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जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा
णामेसु ओहिणाणावर गव खओवसमणिभिताणं परिणामाणमथोवशादो । ण च ते सच्चे संभवंति तथ्य डिक्खपरिणामाण बहुरोण दुवलदीए श्रोदशाहो ।
शंका --- यदि सम्यक्त्व, अणुव्रत और महाव्रतके निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सब असंयतधम्मस्पृष्टि, संपात और संयविज्ञान क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व, संयमासंयम और संयमरूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण है । उनमें से अअविज्ञानावरण क्षयोपशमके निमित्तभूत परिणाम अतिस्तोक हैं, सबके सम्भव नहीं हैं, क्योंकि उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत हैं, इसलिए उनकी उपलब्धि बहुत थोड़ी होती हैं ।
ये दो समाधान है। एकका उल्लेख अपर पक्षने किया है और दूसरा यह है । इससे स्पष्ट है कि आचार्य एक ही प्रश्नका समाधान विविध प्रकारसे करते हैं, जिनसे प्रत्येक कार्यकी प्रतिनियत बाह्याभ्यन्तर सामग्रीको सूचना मिलती है। अतएव यह व्याप्ति बन जाती है कि प्रत्येक कार्यकी आभ्यन्तर सामग्री के अनुरूप ही बाह्य सामग्री होती है। इसमें व्यत्यय नहीं होता | मात्र बाह्य सामग्री पर द्रव्यका परिणाम होने से वह कार्य की यथार्थ जनक नहीं है । इसी अर्थ में उसे कार्य के प्रति अकिंचित्कर कहा जाता है जो युक्तियुक्त हैं। पर वह निश्चयकी सिद्धिका हेतु है, इसलिए व्यवहारनयकी अपेक्षा उसके माध्यम से वस्तुकी सिद्धि करने में आपत्ति नहीं । पर ऐसे कयनको उपचरित कथन ही समझना चाहिए ।
हमने प्रश्न ६ के उसरमें लिखा था कि 'व्यवहारके विषयको निश्चय मान कर उत्तर दिये गये है। हमें प्रसन्नता है कि अपर पक्षने हमारे उक्त कथनको 'यदि निश्चयसे अभिप्राय वास्ता है तो हमको इष्ट है । इन शब्दों में स्वीकार कर लिया है। किन्तु उस पछने इसी प्रसंग में जो यह लिखा है कि 'यदि अभिप्राय निश्चयनयसे है तो आपने निश्वयनयके स्वरूपपर दृष्टि नहीं दी ।' आदि। समाधान यह है कि हमारी निश्चयनय के स्वरूप पर बराबर दृष्टि है। स्वाधित अभेदरूप जितना भी कथन है वह निश्चयनका विषय है । जब आत्मोपलब्धि के अभिप्रायसे यह जीव प्रवृत्त होता है तब उसकी दृष्टिमें बन्ध-मोक्ष आदिरूप भेदव्यवहार तथा उपचारित व्यवहार गोण ( उपेक्षित) होकर एक मात्र स्वाति ममेदरूप ज्ञायकस्त्रमात्र आत्माका अ लम्वन रहता है, क्योंकि इसके अवलम्बनसे तत्स्वरूप परिणमन द्वारा ही आत्मोपलब्धि होना सम्भव है । इसकी प्राप्तिका अन्य मार्ग नहीं है। किन्तु जब यह जीव संसारी बने रहने के कारणका विचार करता है तब भी भेदव्यवहार और उपचरित व्यवहार दृष्टिमें गौण होकर अज्ञानरूप परिणत आत्माको ही उसका प्रधान हेतु मानता है । स्वाति अभेदरूप कथन दोनों हैं, अन्तर इतना है कि मोक्षमार्ग में आलम्बनकी ''दरूप ज्ञायक आत्मा लिया गया है और संसार के प्रमुख कारणको दृष्टिमें 'स्व' पदसे अज्ञानमात्ररूप परिणत आत्मा लिया गया है। निश्चयका जो सामान्य लक्षण हूँ चढ़ सर्वत्र घटित होता । यही कारण है कि प्रथम नय शुद्ध निश्वयनय कहलाता है। इसका स्वरूप निर्देश करते हुए नवचक्रादि संग्रह पृ० ७१ में लिखा है
कम्माणं सज्जनगदं जीवं जो गहड़ सिद्धसंकासं I
भइ सो सुद्धणओ खलु कम्मो वाहिणिरवेक्खो ॥१९१॥
जीवको जो सिद्ध जीवोंके समान ग्रहण करता है वह नियमसे कर्मोपाधिनिरपेक्ष
कर्मोके मध्य स्थित शुद्ध नय कहलाता है ॥१६१॥