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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४५३ सम्पन्नताके विषयमै प्रत्येक कार्यके होनेके जो प्राकृतिक नियम है उनको ध्यान में रख कर ही विचार करता है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके विचार करने पर और बाह्य उठाघरी करने पर जिस कार्यके विषएमे उसने विचार किया है वह कार्य हो ही जाता है, क्योंकि जो भी कार्य होता है वह बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको समग्रतामें ही होता है। विकल और योग ये उस व्यक्ति के कार्य है । सो घे भी अपनी बाह्याभ्यन्सर सामग्रीको समग्रतामें होते हैं। कभी भी कोई विकल्प और कोई योगक्रिया हो जाय ऐसा नहीं है। वे भी क्रमानुपाती ही होते है । उपादान स्वयं वह वस्तु है जो परिणमन करके अपने कार्यको उत्पन्न करता है। उपमें सामग्रो प्रमेश को नियाग सान मारय निश्चयसे बाह्य सामग्री पर द्रव्यका कार्य करनमें अकिंचित्कर हो है। कार्यके साथ उसका अन्दय-वयतिरेक दिखलाने के लिए ही उसे व्यवहारसे पर द्रम्य के कार्यका करनेवाला स्वीकार किया है यह बात दूसरी है। अपर पक्षने गेहको उदाहरण बनाकर कार्य-कारणपरम्पराको जिस प्रक्रियाका निर्देश किया है वह प्रत्येक कार्यमे बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रताको ही सूचित करता है। कार्यमें बाह सामग्रीको समपता नहीं होती यह तो हमारा कहना है नहीं । हम ही श्या, आगम ही जब इस बातको सूचित करता है कि प्रत्येक कार्य में वाह-आभ्यन्तर सामग्रीकी समग्रता होती है। ऐसी अवस्थामै जो प्रत्येक कार्यमें उभय सामग्रोकी समग्रताका निर्देश किया है उसका आशय क्या है, विचार इस बात का होना चाहिए, किन्तु अपर पक्ष इस मूल बात को भूलकर या तो स्वयं दूसरी बातोंको सिद्ध करनेमें उलझ जाता है या फिर हमें मुख्य प्रश्नको अनिर्णीत रखनके अभिप्रायसे दूसरी बातों में उलझा देना चाहता है। सो उसकी इस पद्धतिको इलाध्य नहीं कहा जा सकता। आगममें वाह्य और आम्यन्तर दोनों प्रकारको सामग्रीम कारणताका निर्देश किया गया है यह सच है। परन्तु वहाँ किसमें किस प्रकारको कारणताका निर्देश किया गया है इस यातपर दृष्टिात करनेसे विदित होता है कि बाह्य सामग्रीमे जो कारणताका निर्देश किया गया है वह केवल कार्यके साथ उसकी अन्वय-व्यतिरेकरूप बाह्य व्याप्तिको दिखलाकर उसके द्वारा जिसके साथ उस (कार्य) को आम्यन्तर व्याप्ति है उसका ज्ञान करानेके लिए ही किया गया है और 'यदनन्तरं यद्भवति तत्तत्सहकारिकारणम्' यह वपन भी इसी अभिप्रायसे लिखा गया है । जब कि आगमका यह वचन है कि कोई भी द्रव्य एक साथ दो क्रियाएं नहीं कर सकता और साथ ही जब कि आगमका यह भी बचन है कि प्रत्येक द्रष्य अपने स्वचतुष्टमको छोड़कर अन्य ब्यके स्वचतृष्टया नहीं परिणमता। ऐसी अवस्थामें एक द्रव्य दूसरे द्रव्य के कार्यका कारण है या कता, करण और अधिकरण आदि हैं यह कथन उपचरित ही तो ठहरेगा। इसे वास्तविक कसे कहा जा सकता है इसका अपर पक्ष स्वयं ही विचार करे। एक ओर तो अपर पक्ष इस तथ्यको स्वीकार कर लेना है कि गेहूँ अंकुरका तभी उपादान है जब वह गेंहूँ रूप अंकुरको उत्पन्न करने के सन्मुख होता है और दूसरी ओर वह यह भी लिखने से नहीं चूकता कि 'कोईकोई दाने उक्त प्रकार की योग्यताका अपने अन्दर सद्भाव रखते हुए भी बाह्य जलादि साधनोंके अनुकूल सहयोगका अभाव होनेसे अंकुररूपसे उत्पन्न होनेकी अबस्थासे बंचित रह जाते हैं।' आदि । सो अपर पक्षका ऐसा परस्पर विरुद्ध कथन इस बातको सूचित करता है कि अपर पक्ष वस्तुतः आगममें प्रतिपादित निश्चय उपादानके लक्षणको स्वीकार नहीं करना चाहता । यह बात अपर गक्ष अच्छी तरह से जानता है कि आगममें केवल योग्यताको ही उपादान कारणरूपसे न स्वीकार कर कार्यको अव्यवहित पूर्व पर्याय युवत द्रव्यको उपादान कारणरूपसे स्वीकार किया गया है। अतएव वैवल योग्यताके आधारपर जो भी आपत्तियाँ अपर पक्ष उपस्थित करता है वे सब प्रकृत विचारणाम दोषाषायफ नहीं मानी जा सकती। हो, अपर पक्ष यदि कोई ऐसा आगम
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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