हो है। किन्त लक्षणकी अपेक्षा दोनों पृथक-पृयक है। किन्तु 'सदव्यम्' इत्यादि रूपसे जाति आदिका अवस्थान होनेसे खगुरुपके समान वे सर्वथा निरोष भो नहीं है ।।५८।। यह आप्तमीमांसाका उल्लेख है। इसमें व्यय और उत्पाद दोनों एक हेतूसे जायमान होने के कारण ध्वंस ( व्यय ) को जहां उत्तर पर्याय ( उत्पाद) रूप सिद्ध किया है वहाँ लक्षणभेदसे दोनों को पृथक-पृथक भी सिद्ध किया है । इन दोनों में लक्षणभेद कैसे है यह बतलाते हुए अष्टसहस्त्री पृ० २१० में लिखा है कार्योत्पादस्य स्वरूपलाभलक्षणस्वारकारणविनाशस्य च स्वभावप्रच्युतिलक्षणस्वातयोभिंसालमणसम्बन्धित्वसिद्धेः । ___ कार्योत्पादका स्वरूपलाभ यह लक्षण है और कारण विनाशका स्वभावप्रच्युति यह लक्षण है, इस प्रकार उन दोनों में भिन्न-भिन्न लक्षणोंका सम्बन्धीपना सिद्ध होता है। इस प्रकार. इन आगम प्रमाणोंके प्रकारामें यह स्पष्ट हो जाता है कि 'चार घातिया कर्मों के लयसे केवल ज्ञान सपन्न होता है इस कथन में 'ध्वंस भावान्तरस्वभाव होता है।' इसके अनुसार चार घातिया 'कर्मों की सरूप अकर्मपर्यायको निमित्त रूपसे नहीं ग्रहण करना है, क्योंकि चार घातिया कोको ध्वंसहप अकर्मपर्याय केवल जानको उत्पत्ति में निमित्त है ऐमा किसी भी आगममें स्वीकार नहीं किया गया है। किन्तु ध्वंसका अर्थ जो चार घातिया कर्म अज्ञानादिके निमित्त थे उनका विनाश (व्यय ) रूप अर्थ ही प्रकृतमें लेना है, क्योंकि उत्पादसे कथञ्चित् भिन्न व्ययका ग्रही लक्षण है। अतएव इस कथनसे अपर पक्षका प्रतिशंका २ में यह लिखना कि 'कि धातिया कोंको कमरूपता केवलज्ञान के प्रगट होनेम बाधक भी बत: उनका वंग । अकमकाता) केवललामक प्रगट होने में निमित्त है।' आगमसंगत न होकर हमारा यह लिखना कि 'पर्वमे जो ज्ञानापरणीयरूप कर्मर्याय अशाममात्रको उत्पत्तिका निमित्त Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचर्चा थी उस निमित्त का अभाव होनेसे प्रति उसके अकर्मका परिपम जानसे अज्ञान भावके निमित्त का अभाव हो गन और उसका अभाव होनेसे नैमित्तिक अज्ञानपर्वायका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्वभाव से प्रगट हो गया।' आगपसंगत है। क्योंकि पूर्व में अष्टमहनीके आधाग्मे जो कस' का लक्षण लिव आये है उसे दृष्टिपथमें रखकर ही आचार्य गद्धपिच्छने तत्वार्थसूत्रके 'मोहश्चयान इत्यादि मूत्रमें 'क्षय' शब्दका प्रयोग किया है. 'कार्योत्पादः क्षयो हेतोनियमात्' इसके अनुसार 'श्रय (ध्यय) अनन्तर पर्याय (उत्पाद) रूप ही है इस अर्थमें नहीं। अपर पक्षने प्रतिशंका २ में अपने पक्ष के समर्थनके लिए निमित्तापाये नैमित्तकस्याप्यपायः' यह वचन उदधृत किया था मो यह वचन भी हमारे उक्त कथनकी ही पष्टि करता है, क्योंकि हमारा यही तो लिखना है कि अज्ञानादि निमित्त जो चार घातिया कर्म थे उनका अभाव होनसे नैमित्तिक अज्ञानादिका अभाव हो गया और चूंकि केवलज्ञान स्वभावपर्याय है, इसलिए वह पर (कर्म) निरपेक्ष होने के कारण स्वभावमे प्रगट हो गया। पता नहीं उक्त उल्लेख को अपर पक्षने अपने समर्थन में कैसे समझ लिया। अथवा पूर्व पर्यायके व्यय और उत्तरपर्यायके उत्साद इन दोनोंको सर्बया एक माननेसे जो गलती होती है वही यहाँ हुई है और यही कारण है कि अपर पक्षने 'निमित्तापाने' इत्यादि वचनको भो अपने पक्षका समर्थक जानकर प्रमाणरूपमें उद्धृत करने का उपक्रम किया है। प्रस्तु, अपर पक्ष उक्त विवेचन पर पूरा ध्यान देगा और प्रचारको दृष्टिले हमें उद्देश्य कर प्रतिशंका, ३ जो यह लिखा है कि इस विषयमें हमारा नम्र निवेदन यह है कि उमास्वामी महान् विद्वान आचार्य हुए है। उन्होंने सागरको मागरमें बन्द कर दिया अर्थात् द्वादशांगको दशाध्याय सूत्र में गुम्फित कर दिया। हमको आशा नहीं थी कि ऐसे महान आचायाँके वचनोंपर भी आप आपत्ति बालकर खगठन करने का प्रयास करेंगे।' सो यह ऐसे आक्षेपात्मक वचनोंके प्रयोगसे घिरत होगा। वस्तुत: आवायके वचनोंका खण्डन हमारो ओरसे नहीं किया गया है। हमने तो उन महान आचार्यके उक्त बचन में जो रहस्य भरा है उसे हो उद्घाटित करने का प्रयत्न किया है । यदि मण्डनके नाम पर खण्डन किया जा रहा है तो अपर पक्षको ओरसे ही किया जा रहा है, क्योंकि वह पक्ष हो एकान्लसे व्यय और उत्पादमें सर्वथा अभेद मानकर चार घातिया कों को ध्वंसरूप अकर्मपर्यावको केवल. ज्ञानका जनक बतला रहा है जो तत्त्वार्थसूत्रके उक्त वचनका आशय नहीं है। आचार्य अकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्दित 'दोषावरणयोहानिः' इस आप्तमीमांसाकी कारिकाका व्याख्यान करते हुए क्रममे अष्टशतो और अष्टमहस्रो टोकामें 'प्रकृतमें श्वयका अर्थ जानावरणादि कोको अकर्मरूप उत्तर पर्याय नहीं लिया गया है, किन्तु ज्ञातावरणादिला पर्यायको हानि या व्याबत्ति ही लिया गया है' ऐसा स्पष्टीकरण करते हुए पृ० ५३ में लिखा है मलादावृत्तिः क्षयः, सतोऽत्यन्तविनाशानुपपत्त: । ताहगात्मनोऽपि कर्मणो निवृत्ती परिशुद्धिः । मध्यमाभावी हिक्षयां हानिरिहाभिप्रेता। सा च यावृत्तिरेच मणेः कनकपाषाणाहा मलस्य किट्ठादेर्वा..... तेन मणेः कैवल्यमेव मलादेवकल्यम् । कमोऽपि चैकल्यमान्मकैवल्यमस्त्यच ततो नातिप्रसज्यते। मलादिककी घ्यावृत्ति बय है, क्योंकि सत्का अत्यन्त विनाश नहीं बनता। उसी प्रकार पात्माको भो कर्मकी निवृत्ति होने पर परिशद्धि होती है। प्रकृतमें प्रथ्वसाभावका अर्थ क्षय या हानि अभिप्रेत है और वह व्यावृत्तिरूप ही है। जैसे कि मणि में से मलको और कनकपाषाणमेंसे किट्टादिकी व्यावृत्ति होती है।... इसलिए मणिका अकेला होना ही मलादिकी विकलता ( रहितपना ) है। उसी प्रकार कर्मकी भी विकलता आत्माका कैवल्य हैं. ही, इसलिए अतिप्रसंग दोष नहीं आता। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १५ और उसका समाधान ७०९ यन्न आचार्य अकलंकदेव और आचार्य विद्यानन्दि जैसे समर्थ मदषियोंकी वाणी का प्रसाद है, इससे भी जिस अभिप्रायका हम प्रकाशन करते आये हैं उसको पुष्टि होती है। आचार्य गृविच्छका भी यही अभिप्राय है । पूर्व पर्यायका ध्वंस (व्यब) तुच्छाभाव है ऐसा तो हमने अपने उत्तरों में कहीं लिखा ही नहीं । स्वामो समन्तभद्र के युक्त्यनुशासनका 'भवल्यभावोऽपि' इत्यादि वचन प्रमापा है इस आशयका अपना अभिप्राय हम प्रथम प्रश्न के उत्तर के समय उत्तर के प्रारम्भमें हो प्रगट कर आये है. अतः प्रतिशंका में तुच्छामावको अप्रस्तुत चर्चा उठाकर उसके स्वण्टन के लिए 'भवत्यमाधीऽपि' इत्यादि वचनको उदधृत करना कोई मतलब नहीं रखता। चर्चाम विवि और निषेध उसी वस्तु का होना चाहिए जिस में मतभेद हो मोर जो आनुषंगिक होने पर भी प्रकरण में उपयोगी हो। हो, इस वचन द्वारा अपर पस हवंस (व्यय) को सर्वथा उत्तर पर्याय (उत्पाद) रूम मा नना चाहता हो लो उसे अष्टमहरा व अशतक पूर्वोक्त उल्लेखक आधार पर अपने अभिप्रायमें अवश्य ही संशोधन कर लेना चाहिए। इससे प्रकृत विवादक ममाप्त होनेमें न केवल मदद मिलेगो, अपितु उत्पाद-पके सम्बन्ध अपर पञ्चके द्वारा स्वीकृत सर्वथा एकत्वको एकान्त धारणाका भी निरास हो जायगा। धवला पुरु ७ पृ० १० के 'खइयाए लडीए ॥४७॥ मूत्र की टीकाको उद्धृतकर जो 'प्रभाव जिनमतमें तुच्छाभावरूप नहीं है इस बात का समर्थन किया गया है मो वह समर्थन भी प्रकृतमें उपयोगी नहीं है, क्योंकि हमारी ओरसे अपने उत्तरों में यदि को अभावको तुच्छाभात्र सिद्ध किया गया होना तभी इस उल्लेखकी सार्थकता होतो । यदि अपर पक्ष घातिया कोके ध्वंस (व्यय) को सर्वथा अकर्म पर्यावरूप न लिखता तो हमारी ओर से यह आपत्ति त्रिकालमें न की जातो कि-'मोहनीय कर्मका क्षय दश गुणस्यान में होता है और नानावरणादि ३ कोका क्षय बारहवें गुणस्थानके अन्त में होता है, फिर भी केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कथनके प्रसंगमें मोहनीय क्रमके क्षयका भी तुरूपसे निर्देश किया गया है। ऐसी यवस्था में क्या यह मानना उचित होगा कि मोहनीय कर्म का क्षय होकर जो अकर्मरूप पुद्गल वर्गणाएँ हैं वे भी केवलज्ञान की उत्पत्ति में निमित्त हैं।' हमारी दृष्टि सर्वार्थसिद्धि के 'मोहक्षयात्' इत्यादि मूत्रके टीका वचन पर बराबर रही है और है। उसमें निहित रहस्यको भी हम समझते हैं, किन्तु अपर पक्ष द्वारा उल्लेखरूपमें इस वचनको उद्धन करने मात्रसे टंस (व्यय) को सर्वथा उत्तर पर्याय (उत्पाद) रूप मान लेने पर अष्ट सहस्रीके उक्त कथनो दाग अपर पक्षके सामने जो आपत्ति हम उपस्थित कर आये है उसका कारण नहीं हो जाता। सर्वार्थसिद्धिका उक्त टीका वचन अपने स्थान में है और अगर पक्षका व्यय और उत्णदको सर्वथा अभेवरूप स्वीकार करना अपने स्थान में है । उक्त वचनके आधारसे अपने विचारों में संशोधन अपर पक्षको करना है, हमें नहीं। प्रनिका ३ 'प्रायः के लिबान की उत्पत्तिमें जानावरण के श्वयको अभावरूप तुच्छवस्तु बताकर कारणताका निषेध कर देते है।' या कथन मालूम नहीं किसको लक्ष्य कर पहले किया गया और बाद में उसका उत्तर प्रस्तुत किया गया। जैन परमगराको जीवन में स्वीकार करनेवाला शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जो क्षयको सर्वथा अभावरून तुच्छत्रस्तु बसलाता हो। केवलज्ञानकी अपेक्षा निमित्तकारणमें जो प्रतिबन्धास्मकता कही है उसका व्यय हो जाता ही केवलज्ञानके प्रति प्रतिबन्धकामावरूपता है । ऐसे स्थल पर उत्पाबसे त्यय कचित् भिन्न हो लक्षित किया गया है, चार घातिया कोको ब्याप उसरपाय नहीं । इसमें संदेह नहीं कि प्रकृति में जो कोई महाशय ध्वंगको तुच्छाभावरूप समाते हों उन्हें तो अपना अज्ञान दूर करना ही है, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० अयपुर (खानिया) तत्वचर्चा साथ ही जो भी महाशय पूर्व पर्यायके मंस और उत्तरपर्यायके उत्पादको सर्वथा एक माननेका उपक्रम करते है उन्हें भो उक्त प्रकारका अपना ऐकान्तिक आग्रह छोड़ना है। उनके लिए 'एतदविषयक अज्ञानको छोड़ना है ऐसा कटु प्रयोग करना हमारी सारथ्यके बाहर है। मूनागधना गाया ४ का 'अन्धय-व्यतिरेकसमधिगम्यो' इत्यादि वचन देकर कार्यके प्रति कारणका अन्वय-व्यतिरेक सिद्ध किया गया है। मो यह दधे इष्ट है, क्योंकि यह तो जैन सिद्धान्त ही है कि उपादान के साथ कार्यको आभ्यन्तर व्याप्ति होती है और निमित्तोंके साथ कार्यको बाह्य व्याप्ति होती है । कार्य के प्रति कारणों को यही समग्रता है, साथ ही यह भी जैन सिद्धान्त है कि कार्य में अन्य द्रव्यकी पर्याय की निमित्तता व्यवहारन पसे है। संभवत. यह सिद्धान्त आपको भी मान्य होगा, हमें तो मान्य है हो। इसलिए . प्रकृतमें इस प्रमाण को उपस्थित कर किस प्रयोजनकी सिद्धि को गई है यह हम नहीं समझ सके । जब कि हमने यह लिखा ही है कि 'जो चार बात्तिया कर्म अज्ञानादिके निमित्त है, जो कि निमित्ताने की अपेक्षा के वनज़ान की उत्पत्ति के प्रतिवरबक माने गये हैं उनका ध्वंस होने पर केवलज्ञान स्वभावमे उत्पन्न होता है।' ६० फुट चन्द्र द्वारा लिखित मोशाय ४५५ के उल्लेख को अपर पलने आगमरूपम स्वीकार कर लिया यह जहाँ उचित हुआ वहाँ हम यह भी बतला देना चाहते है कि वह उल्लेख वस्तुतः अपर एनके मत का समर्थन न कर तर पक्षका हो समर्थन करता है। यह बात हमारे द्वारा प्रथम उत्तरमें निरूपित तथ्य और इस वचन को सामने रखकर अवकोकन करनेसे भली भांति समझो जा सकती है। प्रथम उत्तरमें हमने लिखा है 'अत: इससे यही फलित होता है कि पूर्वमे जो शातावरणीय रूप कर्मपर्याय अशान भावकी उत्पत्तिका निमित्त थो उग निमित्तका अभाव होनसे अर्थात् उसके अकर्म परिणम जानेसे अज्ञानभावके निमित्तका प्रभाव हो गया और उसका अभाव होनेसे नैमित्तिक अज्ञान पर्यावका भी अभाव हो गया और केवलज्ञान स्मभावसे प्रगट हो गया ।' अब इसके प्रकाराम मोक्षशास्त्रका उक्त वचन पढ़िए-- 'चात यह है कि जितने भी क्षायिक भाव है सब आत्माके निजभाव है। पर संमार दशाम वे कमोसे यातित रहते है और ज्योंही उनके प्रतिबन्धक कमौका अभाव होता है त्योंही वे प्रगट हो जाते है।' पता नहीं हमारे पूर्वोक्त वचनमें और इस वचनम अपर पक्षने क्या फर्क देखा जिससे उसे यह वयन तो आगम प्रतीत हा और पूर्वोत वचन आगम प्रतिकूल प्रतीत हुआ। लगता है कि 'घातित रहते हैं' 'प्रतिबन्धक कर्मों का अभाव' इन पदोको पाकर ही अपर पक्षने मोक्षशास्वके उल्लेखको आमम माना है। सो यह निमित्तोंकी निमित्तता क्या है इस पर सम्या प्रकारसे लक्ष्य न जाने का परिणाम प्रतीत होता है । अपर पक्षको मान्यता है कि निमित्त दूसरे द्रव्यकी शक्तिको वास्तवम घातित करते है या उसमें अतिशय उत्पन्न कर देते है । जब कि इस प्रकारका कथन जिनागममें व्यवहार ( उपचार ) नयसे किया गया है। प्रकृसमें भी उक्त पदों का प्रयोग इसा अभिप्रायसे हुआ है। इस पद्धतिमें लिखना या कथन करना यह व्यवहारनयके कथनकी शैली है। अपर पक्षने हमारे इस कथनको कि 'हमारो रांसारको परिपाटी चल रही है उसमें हम स्वयं अपराधी है।' अप्रासंगिक बतलाया है और हमसे 'अपराध क्या स्वभाव है या आगन्तुक विभाव ( विकारी भाव) है' यह प्रश्न अरके जसे आगन्तुक सिद्ध करते हुए परसंगको कारण बतलाकर संसाररूप परिपाटीको परसंगरूप Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १५ और उसका समाधान ७११ कारणजन्य सिद्ध किया है। तथा प्रमाणस्वरूप आचार्य अमृतपन्द्रका 'म जानु रागादि' इत्यादि कलश उपस्थित किया गया है और अन्त में निष्कर्षको फलित करते हुए लिखा है 'हमारा अपराधी होना भी मोहनीय कर्मोदयको आघोन है। जब तक मोहनीय कर्मका क्षय नहीं होगा तब तक अपराध अवश्य बना रहेना, क्योंकि निमित्तके अभावके बिना नैमित्तिक भावका अभाव सम्भव नहीं है।' सो प्रकृतमें यह देखना है कि संसारी जीषका 'परका संग करना' अपराध है कि 'परसंग' अपराध है। यदि केवल परसंगको अपराध माना जाए तो कोई भी जीव संसारसे मुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि किसी न किमी प्रकारसे अन्य द्रव्यों का संयोग संसारी और मुक्त जीवोंके सदा बना हुआ है। और यदि परका संग करना अपराध माना जाता है तो यह प्रकृतमें स्वीकृत है, क्योंकि आचार्य अमृतचन्द्र के 'न जातु रागादि' इत्यादि कलशका यही अभिप्राय है। आचार्य महाराज इस कलश द्वारा वस्तुस्थिति पर प्रकाश डालते हुए लिखते है--कि संसारी जीवने परसंग किया, इसलिए परका संग उसकी विभाष परिणति में निमित्त हो गया। प्रकृतमें यह अभिप्राय है कि संसारी जीव परमें एकत्वबुद्धि और राग-द्वेष द्वारा निरन्तर परसंग करता आ रहा है, इस कारण वह पराधीन बना हुआ है। इस प्रकारको पराधीनता रूप स्वयं स्वतन्त्ररूपसे परिणम रहा है, इसलिए यह जीवकी सच्ची पराधीनता कही गई है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि अपने द्वारा किया गया ऐसा जो परसंग है वह संसारकी जड़ है । यदि यह जोब अपने उपयोगस्वभावके द्वारा स्वभाव सन्मुख होकर उक्न प्रकारके परसंग करने की रुषिका त्याग करदे अर्थात् परमे एकत्वबुद्धि और राग-द्वेष न करे तो जो उसके परके साथ अनादिकालसे निमित्तन्नैमितिकपना ध्यवहारसे बना चला रहा है उसदा सुता शन्न हो जाए । इमभावप्राप्ति या मुक्ति इमीका दूसरा नाम है। हमें विश्वास है कि इस स्पष्टोकरणसे प्रकृतम 'परसंग' पदका क्या तात्पर्य है और उसे अपराध किस रूप में माना गया है इत्यादि तथ्यों का खुलासा होकर हमारा पूर्वोक्त कथन कैसे प्रकरणसंगत है इसका स्पष्ट प्रतिमान हो जाएगा। प्रतिका ३ के अंत में 'पुनश्च पदके उल्लेखपूर्वक जो कुछ लिखा गया है वह केवल पिछले कथनका पिष्टपेषणमात्र है, उसमें विचार करने योग्य नई ऐमी कोई बात नहीं लिखी गई है, अत: उस पर अधिक विचार न करना है। प्रेयस्कर है। हो, अपने पूर्वोक्स कथनको पुष्टिम पंडत फूलचन्द्र द्वारा लिखित तत्त्वार्थसूत्र अ० १० सूद १ को टोकाका जो उरण दिया है तो व: भी और उत्पादको सर्वथा एक सिद्ध नहीं करता। माल वह उस क्रमको बतलाता है जिन कासे घालिया कर्मों का अभाव होने पर केवलज्ञान पर्याय प्रगट होती है। अत: प्रकृतमें यही निर्णय करना चाहिए कि अज्ञान-मावके निमित्तम चार घातिमामामोंका अभाव होने पर केवलज्ञान परका अपेक्षा किए बिना हो स्वभावके आश्रयसे प्रगट होता है। तत्त्वार्थसूत्रके "मीहक्षयान्' इत्यादि सुत्रका पही स्पष्ट आशय है और इसी आशय से उसमें हेतुपरक पंचमी विभक्तिका प्रयोग हुआ है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर : । : नमः श्रीवीतरागाय मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी | मंगलं कुंदकुंदाय जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका १६ निश्चय और व्यवहारजयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य हैं, तो अभावात्मक हैं या मिथ्यारूप है. ? समाधान १ इस लोक में जितने भी पदार्थ उपलब्ध होते हैं उनका परस्पर में ( एक पदार्थका दूसरे पदार्थ में ) अत्यन्ताभाव होने पर भी यह जोव अनादि अज्ञानवश संयोगको प्राप्त हुए पदार्थोंमें न केवल एकत्व बुद्धिकी करता आ रहा है, अपितु स्वसहाय होने पर भी परकी सहायता के बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता ऐसी मिथ्या मान्यतावश अपनेको परतन्त्र बनाये हुए चला आ रहा है । अतएव इसे परसे भिन्न एकत्वस्वरूप अपने आत्माका सम्यक् ज्ञान कराने और पराश्रित बुद्धिका त्याग कराने के अभिप्राय से अध्यात्म में मुख्यतया निश्चयनय और व्यवहारयांका प्ररूपण हुआ है। यही कारण है कि श्री समयसारजोकी ४ थी गाथा में आचर्यवर्य इस संसारी जीवको लक्ष्यकर कहते हैं कि इस जीवने कामानुबन्धिनी और भोगानुafrat कथा अनन्त बार सुनो, अनन्तबार उनका परिचय प्राप्त किया और अनन्तवार उनका अनुभव क्रिया, परन्तु परसे भिन्न एकत्वको इसने आज तक उपलब्ध नहीं किया। आगे श्वों गाथाने कहते हैं कि 'मैं उस विभक्त एकस्वका अपने विभवसे ( आगम, गुरुउपदेश, युक्ति और अनुभव से ) दर्शन कराऊँगा । यदि दर्शन कराऊँ तो प्रमाण करना ।' आगे ६०७ वीं गाथाओं द्वारा अन्यकं निषेद द्वारा वह विभक्त एकव क्या है इसका ज्ञान कराया गया है । ११वीं गाथा में जिसे भूतार्थं कहा है वह इस विभक्त एकत्व भिन्न अन्य कुछ नहीं । अन्य जितना भी है उस सबकी परिगणना अभूतार्थमे की गई है । इस प्रकार यो समयमारजीको सम्यक्रूपसे हृदयङ्गम करने पर ज्ञात होता है कि प्रकृतमें निश्चयनय और व्यवहारनय कथनसे आचार्य महाराजको क्या इष्ट है । यह वस्तुस्थिति है । इसे ध्यान में रखकर निश्चयनयका निर्दोष लक्षण क्या हो सकता है इसकी मीमांसा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसारजोकी ५६ वीं गाथामें कहते हैं निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितस्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविक भावमवलरूयोष्ठषमानः परभावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति । अर्थः- निश्चयनय तो द्रव्याश्रित होनेसे, केवल एक जीवके स्वाभाविक भावका अवलम्बन लेकर प्रवर्तमान होता हुआ, दूसरेके भावको किंचित्मात्र मी दूसरेका नहीं कहता । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७१३ इसी अभिप्रायको ध्यान में रखकर नयचक्र में निश्चयनयका स्वरूप निर्देश करते हुए कहा है गेहह दब्बसहावं असुद्ध-सुद्धोवधारपरिचर्स । स्रो परमभावगाही णायचो सिलिकामण ।। १९९।। जो अशुद्ध, शुद्ध और उपचारसे रहित माष द्रव्यस्वभावको ग्रहण करता है, सिद्धिके इच्छुक पुरुषद्वारा वह परमभावनाही म्याधिकनय जानने योग्य है ||१६|| इसमें 'सिद्धिकामेण' पद ध्यान देने योग्य है इस द्वारा मंसारी जोवको उसका मुख्य प्रयोजन क्या है मह बसलाते हुए ज्ञान कराया गया है कि यदि सू अनादि अज्ञानवश अपने आई हुई परतन्त्रतासे मुक्त होकर स्वाचीन सुखका उपभोग करना चाहता है तो अनन्त विकल्पोंको छोड़कर अपनी बुद्धिमें एकमात्र उस विभक्त एकत्वका अपलम्बन ले । स्पष्ट है कि जो एकमात्र परम भावस्वरूप ज्ञायकभावको ग्रहण करता है और उससे भिन्न अन्य सबका निषेध करता है वह निश्चयनय (समयसार गा० १४ के अनुसार शुद्धनय) कहलाता है। यह परम भाषग्राही निश्चयनयका निदोष लक्षण है । अब देखना यह है कि इस द्वारा अन्य किसका निषेध किया गया है। जैसा कि पूर्वमें ६-७ दो गाथा (समयसार) का निर्देश कर आये हैं उन पर सम्यक् प्रकारष्टिपात करने पर निषेध योग्य अन्य राब पर भावोंका ज्ञान हो जाता है । ६ वीं गाथा द्वारा शायक्रमावसे भिन्न तीन परभावोंका निषेध किया गया है। वे ये हैं-(१) प्रमत्तभाव, (२) अप्रमत्तभाव और (३) परसापेक्ष बायकभाव | तथा ७ वी गाथा द्वारा (४) अखण्ड आत्मामें भेद विकल्पका निषेध किया गया है। यहाँ अपने आत्मासे भिन्न अन्य समस्त द्रव्य तो परभाव है हो, अतः उनका निषेध तो स्वयं हो जाता है । उनको ध्यानमें रखकर यहाँ परभावोंकी मीमांसा नहीं की गई है । किन्तु एक ही आत्मा नायकभावसे भिन्न जितने प्रकारस परभाव सम्भव है उन्हें यहाँ लिया गया है जो चार प्रकारके हैं । निर्देश पूर्वमें कर ही आये है। यद्यपि यहापर यह कहा जा सकता है कि एक आत्मासे भिन्न अत्य अनन्त भाब भी परभाव है, उन्हें यहाँ परभाव रूपसे क्यों नहीं लिया गया है। समाधान यह है कि उन सर परभावोंका आत्माम अत्यन्त अभाव तो स्वरूपसे ही है। उनका निषेध ता स्वयं ही हो जाता है। यहाँ मात्र एक आत्मामें ज्ञायक भावसे भिन्न अन्य जितने परभाव है उनसे प्रयोजन है। जिस वस्तु के जो धर्म हैं उन्हींको उसका जानना यह सम्यक् नय है। इसी अभिप्रायको ध्यानमे रखकर पंचाध्यायी (श्लोक ५६१ ) में सम्यक् नयका लक्षण करते हुए 'तद्गुणसंविज्ञान ' ( जिस वस्तुका जो धर्म है मात्र उसे उसका जानना ) को नय कहा है। इस प्रकार यहांतक विवेचन द्वारा विधि-निषेधमत्रसे परम भावग्राही निश्चयनयका ज्ञान हो जानेपर प्रकृतमें व्यवहारनप और उसके भेदोंकी मीमांसा करनी है। यह तो सुनिश्चित है कि अपनो गुण-पर्याययुक्त आत्माको लक्ष्य में लेनेपर यहाँ जिन्हें परमात्र कहा है वे सब धर्म मात्माक है। उनका आस्मामें सर्वथा अभाव है ऐसा नहीं है, किन्तु उनमें वन्नुतसे धर्म ऐसे है जो आगन्तुक है और जो संसारको विवक्षित भूमिका तक आत्मामें दृष्टिगोचर होते है, उसके बाद उसमें उपलब्ध नहीं होते हैं। इसलिए यदि Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जयपुर ( खातिर ) स्वचर्चा आत्माकी सब अवस्थाओंको लक्ष्यमें रखकर उसका विचार किया जाता है तो वे आत्माको सब अवस्थाओंमें अनुगामी न होने से उन्हें अद्भुत कहा है । परन्तु जब तक वे आत्मामें उपलब्ध होते हैं तबतक उनके द्वारा आत्मामें यह आत्मा प्रमादी है, यह बारमा अप्रमादो है ऐसा व्यवहार तो होता ही है, इसलिए त्रिकाली आत्मामें यह नहीं है और शावरुस्वरूप आत्मासे वे भिन्न है इन सब प्रयोजनों को ध्यान में रसकर उनका अद्भूत व्यवहार में किया है उसमें भी ये दोनों प्रकारके ( प्रमत्तभाव और अप्रमत्तभाव ) भाव बुद्धिपूर्वक बुद्धि में आवें ऐसे ) भी होते है और अबुद्धिपूर्वक ( बुद्धि न आयें ऐसे ) मी होते है, अतएव जो अबुद्धिपूर्वक होते हैं उनमें अन्यकी अपेक्षा विवक्षित न होने से उन्हें अनुपचारित कहा गया है तथा जो प्रमत और अमभाव बुद्धिपूर्वक होते हैं उनमें बुद्धिपूर्वकत्वको अपेक्षा असे परसापेक्षपको अपेक्षा उपचरित कहा गया है। इसप्रकार विचार करनेपर अद्भूत व्यवहारयके दो भेद प्राप्त होते है - अनुचरित असद्भूत पवहार और उपचार बवद्भूत व्यवहारमय जो प्रमत्त और अप्रभाव अबुद्धिपूर्वक होते हैं वे अनुपचारित असद्भूत व्यवहारमयके विषय है और बी प्रमत्तम और अप्रमत्तभाव बुद्धिपूर्वक होते हैं उन्हें तपचरित बसद्भूत व्यवहारनयका विषय कहा है। यह तो अध्यात्मकी अपेक्षा अनून व्यवहारमय दो मेवोंकी भीमाना है। आमे सद्भूत व्यवहारनयकी और उसके भेदोंकी गोमांसा करती है यह तो सुनिश्चित है कि अखंड आत्मामें जान है, दर्शन है और चारित्र है । ये गुण त्रिकाली हैं । यदि आत्मामें इनका सर्वथा अभाव माना जाता है तो अपने विशेषाने आत्मा ही भाव प्राप्त होता है इसमें सन्देह नहीं। इसलिए यह तो मानना ही पड़ता है कि वे धर्म आत्मा है, परन्तु वे ऐसे नहीं हैं कि ज्ञान अलग हो, दन अलग हो और चारित्र अलग हो । किन्तु पूरे आत्माको ज्ञान रूप से देखने पर वह ज्ञान है, दर्शनरूपसे देखनेपर वह दर्शन है और चारित्ररूपसे देखनेपर वह चारित्र है, इसलिए आत्मायें उनका यदुभाव होनेपर भी वे भेदरूपसे नहीं है यह सिद्ध होता है इस प्रकार आत्मा उनका सद्भाव होने से उन्हें सद्भूत मानकर उन द्वारा आत्माका अलग-अलग व्यवहार होनेसे उन्हें व्यवहारका विषय माना है । इसप्रकार आत्मा ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है ऐसा जानना सद्भूत व्यवहार होकर भी इसमें अन्य किसीकी अपेक्षा विवक्षित न होनेसे इन द्वारा आत्माको ग्रहण करना अनुपचरित सद्भूत व्यवहारमय है । ردی अब यह देखना है कि जो यहाँ बारमाको लायकरूप कहा है सो वह परको अपेक्षा यक है कि स्वरूपसे शायक हैं। यदि एकान्त से यह माना जाता है कि वह परको अपेक्षा ज्ञायक है तो ज्ञानकभाव आत्माका स्वरूप सिद्ध न होनेसे ज्ञायकस्वरूप आत्माका सर्वथा अभाव प्राप्त होता है । यह तो है कि ज्ञायकमात्र स्व-परप्रकाशक होनेसे परको जानता अवश्य है पर वह परको अपेक्षा मात्र जायक न होनेसे स्वरूपसे ज्ञायक है। फिर भी उसे ज्ञायक कहने से उसमें ज्ञेवकी ध्वनि आ जाती है, इसलिए उसपर ज्ञेमको विवक्षा लागू पड़ जानेसे उसे उपचरित कहा है। इस प्रकार आत्माको शासक कहना यह सद्भूत व्यवहार है और उसे शेयको अपेक्षा शायक ऐसा कहना यह उपचरित है। इस प्रकार जब ज्ञेयकी विवक्षासे ऐसा कहा जाता है कि आत्मा ज्ञायक है तब वह उपचरित सद्भूत व्यवहारनयका विषय होता है। इस प्रकार विचार करनेपर सद्भूतव्यवहार भी दो प्रकारका सिद्ध होता है— एक अनुपचारित मद्भूत व्यवहारमय और दूसरा उपचारित सद्भूत व्यवहारन | यहाँ पर इतना विशेष जान लेना चाहिये कि ज्ञेयको विवक्षा न करते हुए सहज स्वभाव से जो ज्ञायकगाय है जिसको नियमसारमें कारण परमात्मा या परम पारिणामिक भाव कहा गया है वह निश्चयनका Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शांका १६ ओर रस-ज्ञा सामान ७१५ विषय है और शेष व्यवहार है। श्री पंथाध्यायीजी में व्यवहारके चारों भेदोंका निरूपण इसी आशयसे किया गया है जिसका निर्देश भी ममयसारजीको गाथा ६ और ७ में स्पष्ट रूपसे किया गया है। यह श्री समयसारजीका मुख्यरूपसे विवेचनीय विषम है जिसका निश्चयनय और व्यवहारनयको लक्ष्यमें रखकर यहाँ विचार किया गया है। किन्तु आत्मासे सर्वथा भिन्न ज्ञानावरणादि वर्ग और नोकर्म (शरीर, मन, वाणो और बाह्य विषय ) में भी एकत्यबुद्धि बनी हुई है। तथा वह पराश्रित बुद्धिवाला होनेसे कार्य-कारण परम्मा भो कार्य के प्रति आत्माको सहज योग्यताको उसका मुख्य कारण न मानकर कार्यको उत्पत्ति परमे मानता आ रहा है। इस प्रकार उसकी विषय और कारणरूपसे जो परके साय एकत्व बुद्धि हो रही है उसे दूर करने के अभिप्रायमे तथा इतर जनोंको प्रकृल में उपयोगी व्यवहारनय और निश्चयनयका विशेष ज्ञान कराने के अभिप्रायसे भी श्री समयसारजी में यहाँ वहाँ सर्वत्र दूसरे प्रकारसे मी निश्चयचय और व्यवहारमयका निर्देश किया है। उदाहरणार्थ श्री समयसारजी गाथा २७ में देह और अन्य की क्रियाके साथ, उसे आत्मा मानकर, जिसको एकत्व बद्धि बनी हुई है या जिसने नयज्ञानका विशेष परिचय नहीं प्राप्त किया है उसकी उस दृष्टिको दुर करने के अभिप्रायसे इसे भी उयवहारनायका विषय बतलाकर उपयागस्वरूप आत्माका निश्चयनयके विषयरूपसे ग्रहणकर माप ऐसे व्यवहारको छहानेका प्रयत्न किया गया है। इसीप्रकार कर्ता-कर्म अधिकाग्म या अन्यत्र जहाँ भो निश्चयनय और व्यवहारनयका प्रयोग हआ है वहाँ बह दो द्रव्यों और उनकी पर्यायोंमें ही रहो अभंद बद्धको दूर करने के अभिप्रायसे हो किया गया है इसलिए जहाँ पूर्जेक्त दृष्टिसे निश्चयनय व्यवहारनयका निरूपण किया गया हो उसे वहाँ उम् दृष्टिसे और जहाँ अन्य प्रकारसे निश्चयनय व्यवहारनयका निरूपण हो वहाँ उसे उस प्रकारसे दधिपथमें लेकर उसका निणय कर लेना चाहिये 1 लसणादि दाष्टले इनका विवेचन अन्यत्र किया हो है, इसलिए यहाँसे जान लेना चाहिये । पहा निश्चयनयके सम्बन्धमें इतना लिखना और आवश्यक है कि निश्चयनय दो प्रकारका है-सदिका निश्चयनय और निविकल्प निश्चयनय । नयचक्र में कहा भी है सविपष्प णिबियप्यं पमाणरूवं जिागेहि णिघिट्ट । तह घिह या वि भणिया सवियप्पा णिवियप्पा च ॥ जिनदेवने विकल्प और निर्विकल्पके भेदसे प्रमाण दीपाको कहा है। तथा उसी प्रकार मायकला और निविकल्पक भेदसे नए भो दो प्रकारके कहे गये है। अब विचार यह करना है कि यहां निर्विकल्पनयसे क्या प्रयोजन है और उसका श्री समयसारजीमें कहां पर निकपण किया है और वह कसे बनता है ? यह तो अनुमवियोंके अनुभवको वात है कि जब तक स्त्र और परको निमित्तकर किसी प्रकारका विकला होता रहता है तब तक उसे निविकरम संज्ञा प्राप्त नहीं हो मातो। किन्तु यह आत्मा सर्वदा विकल्पों से आक्रान्त रहला हो यह कभी भी संभव नहीं है। जिन्हें स्वसहाय केवलज्ञान हो गया है वे तो विकल्पातीत हो होते है इसमें संदेह नहीं। किन्तु जो आत्मा उमसे नीचेको भूमिकामें स्थित है वे भी स्वात्मानुभवको अवस्था में निर्विकल्प होते हैं, क्योंकि जब यह आत्मा ब्यवहारमूलक अन्य सब बिकल्पोंसे निवृत्त होकर और सविकल्प निश्चयनयके विषयरूप मात्र ज्ञायकभावका बालम्बन लेता है, अंतमें वह भी ज्ञायक भावसम्बन्धी विकल्पसे निवृत होकर निस्किल्पस्वरूप स्वयं समयसार हो जाता है। श्री समयसारजीमें कही भी है कम्म बसमबई एवं तु जाण जयपर्ख पक्खालिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥ १४२॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा अर्थ-जीवमें कम बद्ध है अथवा अबद्ध है इस प्रकारके विकल्पको तो मयपक्ष जानो, किन्तु जो पक्षातिक्रान्त (वक्त दोनों प्रकारके विकल्पोंसे रहित) कहलाता है वह समयसार अर्थात् निर्विकल्प शुद्ध आत्मतत्त्व है ॥१४॥ किन्तु जीवको इस प्रकार अनुभवको भूमिका न प्रमाणज्ञानका आलम्बन लेनेसे हो प्राप्त हो सकती है और न व्यवहारस्वरूप नयज्ञानके आलम्बनमें ही प्राप्त हो सकती है। वह तो मात्र निश्चयनयके विषयभूत एकमात्र ज्ञायकभावके आलम्बनसे ही होती है। यही कारण है कि मोक्षमार्गमें एकमात्र निश्चयनयको आश्रयणीय कहा है। आत्मानुभूति शनयस्वरूप कहने का कारण भी यही है। कहा भी है आत्मानुभूतिरित्ति शुद्धनयात्मिका या शानानुभूचिरियमेव किलेति बृद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्पकंपमेकोऽस्ति नित्यमवोधधनः समंसात् ।। -समयसार क. १३ अर्थ-इस प्रकार जो पूर्व कथित शुद्ध नयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है बही वास्तबमें शानको अनुभूति है, यह जानकर तथा आत्मामें आत्माको निश्चल स्थापित करके, सदा सर्व और एक ज्ञानघन आत्मा है, इस प्रकार अनुभवना चाहिए। श्री वीतरागाय नमः द्वितीय दौर शंका १६ प्रश्न यह है-निश्चय और व्यवहारनयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप ! प्रतिशंका २ यह हमारा प्रश्न है, इसका उत्तर आपने ७ पृष्ठों में दिया है, परन्तु हमारे प्रश्नोंका कोई उत्तर नहीं है। आपके पृष्ठोंके उत्तग्में यह बात कहीं नहीं आई है कि व्यवहार नयका विषय असत्य है क्या ? असस्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप ? इसलिए आप हमारे प्रश्नोंका उत्तर देने की कृपा करें। आपने जो उत्तर दिया है वह भी शास्त्राधारसे विपरीत टहरता है। आपने लिखा है कि 'यह जीव अनादि अज्ञान यश संयोगको प्राप्त हए पदार्थों में न केवल एकत्यबुद्धिको करता आ रहा है। अपि तु स्वसहाय होने पर भी Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संका १६ और उसका समाधान परकी सहायताके बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता ऐसी मिथ्या मान्यतावश अपनेको परतन्त्र बनाये हुए चला आ रहा है। ये आपकी पंक्तियाँ है। इन को पढ़नसे यह अयं मर्वविदित स्पष्ट हो जाता है कि आप वात्माकी परतन्त्रताको केवल कल्पनात्मक समझते है। और परपदार्थोके संयोगको आप एकत्व बुद्धिरूप मिथ्या मान्यता बता रहे हैं। आपकी समझसे कर्मोका आत्माके साथ न तो वास्तव में सम्बन्ध है और न आत्माके राग-द्वेष बिकारभाव एवं नारकादि आत्माकी बंजन पर्याय उनमें होती है। केवल एकत्व द्ध रूप मिथ्या मान्यता है । इसी समलके अनुसार आपने लिखा है कि 'म्वमहाय होनेपर भी परकी सहायताके बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता है, ऐसी मिथ्या मान्यता वश परतन्त्र मान रहा है।' इसी समहाके अनुसार 'झ्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ?' इस हमारे प्रश्नको छुआ तक नहीं है, उसका कोई उत्तर नहीं दिया है। इसका भी कारण यह है कि आप अपनी निजी समझसे आत्माके मारी भागमा म काका पाद आत्मा पर नहीं मानते है । किन्तु आत्माकी अनादि बशामताको स्वयं आत्मोय योग्यतासे मान रहे हैं। परन्तु ऐसी मान्यता समयसार, ममाचार, भावसंग्रह. रयणसार, धवल सिद्धांत, तस्वार्थयातिक, गोमटसार आदि शास्त्रोंसे विपरीत है। इसका सामाण साष्टीकरण करते हरा हम यह बता देना आवश्यक समझते हैं कि जीवकी अनादि अज्ञानता स्वयं आत्माके केवल निजी भावोंसे नहीं होती है। किन्तु वह अज्ञानता को जनित आत्माकी परतन्त्र कर्माधोन भाव व्यंजनपर्याय है। यदि अज्ञानताको आत्माकी स्वतन्त्र पर्याय मान लिया जाय तो यह अज्ञानता संसारी जोयों में क्यों पाई जातो है। परम-शद्ध परमात्मा सिद्ध-भगवान में क्यों नहीं हो सकती है। इसका क्या विशेष हेतू है? इसका उत्तर शास्थाघारसे दीजिये 1 आत्माका स्वभाव निश्चय नयसे केवलज्ञानरूप है, यथाख्यात चारित्ररूप विशुद्ध परिणामस्वरूप है, विशुद्ध सम्यग्दर्शनरूप है । तथा उस स्वभाव आत्मामें अज्ञानरूप विभावभाव किस कारणसे बागया इस बातका उत्तर देना चाहिये । दूसरी बाल यह है कि आत्मामें परतंत्रता आप वास्तव में नहीं बताते है, किन्तु उसे मिध्या मान्यतावश केवल कल्पनात्मक बता रहे है । जैसी कि आपकी कार पक्तियाँ है। यह बात भी शास्त्रानुसार विपरीत है। कारण समस्त पूर्वाचाोंने स्वरचित समस्त शास्त्रोंसे मात्माको वास्तव में परतंत्र लिखा है। परतंत्रता शरीर एवं ज्ञानावरण, दर्शनाबरण, मोहनीय आदि व्यकर्मों के उदयसे ही हुई है, जो पर्यायष्टिसे वास्तविक है। यदि परतंत्रता आत्माको निर्हेतुक एवं कोरी कल्पनात्मक हो हो तो यह परतंत्रता एवं अज्ञानता प्रात्मामें सदैव रहनी चाहिये। जो वस्तु निर्हेतूक होती है बह नित्य रहती है। जैसे धर्म अधर्म आकाशाद्व्य, ये नितुक होनेसे सदैव स्वकीय स्वभावमय रहते है। जीव पदगलामें वैभाविकी शक्ति उपादानरूप होनेसे और बाह्य में कर्मोदय जनित उपाधि होनेस दोनों द्रश्य विभाव भावपर्यायको धारण करते हैं, इसीलिये वह जीब पदगलोंकी विकृति सहेतुक है। और उसासे जीव परतंत्र बना हुआ है। आत्मासे जम बाह्य कारण कर्मोदय जलिल निमितो बंधनेवाले द्रव्यकम हट जाते है तो आत्मा सन परजन्य विकारभावोंसे हट जाता है, परम शुद्ध बन जाता है। उस समय अपत्माकी भाविक शक्ति स्वभावरूप परिणत हो जाती है। बिना बाह्य निमित्त कर्मोदयके वह शक्ति विभाव भावरूप गर्याय कभी नहीं बन सकती है। बिना निमित्त कारणके केवल उपादान कुछ भी करने में सर्थथा असमर्थ है। जो जात सहेतुक नहीं होतो, केबल कल्पनामात्र होती है, उससे वस्तुको वास्तविकता सिद्ध नहीं होती। यदि कोई जड़को चेतन और चेतनको जड़ समझ बैठे तो वह उसको समसका दोष है। उसकी समक्ष में बढ़ चेतन नहीं हो जायेगा, और चेतन जड़ नहीं बन जायेगा। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा अात्मा के साथ शरीरका सम्बन्ध है, इसीलिये आत्मा लोकाकाशके बराबर असंख्यातप्रदेवशी होने पर भी वह शरीराकार हो रहता है। पनामुलके असंख्यातवें भाग शरीर परिमाणवाले सूक्ष्म निगोदिया जीवसे लेकर स्वयंभरमण समुद्र में रहने वाले एक हजार दोजन शरीरको अवगाहनावाले महामत्स्य में रहनेवाला आत्मा समान आमप्रदेशो होनेपर भी उन शरीरोम रुद्ध एवं बद्ध होकर परतंत्र बना हुआ है । यह बात प्रमाणोंसे भलीभांति मिद्ध है। इसो प्रकार आत्माके राग, देष और मनुष्यादि पर्वायों में जीव अपने आत्मोय सुद्ध स्वमावके विरुद्ध विकृत बना हुआ है। पोरगतमय दरकमें कोई नहीं जाना जाता है. परन्त चाना पड़ता है। इसका कारण कर्मोदयकी परतंत्रता हो है । यह परतंत्रता वास्तविक है। केवल मिथ्या ममशमे नहीं है। अब हम व्यवहार नयी बिषय-भूत व्यवहार क्रियायों पर थोडा प्रकाश डालते हैं। दिगम्बर जैनागम में व्यवहार धर्म के आधारपर हो निश्चयस्वरूप शद्वात्माको प्राप्ति अथवा मोक्षप्राप्ति बताई गई है। व्यवहार धर्मका निश्चयधर्म के साथ अधिनाभाव सम्बन्ध है। विना व्यवहार चमके निश्चय धर्म त्रिकालमें न तो किसी ने प्राप्त किया है और न कोई प्राप्त कर सकता है। इसीलिये वह मोक्षप्राप्तिमें अनिवार्य परम साधक धर्म है। यही कारण है कि तीर्थकर नकको उत्कट वैराग्य होनेपर भी मांतवा छठा गणम्यान तब तक नहीं हो सकता है जब तक वे जङ्गल में जाकर बुद्धिपूर्वक वस्त्राभूषण आदि समस्त परग्रहोंका त्यागकर नम्न दिगम्बररूप धारणकर केशलंचन नहीं कर देते है । गग्न रूप धारण करने के वाद हो उन्हें सातवाँ । छठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है । ४सा प्रकार छठ गुणस्त्रानसे सा मुणस्थान अप्रमत्तको छोड़कर जब वे सालिशय अप्रमत्त परिणामको अधःकरणादि तीन करणों के साथ आपक-श्रेणीका आरोहणकर अन्तमहल में केवलज्ञानमय परम विशुद्ध गुणों को प्राप्त कर लेते हैं । इस जन्म-मरणको अनादिकालीन कमजनित अजानताको हटाने के लिये मुख्य कारण नग्नता, गंच महायत, पंच समिति, पटु आवश्यक आदि व्यवहार धर्म ही है। इस प्रहार धर्मरूप महाप्रतादि क्रियाओं के विकल्पको तथा मुनिधर्मकी जीवन भरकी चर्याको सफल बनानेवाली सल्लेखना समाधिके विकल्पको हेय एवं मिथ्या बताया जाता है, जो ठीक नहीं है, अागम विरुद्ध है। उन्हीं महाब्रतादि विकल्पभावोंको शास्त्रकार पूर्वाचार्योन यात्माको विशुद्धता एवं मोक्षप्राप्तिमें मूल हेतु बताया है। इसीलिये यह फलिलार्थ मानना आवश्यक होजाता है कि मुनिलिंग द्रष्यरिंग भावलिगका साधफ अनिवार्य कारण है। द्रश्यलिंगको प्राप्ति होनेपर हो भावलिंग प्रकट होसकता है अन्यथा असम्भव है। भावलिंगकी पहिचान छदमस्थमत्तिज्ञानो-श्रुतज्ञामी करने में सर्वथा असमर्थ है। इसीलिये द्रव्यलिंग एवं अट्ठाईस मुलगणरूप बाह्य क्रियाओं के पालनको देखकर मन-वचन-कायरी मुनिराजकी श्रद्धा भक्ति करना प्रत्येक सम्यग्दृष्टिका प्रथम कर्तव्य है। अपनी वाह्य चर्मा एवं तपश्चरण में पूर्ण सावधान भावलिंगी मुनिको हम लोग द्रयलिंगी (मिष्टयादाष्ट) समझते रहें और उन्हें नमस्कार आदि नहीं करें तो यह हमारा बहुत बड़ा अपराध होगा। और मावलिंगो मनिको ट्रयलिंगी मिथ्यादृष्टि कहकर हम स्वयं मिवाष्प बन जाते है । आचार्योने पंचमकालके अन्त तक भावलिंगो मुनि बताये हैं और साथ ही उन्हें चतुर्थ कालके समान भावलिंगी मानकर उनकी श्रद्धा-भक्ति करने का विधान सम्यक्त्व प्राप्ति एवं सम्यग्दृष्टिका लक्षण बताया है। इस कथनसे यह बात भी भलीभांति सिद्ध हो जाती है कि जिस व्यवहारधर्मको अभूतार्थ कह कर अथवा उसे मिथ्या कहकर केवल निश्चयधमले निश्चयधर्म को प्राप्ति बताई जाती है वह निराधार कल्पना है। किन्न व्यवहारधर्म मोक्ष साधक अनिवार्य कारण है। यह वास्तविक परम सत्य है। इसी तत्वको भगवान कुंदकूद आचार्य देवसेनाचार्य, आचार्य बट्टकेर एवं आचार्य वीरसेन आदिने बताया है। व्यवहार असद्भुत है ऐसा मानकर ही देवपूजा, मुनिदान, तीर्थ-वन्दना, स्वाध्याप, उपवासादि, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंका १६ और उसका समाधान ७१९ उपश्वरण आदिको संसारक कहा जाता है, परन्तु न तो व्यवहार अवश्य है और न देवपूजनादि क्रियाएँ संसारयक है किन्तु ये सब क्रियायें कही है। ऐसा भगवान् कुन्दकुन्दने रमणसारमे भावसंग्रह में आचार्य पद्मनन्दिने पद्मनन्दि पंचविशत्रिकामे राष्ट लिखा है। अन्य शास्त्रों मोही हक है। आमा देव भी इन धार्मिक ऐसी अवस्था में शास्त्रों का पूर्वापर अविरोध समन्वय करनेके लिये यह कहना और समझना होगा कि व्यवहार गयको अनत कहनेका बाशय यात्राका यही है किमार्थ है, मोसाक है परन्तु आत्माका निश्चयरूप पूर्ण नहीं है। वह मिश्रित पर्याय है. केवल शुद्ध पर्याय नहीं है शुद्धाशुद्ध है और स्थायी नहीं है। किन्तु धर्म गुणस्थानक हो क्रियात्मक रहता है आगे भावात्मक हो जाता है। इसलिये साधक होनेपर भी बहु पूर्ण शुद्ध नहीं है । स्थायी भी नहीं है, इसलिये उसे अद्भूत कहा गया है । यही अर्थ व्यवहारधर्मका आपकी इन पंक्तियोंसे सिद्ध होता है। 'आत्माको सब अवस्थाको उदयमें रखकर उसका विचार किया जाता है तो ये आत्माको प अवस्थाओं में अनुगामी न होनेसे उन्हें असद्भूत कहा है। परन्तु जबतक वे आत्मायें उपलब्ध होते है तबलक उनके द्वारा आत्मायें यह आत्मा है, यह आत्मा अप्रमादा है ऐसा व्यवहार तो होता ही है। इसलिये त्रिकाली आत्म में पर नहीं है और जयस्वे भिन्न है इन गब प्रयोजनोंको ध्यान रखकर उनका अद्भुत व्यवहार नय अन्तर्भाव किया है। इन पंक्तियों यह बात आपने स्वयं प्रकट कर दी है कि व्यवहार नयको अद्भूत कहने का अर्ध अवस्थ नहीं है, किन्तु शुजा पर्याय है अवस्थाओंमें नहीं रहती हूँ अर्थात् निश्चयको प्राप्ति होनेपर वह अवस्था छूट जाती है। इन पंक्तियों आपने जो उसको ज्ञायक स्वरूप आत्मासे भिन्न बताया है यह बात शास्त्रविरुद्ध है। क्योंकि सातवें गुणस्थान एवं सूक्ष्म कीोदय के साथ दसवें गुणस्थानक होनेवाले उपशमभाव या कमान शायक आरमा से भिन्न नहीं हैं, किन्तु वे सब आत्माही के नाम हैं ये परमशुद्ध आधिक नायके अंश रूप है वह स्वायो सब I आगे अपने जो यह बताया है कि कार्यके प्रति आमाकी सहज योग्यता को उसका मुख्य कारण न मानकर कार्यको उत्पत्ति परसे मानता आ रहा है।' आदि सो हम आपसे स्पष्ट करना चाहते हैं कि वह सह गोग्यता क्या है जो बिना व्यवहार निश्कप्राप्त करा देवे ? बिना महाव्रतादिव्यवहारवारको धारण किये परतन्त्र एवं रागद्वेषविशिष्ट आत्मा कमका य कर सकता है क्या ? अथवा माँ मंदिरादिकका स्थान किये बिना कोई मनुष्य सम्पनत्व को भी प्राप्त कर सकता है क्या ? यदि यह कहा जाय कि माँस-मंदि रादि सेवन और जोवको मारना आदि दो जड़ घरोरकी क्रियाएँ हैं, उनसे आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है, ऐसी दशायें कौन-मो वह सहज योग्यता है जिससे उन एवं अशुद्ध मूलक वस्तुओंको छोड़े बिना आत्माको शुद्ध पर्याय ले जा सके । हो तो शास्त्र - प्रमाणसे प्रकट कीजिये । शास्त्रकारोंने तो आत्माको शुद्धता और मोक्ष प्राप्ति में मूल हेतु व्यागको ही बताया है । अष्ट मूलगुण, अणुव्रत महाव्रत आदि उसीके फल-स्वरूप आत्मशुद्धि के साधक सिद्ध होते है। ऐसा ही आगम है । आगे समयसारीको गाथा नं० २७ का प्रमाण देकर वापने जो यह लिखा है कि देह और उसकी क्रिया के साथ उसे आत्मा मानकर जिसकी एकत्वबुद्धि बनी हुई है या जिसने नयज्ञानका विशेष परिचय नहीं किया है उसकी इस दृष्टिको दूर करने के अभिप्राय से इसे भो व्यवहारमयका विषय बताकर Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा उपयोगस्वरूप आत्माका लिएके दिपपाको महका ये अपनारको छुड़ानेका प्रयत्न किया है।' आदि। आपको उपर्युक्त पंक्तियाँ भ्रम पैदा करतों है। कारण जो शरीर और उसकी क्रियाको प्रात्मा मामता है यह तो मिध्पादृष्टि है। उस विचारवाले मिथ्याष्टिका सम्बन्ध सम्यग्दृष्टिको आत्माके साथ नहीं जोड़ना चाहिये । सम्यग्दष्टि जोद शरीरको आत्मा नहीं समझता है, किन्तु वह तो निश्चयस्वरूपको समझकर उसके साधक व्यवहारधर्मको पालता है। उस व्यवहारधर्मको छोड़ने का प्रयत्न किसी शास्त्रमें नहीं बताया गया है, किन्तु उसे ग्रहण करनेकाही विधान है। हाँ सम्पादष्टिका व्यवहारधर्म निश्चय प्राप्तिको कराकर स्वयं छूट जाता है। इसका प्रमाण यही है कि आत्मा छटे गुणस्थानकी क्रियाओं में महाव्रतादि व्यवहारधर्मके द्वारा जब सातवें अप्रमत्त गुणस्थानमें पहुँच जाता है तब वह क्रियात्मक व्यवहारधर्म स्वयं छट जाता है। दिगम्बर जैनधर्म अनेकान्तस्वहा है। उसके अनुसार निश्चय और उपवहार दोनों मय और उनके विषपभूत पदार्थ प्रमाणभूत सिद्ध हो जाते है। इसका खुलासा यह है कि प्रमाण वस्तुके सर्वाशको ग्रहण करता है, वस्तु द्रव्य-गर्यायात्मक है। इस वस्तु स्वरूपको ध्यानमें लेनेसे यदि केवल निश्चयनयको ही उपादेय माना जावे तो वह निरपेक्ष होनेसे मिथ्या नय ठहरेगा | 'निरपेक्षाः नया मिथ्या' ऐसा शास्त्रवाक्य है। यदि निश्चयनयको छोड़कर केवल व्यवहारको हो ठोक माना जाय तो भो वह मिटपा ठहरेगा। क्योंकि बस्तस्वरूप द्रव्य-पर्याय उभयरूप है। इसलिये जैसे निश्चय प्रमाणभूत उपादेय है उसी प्रकार ब्यवहारनय भी प्रमाणभूत उपादेय है । प्रमाणशान दोनों साक्षेप नयों को एक साथ ग्रहण करता है । इसलिये दोनों नयोंके विषयभूत निश्चय और व्यवहारधर्म भो प्रमाणभूत एवं समीचीन है। क्रियात्मक एवं भावात्मक दोनों चर्मोका सामंजस्य और समीचीनता अनेकान्त प्रमाण सहज सिद्ध हो जाती है। परन्तु ये निराधार स्वतंत्र मान्यताएँ अनेकान्त स्वरूपको छोड़कर मिथ्या एकान्तरूप बन गई है। इस प्रकारको एकान्त मान्यताओंसे व्यवहारधर्मको हेव तथा निश्चयवर्मको ही उपादेय माना जाता है । इस मान्यताका कटक फल यह दोखने लगा है कि जिनभक्ति, मुनिभक्ति, मुनिदान, तीर्थवन्दना आदि धाकधर्म विधायक एवं मोक्षफल प्रतिपादक मुनिधर्म विधायक शास्त्रोंमें परिवर्तन किया जा रहा है । तथा उन्हें कुशास्त्र कहनेका दुःसाहस भी किया जा रहा है। इन बातोंसे दिगम्बर जैनधर्ममें पूर्ण विकृति आये बिना नहीं रह सकती है। इमलिये यथार्थ वस्तुस्वरूप प्रतिपादक अनेकान्तका आश्रय लेना आवश्यक है। उसोरो ब्यवहारषर्म एवं निश्चयधर्म में हेत-हतमभाव, कार्यकारणभाव एवं साध्य-साधकभावकी सिद्धि हो जाती है। इस समोचीन मान्यतासे हो जात्मा स्वगर कल्याण एवं मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हो जाता है। उपर्युक्त समस्त विवंचनकी पुष्टि में यहाँ पर संक्षेपरूपसे कतिपय प्रमाणीका उद्धरण हम प्रस्तुत करते है। वे प्रमाण इस प्रकार है देवागम स्तोत्रको 'दोषावरणयोहानि:' आदि, इस कारिकाके माध्यमे आचार्य विद्यामन्दि स्वामो लिखते हैं कि ___ वचनसामादज्ञानादिदोषः स्वपरपरिणामहेतुः, न हि दोप राव आवरणमिति प्रतिपादने कारिकाया दोषावरणयोरिति द्विवचनं समर्थम् । ततः तत्सामादावरणात् पौद्गलिकज्ञानावरणादिकमणी भिन्न Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान स्वभाव एव आवरणादिर्दोषोऽभ्यूह्यते, सखेतुः पुनराबरणकर्म जीवस्य पूर्वस्वपरिणामश्च । स्वपरिणामहेतुक एवाज्ञानादिरित्ययुक्तम् । अष्टसहनी पृष्ट ५१ दोष और आवरण इन दोनोंमें अज्ञानादि तो दोष है व स्त्रपर ( जीव और फर्म ) परिणाम होता है । दोषका नाम ही आवरण नहीं है, वह अज्ञानादि दोष पौद्गलिक ज्ञानाबरण कर्मसे भिन्न है और इस अज्ञानभावका कारण पोद्गलिक ज्ञानावरण कर्म है तया जीत्रकी पूर्व पर्याय भी है। इसलिए जोवका अज्ञान भाव स्वपरहेतुक है। इस अष्टसहस्रोके प्रमाणसे आपको इस बातका खंडन हो जाता है कि अज्ञानता स्वयं प्रात्माकी योग्यतासे होती है। इसी बातको पुष्टिमें आचार्य अकलंकदेव 'ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने' इस तत्वार्यसूत्रको वृत्तिम लिखते हैं कि स्थादेतत् ज्ञानावरणे सति अज्ञानमनबोधो भवति । न प्रज्ञा, ज्ञानस्वभावस्वादात्मनः इति, सन्न, किं कारणम्-अन्यज्ञानावरणसद्भावे तद्भावात्ततो ज्ञानावरण एच इति निश्चयः कत्तव्यः ।। -तत्त्वार्थवार्तिक श्र. १ सू. १३ प्रज्ञा और अज्ञान दो परिवह ज्ञानावरणके उदयसे ही होती हैं। आपका यह कहना कि अनादि अज्ञानता जोवकी स्वयं होती है, वह कर्मकृत नहीं है, इस बातका उपर्युक्त प्रमाणोंसे पूरा खंडन हो जाता है। व्यवहार धर्म मोक्षमार्ग और मोक्षप्राप्तिमें पूर्ण साधक है और वह स्वयं मोक्षमार्गस्वरूप है । इसके प्रमाणमैं आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि--- श्ररहंतणमोकारं भावेण य भी करेदि पयमदी । सो सम्बदुक्खमोक्खं पावह अचिरेण कालेण । -श्री धवल पुस्तक १ पृष्ठ ९ तथा कचं जिणगिदसणं पदम-सम्मत्तपत्तीए कारणं! जिणविंददसणेण णिवत्त-णिकाचिदस्त चि मिच्छतादिकम्मकलावस्त खयदसणादो। जो विकेकी जीय भान-पर्वक अरहंतको नमस्कार करता। बह अति शीघ्र समस्त दूखोंस मक्त हो जाता है। तथा जिनबिंदके दर्शनसे नित्ति और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलापका क्षय देखा जाता है। तया जिनबिचका दर्शन प्रथम सम्पत्वको उत्पत्तिका कारण होता है। -श्री धवत पु० ६०४२७ प्रवचनसारको टोका में आचार्य जयसेन स्वामो लिखते हैं कि तं देवदेवदेवं जदिवस्वसह गुरुं तिलोयस्स ।। पणमति जे मणुस्सा ते सीवर्स अक्खयं जंति ॥ -प्रवचनसार गाथा ७९ की टीका उन देवाधिदेव जिनेन्द्रको, गगधर देव को और साधुओंको जो मनुष्य वन्दना नमस्कार करता है वह अक्षय मोक्षसको प्राप्त करता है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ जयपुर ( खानिया) तत्वचर्चा पंचास्तिकायको टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र सूरिने लिखा है कि निश्चयन्यवहारयोः साध्यसाधन भावस्वात् सुवर्ण-सुवर्णपाषाणषत् । अतएष उभयनयानता पारमेश्वरी तीर्थ-प्रवसना इति । -पंचास्तिकाय गाधा १५९ की टीका तथानिश्चयमोक्षमार्गसाधनभावेन पूर्षादिष्टम्यवहारमोक्षमार्गनिर्देशोऽयम् । चवहारमोक्षमार्ग-साध्यभावन निश्चयमोक्षमार्गोपन्यासोऽयम् । -पंचास्तिकाय गाथा १६०-१६१ की टोका निश्चयनय और व्यवहारनय परस्पर साध्यसापकभाव है। जैसे सोना साध्य है और सुवर्ण पाषाण साधन है । इन दोनों नयोंफे ही अधीन सर्वज्ञ वीतरागके धर्मतीर्थको प्रवृत्ति होती है। निश्चय मोक्षमार्गका माधन व्यवहार मोक्षमार्ग है। व्यबहार मोक्षमार्गसे ही निश्चय मोक्षमार्ग सिद्ध होता है। श्री परमात्मप्रकाशमें श्रीआचार्य कहते हैं किएवं निश्चय-ध्यवहाराभ्यां साध्यसाधकमायेन तीधगुरुदेवतास्वरूपं ज्ञातव्यम् । -परमात्माप्रकाश श्लोक ७की टीका तथासाधको व्यवहारमोक्षमार्ग: साध्यो निश्चयमोक्षमार्ग:। -परमात्माकाशीका १४२ प्रर्थ-इस प्रकार निश्चय और व्यवहारके साध्य-साधकभावसे तीर्थ, गुरु और देवताका स्वरूप जानना चाहिये। सचाव्यवहार मोक्षमार्ग साधक है और निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है। श्री पंचास्तिकाय टीकाम आचार्य जयसेन स्वामी लिखते है किनिश्चयच्यवहारमोक्षकरणे सति मोक्षकार्य संमवति इति । -श्री पंचास्तिकाय गाधा १०६ अर्थ-निश्चय और व्यवहार इन दोनों मोक्षकरणोंसे (निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयसे) ही मोक्षरूप कार्य सिद्ध होता है। व्यबहारधर्मकी मोक्ष-साधकता प्रमाण देते हए अन्त में हम इलना लिखना भी आवश्यक समझते हैं कि व्यवहारधर्मको धवल सिद्धान्त आदि सभी शास्त्रों में मोक्षसाधक धर्म बताया गया है। परन्तु अनेक प्रमाण सामने रहते हुए भी आप व्यवहारधर्मको घर्म नहीं मानते है । किन्तु पुण्य कहकर उसे संसारका कारण समझ रहे है । ऐसो धारणासे नीचे लिखी बातें पैदा होती है १. मुनिधर्म जो मोसप्राप्तिका साक्षात् साधन है, वह धर्म नहीं ठहरता है। प्रत्युत मुनियों को पर्या संसार-वर्द्धक ठहरती है। शास्त्रामें मुनियों को अरहंतका लघुनन्दन कहा गया है। २. श्रावधर्मकी क्रियाएँ भी धर्म नहीं ठहरती हैं, ऐसी दशामें क्रियात्मक चारित्रका कोई मूल्य नहीं रहता। आजकल वैसे हो लोग धर्मसे शिथिल बन रहे है । कुछ लोग देवदर्शन छोड़ चुके है । भक्ष्याभक्ष्य एवं Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान स्पस्पर्शका विवेक छोड़कर होटलोंमें खाने लगे हैं। कुछ भाई तो व्यवहारधर्मको धर्म नहीं समझकर एवं ससे के.बल शरीरकी किया समझाकर बाजारू खान-पान एवं हीनाचारकी ओर भी झुक गये है। परन्तु बास्लब में विचार किया जाये और शास्त्रों पर श्रद्धान किया जाये तो व्यवहारधर्म श्रावक और मुनियोंका मोक्षमार्ग है । उसके बिना मुक्ति प्राप्ति असम्भव है। ३. यह बात विचारणीय है कि यदि व्यवहारधर्मको धर्म नहीं माना जाय तो धर्मप्रवर्तक तार्थ कर भगवान उसे क्यों धारण करते । ये तो सर्वोच्च अनुपम असाधारण एकमात्र धर्मनायक है। यह नियम है कि आठ वर्ष पीछे तीर्थकर अणुदती बन जाते हैं। तो क्या उनकी इस व्यवहारधर्म की प्रवृतिको धर्म नहीं माना जायेगा । उत्तर देने की कृपा करें। ४. दुसरी बात यह है कि यदि व्यवहारधर्म में होनेवाले राग-भाव (शुभराग एवं प्रशस्त राग) को रांमारवर्द्धक माना जाय तो दश गुणस्थानमें भी सूक्ष्म लोभके उदय में जो सूक्ष्म सांपरायिक रागभाव है उसे भी संसारबर्द्धक मानना पड़ेगा और वहां भी रागके सदृभाव में शुद्धोपयोग नहीं बनेगा। परन्तु क्षपश्रेणी में चले हुए दयावें गुणस्थानवर्ती शुक्लध्यानी मुनिराज उस रागके सद्भायमें भी कर्मोकी अनन्तगुणो निर्जरा करते है और अन्तमुहूर्तम नियमसे केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं सा शास्त्रीय विधान है। एसी जयस्व में प्रशस्त राग संसारबद्ध क सिद्ध नहीं होता है, किन्तु ध्यानका कारण एवं केवलज्ञान प्राप्तिका अन्तिम साधन है । परन्तु आप ऐसे शुभोपयोगवाले सभ्यग्दृष्टि एवं महानता के प्रशस्त रागको भी धर्म न कहकर पुण्य कहते हुए उसे संसारषज्ञक बता रहे हैं इसका आगमप्रमाणसे उत्तर दीजिये। सारांश यह है कि शुद्धस्वरूपका प्रतिपादक निश्चयनय है और शुद्धाशुख द्रव्य मा पर्यायका प्रतिपादक व्यवहारनय है। निश्चयनय अपने स्थानपर सत्यार्थ है और व्यवहारनय अपने क्षेत्रमै सत्यार्थ है। दोनोंनय प्रमाणके ही उपभेद है, परस्पर सापेक्ष दोनों नय सत्य है, निरपेक्ष दोनों असत्य हैं। जीवको प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर संसारी दशा भी असत्य नहीं और अन्यक्त शक्तिरूप शुद्ध-बुद्ध दशा भो सत्य है। निश्चयधर्म सापेक्ष व्यवहारधर्म आत्मद्धिका साधक है, निदयय-यवहारमयका समन्वय करनेवाला स्याद्वादसिद्धान्त जैनमिद्धान्तका मूल स्तम्भ है। श्री वीतरागाय नमः शंका १६ निश्नयनय और व्यवहारनय का स्वरूप क्या है ? व्यवहारमयका विषय असत्य है या सत्य ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप ? प्रतिशंका २ का समाधान मल मनके उत्तरस्वरूप जो लेख लिपिबद्ध किया गया था उसमें निश्चयनय और पबहारन यका स्वरूप बतलाकर व्यवहारनय के एक द्रव्यको अपेक्षा जितने भेद होते हैं उनको सप्रमाण चर्चा की गई थी। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा उसमें वायके सद्भूत और और और परिमेोनिर्देश किया उप उपचाव गया था। इसलिये यह आक्षेप तो समीचीन नहीं कि प्रश्नमें जो पूछा गया उसका उत्तर नहीं दिया गया। इतना है कि प्रश्नकर्ता अपने मनमें यदि किसी हेतुको ध्यान में रखकर प्रश्न करता है तो जिस हेतुसे उसने प्रन किया है उसका भी उल्लेख होना चाहिये । अस्तु, हमारे द्वारा लिखी गई 'यह जीव अनादि अज्ञानवश संयोगको प्राप्त हुए पर पदार्थों न केवल एकबुद्धिको करता आरहा है, अपितु स्वहाय होनेपर भी परकी सहायता के बिना मेरा निर्वाह नहीं हो सकता, ऐसी मिथ्या मान्यतामदा अपनेको परतन्त्र बनाये हुए चला आ रहा है। इन पंक्तियो २ उक्त प्रकारको मिथ्या धारणाको कल्पना को संज्ञा दी गई है यह पढ़कर आश्चर्य हुआ। बथवा अदेव देवबुद्धि, अगुरु गुरुबुद्धि और अशास्त्र में शास्त्रदृद्धि तथा इसी प्रकार अनात्मीय पदार्थोंमें आत्मबुद्धि, जिसे कि सभी शास्त्रकार मिथ्या श्रद्धा के रूप में मिथ्यादर्शन लिखते आये है, उसे आजकल यदि कल्पना माना जाता है सो आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये। जीवादि सात पदार्थीको विपरीत श्रद्धा का नाम ही तो मिथ्यात्व है, इसे मागमका अभ्यासी प्रत्येक व्यक्ति जानता है, फिर वैसी मान्यता कल्पनारमक कैसे हुई ? विचार कीजिए। इसी प्रकार लेख अप्रासंगिक और भी अनेक चिन्तनीय विचार रखे गये हैं। आत्माकी नर नारकादि पर्याय स्वयं मात्माको अवस्था है। यदि पर द्रव्यरूप कमौका आत्माके साथ होनेवाले बन्चका शास्त्रकार व्यवहार नयसे सद्भाव स्वीकार करते हैं और हमारी ओरसे उस कक्षा के भीतर रहकर उत्तर देकर शास्त्रमर्यादाकी सोमा बनाये रखो जाती है तो इसमें हानि हो क्या है ? इस सम्बन्ध स्वयं आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है सर्वा परैः सह वरचतः समस्तसम्बन्धशून्यत्वात् । - प्रवचनसार ३, ४ टीका अर्थ - आत्मा तत्त्वतः परद्रव्योंके साथ सब प्रकार के सम्बन्धसे शून्य है । प्रदिशंकास्वरूप लिखे गये अनेक आगयोंका नाम है। इनमें पंचाध्यायीका नाम लिखकर उसका नाम अलग क्योंकर दिया गया यह मेरी समझ के बाहर हैं। यह कोई प्रशंसनीय कार्य नहीं हुआ सूचना देना में अपना धामूलक प्रधान कर्तब्य मानता हूँ जिन प्रबंकि इस सूची में नाम है उनमें समयसारके साथ मूळाचार, भावसंग्रह, श्यणसार, धवलसद्धान्त, तस्यार्थवार्तिक और मोम्मटसार इस आगमशास्त्रोंका भी नाम है । इनमें समयसार अध्यात्मकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला आगम ग्रन्थ है, शेप आगम ग्रन्थ व्यवहारको मुख्यतारो लिखे गये है। पंचास्तिकायनें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्थप्रतिपादित जीवगुणमार्गणास्थानादिप्रपंच चित्र विकल्प-गाथा १२३ टीका रूपैः । इस उल्लेख से स्पष्ट है कि जिन शास्त्रोंमें जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान आदिरूप विविध भेदों का कथन किया गया है, जिनमें कर्मग्रन्थ मुख्य हैं, वे व्यवहारनयको मुख्यतासे लिखे गये हैं । अतएव इनमें निमिलोंकी मुख्यतासे प्रतिपादन करते हुए जो यह कहा गया है कि उनके कारण जोव संसारमें परिभ्रमण करता है या जीव कमके कारण हो संसारका पात्र बना हुआ है।' तो ऐसे कथनको पर मार्थभूत न कह कर व्यवहारको अपेक्षा स्वीकार किया जाता है तो उस परसे विपरीत अर्थ फलित म यही फलित करना चाहिए कि यह संसारो जीव एकमात्र अपने अज्ञान के कारण ही संसारका पात्र बना हुआ है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७२५ इसमें कमका अणुमात्र भी दोष नहीं है अपनी पताका दोष कमों पर मढ़ना और उसमें अपना अपराध नहीं मानना इसे तो वैयायिक-वैशेषिकदर्शनका ही प्रभाव मानना चाहिये आत्मा परतन्त्र है, उसको पर काल्पनिक नहीं है पर उसका मूल कारण आत्माका अज्ञान मिथ्यादर्शन परिणाम हो है, कर्म माला पति रामचंद्रजी कहते हैं नहीं इस आशयको व्यक्त करते हुए चन्द्रप्रभु भगवान्को 1 कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई । अग्नि सहे घनघात लोहकी संगति पाई ॥ इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पण्डितवर बनारसीदास कहते हैं करम करें फल भोगवे जीव अज्ञानी कोष । यह कथनी व्यवहारकी वस्तुस्वरूप न होय || इसमें सन्देह नहीं कि जीवकी जब यह परतन्त्ररूप अवस्था होती है तब उसके मोहनीय आदि कर्मोंका न भी होता है। पर इस प्रकारके संयोग को देखकर यदि वह उसका कारण परको हो मानता रहता है और अन्य अपराधो हुआ उसका मूल कारण अपने अज्ञान की ओर दृष्टिपात नहीं करता तो संसार में ऐसा कोई उपाय नहीं है ओ उसे उसकी परवा बिलग कर दे व्रत धारण करो समितिका पालन करो, मौन रहो, वचन मत बोलो, किन्तु जब तक जीवन में अज्ञानका नाम है तब तक यह सब करनेसे बात्माको अणुमात्र भी लाभ होता नहीं है। यह सारको परिपाटी बढ़ानेवाला है यार्थ लाभ नहीं माना जा सकता। शादी सम्यष्टि जीवके ही उतादि मामें सफल हैं। यह लिखना और कहना कि 'इस जीवको कर्म ही परवश बनाये हुए हैं। उसके कारण यह पता हो रहा है ऐसा ही है जैसे कोई चोर चोरी करे और कहे कि इसमें मेरा क्या अपराध ? अशुभ कर्मोदयकी परवशताश मुझे चोरी करनेके लिए बाध्य होना पड़ता है।' अतएव प्रकृत में यही मानना उचित है कि इस जीव की परतन्त्रताका मूल कारण मात्मा का अज्ञानभाव ही हैं । दर्शन मोहनीयका उदय उदीरणा नहीं, वह तो निमित्तमात्र हैं । आगे भ्यवहारयका विषय कह कर क्रियारूप व्यवहार धर्मसे निश्चयस्वरूप शुद्धता की प्राप्ति अथवा हुए लिखा है कि 'व्यवहारथमंका निश्चयधर्मके साथ अविनाभावसम्बन्ध है। बिना धर्म त्रिकालमे न तो किसाने प्राप्त किया है और न कोई प्राप्त कर सकता है इसलिए वह मोक्षप्राप्ति में अनिवार्य परम साधक धर्म है।' आदि । मोक्षप्राप्त हारसमं प्रकृत में देखना यह है कि वह व्यवहारधमं क्या है और उसकी प्राप्ति केसे होती है । आगम में बतलाया है कि जब तक संसारी जीव मिथ्या'ष्ट रहता है तब तक उसके जितना भो व्यवहार होता है उसकी परिमणना मिथ्या व्यवहारमें होती है। ऐस मिश्या व्यवहारको लक्ष्य रहोसार लिखा है--- बद- नियमाणि घरंता सीलाणि सहा तवं व कुन्ता । परमवाहिरा जे સ ΕΤ विदति ।। १५३ ।। अर्थ-व्रत और नियमोंको धारण करते हुए भो तथा शील पालते हुए भी जो परमार्थसे ( परम ज्ञानस्वरूप आत्माके श्रद्धान से ) बाह्य हैं वे निर्वाणको नहीं प्राप्त होते ॥१५३॥ इसकी टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं ज्ञानमेव मोक्षहेतुः तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामतन्न तनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्म Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२.६ जयपुर (स्वानिया) तस्वचर्चा सद्भावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बन्धहेतुः सदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां यहि त नियमशीलत:पत्रसृतिशुभकर्माभावेऽपि मोक्षसद्भावात् । अर्थ-ज्ञान हो मोका हेतु है। क्योंकि ज्ञानके अभाव में स्वयं हो अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियोंके अन्तरंग में व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभकर्मोका सद्भाव होनेपर भी मोक्षका अभाव है तथा अआन हो बन्धका कारण है, क्योंकि उसके अभाव में स्वयं ही ज्ञानमय होनेवाले ज्ञानियों के बाह्य व्रत नियम, शील, प इत्यादि शुभ होनेपर भी मोलका सद्भाव है। इस गाथायें अज्ञानभावका निषेध है और ज्ञानभावका समर्थन किया गया है आदाय यह है कि यदि अज्ञानभाव के साथ व्रत, शील और तर हों तो भी वह ( अज्ञानभाव ) एकमात्र संसारका कारण है। तथा ज्ञानभाव के होनेपर भी कदाचित् व्रत, नियम, शील और तप न भी हों तो भी बह ( ज्ञानभाव ) मोका हेतु है । नियम यह है कि अधिक अपुग परावर्तनप्रमाण काल के शेष रहनेवर जीव काललम्पिके प्राप्त होनेपर आत्मन् पुरवार्यद्वारा उपकरण अपूर्व करण और अतिवृतिकरण परिणाम करके अज्ञानभावका अ करसम्पादनको प्राप्त होता है। अधिक-से-अधिक कितना काल रहनेपर संसारी जीव दर्शनको प्राप्त करता है इस तथ्यका यह सूचक धवन है। कम-से-कम संसारका अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहमेवर जीव सम्पदर्शनको प्राप्त करता है। ऐसी अन्य कालके मीतर-भीतर गुणस्थान परिपाटीसे अयोगिकेवली होकर मोक्षका पात्र होता है। सम्यग्दर्शनको प्राप्त करनेका मध्यका काल अनेक प्रकार है । उक्त उल्लेख में आया हुआ 'शाम' पद सम्यग्दर्शनका और 'अज्ञान' पद मिध्यादनका सूचक है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक इस जीवको सम्यदर्शनको प्राप्ति नहीं होती तब तक अन्य परिचय मोनाको दृष्टि है यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यादको धर्मका मूल बताते हुए I लिखा है- दंसण धम्मो सं सोऊण सकये बट्टो जिणवेरहिं सिस्साणं । दंसहीणो ण बंदिवी ॥२॥ सम्यग्दर्शन धर्मका मूल है ऐसा जिनदेवने शिष्योंको उपदेश दिया है। उसे अपने कानोंसे सुनने के बाद सम्यग्दर्शनशून्य पुरुष की वन्दना नहीं करनी चाहिये ||२| मोक्ष आत्माकी शुद्ध स्वतन्त्र पर्यायका दूसरा नाम है, इसलिए देव, मन, वाणी, द्रव्यकर्म, भावकर्म और स्त्री-पुत्रादिभि अपने आत्मस्वरूपका जबतक सम्यक भान नहीं होता तबतक धर्म क्या है इसका सम्यक निर्णय करना हो असम्भव है। सम्पददर्शन ही एक ऐसा अलौकिक प्रकाश है जो अनादि अज्ञानरूपी प्रगाढ़ अन्धकारका भेदन कर ज्ञानानन्द चिच्चमत्कारस्वरूप शुद्ध आत्मतत्वका दर्शन कराने में समर्थ होता है । ऐसे स्वरूप निश्वयहोने पर हो परवार देव गुरु और वास्के पापको तथा जीवादिनी पदाची प्रतीत होत है। देवगुरु और ओबादि नौ पदाचोंके सभ्य स्वरूपपर सम्यक् प्रकाश डालनेवाली सच्ची जिनवाणी है। वीतराग, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही यथार्थ देव है तथा मोक्षमार्ग में लीन परम तपोनिधि वीतराग गुरु ही गुरु हैं। विचारकर देखनेर मेरी आमाका स्वरूप इनके स्वरूपसे भिन्न नहीं है, क्योंकि द्रव्यदृष्टिसे अवलोकन करनेपर इनके स्वरूपसे मेरे स्वरूप में अणुमात्र भी अन्तर नहीं है। इस प्रकार अपने आत्माके स्वरूपको देव और गुरुके स्वरूपसे मिलाकर इसको भय और भीममें सहज उदासीन वृत्ति हो जाती है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२७ शंका १६ और उसका समाधान अभीतक यह संसारी जीव अपने अज्ञानवश अन्य भवरोगसे पीडित संसारी सरागी देवताओंकी श्रद्धा करता आ रहा था। प्राप्त सांसारिक साधनोंको पुण्यका फल मानकर उन्हीं में तन्मय हो रहा था। किन्तु उसे सम्यग्दर्शनको प्राप्ति होनेपर उसको पंचेन्द्रिय भोगां सहज उदासीन वृत्ति हो जाती है। ऐसा सम्यग्दृष्टि शुद्ध प्रात्मके प्रतिनिपिल कारपसरूप देव, गुरु और शास्त्रको उपासनाको ही अपना आवश्यक कर्तव्य मानता है। इसी आयायको ध्यानमें रखकर देशव्रतोद्योतन पृ० १६ में कहा है आत्मा ज्ञानानन्दस्वभावी है ऐसी दिन्यशमिकी जिसे प्रतीत हुई हो उसे जन तक पूर्ण दशा प्राप्त न हो तब तक जिनेन्द्रदेवकी पूजन करनी चाहिए। सम्यक्त्वी श्रावकको उनकी पूजा करनेके भाव आते हैं । मुनि भी भावपूजा करते है। श्रावक संघक बनकर पूक्षा करते हैं। जिसके अन्तरंगमें ज्ञानस्वभावका भान है वह कहता है-हे नाथ ! तेरे विरहमें अनन्त काल बीत गया। हे प्रभु ! अब कृपा करो और मेरे जन्म-मरणका अन्त कर दो। जन्म-मरणका अम्त अपने आत्मासे ही होता है, किन्तु अपूर्ण अवस्थामें भगवानकी पूजाका भाव होता है। स्वयंमस्तोत्रमें समन्तभद्र आचार्य अनेक प्रकारसे स्तुति करते हैं । जिसे आत्माका भान है उसे पूर्णदशा प्राप्त भगवान्की स्तुति करनेके भाव आते हैं-हे नाय! आपको पूर्ण आनन्द मिल गया। आपमें अल्पज्ञता और विकार नहीं रहे। अब करूणा कर, एसे नन्न वचन निकले विना नहीं रहते। आगे पृ० १७ में लिखा है-- जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान की भकि नहीं देखता तथा भकिपूर्वक उनकी पूजा, स्तुप्ति नहीं करता उस मनुष्यका जीवन निष्फल है। तथा उसके गृहस्थाश्चमको धिक्कार है। निग्रन्थ बनवामी मुनि भी कहते है कि उन्हें धिक्कार है। आगे गाथा १६.१ में कहा है कि भव्य जीवोंको प्रातःकाल उठकर श्री जिनेन्द्रदेव तथा गुरुके दर्शन करना चाहिये तथा भक्तिपूर्वक उनकी धन्दना स्तुति करनी चाहिये । तथा धर्मशास्त्र सुनना चाहिये । तत्पश्चात गृहकार्य करने चाहिये । गणधरादि महान् पुरुषोंने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थीम सर्व प्रथम धमका निरूपण किया तथा उसको मुख्य माना है। यह सम्यग्दृष्टिकी सच्चे देव, गरु, शास्त्रको प्रयाय भक्ति है। इसके साय सात व्यसनोंके सेवनमें उसकी त्याम भावना हो जाती है। वह शास्त्रों में प्रतिपादित आठ अंगोंका उक्त प्रकारसे पालन करते हा सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोषोंका त्याग कर देता है । इस प्रकार निश्चय सम्यग्दर्शनके माथ व्यवहार सम्यग्दर्शनका यथाविधि पालन करते हुए सहज आत्मचकी दतावा आत्मविद्धिकी उत्तरोत्तर वृद्धि होनेपर जैस हो अन्तरंग में अंशहपसे उसके बौसम परिगतिके जागृत होनके साथ अप्रत्याख्यानावरण कथामका अभाव हता है तब वह बाह्यमें अपनी शक्ति के अनुसार धानकके बारह प्रतोंको मनःपूर्वक पालन करने लगता है। इसके लिये यह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोंका सम्यक् विचारकर अपने मन्निकट जो सम्बन गुरु होते हैं उनके चरणोम उपस्थित हो अग्नी अन्तरंग विशुद्धिका प्रकाशन कार बुद्धिपूर्वक श्रावके अहिंसाणुव्रत आदि धारह व्रतोंको धारण करता है। परमानन्दस्वरूप निस्य एक शान-दर्शनस्वरूप शायकभावकै सिना अन्य सब पर है ऐसा भेदविज्ञान तो उसके सम्यग्दर्शनके काल में ही उत्पन्न हो गया था। अब उसके रागभावमें भी और न्यूनता आई है. अतएव वह संयोगको प्राप्त हए भोगोपभोगके साधनों का परिमाण तो करता ही है। साथ ही संकल्पपूर्वक त्रसहिंसा रान Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा का त्याग कर सत्यव्रत, अचौर्गाणुव्रत और ब्रह्म वर्याणुव्रत पूर्वक सात शीलोंको धारण करता है। ये बारह व्रत हैं। इनके साथ अविरल सम्यग्दृष्टि देव गुरु शास्त्रकी पूजा अर्चा, बन्दना, नमस्कृति आदिरूप जितना श्रावकका कर्तव्य है आत्मोन्मुख परिणसिके साथ वह सब व्यवहार धर्म देशविरत गृहस्थ के होता है । आत्मजागृति के साथ इसके शरीर, भोग और संहारके प्रति जो सहज उदासीन वृत्ति उदित होती है उसके परि णामस्वरूप यह विचार करता है कि कब से मेरे वा दिनकी सुधरी । तन विन वसन अशन थिन वनमें निवसों नासादृष्टि घरी । कब०, यह तो आगमसे ही स्पष्ट है कि श्रावकधर्म अपवादमार्ग है । उत्सर्गमार्ग तो मुनिधर्म ही है, इसलिए गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी आत्मजागृति के कारण उसमें उसकी सहज उदासीनता बनी रहती है और अन्त रंगमें कषायको मन्दताके साथ जैसे जैसे आत्मविशुद्धिकी वृद्धि होती जाती है वैसे वैसे उसका चित्त परम वीतराग मुद्राको चारणकर साक्षात् मोक्षमार्गपर आरूढ़ होनेके लिए उद्यत होता है । रंगों मुनिधर्म लोकोत्तर साधना है। जिसके चिप्स में भोगोपभोग के प्रति पूर्णरूपसे सहज उदासीनता उत्पन्न हो गई है, को पूर्ण आत्मजागृति के लिए बद्धपरिकर है, जिसने पूर्ण अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्यको पराकाष्ठा प्राप्त करनेका अन्तरंग में निर्णय कर लिया है ऐसा आत्मार्थी गृहस्थ जब स्वभावभाव के माश्रयसे अपने में पूर्ण वीतरागता प्राप्त करनेके लिए उद्यत होता है तब बाह्यमें वह बन्धुवर्ग, गुम्जन और सब द्दष्ट परिकरके समक्ष अपनी अन्तरंग भावना व्यक्त कर और उनसे विदा लेता हुआ कहता है— बन्धुवर्ग में प्रवर्तमान आत्माओ ! इस पुरुषका आत्मा किंचिन् मात्र भी तुम्हारा नहीं है ऐसा तुम निश्चयसे जानो । इसलिए मैं आप सबसे विदा लेता हूँ जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुईं हैं ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि बन्धुके पास जा रहा है। I अहो ! इस पुरुषके शरीर के जनकके आत्म! अहो ! इस पुरुषके शरीरकी जननी के आत्मा ! इस पुरुषका आत्मा आप दोनों द्वारा उत्पन्न नहीं है ऐसा आप दोनों निश्चयसे जानो । इसलिए आप दोनों इस आत्माको छोड़ो अर्थात् इस आत्मा में रहनेवाले रामका त्याग करो। जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आश्मा आज आत्मारूपी अपने अनादिजनक के पास जा रहा है। तू इस पुरुषके आध्माको रमण नहीं जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुईं है ऐसा अहो ! इस पुरुष के शरीरकी रमणी (स्त्री) के आत्मा करती ऐसा तू निश्चय से जान। इसलिये तू इस आत्माको छोड़ यह आत्मा आज अपनी स्वानुभूतिरूपी अनादि- रमणीके पास जा रहा I अहो इस पुरुष के शरीरके पुनका आत्मा ! तू इस पुरुषके आत्माका जन्य नहीं है ऐसा तू निश्चय से जान । इसलिये तू इस आत्माको छोड़ । जिसे ज्ञानज्योति प्रगट हुई है ऐसा यह आत्मा आज आत्मारूपी अपने अनादि जन्य के पास जा रहा है। इस प्रकार बढ़ोंसे स्त्रीसे और पुत्र से अपनेको छुड़ाता है । प्रवचनसार २०२ टीका पृ० २४९ इसके बाद ज्ञानाचार आदिको सम्यक् प्रकारसे आराधना करता हुआ वह गुणाढ्य, क्रोधादि दोषोंसे रहित, और बयोवृद्ध आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न गणी ( आचार्य ) को प्राप्त कर 'मुझे स्वीकार करो' Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७२९ ऐसा निवेदन कर प्रणत होता हुआ गणीके द्वारा अनुगृहीत होता है। तदनन्तर में दूसरोंका नहीं हूँ, दूसरे मेरे नहीं है, इस लोक में मेरा कुछ भी नहीं है ऐसा निश्चयवान् और जितेन्द्रिय होता हुआ यथा जात रूपघर होकर केशलुंच करता है। उस समय उसकी वृत्ति हिसादिसे रहित २८ मूलगुणयुक्त और शरीरके संस्कारसे रहित होती है। इस प्रकार यथाजात मुनिलिंगको स्वीकारकर जब वह नब दीक्षित स्वभावसन्मुख हो मात्मरमणताको प्राप्त होता है तब वह श्रावकधर्मके उत्कृष्ट विशुद्धिरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ सर्वप्रथम अप्रमत्त भावको प्राप्त होता है ।। धन्य है यह आत्मस्वरूएम स्थित परम बीतगग जिन मुद्रा ! जिन्होंने ऐसो जगत्पूज्य वीतरागस्वरूप साक्षात् जिनमृद्राको प्राप्तकर पूर्ण जिनत्व प्राड लिया। काई की : विशुशिन्होंने पूर्ण पात्मजागृतिका हेतुभूत परम पवित्र वीतरागस्वरूप जिनमुद्राका भी आलम्बन लिया वे भी धन्य है। इसके बाद ऐसा ज्ञानी वीतरागो साघु अति अल्प कालमें (अन्समुहूर्तमें) प्रमत्तसंयत होता है । इसका अन्तमहत काल है। किन्तु अप्रमत्तसंयतका काल इससे आधा है। प्रमत्तसंयत अवस्थामै इसके स्वाध्याय, धमों देश, आहारग्रहण, विहार आदि क्रियाएँ होती है। ऐसा नियम है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयम ये दो संयम होते है। वीतराग साधुके सदा काल अरि-मित्र, महल-स्मशान, कञ्चन-कौन तथा निन्दा करनेवाला-स्तुति करनेवाला इनमें सर्वकाल समभाव रहता है। पर्यायरूपसे काव और कञ्चनको बह अलग अलग जानता अवश्य है, परन्तु स्वभावदृष्टिको प्रधानला होनेसे बह दोनोंको पुद्गल समझकर एकको श्रेष्ठ और दूसरेको सुच्छभावसे नहीं देखता । जगतके सब पदार्थोंको देखने को उसकी यही दृष्टि रहती है। शरीर और पर्यायसम्बन्धो मूर्छा तो उसकी छूट हो गई है, इसलिये उसका शरीर संस्कारको ओर माणुमात्र भी ध्यान नहीं जाता। संचलन कषायके सद्भाव में आहार, पीछी, कमण्डलु और स्वाध्यायोपयोगी १-२ शास्त्र मात्रके ग्रहणके भावका विरोध नहीं है, इसलिये एषणा और प्रतिष्ठापन समिति के अनुसार ही वह इनमें प्रवृत्ति करता है। श्रावकोंको ययाविधि श्रावकधर्मका उपदेश देते हुए भी थावक्रोचित किसी भी क्रियाके करनेकी न तो वह प्रेरणा करता है और न उसमें किसी प्रकारकी रुचि दिखलाता है। मोक्षमार्गमें पूज्यता चारित्रके आधार पर है। मुख्यतया पञ्च परमेष्ठी ही पूज्य है। चारित्रधारोकी विनय पदके अनुसार यथायोग्य उचित है, भले ही वह 'देशाती तिर्यञ्च ही हो।' पर चारित्रसे रहित देव मी वन्दनाय नहीं है, अतएव साधु देशभेद, समाजभेद और पन्थभेदसे सम्बन्ध रखनेवाली रूढिजन्य क्रियाओंको अपेक्षा किये बिना वीतरागभावकी अभिवृद्धिरूप 'स्वयं प्रवृत्ति करता है और तदनुरूप ही उपदेश करता है। प्ह निश्चय मोक्षमार्गपूर्वक व्यवहार मोक्षमार्ग है। चरणानुयोगके अन्यों में इसोका प्रतिपादन किया गया है । पण्डितप्रवर दौलतरामजोने छहतालाको ६वीं ढालमे मुख्योपचार विभेद यों बडभागि रत्नत्रय धरें । इस वचन द्वारा जिस दो प्रकारके रत्नत्रयका सूचन किया है उसमें से मुख्य रत्नत्रय ही निश्चयधर्म है, क्योंकि वह स्वभावके आश्रयसे उत्पन्न हुई आत्माको स्वभावपर्याय है खथा उपचाररत्नत्रय ही व्यवहारधर्म है, क्योंकि निश्चयधर्म के साथ गुणस्थान परिपाटीके ९२ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० जयपुर (खानिया ) तत्वचर्च अनुसार जो देष, शास्त्र, गुरु, अहिंसादि अणुव्रत और महावत आदिरूप शुभ विकल्प होता है जो कि रागपर्याय है उसको यहाँ व्यवहारधर्म कहा गया है। परमात्मप्रकाशमें कहा है __ देवहं सत्यहं मुणिवरह भत्तिए पुण्णु हवेइ । कम्मखत पुणु होइणवि अज्जउ संति भणे ॥६॥ देव, शास्त्र और गुरुको भक्तिसं पुण्य होता है। परन्तु इससे कर्मक्षय नहीं होता है ऐसा शान्ति जिन कहते है ॥६॥ नयचक्रमें भी कहा है देवगुरुसस्थभत्तो गुणोषयारकिरिबाहि संजुसी । पूजादाणाहरदो उपजोगो सो सुही तस्स ॥३११॥ अर्थ-~ो आरमाका उपयोग देव, गुरु, शास्त्रको भक्ति तथा गृण-उपचार क्रियासे युक्त और पूजा-दान आदिमें लोन है वह शुभ उपयोग है ॥३११।। इससे स्पष्ट है कि आगममें व्यवहारधर्म से जीवकी आशिक विशद्धि के साथ होनंबाला रागांश ही लिया गया है । अतएव जन्म रागांशकी दृष्टि से विचार करते है तो पही प्रतीत होता है कि वह एकमात्र बन्धमार्ग ही है । जहाँ कहीं आगममें उसे निर्जराका हेतु लिखा भी है तो वह केवल उसके साथ होनेवाले बात्माके निश्चय रत्नत्रयस्वरूप शुद्ध परिणामका रागांशमै उपचार करके ही लिखा है। अतएव नागमके 'व्यवहारधर्म मोक्षका हेतु है ऐसे वचनको पढ़कर उसका कथन मात्र उपचारसे जानना चाहिये, परमार्थसे नहीं । आगममें व्यवहार-निश्चयकी मुख्यतासे अनेक प्रकारके वचन उपलब्ध होते हैं सो शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ इनको समझकर ही वहाँ व्याख्यान करना चाहिये । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावाथों व्याख्यानकाळे यथासम्भवं सर्वग्न ज्ञातव्य इति । -परमात्मप्रकाश १,२ पृ.८ अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावाचं व्याख्यानकाले सर्वत्र योजनीयं ।। -पजास्तिकाय गाथा १ जथनीय टीका पूष्ट । कई स्थानोपर प्रतिशंका २ में मिली हुई शुद्धाशुद्ध पर्यायको शुभ कहा गया है। इससे स्पष्ट विदित होता है कि यह प्रतिशंकामें स्वीकार कर लिया गया है कि जितना रागांश है वह मात्र बन्धका कारण है, पर उसे निर्जराका हे सिद्ध करना इष्ट है, इसलिये पूरे परिणामको शुभ कहकर ऐसा अर्थ फलित करने की चेष्टा को गई है सो यह कयनकी चतुराई मात्र हो है। यस गुणस्थानमें रागभाव है वह आगमसे ही स्पष्ट है और वह बन्धका ही कारण है, परन्तु सातवें गुणस्थानसे लेकर ऐसा रागांश अबुद्धिपूर्वक होता है, इसलिये वहाँ शुद्धोपयोगकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं आती। प्रतिशंकामें एक मत यह प्रगट किया गया है कि यदि व्यवहारधर्मको निश्चयधर्मका सापक महीं माना जाता है तो श्रावक-मुनिकी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं। सो मेरी नम्र सम्मतिमें ऐसा भय करनेका कोई कारण नहीं है, क्योंकि जब वह आत्मा शुद्धीपयोगझे च्युत होकर शुभोपयोगमें आता है तब उसके उस Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान पदके अनुरूप बाह्य क्रियाएँ भी होती है। इतना अवश्य है कि थान्नको गुणस्थानके अनुरूप शुद्ध परिणतिके साथ शुभोपयोगको मुरूपता होलो है और साधुके शुद्धोपयोगको मुख्यता और शुभोपयोगकी गौणता होती है। शुभोपयोग या बाह्य क्रियाएँ तभो जात्मधर्ममें बाधक है जब यह जीव इनसे निश्चयधर्म की प्राप्ति मानता है, किन्तु आगमका अभिप्राय यह है कि मोक्षमागमें राषिक आत्मा सदाकाल स्वभावका ही माश्रय लेनेका उद्यम करता है। परन्तु उपयोग की अस्थिरता के कारण उसके आत्मान भूतिस्वरूप ध्यानसे च्युत होनेपर सस समय उसको सहज प्रवृत्ति शुभोपयोग होती है और शुभोपयोगके साथ बाह्य क्रियाएं भी होती है । शुभो. फ्योग संसारका कारण है और शद्धोपयोग मोक्षका कारण है यह इससे स्पष्ट है कि शभोपयोगके होनेपर कर्मबन्धकी स्थिति-अन भागमें वृद्धि हो जाती है और द्धोपयोग होनेपर उसकी स्थिति-अनुभागमें हानि हो जाती है। श्री समयसारजो में जो खबहारको प्रतिषिद्ध और निश्चयको प्रतिषेधक कहा है वह इसी अभिप्रायसे कहा है। गया एवं ववहारणी पडिसिद्धो जाण णिच्छयणपुण । णिच्छयण यासिदा पुण मुणिणो पाति णिच्वाणं ॥२२॥ अर्थ-इस प्रकार व्यवहारनय निश्चयके द्वारा निषिद्ध जानो। परतू निश्चयनयका आश्रय लेने वाले मुनि निर्वाणको प्राप्त होते है ।।२७२।। अतएव जो मोबमार्गपर आरूढ़ होना चाहता है उसे मुख्यतासे स्वभावका आश्रय लेने का ही उपदेश होना चाहिए, क्योंकि वह आत्माका कभी भी न छूटनेवाला स्वभावधर्म है तथा आत्मा में जो विशुद्धि उत्पन्न होती है वह स्वभावके आश्रय लेनेसे ही होती है, व्यवहारका आथव लेनेसे नहीं। प्रत्युत स्थिति यह है कि ज्यों ही साधक आत्मा स्त्रभावके स्थानमें शुभ और तदनुरूप क्रियाओंको निश्चयसे उपादेय मानकर उससे मोक्षप्राप्ति होती है ऐसो श्रद्धा करता है त्यों हो वह सम्यक्त्वरूपो रत्नपर्वतमे चुत हो जाता है । व्यवहार धर्म गुणस्थान परिपाटीसे होकर भी उत्तरोत्तर गुणस्थानोंमे छूटता जाता है और स्वभावके जाश्रयसे उत्पन्न हुई विशुद्धि उसरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होतो हुई अन्त में पूर्णताको प्राप्त हो जाती है, इसलिये जो छूटने योग्य है उसका मुख्यतासे उपदेश देना न्याय्य न होकर स्वभावका आश्रय लेकर मुख्यतासे उपदेश देना ही जिनमार्ग है ऐसा यहाँ समझना चाहिये। प्रतिशंका २ में अनेकान्तकी पुष्टिके प्रसंगले 'निरपेक्षाः नया मिथ्या यह वचन उद्धृत किया गया है पर यह बदन वस्तुमिद्धिके प्रसंगमें आया है और प्रकृतमें माममार्गको सिदि की जा रही है। अतएव प्रकृति में उसका उपयोग करना इष्ट नहीं है, यहाँ गुण-पर्यायात्मक वस्तुका निषेध नहीं किया जा रहा है। यहाँ तो यह बतलाना मात्र प्रयोजन है कि अपनी दृष्टि में किसे मुख्यकर यह संसारी जीव मोझमार्गका अधिकारी बन सकता है। अतएव यह उपदेश दिया जाता है कि पर्याय बुद्धि तो तू अनादि कालसे बनाए चला आ रहा है। एक बार पुण्य-पापके, निमित्त के और गुण-पर्यायके विकल्पको छोड़कर स्वभावका आश्रय लेनेका प्रयत्न तो कर । अब विचार करके देखो कि ऐस उपदेशम एकान्त कहाँमा। क्या इसमें पुण्य-पापके सद्भावको या गण-पर्याय सदभावको अस्वीकार किया गया है.या उनका विकल्प दूर कराने का प्रयत्न है। इसी कारण आचार्य कुन्दकुन्द समयसारमै विद्वानोंको शिक्षा देते हुए कहते हैं मोत्तण जिच्छयद ववहारेण पिसा पवति । परमदमस्सिदाण दुजदीण कम्मक्खओ विहिओ ॥१५६॥ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ जयपुर ( स्वानिया) तस्वचर्चा अर्थ-विद्वान् लोग निश्चयनयके विषयको छोड़कर व्यवहारके द्वारा प्रवृत्ति करते हैं, परन्तु परमार्थका आश्रय करनेवाले मनियोंके हो कर्मों का क्षय आगममें कहा गया है । अतएव उक्त प्रकारके भयको छोड़कर सम्यकत्वरत्न की प्राप्तिके अभिप्रायसे श्री समयसारजी आदि परमागमका मानव लेकर जो उपदेश दिया जाता है उसका विपर्यास न करके आशयको समझानेका विद्वद्वर्ग उपक्रम करेंगा ऐसा विश्वास है। प्रतिशंका २ में वर्तमानको ध्यानमें रखकर और भी अनेक अप्रासंगिक अभिप्राय श्यत्रत किये गये हैं जो केवल भ्रमपर आधारित है, सो इस सम्बन्धमें इतना ही निवेदन करना पर्याप्त है कि एक साधर्मी भाईका गलत धारणाके आधारपर ऐसे भ्रमपूर्ण विचार बनाना यह मोक्षमार्ग तो है ही नहीं, पुण्यार्जनका भी मार्ग नहीं है। यपि प्रतिशंकारूपसे यह लेख विशिष्ट अभिप्रायसे लिन्ना गया है तथापि उसके स्थान में जिनागमके अनुसार निश्चय-व्यवहार मोक्षमार्गको पद्धति क्या है मात्र इतना विचारकर इस लेखद्वारा समाधान करनेका प्रयत्न किया गया है। यह सुनिश्चित सत्य है कि जो जीवन में व्यवहारको गौण कर निश्चयसे शुद्ध स्वरूप स्वभावका आश्रय लेगा उसोको भेदाभेदरूप व्यवहार-निश्चय रत्नत्रयको प्राप्ति होगी और वही अन्त में मोक्षका भागो होगा । इसीलिये स्वभावका आश्रय लेना उपाय है ऐसा यहां निवर्षरूपमें समझना चाहिये। इसो भावको व्यक्त करते हुए भगवान् कुन्दकुन्द समयप्राभूतमें कहते है सुद्धं तु बियाणंतो सुद्ध चैवणयं लहइ जीयो । जाणंसो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं सहह ।।१८।। अर्थ-शुद्ध आत्माका अनुभव करता हा जीव शद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्माको अनुभव करता हुआ जोव अशुद्ध आत्माको ही प्राप्त करता है ।।१८६।। तृतीय दौर शंका १६ निश्चय और व्यवहारनय का स्वरूप क्या है ? न्यवहारनयका विषय असत्य है क्या? असत्य है तो अभावात्मक है या मिथ्यारूप है ? प्रतिशंका ३ इस प्रश्नमें निम्न विषय चर्चनीय है(क) निश्चयनयका स्वरूप क्या है ? Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७३३ (ख) व्यवहारनयका स्वरूप क्या है ? (ग) व्यवहारमयका विषय असत्य है क्या ? (घ) व्यवहारनयका विषय यदि असत्य है तो अमावारमक है या मिथ्यारूप है। सापके प्रथम व द्वितीय उत्तरमें (ग) व (घ) खण्डक विषयमें तो कुछ भी नहीं लिखा गया। निश्चय नय व व्यवहारनयका स्वरूप भी स्पष्ट नहीं लिखा। अप्रासंगिक बातोंको तथा जिसमें आर्षग्रन्थविरुद्ध भी कथन है ऐसो पुस्तक वाक्योंको लिखकर व्यर्थ कलेवर बढ़ा दिया गया है। यदि ऐसा न किया जाता तो सुन्दर होता। 'प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है' पद दो शब्दोंसे बना है-(१) अनेक (२) अन्त । 'अनेक' का अर्थ है 'एकसे अधिक' और 'अन्त' का अर्थ 'नर्म' है। इस प्रकार 'अनेकान्तात्मक वस्तु' का अर्थ अनेक धर्मबाली वस्तु' यह हो जाता है। परन्तु वे अनेक धर्म अर्थात् दो धर्म परस्पर विरुद्ध होने चाहिये। श्री अमृतचन्द्र अाचार्यने समयसार स्यावादाधिकारमें कहा है परस्परविरुद्धशक्तिद्वयनकाशनमनेकान्तः । परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशन अनेकान्त है। यह अनेकान्त परमागमका प्राण है तथा सिद्धान्तपद्धतिका जीवन है । इसी बातको श्री अमृतचन्द्राचार्य स्पष्ट करते हैं परमागमस्य जीवं निषिबजास्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयबिलासिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।। —पुरु० सि. अर्थ-जन्मान्य पुरुषों के हस्तिविधान को दूर करनेवाले, समस्त नयोंसे प्रकाशित विरोधको मथन करने वाले और परमागमके जोबनभून अनेकान्तको नमस्कार करता हूँ। दुर्निवारनयानीकविरोधध्वंसनौषधिः। स्यात्कारजीविता जीयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धत्तिः ।।२।। -चास्तिकाय टीका मंगलाचरण अर्थ-स्यात्कार जिसका जीवन है ऐसी जिनभगवानको सिद्धान्तपति, जो कि दुनिवार नयके समूहके विरोधका नाश करनेवाली है. जयवन्त हो । एक वस्तूमें विवाभेदसे दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते है. अत: उन दोनों घी मेंसे प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करनेवाला पृथक्-पृथक् एक-एक नय है, जिनका विषय परस्पर विरुद्ध है । कहा भी है प्लोयाणं ववहारे धम्म-विवक्खाइ जो पसाहेदि। सुयणाणस्स वियप्पो सो वि णो लिंगसंभूदी ॥२६॥ -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा अर्थ-जो वस्तुके एक धर्मको मुख्यतासे लोक व्यवहारको साघता है वह नय है। नय शुतज्ञानका भेद है तथा लिंगसे उत्पन्न होता है । णाणाधम्मजुदं पि य एवं धम्मं पि बुथ्वदे भस्थं । तस्सेय विवक्खादो णधि विवक्खा ह सेलाणं ॥२६॥ --स्वामी कार्तिकेय Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ जयपुर ( स्वानिया) तस्वचर्चा अर्थ-यद्यपि पदार्थ नाना धमोसे युक्त है तथापि नय एक धर्म को कहता है, क्योंकि उस समय उस धर्म को विवक्षा है, शेष धौ की विवक्षा नहीं है। अथवा नयका लमण विकलादेश है। कोई भी एक नय वस्तुके पूर्ण स्वरूपको नहीं कह सकता । न तो एकधर्ममुजेन वस्तुका कथन करता है। अत वस्तुःस्वरूप उतना ही नहीं है जितना कि निश्चयन या चन्द र कान मसा। वस्तस्वरूप तो दोनों नयाँके कपन मिलानपर पूर्ण होता है। प्रतिपक्षी दो धर्मों को विवक्षा भेदसे ग्रहण करनेवाले दो मल नय हैं जिनको द्रश्याबिक और पर्यायार्षिक नय कहते है। पंचास्नकायको गाथा चारको टोकामें श्री अमृतचन्द्रसूरिने भी लिखा है'भगवानने दो नए कहे है-व्यायिक और पर्यायाथिक । भगवानका उपदेश एक नय अधीन नहीं है, किन्तु दोनों नयोंके अधीन होता है। न्याथिकनय निश्चयनय है और पर्यायाधिकनय व्यवहारमय है, क्योंकि समयसार गाथा ५६ को टोकामें 'व्याधित निश्चयतय और पर्यायाधित व्यवहारलय' कहा है। दोनों नयोंका विषय परस्पर प्रतिपक्षी है इस बातको श्री कुंदकुंद भगवान भी समयसारमें कहते है जीवे कम्मं बद्धं पुढें चेदि चवहारणयमणिदं।। सुखणयस्स दु जीवे अबजुपुटुं हवह मं ।।१४१॥ अर्थ-जीवमें कर्म बद्ध है तथा स्पर्शता है ऐसा व्यवहारनयका वमन है। जीवमें कर्म न बघता है और न स्पर्शता है ऐसा निश्चयनयका वचन है। इसी बातको श्री अमृतवन्द्र सुरि कलश ७. से ८९ तक २० कलशों द्वारा दो परस्पर प्रतिपक्ष धर्मों को कहकर यह कहते हैं कि एक नयका विषय एक धर्म है और दूसरे नमका विषय दूसरा धर्म है। उन कलशोंमें कथन किये गये प्रतिपक्ष धर्म इस प्रकार है-(१) बद्ध-अबद्ध (२) मूल-अमूढ (३) रागीअरागी (४) वेषी-अद्वेषो (५) 'कर्ता अकर्ता (६) मोक्ता-प्रभोक्ता (७) जोव-मोव नहीं (4) सूक्ष्म-सूक्ष्म नहीं () हेतु-हेतु नहीं (१०) कार्य-कार्य नहीं (११) भाव-प्रभाव (१२) एक-अनेक (१३) शान्त-अशान्त (१४) नित्य-अनित्य (१५) वाच्य-अदाच्य (१६) नाना-अनाना (१७) चेत्य-अत्म (१८) दृश्य-अदृश्य (१६) वेद्यमवेद्य (२०) भात-भात । अर्थात् 'जीन बद्ध है' यह व्यवहार नय (पर्यायाथिक नय) का पक्ष है। 'जीव अवश है' यह निश्चय नयका पक्ष है । इसी प्रकार अन्य विकल्पोंके विषयमें भी जानना चाहिये । जन दोनों नयोंमेंसे प्रत्येक नयका विषय, वस्तुके दोनों परस्सर प्रतिपक्ष धर्मोमेंसे, एक-एक धर्म है तो उन दोनों नयों में किसो एक नयको यथार्थ और दूसरेको अयथार्य कहना कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि जो नम परपक्षका निराकरण नहीं करते हा ही अपने पक्षके अस्तित्वका निश्चय करने में व्यापार करते है उनमें समोचीनता पाई जाती है। कहा भी है णिययवाणिज्जसरचा सन्नणया परवियालणे मोहा । ते उण पा दिवसमओ विभयह सच्चे व अलिए वा ।।१।२२८॥ --सन्मतितर्क अर्थ-ये सभी नय अपने-अपने विषयके कथन करने में समीचीन है और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ है। अनेकान्तरूप समयके ज्ञाता पुरुष ( सम्यग्दृष्टि ) यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है इस प्रकारका विभाग नहीं करते। अधोत-दोनों नयोंके विषय दोनों धर्म एक वस्तुके होनेसे दोनों हो नम अपनी-अपनी विवक्षावे सत्य हैं। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७३५ अनेकरूप समय जाता अर्थात् सम्यग्दृष्टि नयोंके विषयोंको जानते तो है, किन्तु किसी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते । श्री कुन्दकुन्द भगवान्ने समयसार में कहा भी है I दोष्ण वि याण भणियं जाणइ णवरि तु समयपछि । यदि किचि वि णयपक्लपरिहीणी ॥ १४३ ॥ अर्थ-जो पुरुष मात्मासे प्रतिबद्ध है अर्थात् आत्माको जानता है वह दोनों ही नयोंके कथनको केवल जानता है परन्तु नयपक्षको कुछ भी ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह नयोंके पक्षसे रहित है । अर्थात् किसी एक नमका पक्ष ( आग्रह ) नहीं करना चाहिये । इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि यदि कोई निश्चयनय एकान्तका पक्ष ग्रहण करके व्यवहार नयको सर्व झूठ कहता है तो वह आगमविरुद्ध है। श्री वीरसेन स्वामी जयधवल पु० १५०८ में निम्न प्रकार कहते हैं वारणओ चपभो, तप्तो (ववहाराणुसारि) सिस्साण पटतिसाद | जो बहुजीषाणुमहकारी बहारणओ सो वेव समस्सिदन्यो ति भणावहारिय गोदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । अर्थ - यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहारका अनुसरण करनेवाले शिष्योंकी प्रवृत्ति देखो जाती है। अतः जो व्यवहार नय बहुत जीवोंका अनुग्रह करनेवाला है उसीका आश्रय करना बाहिये ऐसा मनमे निश्चय करके श्री गौतम स्थविरने चौबीस अनुयोगद्वारोंके आदिमें मंगल किया है । व्यवहार से वस्तुस्वरूपका ज्ञान होता है, अतएव वह व्यवहारनय पूज्य है। इसी बातको श्री पद्मनन्दि आचार्य कहते हैं मुख्योपचारविवृर्ति व्यवहारोपायतो यतः सन्तः । ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तस्यमिति व्यवहृतिः पूज्या ||११|| पथन न्दिपंचविंशवि अर्थ - चूँकि सज्जन मनुष्य व्यवहारनसके आलयरी ही मुख्य ओर उपचारभूत कथनको जानकर शुद्ध स्वरूपका आश्रय लेते हैं, अतएव वह व्यवहार पूज्य है । Saranrarer विषय पर्याय है। पर्यायोंका समूह द्ररूप हैं अथवा गुण और पर्यायवाला द्रव्य है 'गुणपर्ययवत् द्रव्यम् ' ( स० सू० अ० ५ सूत्र ३८ ) इससे स्पष्ट है कि जिस समय तक पर्यायका भी यथार्थ श्रद्धान नहीं होगा उस समय तक द्रव्यका भी यथार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है। द्रव्यके आगम अनुकूल श्रद्धान करनेसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है और सम्यग्दर्शन विनय होती है । जे अत्थपज्जया खलु ते वह रोचेदि परो दिदा जिणवरेहिं सुदणाणे । इंसणविणओ हवदि एसी ॥१८२॥ - मूलाचार अ० ५ अर्थ - जो अर्थपर्याय जिनवरने आगम में कहीं हैं उनको उसी प्रकारसे रुचि करनेवाले पुरुषके दर्शन-विनय होती है । अर्थात् ( व्यवहारनयक विषयभूत) उन पर्यायों के यथार्थ स्वरूपपर भव्य जोन जिस परिणामसे बडा करता है उस परिणामको दर्शनविनय ( सम्यग्दर्शन ) कहते हैं । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ जयपुर ( स्वानिया ) तत्त्वचर्चा जगन्नवहानमा जित नि आप्रयसे मोक्ष चाहते है वे मूढ़ है, क्योंकि बीज बिना वृक्षफल भोगना चाहते है अथवा आलसी है। व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीपति । बीजाविना बिना मुबः स सस्यानि सिमक्षति ।। -प्राचीन श्लोक सारांश-जो व्यवहारसे रहित होता हुआ निश्चयको उत्पन्न करनेकी इच्छा करता है वह मढं है, जसे जो बीज आदि क्षेत्र, खेत, जल आदि के बिना धान्य या वृक्ष आदिके फल उत्पन्न करना चाहता है वह मढ़ है। निश्चयमयुष्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संधयते । नाशयति करण-चरणं स बहिःकरणालसो बालः ॥५०॥ -पुरुषार्थसिञ्चधुपाय अर्थ-जो निश्चय ( व्यवहारसापेक्ष निश्चय ) को तो जानता नहीं और ( एकान्त ) निश्चयको ग्रहण करता है वह बाल है अर्थात् मूढ़ है। बाह्य चरण-करणमें आलसी होकर करण-चरणको नाश करता है। जिस प्रकार निश्चयनयको अपेक्षा व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा है उसी प्रकार व्यवहारनयको अपेक्षा निश्चयनयको अभूतार्थ कहा है। दम्पट्रियषत्तव्य अवस्थु णियमेण पज्जवणयस्स । तह पज्जववत्थु अचरथुमेन दरवटियणयरस ।।१०।। -सन्मतिसर्क अर्थ-पर्यायाथिक (व्यवहार) नयको अपेक्षा द्रष्याथिक (निश्चय) नयके द्वारा कहा जानेवाला विषय अवस्तु है, उसी प्रकार द्रव्याथिक (निश्चय) नयको अपेक्षा पर्यायाथिक (व्यवहार) नयके द्वारा कहा जानेवाला विषय अवस्तु है। कुछका ऐसा विश्वास है कि मात्र निश्चयनय हो आत्मानुभूतिका कारण है, उनका ऐसा बिधार उचित नहीं है, क्योंकि व्यवहारनिरपेक्ष निश्चयनय एकान्त मिथ्याश्य है । अयन्दा निश्चयनयका पक्ष भी तो एक विकल्प है और विकल्प अवस्थामै स्वानुभति नहीं हो सकती । इसी बातको श्री पं० फूलजन्द्रजीन स्वयं इन शब्दों में स्वीकार किया है यद्यपि निश्चयनय इन्य है, गुण है इत्यादि विकल्पोका निषेध करता है. इसलिये उसे परमार्थ सद बतलाया है, किन्तु स्वानुभूतिमें 'न तथा' यह विकल्प भी नहीं होता । असा निश्चयनय आस्मानुभूतिका कारण नहीं है ऐसा समझना चाहिये । ----पंचाध्यायी पृ० १२७ विशेषार्थ (वर्णी प्रन्थमालासे प्रकाशित) इससे यह सिद्ध हो जाता है कि भार निश्चयनयके आश्रयसे भी मोक्षप्राप्ति नहीं हो सकसी । निश्चयनय और व्यवहारनयका विषय परस्पर प्रतिपक्ष सहित है, अतः इनका लक्षण भी एक दुसरेके बिरुद्ध होना चाहिए। इसीको दृष्टिमें रखते हुए इनके लक्षण आर्षग्नन्थों में इसी प्रकार कहे गये है। श्री देवसेन आचार्य लिखते है Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ৬३७ पुनरप्यध्यात्ममायया नया उच्यन्ते तावन्मूलनयो हो निश्चयो व्यवहारश्च तत्र निश्चयनयोभेदपि व्यवहारो भेदविषयः श्रापद्धति अर्थ — अध्यात्मभाषाकी अपेक्षा नय कहते है। मूलनय दो हैनिश्वयनय और व्यवहारनय | उनमे अभेदविषयाला निश्चयतय है और भेद विश्वाला हार है। , १ व्यवहार विकल्प भेव पर्याय श्री नेमण्द्र सिद्धान्त इनका एक हो अर्थ है अर्थात् वे पर्यायवाचक शब्द है। इसी बातको भी पाया ४९२ में कहा है ० जवहारो व विमप्यो भेदो तह पजओ ति एयो । अर्थात् - व्यवहार, विकल्प, भेद तथा पर्याय इन शब्दोंका एक अर्थ हुँ । इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ पर विकल्प भेद तथा पर्याय विवक्षा कथन हो यह सब व्यवहारनय कथन है । इसके विपरीत जहाँ निविकल्प अभेद तथा अन्य विवक्षासे कथन हो वह निश्चयनका कथन है । श्री समयसार प्रत्थमें भी व्यवहारनपको भेदाधित पर्यायाति तथा पराश्रित कहा है और निश्चयनयको अभेदाचित स्वाधित और स्वाधित कहा है चहारेणुवदिस्वद्द णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । ण वि जाणं चरितं ण दंसणं वाणगो सुद्धो ॥ ७ ॥ अर्थ - ज्ञानी के चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तोन भाग व्यवहारनय द्वारा कहे जाते हैं। नियमनयसे ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, दर्शन भी नहीं शानो तो एक शायक है। यद्यपि ज्ञान दर्शन, चारित्रको भेदविवक्षा के कारण व्यवहारनयके द्वारा जीवके कहे हैं तथापि ये सत्यार्थ है वास्तविक है । 'व्यवहारनयः पर्यायाश्रितरखात्' 'निश्चयन वस्तु द्रव्याश्रितत्वात् ।' - समयसार गाथा ५६ टीका अर्थात् व्यवहारनव पर्यायाश्रित और निश्वयवाति है। atest शुद्ध तथा अशुद्ध दशा वास्तविक है, सत्य है तथापि जीवके नयका विषय कहा गया है। नियथा विषय वैकालिक द्रश्यस्वभाव है और पर्याय अवस्तु है । आमाथितो विश्वचनयः पराश्रितो व्यवहारयः । होनेके कारण वहारइस दृष्टिमें कायाकि -समयसार गा० २७२ को टीका अर्थ-विस्वके आश्रित है और व्यवहारय परके आश्रित है। यद्यपि ज्ञेय-ज्ञायकसम्बन्ध, आधार माधेयसम्बन्ध निमित्तनैमित्तिकसम्बन्ध, प्रकाश्य प्रकाशक आदि सम्बन्धपराश्रित होने से व्यवहारका विषय बन्ध प्रत्यक्ष तथा वास्तविक है। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि निश्वय व व्यवहारनयके लक्षणोंपर प्रकाश डाला गया और यह भी सिद्ध कर दिया गया है कि व्यवहारनय सत्य है । यहाँतक मूल प्रश्न समाप्त हो गया । आपके मात्र पुनः पुनः इस बातपर जोर दिया गया कि अमुक कथन मात्र व्यवहारवसे ९३ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया) सश्वचर्चा है, निश्चयनयसे नहीं है। व्यवहारनयके पूर्व 'मात्र' शब्द लगाया गया है और कहीं कहींपर व्यवहारनयके आगे कोष्टक में 'उपचरित' शब्द भी दिया गया है। इस सर्वले यही प्रगट किया जाता है कि एकमात्र निश्चयमय ही सर्वथा तथा एकान्त सत्य है, प्रामाणिक एवं मान्य है। तथा व्यवहारमय सर्वथा असत्य, अप्रामाणिक और अमान्म है। यह निर्विवाद सिद्धान्त है कि ऐसी मान्यता ही निश्चय एकान्तरूप मिथ्यात्व अथवा निश्चयाभास है। व्यवहारसे निरपेक्ष निश्चयनय मिथ्या है। पर सापेक्ष नय सुनम है। भगवान का उपदेश ही दो नयके आधीन है। यदि मत्रहारनयका कथन असत्य है तो यह प्रश्न होता है कि क्या सवंजने व्यवहार सम्यक्त्व व व्यवहारमोक्षमार्गका असत्य उपदेश देकर जीनोंका अकल्याण करना चाहा है। प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-नोव्यमयी है। निश्चयकी अपेक्षा द्रव्य ध्रव ही है। उत्पाद-व्ययस्वरूप नहीं है। व्यवहारको अपेक्षा उत्पाद-व्यमस्वरूपाही है, घव नहीं है । यदि निश्चयनर ही सत्य व प्रामाणिक है और व्यवहारनय असत्य ब अप्रामाणिक है, तो मात्र प्र.वही सत्यम प्रामाणिक रह जायगा और उत्पादव्यय असत्य ब अप्रामाणिक हो जायेंगे । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि धबता अप्रणाशी और कूटस्प है जिसके कारण दृष्य भा अप्रणाशी व कूदस्य हो जायगा । कूटस्थ हो जानेसे द्रव्य अर्थक्रियाकारी नहीं रहेगा । इसलिये बह खरविषाणवत असत हो जायगा। निश्चयनयके एकान्तसे द्रव्यको सत्ता ही सिद्ध नहीं होती है, पोंकि सतका लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रुव कहा गया है। जैन आगम में व्यस्वभाव परिणामी बतलाया गया है। उत्पाद के बिना परिणमन नहीं हो सकता है। इस प्रकार जैन आगममें ध्रुवताके समान उत्पाद-पयको भी सत्य माना है, अन्यथा सोरुपमतका प्रसंग आजायेगा । अतः मात्र निश्चयनयके कथन को ही सत्य व प्रामाणिक स्वीकार करना और व्यवहारनवके कथनको 'मात्र व्यवहारसे' या 'उपचरितसे' आदि शब्द कहकर स्वीकार न करता जैन आगमके विरुद्ध है। अन्य मतावलम्बियोंका कथन भी किसो-न-किसो एक नयकी अपेक्षा सत्य होनेपर भी प्रतिपक्षी नयसे निरपेक्ष तथा सर्वथा वैसा ही माना जानेसे मिण्या है। श्री अमृतचन्द्र आचार्यने समयसार गाथा ५६ की टोकामें निश्चयनयको द्रष्याश्रित और व्यवहारमयको पर्यायाश्रित कहा है। बन्ध व मोम पर्याय हैं। निश्चयनयको अपेक्षासे न बन्ध है और न मोम है। यदि निश्चयनयसे बन्ध माना जाये तो सदा बन्ध हो रहेगा, कभी मोक्ष नहीं हो सकेगा। यदि निश्चयनयसे मोक्ष ही माना जाये तो वह भी घटित नहीं हो सकता है, क्योंकि मोक्ष (मुक्त होना-छूटना) बन्धपूर्वक हो होता है । बंधा ही नहीं, उसके लिये छूटना कैसे कहा जा सकता है । मोक्ष 'मुञ्च' धातुसे बना है, जिसका अर्थ 'छूटना है। -०द्र० सं० टीका । जब निदचयनय ( जिसको ही सत्य व प्रामाणिक कहा आ रहा है ) से बन्ध व मोक्ष हो नहीं है, तब जिनशासनमें जो मोक्षमार्गका उपदेश दिया गया है, वह सब व्यर्थ हो जायगा। दूसरे प्रत्यक्षसे विरोध आ जायगा, क्योंकि संसार प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है । अतः यह ही सिद्धान्त सम्यक है कि निश्चयनय अर्थात् स्वभावको अपेक्षा न बन्ध है और न मोक्ष है, किन्तु व्यवहारनय (पर्याय) को अपेक्षा बन्च भी है और मोक्ष भी है । ये दोनों ही कथन सत्व ब प्रामाणिक है। ऐसा नहीं, कोई नयका कथन सत्य व प्रामाणिक हो और प्रतिपक्षी नयका कथन असत्य व अप्रामाणिक हो। प्रत्येक नयका विषय अपनी दृष्टिसे सत्य है, किन्तु ध्यबहारनयकी अपेक्षा सत्य नहीं है, क्योंकि दोनों के विषय परस्पर विरोधी हैं। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और इसका समाधान जो एक नयका विषय है वही विषय दूसरे नयका नहीं हो सकता । यदि ऐसा हो जाय तो दोनों नयोंमें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। दोनों में अन्तर नहीं रहनेसे नयोंका विभाजन व्यर्थ हो जायगा तथा सुव्यवस्था नहीं रहेगी । सर्व विप्लव हो जायेगा। जो व्यवहारनयका विषय है उसका कथन ध्यवहारनपसे ही हो सकता है, निश्चयनयसे वह कथन नहीं हो सकता । अतः आर्ष प्रमाणों को यह कहकर टाल देना कि 'विवक्षित कथन व्यवहारनयसे है, निश्चयनयसे नहीं आयमसंगत नहीं है, क्योंकि जो व्यवहारका विषय है उसका निश्वयनयसे भी कथन होनेका प्रश्न नहीं हो सकता है। निश्चयनयके एकान्तका कदाग्रह होनेसे तथा व्यवहारनवको असत्यार्थ माननेरो जो दुष्परिणाम होंगे उनमें से कुछ सूरिजीने थो समयसार गा० १६ को टोकामें स्पष्ट किये हैं समन्तरेण ( व्यवहारमन्तरेण ) तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् प्रसस्थावराणां भस्मन इव निशंकमुपमदनेन हिंसाभावाद् भवत्येव बंधस्याभावः। तथा राहिष्टविमूढो जीयो घध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहम्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात भवत्येव मोक्षस्याभावः। अर्थ-यदि व्यवहारनयका कथन न किया जाय तो निश्चयनवसे शरीरसे जीवको भिन्न बताया आने पर जैसे भस्मको मसल देनेसे हिमाका अभाव है, उसी प्रकार प्रसस्थावर जीवोंको निशंव लया मसल देनमें भी हिसाका अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्धका ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ द्वारा जीव राग, द्वेष और मोहसे भिन्न बताया जानैपर, 'रागी, द्वेषी, मोही जीप कर्मोंसे बंधता है, उसे छुड़ाना है' इस प्रकार मोक्षके उपायके ग्रहणका अभाव हो जायमा और इससे मोक्ष का ही अभाव हो जायगा । आपके द्वितीय वक्तन्यमें निम्न वाक्योंको पढ़कर बहुत आश्चर्य हुआ। यद्यपि यह कथन प्रसंगसे बाहर है और कोई प्रमाण मो नहीं दिया गया है, तथापि मिथ्या मान्यताको दूर करने के लिये आपके निम्न वाक्योंपर आपंप्रमाणसहित विचार किया जाता है। (अ) आपके द्वारा हमारे इन वाक्योंपर आपत्ति उठाई गई है-'इस जोबको कर्म परवश बनाये हुए है, उसीके कारण यह परतन्त्र हो रहा है।' यह वाक्य श्री विद्यानन्द स्वामौके शब्दोंका अनुवादमात्र है। श्री विद्यानन्द आचार्य निर्घन्म, सत्य महावतधारी तथा राग-द्वेषसे रहित थे, साथ-साथ वे महान् विद्वान् भी थे, जिन्होंने अष्टसहस्री आदि महान ग्रन्थों की रचना की है। अष्टसहस्त्रीके विषयमें उसीके प्रथम पृष्ठपर निम्न श्लोक है श्रोतन्याष्ट्रसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः। विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।। अर्थ-वह अष्टसहस्री सुनना चाहिये, अन्य हजारों अन्योंके सुननेसे क्या ? कि जिसके सुनने से स्वसमय और परसमयका सत्य स्वरूप जाना जाता है । उन्हीं निम्रन्थ महानाचार्य विद्यानन्दस्वामौके मूल वाक्य पुन: उपस्थित किये जाते हैं, जिनके वाक्योंपर दिगम्बर जैनमात्रको श्रद्धा होनी चाहिये: जीर्ष परतंत्रीकुर्वन्ति स परतंश्रीक्रियते वा यस्तानि कर्माणि, जीवेन वा मिथ्यादर्शनादिपरिणामैः कियन्ते इति कर्माणि । तानि विप्रकाराणि-व्यकर्माणि मावकर्माणि च । तत्र दृष्यकर्माणि ज्ञानावरणादीग्यही मूलप्रकृतिभेदात् । तथाटचत्वारिंशदुसरशतम, उत्तरप्रकृतिविकल्पात् । सथोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदादनेकप्रकाराणि । तानि च पुद्गलपरिणामात्मकानि, जीवस्य पारतंयनिमिसत्वात्, निगडादिवत् । क्रोधादिभि Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा ७४० जयपुर ( खानिया ) तत्त्वाची उर्यभिषार इति खेत, न, तेषां जीवपरिणामानां पारतंत्र्यस्वरूपत्वात । पारतंत्र्यं हि जीवस्य क्रोधादिपरिणामो न पुनः पारतंत्र्यनिमित्तम् ।..आप्तपरीक्षा कारिका ११४-११५ टीका अर्थ-जो जोवको परतंत्र करते हैं अथवा जोव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है उन्हें कर्म कहते है। अथवा जीवके द्वारा मिथ्यादर्शनादि पणिामांसे जो किये जाते है-उगजित होते हैं के कर्म है 1 के दो प्रकारके हैं-१. द्रव्यकर्म और २. भावकर्म । उनमें द्रव्यकर्म मूल प्रकृतियोंके भेदसे शानावरण आदि आठ प्रकारका है तथा उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे एक-सो अतालीस प्रकारका है तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियोंके भेदसे अनेक प्रकारका है और ये सच पुद्गलपरिणामात्मक है, क्योंकि वे जोवकी परतंत्रतामें कारण है, जैसे निगह (बड़ो) आदि । शंका-उपर्युक्त हेतु (जीवकी परतंत्रताका कारण) क्रोधादिके साथ व्यभिषारो है अर्थात् क्रोधादि परतंत्रताके कारण है ? समाधान-नहीं, क्योंकि क्रोधादि जीवके परिणाम है और इसलिये वे परतंत्रप्तारूप है---परतंत्रतामें कारण नहीं। प्रकट है, जीवका क्रोधादि परिणाम स्वयं परतंत्रता है, परतंत्रताका कारण नहीं। अतः उक्त हेतु क्रोधादिके साथ व्यभिचारी नहीं है। इसी प्रकार लो अकलंकदेव भी जीवको परतंत्रताका मूल कारण कर्मको ही मानते हैं। तदात्मनोऽस्वतंत्रीकरण मूलकारणं । सरवायवार्तिक ५-२४ इन आर्ष वाक्योंके रहते हुए एकान्तसे यह मानना कि जीव, मात्र अपने अज्ञानभावके कारण हो परतंत्र हो रहा है उचित (युक्त) प्रतीत नहीं होता। इतना ही नहीं थी पं० फूलचन्द्रजी स्वयं कर्मों के कारण जोवकी परतंत्रता स्वीकार करते है-- जीवकी प्रति समयकी परिणति स्वतंत्र न होकर पुद्गलनिमित्तक होती है और पुद्गलकी भी परिणति स्वतंत्र न होकर जीवके परिणामानुसार विविध प्रकारके कमरूपसे होती है । इसीका माम परतंत्रता है। इस तरह जीव पुद्गलके आधीन है और पुद्गल जीवके आधीन। --विशेषार्थ पंचाध्यायी पृ० १७३ षी प्रन्थमाला श्री पं० फूलचन्द्र जी स्वयं निम्न शब्दों द्वारा जीवको अज्ञान अवस्थाको कर्मजनित स्वीकार करते हैं संसारी जीव आठ कमोसे बँधा हुआ है, इससे वह अपने स्वरूपको भूला हुआ है और परस्वरूपको अपना मान रहा है। -विशेषार्थ, पंचाध्यायी पृ० ३३८ वर्णीग्रन्थमाला अब धी पं० फूलचन्द्रजी स्वयं देखें कि उनके द्वितीय वक्तव्यमें और उनके द्वारा लिखे गये आगमानुकूल विशेषार्थमें पूर्वापर विरोध आ रहा है। यदि मात्र अज्ञानभावको ही परतन्त्र करनेवाला मान लिया जावे तो चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन होनेपर अज्ञानभावका नाश हो जानसे १२३ गुणस्थानके शुरूमें अथवा हर प्रकारको सम्पूर्ण अज्ञानता दूर हो जानेसे १३२ गुणत्थानके प्रथम समयमें ही जोत्र स्वतन्त्र हो जाना चाहिये, किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि जिस समयतक चारों अघातिया कर्मोंका भी नाश नहीं हो जाता है उस समयतक जीव परतन्त्र हो है। इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य स्पष्टरूपसे कहते है Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४१ शंका १६ और उसका समाधान ननु च ज्ञानावरणदर्णनावरणमोहनीयान्तरायाणामेवानन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्य लक्षणजीवस्वरूपधातिवापार संभ्यनिमित्तावासद्धारास पक्षाध्यापको दा. वनस्पति चैतन्य स्वापवत् इति चेत् ! न, तेषामपि जीपस्वरूपसिद्धत्वप्रतिवन्धिस्वापारतंत्र्यनिमित्तत्त्वोपपत्तेः । ---आप्तपरीक्ष! पृ. २१६ बीरसेवामंदिर अर्थ--यहाँ शंकाकार कहता है जि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिकम हो अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सूख और अनन्त वीर्यप जीवके स्वरूपधानक होनसे परतन्त्रताके कारण है। नाम, गोत्र, बंधनीय और आय ये चार अघातिकर्म नहीं, क्योंकि व नोबके सहपघातक नहीं हैं; अत उनके परतन्त्रताको कारणता असिद्ध है और इसीलिये हेतु पक्षाव्यापक है, जैसे वनस्पतिमें चैतन्य सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया स्वापहेतु ? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि नामादि अघातिकर्म भो जोवके स्वरूप-सिद्धपने के प्रतिबन्धक है और इसीलिये उनके भी परतन्त्रताकी कारणता उत्पन्न है। इसी बातको श्री अमृतचन्द्र सूरि गंवास्तिकाय गाथा २ को टीकामें जिनवाणीको नमस्कार करते हुए कहते हैं पारतंत्र्यनिवृत्तिलक्षणस्य निर्वाणस्य। इसका तात्पर्य यह है कि निर्वाण होनेपर परतन्त्रतासे निवृत्ति होती है, उससे पूर्व नहीं। आपके द्वितीय बक्तव्यमें यह लिखा है-'समयसार अध्यात्मको मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला आगमग्रन्थ है, शेष ग्रन्थ व्यवहारमयकी मुरुपतासे लिने गये हैं। इस सम्बन्ध पंचास्तिकाय गाथा १२३ की टीका के एवमनया दिशा व्यवहारनयेन कर्मग्रन्धप्रतिपादितजीवगुणमार्गणास्थानादिनपञ्चितविञ्चिाधिकल्परूपैः। ये वचन उद्धृत किये है। इस उल्लेखसे आपने बतलाया कि जिन शास्त्रोंमें जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान आदिरूप विविध भेदोंका कथन किया गया है, जिनमें कर्मग्रन्थ मल्य है, में व्यवहारमयकी मुख्यतासे लिखे गये हैं। उपर्युक्त वाक्य स्पष्टतया इस प्रकारके अन्तरंग अभिप्रायको द्योतित करता है कि समस्त जन वांइमय (शास्त्रों) में एकमात्र समवमार ही अध्यात्म ग्रन्य होने के कारण सत्यार्थ, प्रामाणिक तथा मान्य है और अन्य समस्त ग्रन्थ (चाहे वह स्वयं श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत भी क्यों न हों) व्यवहारमयकी मुख्यतासे होने के कारण असत्य, अप्रामाणिक एवं अमान्य है, क्योंकि अापके द्वारा व्यवहारनयको कल्पनारोपित, उपचरित या असत्य हो घोषित किया गया है। वरना इस वाक्यको लिम्वनकी जावश्यकता ही न थी। थी समयसारमें भी स्थान-स्थान पर ब्यवहारका कथन है, अत: वह भी अमान्य ही होंगे। इस अपेक्षासे तो यह भी लिखा जाना चाहिये या कि श्री समयसारके भी मात्र यही अंश ग्राह्य है जिनमें केवल निश्चयनयसे कथन है। यह ही तो एकान्त निश्चय मिथ्यावाद है। जो व्यक्ति किसी भी नयको, किसी भी अनुयोगको या जिनवाणोके किसी भी शब्दको नहीं मानता वह सम्पदष्टि नहीं हो सकता है। -मूलाराधना पृ० १३८ साधारण व्यक्ति भी इस बातको जानता है कि जी जिस नयका विषय होगा, उसका कथन उस ही नयसे हो सकता है, अन्यसे नहीं, और परसापेक्ष प्रत्येक नयका कथन (चाहे यह निश्चय हो या व्यवहार) Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा सत्य, प्रामाणिक एवं मान्य ही है। आश्चर्य एवं महान् वेदको बात है कि श्री समयसारके अतिरिक्त महान् ऋषि प्रणीत आर्ययम्योंके प्रमाणोंकी उपर्युक्त वाक्य कहकर अबहेलना को जाती है और उनको अप्रामाणिक तथा अमान्य समझकर उनका उत्तर देने की भी आवश्यकता नहीं समझी जाती है। किन्तु शंका या प्रतिकाका उत्तर देते हुए जहाँ अनुकूल समझा जाता है वहाँ इन्हीं व्यवहार अति प्रयोंका प्रमाण भी दे दिया जाता है। यह ही नहीं, बल्कि सर्व श्री विद्यानन्य, अकलंकदेव आदि महान् आचायोंके प्रमाणोंकी अपेक्षा गृहस्योंके द्वारा रचित भाषा भनगोंको अधिक प्रामाधिक माना जाता है और उन भजनोंका प्रमाण देकर परम पूज्य महान् आचायोंके आग्रन्थों का निराकरण (खण्डन ) किया जाता है तथा उनके आधार पर सिद्धान्तका निर्माण किया जाता है। कैसी विचित्र परिस्थिति है ? क्या इस ही का नाम वीतराग चर्चा है ? उचित तो यही होता कि चर्चा के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कर दिया जाता कि मात्र श्री समयसारके निश्च याश्रित प्रकरण ही मान्य हो अन्य समस्त ग्रन्थ व्यवहारात होने मान्य न होंगे। किन्तु उपर्युक्त मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि सभी शास्त्रों में प्रमाण तथा नयाँ द्वारा वस्तुस्वरूपका ही प्रतिपादन किया गया है | अतः सब ही आर्यग्रन्थ प्रामाणिक एवं मान्य है | घव पु० १३५० ३६ पर घव प्रत्थोंको शास्त्र कहा है और विशेषार्थ में श्री फूल भी इस पवन अन्यको अध्यात्मशास्त्र स्वीकार करते हुए किया है कि 'अध्यात्म शास्त्रका अर्थ है आत्माको विविध अवस्थाओं और उनके मुख्य निमित्तोंका प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र ' सभी आर्यम्यों भगवान्को रामोसे आया हुआ द्रव्यगुण-स्वभावका कथन है। इसीको श्री अमृतचन्द्र सूरिने इन शब्दों द्वारा कहा है सर्वपदार्थाभ्यगुणपर्यायस्वभावप्रकाशिका पारमेश्वरी व्यवस्था साधीयीन पुनरितरा --प्रवचनसार गाथा १३ की टीका - अर्थ — यही सर्व पदार्थों के ( जीव, गुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन छह द्रव्योंके स्य गुण और पर्यायोंके स्वभाव (स्वरूप) का प्रकाशन करनेवाली सर्व भगवान्‌के द्वारा बतलाई दुई व्यवस्था समीचीन सिद्ध होती है और एकान्त नियतिवाद आदिका पोषण करनेवाली दूसरी व्यवस्था समीचीन सिद्ध नहीं हो सकती । श्री समयसार गाथा १५३ को श्री अमृतचन्द्र सूरिकृत टीकाको उदवृत करते हुए यह अभिप्राय सिद्ध करने को चेष्टा की गई है कि कदाचित् व्रत, नियम, शो, तब विना भी मात्र ज्ञानसे मोक्ष हो सकती है। उक्त टोकानें शब्द 'अहि' पद दे दिया जाता तो सम्भवतः यह भ्रम न होता टोकाकारका आशय यह दिखलानेका है कि निर्विकल्प समाधिमें स्थित ज्ञानी बाह्य प्रवृत्तिरूप व्रत नियम आदि न पालन करते हुए भी अंतरंग निवृत्तिरूप पारण करता हुआ मोक्ष प्राप्त करता हूँ श्री जयसेन आचार्यने भी यही आशय अपनी टीका स्पष्ट किया है: 1 निर्विकल्प त्रिगुतिसमाधिलक्षणभेदज्ञानसहितानां मोक्षो भवतीति विशेषेण बहुधा भणितं तिष्ठति । एवंभूतभेदज्ञानकाले शुभरूपा ये मनोवचनकायव्यापारा: परंपरया मुक्तिकारणभूतास्तेपि न संति । अर्थ - निविकल्प तथा त्रिगुप्तिरूप समाधि है लक्षण जिसका ऐसे भेद-ज्ञान सहिवालांके मोक्ष होती है— ऐसा विशेषरूपसे कहा गया है। इस प्रकार के ज्ञान के समय शुभ जो मन-वचन-कामका पार है, जो परम्परासे मुक्ति के कारणभूत हैं वे भी नहीं होते हैं । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान स्वर्गीय पं. श्री जयचन्दजाने भी अपने मावार्थमें सुरिजीकृत टीकाका यही आशय प्रगट किया है। जहाँ ज्ञानको मोक्षमार्ग कहा है वहां ज्ञानपदमें श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र तीनों यभित है, जैसा कि गाथा १५५ को टोकासे स्पष्ट है, अन्यथा गाथा १५५ से विरोध आजायेगा । श्री अमृतचन्दसूरि लिखते है अथ परमार्थमोक्षहेतु तेषां दर्शयतिपरमार्थस्वरूप मोदका कारण दिखलाते है जीवादीसदहणं सम्म सिमधिममी पाणं। रायादिपरिहरणं चरणं एसो द मोक्खपहो ॥ १५५ ॥-समयसार अर्थ-जीवादि पदार्थोका खान तो सम्यक्त्व है और उन जीवादि पदार्थोंका अधिगम ज्ञान तथा रागादिका त्याग चारित्र है, यही मोक्षका मार्ग है । ___ इस गाथासे स्पष्ट है कि श्री कुन्दकुन्द भगवानने मात्र ज्ञानको ही मोक्षका कारण नहीं कहा, किन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तीनको मोक्षमार्ग कहा है। एकाग्तेन ज्ञानमपि न बंधनिरोधकं, एकान्तेन क्रियापि न बन्धनिरोधिका इति सिद्धं उभाम्यांमोक्षः।