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शंका है और उसका समाधान
पुन: प्रश्न होता है कि अन्य जितनी साधन सामग्री है वह भी प्रत्येक प्रत्येक समय में अनेक योग्यतावाली है, इसलिए उनमें से कौन योग्यता काम सहकारी वने इसे भी तो किसी दूसरी साधनसामग्रीपर अवलम्बित मामना चाहिए? इसपर अपर पक्ष कहेगा कि अन्य साधनसामग्री में तो प्रतिनियत पर्याययोपलासे युक्त द्रव्य हो कारण होता है । तो इसपर आगमके अनुसार हमारा कहना है कि जैसे पाप प्रतिनियत पर्याययोग्यतासे युक्त द्रव्यको अन्य सामग्रोके रूपमें कारण गानते हो यैसे हो प्रत्येक कार्य प्रतिनियत पर्यायशंग्यतासे युक्त असाधारण द्रव्यको कारण मानो। इस प्रकार इतने विवेचतसे स्पष्ट है कि उक्न इलोको जो भवितव्यताके अनुसार अभ्य साधन सामग्रीका मिलना लिखा है वह यथार्थ ही लिखा है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि पण्डितप्रवर टोडरमल्लजीने मोक्षमार्गप्रकाशक ओ कुछ लिखा है उसका आशय वही है जो उक्त श्लोकका है । तया पं० फूलचन्द्रने भी जैनतत्वमीमांसाउसीका अनुसरण किया है। जनदर्शनका सार भी यही है। अपर पक्षने जनसंस्कृति किसे कहा यह तो हम जानते नहीं, वह जाने । परन्तु जिसे वह पा जैनसंस्कृति मानता है उसका अभिप्राय भी कोई दूसरा नहीं हो सकता, अन्यथा उसे जैनसंस्कृति कहना परिहासमात्र होगा।
अपर पक्षने पण्डितप्रवर टोडरमलजीके एक दुमरे उल्लेखको उपस्थित कर लिखा है कि 'उन्होंने भषितम्यता और पुरुषार्थका दुमरे ढंगसे अर्थ किया है। किन्तु यह बात नहीं है। जैसा कि अपर पक्षके इस कथनसे स्पष्ट हो जाता है-'वे तो अपने उक्त कथनसे इतनी हो बात कहना चाहते है कि कितने हो उपाय करते जाओ, यदि भवितव्य अनुकल नहीं है तो कार्यको सिद्ध नहीं हो सकता है।'
महाँ अपर पक्षने भवितव्यको कार्यकारी स्वीकार कर लिया इतकी हमें प्रसन्नता है। साथ ही उस पक्षको इतना और स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस भवितव्यताका प्रयोग दो अयोम होता है..-एक मात्र द्रध्ययोग्यताये अर्थ में और दूसरे द्रव्य-पर्याययोग्यताके अर्थमें । द्रव्ययोग्यताका नाम ही व्यवहार उपादान है और द्रव्य-पर्याययोग्यताका नाम ही समर्थ या निश्चय उपादान है। मिट्टी में पट बनने की योग्यता तो है, किन्तु उसी अवस्थाका परिण मते हए उसमें पर्याययोग्यता नहीं भाता, इसलिए जुलाहा मिट्ठोसे पट बननम व्यवहार हेतु नहीं हो पाता। बऔर यदि शी मिट्टी में प्रतिनियत उत्तर कालमें घटरूप होने की पर्याययोग्यता आनेवाली है तो वह अपने प्रतिनियत कालमें कुम्भकार आदिको निमित्त कर नियमसे घटहा स्वयं परिणम जायगी। पण्डितप्रवर टोडरमलजीके उक्त कथनका वही आशय है। पण्डितजीने वह कयन मोक्षमार्गकी दृष्टिसे लिखा है पर प्रतिनियत योग्यताको भुलाया नहीं है। इस परसे यहाँ पर अगर पक्षने जो भी टीका की है वह कैसे पर्थ है यह सुतरा ज्ञात हो जाता है। उस पलका जितना कुछ भी लिखना है वह मात्र व्यवहार योग्यताको लक्ष्यमें रख कर हो लिखना है अथवा अन्य कार्यके समर्थ जयादानको उससे विरुव अन्य कार्यका कल्पित कर लिखना है। ऐसी अवस्थाम कोई भी बतला कि उसके इस कथनको कार्य-कारणभावकी सम्यक विवेचना कैसे कहा जा सकता है। वह पक्ष उपादानको अपेक्षा लो व्यवहार उपादानको सामने रखता है या विधक्षित कार्यके विरुद्ध दूसरे कार्यके उपादानको सामने रखता है और फिर बाह्य सामग्रीके आधार पर इच्छानुसार विवेचना करना प्रारम्भ कर देता है। यही उसके विवेचनको शैली है जो अपरमार्थभूत होनेसे कार्य-कारणभावका सम्यक निर्णय करने में उसके लिए स्वयं बाधक सिद्ध होती है।
कि भवितव्यता परोक्ष होती है, इसलिए निर्णय करने में गलती होती है और इसलिए व्यक्तिका प्रयत्म विवक्षित कार्यकी सिद्धि में व्यवहार हेतु नहीं बन पाता। इसके विरुद्ध भवतिव्यताके अनुसार जिस समय जो कार्य होना होता है उसमें उसका प्रयत्न व्यवहार हेतु बन जाता है। प्रत्मक व्यक्तिका अनुभव