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________________ शका ६ और उसका समाधान प्रत्यय परिणमन कार्यचित् अर्थात् अपने उक्त व्यवहारस्वरूपको अपेक्षा वचन तथा ज्ञानरूप व्यवहारनयका विषय होता है। यह बात भी हम पूर्वमें बतला चुके हैं कि निश्चयरूप अर्थ और व्यवहाररूप अर्थ ये दोनों ही पदार्थके अंश हैं यही कारण है कि ये दोनों अंश क्रमशः निश्चय और काबहार दोनों नयोंके परस्पर सापेक्ष होकर हो विषय होते है अर्थात् जहाँ वस्तुके निश्चयरूप अर्थाशका प्रतिपादन पचनरूप निश्चयनय द्वारा किया जाता है वहाँपर वचनरूर बहारनयद्वारा प्रतिपादिः पहारही मागका नियमसे आक्षेप होता है। इसी प्रकार जहाँ वस्तुके व्यवहाररूप अर्थाशका प्रतिपादन वचनरूप व्यवहारनयद्वारा किया जाता है वहाँपर बचनरूप निश्चयनयद्वारा प्रतिपादित निश्चयरूप अर्थाशका नियमसे आनेप होता है। यही प्रक्रिया ज्ञानरूप निश्चय और व्यवहार नमीद्वारा ज्ञाप्य निश्चय और व्यवहाररूप अर्यांशोंका शान करनेके विषय में भी लागू कर लेना चाहिये। . यदि एक अर्थाशके प्रतिपादन अथवा ज्ञानके साथ दूसरे अर्थाशका प्रतिपादन अथवा ज्ञान न हो तो ऐसी हालतमें सिर्फ एकका प्रतिपादक वचननय अथवा ज्ञापक ज्ञानमय दोनों ही गलत हो जावेगे। यहापर स्पष्टीकरणके लिये यह दृष्टान्त दिया जा सकता है कि-वस्की नित्यताका प्रतिपादन द्रव्यत्वरूपसे निश्चयनयात्मक वचनद्वारा तथा उसका ज्ञान भी ध्यत्मरूपसे निश्चय नयात्मक ज्ञानद्वारा यदि होता है तो इन्हें तभो सत्य माना जा सकता है जब कि पर्यावरूपसे उसको अनित्यताका व्यवहारनयात्मक वचनवारा होनेवाला प्रतिपादन और प्रबहारनयात्मक शानद्वारा होनेवाला शान भी हमारे लक्ष्य में हो 1 इसी प्रकार वस्तुकी अनित्यताका प्रतिपादन पर्यायरूपसे व्यवहारनयात्मक वचनद्वारा तथा उसका ज्ञान भी पर्यायरूपसे व्यवहारनयात्मक ज्ञानद्वारा यदि होता है तो इन्हें भी तभी सत्य माना जा सकता है जब कि द्रव्यत्वरूपसे ससकी नित्यलाका निश्चयनयात्मक वचनद्वारा होनेवाला प्रतिपादन और निश्चयनयात्मक ज्ञानद्वारा होनेवाला शान भी हमारे लक्ष्य हो । ऐसा न होकर यदि अनित्यतासे निरपेक्ष केवल नित्यताका या नित्यतासे निरपेक्ष केवल अनित्यताका प्रतिपादन किसी वचनद्वारा हो रहा हो, इसी तरह अनित्यतासे निरपेक्ष केवल नित्यताका या नित्यत.से निरपेक्ष केवल अनित्यताका ज्ञान किसी ज्ञानद्वारा हो रहा हो तो इस प्रकारके वचन तथा ज्ञान दोनों ही नयात्मक नहीं रहेंगे, क्योंकि इनके विषयभूत निस्यल और अनित्यत्व होना ही पदार्थको अंशो रूपमें . नहीं किन्तु पूर्ण पदार्थके रूपमें ही वचनद्वारा प्रतिपादित होंगे और शानद्वारा ज्ञात होंगे। तब ऐसी हालतमें यदि उस नित्यताम अभेदात्मकरूपमे अनित्यताका अथवा उस यानित्यतामें अभेदात्मकरूपसे ही निस्यताका अंश यदि समाया हुआ होगा तो उनके प्रतिपादक वचनों तथा उनके ज्ञापक ज्ञानोको नयकोदिमें अन्तभूत म करके प्रमाणकोटिमें ही अन्तर्भूत करना होगा और यदि बस्तुमें नित्यताके द्वारा अनिस्यताका अथवा भनित्यताके द्वारा नित्यताका सर्वथा लोप किया जा रहा होगा तो उस हालतमें उनके प्रतिपादक वचनों तथा ज्ञापक ज्ञानोंको प्रमाणाभासोंको कोटिमें पटक देना होगा, बयोंकि पदार्थ न तो सर्वथा नित्य हो है और म सर्वथा अनित्य ही है। इसका तात्पर्य यह है कि जब वस्तु जैन-मान्यता के अनुसार कथंचित् अर्थात् निश्चय (द्रव्यत्व ) रूपसे नित्य मानो गयी है तो इसका आशय यह भी है कि वह कथंचित् अर्यात व्यवहार ( पर्याय)रूपसे अनित्य भी है। इसी प्रकार जब यस्तु जैन-मान्यताके अनुसार कथंचित् अर्थात् ब्यवहार ( पर्याय ) रूपसे अनित्य मानी गयी है तो इसका आशय यह भी है कि वह कथंचित अर्थात निश्चय (द्रव्या ) रूपसे नित्य भी है। इस प्रकार जन मान्यताके अनुसार जब निश्चयनय वस्तुको निस्यताको विषय करता है तो उसी समय
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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