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अयपुर (खानिया) तत्वचर्चा प्रस्यासन्नमुक्तीनामेच मन्यानो दर्शनमोहमतिपक्षः सम्पद्यते नान्येषाम्, कदाचित्कारणासविधानात् ।
आसन्न भव्य जीवोंको ही दर्शनमोहका प्रतिपक्षाभल सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, अन्य जीवोंको नहीं, क्योंकि नियत कालको छोड़कर अन्य कालमें कारणोंका मिलना सम्भव नहीं है।
१०. परिणामाभिमुख्य पदका अर्थ इसी प्रसङ्ग में अपर पक्षने तस्वार्थवातिकका 'यथा मृदः स्वयमन्तधंदभवनपरिणामाभिमुख्ये' इत्यादि वचनमें आये हुए 'परिणामाभिमुख्प' पदका अर्थ करते हुए लिखा है कि
'मवि मिट्टीमें घटरूपसे परिणमन करनेकी योग्यता हो तो दण्ड, चक्र और कुम्भारका पुरुषार्य आदि एट निर्माणमें मिट्टी के वास्तविक रूपमें सहायकमात्र हो सकते हैं और यदि मिट्टी में घटरूपसे परिणमन होनेकी योग्यता विद्यमान न हो तो निश्चित है कि दण्ड, चक्र और कुम्भारका पुरुषार्थ आदि उस मिट्टीको घट नहीं बना सकते हैं अर्थात् उक्त दण्ड, चक्र आदि मिट्टोमें घट निर्माणको योग्यताको कदापि उत्पन्न नहीं कर सकते है। नादि,
आगे इसो विषयको स्पष्ट करते हुए अपर पक्षने लिखा है कि-राजवार्तिक के उक्त कथनमें पठित 'आमिमुख्य' शब्द सामान्य रूपसे पट निर्माणको योग्यताक्रे सद्भावका हो सूचक है । इसी तरह उसमें पठित 'निहस्सुकन्दादमी पाणपसे घट निर्माणको योग्यताके अभावका ही सुचक है। यही कारण है कि घटोत्पत्ति होनेको योग्यताके अभाव में कार्योत्पत्तिके अभाघकी सिद्धिके लिए राजवातिकके उक्त कथनमें 'शर्करादिप्रचिती मृपिण्डः' पद द्वारा बालुका मिश्रत मिट्टीका उदाहरण श्रीमदकलंकदेवने दिया है । यदि उनकी दृष्टि में यह बात होती कि उपादानकारणता तो केवल उत्तरक्षणवर्ती कार्यरूप पर्यायसे अव्यवलितपूर्व क्षणवर्ती पर्यायमें ही होती है और उससे कार्य भी नियमसे हो जाता है तो फिर उन्हें (श्रीमदकलंकदेवको) घट निर्माणको योग्यता रहित बालुकामिश्रित मिट्टीका उदाहरण न देकर कार्योत्पत्तिसे सान्तरपूर्ववर्ती द्वितीयादि क्षणोंकी पर्यायोंमें कशंचित रहनेवाली घटनिर्माणको योग्यतासम्पन्न मिट्रीका ही उदाहरण देना चाहिए था। लेकिन चूंकि श्रीमदकलंकदेवने बालुका मिश्रित मिट्टीका हो उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें कि घट निर्माणको योग्यताका सर्वथा ही अभावं पाया जाता है । सो इससे यही मानना होगा कि राजवातिक के उक्त कथन में जी 'आभिमुख्य' शब्द पड़ा है उसका अर्थ घट निर्माणकी सामान्य योग्यताका सद्भाव हो सही है। इसी प्रकार उसी कथनम पड़े हुए 'निरुत्सुकत्व' पाब्दका अर्थ घट निर्माणको सामान्य योग्यताका अभाव ही सही है।' आदि
ये अपर पक्ष द्वारा प्रस्तुत की गई प्रतिशंकाके दो अंश है। इनमें आर पक्षने परिणामाभिमुण्य' पदका अर्थ योग्यता किया है जबकि इस पदका अर्थ परिणाम अर्थात् पर्यायकी सन्मुखता होता है । इस परके पूर्व 'अन्तः घटभवन' पद भी आया हुआ है जिसका अर्थ 'भीतरसे घटके होने रूप' होता है। इससे रूपष्ट विदित होता है कि आचार्य भट्टालंकदेवने उपस पदका अर्थ भीतरसे घट पर्यायकी सन्मुखता किया है। पता नहीं कि अपर पक्षने 'परिणामाभिमुख्य' पदका अर्थ योग्यता कैसे किया है। इस सम्बन्ध अपर पक्षका कहना है कि यदि भट्टाकलंकदेवको 'परिणामाभिमुख्य' पदका अर्थ पर्यायकी सन्मुखता इष्ट होता तो वे तत्वार्यवातिकके उक्त स्थनमें शर्करादिप्रचिती मृस्पिष्ट उदाहरण उपस्थित न कर घटसे पर्ववर्ती सान्तरपयायोका निर्देश करते, किन्तु अपर पक्ष यहाँ इस बातको भल जाता है कि भट्टाकलंकदेवने यह उल्लेख हो बाप सामग्नोमें निमित्तमात्रताको सूचित करनेके लिए लिपिबद्ध किया है। घटको जो पूर्ववर्ती सान्तर