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________________ ४१२ जयपुर (खानिया) चर्चा सम परिवर्तन पूर्व पूर्व परिवर्तन के कार्य और उत्तर उत्तर परिवर्तन के लिये कारण है, अतः इन्हें घट निर्माण की अनित्य उपादानशक्ति अभूत करना चाहिए। किन्तु यहाँ पर इतना विशेष समझना चाहिये कि इन सब परिवर्तनों में अन्तिम परिवर्तन घट निर्माणको पता ही माना गया है। कारण कि कुम्हारके व्यापारका अन्तिम लक्ष्य नही रहता है. अतः उसका अन्तर्भाव केवल कार्यों में ही होता है, कारणों में नहीं। यही कारण है कि उसकी साथ ही कुम्हार अपना व्यापार भी बन्द कर देता है। सब घटरूप इन परिवर्तनको यहाँ पर जैसा पिण्ड स्थास कोण, कुल और पटप स्थूल परिवर्तनों में विभक्त किया गया है वैसा ही चाहो तो एक एक क्षणवर्ती परिवर्तनोंके रूपमें भी उन्हें विभक्त कर सकते हो, क्योंकि प्रश्न इस बात का नहीं है कि इन सब परिवर्तनोंका विभाजन पिण्यादि स्कूल पर्यागोंके रूपमें किया जाय अथवा क्षणिक पर्यायोंके रूपमें किया जाय? किन्तु प्रश्न यह है कि ये सब परिवर्तन एकके बाद एक करके अपने आप होते चले जाते हैं या जैसे जैसे कुम्हारका व्यापार नावे होता जाता है जैसे वैसे मे परिवर्तन भी आगे रहते हैं ? उक्त प्रश्नका जो समायान अनुभव, तर्क और आगमप्रमाणोंके आधार पर हमने अपनी प्रतिशंका में किया है वह यह है कि उक्त सभा परिवर्तन कुम्हारके व्यापार के सहारे पर ही हुआ करते हैं, अपने आप नहीं । अतः उपादानगत योग्यताको लक्ष्य में रखते हुए जब जैसे निमित मिलते है वैसा हो परिणमन वस्तुकी अपनी योग्यता अनुसार हुआ करता है—यह मान्यता गलत नहीं है। इतना ही नहीं, कार्यके प्रति उभय कारणोंको जो आगम में स्वीकृति को गयी है उसकी सार्थकता भी इसी ढंगले हा सकती है, अन्यथा नहीं यह सब पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। आपका कहना है कि मुख्य विवाद उपादानशा है, क्योंकि उपदानकी कार्योत्पत्ति के लिये तैयारी हो जानेपर निमित्त मिलते ही है। लेकिन हमारा कहना - जैसा कि कार सिद्ध किया जा चुका है—यह है कि कार्योत्पत्ति के लिये उपादान को तैयारी निमित बलपर हो हुआ करती है । यद्यपि केवल स्व-प्रत्ययता के आधारपर होनेवालो कार्यविधिकी परंपरा धाराप्रवाहरूपसे अनादि कामसे चली आ रही है और अगल काल वह चलती हो आयो पद्गुण हानि-वृद्धिपरिक परंपराका अन्तर्भाव इसी कार्य होता है। इसी प्रकार स्वपरप्रत्ययता के आधार पर होनेवाली कार्यविधिको बहुत-सी परंपरा भी ऐसी हो रही है जो अनादि कालसे धाराप्रवाहरूपसे चली आ रही है और अनन्त कालव] पलती हो जायगी जैसे परिधमनशी वस्तुओंके निमित्तने आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल योके भावों को परिणमन होता रहता है वह इसी कोटिमें आता है, क्योंकि यह स्वपत्य होता हुबा अनादि कालसे धाराप्रवाहसे चलता आ रहा है और अगर काल इसी रूपमे चलता ही जा लोकके सामने समस्या इन दोनों प्रकारके परिणमनों को नहीं हैं, परन्तु स्वपरप्रत्ययता के आधारपर ही होनेवाली पटादि कार्यविधिकी परंपरा ऐसी नहीं है जो अनादि काल अनन्त कालक धाराप्रवाहरूपसे चलने बाली हो, क्योंकि पटादि कार्यविधिकी परंपरा लोकमें ओर ही देखने में आती है। जैसे खानमें मिट्टो अनादिकाम पड़ी हुई चली था रही है और यह निर्विवाद है कि बनादि कालसे अवतकखागमें पढ़े रहते हुए उनसे घटरूप पर्यायका निर्माण स्वतः अथवा स्व और परके सहयोगसे न तो हुआ, न कभो होनेवाला है। इसके विपरीत यह बात अवश्य देखने में आती है कि खानमे पड़ी हुई उस मिट्टी में से कुछ मिट्टोको कुम्हार अपनी आवश्यकता और आकांक्षा के आधार पर बनाने के उद्देश्य यथावसर अपने पर छाता है और जब वह कुम्हार
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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