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________________ शंका १६ और उसका समाधान स्वभाव एव आवरणादिर्दोषोऽभ्यूह्यते, सखेतुः पुनराबरणकर्म जीवस्य पूर्वस्वपरिणामश्च । स्वपरिणामहेतुक एवाज्ञानादिरित्ययुक्तम् । अष्टसहनी पृष्ट ५१ दोष और आवरण इन दोनोंमें अज्ञानादि तो दोष है व स्त्रपर ( जीव और फर्म ) परिणाम होता है । दोषका नाम ही आवरण नहीं है, वह अज्ञानादि दोष पौद्गलिक ज्ञानाबरण कर्मसे भिन्न है और इस अज्ञानभावका कारण पोद्गलिक ज्ञानावरण कर्म है तया जीत्रकी पूर्व पर्याय भी है। इसलिए जोवका अज्ञान भाव स्वपरहेतुक है। इस अष्टसहस्रोके प्रमाणसे आपको इस बातका खंडन हो जाता है कि अज्ञानता स्वयं प्रात्माकी योग्यतासे होती है। इसी बातको पुष्टिमें आचार्य अकलंकदेव 'ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने' इस तत्वार्यसूत्रको वृत्तिम लिखते हैं कि स्थादेतत् ज्ञानावरणे सति अज्ञानमनबोधो भवति । न प्रज्ञा, ज्ञानस्वभावस्वादात्मनः इति, सन्न, किं कारणम्-अन्यज्ञानावरणसद्भावे तद्भावात्ततो ज्ञानावरण एच इति निश्चयः कत्तव्यः ।। -तत्त्वार्थवार्तिक श्र. १ सू. १३ प्रज्ञा और अज्ञान दो परिवह ज्ञानावरणके उदयसे ही होती हैं। आपका यह कहना कि अनादि अज्ञानता जोवकी स्वयं होती है, वह कर्मकृत नहीं है, इस बातका उपर्युक्त प्रमाणोंसे पूरा खंडन हो जाता है। व्यवहार धर्म मोक्षमार्ग और मोक्षप्राप्तिमें पूर्ण साधक है और वह स्वयं मोक्षमार्गस्वरूप है । इसके प्रमाणमैं आचार्य वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि--- श्ररहंतणमोकारं भावेण य भी करेदि पयमदी । सो सम्बदुक्खमोक्खं पावह अचिरेण कालेण । -श्री धवल पुस्तक १ पृष्ठ ९ तथा कचं जिणगिदसणं पदम-सम्मत्तपत्तीए कारणं! जिणविंददसणेण णिवत्त-णिकाचिदस्त चि मिच्छतादिकम्मकलावस्त खयदसणादो। जो विकेकी जीय भान-पर्वक अरहंतको नमस्कार करता। बह अति शीघ्र समस्त दूखोंस मक्त हो जाता है। तथा जिनबिंदके दर्शनसे नित्ति और निकाचितरूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलापका क्षय देखा जाता है। तया जिनबिचका दर्शन प्रथम सम्पत्वको उत्पत्तिका कारण होता है। -श्री धवत पु० ६०४२७ प्रवचनसारको टोका में आचार्य जयसेन स्वामो लिखते हैं कि तं देवदेवदेवं जदिवस्वसह गुरुं तिलोयस्स ।। पणमति जे मणुस्सा ते सीवर्स अक्खयं जंति ॥ -प्रवचनसार गाथा ७९ की टीका उन देवाधिदेव जिनेन्द्रको, गगधर देव को और साधुओंको जो मनुष्य वन्दना नमस्कार करता है वह अक्षय मोक्षसको प्राप्त करता है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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