-समयसार पृ. ११८ टिप्पण, अहिंसामंदिर प्रकाशन अर्थ-एकान्तले जान भी बन्धका निरोधक नहीं है और एकान्ससे क्रिया भी बन्धकी निरोधक नहीं है। ज्ञान और क्रिया दोनोंसे ही मोल होता है। इसीको थी अकलंकदेवने कहा है हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिना क्रिया । धावन् किलान्धको दुग्धः पश्यनपि च पङ गुलः ।। -राजबार्तिक १, 1 अर्थ-क्रियारहित ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानोको क्रिया व्यर्थ है। जंगल में आग लग जानेपर बन्धे को मार्गका ज्ञान न होनेसे वह भागता हुआ भी जल जाता है और लंगड़ा मार्गको जानता था भी न चलनेसे जल जाता है। मापने लिखा है कि 'कालकब्धि प्राप्त होनेपर सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। यहाँ पर 'काललब्धि' देशामर्षक है। अतः काललब्धिसे प्रयोजन अनुकूल द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव आदिकी प्राप्ति है। कहा मो हैकालादिलब्धियुक्तः कालद्गम्यक्षेत्रभव-माषादिसामग्रीप्राप्तः । -स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा पृ० १५२, रायचन्द्र मन्थमाला अर्थ-कालादिलब्धियुक्त का अर्थ है-काल-म-क्षेत्र-मव-भाव आदि सामग्रीको प्राप्त । मापने लिखा है कि 'मधिकसे अधिक अर्धपदगल परावर्तन प्रमाण कालके शेष रहनेपर सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लेता है।' जहाँ कहीं भी ऐसा वाक्य आया हो उसका अभिप्राय यह है कि सम्यग्दर्शनके प्राप्त होनेपर अनन्त संसार काटकर अर्ध पुदगल परिवर्तन काल शेष रह जाता है यह सम्यग्दर्शनको सामार्य है। जैसा कि श्री वीरसेन आचार्यने कहा भी है: Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा एगो अणादियमिच्छादिही अपरित्तसंसारो अधापवत्तकरणं अपुवकरणं भणियट्टिकरण मिदि एदाणि सिण्णि करणाणि कादूण सम्मशं गहिदपढमसमए चेव सम्मत्तगुणेण पुचिल्लो अपरितो संसारो ओह टिवूण परित्तो पोगालपरियष्वस्स अमेत्ती होवूण उक्कसेण चिट्ठदि, जहष्णण अंतोमुत्तमेसी। -धवल पु० ४ पृ० ३३५ ___ अर्थ-एक अनादि मिश्यादृष्टि अपरीत संसारी ( दीर्घ संसारी) जोच अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण ओर अनिवृत्तिकरण इस प्रकार इन तीनों ही करणोंको करके सम्यक्त्व ग्रहणके प्रथम समयमें ही सम्यवस्व गुणके द्वारा पूर्ववर्ती अपरोत संसारीपना हटाकर व परीतसंसारी (निकट संसागे) हो करके अधिक से अधिक पुद्गल परिवर्तनके आधे कालप्रमाण ही संसारन हरता है भाग पाहूर्त माह कार तक संसारमें ठहरता है। एक्केण अणादिद्यमिच्छादिट्टिणा तिण्णि करणाणि कादूण उबसमसम्म पनिवपणपढमसमए अणंतो संसारो छिण्णो अपांग्गलपरियहम सो कदो। -धवल पु. ५, पृ० ११, १४, १५, १६, १९ अर्थ-एक अनादि मिध्यादष्टि जीवने प्रधःप्रय सादि तीनों करण करके उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होने के प्रथम समय अनन्त संसारको छिन्नकर अर्धपदगलपरिमाणमात्र कर दिया । एक वेणुदण्डपर विचित्र चित्र बने हुए हैं, उनको प्रक्षाल अर्थात् को डालनेपर वह बेणुदण्ड (बाँस) शुद्ध निर्मल हो जाता है इसी प्रकार इस जीवके अनन्त काल लम्बी भविष्य नाना प्रकारकी संसारी पर्याय पड़ी हुई है, किन्तु सम्यग्दर्शनके द्वारा उन भविष्य अनन्त पर्यावोंको धो देता है। इसी बातको श्री जयसेन माचार्य इन शब्दों द्वारा लिखते हैंयथा वेणुदण्डो विचित्रचित्रप्रक्षालने कृते शुद्धो मवति तथायं जीवोऽपि । -पंचास्तिकाय गाथा २० टीका उपर्युक्त आगम प्रमाणोंसे तथा राजवातिक अ०१ सू०३ से यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यक्त्वोपत्तिका कोई गियत काल नहीं है। किन्तु जब कभी यह सभी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव अपने ज्ञानको अन्य ज्ञयोंसे हटाकर स्वोमुख होता है तब अन्य शेयोंकी तरह स्थका ज्ञान भी इसको हो जाता है। स्वका ज्ञान होना दिन नहीं है, क्योंकि ग्रह रात-दिन कहता रहता है कि 'मैंने यह कार्य किया, मैंने यह कार्य किया' इन वाक्याम 'मैं' शब्दका उच्चारण तो करता है, किन्तु 'म' की ओर लक्ष्य न रहकर कार्यकी ओर लक्ष्य रहता है। यदि यह अन्धकी ओरसे लक्ष्य हटाकर 'मैं' की ओर लक्ष्य ले जावे तो 'मैं' अर्थात् 'स्व'का बोध होना काठन नहीं है, क्योंकि ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। यह हो बात परीक्षामुख प्रथम अध्यायमें इन सूत्रों वारा कही गई है स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमागं । स्वोन्मुखतथा प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः । अर्थस्येच तदुन्मुखतया । परमहमात्मना वेभि । कर्मवत्कर्तृकरणक्रियाप्रतीतेः 1 शम्दानुधारणेऽपि स्वस्थानुभवनमर्थवत् । को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा नेच्छेत, प्रदीपवत् । -सूत्र व ६-१२ अर्थ-स्त्र और अपूर्व अर्थका व्यवसायात्मक शान ही प्रमाण है। जैसे पदार्थकी ओर उन्मुख होनेसे पदार्थका निश्चय होता है वैस ही स्वकी ओर उन्मुख होनेसे स्वका निश्चय (निर्णय) होता है, 'मैं घटको Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान अपने द्वारा जानता हूँ' इसमें जिस प्रकार कर्म (घट) की प्रतीति होती है उसी प्रकार कर्ता (मैं), करण (ज्ञान) और क्रिया (जानना) की प्रतीति होती है। शब्दका उच्चारण किये बिना भी जैसे पदार्थका अनुभव होता है वैसे ही स्वका भी अनुभव होता है। ऐना कौन होगा जो ख़ान करि प्रतिभासित अर्थको तो प्रत्यक्ष इष्ट करे और तिस ज्ञानको इष्ट न करे ? अर्थात् इष्ट करे ही करें। जैसे दीपक के प्रत्यक्षता और प्रकाशता बिना तिस करि भासे जे घटादिक पदार्थ तिनके प्रकाशता प्रत्यक्षता न बने, तेसे ही प्रमाणस्वरूप ज्ञान के भी जो प्रत्यक्षतान होय तो तिस करि प्रतिभास्या अर्थके भी अर्थात् प्रतिभास्या अर्थके भी प्रत्यक्षता न बने । هایی जिस प्रकार घट-पट आदिकी ओर उपयोग ले जाकर जाननेका कोई नियत काल नहीं है, उसी प्रकार स्वोन्मुख होकर स्वको जानने का भी कोई नियत काल नहीं है, क्योंकि सर्व कार्योंer faarमक कोई नियत काल नहीं है, किन्तु बाह्य आभ्यन्तर समर्थ कारणसामग्री कार्यकी नियामक है। यदि मात्र कालको ही सब कार्योका कारण मान लिया जाय तो अन्य सर्व कारण सामग्रीका ही लोप हो जायगा । जैसा कि अकलंकदेवने कहा है— यदि हि सर्वस्य कालो हेतुरिष्टः स्यात् बाह्याभ्यन्तरकरणनियमस्त्र रष्टस्येष्टस्य वा विरोधः स्यात् । — सरार्थवार्तिक १३ जो सम्पत्ति के लिये मात्र काललब्धिको प्रतीक्षा करते रहते है ये पुरुषार्थहीन पुरुष प्रभावी होकर अपने इस मनुष्वभवको ऐशोआराम ( आनन्द - विनोद) में व्यर्थ खो देते हैं । आगे आपने लिखा है 'यात्रकके उत्कृष्ट विशुद्धरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ सर्व प्रथम अप्रमतभावको प्राप्त होता है ।' करणानुयोग के विशेषज्ञको भलिभांति ज्ञात है कि सप्तम गुणस्थान में प्रत्याख्यान कषायोदयका अभाव होनेसे श्रावक के पंचम गुणस्थानकी अपेक्षा अप्रमससंयत गुणस्थानवाले मुनिके परिणामों की विशुद्धता अनन्तगुणो है अर्थात् श्रावककी उत्कृष्ट विशुद्धता अप्रमत्तरांयतकी विशुद्धतामें लोन हो जातो है अथवा श्रावक के उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामोंके द्वारा मुनिदीक्षाका कार्यक्रम होकर अप्रमत्तसंयतकी अनन्तगुणी विशुद्धता प्राप्त होती है। विशुद्धता छोड़ो नहीं जातो, किन्तु प्रति प्रति गुणस्थान बढ़ती जाती है । जैसे पीपरको ६३ व पुटवाली चरपराहट छोड़कर ६४ व पुटवाली वरपराई उत्पन्न नहीं होती है, किन्तु ६३ वी पुढवाली परपराहट ही उत्कर्ष करके ६४ व पुढवाली चरपराहटरूप परिणमित हो जाती है । आपने लिखा है- 'अहिंसादि अणुव्रत और महाव्रत यादि शुभ विकल्प होता है, जोकि राग पर्याय है उसको यहाँ व्यवहारधर्म कहा गया है। सो सामायिक छेदोपस्थापना संयमको व्याख्या के विरुद्ध से बाक्स लिखे गये हैं जो शोभनक नहीं है। व्रतका तथा सामायिक छेदोपस्थापनाका लक्षण इस प्रकार है हिंसानृतस्ते पात्र अपरिमद्देभ्यो विरति तम् । --सरकार्थसूत्र ७-१ अर्थ - हिंसा, असत्य, बोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे निवृत्त होना व्रत है । सर्वसावयनिवृसिलक्षण सामाथिकापेक्षया एकं व्रतं तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधमिहोच्यते । - सर्वार्थसिद्धि ७-१ अर्थ- सम पापोंसे निवृत्त होनेरूप सामायिकको अपेक्षा एक व्रत है। वही व्रत दोपस्थापना की अपेक्षा पाँच प्रकारका है । २४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लियर सानिया) तस्वचर्चा इस प्रकार पापोंसे निवृत्त होना ही है तथा सामायिक व दोस्थापना संयम अथवां चारित्र है पारित्र तो मोक्षमार्ग तथा संवरका कारण है, जैसा कि मोक्ष शास्त्रमें कहा गया है। फिर व्रतोंको रागभाव कहना कैसे आगमसंगत हो सकता है। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । ---तस्वाथसूत्र १, अर्थ-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-बारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षका मार्ग है अर्थात् साधन है । स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजपचारित्रैः । --१० सू० २,२ अर्थ-गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और पारिनके द्वारा संवर होता है । सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्म साम्पराययथाण्यातमिति चारित्रं ॥९, १८॥ सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथावात यह पाच प्रकारका चारित्र है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि व्रत विकल्प भी नहीं है और राग भी नहीं है, किन्तु हिंसादि पापोंके रागके त्यागरूप है। जिनको हिसा आदि पापोंसे राग होता है वे हो यह कहकर कि हिंसा आदि पापोंसे निवृत्ति (त्याग) तो राग है, बिकल्प है, मानव बन्धका कारण है। स्वयं यत घारण नहीं करते और चारित्रवान पुरुषोंका आदर आदि भी नहीं करते । अथका यह कह देते है कि हमारी क्रमबद्ध पर्यायों में व्रत धारण करना पड़ा हुआ हो नहीं है, पर्याय मागे पीछे हो नहीं सहप्ती, फिर हम पापों को जैसे छोड़ें अथवा सर्वशने हमारी वतधारणस्प पर्याय देखी ही नहीं तो हम पापोंको कैसे त्याग कर सकते हैं। यदि व्रतोंको राग माना जायगा तो वे व्यवहारधर्म नहीं हो सकते, क्योंकि व्यवहारधर्म तो निश्चयधर्मका साधन है । जैसा कि श्री अमतचन्द सरिने पंचास्तिकाय गाथा १६० व १६१ की टीकामें कहा है और बृहद्व्यसंग्रह गाथा १३ की टीकाम यह कहा है कि जो निश्चय व व्यवहारको साध्य साधनरूपसे स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है। अतः व्रत व व्यवहारधर्म रागांशरूप नहीं है । विशेष ध्याझ्याके लिये प्रश्न नं. ३,४ व १३ पर हमारे प्रपन देखने चाहिये । श्री प्रवचनसार गाथा १ की टोकामें जीवके शभ, अशुभ व शुद्ध तीन भाव कहे है। जिस समय जो भाव होता है उस समय वह जीव उस भावरूप हो जाता है। इस गाधाको टीकामें श्री जयसेन आचार्यने कहा है कि पहले तीन गुणस्थानोमें अशुभोपयोग, अविरत सम्यग्दृष्टिसे प्रमससंयत गुणस्थानतक शुभोपयोग और उसके पश्चात् अप्रमत्तसंयतसे क्षीगमोह गुणस्थानतक शुद्धोपयोग होता है।' बौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनरूप शुद्ध भाव है और कषायरूप अशुद्धभाव है इन दोनों शुद्धाशुद्ध भावोंके मिन्त्रितरूप उपयोगको शुभोपयोग कहा है । इसी प्रकार यथासंभव पांचवे, छटे गुणस्थानमें भी शुसाशुर मिश्रित भावरूप शुभोपयोग जानना चाहिये। यदि शुभोपयोगको शुद्धाशुद्ध भावरूप न माना जावेगा तो शुभोपयोग मोक्षका कारण नहीं हो सकेगा। किन्तु श्री अमृतचन्द्राचार्यन प्रवचनसार गाथा २५४ टोकामें शुभापयोगको मोक्ष का कारण कहा है गृहिणां तु समस्तविरसेरभावेन शुद्राम-प्रकाशनस्याभावात्मपायसद्भावाप्रवतमानोऽपि स्फटिकसंपर्कणाकतेजस इवैधसी रागसंयोगेनाशुद्धात्मनोनुभवनात् क्रमप्त: परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ৩৮৩ अ६-वह शुभोपयोग गृहस्थोके तो, सर्वविरतिके अमावसे शुद्धात्मप्रकाशनका अभाव होनेसे कषायके सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हआ भी मुख्य है, क्योंकि जैसे ई घनको स्फटिकके सम्पकसे सूर्यके तेजका अनुभव होता है, उस प्रकार गृहस्थको रागके संयोगसे शुखात्माका अनुभव होता है, क्रमशः परम निर्वाण सौख्यका कारण होता है। आपने यह लिखकर 'शुद्धाशुद्ध पूरे परिणामको शुभ कहकर ऐसा अर्थ फलित करनेकी चेष्टा की गई है सो यह कथनकी चतुराई मात्र ही है।' उपर्युक्त आर्ष वाक्योंको कथनकी चतुराई कहनेका साहम किया है सो यह बड़े खेदकी बात है और यह आर्ष वाक्योंपर अश्रद्धाका घोतक है। जिनभक्तिसे आप कमका क्षय होना नहीं मानते, किन्तु समयसारके रययिता श्री कुंदकुंद भगवान् कहते है कि जो जिनेन्द्रको नमस्कार करता है वह संसार भ्रमणका नाश करता है जिणवरचरणंबुरुहे मंति जे परमभत्तिराएण । ते जम्मवेल्लिमूलं खणति वरमावसस्येण ॥१५१।। --माघपाहुए अर्थ----से पुरुष परम भक्ति अनुराग करि जिनवरके चरणकमलकू नमे हैं ते पुरुष श्रेष्ठ भावरूप शस्त्र करि जन्म (संसार) रूपी बेलका मूल जो मिथ्यात्वादि कर्म को खणे (जय) करें है। इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र भक्तिसे कर्मोके राजा मोहनीय कर्मका क्षय होता है । आपने जो परमात्मप्रकाश गाथा ६१ उद्धृत को है उसको टोकामें लिखा है किदेवशास्त्रमुनीनो भवस्या पुण्यं भवति कर्मक्षयः पुनर्मुख्यवृत्या नैव भवति । अर्थ-देव-शास्त्र-मुनियोंकी भक्तिसे पुण्य होता है, किन्तु मुस्यतासे कर्मक्षय नहीं होता । अर्थात् गौणरूपसे कर्मक्षय होता है। मिश्रित असण्ा पर्यायमें पापोंसे नियत्ति भी होती है और रागांश है। यहाँ पर रागांशको मुख्य करके तथा नियत्ति अंशको गौण करके यह कथन किया गया है। जैसे तत्त्वार्थसूत्रमें सम्यक्त्वको देव आयु का आस्रव बतलाया है। आध्यात्मिक दृष्टिसे प्रथम द्वितीय और तृतीय गुणस्थानोंमें तो एक अशुभोपयोग होता है और असंयतसम्यग्दृष्टि चतुर्थ गुणस्थानसे प्रमत्तसंमत छटे गुणस्थानतक केवल एक शुभोपयोग और अप्रमत्तसंयत सातवें गुणस्थानसे एक शुद्धोपयोग होता है। -प्रवचनसार गाथा हटीका श्री जयसेन आचार्य । श्री ब्रह्मदेव सूरिने बृहद्रव्यसंग्रह गाथा ३४ को टोकामें लिखा है कि शुद्धोपयोगका साधक शुभोपयोग है जो चौथेसे छटे गुणस्थान तक होता है । अतः शुभोपयोग मात्र बन्धका ही कारण नहीं हो सकता। असंयतसम्यग्दृष्टि-श्रावक-प्रमत्तसंयत्तेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपयुपरि तारतम्येन शुभोपयोगी वतते । अर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तरांयत (चौथे, पांचवें एवं छरे गुणस्थान) में उत्तरोत्तर तारतम्य लिये शुभोपयोग होता है जो शुद्धोपयोगका साधक है। किन्तु दूसरी दृष्टि से ४ थे से १२ गुणस्थान तक शुभोपयोग और १३ वैसे शुद्धोपयोग होता है। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा आपके द्वारा आचार्यों के इन वाक्योंके कथन को चतुराई कहकर सम्यादृष्टिके शुभोपयोगको संसारका कारण कहा गया है, किन्तु श्री कुन्दकुन्द भगवान्न तो समयसार निर्जरा अधिकार में सम्पादृष्टिके मोगको भी मिर्जराका कारण कहा है। भक्ति और शमोगयोगके सम्बन्ध में विशेषके लिये प्रश्न ३५४५१३ पर हमारे बक्तब्य देखने चाहिये । आपने लिखा है-'शुभोपयोगके होनेपर कर्मबंधको स्थिति और अनुभागमें वृद्धि हो जाती है और शुखोपयोगके होनेपर उसको स्थिति-अनुभागमें हानि हो जाती है।' इन वाक्योंके देखनेसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि इन वाक्योंको लिखते समय लेखकका लक्ष्न श्री वीरसेन प्राचार्य तथा श्री नेमिचन्द्र सिसान्सचक्रवर्तीके आर्षचायकी ओर नहीं रहा, इमलिये उन पार्षवाक्योंको यहाँपर उधत किया जाता है जिससे ज्ञात होगा कि शुभोपयोग अर्थात् विशुद्ध परिणामोंसे तीन आयुके अतिरिक्त शेष समस्त कर्मबन्धको स्थितिमें वृद्धि नहीं होतो, किन्तु हानि होती है और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभाग बंधमें हानि होती है स्थिति तथा प्रशस्त प्रकृनियों के अनुभागमें वृद्धि होती है । जहाँ कषायोदय नहीं होता अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानसे शुद्धोपयोग होता है वहाँ तो शुद्धोपयोगसे बन्ध नहीं होता। यदि उपशमणी या क्षकश्रेणीके आदि तीन गुणस्थानोंमें भी शुद्धोपयोग माना जावे प्ता शुद्धोपयोगसे प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग बन्ध में वृद्धि होती है, हानि नहीं होती । इस सम्बन्धम निम्नलिखित प्रमाण देखने की कृपा करें सवद्विदीणमुक्कस्सओ दु उक्स्स संकिलेसेण । विवरीदेण जहणी आउगतियवज्जियाणं तु ॥२२॥ा-मोका अर्थ-तीन आयुको छोड़कर अन्य सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संपलेश परिणामोंसे होता है और जघन्य स्थितिबंध विपरीत परिणामोंसे अर्थात् विशुद्ध परिणामों (शुभोपयोग) से होता है। तो आयुका उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्ध परिणामोसे होता है तथा जघन्य स्थितिबंध संक्लेश परिणामोंसे होता है । बादालं तु पसस्था विसाहिगुणमुक्कडस तिचाओ बासीदि अष्पसस्था मिक्लुक्कडसंकिलिहस्स ॥१६॥-गो. क. अर्थ-४२ प्रशस्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबंध उत्कृष्ट विशव परिणामवाले जीन होता है और ८२ अप्रवास्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबंध मिथ्यादष्टि उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले जीवोंके होता है। धवल पु० ६ में भी लिखा है कि उत्कृष्ट विशुचिके द्वारा जघन्य स्थिति बंधती है, और विशुद्धिकी वृद्धिसे स्थितियोंकी हानि होती है । उक्कस्सविसोहीए जा दिदी बज्झदि सा जहणिया होदि, सवासि हिदीणं पसत्थभावाभावादो। संकिलेसवढीदो सच्चपय डिट्रिदीर्ण चड्ढी होदि, विसोहिवटीदो तासि वेव हाणी होदि।-पृ. १८० अर्थ- उत्कृष्ट विशुचिके द्वारा जो स्थिति बंधती है, वह जघन्य होती है, क्योंकि सब स्थितियोंके प्रशस्त भावका अभाव है। संक्लेशको वृद्धिसे सर्व प्रकृतिसंबंधो स्थितिको बद्धि होती है और विशुद्धि (शुभोपयोग) की वृद्धि से उन्हीं स्थितियों को हानि होती है। आपने जो समयसार गाथा २७२ उधत करते हए यह लिखा है-निश्चयनयके द्वारा व्यवहारमय निषिद्ध जानो।' इसका यह अभिप्राय है कि बीतराग निविकल्प समाधि में स्थित जीवोंके लिये व्यवहारनय का निषेध है, किन्तु प्राथमिक शिष्यके लिये यह प्रयोजनधान है। श्री जयसेन आचार्य इसकी टीकामें लिखते है Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधाम यद्यपि प्राथमिकापेभ या प्रारम्भप्रस्तावे सविकल्पावस्थायां निश्चयसाधकत्वाद् व्यवहारनयः सप्रयोजनस्तथापि विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे शुन्धारमनि स्थितानां निष्प्रयोजन इसि भावार्थः । इसका तात्पर्य यह है कि प्रारम्भिक शिष्यके लिये प्रथम सविकरूप अवस्था, निश्चयनयका साधक होनेसे व्यवहारनय प्रयोजनवान् है, किन्तु जो विशुद्धज्ञान-दर्शनमयी आत्मामें स्थित हैं उनके लिये निष्प्रयोजन है । इसी बातको श्री अमृतचन्द सूरि पंचास्तिकायके अन्त में लिखते हैं न्यवहारनयेन मिससाध्यसाधनभावमवलम्न्यानादिभेदवासितबुन्द्रयः सुखेनैवायतरन्सि तीर्थ प्राथमिकाः। अर्थ----जो जीव अनादि कालसे भेदभावकर वासितबुद्धि है वे व्यवहारनयका अवलम्बन लेकर भिन्न साध्य-साधनभावको अंगीकार करते है, ऐसे प्राथमिक शिष्य सुखसे तीर्थ में प्रवेश करते हैं। आगमके आधार पर यह कहा जा चुका है कि यदि विवक्षित नम अपने प्रतिपक्षी नयके सापेक्ष है तो सुनय अथवा सम्यक् नय है जो सम्यग्दृष्टि के होते है। मिथ्यादृष्टिके वही नय पर निरपेच होनेसे कुनय अथवा मिथ्या नय होते हैं। इसी बातको श्री देवसेन प्राचार्य ने भी नयचकसंग्रहमें कहा है भेदुवयारी णियमा मिच्छादिट्टीणं मिस्टरूवं तु । सम्मे सम्मो भणिो तेहि दुबंधो व मुक्खो वा ॥१८॥ अर्थ-भेदोपचार ( व्यवहारनय ) मिथ्यादृष्टि के नियमसे मिय्यारूप ही होता है और सम्मग्दृष्टिके सम्यक्त्वरूप कहा गया है। मिथ्या व्यवहारनयले बन्ध होता है और सम्यग्दृष्टि व्यवहारनयसे मोक्ष होता है। समग्रतार बध अधिकारमें यह कहा गया है कि अध्ययसानके द्वारा बन्ध होता है। गाथा २७१ को टीकामें कहा गया है 'स्व-पर विवेकसे रहित ( मिथ्या) बुद्धि ब्यबसाय-मति-विज्ञान, चित्त-भाव-परिणामको अध्यवसाय कहते हैं। गाथा २७२ में निश्च अनयके द्वारा अध्ययसानहत मिथ्या व्यवहारतयका प्रतिषेध किया गया है। जैसा कि टोकाके 'पराश्रितव्यबहारमयस्यैकान्तनामुच्यमानेनाभव्येनाश्रियमाणत्वात् ।' (पराधित व्यवहारनयके तो एकान्तसे कर्मसे नहीं छुटनेवाले अभव्य करि आश्रयमानपता है) इन शब्दोंसे स्पष्ट है। गाथा २७३ के 'अभब्यो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी' गाया २७४ के 'अमविय' और गाथा २७५ की टीकाके 'भभव्यः' से स्पष्ट है कि गाथा २७१ आदिमें मिथ्यादृष्टियोंको बुद्धि-वत शील-ज्ञान व अज्ञान आदिकी अपेक्षा कथन है और उन्हींका प्रतिषेध है, क्योंकि सम्यग्दष्टिका ज्ञान, श्रद्धान, प्रत, शील आदिरूप चारित्र तो मोक्षका कारण है उसका प्रतिषेध नहीं हो सकता । यदि २७२ गाथामें सम्यम्व्यवहारनयका प्रतिषेध मान लिया जावे तो पूर्वापर विरोधका प्रसंगा जायगा, क्योंकि समयसार गाथा १२ में तथा उसकी टोकामे पूर्ण ज्ञान-चारित्र होने तक अर्थात् साधक अवस्थामें सम्यग्व्यवहारनयको प्रयोजनवान् बतलाया गया है। ___ श्री समयसार गाथा १२ तथा उसको टोकामें भी प्रगट किया गया है कि जो पूर्ण दर्शन-ज्ञानचारित्रवान् हो गये उन्हें शुद्ध ( निश्चय ) नय प्रयोजनधान् है और जब तक दर्शन-ज्ञान-पारित्र पूर्ण नहीं होते हैं तब तक व्यवहारमय प्रयोजनवान् है । दर्शन-ज्ञान-चारित्रको पूर्णता १३ ३ गुणस्थान में होती है, अतः १२ में गुणस्थान तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा सुडो सुन्दादेसो णायम्बो परमभावरिसीहिं। चवहारदेसिदा पुणजे दु अपरमे द्विदा भावे ||१२॥ --श्री समयसार अर्थ-जो शुद्धनय तक पहुँच कर श्रद्धावान ये तथा पूर्ण ज्ञान-पारिवान् हो गये हैं उन्हें तो शृतका उपदेश करनेवाला युद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरम भाव में स्थित है अर्थात श्रद्धा तथा ज्ञानचारित्रके पूर्ण भावको नहीं पहुंच सके हैं-साधक अवस्थामें ही स्थित है वे पुरुष व्यवहारद्वारा उपदेश करने योग्य है। थो अमृतचन्दाचार्य इसको टीका लिखते है कि व्यवहारनय बारहवें गुणस्यान तक प्रयोजनवान् है । टोका यह है __ ये तु प्रथमद्वितीयाध नेकपाकपरम्परापच्यमानार्तस्वरस्थानीयमपरम भावमनुभवंति तेषां पर्यत. पाकोसीर्णजात्यकारीस्वरस्थानीयपरममावानुभवनशून्यस्वादशुद्धवष्यादेशितयोपदर्शिनप्रतिविशिष्टैकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान् , तीर्थतीर्थफलयोरिथमेव व्यवस्थितत्वात् । उर्फ च जह जिणमयं पवजह ता मा घवहारणिन्छए मुयह । एकेण विणा छिज्जा तिरथं अण्णेण उण सच्चं ।। अर्थ-जो पुरुष प्रथम द्वितीयादि अनेक पाकोंके परम्परासे पच्यमान अशुद्ध स्वर्णके समान जी आत्माके अनुत्कष्ट-मध्यमभावका अनुभव करते हैं उन्हें अन्तिम ताबसे उतरे हुए शुद्ध सोने के समान उत्कृष्ट भावका अनभव नहीं होता. इसलिए मशद्ध द्रव्यको कहनेवाली, भिन्न भिन्न एक-एक भावस्वरूप अनेक भाव दिखानेकाली व्यवहारनय उस काल प्रयोजनवान है. क्योंकि विचित्र अनेक वर्णमालाके समान जानने में आता। तीर्थ और तीर्थकल की ऐसी हो व्यवस्था है। कहा भी है-यदि तुम जिन मसको प्रवर्तना करना चाहते हो वो परहारनय और निश्चयनय दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहारनपके विना तो तोथं (व्यवहारमार्ग) का नाश हो जायगा और निश्वयनयके बिना तत्त्वका नाश हो जायमा । भावार्य-जहाँ तक यथार्थ ज्ञान धबामकी प्राप्विरूप सम्यग्दर्शनको प्राप्ति नहीं हो वहाँ तक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता हो ऐसे जिन वचनोंको सुनना, धारण करना तथा जिन वचनोंको कहनेवाले थी जिन गुरुको भक्ति, जिनबिम्द के दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्गमें प्रवृत्त होता प्रयोजनवान् है । और जिन्हें थद्वान-ज्ञान तो हुआ है, किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई उन्हें पूर्वकथित कार्य परद्रव्य का आलम्बन छोड़नेरूप अणुयत-महाव्रतका ग्रहण समिति, गुप्ति और पंव परमेष्ठी का ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालोंकी संगति एवं विशेष जानने के लिये शास्त्रोंका अम्याम इत्यादि व्यवहारमार्गमें स्वयं प्रवर्तन करना और दूसराको प्रवर्तन कराना ऐसे व्यवहारनयके उपदेश प्रयोजनवान् है। अयवहारनयको कथंचित् असत्यार्य कहा गया है, किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोग रूप व्यवहारको ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोगको साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिये उलटा अशुभोपयोग में ही भाकर, भ्रष्ट होकर चाहे जसो स्वच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तो वह मरनादि गति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमै हो भ्रमण करेगा। इसलिये शुद्ध नयका विषय जो साक्षात् शुद्ध Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान आत्मा है उसको प्राप्ति जबतक न हो तबतक पत्रहार भो प्रयोजनवान् है-ऐसा स्याद्वाद मतमें श्री गुरुओंका उपदेश है। 'पत्रहारनवका विषय व्यवहारनयको अपेक्षा सत्य है।' इस बात को श्री अमृतचन्द्राचार्य समयलार गाथा १४ को टोकामें भी कहते है आत्मनोऽनादिवद्धस्य बद्धस्पृष्टस्वपर्यायेणानुभूयमानताओ बदस्पृष्टवं भूतार्थम् । अर्थ--अनादिकाल से बंधे हुए आत्माका पुद्गल कर्मोंसे बँधने स्पर्शित होने अवस्थासे (ध्यबहारनयसे) अनुभव करनेपर बद्ध-स्पृष्टता भूतार्थ है । श्री 4. फूलचन्दने भो अपने लेस्थमें जो प्रेमी अभिनन्दन वन्यमें पृ० ३४५ से २५५ तक प्रकाशित हुआ है उसमें भी व्यवहारनयको सत्य सिद्ध किया है । वे वाक्य निम्न प्रकार है यदि निश्चय सस्यापिहित है सो वा अली अक्षा दी है। गदि गवतारको अपेक्षासे हो (मी) उसे वैसा मान लिया जाय तो दन्ध-मोशकी चर्चा करना ही छोड़ देना चाहिये । कवियर पं० बनारसीदासजीने ऐसा किया था, पर अन्तमें उन्हें एकान्त निश्चयका त्याग करके व्यवहारकी शरण में आना पड़ा। आचार्य कुन्दकुन्दन जो व्यवहारको अमृतार्थ कहा है यह व्यवहारको अपेक्षा नहीं, किन्तु निश्चयको अपेक्षासे कहा है। व्यवहार अपने अथमें उतना ही सरय है, जितना कि निश्चय । आपने लिखा है कि 'निरपेक्षा नया मिथ्या यह वचन वस्तुसिद्धि के प्रसंगमें आया है और प्रकृतम मोक्ष-मार्गकी प्रसिद्धि की जा रही है। अतएव प्रकृत में उसका उपयोग करना इष्ट नहीं है।' किन्तु आपका ऐसा लिखना आगमानुकूल नहीं है। प्रथम तो बस्तुसिद्धिसे हो मोभ-मार्गकी प्रसिद्धि है, वस्तुसिद्धि और मोक्ष-मार्गको प्रसिद्ध दो नहीं हैं। दूसरे मोत्र-मार्गको प्रसिद्धि भी द्वयनयाचीन हो हैं, क्योंकि निश्चयव्यवहार मोक्षमार्ग साध्य-साथकरूप है। इन दोनों में से किसी एकके अभाव में मोक्षकी सिद्धि (प्राप्ति) नहीं हो सकती। इसी बातको धो जगसैन आचार्य भी पंचास्तिकाय ग्रन्थका तात्पर्य बताते हुए टीकाके अन्नमें लिखते हैं अथैव पूर्वोकप्रकारेणास्य प्राभृतस्य शास्त्रस्य वीतरागस्वमेत्र तात्पर्य ज्ञातव्यं । तच्च वीतरागवं निश्चयध्यपहारनयाभ्यां साध्यसाधकरूपेण परस्परसापेक्षाभ्यासंघ भवति मुक्तिसिद्धये न च पुनर्निरपेक्षाभ्यामिति वार्तिक । तद्यथा-ये केचन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धारमतवसम्यकश्रवानज्ञानानुष्ठानरूपनि मोक्षमार्गनिरपेनं केवल शुभानुष्टारूपं ग्यवहारनयमंत्र मोक्षमार्ग मन्यते तेन तु सुरलोकादिक्लेशपरम्परया संसारे परिभ्रमम्तीति । यदि पुनः शुखात्मानुभतिलक्षणं निश्चयमोक्षमाग मन्यते निश्चयमोक्षमार्गानुष्ठानशक्त्यभावानिश्चयसाधक शुभानुष्ठानं च कुर्वन्ति तहि सरागसम्यग्रयो भवन्ति परम्परया मोक्षं लभन्त इति व्यवहारकान्तनिराकरणमुख्यत्वेन वाक्यद्वयं गतं । अपि केवलनिश्चयनयावलंबिन: संतोऽपि रागादिविकल्परहितं परमसमाधिरूपं शुन्हामानमालभमाना अपि तपोधनाचरणयोग्य पडावश्यकाद्यनुष्ठानं श्रावक'चरणयोग्यं दानपूजाअनुष्टानं च दूषयंते तेप्युभयभ्रष्टाः संतो निश्चयव्यवहारानुष्ठानयोग्यावस्थान्तरमजानन्तः पापमेव यानन्ति । यदि पुनः शुद्धारमानुष्ठानरूपं मोक्षमार्ग तत्साधकं व्यवहारमोक्षमार्ग मन्यन्ते तर्हि चारित्रमोहोदयात् शक्त्यभावेन शुभाशुभानुष्टानरहिता अपि यद्यपि शुन्द्वात्मभावनालापक्षशुभानुष्ठानरसपुरुषसहशा न भवन्ति तथापि सरागसम्यकत्वादिन्यवहारसम्यग्दृष्टयो भवन्ति परम्परया मोक्षे च लमंते Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( स्वानिया) तत्त्वचर्चा इति निश्चय कान्तनिराकरणमुख्यस्वेन पाश्यतयं गतं । ततः स्थितमेतनिश्चयव्यवहारपरस्परसाधकमाबेन रामादिधिकल्परहितपरमसमाधिबलेनैव मोक्षं लभते ।।१७२।। अर्थ—अब पूक्ति प्रकार इस ग्रन्थका तात्पर्य वीतरागता ही जानना चाहिये । वह वीतरागता निश्चय व व्यवहारमय वारा साध्य-साधकरूपसे परस्पर सापेक्षतासे ही मुक्ति कार्यकी सिद्धि होती है, किन्तु दोनों नयोंकी परस्पर निरपेक्षतासे मुक्तिकी सिद्धि नहीं होती । जो कोई, विशुद्ध ज्ञानस्वभावमयो शुद्धात्मतत्वका श्रद्धान-ज्ञानानुष्ठानरूप निश्चयमोक्षमार्गको अपेक्षारो रहित, मात्र शुभ आचरणरूप व्यवहारनयको ही मोक्षमार्ग मानता है वह स्वर्ग आदिके संक्लेश भोगकर परम्परासे संसारमें भ्रमण करता है। यदि वही जीच पुनः शुद्धात्मानुभूतिमयी निश्चयमोक्षमार्गको मानता है, निश्चय मीक्षमार्गरूप अनुष्ठान करनेको शक्ति न होनेसे, निश्चयका साषकरूप शभ अनुष्ठानको करता है तो वह सरागसम्यग्दष्टि होता हुआ परम्पराय मोरको प्राप्त करता है। इस प्रकार व्यवहार एकान्नके निराकरणको मुख्यतासे दो घाश्य ही कहे गये। निश्चय एकान्तका कथन जो केवल निश्चयके अवलम्बी है वे भो, रागादि बिकल्परहित परम समाधिरूप शुद्धात्माको प्राप्त न करनेपर भो तरुचरणके योग्य षडावश्यक प्रादि अनुष्ठान अथवा श्रावकाचरणके योग्य दान-पूजादि अनुष्ठानको हेयरूप (अन्धरूप) मानकर उनसे भ्रष्ट होता हुआ अर्थात् उन चरणोंको न करता हुमा निश्चय व्यबहाररूप अनुष्ठानके योग्य अनेकान्त रूप अवस्थाको नहीं जाननेसे पापको ही बांधता है । यदि पुन: बह जीव शुद्धात्मानुष्ठानरूप निश्चय मोक्षमार्गका सापक व्यवहार मोसमार्गको मानता है फिर भी बारित्रमोहके उदयके वश शक्तिके अभावसे शुभाशुभ अनुष्ठान नहीं करता है। यद्यपि शुखात्मभावनासे सापेक्ष शुभ अनुष्ठानमें रत ऐसे पुरुषके सदृश नहीं होता तयापि सरागसम्यक्त्व आदि सहित व्यवहार सम्यग्दृष्टि होता है और परम्परा मोक्षको प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार निश्चय एकान्तके निराकरणको मुख्यतासे दो वाषय कहे गये। इससे यह निश्चित होता है कि निश्चय और व्यवहार नोंमें परस्पर साध्य-साधकभावके द्वारा सापेक्षता रखते हये रागादि बिकल्प-रहित परम समाधिके बलसे हो मोक्षफी प्राप्ति होती है। - थी अमृत चन्द्रसूरि भो पंचास्तिकाय गाथा १७२ को टोकामें कहते हैं कि केवल निश्चयनयसे भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होतो और केवल व्यवहारमयसे भो मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । इस प्रकार निश्चयाभासो और व्यवहाराभासीका, मथन किया गया है। निश्चय और व्यवहारके अविरोधसे ही मोक्षको प्राप्ति होती है। सूरिजी इस बातको इन वाक्यों द्वारा कहते हैं जो ध्यान देने योग्य है तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिाहये न पुनरन्यथा । अर्थ-व्यवहार और निश्चयका अविरोधपूर्वक अनुसरण करते हुए जो यह वीतरागता प्राप्त होती है उसोसे मोक्षको सिद्धि होती है, अन्य प्रकारसे मोक्षकी सिद्धि नहीं। 'पर्यायबुद्धि तो तू अनादिकालसे बनाए चला आ रहा है' इस वाक्यके लिखनेसे यदि आपका मह अभिप्राय रहा हो कि 'व्यवहार नय अभतार्थ है, इसलिये पर्यायका ज्ञान श्रद्धान निरर्थक है, मान द्रव्यज्ञान अर्थात् एकान्त निश्चयनयसे मोक्षकी प्राप्ति हो जायगो सौ ऐसा अभिप्राय उचित नहीं है। द्रव्य (स्वभाव) Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७५३ इस दृष्टिमें अर्थात् स्वभावग्राही निश्चयनममें तो न बंध है और मोक्ष न है। पर्यायकी अपेक्षा ही बंध या अशुद्धता है। उस बन्ध या अशुद्धताका क्षय करके पर्यावको अपेक्षा हो मोच या शुद्धता प्राप्त करनी है। श्री पंचास्तिकायके आधारसे ऊपर यह सिद्ध किया जा चुका है कि निश्चय और व्यवहार दोनों अविरोध आश्रयसे मोक्षको प्राप्ति है। जो एकान्तसे निश्erest अवलम्बन लेते हैं वे मोक्षको तो प्राप्त करते हो नहीं, किन्तु उल्टा पापबन्ध हो करते हैं। आशय अनेकान्तपर दृष्टि जानेका था, क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि दुर्लभ मनुष्य भव पाकर भी जोव किसी न किसी एकान्त मिथ्या मान्यता के चक्कर में फँस जाता है। कोई तो एकान्त कालक श्रद्धा करके यह विचार कर, कि जब मेरी काललन्धि आयेगी उस समय मेरा कल्याण हो जावेगा और मेरी बुद्धि भी उसी समय कल्याणकी ओर लगेगी और कानलब्धि बिना कल्याण हो नहीं सकता, कल्याणमागमें पुरुषार्थ होन हो जाता है। कोई भक्त या होनहारके एकास पक्षको ग्रहणकर सोता है कि जब मेरे कल्याही भक्ष्यित होगी उसी समय मेरा कल्यान होगा उसके पूर्व या पश्चात् नहीं हो सकता, ऐसा सोचकर कल्याणमार्गसे वंचित रह जाता है । अन्य कोई सोचता हूँ कि मेरा कल्याण तो नियति अपर नाम क्रमबद्ध पर्यायके आधीन है, में कल्याण करनेमें स्वाधीन नहीं हूं। विचारता है कि जो कुछ भी अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार हो रहा है वह सर्व निति जिसमें कोई हेर नहीं कर सकता यदि में अन्यायादिरूप होता है व्रत वे सच नियति के अधीन हैं, मैं तो सर्वथा निर्दोष हूँ। कोई संयम व चारित्रको मात्र बन्धका कारण जानकर उनसे पराङ्मुख रहता है और स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है। ऐसे जीवोंकी दृष्टि अनेकान्तपर लानेके लिये यह प्रश्न था अनेकारतका ही उपदेश यवंशने दिया है। 'बनेात' जैनधर्मको विशेष देन है और अनेका दृष्टि मोक्षमार्ग है इति । नोट- इस विषय में प्रथम १, ४, ५, ६ और १७ पर दृष्टि दालिये तथा इनके प्रत्येक दौरका विषय देखिये | इतना ही नहीं वह अधीन हो रहा है, दोष आदि लगते हैं, मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी | मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ प्रथम उत्तर में हमने स्पष्ट प्रकाश डालने वा शंका १६ मूळ प्रश्न १६ – निश्चयनय और व्यवहारनयका स्वरूप क्या है ? व्यवहारनयका विषय असत्य है क्या ? असत्य है तो अभावात्मक है या मिध्यारूप ? प्रतिशंका ३ का समाधान १. प्रथम द्वितीय दौरका उपसंहार निश्चयमय और अवान्तर भेदोंके साथ व्यवहारनयके स्वरूप और निर्विकल्प निश्वयय और उसके विषयका निर्देश कर दिया था। इन तोके Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा विषयमें कुछ मिलने के लिए शेष नहीं रहने दिया था। इन क्योंका इस पद्धति जिससे निश्वयनय भूतार्थ क्यों हूँ और नय अभूतार्थ क्यों कहे गये है विषय गहन होते हुए भी उसे सरल करनेका प्रयत्न किया गया था। अपने दूसरे दौर में अपर पक्ष हमारे प्रथम उत्तरका पढ़कर उसे अपने प्रश्नका उत्तर नहीं माना है इसका हमें आश्चर्य है । वह हमसे क्या कहलाना चाहता था यह उसके द्वितीय दौरमें उपस्थित किये गये निरुपणसे स्पष्ट हो जाता है। इसके प्रारम्भ में उम पक्ष ने इधर-उधर को कुछ बातोंका संकेतकर असद्भूत हारको विषयभूत व्यवहार क्रियाओंपर प्रकाश डाला है और इन क्रियाओंके आधारपर निश्वयस्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्ति अथवा मोक्ष की प्राप्ति बतलाई है। विवेचन किया गया था इसका स्पष्ट ज्ञान हो जाय । फलस्वरूप हमें अपने दूसरे दौर में उत्तर लिखते समय अपनी दृष्टिको प्रस्तुत प्रतिशंका में वर्णित विषयका आगमानुसार स्पष्टीकरण करनेकी दिशा में ही विशेषरूपले केन्द्रित रखना पड़ा। इसमें उन सब feaster स्पष्टीकरण किया गया है जिनका निर्देश अपर ने अपनी प्रस्तुत प्रतिकार्य किया है। २. दो प्रश्न और उनका समाधान सत्काल प्रतिशंका के आधारसे विचार करता है। इसके प्रारम्भ में अपर पर मूल प्रश्नको चार भागों में विभक्त करनेके बाद अपनी पुरानो शिकायतको पुनः दुहराया है। साथ ही हमने जिन ग्रन्थोंके प्रमाण दिये है उनमेंसे एक पुस्तक के कथनको अर्थ विरुद्ध बतलाकर लिखा है कि ऐसी पुस्तकेवाको लिखकर व्यर्थ कलेवर बढ़ा दिया गया है। यदि ऐसा न किया जाता तो सुन्दर होता अपर पक्ष किस पुस्तकको अर्थ विरुद्ध समझता है और क्यों समझता है उसका उसको ओरसे कोई खुलासा नहीं किया गया। इससे मालूम पड़ता है कि उसकी ओरसे यह टोका आवेश वदा हो को गई है। जिस पुस्तकका स्वाध्यायकर हजारों ही नहीं, लाखों नर-नारी अपना कल्याण करते हों उसे आवेशवा कारण आर्यविरुद्ध घोषित करना अनर्थकर घटना ही मानी जायगी। आगे अनेकान्तका स्वरूप लिखने के बाद अपर पक्षने लिखा है- 'एक वस्तु में विवक्षाभेदसे दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते हैं, अतः उन दोनों धर्मो से प्रत्येक धर्मको विवक्षाको ग्रहण करनेवाला पूराय्-पृथक् एकएक नय है।' यह अपर पथके यक्स यका कुछ अंश हूँ । इस परसे विचारणीय दो प्रश्न उद्भूत होते हैं१. एक वस्तु विभेद दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते हैं, क्या ऐसा वस्तुका स्वरूप है ? २. क्या प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करना यह नय है ? आगे इनका कमसे समाधान किया जाता है १. किसी भी वस्तु कोई भी धर्म विवथा भेदसे नहीं रहा करता क्योंकि प्रत्येक धर्म वस्तुका स्वरूप होता है बोर जो धर्म जिस वस्तुका स्वरूप होता है वह स्वतः सिद्ध होता है। प्रयोजनव विवक्षा एक धर्मको मुख्यकर और दूसरे धर्मको गौणकर व्यवहारकी प्रसिद्धिके लिए वस्तुकी सिद्धि करना अन्य बात है | इसो तथ्यको स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि अ० ५ सू० ३२ में लिखा है अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन: प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिदस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीय मिति यावत् । तद्विपरीतममर्पितम् प्रयोजनाभावाद सवोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीमूमन पंमियु Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७५५ च्यते । अर्पितं चानवितं चापितानपिंते । तास्थ सिद्धेरपितानर्पित सिद्धेः, नास्ति विरोधः । तथथा - एकस्य देवसम्य पिता पुत्री भ्राता भागिनेय इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्वजन्यस्त्रादिनिमित्ता न विरुध्यन्ते, अर्पणाभेदान् । पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यापणया नित्यम्, विशेषापणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोधः । तच सामान्य विशेषौ कथञ्चित् भेदाभेदाभ्यां व्यवहार हेतू भवतः । प्रयोजनवदा अनेकान्तात्मक वस्तुके जिस किसी धर्मकी विवक्षा द्वारा प्राप्त हुई प्रधानताका नाम अर्पित है। अर्पित अर्थात् उपनीत यह इसका तात्पर्य है। उससे विगरीत अर्पित है। प्रयोजन न होनेसे सत्की भी अविवक्षा होती है। उपसर्जनी भूल का नाम हो अनवित है। इन दोनोंका अतिं व अनपितं व अर्पितानपि ऐसा इन्द्र समान है। उनसे होनेवाली सिद्धि ही अर्पितानतिसिद्धि है, इसलिए कोई विशेष नहीं है । यथा - एक देवदत्त के जनकत्व तथा जन्यस्त्र आदि निमित्तक चिता, पुत्र, भ्राता और भागनेय इत्यादि सम्बन्ध अर्पणाभेदसे विरोधको प्राप्त नहीं होते। पुत्रकी अपेक्षा पिता है, पिताको अपेक्षा पुत्र हैइसी प्रकार और भी उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्यको अर्पणाको अपेक्षा नित्य है और विशेषको अर्पणा को पेपर अनित्य है। इसलिए कोई विरोध नहीं है। वे सामान्य और विशेष कथंचित् भेद और अभेदके द्वारा व्यवहारके हेतु होते हैं 1 इस विषय में तत्त्वार्थवालिक और तत्वार्थश्लोकवातिकका भी यही आशय । आप्तमीमांसा कारिका ७५ पर दृष्टिपात करनेपर उसका भी यही आशय प्रतीत होता है। इस तथ्यको स्पष्टरूपसे समझने के लिए अष्टमस्रोका यह कथन ध्यानमें लेने योग्य है न हि कर्तुस्वरूपं क्रमपिक्षं कर्मस्वरूप या कपेक्षम्, उमयासस्त्र प्रसंगात् । नापि कर्तृत्वव्यवहारः कर्मव्यवहारो वा परस्परानपेक्षः कर्तृश्वस्य कर्मनिश्वयावसेयत्वात् कर्मस्वस्थापि कर्तृप्रतिपतिसमधि गम्यमानत्वात् । , कर्ताका स्वरूप कर्मसापेक्ष नहीं है तथा कर्मका स्वरूप कर्तृसापेक्ष नहीं है. क्योंकि इस प्रकार दोनोंके असवका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु कर्तृत्वव्यवहार और कर्मत्व व्यवहार परस्पर निरपेक्ष भी नहीं है, क्योंकि कर्तृत्बका ज्ञान कर्मके निश्चयपूर्वक होता है । उसी प्रकार कर्मत्वा भी ज्ञान कर्ता के निश्चयपूर्वक होता है । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस द्रश्य में सत्-असत् आदि जिसने धर्म उनका स्वरूप स्वसः सिद्ध है। उनका व्यवहार परस्परकी अपेक्षा से होता है इतना अवश्य है और इस प्रकार परस्पर सापेक्षभाव से सिद्धि करनेवाला जो नय है यहो व्यवहारमय है । अतएव अपर पक्षका यह लिखना आगम, अनुभव और तर्कके विरुद्ध है कि एक वस्तुमें विवक्षाभेदसे दो प्रतिपक्ष धर्म पाये जाते हैं।' किन्तु उसके स्थान में यही निर्णय करना चाहिये कि प्रत्येक वस्तुमें जितने भी धर्म पाये जाते हैं उनका स्वरूप स्वतः सिद्ध होता है । २. दूसरा प्रश्न है कि 'क्या प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करनेवाला नय है।' समाधान यह है कि किसो विवक्षाको ग्रहण करनेवाला नय नहीं कहलाता, किन्तु नाना धर्मयुक्त वस्तुमें प्रयोजन वश एक धर्मद्वारा वस्तुको जाननेवाला श्रुतविकल्प नय कहलाता है। अपर पक्ष स्वामी कात्तिकेयानुप्रेक्षाको जो २६४ वीं गाथा उद्धृत को है उससे भी यही सिद्ध होता है। उक्त गाथाका तात्पर्य लिखते हुए अपर पक्ष स्वयं इन शब्दोंको लिखकर हमारे उक्त अभिप्रायको स्वीकार किया है। उस पक्ष द्वारा लिपिबद्ध किये गये ये शब्द Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा इस प्रकार है-'कोई भी एक नय वस्तुके पूर्ण स्वरूपको नहीं कह सकता | नय तो शक धर्ममुखेन वस्तका कथन करता है। इतना अवश्य है कि उक्त वाक्यमें 'नय तो' पदके आगे 'प्रयोजनवश' या 'विवक्षित' पद लगा देना उपयुक्त प्रतीत होता है। इस परसे यह निश्चित हो जाता है कि अपर पचने नयका लक्षण करते हुए जो यह लिखा है-'अतः उन दोनों धर्मोमें से प्रत्येक धर्मकी विवक्षाको ग्रहण करनेबाला पुथक्-पृथक् एक-एक मय है।' वह ठीक नहीं है। अपर पक्षने 'प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक हैं वह स्त्रीकार करके भी उसको पृष्टि में आचार्य अमृतचन्द्रका मात्र 'परस्परविरुदशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः' इतना वचन उद्धृत किया है। किन्तु मूलभूत सिद्धान्तका सूचक प्रारम्भका समग्र वचन छोड़ दिया है । वह इस प्रकार है तत्र यदेव तत् सदेवातत् अदेकं तदेवानेकं यदेव सत् तदेवासत् यदेव नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकं परस्परविरुवशक्तिलयप्रकाशममनेकान्तः । जो तत है वही अतत है, जो एक है वही अनेक है, जो सत है वही असत तथा जो नित्य है वही अनित्य है ऐसे एक वस्तुमें वस्तुत्वको निपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो दाक्तियोंका प्रकाशित होना अनेकान्त है। यहाँ 'एक वस्तु में वस्तलको निपजानेवाली' यह मल सिद्धान्तको सूचित करनेवाला वचन है। अपर पक्षने इस वचमको छोड़कर अनेकान्तके स्वरूपपर इस तुंगसे प्रकाश डालने की चेष्टा की है जिससे अनेकान्तके स्वरूपपर दृष्टि न जाकर असद्भूत व्यवहारमयके विषयको विवक्षित एक वस्तुका धर्म सिद्ध किया जा सके । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि विवक्षित एक वस्तुके बस्तृत्वको मिगजानेवाले परस्पर विरुद्ध दो धर्म ही एक प्रस्तुमें पाये जाते है । इससे स्पष्ट है कि एक बस्तुके किसी भी धर्मका दूसरी बस्तुमें अत्यन्ताभाव है। सबाहरणार्थ जिस जीवमें भव्यत्व शक्ति हो उसमें अभवमत्व शक्तिका सद्भाव नहीं हो सकता। यदि इन दोनों शक्तियोंका अस्तित्व एक आत्मामें स्वीकार कर लिया जाय तो वस्तुके वस्तुत्वका ही नाश हो जायगा । शंका-समाधानके रूपमें इस विषयको स्पष्ट करते हुए धवला पु० १ पृ० १६७ में लिखा है अस्येकस्मिन्नामनि भूयसा सहारस्थानं प्रत्यविरुष्टानां सम्भवो नाशेषाणामिति चेत् ! क असाह समस्तानामप्यवस्थितिशिनि, चैतन्याचैतन्यभन्याभल्यादिधर्माणामध्यक्रमणैकारमन्यवस्थितिप्रसंगात् । किन्तु येषां धर्माणां नात्यन्ताभावो यस्मिनात्मनि सन्न कदाच्चित्क्वचिदनमेण तेषामस्तिस्वं प्रसिजानीमहे । शंका-जिन धर्मोका एक आत्मामें एक साथ रहने में विरोध नहीं है, वे रहें, परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मामें नहीं रह सकते ? समाधान-कौन ऐसा कहता है कि समस्त हो धर्मोको अवस्थिति है। यदि समस्त धर्मोकी एक साथ एक आत्मामे अवस्थिति मान लो जाय तो चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदिका भी एक साथ एक आत्मामें अवस्थितिका प्रसंग आ जायगा। इसलिए जिन पौका जिस आत्माम अत्यन्ताभाव नहीं है उसमें क्वचित् कदाचित् अक्रमसे उनका अस्तित्व जानते हैं । इसी तथ्यको और भी स्पष्ट करते हुए श्रवल पु.१ पृ. ३३५ में लिखा हैनियमेऽभ्युपगम्यमाने एकान्तबादः प्रसजतीति चेत् ? न, अनेकान्तगर्मकान्तस्य सवाविरोधात् । शंका-सम्यग्मिथ्यात्व गणस्थानमे पर्याप्त ही होते हैं ऐसे नियमके स्वीकार करने पर एकान्तवावका प्रसंग आता है ? Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९६ और उसका समाधान समाधान नहीं, क्योंकि अनेकान्तगर्भ एकान्तफा सत्व स्वीकार करने पर कोई विशेष नहीं आता। ये आगमके दो प्रमाण है । इनसे गम्प अनेकाका और सम्यक् अनेकान्तगर्भ सम्बएकान्तका क्या स्वरूप इस पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। जो मात्र परस्पर विरोधी अनेक धर्मोका एक आत्मामें सद्भाव स्वीकार कर उसे कहते हैं उनका यह कथन किस प्रकार अपनार्थभूत है इस पर उक्त समय समग्र से सुन्दर प्रकाश पड़ता है। एक आध्या में एक पथ परस्पर विरोधी ऐसे हो धर्मयुगल स्वीकार किये गये हैं जो तु वस्तुवादक अगर पक्षने अनेकान्तका जो स्वरूप निर्वेश किया है वह कैसे अगम अन्त विरुद्ध है यह ज्ञात हो जाता है। ३. निश्चय और व्यवहारतयके विषयमें स्पष्ट खुलासा और पर्यायायिका आगे अगर पक्षने नक्के व्यार्थिकनय और पर्यायाधिकन ये दो भेद करके द्रव्याभिकनवको निश्चयनत्र तथा इसकी पुष्टि समयसार गाथा ५६ को आत्मस्वाति टोकावे की है अम विचार यह करना है कि अपर ने जो पाकिनवको निश्चयन और पर्याय व्यवहारनय लिखा है कि है और किस अपेक्षासे ठोक नहीं है। हमने अपने प्रथम उत्तरमे प्रयोजन विशेषको लक्ष्य रखकर रामसार आदि अध्यात्म ग्रन्थोंमें निश्वयनय और व्यवहारनयका जिल रूपमें स्वरूप निर्देश किया गया है उसका सुष्ट खुलासा करनेके बाद उनके अन्त में यह सूचना कर दोघी कि जहाँ पूर्वोक दृष्टिसे निश्चयनय स्ववहारनयका निरुपण किया गया हो उसे वहाँ उस दृष्टिसे और जहाँ अन्य प्रकार से निश्चयनय-व्यवहारनयका निरूपण हो वहाँ उसे उस प्रकार से दृष्टिपथ में लेकर उसका निर्णय कर लेना चाहिए। उक्षणादि दृष्टि से इनका कथन अन्यत्र किया हो है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए। किन्तु अपर पहने इम और ध्यान न देकर लगता है कि आगमने बिना भी द्रव्याविनयका कथन है उस सबको विश्वयनका कथन मान लिया है और जितना भी पर्यायाकनका कथन है उस सबको व्यवहारनयका कथन भाग लिया है। आचार्य अमृतचन्द्र समयसार गाथा ५६ में जो निश्यनय-यवहारनयका स्वरूप निर्देश किया है वह सब मात्र समयसारकी रुपनीको ध्यान में रखकर ही है. इसलिए उसे उक्त प्रकार से समस्त द्रव्याधिलके और समस्त मदर लागू करना उचित नहीं है। नवग्रह ० ६९ में यह गाया आई है पर्यायार्थिक निच्छप-वहारणया मूलिमभेया गयाय सब्वाणं । छिसाइणहेउ जयदम्बधियं मुह || १८३ || सथ क्योंके मूल भेव दी है— निश्चयनय और व्यहारन और द्रव्याविकलयको जानो ॥१८३॥ इसके बाद पूगः यहाँ लिखा है दो चैव य मूखणया मणिया अपणे असंख-संखा ते सप्पेबा ७५७ ये सब उन दोनों क्योंके भेद जानने चाहिए ।। १८४ ॥ उनमे निषयको सिद्धिका हेतु दध्वथि पज्जयस्थिगया । ||१८४|| विनय और पर्यायामि ये दो मूल भेद कहे गये हैं। अन्य जिसने संख्या असंख्यात नय है Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा इमसे यह बात स्पष्ट हो जाती आगमा महासभामा वि.१२. भेद तथा उनके उसर भेद भिन्न दृष्टि किये गये हैं और समयमार झादिम निश्चयनय और.ज्यवारनय ये दो भेद भिन्न दृष्टिसे किये गये है। समयमार आदि अध्यात्मशास्त्राम क्या दृष्टि अपनाई गई है इसका स्पष्टोफरण नमचक्रसंग्रह पू०८८ को इस गाथासे हो जाता है तच्चं पि हेअभियर हेयं खलु भणिय ताब परदवं । णियदव्यं पि य जाणसु हेयादेयं ष णयजोगे ।।२६०।। तत्त्व हेय और उपादेयके भेदसे दो प्रकारका है । पर द्रव्य तो नियमसे हेय ही कहा है। निज द्रव्यका भी नययोगसे हेय और उपादेय जानो ॥२६०।। निज धर्म क्या हेय है और क्या उपादेय है इसका खुलासा करते हुए वह्नों लिखा है मिच्छा-मरागभूयो हेग्रो आदा हवेइ णियमेण । तश्विरीयो झेओ गायत्रो सिद्धिकामेण ॥२६॥ मिथ्यात्व और सरागरूप आत्मा नियमसे हय है। सिद्धि के इच्छुक पुरुषको उमसे विपरीत आत्मा ध्येय जानना चाहिए ।।२६२।। इगी तथ्यको समसान्में इन शब्दोंमें स्पष्ट किया है-- पुग्गलकम्मं रागो तस्स विधागोदओ हवदि एसो। ण दु एस मम भावो जाणगमायो ? अहमिको ॥१९५।। राग पुद्गलकर्म है, उसका विषाकरूप उदय यह है, यह मेरा भाव नहीं, मैं तो निश्चयसे एक जायकभाव हूँ॥१९९।। इसको टोकामें आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदनविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भाषः, म पुममम स्वभावः । एष रंकोस्कीणेकज्ञायकभावोऽहम् । वास्तव में राग पुद्गलयम है, उसके उदयके विपाकसे उत्पन्न हुआ यह रागभाव है । यह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं तो यह रंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हैं। इससे अध्यात्ममें निश्चयन्यका विषय क्या है यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है। नयचक्रसंग्रहमें न्यायिक नयके जिन दस भेदांका निर्देश किया है उनमें एक परम भावग्राही व्यापिकनय मी है। उसका स्वरूप निर्देश करते हुए वह लिखा है गेण्हह दवसहापं असुद्ध-सुद्धोदयारपरिवत्तं । सो परमभावगाहो णायचो सिद्रिकामेण ।। १९९।। ओ अशुद्ध, शुद्ध और उपचारसे रहित मात्र द्रष्यस्वभावको ग्रहण करता है, शुद्धिके इच्छुक पुरुषों द्वारा वह परम भावनाही द्रव्याथिक नय जानने योग्य है ।।११।। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अध्यात्म निश्चयनयमें आगममें प्रतिपादित द्रव्यार्थिक नयके सभी भेदोका अन्तभाव नहीं होता। मोक्षमागको दृष्टि से उस में तो मात्र जायकस्वभाव आत्माको अपेक्षा परम भाग्राही द्रव्याथिकनयका ही ग्रहण का है। इसके सिवा द्रव्यानिकन म, पर्यायाधिकनय और Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७५९ उपचार के जितने भी भेद-प्रभेद है उन सबका व्यवहारनय में अन्सभ किया गया है। इतना अवश्य है कि जहाँ रागादि अज्ञानभावों का आत्माको कर्ता कहा गया है बही वह कथन अज्ञानभाव से उपयुक्त आत्मा को अपेक्षा ही किया गया है। ज्ञानभावसे तन्मय होकर परिणत आत्मा तो एकमात्र ज्ञानभावका ही कर्ता है। यहां ज्ञ भाव स्वभाव के अर्थ गृहोत हुआ है इतना विशेष जानना चाहिए । इतने विवेचन यह स्पष्ट हो जाता है कि अपर पद्मने जो द्रव्याधिकनको निश्वयनय और पर्यार्शनयमाको व्यवहारलय कहा है वह ठीक नहीं है। पंचास्तिकाय गाथा ४ में जो दो भेद चिकन और चिकन किये गये है उनका उस प्रकार मंद करनेका प्रयोजन भिन्न है। वहाँ पदार्थ व्यवस्थाकी दृष्टि मुख्य है और यहाँ नयाँके निश्चयनय और व्यवहारनय इन भेक करने में मोक्षमार्ग की ऋष्टि मुख्य है। परमागम में यथास्थान प्रयोजनको ध्यान में रखकर ही नयों की योजना को गई है। ऐसा एक भी नय या उपनयका भेद नहीं है जिसको प्रयोजनके बिना योजना की गई। हो । उदाहरणार्थ चौबास सोर्थकरोम किसीको पीतवर्ण, किसोको शुक्लवर्ण और किसोको हरितवर्ण आदि लिखा है सो ग्रह जिस प्रयोजनको ध्यान में रखकर लिखा गया है उसी प्रयोजनको ध्यान में रखकर उसको स्वीकार करनेवाले बसद्भूत व्यवहारनयकी भी योजना की नई है। यहाँ असनका अर्थ स्पष्ट है, जीव में वर्ण नहीं हैं. जीव उसको बनानेवाला भी नहीं है। फिर भी उसे जीवका कहना यह असद्भूत व्यवहारबचन है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रयोजनको व्यानम रखकर नयाँका विचार कर लेना चाहिए । यहाँ अपर पक्षने समयसार गाथा १४१ तथा समयसार कलम १६६ से १८९ के आधार से जिन विविध धर्मयुगलों को चरचा की है उनके विषय में भी वही स्वाय लागू कर लेना चाहिए। कौन धर्म ate सद्भूत हैं और कौन सद्भूत नहीं हैं ऐसा करने से एक और दो द्रव्यों पार्थक्य स्पष्ट प्रतिभासित होजाता है। ऐसा यथार्थ ज्ञान कराना ही नयोंका प्रयोजन हैं । एक द्रव्यके गुण-धर्मको दूसरे द्रव्यका स्वधर्म बतलाना यह नयोंका प्रयोजन नहीं है । यह नयज्ञानकी अपनी विशेषता है कि वह उपचरित धर्मको उपचरितरूपसे, विभावधर्मको विभावरूपसे और स्वभावधर्मको स्वभावरूपसे हो प्रसिद्ध करता है । जिसका जो धर्म हो उसकी उसमें नास्ति कही जा यह तो हमारा कहना है नहीं । किन्तु जिस वस्तुका जो धर्म हो न हो उसको उसमें भूतार्थ-यथार्थ से सिद्धि की जाय इसे हम हो क्या अपर पक्ष भी स्वीकार नहीं कर सकता । जैसे कर्मकी अपेक्षा जीव बद्धस्पृष्टता घर्म नहीं है, क्योंकि व्यवहारसे जिस प्रकारकी वस्पृष्टता पुद्गलको मुद्गल के साथ बनती है वैसो बढस्पृष्टता मुर्त पुद्गलकी अमूर्त जीवक्रे साथ नहीं बन सकती । इस तथ्यको स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थरलोकवातिक्रमं लिखा है जीव-कर्मणोः अन्धः कथमिति चेत् ? परस्परं प्रदेशानुप्रवेशान स्वकल्यपरिणामात् तयोरेकद्रव्यानुपपत्त ेः । 'चेतनासनादेखी अन्धं प्रत्येकतां गत इति वचनात्तयोरेकत्वपरिणामहेतुन्धाऽस्तीति चेत् न, उपसर्पतस्तदेकत्ववचनात् । भित्री लक्षणतोऽत्यन्तमिति नृत्यभेदाभिधानात् । 1 शंका- जीव और कर्मका बन्ध कैसे है ? समाधान - परस्पर प्रदेश के अनुप्रवेश से उनका बम्ध है, एकल परिणामरूपसे उनका बन्ध नहीं है, क्योंकि दोनों एक द्रव्य नहीं हो सकते । शंका- 'चेतन और अचेतन ये दोनों बन्धके प्रति एकको प्राप्त है इस प्रकारका वचन होने से उन दोनों का एकत्व परिणामका हेतुभूत बन्ध ? Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा समाधान----नहीं, क्योंकि वे दोनों परस्पर एक दूसरेका उपसर्पण करते हैं, इसलिए आगममें उन्हें बन्धकी अपेक्षा एक कला है। वास्तवमें वे दोनों लक्षणको अपेक्षा अत्यन्त भिन्न है इस प्रकार उन दोनोम द्रव्यभेद कहा है। यह बागम वचन है। इससे सिद्ध है कि जीवमें कर्म बद्धस्पष्ट है यह कथन उपचरितही है। पह निराधार कल्पना भी नहीं है, क्योंकि दूध और पानी के समान संसार अवस्थामें जानावरणादि परिणामसे परिणत कर्म राग-द्वेषादि परिणामसे परिणत जीवके और गग-द्वेषादि परिणामसे परिण जीव जानावरणादि परिणामसे परिणत कर्मके प्रति उपसर्पण करते हुए देखे जाते है। इसे ही आचार्य यहाँ 'एकत्वपरिणाम' पदसे व्यवहुत कर रहे हैं । जीब और कमका हममें गन्न अन्य कोई परिमाइन नहीं समझा। समयसार गाथा १४ की टोकामे आचार्य अमृतचन्दने 'भतार्थ' पद द्वारा जिस बद्धपष्टताका स्पष्टीकरण किया है वह यही है, अन्य नहीं। देखो, इस रूपसे जो कोई भव्य बनस्पसाको जानेगा वह लक्षणभेदसे दोनोंक भिन्न मी अवश्य जानेगा। और जो कोई भव्य जीव लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न-भिन्न जानेगा उसको दृष्टि स्वभावरूप तन्मय होकर परिणमे बिना रह ही नहीं सकती। आचार्य कहते है कि जीवमें कम बद्ध है ऐसा विकल्प भी रागके उत्थान पूर्वक होनेसे चेतन आत्माका निर्मल परिणाम नहीं है और उसी प्रकार जोत्रमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है ऐसा विकल्प भी रागके उत्थानपूर्वक होनेसे चैतन-आत्माका निर्मल परिणाम नहीं है। ये दोनों हो नयपक्ष है । जो आत्मामें अपने-अपने पक्षकी प्रसिद्धि करते हैं। आत्मामें कोन धर्म उपचरित रूपसे क्यों स्वीकार किया गया है और कोन धर्म उसो आत्माकं पर्यायस्वभावको प्रसिद्ध करता है और इसी प्रकार कौन धर्म उसी आत्माके द्रव्य स्वभावको प्रसिद्ध करता है, नम दृष्टिसे इसे पृथक-पृथक् जानकर अनेकान्तस्वरूप आत्माको प्रसिद्धि करना अन्य बात है। किन्तु उनमें से उपचरित धर्मको स्वीकार करनेवाले और पर्याय धर्मको स्वीकार करनेवाले विकल्पको दूरसे ही स्थागकर तथा द्रव्यस्वभावको स्वीकार करनेवाले विकल्पमे भी हेय बुद्धि रखते हुए अपने में निर्विकल्प साक्षात् समयसारस्वरूप आत्माकी प्रसिद्धि करना अन्य बात है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर समयसार गाथा १४२ की बात्मत्याति टीकाम आचार्य अमृतचन्द्र लिखते है यः किल जीवे बद्धं कमेति यश्च जीवबन्द कति विकल्पः स द्वितयोऽपि हि नयक्षप । य पुचैनमशिक्षामति स एवं सकलविकल्पासिंक्रान्सः स्वयं निर्विकल्पकविज्ञानघनस्वभावो भरवा साक्षास्समयसारः सम्भवति । 'जीवमें कर्म बद्ध है ऐमा विकल्प तथा 'जीवमें कर्म अबद्ध है' ऐसा विकल्प ये दोनों हो नयपक्ष है। जो नियमसे उभय पक्षका अतिक्रम करता है वह समस्त विकल्पोंका अतिक्रम करके समस्त विकल्पोंसे अतिक्रान्त होकर स्वयं निविकल्प एक विज्ञान वनस्वभावरूप होता हुमा साश्चात् समयसार होता है। अनेकान्तस्वरूप आत्माको स्वीकार करके निविकल्प विज्ञानघनस्वभाव आत्माको प्रसिद्धि कैसे होती है मह बतलाना समयलार गाथा १४१ आदिका प्रयोजन है । ६९ से लेकर 48 तकके कलशांकी रखना भी इसी प्रयोजनको ध्यानमें रखकर हुई है। यहां उनकी रचनाका अन्य प्रयोजन नहीं है। अनेकान्तस्वरूप वस्तुको प्रसिद्धि के कालमें सत-असत आदि दो-दो धर्म मुगलोंमसे एक-एक धर्मद्वारा बस्तुको प्रसिद्धि करनेवाला एकएक नय सापेक्षमावसे अपने-अपने विषयभूत धर्मद्वारा वस्तु की प्रसिद्धि करे इसका निषेध कौन करता है। माचार्य समन्तभद्रनं 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु सेऽर्थकृत् ।।