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शंका ६ और उसका समाधान
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बनाने के उद्देश्य से अपने घर ले बाता है और यहीं से फिर कुम्हारके व्यापारके सहयोगसे उस मिट्टीकी घट निर्माणके अनुकूल स्थूल पर्यायोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर विकासरूप पिण्ड, स्थास, कोश मोर कुशूल आदि अवस्थाएँ तथा क्षणिक पर्यायोंको अपेक्षा एक-एक क्षणको एक-एक पर्यायके रूपमें उत्तरोत्तर विकासरूप अवस्थाऐं चालू हो जाती | ये सब पिण्डादिरूप] स्थूल अवस्थाएं या क्षण-क्षणकी सूक्ष्म अवस्थाएँ एकके बाद एकके क्रमसे कुम्हारके क्रमिक व्यापार के अनुसार ही हुआ करती हैं, अतः इन्हें घटको उत्पत्तिके अनुकूल जस मिट्टीको घटको अनित्य उपादान शक्तिके रूपसे ही आगम में स्वीकार किया गया है। प्रमेयकममार्तण्डके 'यच्चोच्यते' इत्यादि कथनका अभिप्राय यही है ।
इस प्रकार घट निर्माणकी स्वाभाविक योग्यताको धारण करनेवाली खानकी मिट्टी में घट निर्माणके उसे किये जानेवाले कुम्हारके दण्डादिसापेक्ष व्यापारके सहयोग से घट निर्माणके अनुकूल पिण्डादि नाना क्षणaat स्थूल पर्यायों अथवा क्षण-क्षण में पर्याय मान सूक्ष्म पर्यायाँका उत्तरोत्तर विकासके रूपमें उत्तर पर्यायका उत्पाद तथा पूर्व पर्यायका विनाश होता हुआ अन्तमें घटकां निर्माण हो जाता है और तब उस घदनिर्माण की समाप्ति के साथ ही कुम्हार अपना भी व्यापार समाप्त कर देता है। यहो प्रक्रिया गेहूंसे गेहूं की अंकुरोत्पत्तिके विषयमें तथा सभी कार्योंके विषयमें भी लागू होती है ।
तात्पर्य यह है कि मिट्टोसे घटके निर्माण में कुशल कुम्हार सर्वप्रथम खानमें पड़ी हुई उस मिट्टी में घट रूपसे परिणत होनेको जिस योग्यताको जाँच कर लेता है उस योग्यताका नाम ही मिट्टी में विद्यमान घट निर्माण के लिये नित्य उपादान दशक्ति है, क्योंकि यह स्वभावतः उस मिट्टी में पावी जातो है। कुम्हार इस योग्यताको उसमें पैदा नहीं करता है, इसीको अभिमुखता, सन्मुखला उत्सुकता आदि शब्दांसे आगममें पुकारा गया है । खातमें पड़ी मिट्टी में उक्त प्रकारको योग्पला जाँच करने के अनन्तर उस मिट्टीको घर लाकर कुम्हार उसमें स्वाभाविकरूपसे विद्यमान उस योग्यता के आधार पर दण्ड, चक्र आदि आवश्यक अनुकूल सामग्री की सहायता से अपने व्यापार द्वारा उस मिट्टीसे निम्न क्रमपूर्वक घटका निर्माण कर देता हूँ
कुम्हारका वह व्यापार पहले तो उस मिट्टीको खानसे घर लानेरूप हो होता है, फिर वह उसे घट निर्माणके अनुकूल तैयार करने में अपना व्यापार करता है। इसके अनन्तर उस कुम्हारके व्यापारसे ही वह मिट्टी firण्ड बन जाती है और फिर जसो कुम्हारके व्यापारके सहारेसे ही वह मिट्टी क्रमसे स्थास, कोश और कुणूल बनकर अन्तमें घट बन जाती है। इस प्रक्रियामे कुम्हारके व्यापारका सहयोग पाकर उस मिट्टी में क्रमवाः पिण्ड, स्थास, कोश, कुकूल और घटरूप से उत्तरोत्तर जो परिवर्तन होते हैं मिट्टी में होनेवाले इन परिवर्तन से पूर्व पूर्व परिवर्तनको आगे-आगे के परिवर्तन के लिये योग्यता, अभिमुखता, सन्मुखता या उत्सुकता आदि नाम पुकारी जानेवालो अनित्य उपादान शक्ति के रूपमें आगमद्वारा प्रतिपादित किया गया है । पूर्वका परिवर्तन हो जानेपर हो उत्तरका परिवर्तन होता है, अतः पूर्व परिवर्तनको उत्तर परिवर्तनके लिये पादन कहा गया है और चूँकि ये सब परिवर्तन दण्डादि अनुकूल निमित्तोंके सहयोग से होनेवाले कुम्हारके व्यापार के सहारे पर ही हुआ करते हैं तथा इनमें पूर्व परिवर्तनका रूप ही कुम्हारके व्यापार द्वारा बदलकर उसर परिवर्तनका रूप विकसित होता है, अतः इन्हें अनित्य माना गया है ।
इसका मतलब यह हुआ कि खान में पड़ी हुई मिट्टी में जो मुसिकात्य धर्म पाया जाता है वह उसका निजी स्वभाव है और चूँकि उसके आधार पर ही घट निर्माणकी भूमिका प्रारम्भ होती है एवं घटका निर्माण हो जाने पर भी उसका नाश नहीं होता है, अतः उसे घट निर्माणको नित्य उपादान दशक्ति अन्वर्भूत करना चाहिये तथा इसके अनन्तर कुम्हारके व्यापार के सहारे पर क्रमसे जो जो परिवर्तन उस मिट्टी में होते जाते हैं वे