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________________ ४४ जयपुर (खानिया ) तत्त्वचर्चा प्रेमाण उपस्थित कर सके जिससे यह सिद्ध हो कि जिस कार्यका जो उपादान कारण है उसके उस कार्यके सन्मुख होनेपर भी बाह्य सामग्री के अभाव में वह कार्य नहीं हुआ तब तो यह माना जा सकता है कि उस उप दान में उस कार्य करनेकी योग्यता भी थी और वह उपादान अपने कार्यको करनेके लिए उद्यत भी था पर बाह्य सामग्री अभाव कार्य नहीं हुआ अपर पक्ष अपनी कल्पनाओंका चाहे जैसा ताना नाना बुनता रहे, उससे कार्य-कारणकी जो आयमिक परस्परा निर्दिष्ट की गई है उसपर ऑन आनेवाली नहीं । परपक्षनेतार्थर्तिक म० ५ सू०२ के कुछ प्रमाण दिये हैं जिनके द्वारा उत्पाद व्ययको सिखि स्व-परप्रत्यय की गई है। सो वे प्रमाण हमें ही क्या सबको मान्य होंगे। उनकी प्रमाणिकताका न तो हमने कहीं निषेध ही किया है और न निषेध किया हो जा सकता है, क्योंकि वहाँ निश्चय पक्ष के साथ व्यवहार पक्षका स्वीकार करनेकी विवाना उक्त प्रकारसे निर्देश किया गया है। जैसे अनुभव में जाता है, तर्क से भी सिद्ध होता है और आगम भी कहता है कि प्रत्येक कार्य बाह्य और आभ्यन्तर सामग्रीको समग्रता में होता है वैसे हो यह भी अनुभव में आता है, तर्कसे भी सिद्ध होता है और आगम तो कहता ही है कि प्रत्येक द्रव्य प्रत्येक समय में अपनी अपनी क्रिया स्वतन्त्ररूपमे करता है, अपनी अपनी क्रिया के करने में कोई किसीके आधीन नहीं । व्याकरण शास्त्र में 'स्वतन्त्रः कर्ता यह वचन भो इसी अभिप्रायसे लिखा गया है। जैनदर्शनका तो यह हार्द है ही । अभ्यथा मोक्षविधि नहीं बन सकती । इसी प्रकार यह भी अनुभव में आता है, तर्क से भी सिद्ध होता है और निगम कहता ही है कि एक द्रश्य दूसरे द्रव्यरूप न तो परिणमता है और न दूसरे द्रव्यको परिणमाता है । ऐसी अवस्था में अपर पक्ष हो यह निर्णय करें कि इन दोनोंमें किसे परमार्थभूत माना जाय दोनों मिलकर एककार्य करते हैं इसे या प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य स्वयं करता है इसे । अरिहन्त होने के पुत्रं बारहवें गुणस्थान में क्षीणकषाय जीवके शरीर में अवस्थित सब निगोदिया और श्रम याँका अभाव हो जाता है, इसके पहले नहीं। सो अपर पक्ष मतानुसार उन जीवांके अभावका प्रेरक निमित्त कर्ता श्रीणकषाय जीवको ही मानना पड़ेगा, क्योंकि जीवके क्षीणकषाय होनेपर हो उनका अभाव होता है, अन्यथा नहीं। ऐसा नियम भी है कि 'यदनन्तरं यज्ञवति तत्सहकारिकारणम्' इसीप्रकार साधुके ईपि पूर्वक गमन करते हुए उनके पगको निमित्तकर जीवबघ होनेपर भी वही आपत्ति प्राप्त होती है। इतना हो क्यों, अरिहन्तोंके अरिहन्त अवस्थाकी प्राविका सहकारी करण सात धातुओंसे रहित शरीर आदिको भी मानना पड़ेगा। जो जोब अन्तःकृतकेवली होते हैं सो उनके लिए भी यही कहा जायगा कि उपसर्गादिकके कारण वे केवली हुए हैं, क्योंकि अपर पलके मतानुसार उपादान तो अनेक योग्यतावाला क्षेत्र है। इनमें से कौन योग्यता कार्यरूपसे परिणत हो यह बाह्य सामग्री पर ही अवलम्बित है यही नियम सिद्ध होनेके लिए भी लागू होगा। यहाँ अपर पक्ष यह तो कह नहीं सकता कि कहीं पर उपादान एक योग्यतावाला होता है और कहीं पर अनेक योग्यत्तावाला होता है, क्योंकि नियम नियम है। वह कहीं के लिए एक हो और कहींके लिए दूसरा ऐसा नहीं हो सकता। मिट्टी से वट बनने के लिए या गेंहूँरो अंकुर उगने के लिए कार्य-कारणके जो नियम अपर पक्ष मानता है में ही नियम उसे सब कार्यों में स्वीकार करने होंगे। अपर पक्ष कुम्हारके व्यापारपूर्वक मिट्टी में घटको उत्पन्न हुआ देखकर यदि मिट्टोको घटका स्वयं कर्त्ता नहीं स्वीकार करना चाहता तो उसे गमन करते हुए साधुके गमनरूप व्यापारपूर्वक किसी जन्तुके भरणका कर्ता स्वयं उस जन्तुको नहीं मानना होगा, जैसे घटकी उत्पति कुम्भकारके व्यापारपूर्वक प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार जन्तुका मरण साधुके गमनरूप व्यापारपूर्वक दृष्टिगोचर हुआ है । अतएव जिस प्रकार षटका कर्त्ती कुम्भकार माना जाता है उसी प्रकार जीवबघको करनेवाला साधु ही माना जाना चाहिए, .
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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