१०८॥ घचन इसी अभिप्रायसे लिखा है । जिसका अनेकान्तस्वरूप वस्तुको सिद्धि करना मुख्य प्रयोजन है वह यदि नय दृष्टिको मुख्य कर तत्स्वरूप बस्तुको सिद्धि करना चाहता है तो उसे इसी मार्गका अवलम्बन लेता होगा। इसमें सन्देह नहीं। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७६१ किन्तु जो रागादि विभावभावों और बद्धस्पृष्टत्वादि उपचरित भावोंसे मुक्त अपने आत्माको प्रसिद्धि करना चाहता है उसे उक्त मार्गपर न चलकर स्वभावके अवलम्बनको हो सर्वस्व मानना होगा। यह है समयसार के कथनका प्रयोजनभूत सात्पर्य उसमें निश्चयनवको प्रतिषेधक स्वभाव और सद्भूत असद्भूत दोनों व्यवहारको प्रतिषेष्यस्वभाव ( समयसार गाथा २७२ में क्यों कहा यह स्पष्ट हो जाता है। इसका अर्थ उन दोनों नमो विषयको अस्वीकृति नहीं है । यदि ऐसा होता तो आचार्य मात्र एक जोवपदार्थका ही विवेचन करते, शेष अजीवादि आठ पदार्थोंका विवेचन ही नहीं करते और न ही याचार्य अमृतचन्द्र 'नवतवगतत्वेऽपि यदेवं न मुञ्चति ( स० क० ७ ) यह वचन हो लिखते । स्पष्ट है कि ऐसा लिखकर उक्त दोनों बचाने अनेकान्तस्वरूप वस्तुको अपनी दृष्टि में रखा है, उसका निषेष नहीं किया। अपर पक्ष 'जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए ही अपने पक्ष के अस्तित्वका निश्वय करने में व्यापार करते है उनमें समीचीनता पाई जाती है।' इस कथनको सार्थकता इस दृष्टिसे है । उसे हम अस्वीकार नहीं करते । हम हो क्या कोई भी व्यक्ति अस्वीकार नहीं कर सकता । किन्तु आत्मा में मोक्षमार्गको प्रसिद्धि निश्चयनय ( निश्चयनयके विषय ) के अव लम्बनसे ही हो सकती है। न तो प्रमाणके अवलम्बन से होती है और न ही व्यवहार के अवलम्बनसे होती है । यही कारण है कि मोक्षमार्गमें इसोको मुख्यता दी गई है । यसः अन्य सब हेय है, स्वभावका अवलम्बन हो उपादेय है, क्योंकि स्वभाव के अवलम्बन द्वारा तन्मय होकर परिणत होना ही मुख्य कार्य है, अतः निश्चयमय प्रतिषेधक स्वभाववाला होनेसे अन्य सबका प्रतिषेध करता है यह सिद्ध हो जाता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पद्मनन्दिपंचविंशतिका निश्वयपंचाशत् अधिकार में लिखा हैsa at मुक्तो मनेरमदात्मानम् । याति यदीयेन पथा तवेव पुरमश्नुते पान्धः ॥४८॥ जो जीव सदा आत्माको कमसे बस देखता है वह कर्मवद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता ( अनुभवता ) है वह मुक्त हो जाता है। ठोक है— पचिक जिस नगरके मार्ग जाता है उसी नगरको वह प्राप्त होता है ||४८६|| शय यह है कि जैसे बम्बई और कलकत्ता जानेवाले दोनों मार्ग अपनी-अपनी स्थिति सही है, जो बम्बई जाना चाहता है उसके लिए कलकत्ताका मार्ग हेय होनेसे निषिद्ध है और बम्बईका मार्ग उपादेय होनेसे उसका निषेध करनेवाला है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। 'सम्यग्दृष्टि जीव यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है ऐसा विभाग नहीं करते' यह ठीक है। किन्तु यह नय उपचरित धर्मद्वारा वस्तुको विषय करता है और यह नय जिस वस्तुका जो धर्म है उस द्वारा ही उस वस्तुको त्रिषय करता है, ऐसा विभाग तो करते हैं, अन्यथा मिट्टी के कर्तृत्व धर्मको कुम्भकारका स्वीकार कर लेनेपर मिट्टी और कुम्भकार में एकत्व प्राप्त होने से पदार्थ व्यवस्था हो नहीं बन सकती । यदि कहा जाव कि मिट्टोका कर्तृत्व धर्म भी घटकार्यको करता है और कुम्भकारका कर्तृत्व धर्म भी उसी घटकार्यको करता है तो एक कार्यके दो कर्ता मानने पड़ते है जो जिनागम के विरुद्ध है। अतः जिस रूप में जिस नयका जो विषय हूँ उस रूपमें उसे स्वीकार करनेवाला ही यह नम सत्य है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । १६ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ जयपुर (खानिया) तस्वचर्चा इस प्रकार अन्य-चचित विषयों के साथ परमागममें निश्वयनय और व्यवहारमयका किस रूपमें विवेचन हुआ है इसका संक्षेपमें स्पष्टीकरण किया । ५. समयसार गाथा १४३ का यथार्थ तात्पर्य समयसार गाथा १४३ में 'जो प्रमाण, नय और निक्षेपके समस्त विकल्पोंसे मुक्त होकर परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यज्योति, आत्मण्यातिरूप अनुभतिमात्र समयमार हो जाता है वह दोनों नयोंके कथनको आनता तो है परन्तु किसी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता अर्थात् समस्त नय विकल्पोंसे मुक्त हो जाता है।' यह कहा गया है, किन्तु अपर पक्ष इस गाथाका इस रूपमें अर्थ करता है जिससे यह मालूम पड़े कि इस गाथा द्वारा प्राचार्यने दोनों मयोंके कथनको एक समान मानने की प्रेरणा की है। इसे हम उस पक्षका अतिसाहस हो कहेंगे । समयसारकी वह गाथा इस प्रकार है दावि . पिये जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो । ण दुणयपक्वं गिम्हदि किंचि वि णयपक्खपरिहीणो ॥१३॥ समयप्रतिबद्ध अर्थात चित्स्वरूप मात्माको अनुभवनेवाला जीव धोनों नयोंके कथन को मात्र जानता ही है। परन्तु वह नयपक्षसे अर्थात नयों के विकल्पसे रहित होता है, इसलिए नयपक्षको नहीं ग्रहण करता ।।१४३॥ उक्त गाथाका यह सहो अर्थ है। किन्तु अपर पक्षने अपने अभिप्रायकी पुष्टि के लिये इसका यह अर्थ किया है जो पुरुष आत्मासे प्रतिबद्ध है अर्थात् आत्माको जानता है वह दोनों हो नयोंके कथनको केवल जानता है परन्तु नयपक्षको फुछ भी ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह नयों के पक्षसे रहित है अर्थात् किसी एक नयका पक्ष (बाग्रह) नहीं करना चाहिए। इस प्रकार ये वो अर्थ है । अब इनमें से कौन ठीक है इसका निर्णय करना है। श्री पद्मनन्दि आचार्य पचनन्दिपंचविंशतिका निश्चयपंचाशत् में लिखते है बद्धो पा सको वा चिरपी नयविचारविधिरेषः । सवनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसार ॥५३॥ चतन्य आत्मा बद्ध है अथवा मुक्त है यह नयविचारका विधान है। किन्तु जो साक्षात् समय सार है वह सब भयपक्षासे रहित है ॥५३॥ यहाँ पर 'नयपक्ष' शब्दका अर्थ विकल्पमात्रसे है इसका स्पष्टीकरण अगले इलोकसे हो जाता है नव-निक्षेप-प्रमितिप्रभृतिविकल्पोजिमतं परं शाम्सम् । शुन्दानुभूसिगोचरमहमेकं धाम चिद पम् ।।५।। जो नय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित है, उत्कृष्ट है, शान्त है, एक है और शुब अनुभतिरूप है वही चैतन्यधाम आत्मा में है॥५४।। इससे स्पष्ट है कि अपर पक्षने उक्न गायाका जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है। यदि वह उक्त गाथाओंको दोनों संस्कृत टोकाओं पर दृष्टिपात कर लेता तो वह उस परसे ऐसा विपरीत आशय कभी भी ग्रहण नहीं करता ऐसा हमारा विश्वास है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७६३ इसमें सन्देह नहीं कि मोक्षमार्गको दृष्टिसे विकल्पमात्र हेय है। परन्तु उसमें उसना विशेष है कि व्यवहारनय और व्यवहारनयका विषय ये दोनों तो सर्वथा हेय हैं ही, क्योंकि जिस प्राणीकी इनमें उपादेय बुद्धि होती है. वह नो मोक्षमार्गमें प्रयोजनभूत कथा सुननेका भी पात्र नहीं। किन्तु सविकल्प निश्चयनय और उसके विषयमें इतना विवेक है कि निश्चयनय स्वयं एक विकल्प होनेसे वह तो हेय है, परन्तु उसका विषयभूत आत्मा उदादेय है, क्योंकि तत्स्वरूप अनु भूतिका नाम ही समयसार है । अतः उक्त गाथा द्वारा आचार्य यह बतला रहे हैं कि समयप्रतिबद्ध अर्थात् ज्ञायकस्वरूप आत्मानभतिकसि परिणत आत्मा दोनों नयोंके कथनरूप न्य-पर्यायको मात्र जानता तो है परन्तु उनके विकल्पलाएसे नहीं परिणमला । यहाँ अपर पक्ष कह सकता है कि यदि ऐसी बात है तो निश्चयनय उपादेय है ऐसा कथन क्यों किया जाना है? समाधान यह है कि अध्यात्म में निश्चयनय और उ विषयमें अभेदको स्वीकार करके ही यह कथन किया जाता है । इतने विवेचन में यह स्पष्ट हो जाता है कि अपर पशने समयसार गाथा १४३ का जो आशय लिया है वह ठीक नहीं है। जिसके ५. विविध विषयोंका स्पष्टीकरण अब इस बात का विचार न कि जहां व्यवहारको गोनाहक दो पा पुन्य आदि कहा है उसका क्या तात्पर्य है ? १. इसके लिए सर्वप्रथम हम जयघवला पु०१ पृ० ८ का 'ण व यवहारणी चप्पलओ' यह उदाहरण लेते हैं। आचार्य बीरसेनने यह बचन गौतम स्थविरने मंगल क्यों किया इस तथ्य के समर्थन में लिखा है । विचारणीय यह है कि यदि मोक्षमार्गमें निश्चयनय और व्यवहारनय समानरूपसे पूज्य होते तो उनके चित्त में 'व्यवहारनय चपल नहीं है। इस प्रकारका वचन लिखकर उसके समर्थन करनेका विकल्प ही नहीं उठना चाहिए था। हमने यथासम्भव उपलब्ध पूरे जिनागमका आलोडन किया है, परन्तु इस प्रकारका विकल्प निश्वयन यके विषय में आचार्मने उठाया हो और फिर उसका समाधान किया हो यह हमारे देखने में अभी तक नहीं आया ओर न हो अपर पक्षने ही कोई ऐसा आगमप्रमाण उपस्थित किया जिससे उक्त बातका समर्थन होता हो। स्पष्ट है कि आमार्य वोरसेनने 'गच ववहारणी चप्पलओ'यह वचन व्यबहारनयसे बभिप्रायविशेषको पानमें रख कर ही लिखा है । वह अभिप्राय विशेष क्या हो सकता है इसका समाधान यह है कि वे इस वचन द्वारा निश्चयमूलक व्यवहारका समर्थन कर रहे हैं। ऐसा व्यवहार जो अन्तरंग में निश्चयको लिये हुए हो साधकके सविकल्प अवस्था में होता ही है। प्राचार्य उक्त बचन द्वारा ऐसे व्यवहारको बहजीवानग्रहकारी लिखकर उसका समर्थन कर रहे हैं, कोरे व्यवहारका नहीं। इसका आवाय यह है कि सबिकल्प अवस्था में साधकके देव-गुरु-शास्त्रको भक्ति-वन्दनारूप, पाँच अणुव्रत-महाव्रतरूप व्यवहार अवश्य होता है। किन्तु अन्तरंगमें वह निश्चयस्वरूप परिणतिको ही उस अवस्थामें उपादेय मानता रहता है । गुणस्थान परिपाटोसे आगे बढ़नेका यदि कोई मार्ग है तो एकमात्र यही मार्ग है, इसो तथ्यको ध्यानमें रखकर आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकलशमें लिखा भी है भेदविज्ञानतः सिडाः सिद्धा ये किल कंचन । अस्पैमावतो बद्धा बदा ये किल केचन ॥१३॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ जयपुर (खानिया ) तत्व जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं और जो कोई बँधे हैं वे उसीके अभाव से बँधे है । वीरसेन स्वामी आत्मज्ञानी महापुरुष थे । भला उन्हें उक्त वचन लिखते समय आगम के इस मूल अभिप्रायका विस्मरण कैसे हो सकता था । यदि अपर पक्ष इस वचन के प्रकाश में उक्त बचनका अर्थ करेगा तो उसे यह समझने में देर नहीं लगेगी कि निश्चयमूलक सम्यक् व्यवहारको ध्यान में रख कर ही उक्त वचन लिखा गया है। जैसा कि उनके इस कथनसे नळे प्रकार समर्थन होता है- पुण्णकम्मबंधाथीणं सव्वाणं मंगलकरणं जुतं ण मुणीणं कम्मऋषयकं क्खुचाणमिदिण बोजु, पुण्णबंधउपडि बिसेसाभावादो, मंगलस्सेत्र सरागसंजमस्स विपरिच्चागपसंगाड़ो । यदि कहा जाय कि पुण्यकर्म के बाँधने के इच्छुक देशप्रतियोंको मंगल करना युक्त है, किन्तु कर्मोंके are sure मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है, सो ऐसा कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि पुण्यबन्ध के हेतुपको अपेक्षा उनमें कोई विशेषता नहीं है। अन्यथा मंगलके समान उनके सरागसंयम के भी त्यागका प्रसंग प्राप्त होता है । यह वचन बड़ा महत्व रखता है। इसका प्रारम्भ इस ढंग से किया गया है जिससे यह मालूम पड़ता है कि देशी पुण्यकर्म बाँचने के इच्छुक होते हैं। किन्तु इस वचनका समाधान जिस ढंगसे किया गया है उससे यह स्पष्ट हो आता है कि चाहे वीतरागी मुनि हों या देशाती, अन्तरंग अभिप्राय दोनोंका एक ही प्रकारका होता है। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार वीतराग साधु पुण्यबन्धके अभिप्रायवाले नहीं होते वैसे देशप्रती भी नहीं होते। इस वचनसे जिन तथ्योंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है के ये हैं (क) चौतरागी मुनि और देशदतो दोनों ही पुण्यबन्धके अभिप्रायवाले नहीं होते । (ख) उनका लक्ष्य स्वभावप्राप्ति रहता है । (ग) जितने अंश में स्वभावप्राप्ति होती है, कर्मक्षपणा उतने ही अंशमें होती है । (घ) देशव्रत या सरागसंयम आदि कर्मक्षपणा हेतु न होकर पुण्यबन्धके हो हेतु है । (ङ) आचार्य वीरसेनने उक्त 'ण च ववहारणओ चप्पलओ' इत्यादि वचन व्यवहारतयकी मुख्यतासे लिखा है जो अपने साथ होनेवाले निश्चयको क्या महिमा है इसको प्रसिद्धि करता है । अन्यके कार्यको अन्यका कहना यह उपचरित व्यवहारका मुख्य लक्षण है । २. अपर पक्षने दूसरा उद्धरण पं० नं० पं० बि० के निश्चय पंचाशत्का दिया है। किन्तु इस वचनमें आचार्यने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है कि जिसके द्वारा निश्चयकी प्रसिद्धि हो, व्यवहार उसीका नाम है और इसी कारण व्यवहारनयसे उन्होंने इसे पूज्य कहा है। वस्तुतः यह श्लोक समयसार गाथा ८ के प्रकाशमें लिखा गया है। अतएव इस बच्चन के ज्ञाशयको ग्रहण करते समय आचार्य अमृतचन्द्रके इस कथनको सदा ध्यान में रखना चाहिए— एवं उन्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयः अथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद् व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः । इस प्रकार जगत् म्लेच्छ स्थानीय होनेसे और व्यवहार नय भी म्लेच्छभावास्थानीय होनेसे बह् परमार्थको कहनेवाला हूँ, इसलिए व्यवहार नय स्थापित करने योग्य है । किन्तु ब्राह्मणकोले नहीं ही जाना चाहिए इस वचनसे बहू ( व्यवहारनय) अनुसरण करने योग्य नहीं है- यह सिद्ध होता है । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७६५ 'व्यवहारका विषय एक द्रव्यको पर्याय है' यह लिखकर अपर पक्षने भेद विवक्षा में मात्र सद्भूत व्यवहारका निर्देश किया है। किन्तु एक अद्भूत व्यवहार भी है जिसका विषय मात्र उपचार इसे अपर पण भुला देता है | अपर पसने यहाँपर पद्मनन्दिवशितिका के जिस वचनको उद्भुत किया है उनमें 'मुख्योपचारविवृति' पद आया है जिससे निश्चयके साथ दोनों प्रकारके व्यवहारको सूचना मिलती | यदि ब उसमें आये हुए 'उपचार' पवसे केवल सद्भूत व्यवहारको हो स्वीकार करता है तो हम पूछते हैं कि वह 'जीवित शरीरको क्रिया से धर्म होता है' इस कथनको क्यों नहीं त्याग देता । उसे चाहिए कि वह यह स्पष्ट शब्दोंमें घोषणा कर दें कि जीवित शरीरको क्रियारो त्रिकालमें धर्म नहीं हो सकता और साथ हो उसे यह भी घोषणा स्पष्ट शब्दोंमें कर देनो चाहिए कि एक व्यका परिणाम दूसरे द्रव्यका कार्य अणुमात्र मी नहीं कर सकता। इतना ही क्यों उसे तो उक्त वचनके आधारसे यह भी घोषित कर देना चाहिए कि जितना भी व्यवहार है वह मोक्षप्राप्तिका यथार्थ हेतु तो त्रिकालमें नहीं है । उसमे मात्र निश्चयका ज्ञान होता है, इसलिए उसे आगम में स्थान मिला हुआ है । 'पर्यायों का समूह द्रव्य है अथवा गुण और पर्यायवाला द्रव्य है' अपर पक्ष के इस कथनको हम स्वीकार करते हैं और इसी लिए हमारा कहना यह है कि जिस समय जो पर्याय उत्पन्न होती है वह पर्यायस्वरूप द्रव्यका स्वकाल होनेसे निश्चयसे उसे वह द्रव्य स्वयं उत्पन्न करता है | यदि वह पक्ष इसे स्वीकार नहीं करेगा और ऐसा मानेगा कि प्रत्येक पर्यायको दूसरा द्रव्य उत्पन्न करता है तो पर्याय समूहस्वरूप द्रव्यका कर्ता भी अन्य द्रव्यको मानना पड़ेगा जो मामना न केवल आगम के विरुद्ध हैं, अपि तु तर्क और अनुभव के भी विरुद्ध है । अतएव अपने इस वक्त आवासर भोर पक्षको यही मान लेता हां श्रेयस्कर प्रतीत होता है कि प्रत्येक द्रव्य अपने नितकाल में नियत कार्यको हो करता है। और पद्मनन्दिपंचविशतिका के आधारपर उसे यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कार्य करता है इस प्रकारका व्यवहार वजन 'प्रत्येक द्रव्य अपने नियत कालमें अपने नियत कार्यको स्वयं कर्ता होकर करता है' इस निश्चय वर्षातका ज्ञान कराने के लिए आगम में लिखा गया है। अनगारधर्मामृत के 'कन्नथा वस्तुनो भिन्नाः १-१०२ वचन भी इसी लक्ष्यको स्पष्ट करने के लिये लिखा गया है। समयसार गाथा और उसकी टोकाका भी यही आशय है । सम्यदर्शन की उत्पत्ति लिए द्रव्य, गुण, पर्यायका वे जैसे है वैसा ज्ञात होना अतिआवश्यक है । किन्तु सम्वरदर्शनको उत्पत्ति कैसी होती है यह प्रश्न दूसरा है। इतना अवश्य है कि सम्यग्दृष्टिको इनका यथार्थ श्रद्धान अवश्य होता है, इसलिए उनके सम्यग्दर्शनविनय भी बन जाती है। मूलाधार अ०५, गा० १८६ का यही आशव है। सम्यग्दृष्टि अर्थपर्यायोंके विषय में किस आधारसे कैसो श्रद्धा होकर दर्शनविनय गुण प्रगट होता है यह इस गाथा में बतलाया गया है। ३. अपर पक्षने 'जो व्यवहारनयके बिना मात्र निश्चयके माश्रयसे मोक्ष चाहते हैं दे मूढ़ हैं, क्योंकि बोज विना वृक्षफल भोगना चाहते हैं अथवा वे आलसी हैं।' यह लिखकर उसकी पुष्टि अनगारधर्मामृत अ० १ श्लो १०० से करनी चाहो है । किन्तु अनगारबर्मामृत में वह उल्लेन एकान्त निश्चयाभासियों का निषेध करने के लिए बाया है इसे अपर पक्ष जानते हुए भी हमारे दृष्टि पथमें नहीं लाना चाहता है । बहुत है कि इसी कारण अपर पक्षने यह वचन किस शास्त्रका है यह न बतलाकर 'व्यवहार पराचीनो' इत्यादिरूपसे उक्त श्लोको उद्धृतकर उसके अन्त में 'प्राचीन श्लोक' यह लिखकर छुट्टी पाली Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा है । आचार्य अमृतचन्द्रने समयगार कलश १११ में 'मग्नाः शाननयैषिणोऽप्यतिस्वच्छन्दमन्दीखमाः' यह वचन लिखा है। ससीको ध्यान में रखकर पण्डित आशाघरजीने उक्त श्लोक की रचना की है, अतः उस परसे वही आशय लेना चाहिए जो समग्र कलशका है। इसी सम्मको पण्डितप्रवर बनारसोदासजीने इन शब्दों में व्यक्त किया है-- ज्ञानचेसनाके जगे प्रगटे केवलराय । कर्मचेतनामें बसे कमबन्ध परिणाम १८६॥ अतएव उपादेय तो एकमात्र ज्ञायकभाव ही है ऐसा ही यहाँ निश्चय करना चाहिए । ४. अपर पक्षने पुरुषार्थ सयुपाय इलो०५० को उक्त कर उसका जो अर्थ दिया है वह ठीक न होनेपर भी हम उक्त श्लोकके आशयको स्वीकार करते है। उक्त श्लोक द्वारा जो निश्चयको न जानकर यद्वा तद्वा विचार और प्रवृत्तिको ही मोक्षमार्ग जानते हैं वे करण-चरण दोनोंका नाश करते हैं। बाघ करणमें आलसी होने से बाल है।' यह भाव ऐसे पुरुषोंके प्रति प्रगट किया गया है जो निरुपयके ज्ञानसे सर्वथा अनभिज्ञ है। उनके लिए नहीं जो निश्चयको जानकर तत्स्वरूप परिणतिमें तल्लीन है। मालूम नहीं कि इसे अपर पक्षने अपने अभिप्रायकी पुष्मि कैसे समझ लिया। यह वचन तो उनको उद्देश्यकर कहा गया है जो निश्चयको नहीं जानले (नहों अनुभवते ) और नाना वेषधरकर मोक्षमार्गी बनते है। ५. अपर पक्षने सन्मतितकको माया १० 'दम्वद्वियवत्तवं' इत्यादिको उद्धतकर अपने अभिशयकी पुष्टि करनी चाही है, किन्तु यह माथा वस्तुविचारक प्रसंगमें आई है और यहां मोक्षमार्गको दृष्टिसे विचार हो रहा है, इसलिए यह यहाँ प्रयोजनभूत नहीं है। मोक्षमार्गमें किसका आलम्बन लेकर तन्मय परिणमन द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है यह विचार मुख्य है। इसमें सन्देह नहीं कि वर्तमान में संसारो आत्मा पर्यायष्टि रागो, द्वेषी भी है और द्रव्यार्थिकदृष्टिसे ज्ञायकस्वभाव भी है। ऐसो अवस्थामें इस जीवके राग-ष आदिसे मुक्त होनेका उपाय क्या ? अपने को सतत रागीद्वे पो अनुभव करनेसे तो उनसे मुक्ति मिलेगो नहों। उसे इनसे मुक्ति पाने के लिए कोई दूसरा उपाय करना होगा। इस बात को ध्यानमें रखकर आचार्यान उस मार्गका निर्देश किया है जिसपर चलकर अनन्त तीर्थंकरों और दुसरे महापुरुषोंने मुक्ति प्राप्त की है। यह मार्ग क्या है इसका निर्देश करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द समपसारमें लिखते है घबहारोऽभूयस्थो मयत्यो देसिदो दु सुखणओ । ___ भूथरथमस्सिदो खलु सम्माइट्टी हवइ जीवो ।।११।। व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है ऐसा जिनदेवने कहा है। जो जीव भतार्थका आश्रय लेता है वह नियमसे सम्यग्दृष्टि है ।।११।। इसी तथ्यको पं० ०५० वि के निश्चयपंचाशतमें इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है प्यवहारोऽभूतार्थो मूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः । शुद्धनग्रमाश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यातयः पदं परमम् ।। आशय पूर्वोक्त हो है। आचार्य कुन्दकुन्द करुणाभावसे रमणसारमें लिखते है एक्कु खणं विचितेइ मोक्खणिमितं णियप्पसहावं । अणिसं बिचित्तपावं बहुलालावं मणे विचिंतेइ ।।५०॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ជុំប यह जोव दिन-रात मनमें विचित्र पापरूप अनेक प्रकारके बिकल्प करता रहता है। किन्तु जो साक्षात् मोक्षप्राप्तिका उपाय है ऐसे अपने प्रात्मस्वभावका पढ़ एक क्षण भी विचार नहीं करता।॥५०॥ नियमसारमें लिखा है जीवादि यहित्तच्च यमुपादेयमपणो अप्पा । कम्मोपाधिसमुम्भवगुण-पज्याहिं वदिरित्तो ।।१।। जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है। मात्र कोपाधिको निमित्त कर उत्पन्न हुई गुणपर्यायांसे भिन्न अपना आत्मा उपादेय है ।।३८॥ ऐसी अवस्थामें अपर पक्ष ही बतलाव कि प्रवृतमें सन्मतितकी उक्त गाथाका क्या प्रयोजन रह जाता है ? बह गाथा तो मात्र प्रत्येक वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है इसे प्रसिद्ध करने में चरितार्थ है। किन्तु जो सामान्य-विशेषात्मक वस्तुको जानता है और मोक्षमार्गका पदानुसरण कर मुक्ति प्राप्त करना चाहता है उसे तो समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थों में प्रतिपादित अध्यात्ममार्गका ही पदानुसरण करना होगा । आगममें बाह्य परिणतिरूप चरणानुयोगकी सफलता भी इसी आधारपर स्वीकार की गई है। ६. अपर पशने व्यवहारमयसे जोत्रके जान, दर्शन और चारिश्रको जो सत्यार्थ-वास्तविक घोषित किये है उसे हम स्वीकार करते है। सद्भूतव्यबहारनपको अपेक्षा वे यथार्थ है, वास्तविक है इसने सन्देह नहीं। इसी प्रकार जीवादि द्रव्योंको शुद्धाशुद्ध समी पर्याय भी सत्यार्थ है, वास्तविक है। ये द्रव्याधिक नयको वस्तु है मातीशम है किगत विषम सामान्य है, पर्याय उसका विषय नहीं है। इसी प्रकार पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा सामान्य अवस्त है इसका भी यही आशय है कि उसन विषय विशेष है, सामान्य उसका विषय नहीं है। यहाँ एकको गौण और दुसरेको मुख्यकर यह कथम किया गया है, अन्यथा प्रत्येक नयको चरितार्थता नहीं बन सकती। यहाँ एक नयको विवक्षामें दूसरे नयके विषयको जो अवस्तु कहा गया है वह इस आशयसे नहीं कहा गया है कि ये खरविषण या आकाशकुसुमके समान वास्तवमें अवस्तु है, क्योंकि ऐमा स्वीकार करने पर सामान्य और विशेष दोनोंका अभाव होकर प्रत्येक द्रव्यका ही अभाव प्राप्त होता है। यहां इसना विशेष और ज्ञातव्य है कि पर्यायाधिकनयमें असद्भतव्यवहारमयका भी अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि यह नय भी पर्यायको ही विषय करता है। यदि इसमें सद्भत व्यवहारनपसे कोई भेद है तो इतना ही कि यह नय प्रयोजनादिवश दूसरे प्रत्यकी पर्यायको अपनेसे भिन्न दूसरे द्रव्यकी कहता है। जब कि सद्भत थ्यवहारनय उसी प्रध्यकी पर्यायको भेदविवक्षार्म उसोको कहता है । आचार्य अमृतचन्दने समयसार कलश ४० में असदमत व्यवहारनवके विषयको एक उदाहरण उपस्थित कर समझाया है, अपर पक्ष उसपर दृष्टिपात कर ले यह हमारी प्रेरणा है। ७. अपर पक्षने ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध आदिको प्रत्यक्ष और वास्तविक लिखा है, किन्तु इस कथनसे उस पक्षका क्या आशय है यह स्पष्ट नहीं किया। ज्ञान प्रत्येक समयमें कालिक पर्यायों सहित सब द्रव्योंको जानता है और समस्त द्रव्य अपनी-अपनी कालिक पर्यायों सहित ज्ञानके विषय होते हैं यह समझना हो शेय-जायकसम्बन्ध कहलाता है, अन्य कुछ नहीं। इसी प्रकार अपर पक्षने अन्य जितने सम्बन्धोंका उल्लेख किया है उनके विषयमें भी व्याख्यान कर लेना चाहिए। यहाँ शान पदसे मुख्यतासे केवलज्ञानको ग्रहणकर कथन किया है। वास्तव में देखा जाय तो घटको जाननेवाला ज्ञान बानरूप हो प्रतिभासित Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा होता है और घट उससे भिन्न घटरूप ही प्रतिभासित होता है, क्योंकि उस समय उत्पन्न हुआ घटज्ञान आत्माके ज्ञानगुण की पर्याय है और जिस घटको उसने जाना वह मिट्टी आदि रूप पुद्गल द्रव्यकी व्यञ्जन पर्याय है। ज्ञान चेतनरूप है और घट जहरूप है। इन दोनोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अत्यन्त भिन्न हैं। अतएव इनका वास्तविक सम्बन्ध तो बनता नहीं यह प्रत्यक्ष है। फिर भी इनका सम्बन्ध कहा जाता है, उसे व्यवहार ही जानना चाहिए। प्रयोजन आदि वश लोकमें ऐसा व्यवहार किया जाता है इतना सच है। इसके लिए प्रवचनसार गाथा ३६ को आचार्य अमृतवन्द्र रचित टीकापर दृष्टिपात कीजिए। इस प्रकार वस्त विचारके प्रसंगमें द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नयका क्या तात्पर्य है और मध्यास्मदृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनयका क्या तात्पर्य है इसका विशवरूपसे स्पष्टीकरण किया । अपर पक्षने अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकाके प्रारम्भमें अनेकान्तका जो स्वरूप निर्देश किया है उसीसे यह स्पष्ट हो जाता है कि दो द्रव्यों और उनके गुणधर्मों का अवलम्बन लेकर जितना भी कथन किया जाता है वह सब असद्भूत व्यवहार नयका हो विषय है, सद्भूत व्यवहारनयका विषय नहीं। ८. अपर पक्षने 'प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-धोव्यमयी है। ऐसा लिखकर इसकी सिद्धि जो निश्चयनय और व्यवहार नयसे की है सो यहां व्यवहारनयसे सद्भुत व्यवहारनय ही लिया गया है, असद्भुत व्यबहारनय नहीं, क्योंकि असद्भुत व्यवहारनय त्रिकालमें उसी द्रव्यके गुण-गायकी उसी में प्रसिद्धि न कर प्रयोजनादिवश अन्य द्रव्य के गुण-धर्मको उससे भिन्न दूसरे द्रव्यका प्रसिद्ध करता है। अपर पक्ष समझता है. कि हम व्यवहार नयको असत्य और अप्रामाणिक मानते हैं, किन्तु उसकी ऐसी मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि उससे लोकव्यवहारकी प्रसिद्धि होती है, अतः इस दृष्टि से आगममें उसे भी प्रामाणिक और सत्य ही माना गया है। यदि कोई नयवपन बिना प्रयोजन प्रादिके अन्य द्रब्यके गुणधर्मको अपने से भिन्न दूसरे द्रव्यका कहता है तो वह नयामास होने के कारण अवश्य ही असत्य और अप्रामाणिक माना जायगा। ६. सर्वज्ञदेवने जो व्यवहार सम्यक्त्व व व्यवहार मोक्षमार्गका उपदेश दिया है वह इसलिए नहीं कि उसे वीतराग सम्यक्त्व व वीतराग मोक्षमार्ग मान लिया जाय, अन्यथा ये दोन होकर एक हो जायेंगे और ऐसी अवस्थामै परको निमित्त कर होने वाले शुभभावोंका भी मोक्षमें सद्भाव मानना अनिवार्य हो जायगा। किन्तु भगवानका तो यह उपदेश ईकम्मबंधी हि णाम सुहासुहपरिणामहितो जायदे, सुद्धपरिणामहितो तेसि दोण्णं पिणिम्मूलक्खओ। धवलापु. १२ पृ. २०९ शुभ और अशुभ परिणामोंसे नियमसे कर्मबन्ध होता है लथा शुद्ध परिणामोंसे उन दोनोंका नियमसे निमल क्षय होता है। और भगवान्का यह उपदेश भी है असुहादी विणिविसी सुहे पविती य जाप चारितं । बद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणमणियं ॥४५॥ -यूहनुष्य-संग्रह Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान व्यबहारनयसे अशुभसे निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको चारित्र जानो । उसे जिनदेवने व्रत, समिति और गुप्तिरूप कहा है ।।४।। इससे स्पष्ट है कि ब्यबहार मोक्षमार्गसे निश्चय मोक्षमागं भिन्न है। फिर भी भगवान्ने निश्चय मोक्षमार्गकी सिद्धिका बाह्य हेतु जानकर इसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है । और जो जिसकी सिद्धिका हेतु हो उसे उस नामसे पुकारना असत्य नहीं कहलाता। इससे स्पष्ट है कि सर्वज्ञने न्यवहार सम्यक्त्व व व्यवहार मोक्षमार्गका उपदेश देकर जीवोंका अकल्याण न कर निश्चय मोक्षमार्ग हो यथार्थ मोक्षमार्ग है यह स्पष्ट किया है। यही कारण है कि आचार्य अमृतवन्द्रने प्रवचनसार माया १९९ की टोकामे निश्चय मोक्षमार्गको हो मोक्षका एकसया मार्ग बतलाते हुए लिखा है यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकराः श्रचरमशरीरा मुमुक्षवश्चासुनैव यथोदितेन शुद्धात्मतत्वप्रवृत्तिलक्षणेन विधिना प्रवृत्तमोक्षस्य मागमधिगम्य सिद्धा वमयुः, न पुनरन्यथापि । ततोऽवधायते केवलमयमेक एवं मोक्षस्य मार्गो न द्वितीय इति । सभी सामान्य चरमशरीरो, तोर्थकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु इसी यथोक्त शुद्धात्मतत्त्वप्रवृत्तिलक्षण विधिसे प्रवृत्त हुए मोक्षमार्गको प्राप्त करके सिद्ध हुए, परन्तु ऐसा नहीं है कि अन्य मार्गस भी सिब हुए हो। इससे निश्चित होता है कि केवल यह एक ही मोक्षका मार्ग है, दूसरा नहीं। ६. बन्ध पार मोक्षका नयष्टिसे स्पष्टीकरण जैनदर्शन ध्रुवताके समान उत्पाद-व्ययको भी स्वीकार करता है । द्रव्यदृष्टिसे प्रत्येक द्रव्य ध्रु बस्वभाव सिद्ध होता है और पर्यायष्टिसे उत्पाद-ध्ययरूप भी सिद्ध होता है । इस दृष्टिसे निश्चयनयका कथन जितना यथार्थ है, सद्भत व्यवहारमय (निश्चय पर्यायाथिकनम का कथन भी उतना ही यथार्थ है। अन्य दर्शन इस प्रकार नयभेदसे वस्तुको सिद्धि नहीं करते, इसलिए उनका कथन एकान्तरूप होनेसे मिथ्या है इसमें सन्देह नहीं। अब देखना यह है कि जीयकी जो बन्ध और मोक्ष पर्याय कही है वह क्या है ? यह तो अपर पक्ष भी स्वीकार करेगा कि न तो एक द्रव्यको पर्याय दुसरे द्रव्य में होती है और न ही दो दव्य मिलकर उनकी एक पर्याय होती है। इसलिए जब हम जोवको अपेशा विचार करते है तो यही सिद्ध होता है कि बन्ध और मोक्ष ये दोनों जोवकी हो पर्याय है। इस अपेक्षासे ये दोनों पर्याय जीवमें सद्भुत है-यथार्थ है। भावसंसार ओर भावमोक्ष इन्हीं का दूसरा नाम है। यह सद्भुत व्यवहारनयका वक्तव्य है | असत व्यवहारनयका बक्तव्य इस से भिन्न है। यह न य कार्मण वर्गणाओंके ज्ञानावरणादिरूपसे परिणमनको बन्ध कहता है और उन ज्ञानाबरणादि कमौके कर्मपर्यायको छोड़कर अकर्मरूपसे पारणमन को मोक्ष कहता है। यद्यपि ये दोनों ( कार्मणवर्गणाओंकी कर्मपर्यायहप बचपर्याय और कर्मोंको अकर्मरूप मोक्षपर्याय) जीवकी नहीं है. इन्हें जीवन उत्पन्न भी नहीं किया है। फिर भो असद्भुत व्यवहारनयसे ये जीवको कही जातो है और जीवको ही इनका कर्ता भी कहा जाता है। ये पुदगलपरिणाम आत्माका कार्य नहीं है इस तथ्यो स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसारमें लिखते हैं गेहदि व ण मुंथदि करेदि ण हि पोग्गलाणि कम्माणि । जावो पुग्गलमज अषण वि सम्बकालेसु ।।१८५|| Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) सत्त्वचर्चा जीव सभी कालों में पुलके मध्य रहता हुआ भी पौद्गतिक क्रमोंको न तो ग्रहण करता है, न त्यागता है और न करता है ॥१८५॥ अपर पक्षका कहना है कि जो एक नया विषय है वही विषय दूसरे नयका नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो जाए तो दोनों नयोंमें कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। दोनोंमें अन्तर नहीं रहने नयाँका विभाजन पर्थ हो जायेगा तथा सुव्यवस्था नहीं रहेगी सर्व विप्लव हो जायगा जो व्यवहारनयका विषय है उसका कथन व्यवहारयसे हो हो सकता है, निश्वयायसे वह कथन नहीं हो सकता । अतः आर्यप्रमाणों को यह कह कर टाल देना कि 'विवक्षित कथन व्यवहारनपसे है निश्चयसे नहीं' आगम संगत नहीं है।' وفق सो इस सम्बन्धमें हमारा भी यही कहना है कि जो असद्मतम्यहानयका fare है वहीं सद्भूतव्यवहारनयका नहीं हो सकता । यदि ऐसा हो जाय तो दोनों नयोंमें कोई अन्तर हो नहीं रहेगा। दोनोंमें अन्तर नहीं रहने से नोंक विभाजन व्यर्थ हो जायगा तथा दोनोंके कथनको एक मानने से व्रभ्यभेदको प्रतीति नहीं होगी द्रव्यमेवकी प्रतीति नहीं हो सकने से पृथक्-पृथक् द्रव्योंकी बता नहीं सिद्ध होगी, सर्व विप्लब हो भूविषय है उसे उपरि मानना ही युक्त है। उसे सद्भूतरूपले प्रसिद्ध करना आगमसंगत नहीं है । हमने अपने उत्तरोंमे आईप्रमाणोंको कहीं भो टालनेका प्रयत्न नहीं किया हो, आगमले जो अद्भुत व्यवहारनयका तय है उसे अवश्य ही उसी रूपमें प्रतिद्ध किया है। अण्णा अपर पक्ष ने प्रस्तुत प्रसिका को जिस प्रवीणता उपस्थित करनेका प्रयत्न किया है उसे हम अच्छी तरह से समझ रहे हैं। पहले तो उस पक्ष ने प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक प्रसिद्ध कर सामान्य-विशेष, नित्य-अनित्य मादिरूपसे दो दो धर्मयुगलों की स्थापना की। इसके बाद सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले द्रव्याधिक और पर्यायाथिक इन दो नयोकी स्थापना कर उनको निश्चवनय और व्यवहारनय वह संज्ञा रखो और इस प्रकार व्यवहारनायके उत्तर भेदोंका नाम लिये बिना और सद्व्यवहारनयके विषय में असद्भूतव्यवहारलय के विषयको मिलाकर प्रस्तुत प्रतिकांचा खड़ा किया किन्तु हमारे विचारले विचारको यह पद्धति नहीं है। क्या इस प्रकार एक द्रव पयको उसीकी प्रसिद्ध करनेवाले पचिहान बदलाकर अद्भूत व्यवहारय विषयको सद्भूत सिद्ध किया जा सकता है, कभी नहीं स्पष्ट है कि जब कि अद्भूत व्यहारनयका विषय उपचरित है तो वह उपचरित ही रहेगा। आगमले उसे सद्भूत सिद्ध करना ठीक नहीं हूँ । इस प्रकार बन्य मोक्ष क्या है इसका नयदृष्टिसे स्पष्टीकरण किया। ७. एकान्तका भामह ठीक नहीं अभी हमने आगम में किये गये व्यवहार के उत्तर भेदों और उनके ध्यान बन्ध मोक्ष के विषय में स्पष्टीकरण किया। किन्तु अध्यात्म आगममें इस विषयपर और भी सूक्ष्मता विचार किया गया है। उसमें बतलाया है कि आत्माको जो पर्याय परके लक्ष्य (रागभावसे पर उपयुक्त होने या परका सम्पर्क करनेसे उत्पन्न होती है वह जिसके लक्ष्यसे उत्पन्न होती है उसीकी है। यही कारण है कि अध्यात्म आगममे जिनदेवने बध्यवसान बादि भावों को जो जीव कहा है उसे अभूतार्थव्यवहारका कथन जानना चाहिए। इस पर प्रश्न होता है कि इन अध्यवसान जादि भावांका जीव कहना यह जब कि अभूतार्थव्यवहार हूँ तो फिर जिनदेवने ऐसे व्यवहारका बायन ही क्यों किया ? यह प्रश्न है इसीका समाधान करते हुए आचार्यने समयसार गाथा ४६ को टीकामे 'व्यवहारो हि व्यवदारिणां इत्यादि वचन लिखा है। इससे यह Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थप्रवृत्तिके निमिसका ज्ञान कराने के लिए व्यवहार दिखलाना अन्य बात है और उसे परमार्थरूप मान लेना अन्य बात है। व्यबहारनय व्यबहाररूप निमित्तका ज्ञान कराता है इसमें सन्देह नहीं और इसी लिए अध्यात्म भागमम उसका प्रतिपादन भी किया गया है । पर इस परसे यदि कोई अपर गलके मतानुसार व्यवहारनयको अन्यके धर्मको अन्य का कहनेवाला न मान कर उसके विषयको परमार्थरूप ही मान ले तो इस जीव का शरीर और रागादिभात्रोंसे मुक्त होना त्रिकालमें नहीं बन सकेगा और ये जीयके स्वरूप सिद्ध हो जानेपर बन्धव्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। क्या अपर पक्षने इस तथ्यपर ध्यान दिया ? वह एकान्तका परिहार करने के लिए 'तमन्तरेण' इत्यादि टीका बचनको तो उदघृत करता है पर उसकी मान्यताके अनुसार जो एकान्तको प्रसक्ति होती है उसको ओर अणुमात्र भी ध्यान नहीं देता । अतः उक्त वचनके आधारपर अगर पनको प्रकृतमें ऐसे ही अनेकान्सको स्वीकार कर लेना चाहिए कि निश्चय भूतार्थरूप है, अभूतार्थरूप नहीं। अभूतार्थरूप तो मात्र व्यवहार है जिसे व्यवहार नयसे तीर्थप्रवृत्तिका निमित्त जानकर जिनदेवने निर्दिष्ट किया है। हां यदि अभूतार्य व्यवहारको तीर्थप्रवृत्तिका प्रहार हेतु भी नहीं स्वीकार किया जाय तो क्या आपत्ति आती है इसे आचार्य अमृतचन्द्रने 'समन्तरेण' इत्यादि वचन द्वारा स्पष्ट किया है। अतः निश्चय और अयवहार दोनों हो परमार्थहम है ऐसा एकान्त आग्रह करना उचित नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ब्यवहारनय अन्यके धर्मको अम्पका कहता है इसके लिए समयसार गाया ५६ को आत्मध्याति टोका तथा आचार्य जनसेनकृत टीकापर दृष्टिपात कीजिए। ८. जीव परतन्त्र क्यों है इसका सांगोपांग विचार इसी प्रसंगमें अपर पक्षने जीवको परतन्त्र कौन बनाये हुए है इसकी सिद्धि करते हुए आचार्य विद्यानन्दिका 'जीवं परतन्त्रीकुर्वन्ति' इत्यादि बचन उद्धृत किया है। आचार्य विद्यानन्ति दर्शनप्रभावक महान् आचार्य हो गये हैं इसमें अणुमात्र भी सन्देह नहीं । उनका नामस्मरण होते ही उनके प्रति श्रद्धासे मस्तक नत हो जाता है। अपर पक्षने अपनी पिछली प्रतिकामें यह वाक्य लिखा है-'इस जीवको कर्म परबश बनाये हुए है। उसीके कारण यह परतन्त्र हो रहा है।' हमने इस वाक्यको एकान्त आग्रहका पोषक समझकर यथार्थ क्या है इसका पिछले उत्तरमें निर्देश किया था। किन्तु अपर पक्षने इस वचनको आचार्य विद्यानन्दिका बतलाकर पर्यायान्तरसे यह सूचित किया है कि हमारे द्वारा आचार्य विद्यानन्दिके वचनपर ही आपत्ति उठाई गई है। अपर पक्षने अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकामें आचार्य विद्यामन्दिके मूल वाक्यको पुनः उपस्थित किये जाने का संकेत तो किया है पर पिछली प्रतिशंकामें यह वाक्य दृष्टिगोचर नहीं होता। इसी प्रकार हमारे जिन वचनोंपर यह प्रतिशंका उपस्थित की गई है उनके विषय में यह तो लिखा है कि 'आपके द्वितीय बस्तब्य में निम्न वाक्यों को पढ़कर बहुत आश्चर्य हुवा।' और साथ ही यह भी लिखा है कि 'आपके निम्न वाक्पों पर आर्ष प्रमाण सहित विचार किया जाता है। परन्तु जिन वाक्योंपर विचार करने की अपर पक्ष यहाँ पर प्रतिज्ञा कर रहा है वे वाक्य यहां उद्धृत नहीं किये गये हैं। अस्तु, आचार्य विद्यानन्दिके उक्त बचनको अपने पक्षमें समझकर अपर पक्षने उस आधारसे एक मत तो पह बनाया है 'प्रगढ़ है, जीवका क्रोधादि परिणाम स्वयं परतन्त्रता है, परतन्त्रताका कारण नहीं ।' Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया) तत्त्वचर्चा . आगे अपर पक्षने लिखा है कि 'यदि मात्र अज्ञानभावको हो परतन्त्र करनेवाला मान लिया जावे"।' इससे मालूम पड़ता है कि उस पक्षका एक मत यह भी है कि जीवका अज्ञान भाव भी परतन्त्रता सामान है। यद् अपर पक्षका यवतव्य है। इसमें मालूम होता है कि अपर पक्ष एकान्तसे मात्र पुद्गल कर्मको जोयको परतन्त्रताका हेतु मानता है, किन्तु उस पक्षका यह कथन स्वयं आचार्य विद्यानन्दिके अभिप्रायके विरुद्ध है। चे अष्टसहली प०५१ में लिखते है तद्धेनुः पुनरावरणं कम जीवस्त्र पूर्वस्वपरिणामश्च । परन्तु उस अज्ञानादि दोषका हेतु आवरण कर्म है और अनन्सरपूर्व जीवका अपना परिणाम है । उमये यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आचार्य विद्यानन्दिने केवल ज्ञानावर णादि कमोंको ही परतन्त्रताका हेतु नहीं स्वीकार किया है, किन्तु उन्होंने राग, द्वेष और मोहको भो पर तन्त्रताका हेतु स्वीकार किया है। ये रागादि भात्र स्वयं पारतन्ध्यस्वरूप हैं और परनन्त्रताके हेतु भी हैं। तथा ज्ञानावरणादि कर्म व्यवहारसे केवल जीवकी परतन्त्रताके हेतु तो हैं पर जीवके पारतन्त्र्यस्वरूप नहीं ग्रह उक्त कथन का तात्पर्य है। इस प्रकार जीवको परतन्त्रताके दो हेतु प्राप्त हुए-याए और आभ्यन्तर। अब इनमें मुख्य हेतु कौन है इसका विचार करना है 1 हरिवंशपुराण सर्ग ७ में लिखा है जायते भिनजातीयो हेतुर्यत्रापि कार्यकृत् । तत्रासो सहकारी स्यात् मुख्योपादानकारण: ।।१४।। जहाँ भी भिन्नजातीय हेतु कार्यकृत होता है वहाँ वह सहकारी है और मुख्य उपादान कारण है ।।१४।। इस प्रकार प्रत्येक कार्यका मुख्य कारण उपादान है. भिन्नजातीय पदार्थ नहीं इसका निर्णय होनेपर अब इस बातका विचार करना है कि बाह्य पदार्थको सहकारी क्यों कहा? इसका स्पष्टीकरण करते हुए समयसार गाथा १६ के बाद आचार्य जयसेनकृत टीकाम लिखा है अथ शुद्धजीवे अदा रागादिरहितपरिणामस्तदा मोक्षो भवति । अजीवे देहादी यदा रागादिपरिणामस्तदा बन्धो भवति । शुद्ध जोवकै विषयमें जब रागादि रहित परिणाम होता है तब मोक्ष होता है तथा अजीव देहादिमें जब रागादि परिणाम होता है तब बन्ध होता है। इस आशयको पुष्टिमें वहाँ एक गाथा दो है जीधे व अजीवे हा संपदि समयम्हि जस्थ उबजुत्तो। तत्व बम्ध मोपली हादि समासेण णिछिटो ।। -स. सा. गा. २० जयसेनकृत रीका संक्षेपमे बन्ध और मोनका निदान यह है कि यदि यह जीव वर्तमान समयम जीवमें उपयुक्त होता है अर्थात् उपादेय बुद्धिसे तन्मय होकर परिणमता है तो ऐसा होने पर मोक्ष है और परि यह जीव वर्तमान Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ dutodan Dua शंका १६ और उसका समाधान ७७३ समयमें अजीव देहावि, कर्म और कर्मके फलमें उपादेय बुद्धि से उपयुक्त होता है अर्थात् तन्मय होकर परिणमता है तो ऐसा होनेपर बन्ध है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में लिखा है भावेण जेण जीघो पेच्छदि जाणादि आगदं बिसये । रज्जदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्मति उवऐसी ।।१७६।। जिनदेवका ऐसा उपदेश है कि यह जीव प्राप्त विषयको जिस राग-द्वेष-मोहमासे जानता देखता है उस भावसे उपरजित होकर कर्मबन्ध करता है ।।१७६।। ये आगमप्रमाण है। इनसे विदित होता है कि कम ( राग-द्वेष और उनके फलमें यदि यह जीब उपयुक्त होता है तो हो ज्ञानावरणादि कर्म प्रजानादि जीव परिणाम के होने में हेतु संज्ञाको प्राप्त होते है, अन्यथा नहीं । इसलिए यहो सिद्ध होता है कि अपनी परतन्त्रताका मूल कारण यह जीव स्वयं है, ज्ञानावरणादि कर्म नहीं। ज्ञानावरणादि कर्मको आचायने परतन्त्रताका हेतु इसलिए कहा कि उनमें उपयुक्त होकर जीव अपने में परतन्त्रताको स्वयं उत्पन्न करता है। वे स्वयं जीवको परतन्त्र नहीं बनाते। जीवके परिणामको निमित्तकर कमवर्गणारूप पुद्गल कर्म गरिणामको प्राप्त होते हैं और उत्तर कालमें जोबके उनमें उपयुक्त होते समय वे जीवके राग-द्वेषरूप पारतन्त्र्य के होने में व्यवहार हेतु होते हैं । इससे भो सष्ट है कि यह जीव वास्तवमें स्वयं अपने अपराघवश परतन्य बनता है । चोरको कोतवाल ने परतन्त्र बनाया यह तो व्यवहार है। वास्तव में वह स्वयं अपने अपरामके कारण परतन्य बनता है यह यथार्थ है। तत्त्वार्थवातिक ५-२४ के वचन का दूसरा अभिप्राय नहीं। यहां आया हा 'मुलकारणं' पद निमितकारण अर्थका मुचक है । यथा-संजोयमू-संजोयनिमितम् । मूलाचार प्र० मा० २.४६ टोका। __ पं० फूलचन्द्रने पंचाध्यायी पृ० १७३, पृ. ३३८ में जो कयन किया है वह व्यवहार हेतुको मुख्यतासे किया है। इसलिए पूर्वानरका विरोष उपस्थित नहीं होता । यदि पं० फूलचन्द्र व्यवहार हेतुको निश्चम हेतु मानने लगे तो ही पीपरका विरोष आता है, अन्य या नहीं। तभी तो पं० फूलचन्द्रने उसो पंचाध्यायो J०१७३ में यह भी लिखा है-'किन्तु यह परतन्त्रता जीवकी निज उपार्जित वस्तु है। जीवमें स्वयं एपी योग्यता है जिससे वह सदासे परतन्त्र है।' और इसी प्रकार उसो पंचाध्यायीके ९० ३३८ में भी यह लिखा है-'यह कमी जो थोड़ी बहुत अरिहंत अवस्थामें रहनी है वह अनादिकाल से चली आ रही है। इसका कारण कर्म माना जाता है अवश्य, पर यह मूलतः जोवको अपनी परिणतिका ही परिणाम है। इसे ही संसारदशा कहते हैं। यद्यपि पं० फूलचन्द्र के उक्त कथनसे तो पूर्वापर विरोध नहीं पाता । परन्तु अपर पक्ष जो व्यवहार हेतु को ययाथं हेतु मनवाने का प्रयत्न कर रहा है उससे अवश्य ही आगमका विरोध होता है । आगम जब यह स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करता है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका त्रिकालमें यथार्थ की नहीं हो सकता । ऐसो अवस्थामें अन्य द्रव्य के कार्य में अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्यायको व्यवहार (उपचार) हेतु मान लेना ही आगम संगत है। यदि आगममें और आगमनुसारी कथनमें पूर्वापरका विरोध परिहार हो सकता है तो इसी स्वीकृतिसे हो सकता है. अन्यथा नहीं। अपर पक्षने अपना मन्तव्य लिखनेके बाद एक उद्धरण आप्तपरीक्षा पृ० २४६ का भी उपस्थित किया है। उसमें परतन्त्रताके निमित्त (बाह्य हेतु) रूपसे कमको स्वीकार किया गया है। यहां ज्ञातव्य यह Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (वानिया ) तरचर्चा है कि इस परतन्त्रताका कोई आभ्यन्तर (निश्चय हेतु) अवश्य होना चाहिए, क्योंकि परतन्त्रतारूप कार्यको उत्पत्ति केवल बाह्य हेतुसे होतो हो यह तो अपर पक्षको भो मान्य नहीं होगा। आचार्य विद्यानन्दितत्त्वार्थ पलोकवात्तिक पृ० ६५ में लिखते है दण्ड-कपाट-प्रतर-लोकपूरणक्रियानुमयोऽपकर्षण-परप्रकृतिसंक्रमण हेतुर्वा भगवतः स्वपरिणामविशेषः शक्तिविशेषः सोऽन्तरंगः सहकारी निःश्रेयसोस्पती रत्नत्रयस्य, सदभावे नामावातिकमअयस्य निर्जरानुपप सेनिःश्रेयसानुत्पत्तेः । आयुषस्तु यथाकालमनुभवादेव निर्जरा न पुनरुपक्रमात् , तस्यानपवत्यत्वात् । तदपेनं क्षायिकरत्नत्रयं सयोगकेवलिनप्रथमसमये मुक्ति न सम्पादयस्येव, सदा तत्सहकारिणोऽसच्यात् । जिसका दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण क्रियासे अनुमान होता है और जो अपकर्षण तथा परप्रकृति संक्रमणका हेतु है ऐसा भगवान का शक्तिविशेषरूप जो अपना परिणामविशेष है बह रत्नत्रयका निगमको उत्ति में अन्तरंग सहकारी कारण है, क्योंकि उसके अमावमें नामादि तीन अघाति कोकी न तो निर्जरा बन सकती है और न हो निःश्रेयसकी उत्पत्ति हो सकती है। आयु कर्म को तो यथाकाल अनमनसे ही निर्जरा हो जाता है, उपक्रमसे नहीं, क्योंकि वह मनपवयं है। उसको अपेनासे युक्त क्षायिक रत्नत्रय सभोग केवलो के प्रथम समय में मुक्ति को नहीं हो सम्पादित करता है, क्योंकि उस समय उसके सहकारी (अन्तरंग हेतु) का असत्व है । इससे स्पष्ट है कि चौदहवेमणस्थान तक जो यह जीव परतन्त्र बना हया है उसका अन्तरंग कारण स्वये इस जोबको शक्तिहीनता ही है। आचार्य विद्यानन्दिने सर्वत्र कर्मको परतत्यताका हेतु बतलाते हुए उसका निमित्तरूपसे इसीलिए उल्लेख किया है ताकि कोई जोवको परतन्त्रताका मुख्य कर्ता व्यकर्मोदयको न मान ले। उन्होंने द्रव्य कर्मों को परतन्त्रताका निमित्त बतलाते हुए उसको पुष्टिम बेड़ो ( निगड) को दृष्टान्तरूपमें उपस्थित किया है । बेड़ो किसी को स्वयं परतन्त्र नहीं बनातो। यह उसका स्वभाव नहों 1 किन्तु जब उसे अपने अपराधवश धारण किया जाता है तब वह परतन्त्रता में बाह्य निमित्त होती है, अन्यथा नहीं। इससे स्पष्ट है कि जोकको परसन्नताका मलहेतु मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारिवही है। इन्हें संसार (परतावता) के मूल हेतु कहने का भी यही कारण है। कर्म शब्द द्रव्य कमके लिए तो प्रयुक्त होता ही है, भावकमके लिए मुख्यतासे प्रयुक्त होता है, क्योंकि यथार्थ में द्रव्य कमको करना जीवका अपना कार्य न होकर भावकमको करना जीवका अपना कार्य है। अतएव वस्तुतः ये मिथ्यात्वादिभाव ही सम्यक्त्वादिके प्रतिबन्धक स्त्रीकार किये गये हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए भगवान् कुन्दकुन्द समयसारमें लिखते है सम्मतपदिणिवद्धं मित्तं जिणवरहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो मिरछादिहित्ति णायवी ॥१६॥ माणस्स पचिणिबद्धं अण्णाणं जिपवरहिं परिकहियं । तस्सोदपेण जीवो भग्णाणी होदि णायचो ॥१६२।। चारित्तपखिणिबद्ध कसायं जिणधरहिं परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णायत्रो ।।१३३॥ जिनदेवने सम्यक्त्वका प्रतिबन्धक मिथ्यात्वको कहा है। उसके उदयसे जोत्र मिथ्यादृष्टि है ऐसा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७७५ बानमा चाहिए ।।१६१।। जिनवरने जानका प्रतिबन्धक अज्ञानको कहा है। उसके सदमसे जीव प्रज्ञानी है ऐसा जानना चाहिए ।।१६२॥ जिनबरने चारित्रका प्रतिबंधक कषायको कहा है। उसके उदवसे जीव अचारित्र है ऐसा जानना चाहिए ।।१६३।। रत्नत्रय परिणत आत्मा पूर्ण स्वतन्त्र है इसे अपर पक्ष स्वीकार करता ही है और उसके प्रतिबन्धक ये मिथ्यात्वादि भाव है, इसलिए ये स्वयं परतन्त्रस्वरूप होकर भो परतन्त्रताके मूल हेतु भी है ऐसा यहाँ वोकार करना चाहिए । परमें एकत्व बुद्धि करके या रागद्धि करके जब यह जीव मिथ्यात्व आदिमसे परिणमता है तभी ज्ञानावरणादि कर्मोंमें परतन्त्रताको ब्यवहारहेतुता बनती है, अन्यथा नहीं। हमने अपने पिछले वक्तब्धयहो आशय व्यक्त किया है, अत: वह आगमानुकूल होने से प्रमाण है। आचार्य जयसेनने प्रवचनसार गाथा ४५ को टोकामें इसी तथ्यको ध्यान में रखकर यह वचन लिखा है द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहन न परिणमप्ति तदा बन्धो न भवति । ठयमाह के मो उदय रहने पर यदि जीव शुद्धात्मभावनाके बलसे भावमोहरूपसे नहीं परिणमता है तो उस समय बन्ध नहीं होता। 'बन्ध नहीं होता' यह नयवचन है । इससे ज्ञात होता है कि शुद्धात्मभावनाके अभाव में जिस स्थितिअनुभागको लिा हुए या मात्र तन्निमित्तक जिन प्रकृत्तियों का बन्ध होता है उस प्रकारका या उन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता। पूरे कथनका तात्पर्य यह है कि जीवको परतन्त्रताका यथार्थ कारण कषाय है, द्रव्यकर्म नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्दि तत्त्वार्थश्लोकवातिक अ० ६ सू० ४ में लिखते हैं कषायसुकं पुंसः पारतयं समससः । सरचाम्सरानपेक्षीह पनमध्यग गवत् ॥४॥ कषायचिनिवृत्तौ सुपारतन्त्र्यं निवत्यते | यह फस्यचिच्छान्तकषायावस्थितिक्षणे ।।५।। इस लोक में कमलके मध्यम अबस्थित भौंरके समान इस जीयकी परतत्रता सब औरसे पायहेतुक होती है । और किसी जीवकी इस लोकमें कषायके शान्त रहतं समय परतन्त्रता दूर हो जाती है उसी प्रकार करायके निवृत्त हो जाने पर इस जीवकी परतन्त्रता भी निवृत्त हो जाती है। यद्यपि इन्हीं आचार्यने आप्तपरीक्षा कारिका ११४-११५ की टीका तथा पृष्ट २४६ में द्रव्यकर्मको जीवको परन्त्रताका हेतु बतलाया है और यहाँ वे ही आचार्य करायको परतन्त्रता का हेतु लिख रहे हैं । परन्तु इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जीवकी परतन्त्रताका यथार्थ हेतु कषाय है और उपचरित हेतु द्रव्यकर्म है । इसलिए हमने अपने पिछले उत्तरमें इस विषयको ध्यान में रख कर जिन तथ्योंका प्ररूपण किया है वे यथायं हैं ऐसा यहा निर्णय करना चाहिए। १. समप्र आईतप्रवचन प्रमाण है अपर पक्षने हमारे 'समयसार अध्यात्मकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला आगम ग्रन्थ है, शेष ग्रन्थ व्यवहारनयकी मुख्यतासे लिखे गये हैं। इस कथनको तूल देकर इस वीतराग चर्चाको जो विकृतरूप प्रदान करनेका प्रयत्न किया है वह श्लाघ्य नहीं है। हमने सक्त वाक्य किस प्रन्यमै किस नयकी मुरूपसाले कथन है इस दृष्टिको ध्यानमें रख कर ही लिखा है और यह अभिप्राय हमारी नहीं है, जगन्मान्य गुरुपदसमलंकृत नपक्षाह Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया , तत्त्वचर्चा आचार्य अमृतचन्द्रका है यह स्पष्ट करते हुए पंचास्तिकाय गाथा १३२ का टोकावचन भी प्रमाणरूपमें दे दिया है 18मारे उक्त कयन के आधारसे ये तथ्य फलित होते है १. समयमारमै मुख्यरूपसे निश्चयनयको लक्ष्यमें रख कर कथन किया गया है, गोणरूपसे व्यवहारनयको लक्ष्यमें रख कर भी कथन किया गया है । २. 'समयसार' यह वचन उपलक्षण है। इससे इसी प्रकार के अन्य आगमनन्थों का भी परिग्रह हो जाता है, ३. शेष ग्रन्थों में व्यवहार नयको लक्ष्यमें रख कर मुख्यरूपसे कथन किया गया है, गोणरूपसे निश्चयनयको लक्ष्यमें रख कर भी कथन किया गया है। ४. 'शेष अन्य यह वचन उपलक्षण है। इससे उन्हीं थांका परिग्रह होता है जिनमें ध्यबहारमयको लक्ष्य में रख कर की गई कथनोकी मुख्यता है । अपर पक्षने हमारे उक्त कथनके आधारसे विचित्र अभिप्राय फलित किया है और पर्यायान्तररूपसे आचार्य अमृसचन्द्रको भो उसमें सम्मिलित कर लिया है । यह आचार्य अमृतचन्द्रका ही तो वचन है इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितस्वात् .... ..परभाव परस्य विदधाति । यहाँ व्यवहारमय पर्वापानित होनेसे........परभावको परका कहता है-समयसार गा० ५६ यह आचार्य वचन ही तो हैअन्यत्र प्रसिद्धस्य धर्मस्थान्यन्न समारोपणमसम॒तम्यवहारः । असद्भूतव्यवहार एव उपचारः । भन्य द्रव्य में प्रसिद्ध धर्मका अन्य द्रव्यमें समारोप करना असद्भूतव्यवहार है। असद्भूतव्यवहार ही उपचार है।-आलापपक्षति और यह आचार्य वचन हो तो हैअण्णेसि अण्णगुण मणइ असबभूद....॥२२३॥-नयनकादिसंग्रह असद्भूत व्यवहार अन्यके गुणको अन्यका कहता है। ये हमारे वचन नहीं है । ऐसी अवस्थामै अपर पक्ष का यह लिस्वना-कि उपरोक्त वाक्य स्पष्टतया इस प्रकार के अन्तरंग अभिप्रायको छातित करता है कि समस्त जनवाङ्मय (शास्त्रों) में एकमात्र समयसार ही अध्यात्मग्रन्य होने के कारण सत्यार्थ, प्रामाणिक तथा मान्य है और अन्य समस्त ग्रन्थ (चाहे वह स्वयं श्री कुमकुन्द आचार्य कृत भी क्यों न हों) अवदारनयको मुख्यतासे होने के कारण असत्य, अप्रामाणिक एवं अमान्य है, क्योंकि आपके द्वारा व्यबहारनयको कल्पनारोपित उपचरित या असत्य हो घोषित किया गया है । अरना इस वाक्यको लिखने की आवश्यकता ही न थी। श्री समयसारमें भी स्थान-स्थान पर व्यवहारका कथन है, अत: बह भो असत्य ही होंगे, इस अपेक्षारी तो यह भी लिखा जाना चाहिये था कि श्री समयसारके तो मात्र वही अंश माह्य है जिनमें केवल निश्चयनयसे कथन है 1 यह ही तो एकान्त निश्चय मिथ्यावाद है। आदि, किन्तु यह शब्दावलि किसी भी अवस्थामै शोभनीक नहीं कहीं जा सको। यह हुँझलाहट ही है, जिसे अपर पक्षने उक्त शब्दों में व्यक्त किया है । यह अपर पत्तके वक्तव्यका कुछ अंश है। इसमें या इससे आगेके वमतव्यमें बहुत कुछ कहा गया है । यदि हम उसके बहत भीतर जायें तो उसके उत्तरमें बहुत कुछ लिखा जा सकता है और यह सप्रमाण Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ॐॐॐ सिद्ध किया जा सकता है कि प्रस्तुत वर्चा में अगर पक्षने कहाँ तक वीतरागताका निर्वाह किया है। यह तो हम पहले ही लिख आये हैं कि कोई भी नय कल्पनारोपित अप्रामाणिक या असत्य नहीं होता। व्यवहारनके लिये इन अब्दों का प्रयोग अपर पक्ष ही कर रहा है, इसका हमें आश्चर्य ही नहीं खेद भी है। निश्चयनय जैसा वस्तुका स्वरूप है उसे उसी रूप में निरूपित करता है, सद्भूत व्यवहारनय सद्भूत अर्थ में ही व्यवहारकी प्रसिद्धि करता है और असद्भूत व्यवहारमय उपचरित अर्थ की ही प्रसिद्धि करता है। सभी नय अपने-अपने विषयका हो निरूपण करते हैं, इसलिये वे यथार्थ हैं। कल्पनारोपित नहीं है। यह अपर पक्ष हो बतलावे कि क्या कोई ऐसा व्यवहारमय है जो गधे सींगकी या आकाशकुसुमको कहीं सिद्धि करता है जिससे कि उसे कल्पनारोपित, अप्रामाणिक या असत्य कहा जाय । अपर पक्ष ने हमारे किस कथन के आधारपर व्यवहार के लिये इन शब्दों का प्रयोग कर हम पर यह आरोप किया है कि हम व्यवहारनयको कल्पनारोपित आदि कहते हैं यह हम नहीं समझ सके । यदि प्रयोजनवश मिट्टी के घड़ेको घीका घड़ा कहा जाता है तो वह कल्पनारोपित कैसे कहलाया इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे। फिर भी निश्चयनय मिट्टी के घड़े को मिट्टी का ही कहेगा | स्वरूपका ज्ञापक होनेसे, घड़ा बीका है इसका तो वह निषेध ही करेगा, क्योंकि प्रत्येक वस्तुका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वह स्वरूपका उपादान और पररूपका अपोहन करे । यथार्थ है ' हम और यही कारण हमने यह लिखकर अपर पक्ष का कहना है कि 'जो प्ररूपणा जिस नयसे की गई है उस नयसे वह अपर पक्षको विश्वास दिलाते है कि हमने अपने इसे मान्य रखा है। है कि अपर पक्षने जहाँ व्यवहारनयकी कथलीको उद्धृत किया है वहाँ अनेक स्थलोंपर उत्तर दिया है कि यह व्यवहारनयका कथन या वक्तव्य है । अपर पक्षका हम पर यह भी आरोप है कि हमने 'सर्वश्री अकलंकदेव या विद्यानन्द द्वारा रचित शास्त्रों के प्रमाणोंकी अपेक्षा गृहस्थोंके द्वारा रचित भाषा भजनों को अधिक प्रामाणिक माना है और उन भजनोंका प्रमाण देकर परम पूज्य महान् आचार्योंके आर्ष ग्रन्थोंका निराकरण ( खण्डन ) किया । किन्तु यह विपरीत अर्थ अपर पक्षने कहाँसे फलित कर लिया ? क्या किसी आचार्यकी प्रयोजनवश की गई व्यवहार प्ररूपणा मी रूपमें सूचित करना उसका खण्डन है ? आचार्य कुन्दकुन्दने समयसार गाया ९८ में 'आत्मा घटपट रथको करता है' इमे व्यवहार कथन कहा है । यदि अन्यत्र ऐसी कथनी उपलब्ध होती है और हम उसे व्यवहारनयको कथनो प्रसिद्ध करते तो क्या इसे उस कथनोका खण्डन माना जाय ? आचार्य 1 महान् त्राश्चर्य !! अपर पक्षको समझना चाहिए कि खण्डनका अर्थ होता है किसी कथनको विविध उपायका अवलम्बन लेकर अप्रमाणित घोषित करना। किसी कथनको यह किस नयका कथन है यह बतलाना खण्डन नहीं कहलाता। हमें तो आचार्योंके वचनोंके प्रति श्रद्धा हैं ही, गृहस्थों द्वारा रचित भाषा भजनों के प्रति भी श्रद्धा है। जो भगवाणी है वह श्रद्धास्पद है ऐसा हमारा निर्णय है। अपर पक्ष गृहस्थों द्वारा रचित भाषा भजनांचे प्रति होनताका भाव भले ही रखे, परन्तु इससे हमारी श्रद्धापर आँच आनेवाली नहीं है । यह हम अच्छी तरह से जानते हैं कि हजारों लाखों नर-नारी उन्हीं भाषा-भजनोंका आलम्बन लेकर वीतरागमार्गका अनुसरण ९८ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा करते हैं । वे भाषा-भजन उपेक्षणीय नहीं । उनके प्रति किसी भी प्रकारसे लधुता प्रगट करना अनर्थको आमंत्रण देना है। हमने पंचास्तिकाम गाथा १२३ का 'एवमनया दिशा इत्यादि टोका वचन जिस प्रयोजनसे पिछले उत्तरमें उपचत किया है उसका निर्देश वहः कर दिया है। अगर पक्षको उसको ध्यारुपा करके यह बतलाना था कि जिस प्रयोजनसे हमने उसे उद्धृत किया है वह प्रयोजन इससे सिद्ध नहीं होला । किन्तु यह सब कुछ न लिखकर मात्र यह लिखना कि 'वरना इस वाक्यको लिखनेको आवश्यकता हो न थी। कोई मायने नहीं रखता। पं० फूलचन्द्रने धवल पृ० १३ पृ. ३६ पर विशेषार्थ में धवलशास्त्रको अध्यात्मशास्त्र स्वीकार किया है, वह पबल शास्यके आधारपर हो स्वीकार किया है। वहाँ उसे अध्यात्मशास्त्र जिस कारण कहा गया है इसका निर्देश भी कर दिया है । हम चाहते हैं कि अपर पक्ष पंचास्तिकाय गा० १२३ के टोका वचन और धवला पु०१३ पृ० १३६ के उक्त वचन इन दोनों को प्रमाण माने। हमें दोनों की प्रामाणिकतामें अणुमात्र भो सन्देह नहीं है। जो कथन जिस दृष्टिकोणसे किया गया है वह वैसा ही है. अन्यथा नहीं है। वाचायं अमुतचन्द्रने प्रवसनसार गाथा १३ को टीकामें जो यह बचन लिखा है-'इयं हि सर्वपदानां' इत्यादि। उसे समझकर अपर पान जा एकान्त नियतिवादका निषेध किया है उसका हम स्वागत करते हैं । इसमें सन्देह नहीं कि जिस प्रकार त्रिकालो ध्रुवस्वभाव सदाकाल एकरूप नियत रहता है उस प्रकार पर्याय क्रमनियमित होकर भी अर्थात् क्रमसे अपने-अपने नियत कालमें उत्पन्न होकर भी अनियत अर्थात् वही वही न होकर अन्य अन्य होती है। ऐसा हो वस्तुका स्वभाव है, उसमें चारा किसका। __इस प्रकार द्वादशांग वाणीका अनुसरण करनेवाला प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और वर्तमान कालमें बोलो जानेवालो गुजरातो, हिन्दी, मराठी, कनडो, तमिल आदि भाषा में जितना भी जिनागम लिखा गया है वह सब प्रमाण है। वह सब जिनागम द्वादशांग हो है ऐसी जो श्रद्धा करता है वह सम्यग्दृष्टि है। हमें विश्वास है कि अपर पक्ष गृहस्थों द्वारा लिखित माषा-भजनोंको उक्त पद्धतिसे प्रमागकोटि में स्वोकार करेगा। वोतराग वाणीका नाम जिनवाणी है। अतएव जो वचन इसका पदानुसरण करते हैं वे भी जिनवाण के समान पूज्य हैं ऐसा यहाँ निर्णय करना चाहिए। वे गृहस्थों द्वारा लिखे गये यह गौण है । उनमें जिन वाणीका गुण होना मुख्य हैं, क्योंकि पूज्यता उसीसे आती है। १०. व्यबहार प्रत, तप आदि मोक्षके साक्षात् साधक नहीं अपर पक्षने प्रतिशंका २ में लिखा था-'अब हम व्यवहारनयके विषयभूत व्यवहार क्रियाओंपर थोड़ा प्रकाश डालते हैं। दिगम्बर जैनागममें व्यवहार धर्मक आधारपर हो निश्चयस्वरूप शुद्वात्माको प्राप्ति अथवा मोक्षप्राप्ति बतलाई गई है।' आदि, हमने इसे और इसके आगेके कथनको ध्यानमें रखकर समयसार गाथा १५३ के आधारसे स्पष्ट किया था कि 'त, नियमरूप व्यवहार तो मिथ्याष्टिक भी होता है, परन्तु इसे पालता हुआ भो बह परमार्थ बाह्म बना रहता है, इसलिए निर्वाणको प्राप्त नहीं होता।' ऐसा हमारा लिखनेका आशय यह था Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७७९ कि अपर पक्षी व्यवहार धर्म के आधारपर ही निश्चयस्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्तिकी जो मान्यता बनी हुई है वह छूट जाय। उक्त गाथाकी आत्मश्याति टोकाको उद्धृत करने का भी हमारा यही आदाय या । ता है कि अपर पाने यह स्वीकार कर लिया है कि 'निर्विकल्प दशामें ये शुभ प्रवृत्तिरूप बाह्य बनादिक नहीं होते।' आत्मस्याति टीकाका आदाय स्पष्ट करते समय हम प्रत, नियम, शील और सप' पदके पूर्व 'बाह्य' पद लगाना छोड़ गये थे। अपर पक्षने इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया, हमें इसकी भी प्रसन्नता है, क्योंकि उस पक्ष द्वारा उक्त तथ्य स्वीकार कर यह स्पष्ट हो जाता है फि निर्विकल्प समाधिरूप रत्नत्रय परिणत आत्मा ही मोक्षका साक्षात् साधन है, व्यवहार क्रियारूप त आदि नहीं। फिर भी अपर पक्ष मन, वचन, कारके व्यापारको परम्परासे मुक्तिका साधन मानता है, इसलिए यह विचारणीय हो आता है कि इस विषय में आगमका आशय क्या है ? यदि परपच 'शुभरूप गन-वचन-कायके व्यापार से व्यमन भाषा वर्मणाकी व पर्याय और औदारिकादि शरीरको क्रिया लेता है तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि ये तीनों पुद्गल के परिणाम हैं। वे न तो शुभ होते हैं और न अशुभ यदि अपर पक्ष उक्त पदसे मुख्यतया तीनों योगोंका परिग्रह करता है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि शुभ परिणाम के कारण हो ये तीनों योग शुभ कहलाते हैं । अतएव परिशेषन्याय से अपर पक्षको इस पद द्वारा शुभ परिणामसे परिणत आत्माको हो ग्रहण करना पड़ेगा | प्रवचनसार गाथा ६ में भी यही कहा है। स्पष्ट है कि जहाँ भी आगम में बाह्य व्रतादिको शुभ कहा है वह उनसे शुभ परिणामरूप व्रतादिको ही ग्रहण किया है। यदि कहीं वचन कायक्रियाको शुभ या अशुभ कहा भी है तो उससे शुभाशुभ काययोग और शुभाशुभ वचनयोगका ही परिग्रह किया है, भाषारूप से परिणत वचनक्रियाका या औवारिकादि शरीरक्रियाका नहीं । अब देखना यह है कि आगम में जो शुभ व्रतादिको परम्परा मोलका हेतु कहा है उसका आशय क्या है ? यद्यपि इम प्रश्नका उत्तर सीधा है कि ये बतादि यदि मोक्षके परम्परा हेतु होते अर्थात् आशिक आत्मशुद्धिके कारण होते और हम प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त कर यह जीव मोच प्राप्त करता होता तो बागम (प्रवचनसार) में यह न लिखा होता कि 'जब यह मारमा राग-द्वेषसे मुक्त होकर शुभ और अतुभरूपसे परिणमता है वय ज्ञानावरणादिवसे कमका बन्य होता है (१७) और यह लिखा होता कि । 