SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१० जयपुर (वानिया ) तत्त्वचर्चा मंगलं भगवान् वीरो मंगल गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ शंका ७ मूल प्रश्न ७--केवली भगवानकी सर्वज्ञता निश्चयसे है या व्यवहारसे। यदि व्यवहारसे है तो वह सत्यार्थ है या असत्यार्थ ? प्रतिशंका ३ का समाधान | केबली जिन निश्चयसे आत्मज है और यहारसे सश, इसका कारण अयम द्वितीय उत्तरमें करते हुए पिछली प्रतिशंका में उठाये गये दो प्रश्नोंका राम्पर प्रकारसे विचार पिछले उत्तरमें कर आये है। तत्काल प्रस्तुत प्रतिशंकाके आधारसे विचार करना है। इसमें १० मुद्दे उपस्थिन कर वनके आधारसे प्रतिवांकाको स्वरूप प्रदान किया गया है। १. प्रथम मुद्दा उपस्थित करते हुए १६३ प्रश्नके उत्तरमें हमारे द्वारा दिये गये वक्तव्यका अंश बतला कर ये वचन उपस्थित किये गये हैं 'यह तो निर्विवाद सत्य है कि शायकभाव स्व-परप्रकाशक है । स्व-प्रकाशकको अपेक्षासे आत्मज्ञ और परप्रकाशकको अपेक्षा सर्वज्ञ है। ज्ञायक कहनेसे ही ज्ञेयोंकी हवनि आ जाती है। आत्माको शायक कहना सद्भूत व्यवहार है और पर शेयोंको अपेक्षा ज्ञायक कहना यह उपचरित सद्भुत व्यवहार है। अब हमारे उस कथनको पदिए जिसे बदलकर अपर पक्षने उक्त रूप प्रदान किमा है 'अब यह देखना है कि जो यहाँ आत्माको ज्ञायकरूप कहा है सो वह परको अपेक्षा ज्ञायक कहा है कि स्वरूपसे ज्ञायक है। यदि एकान्तसे यह माना जाता है कि वह परकी अपेक्षा ज्ञायक है तो ज्ञायकभाव आत्माका स्वरूप सिद्ध न होनेसे ज्ञायकस्वरूप आत्माका सर्वथा अभाव प्राप्त होता है। यह तो है कि शायकभाव स्व-परप्रकाशक होनेसे परको जानता अवश्य है । पर यह परकी अपेक्षा मात्र ज्ञायक न होनेसे स्वरूपसे जायक है। फिर भी उसे ज्ञायक कहने से उसमें शेयकी ध्वनि आ जाती है, इसलिए उसपर ज्ञेयको विवक्षा लाग पड़ जानेसे उसे उपचरित कहा है। इस प्रकार आत्माको ज्ञायक कहना यह सद्भुत व्यवहार है और उसे ज्ञेयकी अपेक्षा शायक ऐसा कहना यह उपचरित है। इस प्रकार जब ज्ञेयकी अपेक्षा ऐसा कहा जाता है कि आत्मा ज्ञायक है तब वह उपचरित सद्भूतब्यवहारनयका विषय होता है।' ___ इस प्रकार ये दो रूप (एक हमारे वक्तव्यका मूल रूप और दूसरा अपर पथद्वारा उसका अपनी प्रस्तुत प्रतिशंकामें परिवर्तन करके हमारा वक्तव्य बतलाकर उपस्थित किया गया रूप) सामने हैं। ___ अपर पकने हमारे मूल वक्तव्यको परिवर्तितकर पयों उपस्थित किया इसका कारण है। बात यह है कि उसे निश्चयनय और व्यवहारलय परस्पर सापेक्ष होते हैं यह बतलाना इष्ट है। किन्तु हमारे उक्त वक्तव्यसे उस पक्षके इस अभिप्रायकी पुष्टि नहीं होतो। और साथ ही वह पक्ष यह भी बतलाना चाहता है कि ऐसा हम (उत्तर पक्ष) भो मानते हैं। यही कारण है कि उस पक्षने हमारे उवत कथनको बदलकर उसे उक्त रूप प्रदान कर दिया। इससे उस पक्षके दो अभिप्राय सिद्ध हो गये-एक तो उस वक्तव्यद्वारा उसे
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy