________________
-
शंका ६ और उसका समाधान इस तरह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के अ०५ सूत्र १६१० ४१० में निबद्ध उक्त कथनका जो अर्थ हमने पर किया है उसमें और आपके द्वारा किये गये उल्लिखित अयं में अन्तर माह दिखाई देने लगता है अर्थात जहाँ आपके द्वारा प्रमाणका अभाव रहते हुए भी व्यवहारका अर्थ उपचार करके निमित्तनैमित्तिकभावको कल्पनारोपित सिद्ध करनेकी चेष्टा की गयी है वहीं हमारे द्वारा व्यवहार का अर्थ प्रमाणसिद्ध निमिसनैमित्तिकभाव ही माना गया है, जिस ऐसी हालत में वास्तविक मानने के सिवाय कोई चारा ही नहीं रह जाता है, क्योंकि तब निमितनैमित्तिकभावको कल्पनारोपित सिद्ध करने के लिये व्यवहार शब्दफे अलावा कोई दूसरा शब्द ही उक्त कथन में नहीं मिलता है। इस प्रकार आचार्य विद्यामन्दीको दृष्टिमें निमित्तनैमित्तिकभाव वल्पनारोपित सिद्ध न होकर वास्तविक ही सिद्ध होता है। यही कारण है कि आचार्य विद्यानन्दीने निमित्तकारणकी वास्तविताको तत्त्वार्थश्लोकवातिक पृष्ठ १५१ पर ऊपर निर्दिष्ट कथनके आगे स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित कर दिया है । वे शब्द निम्न प्रकार हूँ ।
तदेवं व्यवहारनपसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्टः संबंधः संयोग-समवायादिवत् प्रसीतिसिद्धत्यात पारमार्थिक एव म पुनः कचनारोपितः, सर्वथाप्यनवयवात् ॥
__ अर्थ--इस प्रकार व्यवहाग्नयका आश्रय लेनेसे कार्यकारणभाव दो पदार्थों में विद्यमान कालप्रत्यासत्तिरूप हो होता है और वह मंयोग-समवाय आदिकी तरह प्रतीतिसिद्ध होनेसे पारमाषिक ही होता है, कल्पनारोपित नहीं, कारण कि यह सर्वथा निर्दोष है।
अब आपको ही विचार करना है कि जब आचार्य विद्यानन्दी स्वयं तदन व्यवहारनयसमाश्रयणे' इत्यादि वचन द्वारा दो पदायाम विद्यमान कालप्रत्याससिहप निमित्त नैमित्तिकभावको वास्तविक स्वीकर कर रहे हैं तो इसको ध्यान में रखकर ही उनके पूर्वोक्त दूसरे व वन 'कथमपि तनिश्चयनयात्' इत्यादिका अर्थ करना होगा। ऐसी हालत में उक्त निमित्तनैमित्तिकभावको कल्पनारोपित बतलानेवाला आपके द्वारा किया गया अर्थ संगत न होकर उसे बास्तविक कहनेवाला हमारे द्वारा किया गया अर्थ ही संगत होगा।
__आचार्य विद्यानन्दोने पृष्ठ १५१ पर ही तत्वार्थश्लोकवार्तिकमें आगे १४, १५ और १६ संख्याक वार्तिकोंका व्याख्यान करते हुए निम्नलिखित कथन किया है :
ततः सकलकर्मविप्रमोक्षो मुकिरीकर्तया। सा बन्धपूविकेति तात्त्विको बन्धोऽभ्युपगन्तव्यः, स्तयोः संसाधनस्वात् अन्यथा कादाचित्कस्वायोगात् । साधनं तास्विफमम्युपगंतव्यं न चुनरविद्याविलासमात्रमिति ।
अर्थ-इसलिये रांग प कर्मोंके बिनाशको ही मुक्ति मानना चाहिये । वह मुक्ति चूँकि बन्धपूर्वक ही सिद्ध होती है, अत: बन्धको भी तात्त्विका मानना चाहिये, क्योंकि मुक्ति और बन्ध दोनोंको ही साधनोंसे निष्पन्न हुआ स्वीकार किया गया है और क्योंकि मुक्षि तथा बन्ध दोनोंका साधनोंसे निदान होना न माननेपर उनमें अनादिनिधनताका प्रसंग उपस्थित हो जायगा, अतः साधनोंको भी तात्त्विक ही मानना चाहिये, केवल विद्याका विलासमात्र अर्थात् कल्पनारोपितमात्र नहों समहाना चाहिये ।
इस कथन के द्वारा आचार्य विद्यानन्दोने बन्ध, मुश्रित और इन दोनोंके बाह्य-साधनोंकी वास्तविकताका हो प्रतिपादन किया है। इनके अतिरिक्त हमने अपनी प्रथम प्रतिशंकामें अन्य बह तसे आगमप्रमाणों एवं युक्तियों द्वारा निमित्तकारणको वास्तविकताका समर्थन तमा कल्पनारोपितलाका स्थान विस्तारस किया है जिससे यह सिद्ध होता है कि निमित्त कारण भो उपादान कारणकी तरह वास्तविक ही होता है,