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________________ ४२० जयपुर (खानिया ) तत्वचर्चा यही कहता है । अपर पक्षने यहाँ पर जो टीका की है उससे भी यही सिद्ध होता है, अतएव तादृशी जायते' इत्यादि श्लोक द्वारा जिस मान्य सिद्धान्तको घोषणा की गई है और जिसे पण्डितप्रवर टोडरमलजीने अपने मोक्षमार्गप्रकाशकमें अपने शब्दों में स्वीकार किया है वही सिद्धान्त परमार्थ सत्यका उद्घाटन करनेवाला है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । इसी सिद्धान्तका समर्थन करते हुए पण्डितजी क्या लिखते हैं यह उन्हीं के शब्दों में पढ़िए __ सो इनकी सिद्धि होय तो कषाय उपशमनेते श्रुःख दूर होइ जाइ सुखी होइ । परन्तु इनकी सिद्धि इनके किये उपायनिके आधीन नाही, भवितव्यके आधीन है । जारी अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जात अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिए । -पृ० १ ० ३ । इससे पण्डितप्रवर टोडरमलजीके समग्र कयनका क्या भाशय है यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है। साय हो इससे अपर पक्षने प्रकृतमें जो टोका की है वह भी व्यर्थ सिद्ध हो जाती है। इतना ही क्यों, उस पक्षने अपने विवेचनके आधारसे जो निष्कर्ष फलित किया है वह भो पर्थ सिद्ध हो जाता है, क्योंकि अपर पक्ष समर्थ उपादान के अनुकूल बाह्य सामग्री नहीं मिलती इसकी पुष्टिमें अभी तक एक भी आगमप्रमाण उपस्थित करने में सर्वथा असमर्थ रहा। अपर पक्षने लिखा है कि पं.प्रवर टोडरमलजीके कथन में सामान्यतया चेतनरूप सभी तरह के काकी उपादान शक्तिको नहीं ग्रहण किया गया है, इसलिए ऐसो भवितव्यता जीवके पारिणामिक भावरूप भव्पत्व या अभव्यत्व हो सकते है अथवा कर्मके यथासम्भव उदय, उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षयसे प्राप्त कार्यसिद्धिके अनुकूल जीवकी योग्यता हो सकती है। और इस प्रकार अपना यह अभिप्राय पक्त किया है कि 'पं० फूलचन्दजी ५० प्रवर टोडरमलजीके कथनसे जो 'तारशी जाग्र बुद्धिः' इत्यादि पद्य का समर्थन कर लेना चाहते हैं वह ठीक नहीं है।' किन्तु ऐसी टीका करते हुए कमा अपर पक्ष यह बतला सकता है कि सनरूप पदार्थों के लिए कार्गपारणभावके नियम अन्य है और अचेतनरूप पदार्थोके लिए कार्यकारणभावके नियम अन्य है? अर्थात् नहीं बतला सकता, क्योंकि समर्थ उपादानका सभी शास्त्रकारोंने जो लक्षण किया है वह जीव-जीव सबकी दृष्टिमें ही किया गया है और इसी प्रकार बाह्य सामग्रोको अपेक्षा जो व्यवहार हेतु ऑके बैनसिक और प्रायोगिक ये दो भेद पागममें बललाये हैं वे जीव-अजीव सभीके कार्यों की दृष्टिसे ही किये गये हैं। इसके लिए अपर पक्ष इलोकवार्तिक अ० ५ सू० २२ पर दृष्टिपात करनेकी कृपा करे । इससे स्पष्ट है कि पं० प्रवर टोडरमल जीने जिस भवितव्यताका निर्देश किया है वह सब द्रव्योंके सब कार्यों पर लाग होता है और उस आचारसे हमने 'ताहशी आयत बुद्धिः' इत्यादि श्लोकका जो अर्थ किया है और उस परसे जो निकर्ष फलित किया है वह भी यथार्थ है। भवितव्यता जिस कार्यकी हो उसीको जन्म देती है और उसके साथ, व्यवहार हेतुरूप जो सामनी होती है वह भी, नियमसे मिलती है। अपर पक्षने लिखा है-'मान लीजिए -किसी व्यक्तिमै धनी बनने की योग्यता है, लेकिन केवल योग्यताका सद्भाव होनमानसे तो वह व्यक्ति धनी नहीं बन जामगा।' आदि। इसका समाधान यह है कि जिस व्यक्ति में जितने कालमें धनी बनने की योग्यता होगी वह उतने कालमें नियमसे धनी बन जायगा। उस कालके मध्य अन्त तक उसे बैसो साधन सामग्री भी मिलेगी और उसका तदनुकल व्यापार भी होगा। जैसे जो तद्भवमोक्षगामी जीव होता है वह मनुष्य पर्यायको समाप्त कर निममसे मुक्त होता है। तथा जन्मसे
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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