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________________ ४५२ जयपुर ( खानिया ) तत्त्वचर्चा मिट्टीके पिण्ठमें पटोत्पत्ति के अनुरूप परिणाम न होकर अन्य परिणाम होता है तो उसे भी उक्त आगम प्रमाणके प्रकाश में क्रमानुपाती ही समझना चाहिए। गह वस्तुव्यवस्था है, किन्तु इसे न स्वीकार कर अपर पक्ष अपनी मानसिक कल्पनाओंके माधार र जोमाज विकास र सम आलमा प्रस्तुव्यवस्था में हस्तक्षेप ही कहा जायगा। किमो भी द्रव्यका कोई भी कार्य परके ऊपर अवलम्बित नहीं है । आचार्य अकलंकदेवके वादों में ब्राह्म सामग्री ती उपकरणमात्र है। यदि एक समय में अनेक उगदानशक्तियाँ आगममें स्वीकार की गई होती और जिसके अनुरूप परका सहयोग मिलता उसका विकास आगम स्वीकार करता तो भले ही पर के महयोगके अभाव में उपादान शक्तियां लप्त पड़ी रहती और वे परके सद्योगको प्रतीक्षा करती रहतीं, किन्तु आगमम तो जितना कार्य होता है मात्र उतना ही निश्चय उपाधानकारण स्वीकार किया गया है, अतएव उपादान शक्तियोंके न तो लुप्त पड़े रहनेका प्रश्न उपस्थित होता है और न ही उनके परको प्रतीक्षा करते रहने का ही प्रश्न उपस्थित होता है। कोई मिट्टी यदि घड़ा नहीं बनती तो उसके घड़ारूप परिणमनेका स्वकाल नहीं आया, इसलिए वह घड़ा नहीं बनतो, परके कारण नहीं, क्योंकि घटोत्पत्ति पर तो निमित्तमात्र है। मिट्रीको लानेवाला कुम्भकार कौन? उसकी क्रियायती शक्तिका विपाक काल आने पर हो उसका स्थानान्तरण होता है, उसमे गर तो उपकरणमात्र है। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें क्रिवाती शक्ति भी है, वैसा कमोदय भी है, फिर भी उनका सातये नरक तक गमन नहीं होता। क्यों ? क्योंकि उनके क्रियाबती शक्तिका वैमा विषाक त्रिकालम नहीं है। जिसे अपर पक्ष पुरुषार्थ कहता है वह प्रकृतमें प्राणीकी इहचेष्टाको छोड़कर और ज्या वस्तु है इसका वह स्वयं विचार करे। सो क्या उसके सब कार्य इहचेष्टा पर निर्भर है ? यदि नहीं तो वह अन्य द्रव्यके कार्यमे हस्तक्षेपके विकल्पमें ही कार्य-कारणभावकी प्रतिष्ठाका स्वप्न क्यों देखता है ? किसीके भी बलका प्रयोग अपने में होता है, परमें नहीं। यह तो हमागे आपको और हमारे-आपके समान दूसरे जनोंकी समझ भर है कि हम सब किसी भी वस्तुका योग मिलने पर इसमें सम्भव भ्यशक्तियोंको लक्ष्यमे रख कर उसे विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान मान लेते हैं । पर क्या. हमारे माननेमात्रसे वह विवक्षित कार्यका निश्चय उपादान हो जाता है। यदि ऐसा होने लगे तो किमीको भी निराश न होना पड़े। यह सुनिश्चित सत्य है कि जब निश्चय उपारान अपने कार्य के सन्मुख होता है तो कार्य होता ही है। प्रत्येक द्रव्यका प्रत्येक समय में इसी सिद्धान्तके आधार पर कार्य होता आ रहा है, हो रहा है और होता रहेगा। जन्न अनिवृतिकरणके अन्तिम समयमें मिथ्यादृष्टि जीव पहुँचता है तो वह नियममे अगले समयमै सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करता है । वही जीव यदि सम्यक्त्व और संयमके अनुरूप अधःकरणादि परिणाम कर अनिवृत्तिकरणके अन्त में पहुँचता है तो नियमसे अगले समय में सम्यक्त्व और अप्रमत्तभावको उत्पन्न करता है । यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है कि जब वह निश्चय उपाधानको भूमिकामे आता है तो अगले समय में अपने अनुरूप कार्यको नियममे उत्पन्न करता है । और क्रमानुपाती नियमके अनुसार अन्य वाला मामग्नी उसमें निमित्त होती है । ऐसो अनादि यस्तुव्यवस्था है। हमारे संकल्प-विकल्प हमारे अज्ञानका फल है । उसके रहते हुए संकल्प-विकल्प ही तो होंगे, अपर पक्ष सम्भवतः इसे भूल जाता है। यह राग-द्वेषरूप परिणतिका फल है जो अज्ञानकी भूमिका में नियमसे होती है, इसलिए सब ट्रब्यों में प्रत्येक समममें होनेवाले कार्योंकी कसोटी क्ष्यक्तिके. संकल्प-विकल्पको बनानेका प्रयत्न न करें इतना ही हमारा आपसे निवेदन है। प्रत्येक कार्य अन्तः बहिः सामग्रीके सद्भाव में होता है यह हम पहले ही लिख आये है, इसलिए 'समय आने पर विवक्षित कार्य स्वत: सम्पन्न हो जायगा' यह लिखना उचित नहीं है। प्रत्येक मनुष्य कार्य
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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