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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
कल्पनारोपित नहीं। लेकिन यह बात दूसरी हूं कि उपादान कारणकी वास्तविकताको उपादानरूपसे अर्थात् एकद्रव्यप्रगत्तिके रूपमें आश्रयरूपसे और निमित्तकारणकी वास्तविकताको निमित्तरूपसे अर्थात् पूर्वोक्त कालप्रत्यासत्तिविशेषके रूपमें सहायकरूपसे ही जानना चाहिये ।
इतना स्पष्टीकरण करनेके अनन्तर अब हम आपके दूसरे उत्तर पत्र पर विचार करना प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम यह बतला देना चाहते हैं कि आपने अपने द्वितीय उत्तर पत्र में प्रथम उत्तर पत्र के आधार पर कार्यकारणभाव के सिलसिले में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि जब उपादान कार्यरूप परिणत होता है तब उसके अनुकूल विवक्षित अन्य द्रव्यको पर्याय निमित होती है ।' और इसका आप यह आशय ले लेना चाहते हैं कि उपादानको कार्यरूप परिणति तो केवल उसके अपने ही बल पर हो जाया करती है । यहाँ परनिमितका रंचमात्र भी सहयोग अपेक्षित नहीं रहा करता है, लेकिन चूँकि निमित्त वहाँ पर हाजिर रहा करता है, अतः ऐसा बोल दिया जाता है कि उपादानकी कार्यरूप परिणतिमें अन्य द्रव्यको विवक्षित पर्याय निमिकारण होती है। आगे आपने अपने इस सिद्धान्तको पुष्टि के लिये तत्त्वार्थरलोकवातिकके ऊपर उद्धृत प्रमाण --- जिसे आपने प्रथम उत्तर पत्र में निर्दिष्ट किया था— का उल्लेख करते हुए अपने उक्त सिद्धान्तको पुष्टिमें उसे पुष्ट प्रमाण प्रतिपादित किया है, लेकिन जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं कि तस्वार्थरलोकवासिकके 'कथमपि तनिश्चययात्' इत्यादि ऋचनमें प्रकरण के अनुसार कौनसे नयार्थ विवक्षित है- इस पर आपका ध्यान नहीं पहुँच सकने के कारण हो आप उससे अपना मनचाहा ( उपादानको कार्यपरिणति मे निमित्तको अकिचित्कर बतलानेवाला) अभिप्राय पुष्ट करनेका असफल दावा कर रहे हैं । तत्त्वार्थश्लोकवातिकके उक्त कथन में कौनसे नमार्थ गृहीत किये गये हैं ? इसका जो स्पष्टोकरण हम ऊपर कर चुके हैं - हमारा आपसे अनुरोध है कि उस पर आप तत्वजिज्ञासु बनकर गहरी दृष्टि डालने का प्रयत्न कीजिये ? इस तरह हमें विश्वास है कि उक्त कथनसे आप न केवल अपनी गलत अभिप्रायपुष्टिका दावा छोड़ देंगे बल्कि कार्यकारणभाव के सिलसिले में निमित्तनैमित्तिकभावको अवास्तविक, उपचरित या कल्पनारोपित माननेके अपने सिद्धान्तको परिवर्तित करने के लिये भी सहर्ष तैयार हो जायेंगे |
आपने अपने प्रथम उत्तर पत्र में श्लोकवालिक के उक्त वचनसे अपना मनचाहा उक्त गलत अभिप्राय पुष्ट करनेमें एक बात और लिखो है कि 'यहाँ पर 'सहेतुत्वप्रतीतेः पदमें 'प्रतीते:' पद ध्यान देने योग्य है ।
मालूम पड़ता है कि आप प्रतोति शब्द के प्रयोगके आधार पर हो तस्वार्थोवातिके उक्त नसे यह rिse निकाल लेना चाहते हैं कि उत्पादादिक अपनी उत्पत्तिमं सहेतुक अर्थात् वाह्य साधनसापेच वास्तव में तो नहीं होते है अर्थात् वे उत्पादादिक होते तो अपने स्वभावसे हो हैं फिर भी व्यवहार से (उपचार) सहेतुक जैसे मालूम पड़ते हैं ।
इस विषय में हमारा कहना यह है कि अपना उपर्युक्त एक गलत अभिप्राय बना लेनेके अनन्तर उसको पृष्टिके लिये मह दूसरी गलती आप करने जा रहे हैं। कारण कि श्लोकवार्तिक के ही उल्लिखित अन्य प्रमाणों से जब आपका उक्त अभिप्राय गलत सिद्ध हो जाता है तो ऐसो हालत में 'सहेतुकत्वप्रतीतेः पदमें पठित 'प्रतीतेः' से आप अपने उक्त अभिप्रायकी पुष्टि कदापि नहीं कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि प्रतीति शब्दका प्रसिद्धार्थ 'ज्ञानकी निर्णयात्मक स्थिति' हो होता है, इसलिये उसका 'प्रतीत्याभास' अर्थ आपने कैसे कर लिया ? इसका स्पष्टोकरण आपको अवश्य करना था जो आपने नहीं किया है। तीसरी बात यह है कि तत्त्वार्थ लोकपातिकका जो 'क्रमभुषोः पर्यायः' इत्यादि उद्धरण हमने ऊपर दिया है उसके अन्त में