'परको लक्ष्य कर किया गया शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है तथा जो परिणाम अन्यको लक्ष्य कर नहीं किया गया है वह दुक्के पाथका कारण है (१८१) दद वो ऐसा विवेश करनेकी आवश्य कता हो नहीं थी कि मे न देह है नमन है, न वानी है उनका कारण नहीं है, कर्ता नहीं है. करानेवाला हूँ, नहीं है और कर्ताका अनुमोदक नहीं हूँ' (१६०) । यह विवेक करानेकी भीमावश्यकता नहीं रह जाती कि 'मैं एक है, शुद्ध हूँ, ज्ञान-वनमय हूँ, अरूपी हूँ। अय परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है' (समयसार या० १८) बस, यह जीव देवादिको भक्ति करता रहे, व्रतादिका पालन करता रहे, उसीसे आंशिक शुद्धि उत्पन्न होकर परम्परा मोक्ष हो जायगी। क्या अपर पक्षने इसका भी कभी विचार किया कि आगम में जो उक्त प्रकारका उपदेश दिया है वह क्यों दिया हूँ ? यदि वह पक्ष गहराई इसका विचार करे तो उसे यह निर्णय करने में Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E ७८० जयपुर (खानिया ) सवचर्चा देर न लगे कि शुभ परिणाम मात्र बन्धका कारण होनेसे मोक्षमार्ग में हेय है । साक्षात् मुक्तिका कारण तो हो ही नहीं सकता, आंशिक शुद्धिका भी कारण नहीं है । वह परिणाम सम्यग्दृष्टिका ही क्यों न हो, है वह बन्धका ही कारण, क्योंकि मोक्ष या आंशिक शुद्धिके कारणभूत परिणाम से उस परिणामको जाति हो भिन्न है। यदि किसीके पगमें हलकी बेड़ो पड़ी हो, इसलिए कोई उसे देख कर यह कहे कि यह बैड़ी परस्पर अर्थात् कमसे मुक्तिका कारण है तो जैसे यह बात उपहा सास्पद मानो जायगी वैसे ही प्रकृद में जानना चाहिए। अतः आईए मिलकर विचार करें कि आगम में जो शुभ व्रतादिको मुक्तिका कारण कहा है उसका हाथ है। सवार कलश में इस प्रश्नका उत्तर देते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं तज्ज्ञानस्यैव सामर्थ्य remise कर्मभिः कर्म विरागस्य बा किल । भुञ्जानोऽपि न वध्यते ||१३४|| विरागकी ही है कि कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव कर्मोको में वह सामर्थ्य ज्ञानकी ही है अथवा भोगता हुआ भी कमोंसे नहीं बंता ॥१३४॥ इसी तथ्यको और भी स्पष्ट शब्दों समझाते हुए वहीं लिखा है सर्व रागरसवर्जनशीलः । अत्तः स्यात् कर्ममध्यपतितोऽपि तत्वो न ॥ १४९ ॥ वर्जनस्वभाववाला है, इसलिए वह कर्मोंके बीच पड़ा हुआ ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि लिप्य से सकलकर्मभिरेषः ज्ञानी जीव निजरससे ही सर्व रागरसके भी सब प्रकार के कर्मोसे लिप्त नहीं होता ॥१४६॥ शालोकी ऐसी परिणति निरन्तर चलती रहती है। साथ ही इसमें जितनी प्रगाढ़ता आतो जाती है उतनी ही विशुद्धि में वृद्धि होती जाती है तथा कर्मबन्धके निभिसभूत राग-द्वेषादिमें और सुख-दुखपरिणाम में हानि होतो जाती है । यतः ये राग-द्वेषादि परिणाम आत्मविशुद्धिके सद्भाव और उसकी वृद्धि में बाधक नहीं हो पाते, अतः देवादिविषयक और वादि विषयक इन परिणामोंको व्यवहारसे परम्परा मोक्षका हेतु कहा है । ये आत्मशुद्धिको उत्पन्न करते हैं, इसलिए नहीं । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वहीं लिखा है यावत्पाकमुपैति कर्मचिरतिज्ञानस्य सम्प न सा कर्म- ज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्ताव काचितिः । किन्वापि समुल्लसथ्यवशतो यत्कम अन्धाय तत् मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११०॥ जब तक ज्ञानकी कर्मविरति भलीर्भात परिपूर्णता को नहीं प्राप्त होती तब तक कर्म और ज्ञानका समुच्चय ( मिलकर रहना) भी शास्त्रमें कहा है, इस प्रकार दोनों मिलकर रहने में कोई क्षति नहीं है । किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मामें अपने ( होन पुरुषार्थता के कारण ) जो कर्म प्रगट होता है वह तो बन्धका कारण है और जो परद्रव्य-भावोंसे स्वसः विमुक्त परम ज्ञान है वह एकमात्र मोक्षका हेतु है ।। ११० ।। ये व्रतादिक या अहंदुक्ति आदिक परम्परा मोक्षके हेतु है इसका यह आशय है कि जो ज्ञानी मोक्षके लिए उद्यतमन है जिसने विन्ध्य संयम और सपभारको प्राप्त किया है। किन्तु जो वर्तमान में परम् Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और इसका समाधान ७८१ कराग्यभूमिकाको आरोहण करनेमें असमर्थ है वह जैसे धुनकीमें विपकी हुई रुई जल्दी छूटती नहीं वैसे ही अदा विषयक या नो पदार्थविषयक परसमय प्रवृत्तिको छोड़ने में विशेष उत्साहवान् न होने के कारण उसो मवमें मोक्षको न प्राप्तकर पहले सुरलोक आदि सम्बन्धी क्लेशपरम्पराको भोग कर अन्तम मुक्तिको प्राप्त होता है । यह 'प्रतादि और अद्भक्ति आदि परम्परासे मोक्षक हेतु हैं इसका तात्पर्य है, यह नहीं कि वे ब्रतादिक और अहंदुभक्ति बादिक प्रथम भूमिका मात्माको आंशिक दाद्धिके हेस है और इस प्रकार ये परम्परासे मोक्ष के हेतु बन जाते हैं । इसी तथ्यको आनार्य अमृतचन्दने पंचारित काय गाथा १७० को टीकामें स्पष्ट किया है। वे लिखते है.. यः खलु मोक्षार्थमुग्रतभनाः समुपार्जिताविग्यसंयमतपोमारोऽष्यसंभावितपरमवैराग्यभूमिकाधिरोहणप्रभुशक्तिः पिज्जनलाग्नतूलन्यासन्यायेन नवपदाथैः सहाददादिभक्तिरूपा परसमयप्रवृत्ति परित्यक्त' नोत्सहते स खलु नाम साक्षान्मोक्षं न लभते, किन्तु सुरलोकादिक्लेशप्राप्तिरूपया परम्परया तमवाप्नोति । इस प्रकार व्यवहार व्रत बादि मोक्षके साक्षात साधक न होने पर भो मागम में जो उन्हें परम्परा साधक कढ़ा उसका क्या तात्पर्य है इसका स्पष्टीकरण किया। ११. प्रकृतमें 'झोन' पदका अर्थ गरमागमस्वरूप समयसारमै 'ज्ञान ही मोक्षका साधन है' ऐमा कहा है। उसका क्या तात्पर्य हैं इसका स्पष्टीकरण अपर पक्षने किया है। इस पर विशेष प्रकाश समयसार गाथा ११५ के विशेषार्थसे पड़ता है, इसलिए उसे यही दे रहे है-- आत्माका असाधारण स्वरूप ज्ञान हो है और इस प्रकरणमें ज्ञान को ही प्रधान करके विवेचन किया है। इसलिए, 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों स्वरूप ज्ञान ही परिणमित होता है' यह कहकर ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। ज्ञान है वह अभेदविवक्षामें आत्मा ही है ऐसा कहने में कुछ भी विरोध नहीं है, इसलिए टीकामें कई स्थानोंपर आचार्यदेघने ज्ञानस्वरूप आत्माको 'ज्ञान' शब्दसे कहा है। एक बात यह भी है कि जहाँ क्रियाको मोक्षका साधन कहा है वहाँ उसका अर्थ रागायिका परिहाररूप स्वरूपस्थिति ही करना चाहिए। पण्डितप्रवर टोडरमल्लजोने सांबा मोक्षमार्ग क्या है इसका स्पष्टीकरण करसे हुए मोक्षमार्गप्रकाशक पृ० ३७० में लिखा है-- शुन्छ आत्माका अनुमच सांचा मोक्षमार्ग है। पापक्रियाकी निवृत्ति चारित्र है इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य बोरसेन धवला पु० ६ पृ० ४० में लिखत है--- पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् । घातिकर्माणि पावं । तेसि किरिया मिच्छसासंजमकसाया। सेसिमभाबो चारिस। पापक्रियाको निवृत्ति चारित्र है। पातिकम पाप हैं। उनकी क्रिया मिथ्यात्व, असंयम और कषाय हैं। उनका अभाव चारित्र है। स्पष्ट है कि मोक्षमार्गमें "क्रिया' पद द्वारा स्वरूपस्थितिका हो ग्रहण किमा है, मिथ्यात्वरूप और शुभाशुभ भावोंका नहीं। तत्त्वार्थवातिक पृ० ११ के 'हृतं ज्ञानं क्रियाहीन' आदि उद्धृत श्लोकका यही तात्पर्य है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ अयपुर ( स्थानिया) तत्त्वचर्चा यहां पर प्रश्न होता है कि यदि ऐसी बात है तो व्रत, नील आदिको परमागम, मोक्षमार्ग क्यों कहा ? यह प्रश्न है । इसका समाधान करते हुए पण्डितप्रबर टोडरमल जी मोक्षमार्गप्रकाशक प० ३७४ में लखते है बहुरि परदन्यका निमित्त भेटनेकी अपेक्षा प्रत, शील, संयमादिकको मोक्षमार्ग कया सो इन ही की मोक्षमार्ग न मानि लेना । जाने पर व्यका ग्रहण-त्याग आत्माकै होय तो आम्मा पर हय्यका कर्ता-हर्ता होय । इस प्रकार ज्ञान हो मोक्षका साधन है इसका स्पष्टीकरण किया। १२. सम्यक्त्व प्राप्तिके उत्कृष्ट कालका विचार गरमागम में यह जीव अधिक से अधिक कितने काल के शेष रहनपर सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है इसका विचार करते हुए तत्वार्थवातिक ज० २ ० ३ में लिखा है रात्र काललब्धिस्तावत् कमाविष्ट आत्मा भन्यः कालेधपुद्गलपरिवर्तनालग्नेऽवशिष्टे प्रथमसम्यक्त्वग्रहणस्य योग्या भवति नाधिक हत्तीयं काललब्धिरेका वहां काललब्धि तो कर्माविष्ट भम्य आत्मा अर्धयुद्गलपरिवर्तन नामवाले काळके शेष रहने पर प्रथम सम्बत्व के ग्रहण के योग्य होता है, अधिक काल रहने पर नहीं, यह एक काललब्धि है। आचार्य पूज्यपादने भो सर्वार्थसिद्धि अ० २ सू. ३ में इन्ही शब्दोंमें इसी बात को स्वीकार किवा है। १. यहाँ 'काल' पद विशेष्य है और 'अर्धपुद्गलपरिवर्तनाख्य' पद विशेषण है। इससे म जानते हैं कि प्रकृतमें एक समय, एक आवलि, एक उच्छवास, एक मुहूत, एक दिन-रात, एक पस, एक मास. एक ऋतु. एक अयन, एक वर्ष, संख्यात्त वर्ष, असंख्यात वर्ष, पल्योयमका असंख्यातवाँ भाग, पल्योयमका संख्यातवां भाग, एक सागरोपम, संख्यात सागरोपम, लोकका असंख्वातवां भाग, एक लोक, अंगुलका असंख्यातवां भाग, अंगुलका संख्यातवां भाग, क्षुल्लकभवप्रहण, पूर्वकोटि, पूर्वकोटिपृथक्त्व, असंख्यात लोक और अनन्तकाल आदि जिनका नाम है ये सव काल यहाँ पर नहीं लेने हैं। किन्तु यहाँ पर अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामवाला काल लेना है । इसका यह आशय फलित हुआ कि आगममें जहाँ भी यह लिखा है. कि अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके या अर्धपुद्गलपरिवर्तन नामवाले कालके शेष रहने पर यह जीव प्रथम सम्यक्त्व ग्रहणके योग्य होता है वहीं उसका यही तात्पर्य है कि जब इस जीवको मोम जानेके लिए अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल शेष रहना हूँ तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर सकता है, इससे अधिक कालके शेष रहनेपर नहीं । जहाँ समय, आलि, उच्छ्वास, अन्तर्मुहूर्त, दिन-रात, सप्ताह. पक्ष, मास, ऋतु, अयन और वर्षादिके द्वारा कालका ज्ञान नहीं कराया जा सकता है वहाँ पल्योपम, सागरोपम, लोक, पुद्गलपरिवर्तन, और अर्थपुद्गलपरिवर्तन आदि उपमानोंके द्वारा उपमेयका ज्ञान कराया जाता है। यहाँ मोक्ष जानेके अधिकसे अधिक कितने काल पूर्व यह जीव सम्यक्त्यको प्राप्त कर सकता है इसका जान कराने के लिए इसी पद्धतिको अपनाया गया है। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान २. फालप्ररूपणामें और अन्तरकालग्ररूपणा में कालकी ही मुख्यता रहती है। कालप्ररूपणाम यह बतलाया जाता है कि कमसे कम कितने कालतक और अधिकसे अधिक कितने काल तक यह जीव विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थान आदिमें रहेगा। और अन्तर काल प्ररूपणाम यह बतलाया जाता है कि कमसे कम कितने काल बाद और अधिक से अधिक कितने कालवाद यह जीव पुनः विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थान आदिको प्राप्त करेगा और जिम गगास्थान या मार्गणास्थानका एक जोव या नाना जीवोंको अपेक्षा अन्तरकाल नहीं बनता वहां उसका निषेध कर उसे निरन्तर बतलाया जाता है। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि आगममें कालप्ररूपणामें जहाँ भी 'अर्धपुदगलपरिवर्तन' पद आया है वहाँ उससे अर्धपुदगलपरिवर्तनको ग्रहण न कर मात्र उस में जितमा काल लगता है उस कालको ग्रहण किया गया है। प्रत्येक कार्य अपने प्रतिनियत काल के प्राप्त होने पर ही होता है, अन्यदा नहीं होता इस तथ्यका खण्डन करने के लिए आजकल यह भी कहा जाने लगा है कि अधिकसे अधिक अर्धपदगलपरिपतन कालके शेष रहने पर सम्यक्त्व प्राप्त होता है इसका आशय यह है कि अब जब यह जोष पद्गलपरिवर्तन करता है तब तब उस परिवर्तनके आचे शेष रह जान पर सम्परावका प्रान्त करनको योग्यता उत्पन होतो है। हमारे सामने यह प्रश्न रहा है और यहाँ भी अपर पक्षने जो कुछ भी लिखा है उससे यह भाव झलकता है, इसलिए हमें पूर्वोक्त स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। ३. यह तो अपर पक्ष हो जानता है कि करणलब्धि द्रश्य, क्षेत्र मादि किसी भी परिवर्तन में पड़े हुए जीवके न होकर उसका उच्छेद करने पर ही हो सकती है। स्पष्ट है कि जो जीव पुद्गलपरिवर्तन कर रहा है वह उसे करते हुए तो न कारणलब्धि कर सकता है और न ही सम्यक्त्वको ही प्राप्त कर सकता है। यदि कहा जाय कि जिस समय यह जीव सम्यकनको प्राप्त करने के सम्मुख होकर करणलब्धि करता है उस समय पुद्गलपरिवर्तन का विच्छेद होकर सम्यक्त्व प्राप्त करने के समय सम्यक्त्व गुण के कारण उसका आषा काल रह जाता है? समाधान यह है कि सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्थरात्तिकके उपत उल्लेखसे यह आशय व्यक्त नहीं होता, क्योंकि उसमें यह सष्ट कहा गया है कि कितना काल अवशिष्ट रहने पर अनावि मिथ्यादष्टि जोष प्रथम सम्यक्त्यक ब्रहणके योग्य हता है। इसका आशय तो इतना ही है कि यहाँसे लेकर यह जीव सदा प्रथम सम्पनत्व ग्रहण के योग्य है । जिस प्रकार संजो पर्यातक कर्मभूमिज मनुष्य के सम्बन्ध में आगममे यह विधान है कि आठ वर्षका होने पर ऐसा मनुष्य सम्यक्त्व, संयमामयम और संयमके बहण के योग्य होता है। उसी प्रका यह विधान है। दोनों में कोई अन्तर नहीं। बाह्य सामग्रीके साथ यदि अन्तःसामग्रीकी अनुकूलता होती है तो कर लेता है. अन्यथा नहीं करता। कोई एक नियम नहीं, क्योंकि प्रत्येक जावके अपने-अपने प्रतिनियत कार्यों का स्वकाल पृथक-पृथक हैं। तत्त्वार्थवार्तिक अ० १ सू० ३ का भी यही आशय है। १. अपर पक्षने धवला गु० ४ और ५. के दो प्रमाण दिये है । धवला पु० ४ के प्रमाण सम्यक्त्वको मात्र महत्ता दिखलाई गई है, अन्यथा जो जो अनादि मिथ्यादष्टि प्रथम मुम्यक्त्वको प्राप्त करे उन सबको अर्ध. पुद्गलपरिवर्तन काल तक संसार में रहने का प्रसंग उपस्थित होता है । किन्तु उक्त आगमका यद् अभिप्राय नहीं है, क्योंकि कितने हो जावोंको अर्धदगलपरिवर्तनप्रमाण कालके शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त होता है और कितने ही जीवोंको इससे कम काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्र प्राप्त होता है। इसो तम्पको स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानन्दि तत्त्वार्थरलोकवातिक पृ० ११ में लिखते हैं Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो .. जयपुर (खानिया ) तत्त्वपर्धा तथा कश्चित् संसारी सम्भवदासममुकिरभिव्यकसम्यग्दर्शनाधिपरिणामः, परोऽमन्तेनापि कालेन सम्भवदमिन्यासानादिः । उसो प्रकार जिसे मुक्ति प्राप्त करना आसन-अतिनिकट है ऐगा संसारी जीव सम्यग्दर्शनादि परिणामको उत्पन्न करता है। दूसरा अनन्त कालके द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि परिणामको उत्पन्न करता है। यदि अपर पक्ष कहे कि जो-जो अनादि मिथ्यावृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उन सबका सम्यक्त्व गुणके कारण मोक्ष प्राप्त करने का काल तो अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण ही शेष रहता है। किन्तु बादमें कोई जोब उसे घटा लेते है और कोई जीव नहीं घटा पाते ? समाधान यह है कि (क) एक तो अपर पक्षके इस कथनका तत्वार्थवातिक और सार्थसिद्धि के उक्त कथनके साथ स्पष्ट विरोध पाता है, क्योंकि उन ग्रन्थोंके उक्त कथनमें सामान्य योग्यताका निर्देश करते हुए मात्र हतना हो कहा गया है कि अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कालके शेष रहने पर संसारो जोब प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है। निर: पाटि शोर हदगलपरिवर्तन प्रमाण कालके शेष रहने पर नियम से प्रथम सभ्यत्वको उत्पन्न करता है यह नहीं कहा गया है। अतः उक्त कथनको नियम वचन न जान कर मात्र सम्यक्त्वको प्राप्त करने की योग्यता, मोश जानेके लिए संसारमें कितना काल शेष रह जानेपर, प्राप्त हो जाती है इस प्रकार योग्यताका सूचक वचन जानना चाहिए। (ख) दुसरे कोई जीव सम्यक्त्व गुण के कारण अर्धपदगलपरिवर्तनप्रमाण कालमें और भी कमो कर लेते है और कोई जीव नहीं कर पाते, यदि ऐसा माना जाय तो पृथक-पृथक जीवोंको अपेक्षा सम्यक्त्व गुणकी पथक-पृथक् सामर्थ्य माननेका प्रसंग उपस्थित होता है, जो युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर जो विविध मापत्तिया उपस्थित होती है उनसे अपर पक्ष अपने कथनको रक्षा नहीं कर सकता। यथा-३ ऐसे जीव लीजिए, जिन्होंने एक साथ प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न किया है। उनमेसे अन्तमहलबाद एक जीव वेदकसम्यग्दृष्टि बनता है, दूसरा मित्र गुणस्थानमें जाता है और तीसरा मिथ्यादष्टि हो जाता है। सो क्यों ? मालूम पड़ता है कि अपर पक्षने इस तथ्य पर अणुमात्र भी विचार नहीं किया। जब कि इन तीनों जीवोंने एक साथ सम्यक्त्व उत्पन्न किया है और वे तीनों ही जोव अनन्त संसारका उच्छेद कर सम्यक्त्व गुणके कारण उसे अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कर लेते हैं। ऐसी अबस्थामें वे उसी सम्यक्त्व गुणके कारण ऐसी सामर्थ्य क्यों नहीं उत्पन्न कर पाते जिससे उन्हें पुनः मिथ्यादष्टि या मिथ गुणस्थामवाला बनने का प्रसंग ही उपस्थित न हो। अपर पक्ष इन जीवोंको सम्यक्त्त गुणसम्बन्धी हीनाधिकताको तो इसका कारण कह नहीं सकता और न ही मिथ्यात्वादि द्रव्यकर्मोकी बलवत्ताको इसका कारण कह सकता है, क्योंकि इन जीवोंमें सम्यक्त्व गुणकी हीनाधिकसा मानने पर अपर पक्षका यह कथन कि वे जीव सम्यक्त्व गुणके कार संसारका उच्छेद कर समानरूपसे अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कर लेते है कोई मायने नहीं रखता । अनन्त संसारका उच्छेद करनेकी सम्यक्त्त गुणको सामर्थ्य मानी जाय और संसारको जड़ मिथ्यात्वके समूल नाश करनेको सामथ्र्य न मानी जाय इसे भला कौन बुद्धिमान स्वीकार करेगा । (ग) तोसरे धवला पु० ४ पृ० ३३५ में यह वचन आया है कि--- सम्मत्तगुणेण पुचिल्लो अपरिसो संसारो ओहहिंदूण परित्तो पोग्गलपरियहस्स अमंसो होदूण उक्कस्सेण चिटुदि। सम्यवस्व गुणके कारण पहले के अपरीत संसारका उच्छेदकर परीत पुद्गलपरिवर्तनका अर्षमात्र होकर उत्कृष्ट रूपसे ठहरता है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधानं मैला पु० ५ में यह वचन भी आया है कि अती संसारो छिष्णो अपुगलपरियहमेत कदो । अनन्त संसारका छेद हुआ, अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण किया । इस प्रकार अपर पक्षने अपने पक्ष के समर्थन में समझकर घवलाके ये दो वचन उद्धृत किये हैं । अब विहार यह करना है कि घत्रलाके उक्त कथनों का आशय क्या है ? इन उल्लेखों में से प्रथममें 'पहले के अपरीत संसारका नाशकर उत्कृष्टरूपसे सम्यक्त्व गुणके कारण अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण परीत संसारकर सेनेकी ' बात कही गई है । तथा दूसरे उल्लेख में 'सम्यक्त्वगुण के कारण अनन्त संसारका छेदकर अर्धपुद्गपरिवर्तन प्रमाण काल कर लेने की बात कही गई है । किन्तु इन उल्लेखोंसे यह ज्ञात नहीं होता कि यहाँ 'वपरीत' और 'अनन्त' शब्दका क्या आशय है ? और सम्यक्त्व गुणके द्वारा यदि अपरीत या अनन्त संसारका उच्छेद होता है तो जो परीत संसार शेष रहता है उसका क्या आशय है ? वह अधिक से अधिक अर्थपुद्गल परिवर्तनप्रमाण या कमसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण शेष रहता है, मात्र इतना ही उसका आदाय है या ये 'अपरीत, परीत और अनन्त' शब्द नयवचन होनेसे किसी दूसरे अभिप्रायको सूचित करते है ? प्रथम मार्मिक है, अतएव आगमके प्रकाश में इन पर विचार करना होगा | अनों में निहित वस्योंपर विचार करें मूलाचार अधिकार २ में मरणकालमें सम्यक्त्वकी विराधनाकर जो जीव मरण करते हैं उनको ध्यान में रखकर विचार करते हुए आचार्य लिखते है मरणे विराहिए देवदुगाई, दुल्लहा य किर बोही । संसारो य भणतो होड़ पुण आगमे काले ॥ ६१ ॥ मरण के समय सम्यक्त्वकी विराधना करनेपर देवदुर्गति asst प्राप्त करना दुर्लभ है, बोधि रस्त्रका प्राप्त करना तो दुर्लभ है हो। जीवका संसार अनन्त होता है ||६१ ।। यहाँ 'अनन्त' पदका अर्थ करते हुए टीकामें लिखा है अतो अनन्तः अर्धपुद्गलप्रमाणः कृतोऽस्यानन्तत्वम्, केवलज्ञानविषयत्वात् । अनन्तका अर्थ है अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण । शंका- यह काम अनन्त कैसे है ? समाधान — केवलज्ञानका विषय होनेसे इस कालको अनन्त कहा है । यह आगमप्रमाण है । इससे विदित होता है कि जहाँ भी आगम में 'सस्यवत्व गुणके कारण अनन्त संसारका छेद किया।' यह बचन आया है बड़ीं उसका यही आशय है कि 'सम्यक् गुण प्राप्त होने पर ऐसे जीवका संसार में रहने का जो उत्कृष्ट काल अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण शेष रहा था लगता है, किन्तु ऐसा जीव नियमसे पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है, अतः वह पुन: अनन्तसंसारी कहलाने वह घटने तो अवश्य लगता है । यद्यपि ऐसा जीव अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण काल तक ही मिष्यादृष्टि बना रहता है, पर वह कहलाता है अनन्तसंसारी ही इससे यह खात्पर्य फलित हुआ कि मिध्याष्ट्रिकी अनन्त संसारी संज्ञा है और सम्यग्दृष्टिको इसके विपरीत सान्त संसारी कहते हैं। षवलजी में आचार्य वीरसेनने जो 'सम्मत्तगुणेण अनंतसंसारो हिण्णी' मह वचन दिया है उसका भी यही माशय है । ९९ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा उस वचनका फलितार्थ यह है कि सम्यक्त्व गुणके कारण इस जीवने अनन्त संसार अर्थात् मिथ्यात्वका नाश फिया । अन्यथा जो सम्यग्दृष्टि अपनी संक्लेशकी बहुलतावश पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है उसे अनन्तसंसारी कहना नहीं बन सकता। इस प्रकार प्रकृतमे 'सम्यक्त्व गुणके कारण अनन्त संसारवा छेद किया' अनलाके इस वचनका क्या आशय है यह स्पष्ट किया। आगे इसो प्रसंगसे जो 'पगेल' और 'अपरीत' शब्दोंका प्रयोग हुआ है इनका क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण करते है मूलाचार अ० २ मा० ७२ की टीका 'गरीत' शब्द के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए संस्कृत टीकाकार लिखते है ते होति-ने मवन्ति, परिससंसारा-परीतः परित्यक्तः परिमितो वा संसारः चतुगतिगमनं यंघां मै ते परीतसंसाराः परिश्यक्तसंसृतयो वा । परीत संसारी होते हैं अर्थात् जिनका संसार अर्थात् चतुतिगमन पर्गत अर्थात् परित्यक्स मा परिमित हो जाता है वे परीतसंगारो मा परित्यक्तसंसारो हैं । इसस विदित होता है कि सम्यग्दृष्टिकी परित्यक्तसंसारी और मिथ्याष्टिका अपरित्यक्त संसारी संज्ञा मुख्यरूपसे है, जो उचित ही है, क्योंकि मुख्यतासे मिथ्यात्वका नाम ही संसार है और मिथ्यात्व का दूर होना ही संसारका त्याग है । पण्डितप्रवर बनारसीदासजोने नाटक समयसारमें सम्यग्दष्टिको जिनेश्वरका लघुनन्दन इसी अभिप्रायसे सूचित किया है । विचार कर देखा जाय तो मिथ्यात्वका उच्छेद होना ही संसारका उच्छेद है। आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल इसी आशयसे कहा है । मिथ्यात्वरूपो महा मल्लके परास्त करनेपर अन्य कषामादिका नुच्छेद करना दुर्लभ नहीं है यह उक्त कथनका आशय है। अतएव प्रकृतमें धवलाके 'अपरित्तो संसारो श्रोहद्वितूण' पक्का अर्थ पूर्वोक्त प्रमाण करना ही उचित है। धवलाके उक्त उल्लेखमें सम्यक्त्व गुणके कारण अनन्त या अपरीत संभारका नाशकर उससे उत्कृष्ट रूपसे परीत अर्थात् अर्थपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण किया यह कहा हं। सो इस उल्लेख परसे उक्त काल तक संसारको बनाये रखना सम्यकत्वका कार्य नहीं समझना चाहिए। फिर भी उक्त उल्लेखमें जो उत्कृष्टरूपसे 'अर्धपद्गलपरिवर्तनप्रमाण किया' यह कहा गया है वह मात्र इस तथ्य को सूचित करता है कि ऐसे जीवका उत्कृष्ट काल इजना शेष रहता है, तभी समग्र आगमकी संगति बैठ सकती है। सम्यक्त्वगुण संभारके उच्छेदमें हेतु है, संसारके बनाये रखने में नहीं । सम्यक्त्व प्राप्त होने पर किसीका कम और किसीका अधिक जो संसार बना रहता है उसके अन्तरंग-बहिरंग हेतु अन्य है। उनमें प्रमुख हेतु काल लब्धि है। सब कार्यों की अपनी-अपनी काललब्धि होती है । इसके अनुसार अपने-अपने कालमें सच कार्य होकर आगेके कार्योंके लिए वे यथायोग्य हेतु संज्ञाको प्राप्त होते रहते हैं । जगत्का क्रम इसी पद्धतिसे चल रहा है और चलता रहेगा। घवला पु० ६ पृ० २०५ में सम्यक्त्वके प्रसंगसे यह प्रश्न उठाया गया है कि सूत्र मात्र काललब्धि कहो है । उसमें इन लब्धियोंका सम्भव कसे है ? इसका समाधान करते हुए वीरसेन आचार्य लिखते हैं कि सूत्र में जो प्रति समय अनन्त गुणहीन अनुभाग उदीरणा, अनन्त गुणक्रमसे वर्धमान विशुद्धि और आचार्य के उपदेशकी प्राप्ति कही है वह सब उसी कालन्धिके होनेपर ही सम्भव Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ star १६ और उसका समाधान ७८७ | इससे स्पष्ट है कि सब कार्य अपनी-अपनो काललपिके प्राप्त होने पर ही होते हैं। किसी अनादि मिथ्यादृष्टिको प्रथम सम्यक्त्व अपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल के शेष रहनेवर होता है, किसी को इसमें एक समय, दो समय तीन समय आदि संख्यात समय, असंख्यात समय काल कम होकर प्रथम सम्यक्त्व होता है उसका प्रमुख कारण काललब्धि ही है, अतः सम्ययत्वोत्पत्तिका काल नियत नहीं है ऐसा लिखकर प्रत्येक कार्यको कालब्धिको अवहेलना करना उचित नहीं है । सब जीवोंका विवक्षित एक कार्य एक कालमें न हो यह दूसरी बात है. परन्तु प्रत्येक जीवका प्रत्येक कार्य अपने-अपने नियत काल में हो होता हैं यह सुनिश्चित है । काललब्धिका ऐसा ही माहात्म्य है। मवला पु० ६ ५० २०५ का वह उल्लेख इस प्रकार है सुत्तें कालीक सभवो ? ण, पडिसमयमांतगुण. अणुमा गुदीरणाए अनंतगुणक्रमेण षड्ढमाणविसोहीए आइरियोवलंभस्स य तत्थेव संभवादो 1 पूर्व में | दया ही है । ५. अपर पक्ष पंचास्तिकाय गा० २० की आचार्य जयसेनकृत टोकाका एक वाक्यांश उद्धृतकर अपने पक्षका समर्थन करना चाहा है, किन्तु वह इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि माचार्य जयसेनने वेणु ( त्रास ) दण्डको उदाहरणरूप में उपस्थितकर उसके पूर्वार्ध भागको ही विचित्र चित्ररूप बतलाया है। उसके उत्तरार्ध को तो वे विचित्रचिनेका अभाव होनेसे शुद्ध ही सुचित कर रहे हैं। स्पष्ट है कि इस उदाहरण से तो यही सिद्ध होता है कि इस जीवकी जितनी सुनिश्चित संसार अवस्था है वह प्रतिनियत नानारूप है, मुक्त अवस्था नहीं । उनके उस कथनका प्रारम्भिक अंश इस प्रकार है या महान् वेणुदण्डः पूर्याभागे विचित्रवित्रेण खचितः शबलितो मिश्रिवः तिष्ठति । तस्मादूर्ध्वार्थभागे विचित्रचिभावाच्छु एव तिष्ठत । तत्र यदा कोऽपि देवदत्तो दृष्टावलोकनं करोति तदा भ्रान्तिज्ञानशेन विचित्रशादशुद्धत्वं ज्ञात्वा तस्मादुत्तरार्वभागेऽप्यशुद्धत्वं मन्यते । आदि, जिस प्रकार एक बहुत बड़ा वेणुदण्ड पूर्वार्श्वभाग में विचित्र स्वित्ररूपसे खत्रित होकर शत्रति मिश्रित स्थित है । परन्तु उसमे कारके अर्धमाग में विचित्र-चित्रका अभाव होनेसे शुद्ध ही स्थित है । उसपर जब कोई देवदत्त दृष्टि डालता है तब भ्रान्तिज्ञान के कारण विचित्र चित्रवश अशुद्धताको जानकर उससे उत्तरार्ध भाग में भी वह अशुद्धता मानता है। आदि । आचार्य अमृतचन्द्र ने भी एक बड़े भारी वेणुदण्डको विद्वान् पाठक इन दोनों टीका वर्षानोंको सावधानी यह आचार्य जयसेनकी टोकाका कुछ अंश है। उदाहरणरूप में उपस्थितकर इस विषय को समझाया है। पूर्वक अवलोकन कर लें। इस उदाहरणये ये तथ्य फलित होते है १. द्रव्यार्थिक दृष्टिसे देखनेगर पूरा वेणुदण्ड शुद्ध हो है । २. पर्यायार्थिक दृष्टि बनेपर वेणुदण्डका प्रारम्भका कुछ भाग बशुद्ध है, शेष बहुभाग शुद्ध है । ३. वेणुदण्ड में पर्याय दृष्टिसे अशुद्धता वहीं तक प्राप्त होती है जहाँ तक वह अशुद्ध है। उसके बाद नियम पर्याय से शुद्धता प्रगट हो जाती है । - यह उदाहरण है । इसे भव्य जीवपर लागू करनेपर विदित होता है कि यह जीव द्रव्यष्टि सदा शुद्ध है |दृष्टि अशुद्धता नियत काल तक ही है। उसके व्यतीत होनेपर वह पर्याय में भी शुद्ध हो है । इससे स्पष्ट है कि सभी कार्य अपने-अपने स्वफालके प्राप्त होनेपर ही होते हैं । आगममें जो कार्य Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा कारणभावका निर्देश किया है वह केवल यह बतलाने के लिए ही किया है कि प्रत्येक कार्य स्वकालमें होकर व मात्र इसी मियमको सूचित करता है। कोई भी कार्य अपने स्वकालको छोड़कर कभी भी किया जा सकता है इस नियमको नहीं । १३. प्रतिनियत कार्य प्रतिनयत कालमें ही होता है। पर पानी पीनामुरका १३.कुछ सूत्र और उनका अर्थ देकर यह लिखा है कि जिस प्रकार घट-पट आदिको और उपयोग ले जाकर जाननेका कोई नियत काल नही है, उसी प्रकार स्त्रोन्म स्वको जाननेका भी कोई नियत काल नहीं है, क्योंकि सर्व कार्योका नियामक कोई नियत काल नहीं है, किन्तु बाह्य-आभ्यन्तर समर्थ कारण सामग्री कार्यको नियामक है।' आदि, - समाधान यह है कि उस बाह्य-आभ्यन्तर प्रतिनियत सामग्रीमें प्रतिनियत काल भी. सम्मिलित है। इससे सिद्ध होता है कि प्रतिनियत कालमें ही प्रतिनियत सामग्रोकी उपलब्धि होती है और ससे निमित्त कर प्रतिनियत कार्यको हो उत्पति होती है । कोई किसीकी प्रतीक्षा नहीं करता । अपनेअपने काल में प्रतिनियत सामग्री प्राप्त होती है। अन्य सामग्री के काल में वह प्राप्त हो भी नहीं सकती, क्योंकि वह अन्य सामग्रीके प्राप्त होनेका स्वकाल है। यदि अन्य सामग्री के कालमें उससे जुदो दुसरी सामग्रो प्राप्त होने लगे तो किसी भी सामग्रीको प्राप्त होनेका अवसर न मिल सकसे कारणरूप बाह्याम्यन्तर सामग्रांका अभाव हो जायगा और उसका अभाव होनेसे किसी भी कार्यको उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। परिणामस्वरूप उत्पाद-व्ययका अभाव होनेसे दृष्यका ही अभाव हो जायगा। मत: द्रव्यका अभाव न हो, अतः प्रतिनियत कालमै प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रौके साथ प्रतिनियत पुरुषार्थको स्वीकार कर लेना चाहिए । इससे सिद्ध होता है कि प्रतिनियत कालमें प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्री प्राप्त होकर उससे प्रतिनियत कार्य की ही उत्पत्ति हुआ करती है। भट्टाकलंकदेवने तत्वार्थवार्तिक १ । ३ में 'यदि हि' इत्यादि बचन सब कार्योंका मात्र एक काल हो कारण है इस एकान्तका निषेध करने के लिए हो कहा है। प्रतिनियत कार्यका प्रतिनियत काल निमित्त है ऐसा होने से पुरुषार्थकी हानि हो जाती है ऐसा उनका कहना नहीं है। अतएच प्रतिनियत कार्यको प्रति नियत बाह्य-आभ्यन्तर सामग्री में जैसे प्रतिनियल अन्य सामग्रीका समावेश है उसी प्रकार उसमें प्रतिनियत काल और प्रतिनियत पुरुषार्थ का भी समावेश है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। प्रमादी बन कर ऐशोआराममें से ही मस्त रहते हैं जिनकी सम्यक्त्वोत्पत्तिको प्रसिनियत काललब्धि नहीं आई, अतएव मोक्षमार्गके अनुरूप पुरुषार्थ न कर विपरीत दिशामें किये गये पुरुषार्थको मोहमार्गका पुरुषार्थ मानते है। नहीं जिनको सम्यक्त्वोत्पतिको काललब्धि मागई है अतएव उसके अनुरूप पुरुषार्थमें लगे हुए हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व प्राप्तिके उत्कृष्ट कालका विचार करते हुए प्रस्तृत प्रतिशंकामें आई हुई अन्य दातोंका भी विचार किया। १४. प्रकृतमें विवक्षित मालम्बनके प्रहण-त्यागका तात्पर्य बागं अपर पक्षन हमारे 'श्रावक के उत्कृष्ट विशुद्धरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ सर्व प्रथम अप्रमसभावको प्राप्त होता है' इस बाक्य पर कसी टीका करते हुए लिखा है--'करणानुयोग विशेषज्ञको सलोमांति ज्ञात है कि सप्तम गुणस्थानमें प्रत्याख्यान कषावोदयका अभाव होनेसे श्रावकके पंचम गुणस्थानको अपेक्षा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका ९३ और उसका समाधान ७८९ अप्रमत्तसंगत गुणस्थानवाले मुनिके परिणामों की विशुद्धता अनन्तगुणो है अर्थात् श्रत्रकको उत्कृष्ट विशुद्धता अप्रमत्तसंयतको विशुद्धतामें लीन हो जाती है । आदि, यह है कि हम अपनेको करणानुयोगका विशेषज्ञ तो नहीं मानते, किन्तु उसका अभ्यासी व्यवश्य मानते हैं । हमने जो पूर्वोक्त वचन लिखा है वह उसके अभ्यासको ध्यान में रख कर ही लिखा है और यथार्थ लिखा है । उस वाक्यमें श्रावकके उत्कृष्ट विशुद्धरूप परिणामोंका आलम्बन छोड़ने की बात कही गई हैं। वे परिणाम सप्तम गुणस्थानके परिणामोंमें लोन हो जाते है या उनका व्यय होकर अनन्तगुणी विशुद्धिको लिए हुए नये परिणामोंका उत्पाद होता है यह कुछ भी नहीं कहा गया है। जो जीव पाँचवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थानको प्राप्त होता है, वह नियमसे साकार उपयोगवाला होता है, अतएव ऐसे जीव के अपने उपयोग में पंचम गुणस्थानके विशुद्ध परिणामोंसे परिणत आत्माका आलम्बन छूट कर नियमसे सातवें गुणस्थान के विशुद्ध परिणामोंसे परिणत आत्माका आलम्बन रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । स्पष्ट है कि प्रकृत में हमारे उक्त वाक्यको ध्यान में रखकर अपर पक्ष जो कुछ भी लिखा है वह युक्तियुक्ल नहीं है । अपर का कहना है कि 'विशुद्धता छोड़ी नहीं जाती किन्तु प्रति प्रति गुणस्थान बढ़ती जाती है।' आदि । इस सम्बन्धमें हम अधिक टोका-टिप्पणी किये बिना अपर पक्षका ध्यान उत्पाद व्ययके सिद्धान्तको ओर आकर्षित कर देना चाहते हैं । इससे उस सके ध्यान में यह बात भली-भाँति आजायगी कि ६३ पुटवाली चरमराईका व्यय होकर द्रव्यमें जो शक्तिरूप में २४ पुटवाली पराई पड़ी है उसका पर्यायरूपले उत्पाद होता है । तास्पर्य यह है कि पूर्व पर्यायका व्प्रय होकर ही नवीन पर्याय उत्पन्न होती हैं । पिछला पर्यायें अगला पर्यायोंमें विलीन होकर उनका समुदाय नहीं बना करता । १५. व्यवहारधर्मका खुलासा हमने लिखा था कि 'निश्चपमंके माथ गुणस्थान परिपाटीके अनुसार जो देव, शास्त्र, गुरु, अहिंसादि अयत और महाव्रत आदि रूप शुभ त्रिकल्प होता है जो कि रागपर्वाम है उसका यहाँ व्यवहारधर्म कहा गया है ।" अपर पक्ष इस वाक्यमेसे 'अहिंसादि अणुव्रत' इत्यादि वाक्यको सामायिक और छेदोपस्थापना संयमके विरुद्ध मानता है, किन्तु उसकी यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि अहिंसादि पाँच महाव्रतों का सराग संयम अन्तर्भाव होता है और सरागसंगम में अशुभसे निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्तिको मुख्यता है। सरागसंयमका लक्षण करते हुए सत्रार्थसिद्धि ० ६ ० १२ में लिखा है संसारकारणविनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णोऽश्रीणाशयः सराग इत्युच्यते । प्राणीन्द्रियेव शुभप्रवृत्तेर्विरतिः संयमः । सरागस्य संयमः सरागो वा संयमः सरागसंयमः | जो संसार के कारणों की निवृत्तिके प्रति उद्यत है, परन्तु जिसकी कषाय अभी क्षोण नहीं हुई हैं वह सराग कहलाता है । प्राणी और इन्द्रियोंके विषय में अशुभ प्रवृत्तिसे विरांत होना संयम है। रागी जोवका संयम या रागसहित संयम सराग संयम है । तस्त्रार्थवार्तिक और तत्त्वार्थरलोकवार्तिक में सरागसंयमका यहो अर्ध किया है। इससे स्पष्ट है कि तत्वार्थ सूत्र अ० ७ ० १ में व्रतका जो लक्षण किया गया है वह उक्त अभिप्रायको ध्यान में रखकर ही किया गया है । व्रत में जहाँ अशुभसे निवृत्ति इष्ट होती है वहाँ शुभ में प्रवृत्ति हुए बिना नहीं रहती । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ७९० जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा परन्तु संवरका स्वरूप इससे सर्वथा भिन्न है। वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके परिणामों के निरोधस्वरूप स्वीकार किया गया है । कहा भी है सः संघरो भायसंवरः शुभाशुभपरिणामनिरोधः । -अनगारधर्मामृत अ० २, श्लोक ४१ यही कारण है कि हमने अपने पूर्वोक्न कथनमें अहिंसादि अणुजत और महावत आदिको रागरूप बतलाकर उनकी परिगणना व्यवहारधर्ममें को है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते बाए सर्वार्थसिदि-१ में लिखा है तत्र अहिंसाचलमादौ किमले, प्रधानस्यात् । सत्यादीनि ही तत्परिपालनार्थानि सम्यस्त्र वृत्तिपरिक्षेपवत् । सर्वसावधनि वृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एक तम् । तदेव छेदोपस्थापनापेक्षया पञ्चविधमिहोच्यते । ननु च अस्य प्रसस्यानबहेतुःवम नुपपन्नम् , संवरहसुबन्तर्भाधास् । संघरहतवो वक्ष्यन्ते गुप्तिसमित्यादयः । सन दशघिधे धर्म संयमे वा बतानामन्तर्भाव इति च दोषः, तत्र संघरो निवृत्तिलक्षणो वक्ष्यते । प्रवृत्तिश्चान रश्यते, हिंसानुनादत्तादानादिपरित्याग अहिंसासत्यदनादानादिक्रियाप्रतीतः गुप्स्यादिसंघरपरिक मरवारच । अशेषु हि कृसपरिकर्मा साधुः सुखेन संवरं फरोतीति तप्तः पृथक्त्वेनोपदेशः कृतः । यहाँ अहि.सावल को आदिमें रखा है. क्योंकि वह प्रधान है। धान्यको बाठोके समान ये सत्यादिक त उसके परिपालनके लिए है। सर्व सावधसे निवृत्तिलमण सामायिककी अपेक्षा एक व्रत है। वही दोपस्थापनाको अपेक्षा पाँच प्रकारका है। वहीं यहां कहा है। शंका-इस व्रतको आस्रबहेनुता नहीं बनती, क्योंकि संबर के हेतुओं में इसका अन्तर्भाव होता है। ofति आधिपत म। हह दाम प्रमाके धमम अथवा संयमम अतोंका अन्तर्भाव होता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वहाँ निवृत्तिलक्षण संवर कहेंगे और यहाँ प्रवृत्ति देखी जाती है, क्योकि हिसा, असत्य और अदत्तामान आदिका त्याग होनेपर अहिंसा, सत्यवचन और दत्तादान आदिरूप क्रिया प्रतीत होती है तथा ये अहिंसा आदि गप्पयादिरूप संवरके परिकर्मस्वरूप है। व्रतोंमें जिसने परिकर्म किया है ऐसा साधु सुम्बपूर्वक संवर करता है, इसलिए इनका पृथक्ये उपदेश दिया है। तत्त्वार्थवानिक ६.१ में लिखा है न संवरो व्रतानि परिस्पददर्शनात् ॥१३॥ प्रतानि संवरव्यपदेश नाईन्ति । कुतः परिस्पन्ददर्शनात् । परिस्पन्दी हि दृश्यते, अनुतादत्तादानपरित्यागे सत्यवघनदसादानक्रियाप्रतीते। द्रत संबर नहीं है, क्योंकि परिस्पन्द देखा जाताई ॥१३॥ ब्रत संवर व्यपदेशके योग्य नहीं है, क्योंकि परिस्पन्द देखा जाता है। परिस्पन्द मिश्रमस देखा जाता है, क्योंकि अनत और अदतादानका त्याग होनेपर सत्य वचन और दत्तादान क्रियाको प्रतीति होती है। ये आगमप्रमाण है। इनसे भी अपर पक्षक अभियायको पष्टि न होकर हमारे ही अभिप्रायको पष्टि होतो है। यतः प्रवृत्तम ग्रस आसपहप लिए गये है, अत: मामायिक और छेदोपस्थापना भी उक्तरूप होने में बाधा नहीं आती। हां, जहां संवरके प्रकरण में इन्हें स्वीकार किपा गया है वहीं अवश्य ही ये सब परम बोसरागचारित्रस्वरूप प्राप्त होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र १११ में जिस मोक्षमार्गका निर्देश है वह निश्चय रत्नत्रयस्वरूा आत्मधर्म है। उसे उपस्थित कर सरागचारित्र या सरागसंयमको वीतराग चारित्र या वीतराग संयम सिद्ध करना उचित नहीं है। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७२१ तार्थसूत्र ६ २ तथा ६।१८ में संवररूपप्ति आदिका तथा सामायिक संयम आदिका निर्देश है, शुभप्रवृत्तिरूप व्रतादि तथा सामायिक निर्देश नहीं है। गुप्ति आदिमें बड़ा अन्तर है | अपर पक्ष इन दोनोंको मिला कर भ्रम में रखने का प्रयत्न कैसे कर रहा है इसका हमें ही क्या सभीको आश्चर्य होगा | जिसे सभप्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म कहा है वह निश्चयधर्म में अनुरागका हे हैं, इस स्वरूप होकर भी धर्मरूपसे उपचारित किया जाता है। यहाँ उपचारका निमित एकार्थसम्बन्धीपना है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए अनगारधर्माभूत [अ०] १ श्लो० २३ को उपास्यामं कहा है यथोक्तधर्मानुरागर्हेनुकोऽपि पुण्यबन्धो धर्म इत्युपचर्यते । निमित्तं चान्नोपचारस्यैकार्थसम्बन्धित्वम् । इससे सिद्ध है कि अशुभको निवृत्ति और शूनमें प्रवृत्तिरूप जो व्रत है वह शुभ विकल्परूप होने से परिणाम ही है । उसे दररूप के हो कह सकते हैं जिन्हें मात्र बाह्य क्रियामें धर्मसर्वस्त्र दिखलाई देता हूँ । किन्तु जो निश्चवस्वरूप आत्मवमंके पारखी है वे तो इसे स्वीकार करते ही नहीं। उनकी इस विपरीत मान्यताको ती आगम भी स्वीकार नहीं करता । आगम तो यह कहता है कि जिसे निश्चयधर्म की प्राप्ति हुई है उसके ही भमीचीन व्यवहारधर्म होता है । ऐसे धर्मात्मा पुरुषोंका सानिध्य होने पर भला कौन ऐसा ज्ञानी होगा जो उनके प्रति पदके अनुरूप बन्दना आदि नहीं करेगा | हाँ, जो आचार शास्त्र के अनुसार व्यापदवी व्यवहारधर्मका पालन करें नहीं, प्रत्यक्ष हो जिनमें नाना विसंगतियो दिनलाई दें, फिर भी उन्हें चारित्रवान् कहा जाय तो हम मोक्षगागंका हो उपहास मानेंगे | हमारा किसीके प्रति विरोध नहीं है और न हम यह हो चाहते है कि मोक्षमार्ग में किसी प्रकारका अवरोध उत्पन्न हो । परन्तु हम इतना अवश्य जानते हैं कि आज कल कलित की जा रहीं विपरोत मान्यता बांके आधार पर यदि शिथिलाचारको प्रोत्साहन दिया गया तो फिर समीचीन भोक्षमार्गकी रक्षा करना अतिदुष्कर हो जायगा । अगर पक्षने लिखा है कि 'अव यह कह देते हैं कि हमारी क्रमवद्धपर्यायों में व्रत धारण करना पड़ा हुआ ही नहीं है, पर्वा आगे पीछे हो नहीं सकती फिर हम कैसे त्याग कर सकते हैं ?" समाधान यह है कि जिसका विश्वास है, जो यह विश्वास करता है कि पर्याय आगे-पीछे नहीं हो सकती या नहीं की जा सकती तथा जिसे सर्वज्ञतामें विश्वास है वह अभिप्राय में कुछ हो और बाहर कुछ करे ऐसा नहीं हो सकता । वास्तवमें देखा जाय तो वह निकटसंसारी है, वह शीघ्र ही निश्चयधर्म के अनुरूप व्रतोंकी धारण कर मोक्षका पाठ बनेगा। यह सर्वज्ञने हमारी पर्याय व्रत देखे ही नहीं' ऐसा त्रिकालमें नहीं कह सकता। वह जब जिस पदवा में होगा उस पदवीके अनुरूप बाह्य शुभाचारका नियमसे पालन करेगा | पापरूप प्रवृत्ति करनेकी उसकी स्वमात्रतः रुचि नहीं होगी । १६. साध्य साधनविचार अपर पक्षका कहना है कि 'यदि व्रतांको राग माना जायगा तो वे व्यवहारधर्म ही नहीं हो सकते, क्योंकि व्यवहारधर्म तो निश्चयधर्मका साधन है ।' समाधान यह है कि आचार्योंने संत्ररको शुभ-अशुभको निवृत्तिस्वरूप कहा है और व्रत शुभ में प्रवृत्तिरूप है, इसलिए उन्हें प्रशस्त रागरूप मानना ही उचित है विशेष स्पष्टीकरण अन्यत्र किया ही है । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचा अब रह गवा साधन-साच्यभावका विचार सो इसका निर्देश आचायोने परमागममें तीन प्रकारसे किया है-निश्वपत्नयसे, सद्भुत व्यबहारनयसे और असदभूतव्यवहारनयसे। निश्चवनयसे सम्यग्दर्शनादिरूप परिणत आरमा ही साधन है और वही साध्य है। सद्भुतव्यवहारन यसे निश्चय सम्यग्दर्शन आदि एक-एक साधन है और आत्मा साध्य है। असद्भूतत्र्यवहारनवसे शुभ प्रवृत्तिरूप व्यवहारपर्म साधन है और बात्मा साध्य है। यहाँ सर्वप्रथम त, तप आदि प शुभ प्रवृत्ति में धर्मका आरोगकर उसे व्यवहारधर्म कहा गया है और उसके बाद उसमें निश्चयधर्म के साधनपने का व्यवहार किया गया है । यहाँ व्रसादिरूप शुभ प्रवृत्तिको जो धर्म कहा है वह उपचारसे ही कहा है। इससे सिद्ध होता है कि व्रत आदि निश्चय मोक्षमागके यथार्य साधन नहीं है, सहरसम्बन्ध आदिको अपेक्षासे हो इन्हें साधन कहा गया है। पण्डितप्रवर टोडरमलजो मोक्षमार्गप्रकाशक १०३६७ मे लिखत है-- वहुरि बन तप आदि मोक्षमार्ग हैं नहीं, निमित्तादिकी अपेक्षा उपचारते इनको मोक्षमार्ग कहिए है। तातें इनको व्यवहार कया । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वे वहीं पृ० ३७६ में लिखते है-- बहुरि नीचली दशा विष केई जीवनिकै शुभोपयोग अर शुन्खोपयोगका युकपना पाईए है 1 सातै उपचार करि व्रतादिक शुभोपयोगी मोक्षमार्ग कहा है। आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय माथा १६० में निश्चय मोक्षमार्गके साथ अधिनाभावरूपसे होनेवाले ब्रतादिको उपचारसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा है। वह निश्चय मोक्षमागकी सिद्धिका हेतु है, इसलिए इसको टीकाम आचार्यद्वयने व्यवहारमयसे व्यवहार मोक्षमार्गको साधन और निश्चय मोक्षमार्मको साध्य कहा है। इस गाधाम मोक्षमार्गका अनात्मभूत लक्षण कहा गया है, इसलिए वह मोक्षमार्ग कहलाया । अतः यह अनात्मभूत लक्षण होकर भी आत्मभूत यथार्थ मोक्षमार्गकी सिद्धि करता है, अतः व्यवहार मोक्षमागे साधन और मिश्चय मोक्षमागं साध्य एसा व्यवहार करना उचित ही है यहउक्त कथनका तात्पर्य है। गाथा १६१ में निश्चयनयसे निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे समाहित आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग कहा गया है। यह मोक्षमार्गका आत्मभूत लक्षण हैं। इससे हम जानते है कि निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यम्तान और निश्चय सम्यक्चारित्र इन तोनोंमें एक-एकको मोक्षमार्ग कहना सद्भुतव्यवहार नयका वक्तव्य है और धर्मादि द्रव्योंकी श्रद्धा, अंग-पूर्वगत ज्ञान तथा अशुभरी निवृत्ति और शुभमें प्रवृत्तिको मोक्षमार्ग कहना यह असमृतव्यवहार नयका वक्तव्य है। इन्हें असद्भूतव्यबहारनयसे मोक्षमार्ग इसलिए कहा गया है कि इसमें यथार्थरूपम मोक्षमार्गपना तो नहीं है, परन्तु ये यथार्थ मोक्षमार्गके अविनामावी है, इसलिए इनमें एकार्थसम्बन्ध होनेसे मोक्षमार्गका उपचार किया गया है । इस प्रकार इस गाथाको टीका आचार्य वमतचन्दने व्यवहार मोक्षमार्गको साधन और निश्चय मोक्षमार्गको साध्य क्यों कहा इसका स्पष्टीकरण हो जाता है। लोकमें निश्चय मोक्षमार्गको भी धर्म कहते है और व्यवहार मोक्षमार्गको भो धर्म कहते है । परन्तु इन दोनोंमें अन्तर क्या है इसे समझने के लिए अनगारधर्मामृत अ० १, श्लोक २४ पर दृष्टिमात कीजिए। पण्डितप्रवर पाशाघरजो इन दोनोंमें भेदको दिखलाते हुए लिखते है Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संका समाधान निरुन्धति नवं पापमुपातं क्षपयस्यपि । धर्मेऽनुरागारकर्म स धर्मोऽभ्युदयप्रदः ॥२५॥ जो नये पापको रोकता है और उगात पापका क्षय भी करता है ऐसे धर्म (निश्चय धर्म) में अनुरागसे जो कर्म होता है वह धर्म अभ्युदयको देनेवाला है ॥२४॥ यहाँ पर 'कर्म' शब्द च्यवन्ध और उसके निमित्तभूत शुभ परिणति इन दोनोंका सूचक है। मड़ पन किमानी गनिन वायु यादि शुभ प्रकृतियोंका बन्ध कैसे सिद्ध होता है ? इसी प्रश्नको ध्यान में रखकर आचार्य अमृतवन्द उसका समाधान करते हुए पुरुषार्थसियुमायमै लिखते है रत्नत्रयमिह हेतु निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य । आस्रवति यन्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः ॥२२॥ इस लोकमें रत्नत्रय निर्वाणका ही हेत है, अन्यका नहीं। और जो पुण्यका आस्रव होता है यह शुभीपयोगका हो अपराध है ।।२२०।। इसी तथ्यको और भी स्पष्ट करते हुए वे वहीं लिखते हैं असमग्रं भावयतो रन्ननयमस्ति कर्मबन्धो यः । स विपक्षकृतोऽव मोक्षोपायो न अन्धनोपायः ॥२११॥ असमग्न रत्नत्रय को भाते हुए जीवके जो कमबन्ध होता है वह नियमसे विपक्ष (राग) का कार्य है, क्योंकि जो मोक्षका उपाय है वह बन्धनका उपाय नहीं हो सकता ॥२१॥ इस पर शंका होती है कि आगममें जो सम्यक्त्व और सम्यक्चारित्रको तीर्थकर प्रकृति और आहारकद्विक प्रकृतियोंके बन्धका हेतु कहा है वह कैसे बनेगा ? इस प्रश्नका समाधन करते हुए वे वहीं लिखते हैं सति सम्यवस्व चारित्रे तीर्धकराहारबन्धको भवतः योग-कषायौ नासति तत्पुनरस्मिनुदासीनम् ।।२१८1। सम्यक्त्व और चारित्रके होने पर योग और कषाय वोधकर और माहारकद्वय इनके बन्धक होते है, सम्यक्त्व और चारित्रके अभावम नहीं। ( इसलिए उपचारसे सम्यक्त्व और चारित्रको बन्धका हेतु कहा है। (वस्तुतः देखा जाय तो) वे दोनों इस (बच्च) में उदासीन है। __ यदि कहा जाय कि जो जिस कार्यका हेतु नहीं उसे उसका उपचारसे भी हेतु पयों कहा गया है ? इसका समाधान करते हुए वे वहीं लिखते हैं एकस्मिन् समवानादत्यन्तविरुद्धक्रायोरपि हि ।। इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्ताशापि रूहिमितः ।।२१९।। एकमें समवाय होनेसे अर्याल एक आत्मामें (निश्चवधर्म और व्यवहारधर्मका) समवाय होनेसे अत्यन्त विरुव कार्यों का भो वसा व्यवहार ऐसे हदिको प्राप्त हुआ है जैसे घो जलाता है यह व्यवहार रूढिको प्राप्त हुआ है ॥२१॥ ये कतिपय आगमत्रमाण है । इनसे यह स्पष्ट रूपसे समझ में आ जाता है कि निश्चयधर्म पन्धका वास्तविक हेतु न होने पर भी उसके सद्भाव में अमुक प्रकारका बन्ध होता है यह देख कर जैसे उसे उस बन्धका उपचारसे हेतु कहा जाता है वैसे ही व्यवहारधर्म निश्चयरत्नत्रयका १०० Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९४ जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा वास्तविक हेतु नहीं, फिर भी अमुक प्रकारके व्यवहार धर्मके सद्भाव में अमुक प्रकारका निश्चयधर्म होता है यह देख कर उसे निश्चयधर्मका उपचार हेतु कहा गया है। पंचास्तिकाय गाथा १६० व १६१ को टीकामें इसो तथ्यको ध्यान में रख कर व्यवहार मोक्ष मार्गको साधन और निश्चयमोक्षमार्गको साध्य कहा गया है । अपर पक्षका कहना है कि दुश्यसंग्रह गाथा १३ की टीका में यह कहा है कि 'जो निश्चय व व्यवहारको साध्य-साधनरूपसे स्वीकार करता है वह सम्यग्दृष्टि है ।' किन्तु उक्त टीका में क्या कहा गया है यह यहाँ दे देना चाहते है । यथा- स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपरमात्मत्रच्यमुपादेयं इन्द्रियसुखादिपर हि हेयमि सर्वप्रणीत निश्चय व्यवहारनयसाध्य - सावकभावेन मम्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशकोधादि • द्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवरगृहीततस्करषद । त्मनिन्द्रासहितः सन्निन्द्रियसुखमनुमवतीस्यविरतसभ्यग्दष्टेर्लक्षणम् । जो स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि अनन्त गुणोंका आधारभूत निज परमात्मद्रश्य उपादेव है तथा इन्द्रियसुख आदि पर द्रव्य त्याज्य है। इस तरह सर्वज्ञ देव प्रणोत निश्चय व व्यवहारनयको साध्य-साधक मात्र मानता है । परन्तु भूमिकी रेखा के समान क्रोध आदि द्वितीय कषायके उदयसे मारने के लिए कोतवालके द्वारा पकड़े गये चोरकी भाँति मात्मनिन्दा सहित होकर इन्द्रिय सुखकर अनुभव करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टिका लक्षण है। । यह व्यसंग्रह का वचन है, विके आधार से अपर पक्षने आगे पोछेका सन्दर्भ छोड़कर पूर्वोक्त वाक्यकी रचना की है। इसमें विकाली ज्ञायकस्वभाव आत्माको निज द्रव्य बतलाकर उसमें सम्यग्दृष्टिके उपादेय बुद्धि होती है और इन्द्रिय सुखादिको परद्रव्व बतलाकर उसमें सम्यग्दृष्टि बुद्धि होती है। इस विधि से जो वह सम्यग्दृष्टि है उसके लिए यहाँ ऐसा बतलाया गया है कि वह अर्हत्सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय व्यवहारनयको माध्य-साधकभावसे मानता है। इससे यह तथ्य फलित होता है- १. सम्यग्दृष्टि ज्ञानादि अनन्त गुणांके आधारभूत निज परमात्मद्रव्य ( त्रिकाली विकारस्वरूप ज्ञायक आत्मा ) को मात्र उपादेय मानता है और इसके सिवा अन्य इन्द्रिय सुख आदिको परद्रव्य समझकर हे मानता है। और इस प्रकार देव उपादेयरूपसे इन दोनों में साध्य साधक भाव मानता है यह तथ्य हैं जो उक्त कथनसे सुतरां फलित होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता कि सम्यग्दृष्टि जो निश्चयको साध्य और व्यवहारको साधन मानता है वह इस रूपमें नहीं मानता कि व्यवहार करते-करते उससे निश्चयकी प्राप्ति हो जाती है। किन्तु वह यह अच्छी तरह से समझता है कि निश्वयस्वरूप मोक्षकी प्राप्तिनिश्चय रत्नत्रयको समग्रता के होनेपर हो होतो हूं, मात्र व्यवहार धर्मके झालम्बन द्वारा विकल्परूप म रहने से नहीं होती। साथ ही साथ वह यह भी अच्छी तरहसे समझता है कि इसके पूर्व जितने अंश में रत्न की प्राप्ति होती है वह मो निर्विकल्प ज्ञायक स्वरूप आत्मा के अयलम्बनसे तन्मय परिणमन द्वारा ही होती है, व्यवहार धर्मका अवलम्बनकर उसमें अटके रहने से नहीं होती। व्यवहार धर्म के होते हुए भी वह इन्द्रिय सुखके समान परमार्थसे है हेय हो । सम्यग्दृष्टि वर्तता है तब निश्चय व्यवहारनयनं साध्यसाधनभाव सुघटित होता है, कि साम्यभूत जो निश्चय है उसके ज्ञान करानेका हेतु व्यवहारलय है । यथा सविकल्प दशा में प्रवृत्ति ऐसो यथार्थ श्रद्धापूर्वक जब अन्यथा नहीं। वह ऐसे Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और समका समाधान १. कोई देव-शास्त्र-गुरुकी घद्धा-भक्ति-पूजाका छोड़कर कुदेवादि व शासनदेवता आदि रागी देवादिककी असा-भक्ति-पजा स्नमें भी नहीं करता। २. मय-मांस-मधु आदिका सेवन नहीं करता। ३. धर्म के नामपर एकेन्द्रियादि जोत्रों-तकको किसी भी प्रकारको हिसाको स्वप्न में भी प्रश्रय नहीं देता। ४. वीतराग देवको उपासना, पीतराग भावये प्रति श्रद्धावान होकर को जानेपर ही यथार्थ उपासना मानता है। ___इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि के प्रशम, रांवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि जितने भी बाह्य लक्षण है वै जिसमें पूरी तरह से घटित होते है और जो निरन्तर अतीन्द्रिय आत्मसुखके बेइनकी हो यथार्थ लाम मानता है उसके व्यवहार धर्मरूप इस बाझ लक्षणसे साध्यभूत निश्चयका ज्ञान होता है। यही कारण है कि आगममें व्यवहार धर्मको व्यवहार साधन और निश्चय धर्मको साध्य कहा है। इस द्वारा उस एकान्त मिश्चयाभासीका परिहार किया गया है जो मड़ेके समान अनिमोलित लोचन वाला बन तथा कुछ भी चिन्ता मग्न होकर इच्छानुसार वर्तता है और प्रमादो होकर बाह्य क्रियाकाण्डसे सर्वदा विरत रहता है। आचार्य कहते हैं कि बाह्य क्रियाकाण्डसे निश्चय की प्राप्ति नहीं होती यह जहाँ सच है, वहाँ भूमिकानुसार यथाविधि बाह्य क्रियाकाण्ड होना ही चाहिए । अन्यथा यही समझना चाहिए कि इसे परमार्थस्वरूप निश्चयकी प्राप्ति नहीं हुई है। ___ 'भूमिकानुसार यथाविधि वाह्य क्रियाकाण्ड होना हो चाहिये।' इसका आशय यह है कि चौथे, पांचवें और छठे गगस्थानवालेका जितना और जिस विधिमे आगममें क्रियाकाण्मु बतलाया है उतना और उस विधिसे उस गुणस्थानवालेका बाह्य-क्रियाकाण्ड नियमसे होता है। इसमे अपवाद नहों 1 चोथे कालका बाह्य-क्रियाकाण्ड दूसरे प्रकारका हो और पांचवें कालका बाहा-क्रियाकाण्ड कोई दूसरे प्रकारका हो ऐमा नहीं है। जैसे उस गुणस्थानका अन्तरंग निश्चयधर्म एक प्रकार का है वैसे हो बहिरंग व्यवहारधर्म भी तदनुकूल एक प्रकारका है। ऐसा होनेपर ही इनमें उक्त प्रकारसे व्यवहारतबसे साम-माधन भाव बन सकता है, अन्यथा नहीं। आवार्य कहते हैं कि यह तो है कि वाह्य-क्रियाकाण्ड शास्त्रोक्त विधि भी हो, परन्तु अन्तरंग निश्चयधर्म उसके न हो। पर यह नहीं है कि अन्तरंग निश्चमधर्म तो हो पर उसका साधगभूत ( ज्ञान करानेवाला) बाह्म क्रियाकाण्ड शास्त्रोक्तविधिसे उसके ने ही। यह आगविधि है । सम्यष्टि इसे यथावत् जानता है। स्पष्ट है कि इस वचन द्वारा अन्तरंग-बहिरंग दोनोंकी मर्यादाका ज्ञान कराया गया है। सम्यग्दृष्टि ऐमो मर्यादाको जानकर वर्तता है तभी वह अविरतसम्यग्दृष्ट कहलाने का पात्र है। इस प्रकार साध्य-साधनभावका आपाय क्या है, इसका संक्षेप में सष्टीकरण किया। इसपर विशद प्रकाश समयसार गाथा से पड़ता है। अपर पक्ष उम और दृष्टिपान करके माप-साधनभाव का आशय क्या है इसे समझने की कृपा करे यह निवेदन है। १६. उपयोग विचार अपर पक्ष ने प्रवचनसार मा०६ की टीकाके आधारसे अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयंग इस प्रकार जो इन तीन भेदोंका निर्देश किया है वह ठोक है। इतनी विशेषता है कि शावकों के यद्यपि Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचर्चा शुभोपयोगकी बहुलता है । परन्तु किसी काल में उनके भी शुद्धोपयोग होता है, ऐसा आगम है। इसो तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन प्रवचनसार गाथा २४८ की टी काम लिखते हैं ननु शुभोपयोगिनामपि कापि कामे शुद्धोपयोगभावना दृश्यते, शुद्धोपयोगिमामपि कापि काले शुभोपयोगभाबना इश्यते । श्रावकाणामपि साभाथिकादिकाले शुद्धमावना दृश्यते। तेषां कथं विशेषो भेदो ज्ञायत इति ? परिहारमाह-युक्तमुक्तं भवता परं किन्तु ये प्रचुरेण शुभोपयोगेन वर्तन्ते, यद्यपि क्वापि काले शुद्धोपयोगभावनां कुर्वन्ति तथापि शुमोपयोगिन पत्र भण्यन्ते । ग्रेऽपि शुद्धोपयोगिनस्ते यधपि कापि काले शुभोपयोगेन वर्तन्ते तथापि शुद्धोपयोगिन एव । फस्मान ' बहुपदम्य प्रधानत्वादानवननिम्बवनवदिति । शंका-शुभोपयोगवाले जीवों के भी किसी समय शुद्धोपयोगभावना देवी जाती है। इसी प्रकार शक्षोपयोगी जीवोंके भी किसी समय शुखोपयोगभावना देखी जाती है। श्रावकोंके भी सामायिक आदिके कालमें शुद्ध भावना देखी आती है । इनका विशेष भेद कैसे ज्ञात होता है ? समाधान-आपने ठोक कहा है, किन्तु इतनी विशेषता है कि जो बहुलतासे शुमोपयोगके साथ वर्तते है वे सद्यपि किसी समय शुशोपयोगरूप भावनाको करते हैं तो भी शुभोपयोगी ही कहे जाते है और जो शुद्धोपयोगी हैं वे यद्यपि किसी समय शुभोपयोगके साथ वर्तते हैं तो भो शुद्धोपयोगी ही हैं, क्योंकि इसमें आम्रवन और निम्बबनके समान बहुपदको प्रधानता है। बामार्य जयसेनके इस कथनसे यह बात तो स्पष्ट हई कि उन्होंने इसो परमागमको स्वों मायाकी में धावकोंके जो मात्र शुभोपयोग बतलाया है वह बहलताको अपेक्षा बहपद वक्तव्य होनेसे हो बतलाया है । वैसे सम्यग्दष्टि और श्रावक जब अपने ज्ञायकस्वभाव नामाके लक्ष्यसे उपयोगस्वभावरूपसे परिणमते है तब उनके भी शुद्धोपयोग होता है। उक्त आगमका भी यही आशय है । शुद्धोपयोग उनके होता ही नहीं ऐसा आगमका आशय नहीं है। अपर पक्षने लिखा है कि 'चौधे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनाप शुद्धभाव है और कषायरूप अशुद्धभाव है, इन दोनों शुद्धाशुद्ध भावोंके मिश्रित भावरूप शुभोपयोग कहा है। इसी प्रकार यथासम्भव पाठवें, छठे गुणस्थान में भी मही शुद्धाशुद्ध मिश्रित भावरूप गुभोपयोग जानना चाहिये।' अपने इस कथन की पुष्टिमें उसका तक यह है कि 'यदि शुभोपयोगको शुद्धाशुद्धभावरूप न माना जागा तो शुभोपयोग मोक्षका कारण नहीं हो सकेगा।' अपने इस कथनकी पुष्टि में उस पक्षने प्रवचनसार गाथा २५४ की आचार्य अमृत चन्द्रकृत टीकाका 'गृहिणो तु समस्त एष' इत्यादि वचन उद्धत किया है। अब यहां दो दातोंका विचार करना है। प्रथम तो यह देखना है कि दामोपयोग कहते किसे है ? और दूसरे 'गृहिणां तु समस्त' इत्यादि टीका वचनका भी विचार करना है? १. इस जीवके चौथे गुणस्थानसे सम्यग्दर्शन होनेपर भी कषायका सद्भाव १० वें मुणस्थानतक बराबर पाया जाता है, इसलिए अपर पक्षने जो इन दोनों शुद्धाशुद्धभावोंके मिश्चितरूप उपयोगको शुभोपयोग कहा है वह ठीक नहीं है। किन्तु जिस समय उपयोग स्वभाववाले इस जीव का महंदादिको भक्तिरूप परिणाम होता है, प्रवचनरस जीवांके प्रति वात्सल्य भाव होता है, अपनेसे गुणोंमें अधिक श्रमणोंको देखकर खड़ा होने, अनुगमन करने, प्रणाम-विनय आदि करने का भाव होता है, सम्यग्दर्शन और सम्पज्ञान के उपदेशका भाव होता है, शिष्योंको स्वीकार करने और उन्हें सम्यग्दर्शनादि गुणांस पष्ट करनेका भाव होता है तथा अशुभका निवारण करने के अभिप्रायसे अहिंसादि नतोको सम्यक प्रकारसे पालनेका अभिप्राय होता है तब इस Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७९७ जीवको शुभोपयोगवाला कहा गया है। यह शुभोपयोग गृहस्थों के बहुलतासे पाया जाता है। किन्तु मुनिचोंके शुद्धोपयोगकी मुख्यता बनलाई है, क्योंकि गृहस्थोंके जहां अधिक मात्रामें परका अवलम्बन बना रहता है वहां साध निरन्तर परके अवलम्बनको गौणकर अपने बायकस्वभाव आस्माके अवलम्बनके प्रति ही सदा उद्यमवान रहते हैं। वे यद्यपि बाह्य में आहारादि क्रिया करने में उपयुक्त प्रतीत होते हैं तथापि अन्तरंगमें उनके बहुलनासे आत्माका अवलम्बन बना रहता है, इसलि र इन क्रियाओं के काल में भी उनके आत्मकार्य में सावधानों देखी जाती है। ___अपर पक्षने अपने पक्षका समर्थन करनेवाला जानकर उक्त टोकादनन यद्यपि उद्धृत तो किया है, परन्तु वह इस समग्र कथनपर सम्बों के साथ दृष्टिपात कर लेता तो उसकी ओरसे शभोपयोगका जो अर्थ किया गया है वह कभी भी नहीं किया गया होता । संक्षेपमें परके लक्ष्यसे शुभरागसे अनुवासित उपयोगका होना शुभौगयोग है और आत्माके लक्ष्यसे उपयोगका तन्मय होकर परिणमना शुद्धोपयोग है। इस प्रकार शुद्धोपयोगमे भिन्न शुभपयोग क्या है इसका निर्देश किया। २. अब उक्त टीकावचनपर दृष्टिपात कीजिए। इस में गृहस्थके शुद्धात्माके अनुभन का सर्वथा निषेध नहीं किया गया है। इसमें बतलाया है कि जिस प्रकार ईधन स्फटिक मणि (सूर्यकान्त मणि) के माध्यमसे सूर्यके तेजको अनुभवता है अर्थात स्फटिकमणिक संयोगमें जिस प्रकार ईधन सूर्य किरणोंको निमित्तकर प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार गृहस्थ भी शुद्धामा प्रशस्त राग होनेसे रागका संयोग रहते हुए भी शुद्धात्माके लक्ष्यस सगका (शुज्ञात्माका) अनुभव करता है। यहाँ रागका प्राचुर्य है और शुद्धिकी मन्दता। फिर भी यह जीच उम्र पुरुषार्थ द्वारा आत्माके लक्ष्यसे रागको हीन-हीनतर करता हुआ शुद्धि में वृद्धि करता जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे स्पष्ट है कि जहाँ व्यवहारधर्मको मोक्षका परम्परा साधन कहा है वहाँ उसका अभिप्राय इतना ही है कि उसके सद्भावमें जो स्वभावके लक्ष्यसे शुद्धि में आंशिक वृद्धि होती है वह व्यवहार धर्म उसको वृद्धिमें बाधक नहीं है । शुद्धिको उत्पत्ति और उसको वृद्धि का यहो क्रम है। यही कारण है कि श्रमणोंको लक्ष्यकर प्रवचन मार गाथा २४५ में यह कहा है कि श्रमण शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगीके भेदसे दो प्रकार के होते हैं। उनमें जो शुद्धोपयोगी श्रमण है वे निराम्रव हैं और जो शुभोपयोगी श्रमण हैं, वे सास्रव हैं। इस नियममें गृहस्थोंका भी अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि पथार्थ मोशमार्ग एक है और वह यथापदवी सबके समानरूपसे लागू होता है। गृहस्य शुभोपयोगके द्वारा कर्मों को क्षपणा करते है और मुनि शुद्धोपयोगके द्वारा कर्मोकी क्षपणा करते हैं ऐसा न तो आगम ही कहता है और न तक तथा अनुभवसे ही सिद्ध होता है । सष्ट है कि उक्त वचनके आवारसे यह सिद्ध नहीं होता कि पर देवादिके लक्ष्यसे होनेवाला व्यवहारधर्म निराकुललक्षण मोक्षसुखका यथार्थ साधन है। अगर पक्षने सम्यग्दर्शनरूप शुद्ध भाव और कवायरूप अशुद्धभाव इन दोनों शुद्धाशुद्धभावों के मिश्रितरूप उपयोगको शुभोपयोग लिखा है। किन्तु उस पक्षका यह लिखना ठीक नहीं, क्योंकि सम्यग्दर्शन श्रद्धाकी स्वभाव पर्याय है और राग चारित्र गुणकी विभाव पर्याय है। इन दोनों का मिश्रण बन ही नहीं सकता। अपर पर कह सकता है कि सान्निपातिकपने की अपेक्षा हम इन दोनोंको मिश्रित कहते है, किन्तु उस पक्षका यह कहना क्यों ठोक नहीं, इसके लिए हम उसका ध्यान तत्त्वार्थवाति अ० २ सू०७ को इन पंक्तियों की ओर आकृष्ट करते हैं सानिपातिक एको भाबो नास्तीति 'अभाघात्' इत्युच्यते, संयोगापेक्षया अस्तीत्या वचनम् । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९८ जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा सानिपातिक एक भाव नहीं है, इसलिए उसका अभाव कहा है. संयोगको अपेक्षा है यह आप्रवचन है। स्पष्ट है कि इन दोनोंके मिश्रित उपयोगको शुभपयोग कहना उचित नहीं है। आगममें तो शुभोपयोग का यह लक्षण कहीं लिया नहीं । फिर भी अपर पक्षने शुभोपयोगका यह लक्षण कल्पित करने का साहस किया इसका हमें आश्चर्य है। अपर पक्षने प्रतिशंका में पारित्रगुणकी छायोपशमिक पर्यायको ध्यानमें रखकर यह लिखा है कि 'वह मिचित पर्याय है, केवल शुद्ध पर्याय नहीं । किन्तु शुद्धाशुद्ध है और स्थाई नहीं है और प्रतिशंका ३ में वह पक्ष सम्यग्दर्शनरूप शुद्धभाव और कामरूप अशुद्धभाव इन दोनों शुद्धाशुद्ध भात्रोंको मिलाकर मिश्रित भाव ह रहा है । इस प्रकार जो उसके कान में पपर विरोध है उसपर वह स्वयं दृष्टिपात करंगा ऐसी हमें आशा है। इसलिए पिछले उत्तर में हमने जो यह लिखा था कि कई स्थानोंपर प्रतिशंका २ में मिली हुई शुद्धाशुद्ध पर्यायको शुभ कहा गया है, इससे सष्ट विदित होता है कि यह प्रतिशंका २ में स्वीकार कर लिया गया है कि जितना रागांया है वह मात्र बन्धका कारण है पर उसे निर्जराका हेतु सिद्ध करना इट है, इसलिए पूरे परिणामको शुभ कहकर ऐसा अर्थ फलित करनेकी चेष्टा की गई है सो यह कथनको चतुराईमात है।' वह उचित ही लिखा था, क्योकि आगममें कहीं भी मिन पर्यायको शुभभाव नहीं कहा है । शुभ और अशुभ ये भेद योग और उपयोगके है । इनके सिवाय उपयोग शुभ भी होता है। अतएव बारित्रगुणको मिश्रपर्यायको या सम्यक्त्व तथा रागकी कल्पित को गईं प्रिश्न गर्यायको शुभ कहना आगमसंगत नहीं है। अपर पक्षने भावपाहुडको १५१ वी गाथा उद्धृतकर यह सि करना चाहा है कि जिनक्ति जन्ममरणरूपो वेलके मूलका नाश करनेवाली है । इसमें सन्देह नहीं कि जिस सम्यग्दृष्टिके जिनदेव में अपूर्व भक्ति होती है, वह केवल भक्तिरूप प्रशस्त रागके कारण पुण्यबन्ध ही नहीं करता, किन्तु आत्मामें प्राप्त हुई सम्यग्दर्शनरूप विशुद्धिके कारण जन्म-मरणरूपो वेलको समूल नाश करने में भी समर्थ होता है। यही भाव भावपाहुडको उक्त गाया व्यक्त किया गया है। एकके कार्यको सहचर सम्बन्धबश दूसरेका कहना ऐसा व्यवहार जिनागम में मान्य' ठहराया गया है। प्रकृतमें इसी पबहारको ध्यानमें रखकर उक्त कथन किया गया है। पुरुषार्थसिद्धग्रुपायके आधारसे विशेष खुलासा पूर्वमें ही कर आये हैं। अपर पक्षने परमात्मप्रकाश ब. २ गाथा ६१ की टोकामें आये हुए 'मुख्यनृत्या' पदको देखकर यह स्वीकार कर लिया है कि 'देव, शास्त्र, गुरुकी भक्तिको गौणरूपसे कर्मक्षयका हेतु कहा गया है इसकी हमें प्रसन्नता है. क्योंकि स्वभावके लक्ष्यसे जो आत्माद्धि उत्पन्न होती है उसमें बाह्य (व्यवहार) हेतु गौण है। परके लक्ष्यसे कर्मलपणा न होकर कर्मबन्ध होता है यह इसका तात्पर्य है। चारित्रगुणकी मिश्रित अखण्ड पर्यायमें जितना शुद्धयंश है वह पाप-पुण्य दोनोंकी निवृत्तिरूप है और जितना रागांश है, वह पापकी निवृत्ति और पुण्यकी प्रवृत्तिरूप है, इसलिए उभयकी निवृत्तिरूप जितना शुद्धथंश हैं वह स्वयं कर्मक्षयरूप होनेसे कर्ममयका हेतु है और जितना प्रवृत्त्वंश है वह स्वयं आस्त्रव-बन्धरूप होनेसे बन्धका हेतु है। तत्त्वार्थसूत्र में जो सम्यक्त्वको देवाका आस्रव लिखा है उसका आशय इतना ही है कि सम्यक्त्वके काल में मनुष्यों और तियञ्चोंके रागनिमित्तक यदि आयुका बन्द होता है तो देवायुका हो होता है। विशेष खुलासा आगम प्रमाणके साथ इसी उत्तर में पहले हो कर आये है। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ७२९ कहाँ कोन उपयोग किस दृष्टिसे कहा गया है इसका भी विशेष स्पष्टीकरण आगमरमाणके साथ पूर्व में किया ही है। बृहद्रव्यसंग्रहै, गाथा ३४ की टोकागें 'असंयतसम्यग्दष्टिशावक' इत्यादि पचन शुद्धोपयोगका व्यवहार (उपचरित) हेतु क्या है यह दिखलाने के लिए लिखा गया है । शुभोपयोग परम्पससे अर्थात् उपचारसे शुद्धोपयोगका सापक है इसका हमने भी नोकिया है। यदि सनुप में शुमारयोगशद्धापयोगका यथार्थ हेतु होता तो उसे शद्धोपयोगका परम्परासे साधक त्रिकालमें नहीं लिखा जाता। स्पष्ट है कि इस वचन द्वारा केवल यह बतलाया गया है कि जब यह जीव स्वभावसन्मुख होकर झाद्धोपयोगको उत्पन्न करता है, उसके पूर्व इसके नियमसे शुभोपयोग होता है । उसके अशुभोपयोग त्रिकाल में नहीं होता यह दिखलाना ही उक्त वाक्यका प्रयोजन है । अपर पक्षने दूसरो दृष्टिसे ४ थे से १२ वें गुणस्थान तक जो शुभोपयोग लिखा है वह दृष्टि कोन मी और किस आधारसे यह कथन किया गया है यह हम न जान पायें। वस्तुतः यह कथन मागमनिरुद्ध होनेसे इस पर विचार करना ही व्यर्थ है। फिर भी यहाँपर हम यह स्पष्ट कर देना अपना कर्तव्य समझते हैं कि किसी पर्यायका शुद्धाशुद्ध मिश्ररूप होना अन्य बान है और लपयोगका शुभ, अशुभ और शुद्धरूप होना अन्य घान है. क्योंकि उपयोग अनुष्ठानरूप होता है | जब विषयों के आलम्बन से अशुभ क्रियामें यह जीव उपयुक्त होता है तब अशुभोपयोग कहलाता है, जब देवादि और नादिके आलम्बनसे शुभ क्रियामें यह जीव उपयुक्त होता है तथ शुभोपयोग कहलाता है और जब चिश्चमत्काररूप ज्ञायक आत्माके अबलम्बन द्वारा शुद्ध निश्चयनयरूपसे यह जीव उपयुक्त होता है तब शुद्धोपयोग कहलाना है। इस प्रकार आलम्बनभेदसे उपयुक्त आत्माका उपयोग तीन प्रकारका होता है। चारित्रकी मिश्ररूप पर्याय शुभोपयोगके काल में भी है और शुद्धोपयोगके काल में भी है, परन्तु आलम्बनके भेदसे उपयोग दो भागों में विभक्त हो जाता है, अतएव चारित्र गुणकी मिश्र पर्यायसे उपयोगको भिन्न ही जानना चाहिए। जहाँ शुभोपयोग होता है वहाँ वह और चारित्रगुणका रागांश ये दोनों तो बन्धके ही हेतु हैं। हाँ वहाँ जिनना शुद्धपश होता है वह स्वयं संवर-निर्जरारूप होनेसे संवर-निर्जराका हेतु है। तथा जहाँ शुद्धोपयोग होता है वहाँ वह और जितना शुद्धया है वे दोनों स्वयं संबर-निर्जरारूप होनेसे संपर-निजराके हेतु है तथा यहाँ जितना रागांश है वह बन्धका हेतु है। यह आगमकी व्यवस्था हूं, हम जानकर तत्वका व्याख्यान करना हो तचित है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने समयसार निर्शय अधिकारम भोगमें तन्मय होकर उपयुक्त हुए जीवके भोगको निर्जराका हेतु नहीं कहा है। किन्तु सम्पदाको सविकल्प दशाम भोगको क्रिया होते हुए भी भोगमें जो विरक्ति है उसे निर्जराका हेतु कहा है। इसके लिए गाया १६५ आदि पर दृष्टिपात कीजिये । समयसारकलशमें इसका विशदतासे स्पष्टीकरण करते हए लिखा है नाश्नुते विवमसेवनेऽपि यत् स्वं फल विषसेवनस्य ना । ज्ञानवैभवविरागतात्रलात् सेवकोऽपि तदसावसेचकः ।।१३५॥ यह ज्ञानी गुरुष विषय सेवन करता हा भी ज्ञानवैभव और विरागताके बलसे विषयसेवनके निजफल (रजित परिणाम) को नहीं मांगता, इसलिए वह सेवक होने पर भी असेवक है ॥१३॥ सम्यग्दृष्टि के नियमसे ज्ञान वैराग्य शक्ति होती है (H.क. १५६) यह लिखकर तो आचार्य अमतचन्द्रने उक्त विषयको और भो स्पष्ट कर दिया है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा आचार्य कुन्दकुन्द समयसार निर्जराधिकारको उपमोगमिंदिरहि' गाथा द्वारा यह भाव व्यक्त कर रहे हैं कि सम्पनि जीवको कर्मोदयनिमित्तक भोग अवश्य प्राप्त होते हैं पर वह उनमें विरक्त ही रहता है, इसलिए वे निर्जराके हेतु हैं । यहाँ निर्जराकी हेतुताका बल विरक्त भावों पर है, भोगों पर नहीं। अपर पक्ष सम्भवतः यह भूल जाना है कि भोगोंमें आसक्ति अशुभोपयोग है, शुभोपयोग नहीं, अन्यथा वह पक्ष उक्त वचमको इस रूपमें प्रकृतमें उदाहरणरूपमें उपस्थित न करता। अपर पक्षने यहाँ पर शुद्धोपयोग ११ में गुणस्थानसे होता है यह लिस्यकर कर्मबन्धको व्यवस्थाका निर्देश किया है और पहले वह एक अपेक्षासे ६ गुणस्थान तक तथा दूसरो अपेक्षासे १२वें गुणस्थान तक शुभोपयोग लिख आया है । यहाँ उस पक्षने 'यदि उपनामश्रेणि या क्षयवाथेणिके आदि तीन गुणस्थानों में भी शवोपयोग माना जाये' ग्रह लिख कर अपने पिछले कथनके विरुद्ध निविवादरूपसे यह भी घोषित कर दिया है कि वे गुणस्थानमें शुभोपयोग होता है, जब कि बह एक अपेक्षासे वे गुणस्थानमें भी शुसो. पयोग स्वीकार कर आया है। इस प्रकार चौथे गुणस्थानसे १२ वें गुणस्थान तक कोन उपयोग होता है इस सम्बन्ध में उस पक्षको ये परस्पर विरुद्ध मान्यताएं है। और आश्चर्य इस बातका है कि इन परस्पर विरुद्ध मान्यताआके आधार पर वह पक्ष कर्मशास्त्र में प्रयुक्त हुए 'संक्लेश' और विमृद्धि' शब्दोंके ऊपर ध्यान न देकर कर्मबन्धकी व्यवस्था करना चाहता है। अन्यथा यह पक्ष हमारे 'शुभोपयोग होने पर कर्मबन्धकी स्थिति और अनुमागमे वृद्धि हो जाता है और शुक्रवार को होग पर स्थिति अनुभागमें हानि हो जाती है।' इस कयन पर अणुमात्र भी दीका न करता, क्योंकि सामान्यतः यह कथन आठों कों में प्रधानभूत तथा जीवके अनुजीवी गुणोंका घात करने में निमित्त होनेवाले चार घातिकर्मीको लक्ष्यमें रख कर किया गया है, पर अविकल घटित भी होता है। पुण्य-पाप प्रकृति योमसे पाप प्रकृतियोंका बन्ध शद्धोपयोगकै कालमें होता ही नहीं। आयुकर्मके लिए नियम ही अलग है। इसलिए अघाति कर्मोंकी दृष्टिसे उक्त वचन नहों लिखा गया है। ___अपर पचने शुभोपयोगका अर्थ विशुद्ध परिणाम किया है, वह ठोक नहीं, क्योंकि असाताके बन्धके योग्य परिणामका नाम संक्लेश है और साताके बन्धक योग्य परिणामका नाम विशुद्धि है । यथा-- को संकिलेसो णाम ? असादबंधजोगपरिणामो संकिलेसी णाम । का चिसोही? सादबंधजोगापरिणामी। -ध० पु. ६ पृ. १८५ शुभोपयोगमें ये संक्लेश और विशुद्धिरूप दोनों प्रकारके परिणाम होते हैं, इसलिए शुभोपयोगका अर्थ न तो विशुद्ध परिणाम करना उचित है और न ही शुभोपयोगके आधार पर सब कर्मोंके स्थितिबन्ध मोर अनुभागबन्धको व्यवस्था करना हो उचित है। कमशास्त्रमें संक्लेश और विशुद्धि इन दोनों संज्ञाओंका स्वतन्त्ररूपसे प्रयोग हुआ है । उसे ध्यानमे रखकर यहाँ हमें विवेचन करना इष्ट नहीं था। यहाँ तो हमें केवल यह बतलाना इष्ट था कि जब यह जीव स्व-परप्रत्यय कषायसे उपयुक्त होता है तब घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कैसा होता है और जब यह जीव स्व-परप्रत्यय कषायसे उपयुक्त नहीं होता है तब पातिकोका स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध कैसा होता है। इसी दृष्टिको ध्यान में रखकर हमने उक्त प्राक्य लिला था। किन्तु अपर पक्षने शुभोपयोगका अर्थ केवल विशुद्ध परिणाम करके उस आधार पर तीन आयुओं को छोड़कर सब कर्मोक स्थिति और अनुभागबन्धकी व्यवस्था करने की चेष्टा को यह उचित नहीं है । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान ८०१ अपर पक्षके इस व्यवस्थासम्बन्धी वचनको पढ़ कर यह भी मालूम पड़ता है कि वह शुभोपयोग अर्थात् विशुद्ध परिणामों प्रशस्त प्रकृतियोंके स्थितिबन्ध में वृद्धि मानता है। हमें आश्चर्य होता है कि उस पक्षी बोरसे गोम्मटसार मा० १३४ भी उद्धृत की गई धौर फिर भी यह तो हुई। यदि यह पक्ष विशुद्धि परिणामका अर्थ शुभोपयोग न करता तो सम्भवतः यह गलती न होती। वस्तुतः वह समय कथन हो भ्रमपूर्ण है, क्योंकि स्थितिबन्धके लिए अलग नियम है और अनुभागबन्धके लिए अलग नियम है। उनको पृथ करने पर ही समय कमोंको स्थिति अनुभवसम्बन्धी व्यवस्थाका ज्ञान कराया जा पृथक्-पृथक् सकता है । इस प्रकार अणुभादि तीनों उपयोगोंका क्या तात्पर्य है इसका विचार किया। १७. समयसार गाथा २७२ का आशय अपर पहने समयसार गाया २७१ को ध्यान में रख कर लिखा है कि 'वीतराग निविकल्प समाधिमें स्थित जीवोंके लिए व्यवहारनयका निषेध है, किन्तु प्राथमिक शिष्यके लिए वह प्रयोजनवान् है ।' समाधान यह है कि जितना भी अध्यवसानभाव है वह पराचित होनेसे बचका हेतु है अवश्य निश्चयनयके द्वारा उसका प्रतिषेध करते हुए आचार्यने व्यवहारनयनात्र प्रतिषिद्ध है ऐसा कहा है। इसलिए व्यवहारमयको प्रतिषेध्य हो जानना चाहिए, क्योंकि स्थापित निश्चयन पर झाड़ हुए शानियोंके ही कमस छूटनापन सुघटित होता है । जो सम्पदृष्टि जीव है वह सविक अवस्थामें आने पर भी व्यवहारनपको तो आप योग्य मानता ही नहीं, क्योंकि उसको उसमें हेवबुद्धि बनी रहती है यह यह अच्छी तरह से जानता है कि स्वरूपस्थिति हुए बिना मेरा भवबन्धनसे छुटकारा होना सम्भव नहीं है। इसलिए उसके विकल्प अवस्थामें पंच परमेष्ठीको भक्ति नादि, मोक्षमार्ग प्ररूपक शास्त्रोंका सुनना तथा अणुव्रत महाव्रत का पालना आदि रूप परिणाम होते अवश्य है, परन्तु इनके होते हुए भी उसके चित्तमें एकमात्र ज्ञायक आत्माका आश्रमकर तत्स्वरूप परिणमनको उपादेयता हो बनी रहती है। इसलिए वह (मम्यम्दृष्टि जीव ) व्यवहारको करने योग्य मानता होगा यह तो प्रश्न ही नहीं उठता हो जो प्राथमिक मिध्यादृद्धि ओत्र व्यवहारको आश्रय करनेयोग्य जान कर उसके आलम्बन द्वारा निरन्तर अज्ञानादिरूप परिणयता रहता है उसके लिए यह उपदेश है । माचार्य जयसेमाने समयसार गाथा २७२ की टीका में जो 'यद्यपि प्राथमिकापेक्षया' इत्यादि वचन लिखा है यह समयसार गाथा के अभिप्रायको ध्यान में रख कर ही लिखा है व्यवहारमय निश्चयका करानेवाला या सूचक है, क्योंकि यह कार्य तो निर्विकल्प जायक कारण कि 'मे शायरुस्वरूप साधक है इसका आदाय हो यह है कि व्यवहारनय निश्चयका ज्ञान सविकल्प अवस्था निविस्व अवस्थामे पहुंचाना व्यवहारनयका कार्य नहीं आत्माका कर तत्स्वरूप परिणमन द्वारा ही सम्पादित हो सकता है। हूँ, परम आनन्दका विधान हूँ ।' इत्यादि विकल्प ही जब तक इस जीवके बना रहता है तब तक वह निर्विकल्प समाधिका अधिकारी नहीं हो पाता ऐसी अवस्था बाह्य अणुव्रतादिरूप क्रिया व्यवहार उसका साधक होगा इसे कौन विवेक स्वीकार कर सकता है। ' आचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय अन्तमें जो 'व्यवहारमयेन विसान्य-साधनमा हत्यादिवचन लिखा है वह भी समयसार गाया ८ के आशयको ही सूचित करता है जो अनादि मिध्यादृष्टि प्राथमिक शिष्य या जिसका बेदककाल व्यतीत हो गया है ऐसा सादि मियादृष्टि प्राथमिक शिष्य यह नहीं जानता कि १०१ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. ८०२ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा यह श्रदान करने योग्य है, यह श्रदान करने योग्य नहीं है, यह श्रद्धान करनेवाला है और यह श्रद्धान है आदि, म्लेच्छस्थानीय उसे म्लेच्छभाषास्थानीय व्यवहारनय द्वारा परमार्थका ज्ञान कराना आवश्यक है। ऐसे प्राथमिक शिष्यके लिए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि वह व्यवहारनपसे परमार्थको जानकर परमार्थके अवलम्बनसे तलवरूप परिणमन द्वारा सूखसे-सहजरूपसे सम्यग्दर्शनाधि मोक्षमार्गस्वरूप तीर्थ में प्रवेश करता है। न कि उनके लिए-जिन्हें परमागमका अभ्यास करते हुए चिरकाल व्यतीत हो गया है, जिन्होंने पंचपरमेष्ठीके स्वरूपको जानकर उनकी पूजा-वन्दनामें अपना जीवन निकाल दिया है या मोचिरकालसे अणुवत-महात्रतादिका पालन कर रहे है और जो उनमें यत्किचित् दोष लगने पर कठोर प्रायश्चित्ताधि द्वारा सदाकाल इसका कारण करने में सस्पर रहते है । यह अपर पक्ष हो बसलावे कि हम उन्हें म्लेम स्थानीय मानकर प्राथमिक शिष्यके रूपमें स्वीकार कैसे करें? हमारा आत्मा तो इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। उनके लिए तो व्यवहारनय इस अर्थमे प्रयोजनवान है कि वे जिस भूमिकामें हों उसके अनुरूप व्यवहारका चरणानुयोगके अनुसार उन्हें यथार्थ ज्ञान होना चाहिए। और सविकल्प अवस्था हेयबुद्धिसे उसका यथाविधि पालन करते हुए भी उनकी दृष्टि सदा परमार्थपर बनी रहनी चाहिए। यह है पंचास्तिकायके उक्त उल्लेत्रका बाशय । इसी आशयको ध्यानमें रखकर पण्डितप्रवर जयवन्दजीने समयसार गाथा ८ के तात्पर्यको स्पष्ट करते हए उसके भावार्थमें ये शब्द लिपिबार किये है लोक शुबनयको जानते ही नहीं है, क्योंकि शुद्धनयका विपय अभेद एकरूप वस्तु है । तथा अशुद्धनयको ही जानते हैं, क्योंकि इसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार हैं। इसलिए न्यवहारके द्वारा ही शुन्द नयस्वरूप परमार्थको समझ सकते हैं । इस कारण म्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला जान उसका उपदेश किया जाता है । यहाँ पर ऐसा न समझना कि व्यवहारका मालम्बन कराते हैं बल्कि यहाँ तो व्यवहारका आलम्बन छुड़ाके परमार्थको पहुँचाते हैं ऐसा जानना। अपर पक्षका कहना है कि यदि विवक्षित नय अपने अपने प्रतिपक्षी नयके सापेक्ष है तो सुनय अथवा सम्यक् नय है जो सम्यग्यदृष्टिके होते हैं। मिथ्यादृष्टिके वही नय परनिरपेक्ष होनेसे झूमय अथवा मिथ्यानय होते हैं।' समाधान यह है कि प्रत्येक नय सापेक्ष होता है इसका तो हमने कहीं निषेध किया ही नहीं । परन्तु यहाँ पर 'रापेक्ष' का अर्थ क्या इसे जान लेना आवश्यक है । असहस्री १०२९० में आचार्यद्वव 'मिथ्यासमूहो मिथ्या' इत्यादि कारिकाकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं सुनय-दुर्ण योर्यास्माभिलक्षणं व्याख्यातं तथा न चोय न परिहारः, निरपेक्षाणामेव नयाना मिथ्यात्वात् सद्विषयसमूहस्य मिथ्याम्योपगमात, सापेक्षाणां तु सुनयत्वात् तद्विषयाणां अर्थक्रियाकारित्वात् तत्समूहस्य वस्तुत्वोपपत्तेः । तथा हि निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकधर्मस्य निराकृतिः, सापेक्षस्वमुपेक्षा,अन्यथा प्रमाणनयाधिशेषप्रशंगात् धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलमणत्वात् प्रमाण-नथ-दुर्ण याना प्रकारान्तरासंभवाच प्रमाणातदुतत्स्वभावप्रतिपत्तेः नयात्तव्यतिपत्तेः दुणयात्तदन्यनिराकृतेश्च । इति विश्वीपसंहतिः, व्यतिरिक्त - प्रतिपत्तिप्रकाराणामसम्भवात् । सुनय और दुर्नवका जिस प्रकारसे हमने लक्षण कहा है उस प्रकारसे न शंका है और न उसका परिहार है, क्योंकि निरपेक्ष नय हो मिथ्या होते हैं,कारण कि उनके विषय-समसको मिथ्याला स्वीकार किया है। सापेक्ष नय तो सुनय होते हैं, क्योंकि उनके विषय अर्थक्रियाकारी होते हैं तथा उनके विषयसमूहमें वस्तुपना Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शका १६ और उसका समाधान ८०३ बन जाता है । यथा - निरपेक्षत्वका अर्थ है प्रत्यनोक धर्मका निराकरण तथा सापेक्षत्वका अर्थ है उपेक्षा, अन्यथा प्रमाण और नयमें अविशेषताका प्रसंग उपस्थित होता है। कारण कि प्रमाण धर्मान्तर के बादामलक्षणवाला होता है, नय धर्मान्सर की उपेक्षा लक्षणवाला होता है और दुर्नय धर्मान्तरकी हानिलक्षणाला होता है, यहाँ अन्य प्रकार सम्भव नहीं । तथा प्रमाणसे तदतत्स्वभाव वस्तुको प्रतिपत्ति होती है, नयसे तत्को प्रतिपत्त होती है और दुर्नयसे अन्य ( धर्मान्तर ) का निराकरण होता है । इस प्रकार समस्त प्रमाण, नय और दुयोंका संग्रह हो जाता है, क्योंकि इनके सिवाय जाननेके दूसरे प्रकार सम्भव नहीं हैं । यह आगमवचन है। इससे हमें तीन बातोंका स्पष्टतः ज्ञान होता है (१) सुनयका विषय अर्थक्रियाकारी होता है । (२) सुनय सापेक्षत्व का अर्थ उपेक्षा है । (३) और सुनय प्रतिपक्षी नयके विषय में उपेक्षा धारण कर मात्र अपने विषयकी प्रतिपत्ति कराता है । यह तो प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है कि लोकका समस्त व्यवहार पति होनेपर भी उसे मिया नहीं माना जाता। कोई एक व्यक्ति डोमें जाकर यदि अनार लेना चाहता है तो दुकानदार यह नहीं कहता कि अनार पर्यायविशिष्ट पुद्गल दीजिए। किन्तु वह जाकर अनारकी माँग करता है, और दुकानदार इष्टार्थको जानकर उसको उपलब्धि करा देता है यह है अर्थक्रियाकारीपना जो सुनवसे सम्पन्न होता है। आवाका यहाँ यह कहना है कि यह जितना भी पर्यायाश्रित व्यवहार है वह रागमूलक होनेसे मोक्षमार्ग में ऐसे व्यवहारको छुड़ाया गया है। 'छुड़ाया गया है' इसका अर्थ है-उसमें उपेक्षा कराई गई है। साधक व्यवहारको छोड़ता नहीं, किन्तु निश्चय प्राप्तिरूप मूल प्रयोजनको ध्यान में रखकर उसे करता हुआ भी उसमें उपेक्षा रखता है और मात्र निश्चय के विषयको आश्रय करने योग्य स्वीकार कर निरन्तर अपने उपयोगको उस दिशा में मोड़ने का प्रयत्न करता रहता है। वह यह अच्छी तरह जानता है कि प्रत्येक वस्तु अनेकास होनेसे वह सत् भी हैं । और अमत् भी हैं परन्तु उसने पर्यायायिक नयके विषयभूत असत् धर्मकी उपेक्षाकर निश्चय नयके भूत 'सत्' को अपना केन्द्रविन्दु बनाया है। गतः 'सत्' धर्म सत्स्वरूप हो है उसमें 'असत्' धर्मका अभाव है, इसलिए प्रत्येक साधक व्यवहार नयके विषय प्रति उपेक्षा धारण कर अपनी बुद्धिमें यह निर्णय करता है कि 'मैं तो मात्र एक ज्ञायकस्वरूप है, मैं न मनुष्य हूँ, न देव हूँ, न नारको हूँ और न तिर्यय हूँ' आदि । यतः प्रत्येक सुनयका विषय अर्थक्रियाकारी स्वीकार किया गया है, इसलिए बुद्धिमें ऐसा निर्णय करने से वह ( साधक) अपनी बुद्धिको उसमें युक्त कर देता है। फल होता है रागकी हानिके साथ स्वभावप्राप्ति । आचार्य कहते हैं कि यही मोक्षमार्ग है। यदि मोक्षकी प्राप्ति होती है तो एकमात्र इसी मार्गसे होती है। अन्य सब विडम्बना है —भव बन्धनकी रखड़ना है । इससे अपर पक्षको यह सुगमतासे समझ में आ जायगा कि नयप्ररूपणा में 'सापेक्ष' का अर्थ क्या इष्ट है और सुनके विषयका अवलम्बन हो जीवनमें क्यों अर्थक्रियाकारी है । अपर पक्षने नयचक्रादिसंग्रहको गाथा ६८ को उपस्थित कर यह सिद्ध करना चाहा है कि 'मिथ्या व्यवहार नयसे बन्ध होता है और सम्यक् व्यवहार नयसे मोक्ष होता है। किन्तु वह पक्ष इस गाथासे ऐसा अभिप्राय फलित करते समय यदि उसीकी गाथा ७७ पर दृष्टिपात कर लेता तो सम्भव था कि वह उक्त प्रकार अपना मत न बनाता । गाथा ७७ इस प्रकार है Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ जयपुर (खानिया) तत्वचर्चा यवहारादो पंधो मोक्यो जम्हा सहावसंजुत्तो। सम्हा कर (कुरु) तं गउणं सहावमाराहणाकाले ॥७॥ यतः व्यवहारसे बन्ध है और स्वभाव संयुक्त मोश है, इसलिए स्वभाव आराधमाके कालमें व्यवहारको गोण करो।1७७।। प्रताय इस गाथाके प्रकाशमें माथा ६८ का इतना हो बापाय है कि सम्यग्दष्टिको भेवोपचारका गद्यार्थ ज्ञान होता है, इसलिए वह मोक्षका अधिकारी है। उदाहरणार्थ जिसे ऐसा यथार्थ ज्ञान है कि मोहनीय कर्म मोड-राग-द्वेषको उत्पन्न करता है यह उपचरित कथन है वही यथार्थको जानकर स्वभावके आलम्बन से मोक्षका अधिकारी होता है, अन्य मिध्यादष्टि नहीं, क्योंकि वह उपचारको भी आरोपित न जानकर यथार्थ जानता है, इसलिए वह कर्मबन्धनसे त्रिकालमें मुक्त नहीं हो सकता ।। समयसार गाया २७२ में 'पराश्रितो व्यवहारनन्यः' और 'भारमाश्रितो निश्चयनया' यह लिखकर व्यवहारनयमान का प्रतिषेध किया है । आत्मख्याति टीकाके याद है तत्रैव निश्चयनयेन पराश्रितसमस्तमध्यघसानं बन्धुहस्वेन ममक्षोः प्रतिषेधया व्यवहारनय एवं किल् शरदः, स्वाति नपत्रिकाममोकन । प्रतिपध्य एवं चार्य, आत्माश्रितनिइचयनयाश्रितानामेव मुच्यमामत्वात् । इस टीकाका पं0 जयचन्द्रजी कृत अनुवाद इस प्रकार है सो बैसे परके आश्चित समस्त अध्यवसान पर और आपको एक मानना यह बन्धका कारण होनेसे मोक्षके इच्छुकको छुड़ाता जो निश्चयनय उसकर उसी तरह निश्चयनयसे व्यवहारनय ही छुड़ाया है । इस कारण जैसे अध्यबसान पराश्रित है उसी तरह व्यवहारनय भी पराश्रित है इसमें विशेष नहीं है। इसलिए ऐसा सिद्ध हुआ कि यह म्यवहारनय प्रसिपेघने योग्य ही है, क्योंकि जो श्रास्माधित निश्चयनयके आश्रित पुरुष हैं उनके ही कमौसे घटनापना है।। इससे स्पष्ट है कि समयसार गाथा २७२ में निश्चयनयके द्वारा समस्त व्यवहारनयको प्रतिषिद्ध ठहराया गया है। और इसे स्वीकार करने पर पूर्वापर विरोध भी नहीं आता, क्योंकि समयसार गाथा १२ में यह नहीं कहा गया है कि अपरम भाव ( सविकल्प अवस्था ) में स्थित जीवों के लिए व्यवहारनव आश्रय करने योग्य है। आचार्य अमृतचन्दने जो 'ये तु प्रथम-' इत्यादि वचन लिखा है बह, 'जहाँ जितनी शुद्धि उत्पन्न होती है वहाँ तयुक्त आत्माका भी अनुभव होता है' यह बतलाने के लिए ही लिखा है। मालूम नहीं कि गाथा २७२ की टीका में और १२ को टोकाम इतना स्पष्ट कथन होनेपर भी अपर पक्षने पूर्वापरके विरोधका भय दिखलाकर अपना अभिलषित अर्थ कैसे फलित कर लिया ! बया गाथा १२ में व्यवहारनयको आश्रय करने योग्य बतलाकर १२ गुणस्थानतक वह निश्चयनयकं द्वारा प्रतिषित नहीं है यह कहा गया है। यदि नहीं तो गाथा २७२ के साथ इसका पूर्वापर विरोध कहां रहा, अर्थात् नहीं रहा । अपर पक्षने भावार्थ लिखकर जो भाव व्यक्त किये है उस सम्बन्ध में यह निवेदन है कि व्यवहारनय प्रयोजनवान् है इसका यह अभिप्राय लेना चाहिए कि जब यह जीव विकल्प अवस्थामें रहता है तब उस गुणस्थानके अनुरूप उसका व्यवहार नियमसे होता है। ऐसे व्यवहार के साथ उस गुणस्थानके अनुरूप शुद्धि बनी रहने में किसी प्रकारको बाधा उपस्थित नहीं होती। गुणस्थान परिपाटोके अनुसार व्यवहारका ज्ञान कराने के लिए उसका उपदेश भी दिया जाता है। किन्तु कोई भी मुमा व्यवहार करते रहनमें इष्टार्थको सिद्धि न मान स्वयं परमार्थस्त्ररूप बनने के लिए स्वभावका पालम्बन करनेको उद्यमशील रहता है। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १६ और उसका समाधान व्यवहार यथापदवी प्रयोजनवान होने पर भी साधककी दृष्टि में वह यही है और स्वभावका आश्रय करनेसे उत्स्वरूप परिणममद्रारा मोक्षकी प्राप्ति होती है, इसलिए भावककी दृष्टि में वह सदाकाल उपादेव हो है। भावार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा १४ की टीकामै बस्पष्टताको भूतार्थ कालप्रत्ययाससिको ध्यान में रखकर ही लिखा है । एक कालमें जीवकी अपने में और कर्म को अपने में ऐसी पर्याय होती है जिनमें बस्पष्टता व्यवहार होता है। वे दोनों पर्याय यथार्थ है, इस अपेक्षासे उसे भूतार्थ मानने में कोई बाधा नहीं है। पर इतमेमावसे उसे उपादेय नहीं स्वीकार किया जा सकता। क्या अपर पक्ष यह चाहता है कि प्रत्येक संसारी जोध संसारी बना रहे। व्यवहारनयसे कालप्रत्यासन्तवश बद्धस्पष्टता भूतार्थ ठहरो इसमें बाधा नहीं, पर है वह सर्वदा हेप हो । पं० फूलचन्द्रने प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ प० ३४५ से ३५५ के मध्य जो 'यदि निश्चय सत्याधिष्ठित है' इत्यादि वचन लिखा है वह मिथ्या एकान्तका परिहार करनेके अभिप्रायसे ही लिखा है। यद्यपि वहाँ सामान्यसे व्यवहारमय शब्दका प्रयोग हुआ है। पर जमसे सद्भुतव्यवहारको ही ग्रहण करना चाहिये । पण्डितप्रवर बनारसीदासभी वर्तमानमें संसारी होते हुए भी अपने को मुक्त मानने लगे थे। किन्तु सम्यग्ज्ञान होनेपर उन्होंने यह स्वीकार किया कि 'पर्यायदा से वर्तमान में मैं संसारी ही है, मक्त नहीं।' इसोको उस लेख में कहा गया है कि 'जन्हें व्यवहारमें आना पड़ा।' ___ 'निरपेक्षा नया मिथ्या इस बचनके सम्बन्ध में पिछले उत्तरमें हम जो कुछ भी लिख आये है वह अर्थक्रियाकारीपनको ध्यान में रख कर ही लिख आये हैं। विशेष खुलासा अनन्तर पूर्व किया हो है। उससे हमारा पर्वोक्त कथन किस प्रकार आगमानुकल है यह स्पष्ट हो जायगा । 'मोक्षमार्गकी प्रसिद्धि भी द्वयनयाधीन है।' यह अपर पक्षका कहना है। इस सम्बन्ध में इतना ही निवेदन है कि आगममें हमने यह तो पढ़ा है कि 'भगवान्को देशमा एक नयके आधीन न होकर दो नयके आधीम हैतन न खल्वेकनयायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्ता । -पंचास्तिकाय गा.४ टीका किन्तु अपर पक्षका जैसा कहना है वैसा वचन अभीतक हमारे देखने में नहीं आया। पंचास्तिकाय १७२ गाथाको आ० जयसेनकुल टी कामें जो कुछ कहा गया है उसका आशय यह है कि जो व्यवहाराभासी होते हैं, उनमें अगुव्रत महात्रतादिरूप इन्य चारित्र होते हुए भी निश्चयकी प्राप्ति न होनेसे वे संसारी ही बने रहते हैं। जो निश्चयाभासी होते हैं उनमें न तो व्यवहार चारित्र ही होता है और न उन्हें निश्चयकी प्राप्ति ही होती है, इसलिए वे भी संसारी बने रहते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि निश्चयमूलक व्यवहार ही सच्चा व्यवहार कहलाता है। अतः अणुवत-महात्रप्तके धारण करनेमात्रको परमार्थ न समझकर परमार्थकी प्राप्तिके लिए सम उद्यमशील रहना चाहिए। आचार्य समूतचन्द्रने प्रवचनगार टोका में यह तो लिखा है कि 'केवल यह (निश्चय) एक ही मोक्षमार्ग है तयोऽवधार्यते केवलमयमेक एव मोक्षस्य मार्गः। --गाथा १९९ ततो नान्यम निर्वाणस्येत्यवधार्यते । ---[ ८२ तथा उन्होंने समयसारमें दलिग मोक्षमार्ग है इसका निषेध भी किया है। - ४११०४११ - - - Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ जयपुर ( खानिया तत्त्वचर्चा और जो व्यलिंगको मोक्षमार्ग कहते है उनके उस कथनको अजानका फल कहा है (गा० ४०६) । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि मोनमार्गकी प्ररूपणा दो प्रकार की है, मोनमार्ग दो नहीं है। ऐसी अवस्थामें पंचास्तिकायका हवाला देकर अपर पक्षका यह लिखना तो ठीक नहीं कि 'केवल निश्चयनयसे भी मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती और केवल व्यवहारनयसे भो मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। किन्तु इसके स्थान में पह लिखना ही समोचीन है कि निश्चयारूद व्यक्तिके यथापदची व्यवहार नियमसे होता है । यही इन दोनोंका अविरोध है । किन्तु जैसे-जैसे स्वतत्त्व में विश्रान्ति प्रगाढ़ होती जाती है वैसे-वैसे क्रमशः कर्मका संन्यास होता जाता है और अन्तमें स्वतत्त्वमें परम विश्रान्ति होनेसे यह जीव आहेन्त्यलक्षण परम विभूतिका स्वामी बनता है । अपर पक्षने जी 'तदिदं वीतरागत्वं' इत्यादि वचन सद्धृत किया है उसका भी यही आशय है। हमने लिखा था कि 'पर्यायबुद्धि तो अनादि कालसे बनाये चला आ रहा है।' उसका जो आशय अपर पक्षने लिया है वह ठीक नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्दने जिस अभिप्रायसे प्रवचनसार गा० ६३ में 'पाबमूहि परसमा मह वा लिखा है और जिस अभिप्रायसे उसकी टीकामें आचार्य अमृतबन्द्रने 'पती हि बहवोऽपि पर्यायमाश्रमेवाघलम्ब्य तत्त्वाप्रतिपत्तिलक्षणं मोहमुपगरछन्तः परसमया भवन्ति ।' जिससे कि बहुतसे जीव पर्यायभात्रका ही अवलम्बनकर तत्त्रको अप्रतिपत्तिलक्षण मोहको प्राप्त होते हुए परसमय होते है। यह वचन लिखा है वही भाव हमारा था। यदि अपर पक्षनं इस वचन पर सम्यक् दृष्टिपात न किया हो तो अब कर ले । उमसे उस पक्षको व्यवहारनयके विषयभूत पर्यायका अवलम्बन करनेसे आत्माकी क्या हानि होती है यह अच्छी तरह समझ में आ जायगा और उससे मोक्षमार्ग में व्यबहारनयका विषयभूत अणुनतमहावतका पालना आश्रय करने योग्य क्यों नहीं बतलाया यह भी समझमें आ जायगा। सम्भवतः अपर पक्षने 'प्रयोजन वान् है' और 'आश्रय करने योग्य है' इन पदोंके पृथक्-पृथक ाशयको ध्यानमें नहीं लिया तभी तो उस की ओर से यह वचन लिखा गया है--'जो एकान्तसे निश्चममयका बबलम्बन लेते है वें मोक्षको तो प्राप्त करते हो नहों, किन्तु उल्टा पापबन्ध ही करते हैं।' इसके लिए हम अपर पक्षका ध्यान समयसार कलश २३ की ओर बाकूष्ट कर देना चाहते हैं । उससे यह स्पष्ट हो जायगा कि यदि एक मुहर्त के लिये बुद्धि द्वारा यह जीव शरीरादि पर द्रव्य-परभावोंसे भिन्न होकर जायकस्वभाव आस्माका अनुभव कर ले तो उसके मोहके छेद होने में देर न लगे। अन्न में अपर पक्षने अपनी कल्पनासे ऐसी बहतम्रो मान्यताओंका निर्देश किया है जिनका उसो स्तरसे उत्तर देना उचित प्रतीत नहीं होता । किन्तु इतना लिखे बिना नहीं रहा जाता कि अपर पक्षको स्वयं विचार करना चाहिए कि उनके सामने ऐसी कोई बाधा तो है जिससे समुचित बाह्य पुरुषार्थ करके भी और योग्य निमित्त मिलाने पर भी कार्यसिद्धि नहीं होती। स्पष्ट है कि काललब्धि नहीं आई । अन्य सब तथ्य इसी में निहित है। यदि अपर पक्ष अनेकान्तकी वास्तव में प्रतिष्ठा करना चाहता है तो उसे उत्पाद-यय-ध्रौव्य रूप वस्तको प्रत्येक समय में स्वतःसिद्ध परनिरपेक्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। धर्म-धर्मीको सिद्धि में परस्पर सापेक्षताका व्यवहार किया जाय यह दूसरी बात है। वस्तुमें अनेकान्तकी प्रतिष्ठा इसी मार्गसे हो सकती है, अन्य मार्गसे नहीं । इस प्रकार समयसार गाथा २७२ का क्या आशय है इसके स्पष्टीकरणके साथ प्रकृत प्रश्नसम्बन्धी प्रस्तुत प्रतिशंकाका सांगोपांग विचार किया । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम दौर शंका १७ उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्तकारण और व्यवहारनयमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्व उपचार है तो इनमें उपचारका लक्षण घटित कीजिये ? समाधान १ (१) परके सम्बन्ध ( प्राश्चय )रो जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं । इसका उदाहरण देते हुए समयसारकलशमें कहा है घृतकुम्माभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न 'चेत् । जीवी वर्णादिमज्जीवजरुपनेऽपि न तन्मयः ।।१०।। अर्थ-यदि 'धीका घड़ा ऐसा कहने पर भी जो बड़ा है यह धीमय नहीं है (मिट्टीमम हो है) तो इसी प्रकार 'वर्णादिमान् जीव' ऐसा कहनेपर भी जो जीव है वह वर्गादिमय नहीं है (ज्ञानधन हो है) ॥४॥ परके योगसे जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं इसका विशदरूपसे स्पष्टीकरण श्लोकवातिकके इस वचनसे भी हो जाता हैन हि उपचरितोऽग्निः पाकादावुपयुज्यमानो दृष्टः, सस्य मुख्यत्वप्रसंगात् । -श्लोकवार्तिक म०५ सू०९ अग्निके स्थान में उपचरित अग्निका उपयोग नहीं देखा जाता, अन्यथा उसे मुख्य अग्नि ( यथार्थ अग्नि) हो जानेका प्रसंग आता है । इसी प्रकार परमागममें उपचारकेमुख्योपचारभेदैस्तेऽवयनैः परिवर्जिताः । -त. श्लो. पू० ४१९ भूतादिन्यवहारोऽतः कालः स्यादुपचारतः । -तर इलो पृ.४१९ अनेक उल्लेख उपलब्ध होते है । जिनके अनुगम करनेसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि मूल वस्तुके वैसा न होनेपर भो प्रयोजनाविवश उसमें परके सम्बन्धसे व्यवहार करनेको उपचार कहते हैं। मख्यके अभाव में निमित और प्रयोजनादि बतलाने के लिये उपचार प्रवृत्त होता है। (२) जिस प्रकार निश्चय कारक छह प्रकार के है उसी प्रकार व्यवहार कारक भी छह प्रकारके हैकर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । ऐसा नियम है कि जिस प्रकार कार्यको निश्चय कारकों Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा के साथ आभ्यन्तर व्याप्ति होती है उसी प्रकार अनुकुल दूसरे एक या एकसे अधिक पदार्थों में कार्यको बाह्म ज्याप्ति नियमसे उपलब्ध होती है। एक मात्र बस्तुस्वभावके इस अटल नियमको ध्यानमें रखकर परमागममें जिसके साथ आभ्यन्तर व्याप्ति पाई जाती है उसे उपादान कर्ता आदि कहा गया और उस काल में जिस दूसरे पदार्थ के साथ बाह्य व्याप्ति पाई जाती है उसमें निमित्तरूप व्यवहारका अवलम्बन कर जिसमें करूिप व्यवहार होता है उसे का निमित्त कहते है, और जिसमें कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण कारकका व्यवहार होता है उसे कम निमित्त, करपा निमित्त आदि कहते है। इस प्रकार कार्यके अनुकल पर द्रव्यको बिक्षित पर्यायमें कर्ता निमित्त आदिका किस प्रकार उपचार होता है इसका सम्यक् प्रकार जान हो जाता है। यहां माम्यन्तर ध्याप्ति और बास व्याप्ति आदिके विषयमें जो कुछ लिखा गया है उसकी पुष्टि समयसार गाथा ८४ की टोकासे होती है। वहाँ लिखा है बहिाप्यध्यापकभाषेन कलशसम्भवानुकूल व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजो तृप्तिं भाष्यभावकभावेनानुभवश्च कुलालः कलशं करोस्यनुभवति चेति लोकानामनादिस्टोऽस्ति तावद व्यवहारः । सथान्तरन्याप्य-व्यापकभावेन गुदगलद्रव्येण कर्माणि क्रियमाणे मास्य-भावकमावेन पुदगलद्रव्यमेवानुभूयमाने च...। बाह्य-व्याप्य-व्यापकभावसे घड़ेकी उत्पत्तिमें अनुकुल ऐसे (इच्छारूप और हाथ आदिकी क्रियारूप अपने) व्यापारको करता हुआ तथा घड़के द्वारा किये गये पानीके उपयोगमें उत्पन्न तप्तिको (अपने तस्तिभावको) मान्य-भावकभाव के द्वारा अनुभव करता हुआ-भोगता हुआ, कुम्हार धड़ेका कर्ता है ओर मोक्ता है ऐसा लोगोंका अनादिरून व्यवहार है। उसी प्रकार आभ्यन्तर कमाएग-व्यापक भालसे पुदगल द्रव्य कर्मको करता है और भाव्यभावकभावसे मुद्गल द्रव्य हो कर्म को भोगता है....। व्यवहारनम नयज्ञानका एक भेद है। उसका कार्य जहाँ जैसा व्यवहार किया जाता हो उसको जाननामात्र है, उसे उसी रूपमें जानता है। इसलिए उसकी परिगणना सम्यम्मानमें की जाती है. अतः उसमें किसी प्रकारके उपचार करने का कोई प्रयोजन न होने से वह अनुपचारित ही है। द्वितीय दौर शंका १७ प्रश्न यह था-उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहारनयमें यदि क्रमशः कारणता या नयत्वका उपचार है तो इसमें उपचारका लक्षण घटित कीजिये? प्रतिशंका २ इस प्रश्नके उत्तरमै यद्यपि आपने उपचारका लक्षण परके सम्बन्ध (आश्रय)से व्यवहार करना' बतलाया है, परन्तु इस लक्षण में जो व्यवहार शब्द पड़ा हुआ है उसका जब तक अर्थ स्पष्ट नहीं हो जाता तब Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८०९ तक उपचारको समझनेकी आवश्यकता बनी रहती है । दूसरी बात यह है कि इस लक्षणमैं पठित 'परके सम्बन्ध' शब्दका अर्थ मापने 'परके आश्रय' किया है, लेकिन इससे उपचार शब्द बिलकूल संकुचित अर्थका बोधक रह गया है, जिसका परिणाम यह है कि लक्षणके आपरपर जिस प्रकार आप घोके आधारभूत घटको वृतकुम्भ कह सकते है उस प्रकार 'जीवो वर्णादिमान' नहीं कह सकते है, क्योंकि जीवन शो वर्णादिकका आधारभूत है और न वर्णादिविशिष्ट पुगदल द्रश्यका ही आधारभूत है। इसी प्रकार 'अन्नं चै प्राणाः, 'सिंहो माणवकः' इत्यादि स्थलों में भी इस लक्षणके माघारपर उपचारको प्रवृत्ति नहीं की जा सकती है।। यद्यपि आगे चलकर आपने 'उपचार' शब्दका कुछ पमिाजित दुसरा अर्थ भी किया है, जैसा कि आपने लिखा है कि 'मूल वस्तुके वैसा न होने पर भी प्रयोजनादिवश उसमें परके सम्बन्धसे व्यवहार करने को उपचार कहते है परन्तु इसमें भी परित 'व्यवहार' शब्दसे आपको क्या अर्थ अभीष्ट है ? और 'प्रयोजनादि' शब्दके अन्तर्गत आदि शब्दसे आप किस अर्थका बोध कराना चाहते है ? यदि इतनी बात आप स्पष्ट कर दें तो फिर हम और आप उपचारके लक्षणके सम्बन्ध में सम्भवतः एकमत हो सकते है। वास्तव में 'एक वस्तु या धर्मको किसो वस्तु वा धर्म में आरोप करना' हो उपचारका युक्तिसंगत लक्षण है, क्योंकि इस लक्षणके आधारपर 'घृतकुम्भ' 'जीवी वर्गादिमान' 'अवै प्राणा:' और 'सिंहो माणवका' आदि वाक्य प्रयोगों की संगति उचित ढंगमें हो जाती है। परन्तु यदि आपको हमारे द्वारा मान्य उपचारके इस लक्षणको, जो कि अपके द्वितोय लक्षणके बहुत समीप है, जाप स्वीकार न करें तो कृपया नीचे लिखी वातोंका उत्तर दें (१) द्वितोय लक्षणमें पठित 'व्यवहार' शब्धसे आपको क्या अभिप्रेत है ? (२) उसी में पठित 'प्रयोजनादि पदके आदि शब्दसे भी आप कौन-सा पदार्थ गृहीत करना चाहते हैं ? आगे आपने लिखा है कि 'मुख्य के अभाव में निमित्त तथा प्रयोजनको दिखलाने के लिये उपचार प्रवृत्त होता है' हो सकता है यह आपने आलाप-पत्नतिके मुख्याभाचे सति प्रयोजने निमित्से घ उपचार प्रवससे । इस कथनके आधारपर ही हिडा हो। इसलिये हम यहाँपर यह कह देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि आलापपतिके उक्त वाक्यका अर्थ करने में आपने घोड़ी भूल कर दी है। उसका सुसंगत अर्थ यह है कि 'मुख्यका अभाव रहते हुये निमित्त और प्रयोजनके बश उपचार प्रवृत्त होता है।' इस अर्धन हमारे और आपके मध्य अन्तर यह है कि जहाँ आप उपचारकी प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोजन दिखलानके लिये करना चाहते हैं वहाँ हमारा कहना है कि उपचार करनेका कुछ प्रयोजन हमारे लक्ष्यम हो और उसका (उपचारका) कोई निमित्त (कारण) वहीं विद्यमान हो तो उपचारको प्रवृत्ति होती है। उपचारको इस प्रकारकी यह प्रवृत्ति 'घृतकुम्भः', 'जीवी वर्गादिमान', 'अन्न वै प्राणाः' ओर 'सिंहो माणवका' आदि जहाँ २ मावश्यकता होती है वहाँ वहाँ हो को जातो है। अब विचार यह करना है कि निमित्त कारणमें कारणताका और व्यवहारनयमें नयरवका उपचार करना क्या आवश्यक है ? और यदि बावश्यक है तो क्या वह सम्भव है, तथा इनमें उपचारका लक्षण घटित होता है क्या? मापके उत्तरमें इन बातोंपर आपका मत यह है कि कारणता उपादान में हो रहा करती है उसी १०२ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = ८१० जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा कारणताका निमिमें आरोप किया जाता है और तब इसके आधारपर ही निमितको उपचारित कारण कह दिया जाता है। जैसा कि जैन तत्वमोमांसा' में उतनचक्रको निम्नलिखित गाथा वहाँ पर किये गये अर्थसे फलित होता है धंधे व मोक्स ऊ अग्णी वनहारो व नायव च्छियो पुण जीवो मणिश्री खलु सम्वदरसीहिं ।। २३५।। इस गाथाका जो अर्थ 'जैन तस्वमीमांसा' में दिया है वह निम्न प्रकार है यहाँ पर विचारना यह है ठीक है? तो इस पर हमारा आता है कि गाया में पथित अन्य व्यवहारसे ( उपचारसे ) बन्ध और मोक्षका हेतु अन्य पदार्थ ( निमित्त ) को जानना चाहिये, किन्तु निश्चय ( परमार्थ ) से यह जीव स्वयं बन्धका हेतु है और यही जीव स्वयं मोक्षका हेतु है ||२३५|| कि जो यह अर्थ गायाका 'जैन तत्वमीमांसा' में दिया गया है क्या वह कहना है कि वह अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि हमारी समझमें यह नहीं शब्दका अर्थ यहाँ निमिस किस आधारपर किया गया है। इसमें नहीं कि यदि गायाने निमित्तका विरोधी उपादान शब्द होता तो उस हालत में अन्य शब्दका 'निमित्त' अर्थ परन्तु जब गाथामें उपादान शब्द न होकर जीन शब्द पाया जाता है तो इससे अन्य शब्दसे जीवके प्रति कर्म तथा नोकर्मको हो प्रण करना चाहिये। कर लें तो फिर गाथा में पठित 'ववहारदो' मोर 'शिच्छवदो' शब्दोंके अर्थ मो इस तरह गाथाका जो अर्थ हमारी दृष्टिसे हो सकता है वह इस प्रकार होगा— 'बन्ध और मोक्षमें जीव निश्चयनयसे कारण होता है अर्थात् उपादान कारण होता है और जीवसे अन्य – कर्म नोकर्मरूप पदार्थ व्यवहारनयसे कारण होते हैं अर्थात् निमित्त कारण होते हैं। करना अनुचित नहीं था, स्पष्ट हो जाता है कि वह यदि यह तय आप स्वीकार आपको दृष्टिगत करने होंगे। अब आप अनुभव करेंगे कि बन्ध और मोक्षके प्रति इस गाथाके द्वारा जीव तो उपादान कारणता स्थापित की गई है । और कर्म तथा नोकर्म में निमित्तकारणता स्थापित की गईं हैं। इस बासको प्रकट करनेके लिए यहाँ पर निश्चय ( स्वाश्रित ) नय व व्यवहार ( पराश्रित ) नवका प्रयोग किया गया है। बाप व्यवहारका उपचार अर्थ करके निमित्तकारणमें असत्यता सिद्ध करनेका प्रयत्न करते है यह संगत नहीं मालूम होता | क्योंकि एक वस्तुका वस्तुत्व उपादान नहीं है कोर दूसरी वस्तुका वस्तु निमित्त नहीं है किन्तु अपने स्वतन्त्र वस्तुत्वको रखते हुए विवक्षित वस्तु विवक्षित कार्यके प्रति आयय होनेडे उपादान कारणता है और अपने स्वतन्त्र वस्तुको रखती हुई अन्य विवक्षित वस्तुमें सहायक होनेसे निर्मित कारणता है। निमित्त और उपादान कारणों वर्ष पर यदि ध्यान दिया जाय तो एक वस्तुमे उपादानताका वास्तविक रूप क्या है ? और दूसरी वस्तु निमित्तका वास्तविक रूप क्या है ? यह अच्छी तरह समझ में आजाता है। इनका व्युत्पत्यर्थ निम्न प्रकार है उपसर्गपूर्वक आदानार्थक 'बा' उपसर्ग विशिष्ठ 'उपादीयतेऽनेन' इस विग्रहके आधारपर 'उप' 'दा' धातुसे कर्त्ता में ल्युट् प्रत्यय होकर उपादान शब्द निष्पन्न हुआ है। इस तरह जो वस्तु विवक्षित परिणमनको स्वीकार करे या ग्रहण करे अथवा जिसमें परिणमन निष्पन्न हो वह वस्तु उपादान कहलाती है इसी प्रकार 'निमेषति' इस विग्रहके आधारपर 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'मिद्' धातुसे भो अर्थ 'क्त' प्रत्यय होकर निर्मित शब्द निष्पक्ष हुआ है। इस तरह निमित्त राज्यका अर्थ उपादानके प्रति मित्रवत् स्नेह करनेवाला या उपादानको उसकी विवक्षित कार्यरूप परिणतिमें सहायता देनेवाला होता है । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८११ इस तरह हम देखते हैं कि विवक्षित कार्यके प्रति कार्यका आश्रय होने के कारण विकसित वस्तुमें विद्यमान उपादानकारणता जिस प्रकार वास्तविक है उसी प्रकार उसी विवक्षित कार्यके प्रति सहायक होने के कारण विवक्षित अन्य दस्तुमें विद्यमान निमित्तकारणता भो वास्तविक सिद्ध होती है। इससे यह बात निष्पन्न होती है कि जिस प्रकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती हुई विवक्षित वस्तु विवक्षित कार्यके प्रति वास्तविक उपादान कारण है उसी प्रकार अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखतो हुई अन्य विवक्षित वस्तु भी उस विवक्षित कार्य के प्रति वास्तविक निमित्त कारण है । अब हम आपसे पूछना चाहते हैं उपादान बस्तुगत कारणताका निमित्तभूत बस्तुमें आरोप क्या आपको अभिष्ट है और यदि अभीष्ट भी है तो क्या संभव है । आगे इन्हीं प्रश्नोंपर विचार करना है। यह तो निर्विवाद है कि लोक में जिस प्रकार उपादानभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति देखो जाती है उस प्रकार निमितभूत वस्तुको कार्यरूप परिणति नहीं देखी जाती। यही कारण है कि जैन संस्कृति में निगिनती मार्गरूप परिणाम नलों नीकार की गई है, इसलिये निमित्तभूत यस्तुमें एक तो कारणताका आरोप अभीष्ट नहीं हो सकता है, न वह आवश्यक है और न यह संभव हो है, वयोंकि आलापपद्धति अन्यके अनुसार एक वस्तुमें अथवा धर्मम दूसरी वस्तु अथवा धर्मका आरोप निमित्त जोर प्रयोजन रहते हए ही हो सकता है जो कि यहाँ घटित नहीं होता है, क्योंकि उपादानभूत वस्तुगत कारणताका आरोप निमित्तभूत वस्तु में करनेके लिये कोई निमित्त (कारण) नहीं है और न उस आरोपका कोई प्रयोजन ही रह जाता है । कारण कि विना आरोपके ही अभीष्ट सिक्षि हो जाती है। जब हम अध्यात्मको व्याख्याको पढ़ते और सुनते हैं तो वह केवल एक द्रव्यमें तादात्म्यसे स्थित सब धर्मोको स्वाश्रित होनेसे वास्तविक मानता है और जहाँ परकी अपेक्षा वर्णन किया जाता है तब उसे व्यवहारअवास्तविक एवं सरल भाषामें उपचरित शब्दसे कहा जाता है, किन्तु वस्तुत: जिस धर्मको उपादानकी दृष्टिसे उपादेय कहा जाता है वही धर्म निमित्तको अपेक्षा नैमित्तिक कहलाने लगता है। इस तरह एक हो उपादानका परिणमन दो रूप कहा जाता है, इसलिये उसे अध्यात्मकी भाषामें स्वपर प्रत्यय कहते है। जैसे जीवको नर-नारकादि पर्याय और मिट्टीको घट कपालादि पर्याप। इन्हें आगम भाषामें बंभाविक पर्यायें भी कहते है। इस तरह जब उपादान गत वह परिणमन उपादेय और नैमित्तिक उभमरूप है तब उपादानके व्यापार को बास्तविक और निमित्तके व्यापारको वास्तविक कसे कहा जा सकता है। जब कि उपादान और निमित्त दोनोंके वास्तविक व्यापारोंसे यह आत्मलाभ पाता है। आगे आपने जो निश्चय और व्यवहारकारक बतलाये है तथा अन्तर्याप्ति और बहिाप्तिका प्रतिपादन किया है वह भी मशः परस्पर सापेक्ष उपादान बौर निमित्तोंके पृथक्-पृथक् व्यापाराधीन है। अनेकान्तकी बस्तुव्यवस्था यही है अर्थात जिस समय उपादान कारक और अन्तयप्तिका लक्ष्य रहता है तब निमित्त कारक और बहियाप्ति गौण हो जाती है और इसी तरह जब निमिस कारक और बहियाप्तिका लक्ष्य रहता है तब उपादान कारक पोर अन्तयाप्ति गौण हो जाती है। वस्तुतः कार्यको उत्पत्ति में दोनों आवश्यक है और दोनों ही वास्तविक है। लोकमें भी दोनों ही प्रकारके वचन प्रयोग पाये जाते है । जैसे 'मिट्टोसे घड़ा बना है।' अथवा 'कुम्भकारने मिट्टी से घड़ा बनाया है. दोनों हो वचन प्रयोग लोकमें सत्यार्थका प्रतिपावन करते हैं। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ जयपुर ( खामिया ) तत्वचर्चा जैन तत्त्वज्ञान उभयनयसापेक्ष है । यह बात जुदी है कि कहीं निश्चयप्रधान कथन है और कहीं व्यवहार प्रधान कथन है। जहाँ निश्चय प्रधान कथन है वहाँ व्यवहारनयसे उसे समन्वित कर लेना चाहिये और जहाँ व्यवहारप्रधान कथन है वहाँ उसे निश्चयनयसे समन्वित कर लेना चाहिये। आचार्य अमतचन्द्र स्वामीके निम्नांकित वचन हमारे मार्गदर्शक है उभयनयविरोधध्वसिनि स्थात्पदा जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनबमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एष ॥१॥ -समयसार माधा १२ का कलश अर्थ-जो पुष्प उभयनयके विरोधको नष्ट करने वाले और स्यात पदसे चिह्नित जिनेन्द्र भगवान के यवनों में स्वयं मोह-मिथ्यात्व रहित होकर रमण करते हैं ये उत्कृष्ट तथा अमयपक्षसे अक्षुण्ण-मिथ्यानयोंके संचारस रहित उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप समयसारका-आत्माकी शुद्ध परिणतिका शोघ्न ही अवलोकन करते हैं। शंका १७ उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहार नयमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्वका उपचार है तो इनमें उपचारका लक्षण घटित कीजिए? प्रतिशंका २ का समाधान इस प्रश्न के पिछले समाधान में हम यह बतला आये है कि परके सम्बन्ध (याश्रय) से जो व्यवहार किया जाता है उसे 'उपचार' कहते है। इस लक्षाण आश्रयका अर्थ आधार मानकर वर्णादिमान् जीप:' इत्यादि उदाहरणों में आधाराधेयभाव नहीं है यह बतलाकर लक्षणका खण्डन किया है वह संगल नहीं है, क्योंकि वहाँ आश्रयका अर्थ 'सम्बन्ध' स्वयं लिखा गया है, माधार नहीं । उपचारका उक्त लक्षण 'वादिभान् जीवः' में घटित होने की बात स्वयं अमृतचन्द्र स्वामीने इलोक ४० में लिखी है जिसका उद्धरण हम अपने समाघानमें दे चुके हैं, अतः सुसंगत है। उपचारका जो दूसरा लक्षण हमने किया है उसे ठीक बताते हुए भी प्रयोजनादि शाब्दमें 'आदि' शन्दसे और व्यवहार शब्दसे क्या अर्थ लिया गया है यह पच्छा की है और लिखा है कि 'इतनी बात आप स्पष्ट कर दें तो फिर हम आप उक्त लक्षणके सम्बन्धमें संभवतः एकमत हो सकते हैं, सो 'आदि' शब्दसे निमित्त लिया गया है, तथा व्यवहार शन्दके अर्थको समझने के लिये उसके पर्यायवाची नाम जो आगममें आते है के है-व्यवहार-आरोप-उपचार आदि । नोचे लिखे आगम वाक्यों में उपचार' शब्दका उपयोग आया है, जिससे उस हाब्दका अर्थ स्पष्ट हो जायगा । दिशोऽष्याकाशेऽन्तावः आदित्योदयायपेक्षया आकाशप्रदेशपक्तिषु इत इदमिति व्यवहारोपतेः। -सर्वा० अ०५, सूत्र ३, टीका Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यगाहनहेतुत्वात् क्षणे क्षणे तेषां मैदान त सुस्वमपि भिसमिति परप्रत्ययापेक्ष उत्पादो विनाशश्च व्यवहयते । -सर्वा० भ० ५, सूत्र ७, टीका धर्मादीनां पुनरधिकरणं आकाशमित्युख्यते व्यवहारनयवशात् -सर्वा० अ० ५, सूत्र १२, टीका यथार्थका नाम निश्चय और उपचारका नाम ब्यवहार है -मोमा० प्र०, अधि० ७, पृ० २८७ उपचार कर सिस दय्यके भावको अन्य वन्यके भावस्वरूप निरूपण करना सो व्यवहार है।। --मो. मा. प्र. अधिक पृष्ठ ३६२ असद्भूतव्यवहार एष उपचार: --आलापप. पृष्ठ १२२ जीवपुद्गलानां क्रियानतां अवगाहिना अवकाशदानं युकं धर्मस्तिकायादयः पुन: निष्क्रियाः नित्यसम्बन्धास्तेषां कथमवगाहः इति चेन, उपचारतस्तसिद्ध। -सर्वा० अ०५, सूत्र १८ टीका मुझते इति मोहनीयम् । एवं मंते जीवस्य मोहीयत्तं पसज्जदि त्ति णासंकणिज्जं जीवादी ऑभग्णाम्ह पोग्गलदम्ब कम्मणि उबयारेण कत्तारतमारोविय तघा उत्तोदो। -धवला पुस्तक ६, पृ. ११ उक्त उद्धरणों में आए हुए उपचार-व्यवहार-आरोप आदि शब्दोंका प्रयोग एक ही अर्यमें हुआ है यह विद्वानोंके लिए स्पष्ट है 1 प्रतिशंका २ के लेखानुसार 'आदि' और 'व्यवहार' शब्दसे क्या इष्ट है यह बताया गया । अतः यदि हमारे लक्षणसे आप अपने लेखानुसार एकमत हों तो प्रसन्नताकी बात होगी। 'एक वस्तु या धर्मको किसी वस्तु या धर्ममें आरोप करना' उपचारका जो दूसरा लक्षण प्रस्तुत किवा है इसमें हमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों लक्षण एक ही अर्थ को प्रतिपादित करते हैं। निमित्तको कारणताके उपचारके सम्बन्धमें जो नयचक्रको (पु.८३) २३५ दी गाया जनतत्त्वमीमांसामे पृ० १६ पर दी गई है उसके अर्थको गलत बताकर व्यर्थको आपत्ति उठाई गई है। गाया इस प्रकार है। अंधे च मोक्ष हेऊ अण्णी ववहारदो य गायब्बी। णिच्यदी पुण जीवो मणियो खसु सम्बदरसीहि ॥२३५।। इस गाथाका अर्थ जो हमने किया है वह इस प्रकार है अर्थ-व्यवहारसे (उपनारसे) बन्ध और मोक्षका हेतु अन्य पदार्थ (गिमित्त) को जानना चाहिए, किन्तु निश्चय (परमार्थ) से यह जीव स्वयं बन्धका हेतु है ऐसा सर्वजदेवने कहा है। प्रतियांकामें यह आलोचना की गई है कि 'हमारी समझमें यह नहीं आता कि गाथामें पठित 'अन्य (अपणो) शब्मका अर्थ वहाँ 'निमित्त' किस आधारपर किया गमा है....गाथामें उपादान शब्द जब महों है, 'जीव' शब्द पाया जाता है।' Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा अब प्रतिशंका २ में जो अर्थ उक्त गाथाका किया गया है उसे पढ़िये - अर्थ-बन्ध और मोक्ष में जीव निश्चयनयसे कारण होता है अर्थात् उपादान कारण होता है और जीवसे अन्य कर्म· नोकर्मरूप पदार्थ व्यवहारनयसे कारण होते हैं अर्थात् निमित्तकारण होते हैं । ८१४ पाठक देखेंगे कि 'अन्य' शब्दका अर्थ हमने निमित्त किया था उसपर आपत्ति उठाई थी, पर प्रति शंका २ में कर्म-नोकरूण को 'निमित्त' ही लिखा है और जीव को 'उपादान' शब्द से ही लिखा गया है। इस तरह अर्थभेद न होते हुए भी बात की है। जो कि उचित नहीं मानी जा सकतो अजीवको बंधका निमय कारण कहा था तब वह उपादान हो तो हुआ और अन्यका पर्य बम्ब प्रकरण में जोवसे भिन्न कर्म-लोकर्म ही होंगे, तब व्यर्थ अर्थभेद कर खण्डन किया गया है यह सहज हो समझा जा सकता है । आगे चलकर प्रतियांका २ में यह बताया गया है कि उपादान कारणताकी तरह निमित्तकारणता भी वास्तविक है सो निमित्त कारयताको वास्तविक कहनेका क्या अर्थ है ? इसमें कोई स्पष्टीकरण तथा आगमप्रमाण न होनेसे विचार नहीं किया जा सकता आगममें सर्वत्र निमितको उपहार कारण स्वीकार किया गया है और व्यवहारका अर्थ उपचार है यह पूर्व हम सिद्ध कर आये है। उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तुमें आरोप निश्वयको सिद्धिके लिये ही किया जाता है और इसीलिये जसे निमित्तकारण कहा जाता है और इसीलिये उसमें कत्र्ता आदिका व्यवहार करते हैं। यही बात बनगारधर्मामृत के प्रथम अध्याय में प्रतिपादित है । कर्याचा वस्तुनो भिन्नाः येन निश्चयये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसी निश्ययस्तदमेदह ॥ १०२ ॥ अर्थ-जिसके द्वारा निश्चयको सिद्धिके लिये वस्तु कर्ता आदि पाये जाते है, वह व्यवहार है और निश्वय वस्तुसे अभिन्न कर्ता माविकको देखता है। 'मिट्टी से पढ़ा बना है। कुम्भकारने मिट्टीसे घड़ा बनाया है।' उक्त प्रकारसे लोक में दोनों प्रकारके वचनप्रयोग देखे जाते है; ऐसा लिखना ठीक है पर इन बननप्रयोगों में मिट्टी के साथ जैसे घटक अति है देसी कुंभकारके साथ नहीं अनिश्चय कर्ता-कर्म आदि पकारकको प्रवृत्ति उपादानसे है, निमितसे । नहीं यह बात हम समयसार गाथा ८४ की टीकाले अपने उत्तरमें सिद्ध कर आये है । इससे भिन जो लिखा है कि पश्चिमन उभयरूप है वह बिना आगम प्रमाणके दिए लिखा गया है, अत: मान्य नहीं हो सकता। यदि परिणमन उभयरूप होता तो पटमें कुंभकारका भी रूप आता पर ऐसा नहीं होता । ज्ञान उभयनमसापेक्ष वस्तुव्यवस्थापक है यह निर्विवाद है पर दोनों नयोंमें अस्तु जिस रूप में विवक्षित है उसी रूपसे उसे जानना चाहिये और तभी अनेकान्तको सिद्धि होती है । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृतीय दौर : ३ : शंका १७ उपचारका क्षण क्या है ? निमित्तकारण और व्यवहार में यदि क्रमशः कारणता और नयत्यका उपचार है तो इनका प्रतिशंका ३ इस प्रश्नका उत्तर लिखते हुए आपने अपने प्रथम उत्तर में उपचारका लक्षण निम्न प्रकार लिखा था'परके सम्बन्ध (आश्रय ) से जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते हैं ' इन लक्षण आपने स्वयं 'सम्बन्ध' इन्दका अर्थ 'आय' किया है, इसीलिये हमारी तरफसे यह बापत्ति उपस्थितकी गयी थी कि 'सम्बन्ध' शब्दका अर्थ 'आश्रय' करनेवर उपचार शब्दका अर्थ विल्कुल संकुचित हो गया है, इसलिये उपचारका यह लक्षण 'जीवी वर्णादिमान में घटित नहीं हो सकता है। अब आपने अपने द्वितीय उत्तर में यह लिखा है कि 'आश्रय' का अर्थ 'सम्बन्ध' हे 'आधार' नहीं। अच्छा तो यही होता कि आप प्रथम ही 'सम्बन्ध' शब्दका अर्थ 'आश्रय' ग करते उस हालत में हमें आपत्ति उपस्थित करने को बाध्य नहीं होना पड़ता, क्योंकि यह बात तो हमें भी मालुम है कि आचार्य अमृतचन्द्रने 'जीवने वर्णादिमान्' इस वाक्यमें उपचार स्वीकार किया है। आपके कथनसे स्पष्ट हो गया है कि 'सम्बन्ध' शब्दका अर्थ आपको 'आश्रय' अर्थ अभीष्ट नहीं है, केवल 'सम्बन्ध सामान्य' ही 'सम्बन्ध' शब्दका अर्थ आपको अभीष्ट है । इसके पहले हमने आपसे प्रश्न किया था कि आपके द्वारा माने गये उति में जो 'व्यवहार' शब्द आया है उसका अर्थ क्या है ? इसी प्रकार आपने अपने उसी उत्तर में आगे जो दूसरा लक्षण उपचारका लिखा था उसमें भी 'व्यवहार' शब्दका प्रयोग आपने किया है, इसलिये उस लक्षण में पठित 'व्यवहार' शब्दका भी अर्थ हमें पूछने के लिये बाध्य होना पड़ा था। दस उत्तर में आपने लिखा है कि माने हुए उपचारके लक्षणमें आये हुए 'बहार' शब्द पर्यायवाची शब्द आप और उपचार है। साथ ही यह लिखकर कि 'नीचे लिखे आगम क्योंने 'उपचार' पदका उपयोग आया है जिससे उक्त यन्दका अर्थ स्पष्ट हो जायगा ये उग आयम वानयाँका उल्लेख भी आपने कर दिया है और अन्तमें यह भी आपने लिख दिया है कि 'उत सभी आगम वाक्योंमें आये हुए उपचार, व्य बहार आरोप आदि शब्दोंका प्रयोग एक हो अर्थ हुआ है यह बात विद्वानोंके लिये स्पष्ट है ।' इस तरह हम देखते हैं कि आपके द्वारा मान्य उपचारके लक्षणोंमें प्रयुक्त 'व्यवहार' शब्दका अर्थआपके उससे स्पष्ट नहीं हो सका। यह ठीक है कि विद्वानोंके लिये व्यवहार, उपचार, आरोप आदि शब्दों के अर्थ स्पष्ट है, परन्तु उपचारके लक्षण में पठित व्यवहार शब्दका आपको कैसा अर्थ ब्राह्म है यह जानने के लिये हो हमने अपने प्रश्न में आपसे उसका अर्थ पूछा था, अज्ञात होनेके कारण नहीं पूछा था । व्यवहार प्रकरणानुसार बहुतसे अर्थ होते हैं। उनमे से कुछ अर्थ यहाँपर दिये जा रहे हैं Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ जयपुर (खानिया ) तस्वषर्चा व्यवहार शब्द वास्तव में निश्चयशब्द सापेक्ष होकर ही अपने अर्थका प्रतिपादन करता है । प्रत्येक बस्तु में यथासम्भव अनेक प्रकारके निश्चय और व्यवहाररूप धोके विकल्न पाये जाते हैं। जैसे-द्रव्य और पर्यायके विकल्पोंमें द्रव्यरूपता निश्चय और पर्यायरूपता ब्यबहार है, गण और पर्याय के विकल्पों में गुणरूपता निश्चय है और पर्यायरूपता व्यवहार है, सवतित्व और क्रमपतित्व के विकल्पोंमें सहतित्व निश्चय है और क्रमवतित्व व्यवहार है, अन्वय और व्यतिरेकके विकल्पों में अन्वयरूपता निश्चय है और व्वतिरेकरूपता ब्यवहार है, योगपद्य और क्रमके विकल्पोंमें योगपद्य निश्यय है और क्रमरूपता व्यवहार है, निर्विकल्प और सविकल्पके विकल्पों में निर्विकल्पकता निश्चय है और सविकल्पकला व्यवहार है. अवक्तव्य और वक्तव्यके विकल्पों में अश्वतध्यता निश्चय है और वक्तव्यता व्यवहार है, वास्तविक और कल्पितके विकल्पों में वास्तविकला निश्चय है और कल्पितरूपता व्यवहार है, अनुपचारित और उपचरितके विकल्पों में अनुचस्तिता निश्चय है और उपचरितता वयवहार है, कार्य और कारण, साव्य और साधन तथा उद्देश्य और विधेयके विकल्पोंमें कार्यरूपता, साध्यरूपता ओर उद्देश्यरूपता निश्चय है तथा कारणरूपता, सायनरूपता और विधेयरूपता व्यबहार है, उपादान और निमित्तके विकल्पोंमें उपादानहाता निश्चय है और निमित्तरूपता व्यवहार है, अन्तरंग और बहिरंगके विकल्पोम अन्तरंगरूपता निश्चय है और बहिरंगरूपता व्यवहार है, व्यलिंग और भात्रलिंगके विकल्पों में भाव निश्चम है औरण्य व्यवहार है,लब्धि और उपयोग तथा शक्ति और वयक्तिके विकल्मोंम लब्धिरूपता और शक्तिरूपता निश्चय है तथा उपयोगरूपता और व्यक्तिमता व्यवहार है, स्वाधित और पराधितके विकल्पों में स्वाथितता निश्चय है और पराश्रितता ध्यपहार है, स्वभाव और विभावके विकल्पों में स्वभाव निश्चय है, और विभाव व्यवहार है अवद्धता और बद्धताके विकल्पों में अबद्धता निश्चय है और बद्धता व्यवहार है, मुक्ति और संसारके विकल्पोंमें मक्ति निश्चय है और संसार व्यवहार है। इन प्रकार प्रत्येक वस्तुमै यथासम्भव विद्यमान अपने-अपने अनन्त धोको अपेक्षा परस्पर विरुद्धअनन्त-प्रकारके निश्चय और व्यवहारके युगलरूप विकल्प पाये जाते हैं। जैन संस्कृतिमें वस्तुको अनेकाकात्मक स्वीकार किया गया है, इसलिये उपयुक्त निश्चय और व्यवहारके विकल्प परस्पर विरोधी होते हुए भी वस्तुम परस्पर समन्वित होकर हो रह रहे है। एकरव और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व, तपता और अतद्रूपता, सद्रूपता और असदुरूपता, अभेदरूपता और भेदरूपता इत्यादि युगलोंमें भी पहला विकल्प निश्चयका और दूसरा विकल्प व्यवहारका है। चूंकि ये सभी वस्तुके ही धर्म है, अतः अपने-अपने रूपमें सद्भुत हैं, केवल असद्भूत नहीं हैं। आपने उपचारका यह जो लक्षण लिखा है कि 'मल वस्तुके वैसा न होनेपर भी प्रयोजनादिवश उसमें परके सम्बन्धसे व्यवहार करनेको उपचार कहते हैं । इसमें पठित प्रयोजनादि शब्दके 'आदि' शब्दसे निमित्त (कारण )का अर्थ आपको प्राहय है तो यह ठीक है । परन्तु यह बात हम अपनी प्रतिशंका में पहले हो लिख चुके हैं कि उपचारके इस अर्थ में हमारे आपके मध्य अन्तर यह है कि 'जहाँ आप उपचारकी प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोजन दिखलाने के लिये करना चाहते हैं वहाँ हमारा कहना यह है कि उपचार करनेका कुछ प्रयोजन हमारे लक्ष्य में हो और उपचार प्रवृत्तिका कोई निमित्त ( कारण ) वहाँ विद्यमान हो तो उपचारकी प्रवृत्ति होगी।' हमने अपनी प्रतिशंका में यह लिखा था कि 'अपने नयचक्रकी 'बन्धे च मोक्ख हेक' इस गाथाका अर्थ गलत किया है, तो इसपर आपने प्रत्युत्तर में लिखा है कि 'यह आपत्ति व्यर्थको उठाई गयी है। और फिर आगे वहीं पर उभय पक्षके अर्थोकी तुलना करते हुए आपने हमारे और आपके कानों अर्थों में समानता दिखलाने Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८१७ का निरर्थक प्रयत्न किया है, क्योंकि दोनों अर्थीमें बहुत अन्तर है। अपनी प्रतिशंका २में उस अन्तरको हमने दिखलाया भी है, परन्तु उसपर आपने ध्यान नहीं दिया, इसलिये हम यहाँपर उसको पुनः स्पष्ट कर रहे है बन्धेच मोक्ख हेऊ अगाणो बहारदो यणायन्वी। णिन्छयदी पुण जीवो भगिओ खलु सम्बदरसीहिं ॥२२५॥ आपके द्वारा किया गया अर्थ-व्यवहारमे ( उपचारसे ) बन्ध और मोलका हेतु अन्य पदार्थ (निमित्त )को जानना चाहिये, किन्तु निश्चय ( परमार्थ )से यह जीव स्वयं भोक्षका हेतु है।' हमारे द्वारा किया गया अर्थ-'बन्ध और मोक्षमें जोब निश्चयनवसे कारण होता है अर्थात् उपादान कारण होता है और जीवसे अन्य कर्म-नोकर्मरूप पदाचं व्यवहारनयसे कारण होते है अर्थात् निमित्तकारण होते हैं।' इन दोनों अथोंमें अन्तर यह है कि जहां आगने 'अन्य' शब्दका अर्थ 'निमित्त' किया है वहाँ हमने उसका अर्थ 'कम-नोक्रम' किया है। इस तरह 'अण्णो दवहारदा हेतु' का अर्थ जहाँ आपको निमित्त व्यवहार याने उपचारसे कारण होता है यह मानना पड़ा है, वहाँ हमने उराका अच ऐसा किया है कि 'कम-नोकर्महा वस्तु व्यवहारनवस कारण होती अर्थात् निमित्त कारण होती है।' इस प्रकार जहाँ आपने अपने अर्थम निमित्तम उपचारसे कारणता बतलायी है वह हमने अपने अर्थमं कर्म-नोकर्ममें वास्तविक निमित्तरूपसे कारणता बतलायी है। हमने आपके अर्थको गलत और अपने अर्थको सही इसलिये कहा है कि गाथाके उत्तरार्धमें 'जीवो' याब्दका पाठ है, इसलिये णिच्छयदो पुण जीवो हेऊ इतने वाक्यका यही अर्थ युक्ति-यक्त होगा कि 'जोव निश्चयनयसे कारण है अर्थात् उपादान कारण है।' आपके द्वारा किये गये इस वाक्यक अयंस भी यही आशय निकलता है, इसलिये हमारी समझामें यह नहीं आया कि उत्तराघमें 'जीवो' पदका पाठ रहते हुए और उसका अर्थ भी उपादानरूप न करके 'जीव नामको वस्तु' करते हुए कैसे आप 'अण्णा पक्षका निमित्तरूप अर्थ कर गर्व है । कारण कि जोबसे अन्य वस्तु यदि कोई इस प्रकरणमें गृहीत की जा सकती है तो वह 'कम-नोकर्म' हो होगी। निमित्त जीनसे अन्य वस्तु नहों कहला सकती है, वह सो उपादान वस्तुसे हो अन्य घस्तु कहला सकती है, इसलिये जब गाथामें उपादान शब्द न होकर जीव दाब्दका स्पष्ट पाठ है तो फिर गाचामे 'अण्णों' पदका कम-नोकर्म हो अर्य उपयुक्त हो सकता है, निमित्ताप अर्थ उपयुक्त नहीं हो सकता है। ऐसी स्थिति में जिस प्रकार 'णिच्छयदी पुण जीवी हेऊ' अर्थात् 'जीव निश्चय कारण है' इसका आशय 'उपादानरूपसे कारण है ऐसा आपको लेना पड़ा है उसी प्रकार 'अपणो चवहारदो हेक' का 'कर्म-गोकर्म व्यवहारस कारण है' इस तरह अर्थ करके इसका आशय निमित्तरूपसे कारण है ऐसा आपको लेना चाहिय । हमारे इतने लिखनेका अभिप्राय यह है कि आप गाथाका अपने अभिप्रायके अनुसार अर्थ करके जो निमित्तकारणको असत्यता या कल्पितता सिद्ध करना चाहते है वह कदापि नहीं हो सकती है, क्योंकि हम अपनी प्रतिशंकारम बतला चुके है कि 'एक बस्तुका अपना वस्तुत्व उपादान नहीं है और दूसरी वस्तुका अपना बस्तुत निमित्त नहीं है, किन्तु अपने स्वतन्त्र अस्तित्वको रखती हुई विक्षित कार्यके प्रति आश्रय हानेसे उपादान कारण है और अपने स्वतन्त्र अस्तित्वको रखता हई अन्य विवक्षित वस्तु सहायक होने से निमित्त कारण है। इससे यह भी तात्पर्य निकल आता है कि जो वस्तु अपने होनेवाले कार्यके प्रति आश्रयपनेके आधार पर उपादान होता है वही वस्तु अन्य दूसरो वस्तुमैं होनेवाले कार्यके प्रति सहायकपने के आधारपर Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा निमिन भी होती है इसी प्रकार जो वस्तु दूसरी वस्तुमें होनेवाले कार्य के प्रति सहायकपके आधारपर निमित्त होती है वही वस्तु अपने में होनेवाले कार्यके प्रति आषयपने के आधार पर उपादान भी होती है। इस तरह जिस प्रकार वस्तु में पायी जानेवालो उपादानता बस्तुका धर्म है उसी प्रकार वस्तमें पायी जानेबाली निमित्तता भी वस्तुका धर्म ही सिद्ध होता है, इसलिये जिन प्रकार वस्तु में पायी जानेवालो उपादानता वस्तु-धर्म होने के कारण वास्तविक है उसी प्रकार वस्तु में पायी जानेवाली निमित्तता भी वस्तुधर्म होने के कारण वास्तविक ही सिद्ध होता है। आपने स्वयं पहले उत्तरमै यह स्वीकार किया है कि जिस प्रकार निश्चयकारक छ: प्रकारके हैं उसी प्रकार व्यवहारकारक भी छः प्रकारके है-कतई, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण । आगे आपने यह भी लिखा है कि जिस प्रकार कार्यको निश्चय कारकोंके साथ आम्यन्तर घ्याप्ति होती है उसी प्रकार अनुकूल दूसरे एक मा एकसे अधिक पदार्थो कार्यको बाह्य व्याप्ति नियमसे उपलब्ध होतो है।' बागे आपने लिखा है कि 'एकमात्र वस्तु स्वभावके इस अटल नियमको ध्यानमें रखकर परमागममें जिसके साथ आभ्यंतर व्याप्ति पायी जाती है उसे उपादान कर्ता आदि कहा गया है और उस कालमें जिस दूसरे पदार्थके साथ बाह्य व्यति पायी जाती हैं उसमें निमित्तरूप व्यवहारका अवलम्बन कर जिसमें कारूप व्यवहार होता है उसे कर्तानिमित्त कहते हैं और जिसमें कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण कारकका व्यवहार होता है उसे कमंनिमित, करणनिमित्त आदि कहते है। आपने अपने इस कथनमें जो यह लिखा है कि जिस दूसरे पदार्थ के साथ बाह्य व्याप्ति पायी जाती है उसमें निमित्ताप व्यवहारका थममकर जिसमें प्रारू: व्या होता है उसका निमित्त कहते है आदि', इसमें 'निमित्तरूप व्यबहारका अवलम्बनकर' इस वाक्यांशका अर्थ 'उस दूसरे पदार्थ में उपादानकी कार्यरूप परिणति के अनुकूल जो सहायतारूप ध्यापार हक्षा करता है जिसके आधार उसमें बहिव्याप्तिकी व्यवस्था बन सकती है। यदि आपका अभीष्ट अर्थ हो, तो वह व्यापार उस दूसरे पदार्थका वास्तविक व्यापार ही तो माना जायगा । उसे अयास्तविक कैसे कहा जा सकता है ? यदि उस व्यापारको आप अवास्तविक कहना चाहते है तो फिर उसके आधार पर आप उस दूसरे पदार्थ के साथ आगमसम्मत वास्तविक बहिर्व्याप्तिको स्थापना कैसे करेंगे? यदि इस आपत्तिको टालने के लिए आप उस बहिाप्तिको भो केवल कल्पनारोपित कहने को तैयार होते है, तो यह महान् आवश्यकी बात होगी, क्योंकि आपने स्वयं ही अन्त याप्तिके समान वहिव्याप्तिकी वास्तविकताको पृष्ट करने के लिए समयसार गाथा ८४ को टीकाको अपने उत्तर में उपस्थित किया है, अत: आपको ऐसो कल्लना आगमविरुद्ध होयो । आगे आपने हमारे द्वारा प्रतिशंका २ में कही गयी निमित्त कारणताको वास्तविकताके विषय में यह लिखा है कि इसमें कोई स्पष्टीकरण तथा आयमप्रमाण न होनेसे विचार नहीं किया जा सकता है।' सो स्पष्टीकरण तो हमने पहले भी किया था और अभी भी कर दिया, साथ ही आगमप्रमाण भी उपस्थित ___ सहकारिकारगेन कार्यस्य कथं तत् ( कार्यकारणथम् ) स्याईकनव्यप्रत्यासत्तेरभात्रादिति चेत् कालप्रत्याससिविशेषात् तसिन्द्रिः। यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत कार्यमिति प्रतीतम् ।....तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः संबन्धः संयोगसमवायादिवत् प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोषितः सर्वथा अनवद्यत्वात् । --तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० १५१ तत्त्वार्थसूत्र अध्याय १ सूत्र ७ की टीका Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान हम जरणका बोचका अंश इसलिए छोड़ दिया गया है कि वह यहांके लिये भी प्रश्न नं १ को तृतीय प्रतिशंका में इसका सम्पूर्ण भाग दिया गया है, अत: यहां इसका अर्थ निम्न प्रकार है- ८१९ अनावश्यक है, फिर देखा जा सकता है । सहकारी कारणके साथ कार्यका कार्यकारणभाव किस तरह बनता है ? क्योंकि वहीं पर कार्य और कारणमें एक द्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव है। ऐसी शंका यहाँ पर नहीं करना चाहिये, क्योंकि सहकारी कारण के साथ कार्यका कार्यकारणभाव कालप्रत्यासत्तिकं रूपमें पाया जाता है । ऐसा देखा जाता है कि जिसके अवन्तर जो अवश्य हो होता है वह उसका सहकारी कारण होता है, उससे अन्य कार्य होता है !....इस तरह व्यवहार के आश्रयसे दो पदार्थोंमें विद्यमान कार्यकारणभावरूप सम्बन्ध संयोग, समवाय आदि सम्बन्धाकी तरह प्रतीतिसिद्ध हो है, अतः वह परमार्थिक ही हैं, उसे कल्पनारोपित नहीं समझना चाहिये, क्योंकि वह सर्वथा अनवद्य है । इसी प्रकार तवार्थवार्तिक के प्रमाण भी देखिये -- 1 स्व-परप्रत्ययोत्पादविगमपर्यायः द्यन्ते द्रवन्ति वा द्रव्याणि ॥ १॥ स्वश्च परश्च स्वपरी, स्वपरौ प्रत्यययोः ती स्वपरप्रत्ययौ । उत्पादन विगमश्चोत्पादविगमौ । स्वपरप्रत्ययौ उत्पादविगमौ येषां स्वपरप्रत्ययोपादविगमाः । के पुनस्ते ? पर्यायाः । द्रव्य क्षेत्रकालभावलक्षणो बाधः प्रत्ययः । तस्मिन् सत्यपि स्वय मतपरिणामोऽर्थो न पर्यायान्तरमास्कन्दताति । तत्समयः स्त्रश्य प्रत्ययः । तावुभौ संभूय भाषानामुत्पादविगमयोः हेतु भवतः, नान्यतरापाये, कुशूलस्थमास पच्यमानोदकस्थ घोटकमाषवत् । एवमुभयहेतुकोत्पादविगमैः तैस्तैः स्वपर्यायैः दूयन्ते गन्यचे द्रषन्ति मच्छन्ति तान् पर्यायानिति द्रव्याणीति व्यपदिश्यन्ते । -- अध्याय ५ सूत्र २ की व्याख्या भावार्थ- द्रव्य उत्पादव्ययरूप पर्यायोंसे विशिष्ट होता है और के उत्पाद व्ययरूप पर्यायें स्वपरप्राय अर्थात् एव और परकै कारणसे ही हुआ करती हैं। इन स्व और पररूप कारणोंमें द्रव्य क्षेत्र, काल विवक्षित और भावरूप तो बाह्य प्रत्यय ( कारण ) है । इनके विद्यमान रहते हुए भी यदि स्वयं वस्तु पर्यायरूपसे परिणमन करने में समर्थ नहीं है तो वह वस्तु पर्यायान्तरको प्राप्त नहीं होती है। उसमें समर्थ उस वस्तुकी अपनी योग्यता है। यह योग्यता उस वस्तुका स्वरूप प्रत्यय ( कारण ) है । इस प्रकार पर और स्त्र दोनों मिलकर पदार्थोंक उत्पाद और विगम के हेतु होते हैं। कारण कि उन दोनोंमेंसे एकके भी अभाव में वस्तु उत्पाद और aियम ( विनास ) हो नहीं सकते है। योग्यता रखते हुए भी बाह्य कारणभूत उबलते हुए पानी के डले हुए stee ( पकनेको योग्यता से रहित ) उड़द पकने की जैसे कोठो ( टंकी ) में रखे हुए उड़द पकनेकी बिना पकते नहीं हैं और उबलते पानी में योग्यता बिना पकते नहीं हैं । हुए इस व्याया में 'संजय' और 'नान्यतरापाये' पद विशेष ध्यान देने योग्य हैं, जो बतला रहे हैं कि परप्रत्यय अर्थात् ब्राह्मरूप निमित्त ( सहकारी ) कारण तथा स्वप्रत्यय अर्थात् अन्त रंगरूप उपादान कारण दोनों एक साथ प्रयुक्त होनेसे ही कार्य निष्पन्न होता है, किसी एकके अभाव में नहीं होता । तत्वार्थवातिकका दूसरा प्रमाण भी देखिये – कार्यस्थानेकोपकरणसाध्यत्वात् तसिः ||३१|| सो कार्यमनेकोपकरणसाध्यं ष्टम्, यथा पिण्डो घटकार्य परिणामप्राप्ति प्रति गृहांताभ्यन्तरसामर्थ्यः बाह्यकुलाल-दण्डच कसूत्रोदककालाकाशाखिने ' Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ¿ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा कोपकरणापेक्षः पविणार्विभवति नैक एवं मृत्पिण्डः कुलाष्ठादिपाद्यसाधनसभिघातेन विना घटात्मना विर्मावित समर्थः तथा पतत्रिप्रभृतिभ्यं गतिस्थितिपरिणामप्राप्तिं प्रत्यमिमुखं नान्तरेण ब्राह्मानेककारणसन्निधिं गतिंस्थितिं चावातुमलमिति तदुपद्मकारणधर्माधर्मास्तिकायसिविः । ८२० - अध्याय ५ सूत्र १७ की व्याख्या भावार्थ - यहाँ पर धर्म और अधर्म द्रव्योंका अस्तित्व सिद्ध किया जा रहा है। इनकी सिद्धिके लिये हेतु बतलाया है कि कार्यको सिद्धि ( निव्यत्ति ) अनेक कारणोंसे हुआ करती है। लोकमें भी अपनी घटपर्याय प्राप्तिको अन्तरंग योग्यता रखनेवाला मिट्टीका गण्ड अपनी घट पर्याय निर्माण में बाह्य कारणभूत कुलाल, चक्र, सूत, जल, काल, आकाश आदि अनेक वस्तुको अपेक्षा रखता हूँ। अकेला मिट्टीका पिण्ड कुम्हार आदि बाह्य कारणों के सहयोग के बिना कभी आदि पदार्थ गति अथवा स्थितिरूप परिणतिके सन्मुख होते हुए भी सानिध्य (सहयोग) के बिना गति अथवा स्थितिको प्राप्त नहीं हो सकते हैं, इसलिये उनको सहायता पहुँचाने में कारणभूत धर्म और अधर्म द्रव्योंका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । यह कभी नहीं हो सकता, कि घट बनता है। इसी प्रकार पक्षी यथायोग्य बाह्य अनेक कारणों के एक प्रमाण प्रचचनसारकी आरमस्याति टीकाका भो देखिये - यथा कुलालदण्डचक्रचीवरारोप्यमाण संस्कार सन्निधौ य एवं वर्धमानस्य जन्मक्षणः, स एव पिण्डस्य नाशक्षण:, स एव च कोटियाधिरूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणा । तथा अन्तरंगचहिरंगसाधना रोप्यमाणसंस्कारसन्निधौ य एवोसरपर्यायस्य जन्मक्षणः स एव प्राक्तन पर्यायस्य नाशक्षणः, स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः । -गाथा १२ १०, १०२ अर्थ - जिस प्रकार कुम्हार, दण्ड, चक्र, चीवरकी सहायतासे जो घटक उत्पत्तिका क्षण है, वही मिट्टी के पिण्डका विनाशक्षण है और वहां उत्पत्ति तथा विनाशरूप उभय कोटियों में व्याप्ल मिट्टी सामान्यका स्वितिक्षण है। इसी प्रकार अन्तरंग ( उपादान) और बहिरंग ( निमित्त ) रूप साधनों के योगसे जो द्रव्यको उत्तरपर्यायका उसतिक्षण है, वहीं पूर्व पर्यायका नाशक्षण है और वही उत्पत्ति तथा विनाशरूप उभयकोटियों में व्याप्त द्रव्यसामान्यका स्थितिक्षण है । यहाँ पर कार्योत्पत्ति स्व और पर वस्तुओं की संयुक्त हेतुताको स्पष्टरूपसे स्वयं अमृतचन्द्राचार्यने स्वीकार किया है। परीक्षामुख और उसको ढोका प्रमेय रत्नमालाका प्रमाण भी देखिये - तदृष्यापाराधितं हि तद्द्भावभावित्वम् । —सूत्र ६३ समुद्देश ३ टीका - हि शब्दो यस्मादर्थे । यस्मात् तस्य कारणस्य भावे कार्यस्य भावित्वं तद्भावभावित्वं त तद्व्यापाराश्रितं । सस्माश्न प्रकृतयोः कार्यकारणभाव इत्यर्थः । अयमर्थः - अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यो हि सर्वत्र कार्यकारणभावः । तौ च कार्य प्रति कारणव्यापारसव्यपेक्षावेवोपपद्येते कुलालस्येव कलशं प्रति । इसके द्वारा अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियोंके आधार पर बाह्य वस्तुओंकी भी उपादानगत कार्यके प्रति कारणता प्रदर्शित की गयी है और इसके लिये घटरूप कार्यके प्रति कुलालका दृष्टान्त उपस्थित किया गया है। Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२१ शंका १७ और उसका समाधान ये सब प्रमाण स्पष्टरूपसे बाह्य वस्तुभूत निमित्तकारणोंमें भी वास्तविक कारणताकी घोषणा करते हैं। इन सब प्रमाणों के विरुद्ध आपने अपने वक्तव्य में आगे लिखा है--- 'आगम as निमिसको व्यवहार कारमा किया गया और व्यवहारका अर्थ उपचार है ।' इसका मतलब यह हुआ कि आप निमित्त कारणताका उपचार करना चाहते हैं, लेकिन यहाँ विचारना यह है कि निर्मित शब्दका अर्थ हो जब कारण होता है तो निमित्त में विद्यमान कारणवास अतिरिक्त और कौन सो कारपताका उपचार आन निभित करना चाहते हैं? तथा उसमें (निमित्त में) कारणता विद्यमान रहते हुए उस उपचरित कारणताका प्रयोजन हो क्या रह जाता है ? यद्यपि आगे आपने स्वयं लिखा है कि 'उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तु में आरोप विश्वकी सिद्धिके लिये हो किया जाता है और इसीलिये उसे निमित्तकारण कहा जाता है और इसीलिये उसमें कर्ता आदिका व्यवहार करते हैं। तो इसका आशय भी यह हुआ कि कारयताका उपचार आपके उसे फिर निमित्त नहीं होता है, बल्कि उन अन्य वस्तु होता है, जो वस्तुएँ उपादान वस्तुगत कारणका बारोप हो जानेपर निर्मित कारण कहलाने लगती है लेकिन ऐसी हालत ने आपका यह लिखना गलत ठहर जायगा कि 'आगन में सर्वत्र निमित्तको व्यवहारसे कारण स्वीकार किया गया हैं और व्यवहारका अर्थ उपचार है।' दोंकि जब आप उपयुक्त प्रकारको अन्य वस्तु कारणताका उपचार करनेको बात स्वीकार कर लेते हैं, तो फिर आपके मसे निमित्त व्यवहारसे कारण नहीं रह जाता है कि उस वस्तुको हो व्यवहारसे कारण स्वीकार करने की मान्यता उपचार किया जाता है। इस सरह स्वयं गाथामें पठित 'अण्णो' पदका आपके द्वारा पहले हो बतला चुके हैं कि 'अण्णा' पदका निर्मित व्यवहारसे याने उपचारसे कारण आपके मत में प्राप्त हो जाती है जिसमें उपदान-गत कारणताका आपके इस कथा के आधार भी बंधे च मोक्ख हेऊ....' इस किया गया निमितरूप अर्थ गलत सिद्ध हो जाता है, क्योंकि हम निमित अर्थ करके आपने 'अण्णो ववहारदी हेऊ' इसका अर्थ होता है' यही तो किया है। दूसरी बाह्य यह है कि प्रत्येक वस्तुमें समान रूपसे एक साथ पाये जानेवाले उपादानता और निमित्तता नामके दोनों हो धर्म कार्यसापेक्ष होते हुए भी वास्तविक ही है, इसलिये मां निमितको व्यवहार (उपचार) से कारण कहना असंगत हो है । यदि आप उक्त असंगतताको समाप्त करनेके लिये निमित व्यवहारसे कारण है इसके स्थानपर निमितभूत ऋतु व्यवहारसे कारण है' ऐसा कहने को तैयार हों, तो भी आप पूर्वोक्त इस आपत्ति नहीं बच सकते हैं कि जिस निमित्तभूत वस्तुएँ आप कारण का उपचार करना चाहते हैं, उसमें जब स्वयं कारणता विद्यमान है तो ऐसी हालत में एक कारण विद्यमान रहते हुए उसमें दूसरी कारणा उपचारका प्रयोजन ही गया रह जाता है? मालूम पड़ता है कि इन्हीं सब अपत्तियों से ही आप में इस निकर पहुंचे है कि 'उपादानवस्तुगत कारणताका शेष अन्य उस वस्तु हो करना उचित है जो वस्तु उपादानवस्तुगत कारणताका आरोप हो जानेपर निमित्तकारण कहलाने लगती है, जैसा कि आपके उपर्युक्त Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर खानिया ) तत्त्वचर्चा इस कथनने प्रगट होता है कि पादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तु में आरोप निश्चयकी सिद्धि के लिये ही किया जाता है और इसीलिये उसे निमित कारण कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह मा कि पहले तो आप अन्य वस्तमें उपादानगत कारणताका आरोप कर लेते हैं और बादमें उस आरोपित कारणताके आधारपर ही उस वस्तुको आप निमित्तकारण नामसे पुकारने लगते हैं। अर्थात् जब तक उपादानगत कारणताका अन्य वस्तुमें आरोप न हो जावे तब तक उस अन्य वस्तुको भाप निमित्तकारण मानने को तैपार नहीं है। इस विषयमें अब यह विचार उत्पन्न होता है कि 'मुख्याभावे सति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते ।' इस नियमके अनुसार स्पचारकी प्रवृत्ति वहीं पर हुआ करती है जहाँ उस उपचार प्रवृत्तिका कोई न कोई निमित्त ( कारण ) विद्यमान रहता है और साथ ही कोई न कोई प्रयोजन भी होता है अर्थात् जिस वस्तु में जिस वस्तुका या यस्तुके धर्मका उपचार करना अभीष्ट हो, उन दोनों वस्तुओंमें जब तक उपचार प्रवृत्तिके लिये कारणभूत कोई सम्बन्ध न पाया जाये तब तक और 'प्रयोजनमनुदिश्य नहि मन्दोपि प्रवतते'–स सिद्धान्त के अनुसार उपचार प्रकृतिका जब तक प्रयोजन समजमें न आ जावे तब तक जपचारकी प्रवृत्ति होना असम्भव ही है। जैसे, 'अन्नं बैसाणाः' यहाँ पर अनमें प्राणों का उपचार तथा 'सिंही माणकः' यहाँ पर बालवमें सिंहका उपचार प्रदशित किया गया है। ये दोनों उपचार इस लिये उचित है कि इनमें उस उपचारकी प्रवृत्ति के लिये साधारभूत निमित्त (कारण) तथा गोगना सद्भाच पाम' नाम है नं ' यहाँपर अन्त में प्राणका उपचार करने के लिये प्राणसंरक्षणरूप कार्यम अवनिष्ठ कारणता हो निमित्त है। और प्राणों के रिमाणमें अलकी महत्ताका भान प्राणियोंको हो जाना हो उस उपचारप्रवृत्तिका प्रयोजन है। इसी प्रकार 'सिंहो माणवकः' यहाँ पर बालक में मिहका उपचार करने के लिये बालक में सिंह सदश शौर्यका सद्भाव निमित्त ( कारण) है और लोको बालकका सिंह के समान महत्त्व प्रस्थापित हो जाना हो उस उपचार प्रवृत्तिका प्रयोजन है, इसलिये ये या इसी किस्मकी और भी उपचार प्रवृत्तियाँ ग्राह्य मानी जा सकती है। अब देखना यह है कि इस अन्य वस्तुमै उपादानवस्तुगत कारणताका उपचार करने के लिये आवश्यक उक्त प्रकारके निमित्त तथा प्रयोजनका सद्भाव क्या यहाँपर पाया जाता है ? तो मालूम पड़ता है कि ऐसे निमित्त तथा प्रयोजनका सद्वान अहाँपर नहीं पाया जाता है, इसलिये उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तुमें उपचारकी प्रवृत्ति होना असम्भव हो समझना चाहिये। यदि कहा जाय कि अन्य वस्तुमै उपादानगत कारणताका उपचार करनेके लिये उस अन्य वस्तुका उपादालवस्तु के परिणमनरूप कार्य में सहयोग देना ही यहाँपर निमित्त (कारण) है और दम तरह लोकमें कार्य के प्रति उगादानकी सहयोगी उम अन्य वस्तुको उपयोगिता प्रगट हो जाना अथवा उगादान वस्तुसे होने वालो कार्वोत्पत्तिमें उपयोगी उस अन्य वस्तु के प्रति मनुष्योंका कार्य सम्पन्नताके लिये आकृष्ट होना ही प्रयोजन है, तो हम आपसे कहेंगे, कि यदि आप उपायानवस्तुगत कारणताका आरोप करने के लिये अपादानसे होने बालो कार्योत्पत्तिमें सहयोग देनेरूप वास्तविक कारणताको उस अन्य वस्तु स्वभावतः स्वीकार करनको तैयार है तो फिर यह बात विचारणीय हो जाती है कि सहयोग देनेला उस कारणताके अतिरिक्त और Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और इसका समाधान ८२३ कसो कारणताका आरोप आप उस अन्य वस्तुमें करना आवश्यक समझते हैं ? साथ ही इस तरह आपके कार्यके प्रसि निमित्तकारणको अर्किचित्करताके सिवान्तका नगड़न प्रसवत हो जायगा। एक बात और भी है यि यदि मनुष्योंका विवक्षिप्त उपादानसे विवक्षित कार्यको उत्पत्तिके अवसरपर सहायक अन्य वस्तुके प्रति आकृष्ट होना ही उक्त उपचार प्रवृत्तिका प्रयोजन है तो यह बात भी आगो 'कार्यके प्रति निमित्तभूत वस्तु अकिचित्कर ही रहती है-इस सिद्धान्तके बिल्कुल विपरीत हो जायगी, कारण कि कार्य निष्पत्तिके अवसरपर निमित्तभूत वस्तुओंके प्रति मनुष्योंका भावर्षण समाप्त करनेके लिये ही तो आपने उक्त सिद्धान्त निश्चित किया है। यह तो ऊपर स्पष्ट किया हो जा चुका है कि निमित्तभत अन्य वस्तु में स्वतः वास्तविक कारणत्व माने बिना निराधार उपचार नहीं किया जा सकता है। दूसरी बात यह कही गई है कि यदि आरोपको सिद्ध करनेके लिये निमित्तभूत अन्य वस्तू में स्वतः बास्तविक कारणता स्वीकार कर ली जाती है तो फिर आरोपवो आवश्यकता हो क्या रह जाती है ? अथवा किस कारणताका आरोप किया जायगा। अब तीसरी बात यह है कि कारणतामें कारणताका तो आशेष किया नहीं जा सकता है, जैसे शवोर बालकमें चूरवीरता का आरोग तो किया नहीं जाता है या अन्नमें कारणताका आरोग नहीं किया जाता है। अतः बालकको बारवीर कहना या अन्नको प्राणोंका निमित्त या सहायक कारण कहना आरोप नहीं है किन्तु वास्तविक है। उसी प्रकार उन अन्य वस्तुओंको निमित्तकारण कहना भी उपचार नहीं हो सकता, किन्तु वास्तविक ही है। हो, जिस प्रकार बालकगत शूरवीरताके आशरपर बालक्रम सिंहत्वका आरोप किया जा सकता है, अन्न में अपनी वास्तविक कारणताके आधारपर प्राणका उपचार किया जा सकता है उसो प्रकार निश्चितभूत अन्य वस्तु में अपनी वास्तविक कारणताके आधार पर उपादानताका आरोप किया जा राकता है, किन्तु कारणताका नहीं। अत: जिस प्रकार बालकको सिंह कहना या अन्नको प्राण कहना उपचार है उसी प्रकार निमित्तभत अन्य वस्तुको उपादान कहना उपचार हो सकता है. किन्तु निमित्तकारण उपचार नहीं हो सकता है । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि निमित्तभूत अन्य वस्तु में निमित्तता किसी प्रकार भी उपचरित सिद्ध नहीं होती है। उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि यदि आप काय के प्रति निमित्तभूत अस्तुओंम उपादानवस्तुगत कारणताका आरोप करना चाहते हैं, तो इसके लिये आपको उन निमित्तभूत वस्तुओंको कार्योत्पत्तिके प्रति उपादानका वास्तविक सहयोगी स्वभावतः मानना होगा। ऐसी हालतमें फिर निमित्तोंको अकिंचित्कर माननेका आपका सिद्धान्त गलत हो जायगा और यदि आप मनुष्योंको निमित्तोंको उठाघरीसे विस्त करने के लिये निमित्तांकी अकिंचित्करताके सिद्धान्तको नहीं छोड़ना चाहते है तो ऐमो हालतम निमित्त भूत वस्तुगोंको कार्योत्पत्तिके अवसरपर उपादानका सहयोगो स्वीकार करनेका सिद्धान्त आपके लिये छोजमा होगा, लेकिन तब उपादानगत कारणताका निमितभूत वस्तुम बारोप करना असंभव हो जायगा। थोड़ा इस बातपर भो आपको विचार करना है कि आपके पूर्वोक्त सिद्धान्तके अनुसार बिना किसी आधारके पहले अन्य वस्तुमै उपादान वस्तुगत कारणताका आरोप हो जानेपर उसके अनन्सर ही उस अन्य वस्तुमें निमित्त कारणताका व्यवहार किया जा सकेगा तो फिर आपके मतसे प्रतिनियत अन्य वस्तु में हो उपादान-वस्तुगत कारणताका आरोप करनेको व्यवस्था भंग हो जाययो, इस तरह प्रत्येक उपादान वस्तुगत कारणताका आरोप सभी अन्य वस्तु में होने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा। Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा ___ यह भो कितनी विचित्र बात है कि आप अन्य वस्तुमें उपादानवस्तुगत कारणताका उपचार इसलिये करना चाहते है कि कोई भी व्यक्ति उपादानवस्तु की कार्यरूप परिणतिम निमित्तभूत वस्तुको वास्तविक सहयोगो कारण न मान ले, परन्तु वास्तविक बात तो यह है कि किलो वस्तुमें किसो वस्तु या उसके धर्मका आरोप तो उस वस्तु के महत्त्य को बढ़ाने के लिये ही किया जाता है, जैसा कि ऊपर 'अन्नं बै प्राणाः' श्रीर "सिंहो माणवकः' इन दो उदाहरणोंमें बतलाया जा चुका है। ऐसी स्थिति में उपादानकी कायरूप परिणति में निमित्तभूत वस्तुको स्वभावतः सिद्ध वास्तविक सह्योगात्मक कारणताको कल्पित, असत्य, निस्यपागडे बनाने के लिए उपादान-वस्तुगत-कारणताका आरोप अन्ध वस्तुमें करना कहाँतक तसम्मत हो सकता है ? तथा इस तरह तर्कसे असंगत उपादानवस्तुगत कारणताका अन्य वस्तुमें आरोप कर लेने से पूर्वोक्स प्रमाणों द्वारा आगमप्रसिद्ध उस अम्प वस्तु स्वभावतः वास्तविकरूप में विद्यमान उपादानकी कार्यरूप परिणतिम सहायता पहुँचानेरूप कारणाको समाप्त करनेका प्रयास कहाँतक उचित होगा? पुनश्च आपके कथनानुसार उपादानभूत वस्तुमैं जो कर्ता, कम, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणरूप छह कारकोंको प्रवृत्ति पायो जाती है उन छह कारकोंकी प्रवृत्ति उपचारसे निमितभूत वस्तुमें हुआ करती है। इसका प्राशय यह हुआ कि उपादान वस्तुमें पाया जानेवाला कर्तृत्वरूप धर्म कर्ताहमसे निमित्तभूत अन्य वस्तुमें उपचरित हो जाता है। इसी प्रकार उपादानभूत वस्तृमें पाया जानेवाला करणत्वरूप धर्म करणरूपसे निमितभूत अन्य वस्तुमें उपचरित हो जाता है और यही प्रक्रिया संप्रदान, अपादान तथा अभिषण के लिए गोला नोना है। इसी प्रकार कर्म कारकके विषयमें भी यही प्रक्रिया लागू होगी, ऐसी हालतमें उपादानवस्तुगनु कर्मत्वका आरोप आप कौन-सी अन्य वस्तुमें करेंगे? इसपर ध्यान दीजिये, कोकि परस्पर निलक्षण अपने अपने अलग-अलग निमितत्वको धारण करने वालो अन्य वस्तुओं में ही जिस प्रकार कर्तत्व, करणत्व आदिका आरोप होता है उस प्रकार कर्मत्वका आरोग करने के लिये ऐसी कोई भी अन्य वस्तु वहाँ नहीं पायी जाती है, जिसमें उपादाननिष्ठ कर्मत्वका आरोप किया जा सके, कारण कि कर्मनामकी वस्तु तो वहाँपर उगदानका परिणामरूप एक हो है। यह तो सुविदित हो है कि प्रत्येक वस्तु स्वकी अपेशा उपादान भी है और परको अपेक्षा निमित्त मी है। जैसे-मिट्टो घड़ेको उत्पत्ति होने में कुम्हार कस्सेि निमित्त होता है और सूतसे वस्त्रको उत्पत्ति होने में जुलाह। भी कालपसे निमित्त होता है, लेकिन कुम्हार और जुलाहा ये दोनों ही अपने-अपने परिणमनके प्रति स्वयं उपादान भी हैं। इसका मतलब यह हुमा कि घटादि वस्तुओंको उत्पत्तिमें निमितभूत कुम्हार आदि वस्तुओका जो योगोपयोगरूप पापार हुआ करता है वह उन कुम्हार आदि वस्तुओंका अपना ब्यापार है, क्योंकि वह च्यापार उनकी उपादानशक्तिका ही परिगमन है, उस व्यापारको कुम्हार आदि अपने संकल्प, अपनी बुद्धि और अपनी शक्ति के अनुसार घटादिककी उत्पत्तिके अनुकूल किया करते है और तन उनके उस व्यापारके सहयोगरो मिट्री आदि पदार्थोंसे घटादि पर्वायोंकी उत्पत्ति हुआ करती है। उस व्यापारको तो उपचरित कहा नहीं जा सकता है, क्योंकि वह कुम्हार आदिको अपनी ही उपादानशक्तिसे प्रश्ट होनेवाला उनका अपना ही व्यापार है, अतः उस व्यापारको तो वास्तविक हो मानना होगा, और चौक उस ध्यापारके पाल रहते हो घटादिका निर्माण कार्य होता है एवं उन कुम्हार आदिके संकल्पादि अथवा अन्य बाह्य साधनों द्वारा उनके उस व्यापारके बन्द हो जानेपर घटादिका निर्माण कार्य भी बन्द हो जाता है, इस तरह चटादि कार्योंका कुम्हार आदिके व्यापार के साथ अन्वय और व्यतिरेक घटित होता है। इस अन्यय और व्यतिरेक विषयमें जब विचार किया जाता है तो यह भी वास्तविक हो सिद्ध होता है, उपचरित Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८२५ नहीं, क्योंकि इस अन्वय और व्यतिरेकको आचार्य विद्यानन्दिने तस्वादिलो कार्तिक में कालप्रत्यासत्तिके रूपमें स्वीकार करते हुए पारमार्थिक ही कहा है तथा उसमें कल्पनारोपितपनेका स्पष्ट निषेध किया है, जिसका उल्लेख हम पूर्वमें कर ही चुके हैं । इसी काल प्रत्यासत्तिरूप अन्वय तथा व्यतिरेकका ही अपर नाम निमितता या सहकारिकारणता है यह बात भी आचार्य विज्ञानन्दिने वहाँपर बतला दी है। ऐसी हालत में इस निमित्तता को भी अवास्तविक कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि यह सहारिकारणतारूप निमित्तता अपने आपमें वास्तविक न होकर यदि उपचारित ही है, तो इसके फलितार्थके रूपमें घटादिके साथ कुम्हार आदिका जो पूर्वोक्त ( कुम्हारके योगोपयोगरून व्यापारके होते हुए ही घटनिर्माण कार्य होता है और उसके उस व्यापार के प्रभावमें निर्माण कार्य चन्द रहता है ऐसा ) अन्वय तथा व्यतिरेक अनुभूत होता है, उसे भी उस हालत में अवास्तविक ही मानना होगा, ऐसी हालत में घटको भन्वय और व्यतिरेकरूप दहिर्व्याप्ति कुम्हार के हो साथ है, अभ्यके साथ नहीं तथा पटकी अन्वय और व्यतिरेकरूप बहिर्व्याप्ति जुलाहाके ही साथ है, अन्यके साथ नहीं - यह नियम कैसे बनाया जा सकता ? यदि इसके उत्तर में आप यह कहना चाहें, कि प्रत्येक वस्तुको प्रत्येक पर्याय स्वाश्रित और स्वतः उत्पन्न होनेवाली ही है, इसलिये घटको कुम्हारके साथ और पदकी जुलाहे साथ जो बहिर्व्याप्ति बतलायी गयो है वह भी कल्पनारोपित हो है । तो फिर इस तरह के कथनको प्रत्यक्षका अपलाप ही कहना होगा । कारण कि यह तो कमसे कम देखने में आता ही है कि कुम्हारके योगोपयोगरूप व्यापारके होते हुए हो घटका निर्माण कार्य होता है और यदि वह कुम्हार अपना योगापयोगरूप व्यापार बन्द कर देता है तो चटका निर्माण कार्य भी बन्द हो जाता हूँ । आपने स्वयं अपने प्रथम वक्तव्य में आभ्यन्तर व्याप्ति के साथ स्वपर प्रत्यय कार्योत्पत्ति के लिये बहिर्व्याप्तिके अस्तित्वको स्वीकार किया है। इस विषय में आपने अपने प्रथम वक्तव्य में निम्नलिखित वचन लिखे है: 'ऐसा नियम है कि जिस प्रकार कार्यकी निश्चयकारकों के साथ आभ्यन्तर व्याप्ति होती है उसी प्रकार अनुकूल दूसरे एक या एक से अधिक पदार्थोंमें कार्यकी बाह्य व्याप्ति नियमसे उपलक्ष्य होती है । एकमात्र वस्तुस्वभाव के इस अटल नियमको ध्यान में रखकर परमागममें जिसके साथ आभ्यन्तर व्याप्ति पाई जाती है उसे उपादान कर्ता आदि कहा गया है और उस कालमें जिस दूसरे पदार्थ के साथ बाह्य व्याप्ति पाई जाता है उसमें निमित्तरूप व्यवहारका अवलम्बनकर जिसमें कर्तारूप व्यवहार होता है उसे कर्ता निमित्त कहते हैं।' आदि हमारे इस कथन के विषय में भागमप्रमाण भी देखिये यथान्यध्यापकभावेन मृतिकया कलशे क्रियमाणे मान्यभावक्रमाचेन मृत्तिकयेवानुभूयमाने बहिर्व्याप्यध्यापकभावेन कलशसम्भवानुकूलं व्यापारं कुर्वाणः कलशभूततोयोपयोगजां तृप्तिं मान्यभावकमानेनानुभनंदन कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूबोस्ति तावद् व्यवहारः, तथान्तप्यष्यापकभावेन पुद्गलद्रयेण कर्मणि क्रियमाणे मान्यभावक मावेन पुद्गल येणैवानुभूयमाने च बहिर्व्याप्यव्यापक्रमावेनाज्ञानात्पुद्गल कर्मसम्भवानुकूलं परिणामं कुर्वाणः पुद्गलकर्म विपाकसम्पादित २०४ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जयपुर (खानिया ) तवचर्चा विषयसन्निधिप्रधावतां सुखदुःखपरिणति भाव्यभावकभावेनानुभवश्च जीषः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवसि चेत्यज्ञा निनामा संसारमसिद्धोऽस्ति तावद् व्यवहारः । ८२६ — आत्मख्याति टोका समयसार गाथा ८४ अर्थ- जैसे एक तरफ तो मिट्टी घडेको अन्तर्व्याप्यव्यापकभाव से अर्थात् उपादानोपादेयभावके आधार पर निश्चित हुए व्याध्यव्यापकभावरूप अन्वयव्यतिरेकव्यापिसे करती है तथा वहीं मिट्टी भाव्यभावकभावसे अर्थात् उस घटरूप परिणमन में अपने रूपको समाप्ती हुई तन्मयता के साथ उस घटका भोग भी करती है और दूसरी तरफ कुम्हार भी वाहव्ययापकभावसे अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभाव के आधारपर निश्चित हुए व्याप्यव्यापकभावरूप अन्वयव्यतिरेकव्याप्ति से घटकी उत्पत्ति अनुकूल व्यापार करता हुआ करता है तथा वही कुम्हार भाव्यभावभावसे उस घड़े भरे हुए जलके उपयोग से उत्पन्न तृप्तिको अनुभव करता हुआ उस घड़का ही अनुभव करता है— इस तरह मनुष्योंका अनादिकालसे व्यवहार चला आ रहा है। वैसे ही एक तरफ तो पुद्गलद्रव्य कर्मको अन्तयष्यिव्यापकभाव से अर्थात् उपादानोपादेयभावके आधारपर निश्चित हुए व्याध्यव्यापकभावरूप अन्वयव्यतिरेकव्याप्ति से करता है तथा वही पुद्गल द्रव्य भाव्यभावकभाव से अर्थात् उस कर्मरूप परिणमन में अपने रूपकी समाता हुआ तन्मयता के साथ उस फर्मका भोग करता है और दूसरी तरफ जोव भो बहियप्यव्यापकभावसे अर्थात् निमित्तनैमित्तिकभाव के आधारपर निश्चित हुए व्याप्यव्यापक भावरूप अन्वयव्यतिरे से अपनी विकाररूप परिणतिके कारण पुद्गलकर्मकी उत्पत्तिके अनुकूल परिणाम करता हुआ उस पुद्गलकमंको करता है तथा वही जीव भाव्यभावकभावसे उस पुद्गलकर्मके उदयसे प्राप्त विषयोंकी समीपता से आनेवाली सुख-दुःखरून पश्थितिको अनुभव करता हुआ उस कर्मका ही अनुभव करता है - इस तरह विकाररूप परिणति में वर्तमान प्राणियोंका भी अनादिसे व्यवहार चला मा रहा है । इस टीका में इस बात को स्पष्ट तौरपर बतला दिया गया है कि उपादानोपादेयभावके आधारवर स्थापित मन्तव्यापकभावकी तरह निमित्तनैमितिकभावके आधारपर स्थापित बहिर्व्याप्यव्यापकभाव भी वास्तविक ही है, कल्पनारोपित नहीं है । ऐसा कौन है जो आबालवृद्ध अनुभवगम्य कुम्भकार आदि निमितभूत वस्तुओंके संकलन, बुद्धि और शक्ति के आधारपर होनेवाले घटादिकी उत्पत्तिके प्रति अनुकूलता के रूपको लिये हुए स्थाधित व्यापारों को कल्पनारोपित कहने को तैयार होगा ? और जब ये आपार कल्पनारोपित नहीं हैं तो पदादि कार्योंके प्रति अनुकूलता लिये हुए कालप्रत्यासतिरूप सहकारी कारणताको कल्पनारोपित कहनेको भो कौन तैयार होना ? निमित्तभूत पृथक-पृथक् वस्तुओं में यथायोग्य कर्तृत्व, करणत्व, संप्रदानत्व, थपादानत्व और अधिकारणत्यके रूपमें पृथक्-पृथक् पायो जानेवाली यह कालप्रत्यासतिरूप सहकारी कारणता ( निमित्तकारणता ) उन पृथक्-पृक्क वस्तुओं को क्रमशः कर्ता, करण, संप्रदान, आपादान और अधिकरण कारकों में विभक्त कर देती है, इसलिये इनमें पाये जानेवाले कर्तृत्व, करणत्व, संप्रदानत्व, अपादानत्व और अधिकरणत्व रूप निमित्तकारणता को भी कल्पनारोपित नहीं कहा जा सकता है । ऐसी स्थिति में इनको उपचारित कहनेका एक ही कारण है कि कर्तृत्वादि ये सब धर्म कार्यभूत वस्तुसे भिन्न अन्य वस्तुओं में विश्वमान वास्तविक निमित्तनैमित्तिक भावके आधारपर निश्चित होते हैं। इसलिये कार्यकारणभाव के प्रकरण में जहाँ भी उपचार या Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का १७ और उसका समाधान व्यवहार आदि शब्द आगममें प्रयुक्त किये गये हैं, उन सब शब्दोंको निमित्त शब्दके ही पर्यायवाची शब्द समझना चाहिये अर्थात् जहाँ भी उपचारसे कारण, अथवा उपचरित कारण और क्यवहारसे कारण अथवा अपवहार कारण आदि वचन प्रयोग आगममें पाये जाते हैं उन सबका अर्थ निमित्तकारण हो करना चाहिये और निमित्तकारणताके भेदसे उन्हें उपचरित कर्ता, उपचरित करण, उपचरित संप्रदान, अपरित अपादान तथा उपचरित अधिकरण कहना चाहिये। कल्पनारोपित निमित्त या कल्पनारोपित कर्ता आदि नहीं कहना पाहिये। एक बात और है कि निभितभूत वस्तुओंके जिम व्यापार में आम निमित्तकारणता या निमित्त कर्तृत्वका आरोप करते हैं वह व्यापार तो वास्तविक ही है वह सी कमसे कम कल्पनारोपित नहीं है, इसलिये उसमें विद्यमान कार्योत्पत्तिके प्रति अनुकूलताको भो वास्तविक मानना ही युक्तिसंगत है, अत: निमित्त. कारणता. रहिर्याप्यव्यापकभाव. बहिर्याप्ति निमित्तनमित्तकभाव, नैमित्तिक कत कर्मभाव, निमित्त कर्तृत्व आदि सभी धर्म अपने रूममें वास्तविक अर्थात सतहद ही ठहरते हैं, कसमारोपित अर्थात अमत्रूप नहीं । हमने अपनी प्रतिशंकाम उपादान और निमित्त शब्दोंकी जो भाषाशास्त्रके आधारपर व्युत्पत्ति दिखलाई है, जससे भी निमित्तकारणको वास्तविकता ही सिद्ध होतो है। इस प्रकार लोकमें और आगम में सर्वत्र घट, पटादि मिट्टी, सूत आदि वस्तुओंके स्थपरप्रत्यय परिणमन माने गये है, यही कारण है कि इनकी उत्पत्ति में स्व ( आश्रयभूत उपादान) के साथ निमित्तभूत परके वास्तविक सहयोगको आवश्यकता अनिवार्यरूपसे अनमत होनी है, असः परके माध अन्वय-पतिरेकके रूपमें महिाप्तिको भी वास्तविकरूपमें ही स्वीकार किया गया है, कल्पनारोपितरूपमें नहीं। आपने जो यह लिखा है कि 'उपादाम वस्तुगत कारणताका अन्य वस्तु में आरोप निश्चियकी सिद्धिके लिये ही किया जाता है।' व इसके समर्थन में अनगारधर्मामतके 'काया वस्तुन।' भिन्नाः' इलोकको भी प्रमाणरूपसे उपस्थित किया है, लेकिन आपने यह स्पष्ट नहीं किया है कि आप वस्तुसे भिन्न कर्मादिका कौनसे निश्चयकी सिद्धिके लिये आरोप करना चाहते है? इसके अतिरिक्त पारोल-जिसे आप केवल कल्पनाका ही विषय स्वीकार करते है-से वास्तविक निश्चयकी सिद्धि कसे संभव हो सकती है, क्योंकि जो स्वयं कल्पनारोपित होनेसे 'असदरूप ही है उससे सद्रूप वस्तुको सिद्धि होना असंभव ही है। एक बात यह भी है कि अमगारधर्मामृतके उस इलोकमें 'आरोप' शब्दका पाठ न होकर 'न्यवहार' शब्दका ही पाठ पाया जाता है, उसका अर्थ आपने 'आरोप' कैसे कर लिया? यह आप ही जानें। अनगारधर्मामृतका वह श्लोक निम्न प्रकार है : काचा वस्तुनो भिना येन निश्चयसिद्धये । - साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदहक ।।१०२।। -अध्याय प्रथम इसका सही अर्फ निम्न प्रकार है : जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिये ( उपदानभूत) वस्तू से भिन्न कर्ता आदिको सिद्धि की जाती है वह व्यवहार कहलाता है और जिसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको सिद्धि को जाती है बह निश्चय कहलाता है। इसका आशय यह है कि क्योंकि उपादानभूत मिट्टी प्रादि वस्तुओंसे घटादि वस्तुओंका निर्माण कुम्हार आदि निमित्तकारणों के सहयोगके बिना सम्भव नहीं है, अतः निमित्तका निमितकरण आदि के रूप में Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ जयपुर (खानिया ) तश्वचर्चा अन कुम्हार आदि आवश्यक निमित्तकारणोंका सहयोग लेना चाहिये । 'निश्चयकी सिद्धि के लिये' इस वापांशका अभिप्राय यही है। इस तरह अनगारधर्मामृतका उक्त श्लोक कर्ता, करण आदिरूपसे घटादि कार्य के प्रति मिट्टी आदि उपादानको वास्तविक सहयोग देनेवाले कुम्हार आदिके उस सहयोगको वास्तविक हो सिद्ध करता है, कल्पनारोपित नहीं । इसलिये इससे आपके अभिप्रायकी कदापि सिद्धि नहीं हो सकती है। मिट्टीसे घटा बना है' तथा 'कुम्हारने घड़ा बनाया है। इन दोनों प्रकारके लौकिक वचनोंको ठीक मानते हा आपने जो यह लिखा है कि 'इन वचन प्रयोगोंमें मिदोके साथ जैसी घटको अन्तर्धारित है बमो कुम्मकार के साथ महीं।' इसके विषयमें हमारा कहना यह है कि उक्त दोनों प्रयोगोंमें घटकी मिट्टीके साथ जैमी अन्नानि अनुभूत होती है वैसी अन्ताप्ति उसकी कुम्हारके साथ अनुभूत नहीं होती, इसका कारण यह नहीं है। कि मिट्टी घटके प्रति वास्तविक (सदरूप) कारण है और कुम्हार सिर्फ कल्पनारोपित (असदरूप) कारण, बल्कि इसका कारण इतना ही है कि जिस प्रकार आश्रय होनेके कारण उपादानभूत मिट्टो घटरूप परिणत हो जाती है उस प्रकार केवल सहायक होने के कारण निमितभूत कुम्हार कदापि घटरूप परिणत नहीं होता। अत: उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभावके आधार पर घट की मिट्रोके साथ ती अन्तर्व्याप्ति बतलायी है और इससे भिन्न-मिमित्त नैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभावके आधार पर घटको कुम्मकारके साथ अन्नाप्ति न इतलाकर केवल बहिव्याप्ति हो वतलायी है। यही कारण है कि उक्त दोनों प्रकारके लौकिक प्रयोगों में भी अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है अर्थात् "मिट्टीसे घड़ा बना है' यह प्रयोग अन्सारितका होनेसे उपादानोपादेयभाव की सूचना मिट्टी और घड़ेमें देता है तथा 'कुम्हकारने मिट्टीसे घड़ा बनाया' यह प्रयोग बहिर्व्याप्तिका होने से निमित्तनैमितिकभावकी सूचना कुम्भकार और बड़े देता है, इसलिये दोनों प्रयोगोंमें समानरूपसे अन्तयाप्ति कैसे बतलायी जा सकती है। इस प्रकार निमित्तकारणभूत वस्तुएं उपादानोपादेयमावको अपेक्षासे अवास्तविक ( असद्प) होती हुई भी बहिव्याप्ति ( निमित्तनैमित्तिकभाव) की अपेक्षासे वास्तविक (सदरूप)ही है। इसका मीघा अर्थ यह है कि निमित्त, जिस कार्यका बह निमित्त है, उस कार्य में वह निमित्त ही बना रहता है उसका बड़ कभी भी उपादान नहीं बन सकता है । आगे आपने हमारे कयनको उद्धत करते हए यापत्ति उपस्थित की है कि परिमन अभयरूप होता है-यह बिना आगमप्रमाणके मान्य नहीं हो सकना,' इसके साथ ही आपने यह भी लिखा है कि 'यदि परिणमन उभयरूप होता, तो घटमें कुम्मकारका रूप आ जाता।' इसके विषय में हमारा कहना यह है कि आगममें स्वपर-प्रत्यय परिणमनोंको स्वीकार किया गया है, इसके लिये प्रमाण भी दिये जा चुके हैं, आप भी स्वपर-प्रत्यय परिणमनीको स्वीकार करते है, अन्तयाप्ति और बहिर्याप्तिको व्ययस्थाको भी आपने स्वीकार किया है, इस तरह एक ही परिणमन या कार्यमें अन्तासिकी अपेक्षा उपादेयता और बहियाप्तिकी अपेक्षा नैमित्तिकता कप दो धर्मोको स्वीकार करना अमंगत नहीं है और न ऐसी स्वीकृतिको अशास्त्रीम ही कहा जा सकता है। 'निमित्त कार्यरूप परिणत नहीं होना, सिर्फ उपादान ही कार्यरूप परिणत होता है. इस अनुभूत, युक्त और आगमसिद्ध अटल नियमके रहते हए कार्य में नैमित्तिकतारूप धर्म पाया जानेमासे उक्त कार्य निमित्त के रूपका प्रवेश प्रसक्त हो जायगाऐसी शंका करना उचित नहीं है । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८२९ इस विवेचनसे लोगोंका यह भय भी समाप्त हो जाना चाहिये कि निमित्त कतत्व, निमित्तकरणस्व. आदिको वास्तविक माननेसे निमित्तों में द्विपक्कियाकारिताकी प्रसक्ति हो जायगो, क्योंकि अपने प्रतिनियत निमित्तोंके सहयोगले अपनी उपादान शक्ति के परिणामस्वरूप जो एक व्यापार उन निमित्तोंका हो रहा हो वह व्यापार हो उपादानकी परिणप्ति होने के कारण उपादेय है और चूंकि निमित्तोंके सहयोगसे उत्पन्न हुया है इसलिये नैमित्तिक है तथा वहो व्यापार अन्य वस्तुके परिणमनमें सहायक है इसलिये निमित्तकर्ता आदि रूप में निमिसकारण भी है। इस विवेचनसे यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि निमित्त में उपादानगत कारणताका उपचार नहीं होता है, क्योंकि 'सति निमित्त प्रयोजने च उपचारः प्रवर्तते', उपचारका यह लक्षण वहां घटित नहीं होता है। इसलिये जिस प्रकार उपादान कारण अपने रूप में वास्तविक अर्यात सद्भुत है उसी प्रकार निमित्त कारण भी अपने रूपमें वास्तविक अर्यात सद्भुत ही हे, कल्पनारोपित (असद्भुत) नहीं। इसी प्रकार व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंके विषय में यही व्यवस्था समझना चाहिये 1 अर्थात् जिस प्रकार निश्चय अपने रूपमें वास्तविक है उसी प्रकार व्यवहार भी अपने रूपमें वास्तविक अर्थात् सद्भुत ही है। समयसार गाथा १३ और १४ को आत्मच्याति टोकामें व्यवहारको अपने रूपमें भूतार्थ ही स्वीकार किया है और उत्प्त व्यवहार में जितना भी अभूतार्थताका प्रतिपादन किया गया है बहू कंवल निश्चयकी अपेक्षासे ही किया गया है अर्थात् जिस प्रकार निमित्त में विद्यमान निमित्तता निमित्तता ही है वह उपादानता रूप नहीं हो सकती है, इसलिये उपादानतारूप न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हुए भी निमित्तारूपसे वह वास्तविक ही है, उसी प्रकार व्यवहार व्यवहार ही है वह निश्चय कभी नहीं हो सकता है, इसलिये निश्चयप न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हए भी व्यबहाररूपसे वह वास्तविक ही है। यह बात हम पहले ही बतला आये हैं कि एक वस्तुके धर्मका आरोप अन्य उस वस्तुम वहीं होता है जहाँ उपचारका उल्लिखित लक्षण घटित होता है । इस प्रकार उपचारके आधारपर बस्तुको ही उपचरित कहा जाता है। और इस तरह वस्तु के दो धर्म हो जाते हैं एक उपवरित धर्म और दूसरा अनुपरित धर्म । इनमेंसे जो ज्ञान उपचरित धर्मको ग्रहण करता है वह उपवरित ज्ञाननय कहलाता है और जो सान अनुपरित धर्मको ग्रहण करता है वह अनुपचारित जाननय कहलाता है। इसी प्रकार जो वचन उपचश्ति धर्मका प्रतिपादन करता है वह उपचरित वचननय कहलाता है और जो वचन अनुपचारित धर्मका प्रतिपादन करता है वह अनुपचरित वचननय कहलाता है। नोट-इस विषय में प्रश्न नं. १, ४, ५, ६ और ११ पर . अवश्य दृष्टि डालिये। तथा इनके प्रत्येक सौरका विषय देखिये । मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दायों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।। शंका १७ उपचारका लक्षण क्या है ? निमित्त कारण और व्यवहारमें यदि क्रमशः कारणता और नयत्वका उपचार है तो इनमें जपचारका लक्षण घटित कीजिए ? Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा प्रतिशंका ३ का समाधान प्रथम उत्तरमें मल प्रश्न के अनुसार और द्वितीय उत्तरमै अपर पक्षके प्रपत्र के अनुसार विचार किया गया है। तत्काल अपर पक्षके प्रपन ३ पर विचार करना है। १. पुनः स्पष्टीकरण इसे प्रारम्भ करते हुए अपर पक्षने अपने पुराने निचारोंको दुगया है। हमने प्रथम उत्तरमें उपचारका स्वरूप बतलाते हुए लिखा था कि 'परके सम्बन्ध (आश्रय) से जो व्यवहार किया जाता है उसे उपचार कहते है।' इसमें 'सम्बन्ध' पदके साथ उसका पर्यायवाची 'आश्रय' पद आया है।' अपर पक्षने 'आप' पदका 'आधार' अर्ध कर अपने प्रपत्र २ में जो आपत्ति उपस्थित की थी उसका समाधान हमने यह लिखकर कर दिया था कि 'वहाँ आश्रयका अर्थ सम्बन्ध स्त्रयं लिखा गया है। अपर पक्षने पुनः उसे दुहराया है, इसलिए इतना संकेत करना पड़ा। विचार कर देखा जाय तो उस लमणमैं ये दोनों शब्द आलम्बनके अर्थमं प्रयुक्त २. व्यवहारपदके विषय विशेष स्पष्टीकरण अपर पक्षने इसी प्रसंगमें 'यबहार' पदके अर्यके विषवमें भी स्पीकरणकी पृच्छा की थी। उसका हमने अपने उत्तर २ में इतना ही स्पष्टीकरण किया था कि उपचार और प्रारोप पद इसी अर्थमें प्रयुक्त हुए हैं। अगर पसने अपने पत्रक ३ में लिखा है कि व्यवहार पदका अर्थ हमने अज्ञात होने के कारण नहीं पूछा था1' और इसके बाद उस पक्षने ऐसे अनेक धर्म युगल इस पत्र में निदिक्ष किये है जिनमेसे प्रयमको निश्चय और दुसरेको व्यवहार कहा गया है। यया 'व्य और पर्यायके विकलोंमें दयरूपता निश्चय है और पर्यायरूपता मवहार है ।........मुक्ति और संसारके विकल्पों में मुक्ति निश्चय है ओर संसार व्यवहार है।' आदि। आगे अपर पक्षने लिखा है कि 'इस प्रकार प्रत्येक वस्तुमें यथासम्भव विद्यमान अपने-अपने अनन्त धर्मों की अपेक्षा परस्पर विरुद्ध अनन्त प्रकारके निश्चय और व्यवहारके युगलरूप विकल्प पाये जाते हैं । जैन संस्कृति में वस्तुको अनेकान्तात्मक स्वीकार किया गया है इसलिए उपयुक्त निश्चय और व्यवहारके विकल्प परस्पर विरोधी होते हुए भी वस्तुमे परस्पर समन्वित होकर ही रह रहे हैं। एकत्व और अनेकत्व, नित्यत्व और अनित्यत्व, लद्पता ओर अतद्रूपता, सदूपता और असद्रूपता, अभेदरूपता और भेदरूपता इत्यादि युगलोंमें भी पहला विकल्प निश्चयका और दूसरा विकल्प व्यवहारका है। चूंकि ये सभी वस्तुके ही धर्म है, अत: अपने-अपने रूपमें सद्भूत है, केवल असद्भूत नहीं है।' निश्चय किसे कहते है और व्यवहार किसे कहते हैं इस सम्बन्धमै यह अपर पक्षका वक्तव्य है । अपर पचने किस आगम प्रमाणके आधारसे यह स्पष्टीकरण किया है इसे देनेको उस पक्षने इसलिए सम्भवत: आवश्यकता नहीं समझी होगी, क्योंकि वह पक्ष आयमके स्थानपर सर्वत्र अपने विचारोंको ही प्रधानता देता हमा प्रतीत होता है। यदि हमने व्यवहार शब्दका अर्थ स्पष्ट नहीं दिया था और अपर पक्ष उसे जानता तो उस पक्षका यही कर्तव्य था कि आगमप्रमाण देकर उसका स्पष्टीकरण कर देता । हमने अभी तक जितने भी आगमोंका अवलोकन किया है उनमें न तो निश्चयको ही एक-एक धर्मरूप प्रतिपादित किया गया है और न व्यवहारको ही एक-एक धर्मरूप प्रतिपादित किया गया है। दो-दो धर्मयुगलोंमें प्रथम धर्म निश्चय Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८३१ है और दुसरा धर्म व्यवहार है यह अपर पक्षको अपनी कल्पना है, आगम नहीं। आलापपद्धतिमें निश्च और व्यवहारके लक्षणांका निर्देश करते हुए लिखा है अभेदानुपचारया वस्तु निश्चीयते इति निश्चयः, भेदोपचारतया वस्तु व्यवहियते इति व्यवहारः । अभेद और अनुपचाररूपसे वस्तु निश्चित करना निश्चय है तथा भेद और उपचार रूपसे वस्तु व्यवहृत करना व्यवहार है । निश्चय और व्यवहारके इन लक्षणों में अध्यात्मदृष्टिसे प्ररूपित लक्षणों का भी समावेश हो जाता है, इसलिए यहाँ पर हमने उनका पृथक्से निर्देश नहीं किया है। निश्चय और व्यवहार के ये सामान्य लक्षण है, अतः इनका यथाप्रयोजन अपने उत्तर भेदांमें घटित होना स्वाभाविक है। यहाँ इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि उक्त लक्षण निश्वयनय और व्यवहारनयकी मुख्यसासे प्ररूपित किये गये हैं, किन्तु इससे निश्चय और व्यवहार के स्वरूपका स्पष्टोकरण हो जाता है । इनके स्वरूपपर भोक्षमार्गको दृष्टिसे स्पष्ट प्रकाश डालते हुए समयसार गाथा ७ की श्रात्मख्याति टोकामें लिखा है शुद्ध आस्तां तावद्वन्धप्रत्यय । यतो घनन्सधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवयोधविधायिभिः कैश्चित् मैं स्तमनुशासितां सूरीणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्स्वेकद्रव्य निपीतानन्तपर्यायत्तयैकं किञ्चिम्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रम् ज्ञायक एवं एक शुद्धः । ज्ञायक आत्माकं बन्धपर्याय निमित्तसे अशुद्धता तो दूर रहो, उसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही विद्यमान नहीं हैं, क्योंकि अनन्त धर्मवाले एक धर्मीका जिन्हें ज्ञान नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्योंको उसे (धर्मीको ) बतलानेवाले कितने ही धर्मों द्वारा उसका अनुशासन करनेवाले आचार्योंका ऐसा उपदेश है कि यद्यपि धर्म और धमम स्वभावसे अभेद है तो भी नामसे भेद उपजाकर व्यवहारमात्रसे ही ज्ञानीक दर्शन है, ज्ञान है, चारि है । परन्तु परमार्थसे देखा जाय तो एक द्रव्यके द्वारा पिये गये अनन्त पर्यायपनसे जो एक है, किचित् मिलित आस्वादवाला है, अभेदरूप है और एकस्वभाव है ऐसी वस्तुका अनुभव करनेवालेके न दर्शन है, न ज्ञान है और न चारित्र हूं - एकमात्र शुद्ध ज्ञायक है । इसी तथ्यको उदाहरण सहित सरल शब्दों द्वारा समझाते हुए आचार्य जयसेन उक्त गाथाको टीका में लिखते है यथा निश्चयनयेनाभेदरूपेणाग्निरेक एव पश्चाद् भेदरूपव्यवहारेण दहति दाहकः पचतीति पावकः प्रकाशं करोतीति प्रकाशक इति व्युपस्या विषय मेदेन त्रिधा भिद्यते । तथा जीवोऽपि निश्चयरूपाभेदनयेन शुद्धचैतन्यरूपोऽपि भेदरूपव्यवहारनयेन जानातीति ज्ञानं पश्यतीति दर्शनं चरतीति चरित्रमिति स्युपस्या विषयभेदेन त्रिधा भिद्यत इति । जिस प्रकार से अभेदरूपसे अनि एक ही है, पदचात् भेदरूप व्यवहारसे दहन करती है, इसलिए दाहक है, पचाती है, इसलिए पाचक है और प्रकाश करती है, इसलिए प्रकाशक है इस तरह व्युत्पत्तिकरनेपर विषयभेद से तीन प्रकारके भेदको प्राप्त होती उसी प्रकार जीव भी निश्चयरूप अभेदनयसे शुद्ध चैतन्यस्वरूप होकर भा भेदरूप व्यवहारनयसे जानता है, इसलिए ज्ञान हैं, देखता हूँ, इसलिए दर्शन है Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा है और चरण करता है, इसलिए चारित्र है इस प्रकार व्युत्पत्ति करने पर विषमभेदसे तीन प्रकारकै भेदको प्राप्त होता है। घे आमम प्रमाण है। इन पर सभ्य प्रकारसे दृष्टिगात करनेपर विदित होता है कि जो एक द्रध्यके द्वारा किये गये अनन्त पर्यायपने एक इं, किंचित् मिलित आस्वादवाला है, अभेदरूप है और एक स्वभाष है वह निश्चय है, क्योंकि परमार्थ से बस्तुका स्वरूप ही ऐसा है। इस प्रकार इस कथन द्वारा वस्तुस्वरूपका ही किया गया है. अतएव उक्त प्रकारस वस्तस्वरूपको ग्रहण करनेवाला निश्चयनय है यह सिद्ध होता है। स्पष्ट है कि त्रिकालाबाधित अभेदरूप एक अखण्ड वस्तुको निश्चय संज्ञा है और उसे ग्रहण करनेवाला निश्चयनय है। यह तो निश्चयस्वरूप वस्तुका और उसे ग्रहण करनेवाले निश्चयनयका स्वरूपनिर्देश है। अब व्यवहारनय और उसके विषयपर दृष्टिपात कोजिए । आचार्य कहते है कि 'यद्यपि बम और धर्मों में स्वभावसे अभेद है, सो भी नामसे भेद उपजाकर व्यवहारमाश्से हो ज्ञानोके दर्शन है, ज्ञान है और चारित्र है।' इससे विदित होता है कि धर्म-धर्मी में स्वभावसे अभेद होनेपर भी भेद हापजाकर कथन करना व्यवहार है और इसे विषय करनेवाला व्यवहारनय है। यतः धर्म और धर्मी एक वस्तुमें सद्भूत हैं, इसलिए ऐसे नयको सद्भूत व्यवहारनय कहते है। यहाँ ऐसा जानना चाहिए कि जिनागममें जो निश्चय व्यवहाररूप वर्णन है उसमें यथार्थका नाम निश्चय है और उपचारका नाम व्यवहार है। यह वस्तुस्थिति है। इसे दृष्टि ओझल करके अपर पक्ष वस्तुके एक धर्मको निश्चय कहता है और दूसरे धर्मको न्यबहार कहता है । यह बड़ी जटिल कल्पना है। उस पक्षने इस कल्पनाको मूर्तरूप किस आधारसे दिया यह हम अभी तक नहीं समझ सके । जब कि निश्चय शुद्ध अखण्ड वस्तु है और व्यवहार अखण्ड वस्तुमै भेद उपजाकर नसका कथन करनामात्र है। अपर पर समझता है कि व्यवहारनयका विषय वस्तुका धर्मविशेष है तथा इसी प्रकार निश्चयनयका बिषय भी वस्तूका धर्मविशेष है । किन्तु ऐसी बात नहीं है जैसा कि समयसार गाथा ७ को उक्त टोकासे स्पष्ट है। अपर पक्षको आगम पर दृष्टि रख कर उनके स्वरूपका निर्देश करना चाहिए। आगमफे अभिप्रायको स्पष्ट करनेका यह विधिमार्ग है। यद्यपि आगममें व्यवहारको प्रवृत्ति-निवृत्ति लमणबाला निर्दिष्ट किया गया हैम्यवहारं प्रवृत्ति-मिवृत्तिलक्षणम् । –अनगारधर्मामृत अ० १ श्लोक ९९ सो प्रकृतम उसका आशय इतना हो है कि जो प्रतादिरूप जीवकी प्रवृत्ति होती है उसे मोक्षमार्ग कहना यह व्यवहार है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना । आगममें जो व्यवहारको सदभूत व्यवहार और असदभूत व्यवहार इत्यादि भेद किये गये हैं वे मात्र किस आलाबनसे यह व्यवहार प्रवृत्त हुआ है यह दिखलानके लिए किये गये हैं। अभेद और अनपचारतरूप जो वस्तु है उसे इन में से कोई भी व्यवहारनय विषय नहीं करता, क्योंकि सद्भूत ब्यवहारनयका विषय संज्ञा, प्रयोजन और लक्षण आदिको ध्यानमें रखकर अखण्ड त्रिकालचाधित वस्तु में Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । शंका १७ और उसका समाधान भेद उपजाकर कथन करनामात्र हैं और असद्भूत व्यवहारनयका विषय एक वस्तुमें अन्य वस्तुके गुण-धर्मका प्रयोजनादिवश आरोपकर कथन करमामात्र है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि जब कि प्रत्येक वस्तु त्रिकालाबाधित अखण्डरूपसे परमार्थ सत् है तो उसे विषय करनेवाले ज्ञानको निश्श्चयनय क्यों कहा गया है। ऐसे झामको प्रमाणशान क्यों नहीं कहते? समाधान यह है कि यह ज्ञान धर्म और कालादि विशेषणसे विशिष्ट वस्तुको विषय नहीं करता, इसलिए यह शान नयज्ञान ही है और चौक वस्तु स्वभावसे अभेद-एकरूप ही परमार्थसत् है, इसलिए इसे स्वीकार करनेवाले नयविकल्पको निश्चयनय कहते हैं। इस प्रकार 'व्यवहार' पदका क्या अर्थ है ? उसे हमने अपने पिचले उत्तरमें उपचरित या आरोपित क्यों बतलाया इसका सप्रमाण स्पष्टीकरण हो जाता है। साथ ही अपर पक्षने निश्चय मोर व्यवहारको जो एक-एक धर्म स्वरूप बतलाया है वह ठीक नहीं है यह भी ज्ञात हो जाता है । ३. 'मुख्याभावे' इत्यादि धवनका स्पष्टीकरण अपर पक्षने हमारे द्वारा निर्दिष्ट किये गये उपचारके लक्षणको मान्य कर लिया यह तो प्रसन्नताकी बात है। किन्तु उसे 'मुख्याभावे सति निमिने प्रयोजनेच उपचारः प्रवर्तते' इस वचनमें पठित 'निमित्ते' पद पर विवाद है। उसका कहना है कि 'उपचारके इस अर्थम हमारे आपके मम्म अन्तर यह है कि जहां आप उपचारको प्रवृत्ति निमित्त और प्रयोजन दिखलाने के लिए करना चाहते है वहाँ हमारा कहना यह है कि उपचार करने का कुछ प्रयोजन हमारे लक्ष्यों हो और उपचार प्रवृत्तिका कोई निमित्त (कारण) वहाँ विधमान् हो तो उपचारकी प्रवृत्ति होगी।' समाधान यह है कि आलापपद्धति के उक्त वचन द्वारा 'मुख्यामाचे ससि इस वचनका निर्देश कर यही तो बतला दिया गया है कि जहाँ व्यवहार हेतु और व्यवहार प्रयोजन बतलाना इष्ट हो वहाँ उपचारको प्रवृत्ति होती है। यहाँ निमित्त' और 'प्रयोजन' शब्द 'मुख्य हेतु' और 'मुख्य प्रयोजन' के अर्थमें प्रयुक्त नहीं हुआ है, अन्यथा उक्त वचनमें 'मुख्याभावे सति' इस घचनका सनिवेश करना त्रिकालमें सम्भव नहीं था आगम में उपचार कथनके जितने उदाहरण मिलते है उनसे भी यही सिद्ध होता है। उदाहरणार्थ 'सिंहोऽयं माणवकः' इस वचनपर दृष्टिमात कीजिए। इस द्वारा वालकमें सिंहका उपचार किया गया है। इसका कारण जिस गणके कारण तिर्यपत्र विशेष ययार्थमें 'सिंह' कहलाता हे. 'सिंह' के उस गुणका बालक सद्भाव स्वीकार करना ही सो है। यही उपचार करने का बयवहार हेतू है। अपर पक्ष ऐसा एक भो उदाहरण उपस्थित नहीं कर सकता जिससे यह सिद्ध किया जा सके कि एक ट्रॅव्यका धर्म दूसरे द्रव्य में वास्तव में पाया जाता है। देखो, समयसार गाथा १०० में अज्ञानी जीवके योग और विकल्पको चटका निमित्तकर्ता कहा है। क्या अपर पक्ष यह साहस पूर्वक कह सकला है कि ये धर्म जोवके न होकर मिट्टी के हैं। यदि नहीं, तो अशानो जीवके उन धर्मोको घटका निमित्त या निमित्त का कहना क्रमसे उपचरित तथा उपवरितोपभरित हो तो होगा । प्रकृतमें 'सति निमिसे प्रयोजनेच' का यही तात्पर्य है और इसो तात्पर्यको स्पष्ट करने के लिए आला पपद्धति के उक्त वचन में 'मुख्यामाचे' पद दिया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अपर पनने उक्त वचनके आधार पर हमारे और अपने बीच जिस मतभेदको चरचा की है वह वस्तुस्थितिको ज्यानमें न लेनेका ही परिणाम है। यदि अपर पक्ष आलापपद्धतिके उस प्रकरण पर ही दृष्टिपात कर ले जिम प्रकरणमें यह वचन आया है तो भो हमें आशा है कि बल पक्ष मतभेदको भूलकर इस विषयमें हमारे कथनसे सहमत हो जायगा। १०५ - Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ जयपुर ( खानिया ) तस्वचर्चा ४. बंधे च मोक्न हेऊ' गाथाका अर्थ अपर पक्षने नयचक्रकी 'बंधे च मोक्ख हेक' इस वचनको उद्धत कर हमारे द्वारा किये गये उसके अर्थ को गलत बतलाया है। अपर पक्षने जबकि बन्ध और मोसमें जीवको यथार्थ हेतु तथा कर्म-मोकमकी व्यवहार हेतु स्वीकार कर लिया है तो इससे यह तो सुतरां सिद्ध हो जाता है कि कर्म और नोकर्मको जो बन्ध और मोक्षा हेतु कहा है वह उपचारसे हो कहा है, क्योकि 'व्यवहार हेतु' और 'उपवार हेतु' इन दोनों का आशय एक हो है। अतएव उक्त गाथाके आधारसे अपर पन्भने जो यह तात्पर्य फलित किया है कि 'इस प्रकार जहाँ आपने अपने अर्थम निमित्त में उपचारसे कारणता बतलाई है वहाँ हमने अपने अर्थ में कर्मनोकर्ममें वास्तविक निमित्तरूपसे कारणता बतलाई है।' वह बागमविरुद्ध है, क्योंकि अन्य वस्तु दूसरेके कार्यमें व्यवहारसे हेतु होता है, इसका हो यह गार्थ है कि वह उपचरित हेतृ होता है। गाथा में 'चहारदो' यह पद पथकसे आया है। वह भी इस तथ्यकी घोषणा करता है कि बन्ध-मोक्ष में कम-नोकर्मको हेल उपचारसे ही स्वीकार किया गया है, यथार्थमें नहीं । हमने अपने अर्थ में कोष्टकमें जो 'निमित्त' पद दिया है वह नहीं देना था यह हमें इष्ट है, क्योंकि अन्य पदार्थ अन्य के कार्यका स्वभावसे हेतु नहीं होता। किन्तु इस परसे अपर पक्षक अभिमतको सिद्धि नहीं होती। गाथा अपने में स्पष्ट है। उसके पूर्वार्धने व्यवहार हेतु-उपचरित हेतुका और उत्तरार्धमें निश्चय हेतु-यथार्थ हेतुका निर्देश करके बतलाया गया है कि अन्य पदार्थ बन्ध-मोक्षमें व्यवहार हेतु है और जीव निश्चय हेतु है। अपर पक्षका पाहना है कि गाया. उस रा जोय ५८ है, इसलिए पूर्वाधम 'अण्णो' पदसे जीवसे भिन्न 'अन्य पदार्थ लिये गये हैं सो यह कहना जहाँ ठोक है वहाँ कर्म-नोकर्मको व्यवहारसे निमित्त बतलाकर भी वे वास्तविक कारण है यह अर्थ करना संगत नहीं है, क्योंकि उक्त गाघामें 'हेऊ अपणो वबहारदो' ये तीन पद स्वतन्त्ररूपसे पायें हैं, जिनका अर्थ होता है कि 'व्यवहारनपसे अन्य पदार्थ हेतु अर्थात् निमित्त है।' इससे सिद्ध है कि उक्त गाथा द्वारा बन्ध और मोक्षमें अन्य वस्तुको उपचारसे हेतु स्वीकार किया गया है। अपर पक्ष 'ववहारदी हेऊ का अर्थ 'निमित्त कारण' मात्र इसना करके उसे वास्तविक सिद्ध करना चाहता है यही उसकी भूल है। अपर पक्षको यह स्मरण रखना चाहिए कि निमित्त, कारण, हेतु और साधन इत्यादि शब्द एकार्थवाची है। यही कारण है कि गाथामें उपचार कारण और यथार्थ कारण इन दोनोंके लिए मात्र हेतु' शब्दका प्रयोग किया गया है। गाया बतलाया है कि बन्ध और मोक्षमें अन्य पदार्थ भी हेतु हैं और जीव भी हेतु है। परन्तु वे किस रूपमै हेतु है इसका ज्ञान कराते हए 'चवहारदी' और 'णिच्छयदो' पद देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि अन्य पदार्थ बन्ध-मोक्षम व्यवहारसे ( उपचारसे ) हेतु है और जीय पदार्थ निश्चयसे ( परमार्थसे ) हेतु है । अतएव अपर पक्षने प्रकृतमें उक्त गाथाके आधारसे जितना व्याख्यान किया है वह ठीक नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। अपर पक्षका कहना है कि 'क्योंकि हम अपनी प्रतिशंकामें बतला चुके हैं कि एक बस्तुका अपना वस्तुत्व उपादान नहीं है और दूसरी वस्तुका अपना वस्तुत्व निमित्त नहीं है, किन्सु अपने स्वतन्त्र अस्तित्वको रखती हुई विवक्षित वस्तु विक्षित कार्यके प्रति आत्रय होनेसे उपादान कारण है और अपने स्वतन्त्र अस्तित्वको रखती हुई अन्य विवक्षित वस्तु सहायक होनेस निमित्त कारण है।' आदि। समाधान यह है कि प्रत्येक बस्तुकी उपादानकारणता उसका स्वरूप है। तभी तो प्रत्येक बस्तुमें Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान ८३५ ', • कर्ता आदि षट्कारक धर्मो को यथार्थ रूप में स्वीकार किया गया है। इसके लिए समयसार परिशिष्टपर दृष्टिपात कीजिए। इसमें जोब भावशक्ति और कियाशक्तिका अस्तित्व बतलाने के बाद कर्मशक्ति, शक्ति, करणशक्ति सम्प्रदानयति अपादानसकित और अधिकरणशक्ति में छह कारक शक्तियों निर्दिष्ट की गई स्पष्ट होता है परिणामलक्षण कार्यका यथार्थ उपादान होनेके साथ यह उसका मात्र आश्रय न होकर कर्ता भी है। इतना अवश्य है कि प्रत्येक वस्तुका अपना वस्तुत्व दूसरी वस्तु कार्यका यथार्थ निमित्त अवश्य ही नहीं है। यही कारण है कि यथ-मोश में अन्य वस्तुको व्यवहारसे (उपचार) निमित्त कहा है और जीवको निश्वयसे परमार्थ ) हेतु कहा है। इस सन्दर्भ में जब हम अपर के उक्त वक्तव्यपर दृष्टिपात करते है तो हमें अपर पक्षका उक्त कथन भागमविषद्ध ही प्रतीत होता है। इस छोटेसे वक्तव्यमें अपर पलने परस्पर विरुद्ध ऐसी मान्यताओंका समावेश कर दिया है जिनकी सोमा नहीं। जब कि अपर एसके कथनानुसार एक वस्तुका अपना वस्तुत्व उपादान ही नहीं तो वह अपने कार्यका यथार्थ आश्रय कैसे बन सकता है इसका अपर पक्ष स्वयं विचार करे । और साथ हो जब कि दूसरी वस्तुका अपना वस्तुत्व निमित्त नहीं तो वह दूसरेके कार्यका यथार्थ सहकारी कैसे कहला सकता है। हम तो अपर पक्ष के इस कथन से यही समझे हैं कि यह वास्तवमे वस्तुके वस्तुखमें हो संदिग्ध है। हमने नि छ कारक और व्यवहार छह कारक स्वीकार किये है इसमें सन्देह नहीं परन्तु स्वीकार करने के साथ हमने यह भी तो बतलाया है कि निश्चय छह कारक कारक कथनमात्र है, विट्टी घड़े को धोका पड़ा कहने के समान L यथार्थ है, और व्यवहार ह हम जिसके साथ कार्यको वाह्य व्याप्ति पाई जाती है उसमें कर्त्ता जाता है।' यह लिखा है। साथ ही इसी प्रसंगमें हमने यह भी लिखा है कि व्याप्ति पाई जाती है उसमें निमित्तरूप व्यवहारका आलम्बन कर जिसमें कर्ता निमित्त करते हैं।' आदि। आदि निर्मित व्यवहार किया जिस दूसरे पदार्थ सामा व्यवहार होता है उसे कर्ता इसपर अपर पाने 'निमित्तरूप व्यवहारका आलम्बन कर इस वाक्यांशके आधार लिखा है कि इस वाक्यका वर्ष उस दूसरे पदार्थ उपादानको कार्यरूप परिणति के अनुकूल जो सहायतारूप व्यापार हवा करता है जिसके आधार उसमें बहिर्व्याधिको व्यवस्था बन सकती है, यदि आपका अभीष्ट अर्थ हो तो वह व्यापार उस दूसरे पदार्थका वास्तविक व्यापार ही तो माना जायेगा उसे वास्तविक कैसे कहा जा 1 होनेका नियम है मात्र ता है।' आदि समाधान यह है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यके कार्य महातारूप व्यापार करता है वह माथनमात्र है। प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना व्यापार स्वयं करते हैं पर उनके एक साथ इसलिये वहाँ उपादान भित्र दूसरे के कार्य में निमित व्यवहार किया जाता है कल्पनारोपित नहीं है । व्यवहार षट्कारक विकल्प वश वस्तुमें ऐसे ही आरोपित किये घड़ेको वीका घड़ा कहा जाता है । जैसे धीका महा कहना जाते हैं जैसे— मिट्टो के ५. तस्वार्थश्लोकयार्तिक के एक प्रमाणका स्पष्टीकरण तत्त्वार्थरुपातिक पृ० १५१ प्रमाणको पर पक्ष अनेक बार उपस्थित कर आया है और हम मी उसका कहीं से तथा कहीं विस्तारसे समाधान भी कर आये हैं। अपर पक्षने यहाँ पुनः उस प्रमाणको उपस्थित किया है। उसमें द्विष्ठ कार्यकारणभावको व्यवहारनवसे परमार्थभूत कहा गया है। मात्र इसी कारण Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (सानिया ) तत्त्वचर्चा अपर पक्ष उषत कथनको अपने अभिमतके समर्थनमें मानता है। किन्तु माचार्य विद्यानन्दि उस कथनको निश्चय कथन नहीं बतला रहे है, मात्र व्यवहारनय कथन बतला रहे हैं, इसपर अपर पक्ष अपना ध्यान दे यह हमारा उस पक्षसे सविनय निवेदन है। अब देखना यह है कि आचार्य विद्यानन्दिने यदि द्विष्ट कार्य-कारणभावको व्यवहारसमसे परमार्थभूत कहा तो क्यों कहा ? बात यह है कि जिस प्रकार बौद्ध-दर्शन स्कन्धसन्तति आदिको गंवृतिमत् (कल्पनारोपित) मानता है उस प्रकार जनदर्शन तसे सर्वथा कल्पनारोपित नहीं मानता, क्योंकि दो आदि परमाणुओंम से प्रत्येक परमाणुमें अपने से भिन्न दूसरे परमाणुको निमित्त कर अपनी योग्यतावश ऐसः परिणाम होता है जिसके कारण नाना परमाणुओंके उक्त परिणामको देश-भावप्रत्याससिवश स्कारध आदि कहते है। ऐसा परिणाम सुसंस्कृत अर्थात् परमार्थसत् है, असंस्कृत अर्थात् कल्पनारोपित नहीं है । यहाँ प्रत्येक परमाणुके युगपत् देश-भावप्रत्यासत्तिरूप ऐसे परिणामको देखकर हो प्रहारनपसे द्विष्ठ कार्यकारणभावको परमार्थसत् बहा गया है। आशय यह है कि प्रत्येक परमाणुका उक्त प्रकारका परिणाम यथार्थ है । साथ ही उन सब परमाणुग्रं में देवाभावप्रत्यासत्ति है । उन में स्कन्ध व्यवहार करनेका यही कारण है । स्पष्ट है कि बौद्ध-दर्शन स्कन्धसन्ततिको जिस प्रकार संयत्तिमत-कल्पनारोपित मानता हूँ उस प्रकार जैनदर्शन नहीं मानता । इसी कारण आप्तमीमांसा कारिका ५४ को अष्टशती टोकामें उसे सुसंकृत अर्थात् परमार्थसत् बतलाया है। आचार्य विद्यानन्दिने भो इसी आधारपर त. श्लो. घार, पृ० १५१ में द्विछ कार्य-कारणभावको परमार्थ सत् कहा है। आचार्य विद्यानन्दिने वहीं पर उक्त उल्लेखके बाद संग्रह और मजसूत्रनयसे उसे जो कल्पनामाष घोषित किया है उसका यही तात्पर्य है कि स्कन्ध व्यवहारको प्राप्त हुए उन परमाणुओंको न तो एक सत्ता है, क्यों कि राव परमाणुओंकी स्वरूपसत्ता पृथक-पृथक है और न एक पर्याय हो है, क्योंकि प्रत्येक परमाणु पृयका-पृथक् अपनी-अपनो पर्यायरूपसे परिणम रहा है। इस ष्टिसे देखनेपर द्विष्ठ कार्यकारणभाष कल्पनामात्र है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उनके वे शब्द इस प्रकार हैं संग्रह सूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचिस्कश्चित्सम्बन्धः अन्यत्र कल्पनामात्रात् इति सर्वमविरुद्धम् । संग्रहनय और जुसूत्रका आश्रय करने पर तो कल्पनामात्रको छोड़कर किसीका कोई सम्बन्ध नहीं है इस प्रकार सर्व कथन अविरुद्ध है। इस प्रकार समग्न कथनपर दरिपात करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां पर द्विष्ठ कार्य-कारणभावको जो परमार्थसत् कहा है वह विकल्परूप व्यवहारमयको ध्यानमें रखकर ही कहा है। व्यवहार नय मात्र विकल्परूप होनेसे उपचरित है इसके लिए समयसार गाथा १०७ की आत्मख्याति टोकापर दृष्टिपात कोजिए । संसारी जीव के ऐसा विकल्प साधार होता है, इसलिए तो वह कल्पनारोपित नहीं है और उस विकल्पको विषयभूत वस्तु वैसी नहीं है, इसलिए वह उपचरित है यह युक्त कथनका तात्पर्य हूँ। अपर पक्षने तत्वार्थवार्तिक अं०५ सू० २ को उपस्थित कर प्रत्येक कार्य-स्त्रपर प्रत्यय होता है इसकी सिद्धि की है । समाधान यह है कि प्रत्येक कार्य स्व-पर प्रत्यय होता है इसका निषेध नहीं। विचार तो यह करना है कि इन दोनों में किसकी कारणता यथार्थ है और किसकी कारणता उपचरित है। परमागम में इसका विचार करते हुए अपना कार्य करने में समर्थ स्त्रको यथार्थ कारण बतलाया गया है और परको कारणताको उपचरित बतलाया गया है । उक्त उल्लेखमें 'नान्यतरापाये Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान हत्यादि वचन निश्चय और व्यवहार इन दोनों पक्षोंकी सिद्धिके अभिप्रायसे लिखा गया है। यतः दोनों पक्षोंकी सिद्धि युगात नहीं हो सकतो, अतः उनकी सिद्धि क्रमसे की गई है। पर इसका आवाय यह नहीं कि प्रत्येक कार्यमें दोनों प्रकारके हेतु ओंका बुगपत् समागम नहीं होता। इसलिये प्रत्येक समय में प्रतिनियत हेतुओंका समागम होकर प्रतिनियत कार्य हो उत्पन्न होता है ऐसा यहाँ उक्त कथनका आशम लेना चाहिए, अन्यथा एकान्तका परिहार करना अशत्र्य होगसे समस्त कार्य-कारणपरम्परा ही गड़बड़ा जाती है। और इस प्रकार वस्तुमै प्रत्येक समय में उत्साद-व्ययके न बन सकनेके कारण वस्तुका ही अभाव प्राप्त होता है जो युवा नहीं है, अतः प्रत्येक समय में प्रतिनियत वाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें प्रसिनियत कार्य को उत्पत्तिको स्वीकार कर लेना यही आगमसम्मत माग है ऐसा वहीं समझना चाहिए । अपर पक्षने तत्वार्थवातिक अ०५ सू०१७ का 'कायस्यानेकोपकरणसाध्यत्वात् तसिद्धे इत्यादि बचन उक्षत किया है। सो उसका भी पूर्वोक्त आगय ही है। प्रत्येक कार्यके प्रति बाह्य उपकरण प्रतिनियत बाह्य सामग्री है और आभ्यन्तर उपकरण समर्थ उपादानरूप आभ्यन्तर सामग्री है। इनमें से कार्यका एक आत्मभूत विशेषण है और दूसरा अनात्मभूत विशेषण है। इसीको आचार्य समन्तभद्रने बाघ और आभ्यन्तर उपाधिको समग्रता कहा है। इससे स्पष्ट है कि प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामै हो प्रत्येक समयमें प्रतिनियत कार्य होता है। प्रवचनसार गाथा १०२ को मुरिकृत टोकाका भी यही आशय है । मीमुख समाज में जो नहलपाराधित' इत्यादि वधन आया है, इसमें मुख्यतया उपादानोपादयभावी दृष्टिसे विचार किया गया है। तथा 'कुलालस्येव कलशम्पति' इस वचन द्वारा उसकी पुष्टि की गई है। इस द्वारा बतलाया गया है कि जैसे कुलाल (कुम्हार ) कलशके प्रति निमित्त ( ध्यबहार हेतु ) है उसी प्रकार अनन्तर पूर्व क्षण कारण है और अनन्तर उत्तर भण कार्य है, क्योंकि कारण के होनेपर कायके होनेका नियम है। इस प्रकार इस वचन द्वारा भी पूर्वोक्त अभिप्रायकी हो पुष्टि की गई है। स्पष्ट है कि ये सब वचन हमारे अभिप्रायकोही पष्टि करते हैं, क्योंकि प्रतिनियत कार्यको प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके प्रतिनियत कालम हानेका नियम है। इस प्रकार त• इलो० वा०, पृ० १५१ आदिके वचनों का क्या आशय है इसका स्पष्टीकरण किया। हमने लिखा था कि "निमित्तको व्यवहारसे कारण स्वीकार किया गया है। इस पर अपर पक्षका कहना है कि 'आप निमित्त में कारणताका उपचार करना पाहते हैं । लेकिन यहाँ विचारना यह है कि निमित्त शब्दका अर्थ ही जब कारण होता है तो निमित्त विद्यमान कारगतासे अनिरिक्त और कोनसी कारणताका उपचार आप निमित्तमें करना चाहते हैं। तया उसमें निमित्तम ) कारणसाने विद्यमान रहते हए उस उपचरित कारगतामा प्रयोजन हो क्या रह जाता है।' समाधान यह है कि यहाँ पर बाह्य सामग्रीफे अर्थ में निमित्त शब्दका प्रयोग करके उसे अन्यके कार्य व्यवहार हेतु बतलाया गया है। अतः अपर पक्षको हमारा अभिप्राय समझकर ही जमका आशय ग्रहण करना चाहिए । 'बंधेच मोक्त्व हेऊ' इत्यादि गाथाके अर्थपर अपर पक्षने जो टिप्पणी की है उसका स्पष्टीकरण हम इभी उत्तरमें पहले हो कर आये है। अत: व्यवहार हेतु और निश्चय हेतुके विषयमें जो आशय आगमका है, जिसका कि हमने विविध प्रमाणों के आधारसे स्पष्टीकरण किया है वही ठीक है। अपर पलने 'प्रत्येक वस्तु में समानरूपसे एक साथ पाये जानेवाले उपादानता और निमित्तता नामके दोनों ही धर्म कार्यसापेक्ष होते हए भो वास्तविक ही हैं।' इत्यादि लिखकर व्यवहार हेतुताको भो वास्तविक Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा बतलानेका प्रयत्न किया है। किन्तु अपर पक्षका यह कथन कल्पनामात्र है, क्योंकि एक वस्तुका उससे भिन्न वस्तुमें अत्यन्ताभाव है, इसलिए एक वस्तुके कार्यका कारण धर्म दूसरी वस्तुमें सद्भूत है यह मानना आगमसम्मत नहीं है। अतएव भेद विवश्नामें उपादानता नाम धर्मको कार्यसापेक्ष स्वीकार करना जहाँ सद्भूत व्यवहारका विषय है वहीं व्यवहारहेतुको कार्यसापेक्ष स्वीकार करके भी असद्भूत व्यवहारनयका विषय मानना ही उचित है। यही कारण है कि परमागमम 'एक कार्यके दो कर्ता नहीं होतं' यह स्वीकार किया गया है। इस विषयका विशेष खुलासा अनेक प्रदनों के उत्तरमें किया ही है। अपर पक्षको एक वस्तु के कार्यका दूसरी वस्तुको निमित्तवार्ता कहना किस नयका विषय है और उस नयका लक्षण क्या है इस ओर ध्यान देना चाहिए। इसमें सह स्पष्ट हो जायगा कि एक वस्तके कार्यका दूसरी वस्तुको निमित्तका कहना मिट्टीके घड़ेको धोका घड़ा कहने के समान उपचरित वचन ही है। प्रत्येक वस्तु स्वभाबसे अपने ही कार्य का निमित्त (कारण) है। इसीको उपादानकारण कहते हैं। अन्य वस्तु अन्य वस्तुके कार्य को करे यह उसका स्वभाव नहीं है। अपर पक्ष अन्य वस्तु के कार्यका अन्य वस्तुको वास्तविक निमित्त मानकर उसे उपचरित मानने से हिचकिचा रहा है। यही कारण है कि प्रकृति में उसकी ओरसे जो तक उपस्थित किये गये है वे सब प्रवृतमें प्रयोजनीय नहीं है। अतएव उनकी उपेक्षाकर देना ही हम अपना प्रधान कर्तब्य मानते हैं। अपर पक्षने यहाँ पर जो आपत्तियां उपस्थित की हैं, मात्र उनके भवसे हम उगादानगत कारणताका अन्य वस्तु में धारोपकर उसे व्यवहारहेतु नहीं कहते। किन्तु एक वस्तुका कारण धर्म दूसरी वस्तुमें नहीं पाया जाता, फिर भी उसमें निमित्त व्यवहार होता है, मात्र इसलिए हम उपादानगत कारणताका आरोप अन्य वस्तुमें करते है। अपर पक्षने 'मुख्याभावे सप्ति प्रयोजने' इत्यादि वचनको उपस्थित कर पुन: उसे अपनी टोकाका विषय बनाया है । निवेदन यह है कि इसके आशयको समझने के लिए सर्व प्रथम उस पक्षको 'मुख्याभावे इस पदपर ध्यान देना चाहिए। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ मुस्म हेतु और मुख्य प्रयोजनके अभाव में व्यवहार हेतु और व्यवहार प्रयोजन विखलाना हो वहाँ उपचारका प्रवृत्ति होतो है । 'अनं प्राणा; सिंहो माणकमः' इन उदाहरणोंको भी इसी न्यायसे समझ लेना चाहिये । अन्न प्राणोंके मुख्य हेतु नहीं है । प्राणोंका स्य हेतु तो उसका उपादान है। फिर भी अनको जो प्राण कहा गया है वह व्यवहार हेतुताको दिखलाने के लिए ही कहा गया है, अतः यहाँ उपाचारकी प्रवृत्ति हो जाती है। इसी प्रकार दूसरे उदाहरणको भी घटित कर लेना चाहिए । स्वयं अन्न अपनेसे भिन्न प्राणों का संरक्षण नहीं करते हैं, यह कार्य तो उपादानका है । प्राणोके संरक्षण आदिमें वह व्यवहार हेतु अवश्य है, इसलिए पहले तो अन्नमें प्राणोंको व्यवहार हेतुताका उपचार किया गया और इसके बाद उसमें प्राथापनेका उपचारकर अन्नको प्राण ही कहा गया । इसलिए अन्नको प्राण कहना यह उपचरितोपचार है। अपर पक्षने अपनो कल्पनाको हमारा कथन बतलाकर यहाँ जो कुछ भी लिखा है उसका उक्त कथनसे निराश हो जाता है, अतः यहाँ हमने विस्तारसे अपने अभिप्रायको स्पष्ट नहीं किया है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्य में सहयोग कर नहीं सकता, मात्र कालप्रत्यासत्तिवश सहयोगका व्यवहार अवश्य किया जाता है। अज्ञानी जीव पर वस्तुम इशनिष्ट या एकत्वबुद्धि करता है, इसे हो यदि अपर पक्ष अपनेस भिन्न वस्तुमें आकृष्ट होना कहना चाहता है तो इसमें आपत्ति नहीं। किन्तु इस आधारपर यदि Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान अपर पक्ष यह मानना चाहता है कि उपादानसे भिन्न अन्य वस्तु उपादानके कार्य में वास्तव में सहयोग करती है या उसे वास्तवमें परिणमासी है तो ऐसा मानना मिथ्या है। उपादानके कार्यमें उससे भिन्न अन्य बस्तुको इसीलिए अकिचिकर कहा गया है। आदानसे भिन्न वस्तुम अपने बारीका कारण धर्म वास्तविक है इसलिए उपचार निराधार नहीं किया जाता' यह सच है । किन्तु वह कारण धर्म अपनेसे भिन्न अन्य वस्तुके कार्यका नहीं है, फिर भी प्रयोजन विशेषको ध्यानम रखकर उसे अन्य वस्तुके कार्यका कारण कहा जाता है, इसलिए उसमें अन्य वस्तु के कार्यके वास्तविक कारणका आरोप करना लाजिमी होजाता है। अन्यथा उसे अन्य वस्तु के कार्यका कारण त्रिकालमैं नहीं कहा जा सकला । अपर पक्ष आलापपद्धतिमें निर्दिष्ट किये गये उपचार प्रकरण में आये हर उन वचनोंपर दृष्टिपात कर ले । उन पर दृष्टिपात करनेसे अपर पक्षको समझमें यह बात अच्छी तरहसे आजायगो कि एककी कारणताको यदि दूसरेके कार्यको कारणता कहा जाता है तो कारणतामें भी कारणताका आरोप करना बन जाता है। एक शूरवीर बालकको यदि दूसरा शूरवीर बालक कहा जाता है, जैसे आजके बलशाली मनुष्यको अतीत कालमें हुए भीमको अपेक्षा भीम कहना, तो एक शूरवीर बालक में दूसरे कारवोर बालककी अपेक्षा शुरवीरताका कारोप करना बन जाता है। प्राणोंको वास्तविक सहायक सामग्री तो स्वयं उनका उपादान है,अन्न नहीं । फिर भी अन्नको प्राणोंका सहायक कहना यह आरोपित कथन है । इसे वास्तविक मानना यही तिच्या है ! से पहीचा किम ही है। स्पष्ट है कि अन्य वस्तु अन्यके कार्यका निमित्त कारण वास्तविक नहीं है, उपचरित ही है। बालकको शुरवीरतामें पहले सिंहको शूरवीरताका आरोप होगा और इस माचारपर उसमें सिंहका आरोप कर उसे सिंह कहा जायगा। इसी प्रकार अन्न को प्राण क्यों कहा गया है इस विषय में भी स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। __ एक द्रव्यके कार्यके प्रति दूसरी वस्तु स्वयं निमित्त (कारण) नहीं है। यह तो व्यवहार है । अतः आगममें अन्य वस्तुको दूसरे के कार्यके प्रति स्वभावत: सहयोगी नहीं माना गया है। यही कारण है कि 'अन्य वस्तु दूसरेके कायम वास्तव में अकिचित्कर है हमारा यह मानना युक्तियुक्त है। एक हम ही क्या, कोई भी व्यक्ति यदि परमै कारणताको वास्तविक मानकर परको उठाधरीकै विकल्प और योगप्रवृत्ति करता है तो उसे अशानका फल ही मानना चाहिए । इसी तम्पको ध्यान में रखकर निष्कर्षरूपमें प्रवचनसार गाथा १६ को सूरिकृत टोकामें मह वचन उपलब्ध होता है अतो न निश्चयतः परेण सहात्मनः कारकस्वसम्बन्धोऽस्ति, यत; शुद्वात्मस्वभावलाभाय सामग्रीमार्गणव्यग्रतया परतन्त्रैभूयते । अतः निवयसे परके साथ यात्माका कारका सम्बन्ध नहीं है, जिससे कि शुद्धात्मस्वभावको प्राप्ति के लिए सामग्री (बाह्य सामग्री) ढूँढ़ने की व्यग्रतावश जीव परतन्त्र होते हैं। ___ अन्य वस्तुमै कारणताका आरोप साधार किया जाता है। उसे निराधार कहना उचित नहीं है। दुसरेके उपादान में अन्यके उपादानका आरोग करना हो निमित्तकारण कहलाता है। भ्रमका निरास करनेके लिए हो एकको उपादान कारण और दूसरेको निमित्त कारण कहा जाता है। तात्पर्य एक ही है। इसलिए पहले उपादान लाका आरोग किया जाता है। बादमे निमित्तताका, ऐसा नहीं है। बाह्य वस्तुका अन्यके कार्य के प्रति स्वयं महत्व नहीं है। अपने अज्ञानरूप अपराधके कारण उसे अपने द्वारा महत्व Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयपुर (खानिया ) तस्वचर्या मिल जाता है। 'अञ्च वै प्राणाः' इत्यादि उदाहरणोंमें इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिए। उपचार सर्वथा कल्पित और निराधार नहीं है। किन्तु वह साधार है । उपचारको परमार्थभूत मानना ही असत्य है, अन्यथा यह व्यवहारसे सत्य है, क्योंकि व्यवहारीजनों की उसके आधारसे लोकव्यवहार की प्रसिद्धि होती है। हम अन्यके कार्य में अन्यकी सहायतारूप व्यवहारका लोप नहीं करना चाहते। उसे परमार्थरूप माननेका निषेध अवश्य करते हैं। अपर मक्ष अवश्य ही उसे परमारून सिद्ध करने के प्रयत्न में लगा है जो आगम, तक और अनुभवके सबंधा विरुव है। यहाँ निश्चयह छह कारकोंका उपचार कैसे होता है इसका निर्देश करते हुए अपर पक्षने कार्यकारण विषममें लिखा है कि 'उपादान वस्तगत कर्मत्वका आरोप आप कौनसी अन्य वस्तुमें करेंगे।' समाधान यह है कि उपादानका अपना कार्य बास्तविक कर्म है उसमें व्यवहार हेतु रूपसे स्वीकृत अन्य वस्तुके कर्मका आरोप करके उसे उसका नैमित्तिक (कार्य) कये। इसमें कहाँ किस प्रकारका उपचार गृहीत है इसका सम्यक् परिज्ञान हो जाता है। कुम्हार और जुलाहेका जो योग और विकल्परूप व्यापार होता है उसमें व्यवहार हेतृप्ता इसलिए घटित होती है, क्योंकि जमकी क्रमश: पट और पट कार्यके साथ कालप्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिए गहों कि कुम्हार और जलाहा घट और पटके यथार्थ में सहायक हैं। क्योंकि उन्हे घट और पद के वास्तविक सहायक माननेपर प्रत्येक द्रध्यकी वास्तविक स्वतन्त्रताको हानिका प्रसंग उपस्थित हो जाता है जो युक्त नहीं है। घदादि कार्योकी उत्पत्ति वास्तव में अपने-अपने उपादानके व्यापारसे हुआ करती है, बाह्य सामग्रोके व्यापारसे उनकी उत्पत्ति कहना यहीं उपचार कथन है । बाह्य सामग्नों के साथ दुसरंके कार्यका अन्धम-व्यतिरेक तन जाता है. मात्र इसलिए बाह्य सामग्रोको कारणा कहना उचित नहीं है। कौन बंधार्थ कारण है और कौन उपचरित कारण है इसका निर्णय अनुपरित और उपचरित कारणताके आधारपर करना ही ठीक है। बाह्य अन्वय-यतिरेक अन्तरंग ध्यतिरेकका सहचर है । इरालिए इनमें कालप्रत्यासत्ति जन जानेसे बाह्य व्याप्तिको ध्यान में रखकर यह भी कहा जाता है कि कुम्हारने अपना विवक्षित व्यापार बन्द कर दिया इसलिए घट नहीं बन रहा है। किन्तु है यह कथन उपचरित हो । वास्तविक कथन यह है कि उस समय मिट्टीने स्वयं कर्ता होकर अपना घटरूप व्यापार बन्द कर दिया, इसलिए ट नहीं बन रहा है। आचार्य विद्यानन्दिने कालप्रत्यासत्तिरूप अन्वय-व्य निरेकको देखकर जो अन्य वस्तुको सहकारी कहा है वह व्यवहारसे ही कहा है, यथार्थ में नहीं । सो ऐसे व्यवहारका निषेध नहीं । यतः यह व्यवहार साधार होता है, इसलिए आधारकी अपेक्षा इसे परमार्थसत् भी कहते हैं। हाँ यदि निश्वयको अपेक्षा विचार किया जाय तो यह अभूताब हो कहा जायगा । यह तो वस्तूस्वभाव है कि कुम्हारके विवक्षित व्यापारके समय ही मिट्टी घटरूप कार्य करतो है । तभी तो इनका कालप्रत्यासत्तिरूप अन्षय-व्यतिरेक कहा गया है और सभी कुम्हारको घटका व्यवहार हेतु कहा गया है। यहाँपर अपर पक्षने अन्तव्याप्ति और बाह्य व्याप्तिक जिस अटल सिद्धान्तका निरूपण किया है उसपर वह स्थिर रहे यह हमारी कामना है । नभो समयसार गाथा ८४ को आत्मरूयाति टीकाका अपर पक्ष द्वारा उद्धृत किया जाना सार्थक है। प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय ध्रुवस्वरूप है, वह स्वसहाय है, इस सिद्धान्तको भीतरसे स्वीकार कर लेने पर परसहाय कहना उपरित कैसे हैं यह समझ में आ जाता है। अपरपक्ष विबादको स्थितिका त्यागकर इस ओर ध्यान दे यह निवेदन है। प्रत्यक्षसे जैसा प्रतीत होता है Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान उसे किसी अपेक्षासे मान्य रखते हुए भी वस्तुगत यार्थ योग्यताको ध्यानमें रखकर निर्णय करना उचित है। तभी उस प्रत्यक्षज्ञानको प्रमाणीभूत माना जा सकता है। अन्यथा नहीं । यदि बाह्य व्याप्तिके प्रत्यक्षीकरणको प्रमाण माना जाय और उस आधारपर यह कहा जाय कि मिट्टी तो घटका उपादान है पर कुम्हारके विवक्षित व्यापार के अभाव में घट नहीं बन रहा है तो यही मानना पड़ेगा कि वस्तुत: ऐसा कहनेवाला व्यक्ति घटकी अपने उपादानके साथ रहनेवालो गन्ताप्तिको स्वीकार नहीं करना चाहता जो युक्त नहीं है। जो आबालवृद्ध कार्यकारणभावकी सम्यक् व्यवस्थाको न जानकर मात्र प्रत्यक्षके आधारपर एकान्त पक्षका समर्थन करता है उसकी वह विचारधारा कल्पनारोपित हो है इसमें सन्देह नहीं. क्योंकि उस विचारधारा अन्ताप्तिके निश्चयपूर्वक ही सम्यक् कही जा सकती है, अन्यथा नहीं । घटादि कार्योंके प्रति कुम्हार आदिका व्यापार अनुकूल होता है यह कथन बाह्य व्याप्तिको ध्यानमें रखकर किया गया है और बाह्य व्याप्तिका कश्न कालप्रत्यासत्तिके आधारपर किया गया है । तथा दो द्रव्योंके विवक्षित परिणामान कालमत्वासक्ति कैसे बनता है. इसका समाधान वस्तुगल स्वभावके आधारपर किया गया है। इससे यह फलित हुआ कि ऐसा न्यगत स्वभाव है कि जब-जब मिट्टी घटरूपसे स्वयं कर्ता होकर परिणमती है तब तब कुम्हारका विवक्षित व्यापार नियमसे होता है। अपर पक्षने अपनी इस प्रतिशंकामे प्रवचनसार गाथा १०२की मुरिकृत टोका तथा समयसार गाया ८४ को आत्मख्याति टोका आदिके जो उद्धरण उपस्थित किये है सनका उक्त टोका वचनोंके अनुसार अर्थ न कर इस पद्धतिसे असं किया है, जिससे साधारण पाठक भ्रममें पड़ जाय और इस प्रकार उक्त टोका वचनोंसे अपना अभिप्राय पुष्ट करना चाहा है। उदाहरणार्थ अनगारघमित प्रथम अध्याय श्लोक १०२ के अपर पक्ष द्वारा किये गये अर्थपर दृष्टिपात कोजिए । वह श्लोक इस प्रकार है काद्या वस्तुनी मिशा येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसौ निश्चयस्तदभेदरक ५१०२।। जिसके द्वारा निश्चय (मृतार्थ-यथार्थ) नयकी सिद्धिके लिए वस्तुसे भिन्न (पृथक् ) कर्ता आदि कारक जाने जाते हैं वह व्यवहार है तथा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको जानना निश्चय है ॥१०२।। यह उक्त इलोकका पास्तविक अर्थ है। इसके रचयिता पण्डितप्रवर माशाघरजोने इस श्लोकका स्वयं यह अर्थ किया है किन्तु इसके विरुच अपर पक्षने इसका जो अर्थ किया है वह यद्यपि साधारण पाठकके ध्यान में नहीं आयगा, फिर भी यह अर्थ सोद्देश्य किया गया है, इसलिए यहाँ दिया जाता है। उक्त श्लोकका अपर पक्ष द्वारा किया गया वह अर्थ इस प्रकार है जिसके द्वारा निश्चयकी सिद्धिके लिए ( उपादान भूत ) वस्तुसे भिन्न कर्ता आदिकी सिद्धि की जाती है वह व्यवहार कहलाता है और जिसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको सिद्धि की जाती है वह निश्चय कहलाता है।।१०।। अपत श्लोकके ये दो अर्थ है । एक वह जो वास्तविक है और दूसरा बह जो वास्तविक तो नहीं है, किन्तु अपने विपरीत अभिप्रायकी पुष्टिके लिए जिसे अपर पक्षने स्वीकार किया है। अब हमें इस बातका विचार करना है कि अषत इलोकका हमारे द्वारा किया गया अर्थ ठीक क्यों है और अपर पक्ष द्वारा किया गया अर्थ ठीक क्यों नहीं है। उक्त श्लोकमें आये हुए 'निश्चयसिद्धये, साश्यन्ते' और 'तदभेदक' ये पद ध्यान देने योग्य हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा स्वयं पण्डितप्रवर आशाघरजीने इनमेंसे 'साध्यन्ते' पदका अर्थ किया है-'ज्ञाप्यन्ते' 'निश्चयसिद्धये' पदका अर्थ किया है-'भूतार्थनयमाप्स्यर्थम्' तथा 'सदभेदर' पदका अर्थ किया है-तेषां कादीनामभेदेन वस्तुनोऽनन्तरस्पेन दृक् प्रतिपत्तिः।' उक्त पदोंका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार होगा-'साध्यन्ते'--जाने जाते है, "निश्चसिद्धयेभूतार्थनयकी प्राप्ति के लिए, तथा 'तदभेददक-वन कादिकके अभेदसे वस्तुका अभेदरूपसे देखता जानना । किन्तु अपर पक्षने इन तीनों पदोंका अर्थ किया है-'साध्यन्ते-सिद्धि की जाती है, निश्चयसिद्धये—निश्चयकी सिद्धिके लिए तथा तदभेददक' जिसके द्वारा वस्तुसे अभिन्न कर्ता आदिको सिद्धि की जाती है। कर्ता आदिक वस्तुसे अभिन्न है, इसका नाम निश्चय है । यह यथार्थ है। इसे जाननेवाले निश्चयनय (भूतार्थनय-यथार्थनय) को सिद्धि ऐसे व्यवहारसे होती है जो वस्तुसे भिन्न कर्ता आदिका ज्ञान कराता है, यह उक्त श्लोकका तात्पर्य है। पण्डितजीने इसी ग्रन्थ के अध्याय १ श्लोक ९९ में व्यवहारको अभूतार्थ कह कर अभूतार्थका अर्थ अविद्यमान इट विषयरूप किया है। इससे ज्ञात होता है कि प्रत्येक बस्तुके कर्ता आदि धर्म उससे अभिन्न ही होते हैं। उससे भिन्न वस्तुमें उस वस्तुके कर्ता आदि धोका अत्यन्त अभाव ही होता है। इसलिए एक वस्तु के कर्ता आदि धर्म दूसरी वस्तुमें मानना यथार्थ न होकर मात्र व्यवहार ही है। इसे परमागममें जो असद्भुत ध्यबहार कहा है उसका कारण भी यही है। अनमारधर्मामृतके उक्त वचनमें यद्यपि 'आरोप' शब्द न आकर 'व्यवहार' शब्द ही आया है । पर यहाँ 'व्यवहार' पदसे क्या अर्थ लिया गया है इसका जब सम्यक ज्ञान किया जाता है तो यही ज्ञात होता है कि उपादानमें रहनेवाले कर्ता आदि धोका अन्य वस्तुमें आरोप करना यही व्यवहार यहाँ पर इट है । यहाँ पर 'निश्चय' पदसे क्या अर्थ लिया गया है इसका ज्ञान प्रकरणसे हो जाता है। प्रकरण कार्य-कारणभावका है । कार्य कारणसे अभिन्न होता है इसका ज्ञान निश्चयनय कराता है। इसलिए इसे यथार्थ कहा गया है, क्योंकि परिणाम परिणामीमें अभेद होनेसे प्रत्येक वस्तु स्वयं आप का होकर उसरूप परिणमतो रहती है। इसके प्रकाश में जब हम कार्य कारणसे भिन्न होता है इस कथन पर विचार करते हैं तो वह असद्भूत ही प्रतीत होता है, क्योंकि वह कारण कैसा जो विवक्षित कार्यसे भिन्न दूसरा कार्य करते हुए भी उस विवक्षित कार्यका कारण कहलाये । स्पष्ट है कि विक्षित कार्यसे भिन्न वस्तुको उसका कारण कहना आरोपित कथन ही होगा। उससे विवक्षित कार्यके यथार्थ कारणका ज्ञान तो हो जाता है, पर वह स्वयं उसका यथार्थ कारण कहलानेका अधिकारी नहीं है। 'कत्रांचा वस्तुनो भिसाः' इस वचन द्वारा यही बतलाया गया है। अपर पक्षने "मिट्टीसे बड़ा बना है। तथा कुम्हारने घड़ा बनाया है' इन दोनों प्रकारके लौकिक बचनोंको ठीक मानते हए' लिखकर यह भ्रम फैलानेकी चेष्टा की है कि हम भी इन दोनों बचनोंको लोकिक वचन मानते हैं। किन्तु यह कथन यथार्थ नहीं है, क्योंकि उक्त वचनोंमें 'मिट्रीसे घड़ा बना है' यह वचन यथार्थ है और 'कुम्हारने घड़ा बनाया है। यह वचन लौकिक है। हमने लिया था कि 'इन वचन प्रयोगोंमें मिट्टी के साथ जैसी घटको अन्तर्व्याप्ति है वैसी कुम्हारके साथ नहीं।' इसपर आपत्ति करते हुए अपर पक्षका कहना है कि 'उक्त दोनों प्रयोगों में घटकी मिट्रीक साथ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 शंका १७ और उसका समाधान ८४३ जैसी अन्तत अनुभूत होती है वैयो अन्यदि उनको कुम्हारके साथ अनुभूत नहीं होती इसका कारण यह नहीं है कि मिट्टी पटके प्रति वास्तविक (स) कारण है और कुम्हार सिर्फ कल्पनारोपित (असदुप कारण है। आदि। समाधान यह है कि मिट्टी में घटकी कारणता वास्तविक है और कुम्हारमें योग और freest कारणता वास्तविक है। परन्तु कुम्हारके योग और विकल्पको पटके साथ असाधारण द्रव्यप्रत्यासति तथा प्रतिविशिष्ट भावप्रस्थासत्ति नहीं है। इस अपेक्षा से कुम्हार में घटक कारणता असद्रूप ही है। यदि इस रूप में उसे सदूप मान लिया जाय तो कुम्हार और मिट्टी एक हो जायेंगे। यही कारण है कि आवाने कालप्रत्यासत्तिय कुम्हारको पहा ( उपचरित) हेतु कहा है। अपर पक्ष हो स्वयं ऐसी कारणताको सर्वथा कल्पनारोपित (सद्रूप) लिखता है, अन्यथा यह उपचार के लिए इन शब्दों का प्रयोग न करता। यह उस पक्षी अपनी सूख है। हमारे कथनका आश्रय नहीं मिट्टी और घटने अभेद होनेसे उपादानोपादेयभावके आधारपर जैसी अन्तति बन जाती है देसी अन्तर्याप्त कुम्हार और पटमें निमित्तनैमित्तिकमात्र आधारपर नहीं बनी इसलिए कुम्हारको घटका निमित्त कहना और घटको कुम्हारका नैमित्तिक कहना यह उपचरित हो मिद्ध होता है । इसका आशय यह है कि कुम्हार घटका वास्तव निमित नहीं है और न पट कुम्हारका वास्तव में नैमित्तिक ही है। यह मात्र व्यवहार है । जो उपचारित होने से अद्भूत हो है। कुम्हारके विवक्षित योग और विकल्पसे यह सूचना aat मिलती है कि मिट्टीने घट बनाया। परन्तु उससे यह सूचना मिलती है, इसलिए कुम्हार और घटमें वास्तविक कर्ता कर्मभाव घटित नहीं होता । F यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि निमित्त कारणको कहते हैं और नैमिसिक कार्यका दूसरा नाम है। यही कारण है कि अनेक स्थलोंपर उपादानके लिए भी निर्मित शब्दका प्रयोग हुआ है। इसलिए अन्य द्रव्य में अन्य द्रव्यके कार्यको अपेक्षा जो निमित्त व्यवहार किया जाता है वह उपचरित हो सिद्ध होता है । आगम में स्व-परप्रत्यय परिणमनको स्वीकार किया है इसमें सन्देह नहीं । परन्तु उसी आगममें परको कारण उपचारसे माना गया है। इसे वह पक्ष क्यों स्वीकार नहीं करता । आगम तो दोनों है । एकको स्वीकार करना और दूसरेको अस्वीकार करना यह न्यायमार्ग नहीं कहा जा सकता। यदि अगर पक्ष एक उपके कार्यका कारण धर्म दूसरे द्रामें वास्तविक सिद्ध कर दे तब तो बाह्य सामग्री निमितता वास्तविक मानी जाय, अन्यथा उसे उपचारित मानना होगा। अपर पक्षका कहना है कि 'निमित्त कार्यरूप परित्र नहीं होता, सिर्फ उपादान ही कार्यपरिणत होता है।' समाधान यह है कि जब कि अपर १ बाह्य व्याप्ति बाधार पर बाह्य सामग्रीको वास्तविक निमित्त मानना है तो उसे भी कार्यरूपसे परिषत होना चाहिये। अतः वह कार्यरूप परिणत नहीं होता, इसलिए उसे उपचरित मानना ही रांगत है । अपर पक्ष अपनी मान्यता के आधार पर यह भले हो समाधान करने कि निमित्त स्वर निमित कारणत्व आदिको वास्तविक माननेसे निमित्तोंमें द्विक्रियाकारिताको प्रसवित नहीं होगी। किन्तु उसकी यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि जिस बाह्य सामग्रीको अपर पक्ष अन्य कार्यका वास्तविक निमित्त कहता है वह अपने कार्यका उपादान भी है, इसलिए जैसे उपादान होकर की गई उस (बाह्य मामद्रो) की क्रिया वास्तविक है उसी प्रकार अन्य कार्यके प्रति निमित्त होकर की गई उस वस्तुकी दूसरी क्रियाको भो वास्तविक मानना Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 ८४४ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा होगा और ऐमो अवस्थामें यह बाह्य सामग्री की कर्ता हो जायगी जो जिनागमके समय है। स्पष्ट है कि बाह्य सामग्रीमें जैसे निमित्त व्यवहार उपचरित है वैसे हो उसे निमित्त कर जो कार्य हुआ है उसमें नैमित्तिक व्यबहारको उपचरित मान लेना ही श्रेयस्कर है । इस विवेधनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वाह्य सामग्री में निमित्त व्यवहार उपचारित ही है। 'मुख्षाभावे सति प्रयोजने निमिते उपचारः प्रवर्तते यह वचन इसके लिए लिखा गया है। इसका विशेष स्पष्टोकरण पूर्वमें किया ही है । अतएव उपादान के समान निमित्त व्यवहारको वास्तविक नहीं माना जा सकता। निमित व्यवहारको कल्पनापित तो अपर पक्ष दो कहता है हमारी ऐसी मान्यता नहीं है, क्योंकि जितना भी उपचरित कथन किया जाता है वह एकके धर्मको दूसरेका स्वीकार करके ही किया जाता है, निराधार नहीं किया जाता। यदि अपर पक्ष उपचाररूप लोकव्यवहारको कल्पना शेषित घोषित करनेमें ही अपनी इतिकर्तव्यता मानता रहेगा तो उसके शेर है घोका घड़ा ले माओ' आदि रूप समस्त व्यवहार कल्पनारोपित सिद्ध हो जायगा । किन्तु लोकमें ऐसा व्यवहार होता है और वह दष्टार्थका ज्ञान कराने में भी समर्थ है, अतएव निमित्तनैमित्तिक व्यवहारको उपचरित मान लेने अपर पक्षको आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह अपर पक्षका कहना है कि 'समसार गाथा १३,१४ को आत्माति टीकामे वहारको अपने रूप में भूतार्थ हो स्वीकार किया है ' सो यहाँ वहो तो ज्ञात है कि व्यवहारका वह अपना रूप कौनम्रा है जिस आधार पर उक्त टोकामे उसे भूतार्थ स्वीकार किया है। यहाँ पर मौन क्यों है ? अपर पक्षका कहना है कि जिस प्रकार निमित्तमें विद्यमान निमित्तता निमितता ही है वह उपादानारूप नहीं हो सकती है, इसलिए उपादानतारून न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हुए मो निमित्तसारूपसे वह वास्तविक हो है, उसी प्रकार व्यवहार-व्यवहार ही है वह निश्चय कभी नहीं हो सकता है, इसलिए निश्चय न हो सकने के कारण अवास्तविक होते हुए भी व्यवहाररूपसे वह वास्तविक ही है। सो प्रकृत में जानना तो यह है कि जिस प्रकार उपादानता वस्तुका वास्तविक धर्म है, इसलिए स्वयं वस्तु ही है इस प्रकार निमित्तता क्या वस्तुका वास्तविक धर्म है ? यदि वह वास्तविक हूं तो क्या एक वस्तुका गुणश्रमं दूसरी वस्तु सद्भूत हो सकता है? यदि नहीं तो उसे उपचारित मान लेने में अपर पो बात नहीं होनी चाहिए। निमित्तता अपने रूप में है यह कहना अग्य बात है और उसे वस्तुरूप मानना अन्य बात है। इसी वायसे व्यवहार के विषय में भी समझ लेना चाहिए। समारगाथा १३,१४ को आत्मरूपावि ढोकामै अपनी-अपनी पर्यायकी अपेक्षा सद्भूत व्यवहारको भूतार्थ कहा है, असद्भूत व्यवहारको नहीं । अपर पक्षने अन्तमें प्रस्तुत प्रतिशंकाका उपहार करते हुए लिखा है कि 'यह बात हम पहले हो ये है कि एक वस्तु वा वस्तुके धर्मका आरोप अन्य उस वस्तु यही होता है जहाँ उपचारका उल्लिखित लक्षण घटित होता है। इस प्रकार उपचारके आधार पर वस्तुको ही उपचरित कहा जाता है । और इस तरह वस्तुके दो धर्म हो जाते हैं एक उपचरित धर्म और दूसरा अनुपचारित धर्म । इनमें से जो शान उपचरितधर्मको ग्रहण करता है वह उपचारित ज्ञाननय कहलाता है और जो ज्ञान अनुचरितधर्मको ग्रहण करता है वह अनुपचरित ज्ञाननव कहलाता है। इसी प्रकार जो वचन उपचरित धर्मका प्रतिपादन करता है वह उपचरित वचनय कहलाता है और जो वचन अनुपचारित धर्मका प्रतिपादन करता है वह अनुपचारित वचननय कहलाता हूँ ।' Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंका १७ और उसका समाधान खुलासा यह है कि प्रत्येक वस्तुमें उपचरित धर्मको स्वतन्त्र सत्ता नहीं हुआ करनो, किन्तु अन्य जिस वस्तुसम्बन्धी द्रव्य, गुण और पर्यायका प्रयोजनादिवश तद्भिन्न वस्तुमें द्रव्य, गुण या पर्याय जिस रूपसे उपचार किया जाता है वह द्रव्य, गुण या पर्याय जिसका उपचार किया गया है उस नामसे कहा जाता है । इसी दृष्टिको ध्यानमें ग्खकर आलापपद्धति में असद्भुत ध्यवहार का अर्थ (विषय) नो प्रकारका बतलाया गया है। और इसी आधारपर वस्तुमें असद्धृतध्यवहाररो उपचारसस्वभावकी भी स्थापना की गई है-असद्भुप्त व्यवहारेणीचरितस्वभावः।-पालापप० । अन्य वस्तुको या उसके धर्मको अन्यके कार्यका निमित्त कहना उपचरित इसलिए है कि इसमें अन्यके कार्यकी अपेक्षा मुख्य निमित्त (उपादान) और मुख्य प्रजोजनका सर्वथा अभाव है, किन्तु निदरयका ज्ञान करानके लिए ब्यवहार हेतु और व्यवहार प्रयोजन दिखलाना आवश्यक है, इसलिए 'मुख्याभावे सति' इत्यादि वधा के अनुसार वहां पलारी बुनियादी है। का कहना है कि इस प्रकार उपचारके आधार पर वस्तुको हो उपचरित कहा जाता है।' किन्तु सर्वथा ऐसी बात नहीं है, क्योंकि कहीं पर पूरी वस्तुको, कहों पर गुणको और कहीं पर पर्यायको इस प्रकार तीनोंको उपचरित कहा जाता है। अपर पक्षने यहाँ पर जिस उपवार ज्ञाननय और उपचार वचननयका निर्देश किया है उसीकी दूसरी संज्ञा असदभूतव्यवहारनय है।। इस प्रकार हमने अपने प्रथमादि उत्तरों में उपचारका जो लक्षण और अनेक उदाहरण निर्दिष्ट किये है वे आगमानुसार ही निर्दिष्ट किये हैं ऐसा यहाँ समझना चाहिए । अपर पक्षसे निवेदन जयपुर (खानिया में तत्त्वच का जो उपक्रम क्रिया गया था वह इस जत्तरके साथ अन्तिमरूपसे सम्पन्न हो रहा है। इस समत्र प्ररूपणा द्वारा वस्तु व्यवस्था में और कार्य-कारणभावमें निश्चय और व्यवहारको जिनागम किस रूपमें स्वीकार करता है यही दिखलाना हमारा मुख्य प्रयोजन रहा है। हमारा अयोपशम मन्द है और जीवन में प्रमादकी बहुलता है, किन्तु जिनागम द्वादशांग वाणीका सार होनेसे गहन और नयप्ररूपणाबद्सल है। इसलिए उक्त कारणोंसे पूरी सावधानी रखते हुए भी हमसे यदि कहीं चूक हुई हो तो अपर पक्ष हमारे क्षयोपशमको मन्दता और प्रभावको बहुलताकी ओर विशेष ध्यान न देकर उसे सम्हालकर ही यथार्थको स्वीकार करेगा यह निवेदन है। विद्वान् श्रुतघर होते है । अतएव उन्हें श्रुतके आशयको उसीरूपमें प्ररूपित करना चाहिए जो द्वादशांग वाणीका सार है। वर्तमानकालीन विद्वानों के सामने आचार्य परम्परा तो आदर्शरूपमें है ही, श्रुतधर पण्डितप्रवर राजमलजी, बनारमोदासजी, टोडरमलजी, दौलतरामजी, मागचन्द्रजी, द्यानतराम जी, भूधरदासजी जयचन्दजी आदि विद्वानोंकी परम्परा भी आदर्शरूपमें है। अतएव उसे ध्यान में रखकर वर्तमानकालीन विद्वान अपने कर्तव्यका निर्वाह करेंगे ऐसी आशा है। जिनामममें निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंमेंसे कहीं निरन्नयनयकी मुख्यतासे और कहीं व्यवहारनय। मस्यतासे प्ररूपणा हुई है। उसका आशय क्या है इसका स्पष्टीकरण पण्डितप्रवर टोडरमलजीने मोक्षमार्ग प्रकाशक अ०७ में 'ववहारो भूयरधोऽभूयत्यो देसिदो दु सुद्धणओं' इस आगम वचनको उद्धृत कर किया है। वे लिखते है Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयपुर ( खानिया ) तत्वचर्चा याका अर्थ-व्यवहार अभूतार्थ है, सत्य स्वरूपको न निरूप है। बहुरि शुद्धनय जो निश्चय है सी भूतार्थ है। जैसा वस्तुका स्वरूप है तसा निरूप है / इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वे आगे पुनः लिखते है जिनमा वर्षे कहीं सौ निश्चयनयकी मुख्यता लिए व्याख्यान है। लाकों तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है ऐसा जानना / बहुरि कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लिए व्याप्यान है। ताक्रौं 'एस है नाही, मिमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है। एसा जानना। 'इस प्रकार जाननेका नाम ही दोऊ नयनिका ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनिकै न्याख्यानौं समान सत्यार्थ जानि' “ऐसे भी है, ऐसे भी है' ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तन करि सो दोऊ नयमिक क्षण माना गया है तभी। इस प्रकार समाधानका तीसरा दौर समाप्त होकर प्रस्तुत तत्वचर्चा समाप्त हुई। . . .यालय दि