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जयपुर ( सानिया ) तत्त्वचर्चा होने में सहायक होती है अर्थात् निमिन्न कारण होती है उसमें कार्यके प्रति द्रव्यप्रत्यामत्तिका कारणताका तो अभाव ही पाया जाता है, क्योंकि वहां पर कार्यरूप धर्म तो अन्य वस्तुमें रहा करता है और कारण धर्म अन्य वस्तु में ही रहा करता है। तब ऐसी स्थिति में उन कार्यभूत और कारणभूत योनी वस्तुओंमें कालप्रत्यारात्तिके आधार पर ही कार्यकारणभाव स्वीकार किया जा सकता है. ट्रन्याप्रत्यासत्तिके रूपमें नहीं । अर्थात् 'जिसके अनन्तर जो अवश्य ही उत्पन्न होता है और जिसके अभाव में जो अवश्य ही उलन्न नहीं होता है। ऐसा कालप्रत्यासत्तिरूप कारणताका लक्षण ही वहाँ घटित होता है। तात्पर्य यह है कि द्रध्य प्रत्यासत्तिरूप कारणसा अपादानभूत वस्तुमें हो पायी जाती है, अतः वहाँ पर कार्यके साथ कार्यकारणशव उपादानोगादेगभावके रूप में पाया जाता है और कालप्रत्यासत्तिहप कारणता निमित्तभूत वस्तुमे रहा करतो है, अतः वहाँ पर कार्यके साथ कार्यकारणभाव निमित्तनैमित्तिमभावक रूपमें ही पाया जाता है । इन दोनों प्रकारको कारणताओं अयवा दोनों प्रकारके कार्यकारणभावोंक। कथन जैसा कि हम पर कह भाये है-आचार्य विद्यान्दीने वत्त्वार्थश्लोकवात्तिकमें निम्न वचनों द्वारा किया है :
क्रमभुवोः पर्यायग्रोरेकद्रव्य प्रत्यासत्तेपासनोपादयत्ववचनात । न चैविधः कार्यकारणभावः सिद्धांतविरुद्धः । सहकारिकारणेन कार्यस्य कयं तत् स्यातू, कद्वयनस्यासत्तरभात्रादिति चेत्, कालान्यासत्तिविशेषातसिद्धिः । यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कायमित्ति प्रतीतम् ।
-तत्त्वावश्लोकवार्तिक पृष्ठ १५१
अर्थ-'क्रमसे उत्पन्न होनेवाली पर्यायोंमें एक द्रश्यप्रत्यासत्तिहा उपादानोपादेयभावका बथन किया गया है और इस प्रकारका रपादानोपादेयभावरूप यह कार्यकारणभाव सिद्धान्तविरुद्ध नहीं है। परन्तु यह कार्यकारणभान सहकारीकारणके साथ किस प्रकार हो सकता है? क्योक यहां पर एकाद्रव्यप्रत्यासत्तिका अभाव हो पाया जाता है, यदि यह प्रश्न किया जाय तो कहना चाहिये कि राहकारीकारणके साथ एक द्रव्यप्रत्यासत्तिरूप कारणता नहीं स्त्रोकार की गयी है, किन्तु, कालप्रत्यासत्तिविशेषरूप धारणता हो वहाँ पर स्वीकार की गयी है जिसका आशय यह है कि जिसके अनम्नर जो अवश्य ही होता है वह उसका कारण होता है और उससे अन्य कार्य होता है'---क्योंकि ऐसा ही प्रतीत होता है।
___ इस प्रकार कार्य में चूंकि निमित्तभूत वस्तुके गुण-धर्मोका समावेश कभी न होकर उपादानभूत वस्तुके गुण-धर्मोंका ही नियमसे समावेश होता है, अत: उत्पादादिक निश्चयनयसे अर्थात् उपादानोपादेयभावकी अपेक्षा विमा है-ऐसा कहना उपयुक्त ही है।
इसी प्रकार व्यवहारमयसे ही उत्पादादिक राहतुक प्रतीत होते हैं इसका आशय भी उक्त कथन के अनुसार निर्मितभूत वस्तुके गुण-धर्मोंका कार्यमें समावेश असंभव रहते हुए भी कार्गको उत्पत्ति निमित्त के अभावमें नहीं हो सकनेके कारण यही होता है कि निमित्तमित्तिक भाषको अपेक्षा उत्पादादिक सहेतुक अर्थात् निमित्तकारण की सहायतासे ही हुआ करते है। आमममें कार्यकारणभावको लेकर जितना बचन व्यवहार पाया जाता है अथवा लोकमें जितना वचनव्यवहार किया जाता है वह सब उपर्युक्त विवेचन अनुसार ही किया गया है या किया जाता है। जैसे शिष्य पड़ता है अथवा मिट्री घटरूप परिणत होती है इन प्रयोगोंमें एकद्रव्यप्रत्यासत्तिरूप उपादानोकादेयभावपर लक्ष्य रखा गया है या रखा जाता है तथा अध्यापक पढ़ाता है अथवा कुम्हार मिट्टीको घटरूप परिणमाता है इन प्रयोगोंमें फालप्रत्यामत्तिका निमित्तनमित्तकभावपर लक्ष्य रखा गया है या रक्खा जाता है।