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________________ शंका ६ और उसका समाधान ४५१. विशेषरूपसे किया गया है। प्रत्येक व्यका प्रत्येक परिणमन कैसे क्रमानुपाती है इसका निर्देश करते हुए अष्टसहली ५० १०० में लिखा है आज सृजनागाद्धि पागभानस्तानका स्योपादानपरिणाम एव पूर्वोऽमन्तरात्मा । न च तस्मिन् पूर्वानादिपरिणामसन्ततौ कार्यसद्भावप्रसंगः, प्रागभावविनाशस्य कार्यरूपतोपगमात् । 'कार्योत्पादः क्षयो हेतो:' इति वक्ष्यमाणत्वात् । प्रागभाववत्प्रागभावादेस्तु पूर्व- पूर्वपरिणामस्य सन्तत्याना विवक्षितकाय रूपत्वाभावात् । न च तत्रास्येतरेतराभावः परिकल्प्यते येन तत्पशोपक्षिमदूषणावतारः स्यात् । नाप्येवं प्रागभावस्यानादित्व बिरोधः, प्रागभाव-तस्य सभावादेः प्रागभावसन्तानस्यानादिलोपगमात् । न चात्र सन्तानिभ्यस्तत्वान्यत्वपक्षयोः सन्तानो वृषणाई, पूर्व-पूर्व प्रागभावात्मकभावक्षणानामेवापरामृष्टभेदानां सन्तानश्वाभिप्रायान् । सन्तानिक्षणापेक्षया तु प्रागभावस्यानादित्वाभावेऽपि न दोषः, तथा ऋजुसूत्रनयस्येष्ट स्वाद । तथास्मिन् पक्षे पूर्व पर्यायाः सर्वेऽप्यनादिसन्ततयो घटस्य प्रागभाव इति वचनेऽपि न प्रागनन्तरपर्यायनिवृचाविव तत्पूपर्याय निवृत्तावपि घटस्योत्पत्तिप्रसंगः, येन तस्यानादित्वं पूर्वपर्यायनिवृत्तिसन्ततेरष्यनादित्वादापराते, घटात्पूर्वक्षणानामशेषाणामपि तयाग भावरूपाणामभावे घटोस्पत्यभ्युपगमात् । प्रागनन्तरक्षणानिवृत्तौ सदन्यतमक्षणानिवृताविव सकलतत्प्रागभावनिसृश्यसि घंटोप त्तिप्रसंगाभावात् । आदि । ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा तो प्रागभाव कार्यका पूर्व अनन्तर परिणामस्वरूप उपादान हो है। और उसके प्रागभाष होने पर उसमे पूर्व अनादि परिणाम सन्ततिमें कार्य के सद्भावका प्रसंग आता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि प्रागभावका विनाश कार्यरूपता है ऐसा स्वीकार किया है। 'कार्यका उत्पाद ही व्यय है, एक हेतुक होने से' ऐसा आगे कहेंगे भी। प्रागभाव, उसका प्रागभाव इस प्रकार पूर्व पूर्व परिणाम सन्ततिके अनादि होने से उसमें दिवशित कार्यरूपताका अभाव है । उसमें इतरेतराभावकी कलाना करना ठीक नहीं, जिससे कि उसके पक्ष में दिये गये दुषणका अवतार होवे । और इस प्रकार प्रागभावको अनादि होने का भी विरोध नहीं है, क्योंकि प्रागभाव, उराका प्रागभाव आदि इस प्रकार प्रागभाषकी सन्तानका अनादिपना स्वीकार किया है । और यहाँ पर सलानियोंसे सन्तान भिन्न है कि अभिल है इस प्रकार दो पदा उपस्थित होनेपर सन्तान दूषण के योग्य भी नहीं है, क्योंकि भेदोंको न स्पर्श करते हुए पूर्व-पूर्व प्रागभावस्वरूप भावक्षणोंमें ही सन्तानपनेका अभिप्राय है । सन्तानी क्षणको अपेक्षासे तो प्रागभावक अनाश्विने के अभाव में भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि जुसूत्रतयकी अपेक्षा सा इष्ट है। तथा इस पक्ष में अनादि सन्ततिरूप सभी पूर्व पर्याय घटका प्रागभाव है ऐसा वचन होनेपर भी जिस प्रकार प्राक् अनन्तर पर्यायकी निवृत्ति होने पर घटकी उत्पत्ति होती है उस प्रकार उससे पूर्व पर्यायोंकी निवृत्ति होनेपर भी घटकी उत्पत्तिका प्रसंग नहीं उपस्थित होता, जिससे कि पूर्व पर्यायी निवृत्तिरूप सन्ततिके अनादि होनेसे घटको भी मनादिता प्राप्त हो जाय, क्योंकि घटसे उसके प्रागभावरूप जितने भी पूर्व क्षण उन सभी अभाव होनेपर घटको उत्पत्ति स्वीकार की है, कारण कि जिस प्रकार उनमें से किसी एक क्षणकी निवृत्ति नहीं हुई तो उस (घट) के समस्त प्रागभावोंकी निवृत्ति सिद्ध नहीं होती उसी प्रकार प्राकू अनन्तर क्षणकी निवृत्ति नहीं होने पर बटकी उत्पत्तिका प्रसंग नहीं उपस्थित होता । यह पूरे कार्य कारणभाव पर प्रकाश डालनेवाला अष्टसहस्त्रोका वचन है । इस द्वारा यह स्पष्ट बतलाया गया है कि मिट्टी द्रव्पकी पर्यायसन्ततिमें घटकी उत्पतिका जो स्त्रकाल है उसी कालमें घटको उत्पति होती है, अन्य काल में नहीं | यदि कोई प्रजापति घटोत्पत्ति के अनुकूल क्रिया करते हुए रुक जाता है तो उसका वह रुकना अकस्मात् न समझ कर अपनी पर्याय सन्त सिमें क्रमानुपाती हो समझाना चाहिए। और उस समय से
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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