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________________ शंका ७ और उसका समाधान ५०९ अर्थ-आत्मा ज्ञानस्वभाव है और पदार्थ आत्माके ज्ञेयस्वरूप है, जैसे कि रूप नेवोंका ज्ञेय स्वरूप होता है, परन्तु वे एक दूसरे नहीं वर्तते । ___ इस प्रकार व्यवहारनयसे सर्वशता सिद्ध हो जानेपर वह सत्वार्य है, क्योंकि प्रत्येक नए अपने विषयका ज्ञान करानेमें सत्य है, असत्य नहीं है । कहा भी है च बवहारगओ चष्पलभी, ततो वबहाराणुसारिसिसाणं पउत्तिदसणादो। जो बहुजीवाणुग्गहकारी मनहारणक्षा सोचव समस्सिदहनी सिं अणणावहारिय गीदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं । --जयषचल पु० १ पृष्ठ अर्थ- यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है सो भी ठीक नहीं है, षयोंकि उससे व्यवहारका अनुसरणा करनेवाले शिष्योंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो म्यवहारमय बहुत जीवोंका अनुग्रह करनेवाला है उसीका आथय करना चाहिये ऐसा मनमें निश्चय करके गौलम स्थविरमे चौबीस अनुयोगद्वारोंके आदिम मंगल किया है। यहाँ सन्मतितर्ककी निम्नांकित गाथा दृष्टव्य है-- णिययषणिजसच्चा सम्वणया परविद्यालणे मोहा। ते उण दिद्रसमश्रो विभयह सघ अलिए बा ।।१२।। अर्थ-ये सभी नय अपने अपने विषयके कथन करनेमें समीचीन हैं और दूसरे नयोंके निराकरण करनेमें मूढ़ है । अनेकान्तके ज्ञाता पुरुष यह नय सच्चा है और यह गय झूठा है इस प्रकारका विभाग नहीं करते। सही गाथा जयधवला पुस्तक १ पृष्ठ २५७ पर निम्नांकित थाक्योंके साथ उद्धृत की गई है न चक्रान्तेन नया मिथ्याटय एव, परपक्षानिराकरिष्णूनां सपक्ष ( स्वपक्ष ) सरवावधारणे ग्यापूतानां स्यात्सम्यग्दृष्टिल्चदशनाम् । अर्थ-नय एकान्तसे मिथ्यादृष्टि हो है ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो नय परपक्षका निराकरण नहीं करते हुए ही अपने पसके अस्तित्वका निश्चय करने में व्यापार करते है उनमें कर्यचित् समीचीनता पायी जाती है। उक्त गापाका विशेषार्ध लिखते हुए श्री पं० फूलचन्द्रजीने लिखा है-- 'हर एक नयकी मर्यादा अपने अपने विषय के प्रतिपादन करनेतक सीमित है। इस मर्यादामें जबतक घे नय रहते हैं तबतक सच्चे है और इस मर्यादाको भंग करके जब वे नय अपने प्रतिपक्षी नयके कथनका निराकरण करने लगते हैं-तब वे मिथ्या हो जाते हैं। इसलिये हर एक नगकी मर्यादाको जाननेवाला और उनका समन्वय करनेवाला अनेकान्तज्ञ पुरुष दोनों नयोंके विषयको जानता हुआ एक नय सत्य ही है और दुसरा नय असत्य हो है ऐसा विभाग नहीं करता। किन्तु किसी एक नयका विषय जरा नयके प्रतिपक्षी दूसरे नयके विषयके साथ ही सच्चा है ऐसा निश्चय करता है। नोट-निश्चमनय और व्यवहारनयका स्वरूप समझने के लिये अन्य प्रश्नों पर भी दृष्टि डालिये।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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