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________________ ४१४ जयपुर (खानिया) सत्वचर्चा आकाशादि अनेक कारणों को सहायतासे हो धदक्षा परिणत होता है। केवल मिट्टीका पिण्ड अकेला कुम्हार मादि बाह्य साधनों के सहयोगके बिना घटरूपसे परिणत होने में समर्थ नहीं होता है। वैसे ही पक्षी आधि द्रव्य गति और स्थितिरूप परिणमनको अपने में योग्यता रखते हए भो बाह्य अनेक कारणोंके सहयोग के बिना गति और स्थितिरूप परिणमनको प्राप्त नहीं हो सकते हैं. इसलिये इनके सहायक कारणों के रूप में धर्म और अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। राजवातिकके इस उद्धरणसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि निमित्तोंका समागम उपादानकी कार्यरूपसे परिणत होने को तैयारो हो जानेपर हो ही जाता है'-ऐसा नियम नहीं बनाया जा मकता है. किन्तु यर तथा आगमके और दुसरे प्रमाण यही बात बतलाते है कि उपादानको जब निमित्तान सहयोग प्राप्त होगा तभी उपादानकी नित्य दृश्यशक्ति विशिष्ट वस्तुको जिस पर्यायाक्तिविष्टिताको आप तैयारी शब्दसे ग्रहण करना चाहते हैं वह तैयारी होगी और तभी कार्य हो सकेगा। आप कहते है कि उपादानसे कार्योत्पत्तिके अवसरपर निमित्त उपस्थित तो अवश्य रहते हैं परन्तु उनका सहयोग उपादानसे होनेवाली कार्योत्पत्तिमें बिल्कुल नहीं होता है और इसीलिये आप कहते हैं कि 'उक्त अवसरपर रहने वाली निमित्तोंकी नियमित उपस्थितिको असदभुतम्यवहारनयको अपेक्षासे यों कहा जाता है कि 'जब जैसे निमित्त मिलते हैं तब वैपा कार्य होता है।' इस कथनसे हम आपके अभिप्रायको यों समझे हैं कि आपकी दृष्टि में असद्भुत व्यवहारमय वह कहलाता है जिसका प्रतिपाच अथवा ज्ञाप्य विषय या तो बिल्कुल न हो और यदि हो तो वह असद्भुत अर्थात् असत्य हो। परन्तु यह बात निश्चित ही जानना चाहिमे कि ऐसा एक भी नय जैनागममें नहीं बतलाया गया है जिसका प्रतिपाद्म या ज्ञाप्य विषय या तो बिल्कुल नहीं है और यदि है भी तो वह असद्भूत अर्थात् असत्य ही है, क्योंकि यदि किसी नयका कोई विषय ही निर्धारित नहीं है तो वह नय कैसा? और अदि उसका कोई विषय निर्धारित है तो उसे अवस्तुभूत या असत्य वैये कहा जा सकता है ? क्योंकि यदि अवस्तुभूत पदार्थको भी नका विषय माना जायगा तो उस हालत में बाकाशके फल तया गधेके सोंग भो नयका विषय होने लगेंगे । इसलिये अराभूत व्यवहारनयके विषयको भी वास्तविक ही स्वीकार करना होगा । अतः विचारणीय बात यह है कि ऐसा कौन-सा वास्तविक पदार्थ है जो असद तपबहारनयका विषय होता है। यह बात पूर्वमें ही स्पष्ट को जा चुकी है कि प्रकृत प्रकरण कार्यकारणभावका है और कि स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यमें दो तरह से कार्यकारणभाव पाया जाता है-एक तो स्वप्रत्ययताको लेकर उपादानोपादेयभावके अपारपर और दुसरा परप्रत्ययताको लेकर निमित्तनैमित्तिकभावके आधारपर। इस प्रकार स्वपर प्रत्ययरिणमनहप कार्य जहाँ उपादानोपादेयभावको विवक्षासे उपादानभूत वस्तुके आश्रयसे उत्पन्न होने के कारण उपादेय है वहाँपर वह निमितनैमित्तिकभावको विवक्षासे निमित्तभूत वस्तुके सहयोगसे उत्पन्न होने के कारण नैमित्तिक भी है। अतः स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप उस कार्य में उपादानको अपेक्षा उपादेयभाव तथा निमित्तको अपेक्षा नैमित्तिकमाव ऐसे दो धर्म देखने को मिल जाते है। इनमें से उपादेयभाव उसमें उपादानभूत वस्तुके आधित होने के कारण जहाँ निश्चयरूप है वहाँ नैमित्तिकभाव उसमें निमित्तभूत-वस्तुके आश्रित न होने के साथ-साथ उसकी सहायतासे उत्पन्न होने के कारण व्यवहाररूप है । इस प्रकार स्वपरप्रत्यय परिणमनरूप कार्यमें निश्चय और व्यवहार दोनों धर्मोका समावेश होने के कारण वह स्वपरप्रत्यय परिणमन कथंचित अर्थात् अपने उक्त निश्चय स्वरूपको अपेक्षा वचन तथा ज्ञानरूप निश्चयमयका विषय होता है और वही स्वपर
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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