________________
शंका ६ और उसका समाधान
४१३
घट कार्यके निर्माण के लिये सहायतारूप अपना व्यापार देता है तब उस मिट्टी से घट कार्यका निर्माण भी होता हुआ देखा जाता है। जटका यह निर्माणरूप कार्य कुम्हारके व्यापारके सहारेपर होता हुआ तबतक चलता रहता है जबतक या तो घट कार्यका निर्माण सम्पन्न नहीं हो जाता अथवा कुम्हारके व्यापारके सहारेपर हो तबतक होता हुआ देखने में आता है जबतक कि चालू' निर्माण कार्य के मध्य में दण्ड आदिके प्रहारसे वह फूट नहीं जाता है । निर्माण कार्य समाप्त हो जानेपर अथवा बीच ही में उसके नष्ट हो जानेपर उसमें दूसरे ही प्रकारको कार्य विधिको परम्परा दूसरे निमित्त के सहयोग से उसको अपनी योग्यता के अनुसार चालू हो जाती है। यही कारण है कि इस प्रकार कार्यविधिको परंपरामें परिवर्तन हो जाने के सबबसे पुरानी और ओर्ण-शीर्ण वस्तुएं भी नवीनताका रूप लेकर सामने आती रहती है। अब यदि निमित्तका उपयोग इस कार्यविधि न माना जाय केवल उपादानके अपने बलपर ही उसे स्वीकार कर लिया जाय तो ऐसी हालत में उसमें कार्यसे कार्यान्तरका विभाग करना असंभव हो जायगा तथा कोई पुरानो वस्तु कभी और किसी मो हालत में नवीनता को प्राप्त नहीं हो सकेगी।
आगे आपका कहना है कि 'ऐसा है नहीं कि निश्चय उपादान हो और निमित्त न मिलें फिर आगे आप कहते है कि इसी वातको असद्भूतव्यवहारनयकी अपेक्षा यों कहा जाता है कि जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है।'
अपने इस कथन से आप यह निष्कर्ष निकाल लेना चाहते हैं कि यद्यपि उपादान स्वयं अपनी सामथ्यंके आधारपर ही कार्य कर लेता है, उसे अपनी कार्यनिष्पत्ति में निमित्तांका सहयोग लेने की आवश्यकता नहीं रहा करती है । परन्तु निश्चय उपादानके रहते हुए चूंकि वहाँपर निमित्त नियमसे उपस्थित रहा करते हैं, अतः वस्तुस्थिति वैसी न रहते हुए भी केवल बोलने में ऐसा आता है कि जब जैसे निमत्त मिलते हैं तब वैसा कार्य होता है ।
विचार करनेपर मालूम पड़ता है कि निमित्तको अकिचित्करता और कल्पनारोपितताको सिद्ध करनेके लिये आपका यह प्रयास बिल्कुल व्यर्थ है । आगे इसी बात को स्पष्ट किया जा रहा है
स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्य में स्व अर्थात् उपादानके साथ साथ पर अर्थात् निमित्त के सहयोग की आवश्यकता रहा करती है-इस बातको पूर्वमें अत्यन्त स्पष्टताके साथ बतला दिया गया है तथा इस विषय समर्थन में राजधातिकका निम्नलिखित प्रमाण भी देखने योग्य है जिसमें कार्यके प्रति निमित्तपनेके आधारपर धर्म और अधर्म द्रव्योंकी सिद्धि की गयी है
कार्य स्यानेकोपकरणसाध्यत्वात् तत्सिद्धेः ॥ ३९॥ इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दहं यथा विण्डो बटकार्थपरिणाममासि प्रति गृहीताभ्यन्तरसामयः बाह्यकुलाल- दण्ड- चक्र सूत्रोदक- काला काशाधनेकोपकरणापेक्षा घटणाविर्भवति, बैंक एवं मृत्पिण्डः कुलालादिवासाघन सविधानेन विना घटारमनाविर्भवितुं समर्थः तथा परस्त्रिप्रभृति वच्यं गतिस्थितिपरणामप्राप्तिं प्रत्यभिमुखं नान्तरेण श्राह्मानेककारणसन्निधिं गतिं स्थिति चावाप्तुमलमिति तदुपग्रहकारणधर्माधर्मास्तिकायसिद्धिः ।
- अध्याय ५ सूत्र १७ वार्तिक ३१
अर्थकार्यको सिद्धि अनेक उपकरणों ( कारणों ) से होने के कारण धर्म तथा अधर्म दोनों द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। लोकमें भी यही बात देखने आती है— जैसे जिस मिट्टी के विण्डमें घटकार्यपरिणमनके योग्य स्वाभाविक सामर्थ्य विद्यमान है वह वाह्य कुम्हार, दण्ड, चक्र, सूत, जल, काल और