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प्रथम दौर
१:
शंका ८ दिव्यध्वनिका केवलज्ञान अथवा केवलीआत्मासे कोई सम्बन्ध है या नहीं । यदि है तो कौन सम्बन्ध है ? वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? दिव्यध्वनि प्रामाणिक है या अप्रामाणिक ? यदि प्रामाणिक है तो उसकी प्रामाणिकता स्वाश्रित है या केवली भगवानकी आत्माके सम्बन्धसे ?
समाधान उत्तर--दिव्यध्वनिके रखरूपका निर्णय करते समय सर्व प्रथम विचारणोप यह है कि उसकी उत्पत्ति कैसे होती है। इसका स्पष्ट निर्देश करते हुए प्रवचनसारमें कहा है
ग्राणपिसे जविहारा धम्मुवदेसी य णियदयो तसि ।
अरहतार्ण काले मायाचारो व इस्थीर्ण ॥४४॥ अर्थ-उन अरिहन्त भगवन्तोंके उस समय खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मोपदेश स्त्रियोंके मायाचारके समान स्वाभाविक ही होता है ॥४४॥
इसको टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
यथा हि महिलानां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासभावात् स्वभावत एवं मायोपगुण्ठनादगुण्ठितो व्यवहाराप्रवसते तधा हि केवलिन प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यतासभावाम् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना च स्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते । अपि चाविरुद्ध मतदम्भाधरदृष्टान्तात् । अथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानो पुद्गलानां गमनमवस्थानं मर्जनमग्नुवर्ष च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते तथा केवलिनां स्थानादयोऽबुद्धिपूर्विका एव रश्यन्ते, अतोऽमी स्थानादयो मोहोदयपूर्वकन्वाभावात् क्रियाविशेषा अपि केवलिना क्रियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति ॥४४॥
अर्थ-जैसे स्त्रियोंके प्रयत्न के बिना भी उस प्रकारको योग्यताका सद्भाव होनेसे स्वभावभूत हो मायाके ढक्कनसे ढका हुआ व्यवहार प्रवर्तता है उसी प्रकार केवलो भगवानके बिना हो प्रयत्न के उस प्रकारको योग्यताका मुद्भाव होनेसे खड़े रहना, बैठना, बिहार और धर्मदेशना स्वभावभूत ही प्रवर्तते हैं और यह बादलके दृशन्तसे अविरुद्ध है। जैसे बादलको आकाररूपसे परिणत हुए पुद्गलोका गमन स्थिरता गर्जन और जलवृष्टि पुरुष प्रयत्नके बिना भी देखी जाती है उसी प्रकार केवलो भववानका खड़े रहना आदि अबुद्धिपूर्वक ही देखा जाता है। इसलिये यह स्थानादिक मोहोदयपूर्वक न होने से क्रियाविशेष होने पर भी केवलो भगवानके क्रियाफलभुत बन्धके साधन नहीं होते ||४||
तात्पर्य यह है कि केवलो जिनके मोहका अभाव होने के कारण इच्छाका अभाव है और इन्छाका अभाव होनेसे बुद्धिपूर्वक प्रयत्नका भी अभाव है। फिर भी चार अघाति कर्मोके उदयका सद्भाव होनेसे उनके स्थान,