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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
दूसरे ज्ञान में सर्व पदार्थ ज्ञात होते हैं, इसलिए सकल शेयोंको लगत कहना एक यह व्यवहार है। व्यवहार पति होता है, इसलिए जबतक पराभिपना नहीं दिलाया जायगा तबतक कोई भी कथन व्यवहार कथन नहीं बनेगा। स्पष्ट है कि सर्वज्ञता केवलज्ञानीका स्वरूप है वह पराश्रित नहीं वसंता, अतएव वह आत्मज्ञता रूप हो है, क्योंकि केवलीका प्रत्येक समय में जो ज्ञानपरिणाम होता है वह अपने में अपने द्वारा ही होता हूँ । परन्तु जब उसे अन्य ज्ञेय सापेक्ष कहा जाता है तब उनका होता है जिन उपहारनयसे सबको जानते आशय -- केवलो देखते हैं।
इस पूरी प्रतिशंकाको पढ़ने से हम तो केवल यह आशय समझे हैं कि जैसे बने वैसे व्यवहारनयको परमार्थरूप सिद्ध किया जाय। तभी तो अपने क्षायिक ज्ञान और सर्वज्ञ नामके दो धर्म स्वीकार किये और सर्वज्ञ धर्मका अस्तित्व परसा बतलाकर सर्वज्ञताको व्यवहारयका विषय बतलाया। ये दो धर्म क्षायिक ज्ञान में हैं और उनमें से सर्वज्ञ नामका धर्म व्यवहारयते है इसे सिद्ध करने के लिए उन्हें आगमप्रमाण देनेकी भी आवश्यकता नहीं शाल हुई यदि कोई पूछे कि अगर ने ऐसा क्यों किया तो उसका उत्तर है कि जैसे बने वैसे व्यवहारलयको परमार्थ सिद्ध किया जाय। किन्तु व्यवहारका कोई विषय हो नहीं है, वह केवल कल्पनामात्र है ऐसा तो हमारी ओरसे कहा हो नहीं गया और न ऐसा है ही ऐसी अवस्थामै उसकी पुष्टिमें पुनः पुनः 'ण च ववहारणओ चप्पलओ' आदि प्रमाणोंको देनेकी अपर पक्षको आवश्यकता ही क्यों इसका निर्णय वह स्वयं करें
इस प्रकार प्रकृतमें यही समझना चाहिए कि प्रत्येक आत्मामें जो सर्वज्ञत्व नामकी शक्ति है उसकी अपेक्षा केवलीने सर्वज्ञता स्वाधित है और स्वाश्रितपने की अपेक्षा इसीको आत्मा कहते है। इसलिए केवली विनययात्भ है वह सिद्ध होता है और जब इसीका परसापेक्ष कथन किया जाता है तब 'परा श्रितो व्यवहार' इस नियम के अनुसार यह सिद्ध होता है कि केवली जिन व्यवहारनयसे सबको जानते देखते हैं ।