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________________ शंका ७ और उसका समाधान ५११ जो कहना था वह वह दिया और दूसरे वह उस पक्षका कहना न कलाकर हमारा (उत्तर पक्ष) का कहना कहलाने लगा । हम उसके द्वारा किये गये ऐस प्रयास पर विशेष टीका-टिप्पणी तो नहीं करेंगे किन्तु उस पर द्वारा ऐसा गलत मार्ग अपनाया जाना ठीक नहीं इतना अवश्य कहेंगे | उम पक्षने अपने इस अभिप्रायको सिद्ध करनेके लिए 'सर्वज्ञ' शब्दको व्युत्पत्तिका भी सहारा लिया है। उसका कहना है कि सर्वज्ञ शब्द स्वयं परसापेचका योतक है परनिरपेक्षका द्योतक नहीं है। इसलिए श्री कुन्दकुन्द भन्ने नियमसारगाथा १५२ में कहा है कि व्यवहारयते केवल भगवान् सबको जानते और देखते हैं । निश्चयनयको अपेक्षा केवलज्ञानी नियमसे मात्मा को जानते और देखते हैं । निश्चयतयकी अपेक्षा केवलज्ञानी परको नहीं जानते गाथा में पड़े हुए नियम शब्दसे यह स्पष्ट कर दिया है।' किन्तु अपर पक्षका यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि सकल द्रव्यों और उनकी पर्यायका साक्षात् करना ( प्रत्यक्ष जागा ) यह केवलज्ञान या केवलज्ञानीका स्वरूप हैं । अष्टमहत्री पृ० १३२ में लिखा हैसकलप्रत्यक्षस्य सर्वद्रव्य-पर्याय साक्षात्करणं स्वरूपम् । सब द्रव्यों और उनकी सब पर्यायोंका साक्षात् करना यह सकल प्रत्यक्षका स्वरूप है। भगवान् कुन्दने 'आत्मा' शब्द द्वारा इसी स्वपन किया है, क्योंकि केवलज्ञानी (आत्मा) का प्रत्येक समय में इसी प्रकार जानने-देखने दूसरेको (प्रमेयोंको अपेक्षा किये बिना स्वयं परिणमन होता है। अतएव केवली जिन निश्चयनयसे आत्मा (स्व) को जाते देखते हैं यह हुआ यहाँपर 'अप्पा' पद स्व-प्रकाशक स्वरूपका सूचक है यतः केवलज्ञानी अपने रूपको जानता देखता है अतः स्व-परस्वरूप सकल प्रमेयोंको स्वयं जाना देखता है। यह नयनका तात्पर्य सिद्ध होता है। दोन लोक और त्रिकाल वर्ती जितने प्रमेय है उनको जानने-देखनेरून केवलज्ञान और केवलदर्शनका स्वयं परिणमन होता है यह उक्त कथनकाला है। यह निश्चयनका व्यवहारयके वक्तव्यपर विचार कीजिए इसे तो अपर पक्षको भी स्वीकार करना पड़ेगा कि प्रत्येक वस्तुका स्वरूप स्वतः सिद्ध होता है। यदि प्रत्येक वस्तुके स्वरूप की सिद्धि भी परवापेक्ष मानो जाय तो दोनों नहीं बनेंगे अर्थात् दोनोंका अभाव हो आयमा यतः दोनोंका अभाव मानना अपर पक्षको भी इष्ट नहीं होगा, अत: प्रत्येक वस्तुके स्वरूपको स्वतः सिद्ध मान लेना ही थेयस्कर है। इस प्रकार प्रमाण और प्रमेया स्वरूप स्वतःसिद्ध होनेपर भी उनका व्यवहार परस्पर सापेक्ष होता है, क्योंकि प्रमाणके निश्चयपूर्वक प्रमेयका विश्वय होता है और प्रमेयके निश्चयपूर्वक प्रमाणका निश्चय होता है, अतएव परलापेक्ष ऐसे व्यवहारको ध्यान में रखकर जब कथन किया जाता है तब यह कहा जाता है कि व्यवहारनयसे केवली जिन सबको जानते देखते हैं । आशय दोनों नयोंके कचनका आप एक ही है। यदि इनके कथनमें अन्तर है तो इतना हो कि नश्यनय स्वरूपकी अपेक्षा जिस बात को कहता है, व्यवहारनय परसापेक्ष होकर उसी बात को कहता है, इसलिए कथार्थ है, क्योंकि परनिरपेक्ष जो वस्तुका स्वरूप है वहीं उसके द्वारा कहा गया है। किन्तु व्यवहारयका कथन उपचरित है, क्योंकि परसापेक्ष वस्तुका स्वरूप तो नहीं है, लेकिन परसापेच रूपसे उसकी सिद्धि की गई है।
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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