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जयपुर (खानिया ) तस्वचर्चा
न माना जाये और अनुपचरितका एकान्त पक्ष ग्रहण किया जाय तो परता ( सर्वशा) से विरोध कर जायगा इस ही को आलापपद्धति में इन शब्दों द्वारा कहा है
उपचरितैकान्तपक्षेऽपि नामता संभवति नियमितत्वात् । तथात्मनोऽजुर चरितपक्षेऽपि परज्ञतादीनां विरोधः स्यात् ।
अर्थ- उपचरित एकान्त में नियमित पच होनेसे मात्मा के आत्मता सम्भव नहीं होती है। उसी प्रकार अनुचरित एकान्त पक्ष भी आरमाके परज्ञा (महा) का विरोध हो जायगा ।
प्रवारगाथा ३२ की टोकामै जयसेापायने कहा है
भ्यवहारयेन पश्यति समन्ततः सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्जानाति व सर्व निरवशेषम् ।
अर्थ व्यवहारयसे वे भगवान् समस्वको सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भावोंके द्वारा देते तथा जानते है । इसी प्रकार गाथा ३८ की टीका में भी यही कहा है-परद्रव्यपर्वा तु व्यवहारेण परिच्छिसि ।
अर्थ-यवहारसे परम्य और पर्यायोंको जानते है।
जाणगभावी जागदि अध्याणं जाण णिच्छयणयेण । परद्रवं ववहारा महसुश्रीहिमणकेचा ||३३९॥ संग्रह ०११९ माणिकचन्द्रमंथमाला
अर्थ - शायक भावमति श्रुत अवधि मनपर्यय केवलज्ञान के साधारसे निश्चयनयकी अपेक्षा बारमाको जानता है और परद्रव्यको व्यवहारनयसे जानता है ।
उपर्युक्त आगम प्रमाणोंसे यह वि है कि केवल जिनमें वजा व्यवहारनयसे है निश्वयनयसे नहीं हैं| ज्ञानगुणकी अपेक्षा आत्मा शायक है । निश्चयनयसे आत्मा ज्ञानगुणके द्वारा स्वरूपको अर्थात् स्वको जानता है और व्यवहारयसे मारना उस हो ज्ञानगुण स्वभावके द्वारा परद्रव्यों अर्थात् सर्वं ज्ञेयोंको जानता है। स्वमें परका अत्यन्ताभाव है और परमें स्वका अत्यन्ताभाव है । 'स्व' पररूप नहीं परिणमता और 'पर' स्वरूप नहीं परिणमता ।
६ – इसका कथन ऊपर नं० ३ में किया जा चुका है।
१०- आपने लिखा है कि 'ज्ञानका ज्ञेयाकार परिणमन ज्ञेयोंके कारण हुआ है तब वह व्यवहार कह लाता है, क्योंकि ऐसे कथनमें वस्तुको स्वभावभूत योग्यताको गौणकर उसका पशचित कथन किया गया हूँ ।' सो आपका ऐसा कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि ज्ञान ज्ञेयाकाररूप परिणमन नहीं करता । जैसा कि नं० ७ के विचार में ऊपर कहा जा चुका है । ज्ञेयों जाननेको हां ज्ञानका ज्ञेयाकाररूप परिणमन कहा जाता है । रसगन्ध शोत उष्ण हलका भारी नरम कठोर आदि मूर्तिक गुण तथा धर्मादि अमूर्तियों गुणोंका कोई आकार न होने से उन ज्ञेयोंके आकाररूप ज्ञान नहीं परिणमत्ता किन्तु जानता है, क्योंकि जानना स्वभाव है। शान अपने स्वभावसे सर्व शेयोको जानता है इस कथन में स्वभाव गौण नहीं है तथापि ज्ञेय परद्रव्य है, अतः यह कथन व्यवहारनयकी अपेक्षा है। ज्ञान शेपको अपने स्वभावसे जानता अवश्य है, किन्तु आत्मा के प्रदेश या ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेद ज्ञेयोंके आकाररूप नहीं परिणमन करते। ऐसा ही श्री कुन्दकुन्द स्वामीने प्रवधनसारमें कहा है
पाणी जाणसहा वो आस्था नेमप्यमा हि णाणिस्स । स्वाणि वचक्खू वाणी बहंति ||२८