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________________ शंका ६ और उसका समाधान क्योंकि दोनों जगह न्याय समान है। और यह कहा नहीं जा सकता कि साधुके पगसे जीवका बघ हो नहीं सकता। क्योंकि जो बात प्रत्यक्ष देखने में आतो हैनसका अपलाप करना सम्भव नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षको अप्रमाण नहीं माना जा सकता यन्न अपर पक्षका कथन है। यदि अपर पक्ष कहे कि साधुके चिप्समें जीवन का अभिप्राय न होने के कारण वह जोववघका करनेवाला नहीं माना जा सकता तो उसके इस कथनसे यहो निष्कर्ष निकालता है कि अभिप्रायमें करनेका विकल्प होनेके कारण ही कुम्हारको घरका कर्त्ता कहा गया है। वस्तुतः एक द्रव्य दुसरे का कई नहीं होगानोक ही है। आचार्य अमृतचन्द्रने समयसार गाथा १४४ की टोफामें लिखा भी है विकल्पकः परं कर्मा विकल्पः कर्म केवलम् । न जातु कर्तृकर्मस्वं सविकल्पस्य नश्यति ॥९५|| विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और विकल्प ही केवल कर्म है, (अन्य कोई कर्त्ता कम नहीं है । ) जो जीव विकल्पसहित है उसका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता। यह आगमवचन है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि संसारी जीवके पर द्रव्यमें कार्य करनेका विकल्प केवल रागके कारण होता है। वह उसका वास्तविक कर्ता नहीं हो सकता और यही कारण है कि आगममें सर्वत्र बाह्य मामग्री में कारण व्यवहारको उपचरित हो कहा गया है। और इसीलिए एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ निश्चयसे कर्तृ-कर्मभावका निषेध किया गया है। इसी तथ्यको सरल शब्दोंमें व्यक्त करते हुए आचार्य जयसेन समयसार गाथा ७६ की टीकामें लिखते हैं तत एलदायाति पुद्गलकर्म जानतो जीवस्य पुद्गलेन सह निश्चयेन कतकर्मभावो नास्तीति । इससे यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलकर्म को जाननेवाले जीवका पुद्गलके साथ निश्चयसे कर्त्ता-कर्मसम्बन्ध नहीं है। अतएव उन्हीं जयसेन आचार्यके समयसार गाथा ८२ को टीकामें आये हुए वचनोंके अनुसार यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्ररूपसे अपने कार्यका कर्ता है। बाह्य सामग्री तो उसमें निमित्तमात्र है। प्राचार्य श्रीका वह वचन इस प्रकार है । यथा यद्यपि समारो निमित्तं भवति तथापि निश्चयनयेन पारावार एवं कल्लोलान् करोति परिणमति च । यथा-वपि समोर निमित्त है तो भी निश्चानयरो समुद्र ही कल्लोलोंको करता है और कल्लोलरूप परिणमता है। आचार्य विद्यानन्दिने तत्त्वाश्लोकवातिक पृ० ५५ में 'मापि सहकारिकारणमुपादानसमयसमकालल्वाभावात् ।' यह वचन लिखकर यह प्रसिद्ध किया है कि प्रत्येक उपादानके काल में ही उसके परिणमनके राम्मख होनेपर उसकी सहकारी सामग्री होती है। इसलिए यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्यकी अपने नियत उपादानके साथ अप्रिाप्ति और मियत बाह्य सामग्रीके साथ बाह्य व्याप्ति होने के कारण जगतका प्रत्येक परिणमन क्रमान नुपाती ही होता है। तभी तो आचार्ग विद्यानन्दिका तत्त्वार्थश्लोकवातिक ५०७६ में प्रतिपादित यह वचन मुमुक्षु जनोंके हृदय में श्रद्धाका विषय बना हुआ है
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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