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________________ जयपुर ( सानिया) तस्वचर्चा पुरुषके ताल आदि व्यापार द्वारा अर्थप्रतिपादकतारूप शब्दकार्यको उत्पत्ति होती हो यह कभी भी संभव नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । प्रत्येक शब्द स्वभावसे अपने प्रतिनियत अर्थका ही प्रतिपादन करता है ऐसा नियम है । इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अष्टमदायी प १३६ में लिखा है-- निष्पर्यायं भावाभावाभिधानं नाजसैव विषयीकरोति शब्दशक्तिस्थामान्यात् , सर्वस्य पदस्यकार्थविषयस्वप्रसिदः । सदिति पदस्यासविषयत्वात् असदिति पदस्य च सदविषयत्वात् , अन्यथा तदन्यतरप्रयोग संशयात् । गोरिति पदस्यापि दिशायनेकार्थविषयतया प्रसिद्धस्य तस्यतोऽनेकत्वात् सारश्योपचारादेव तस्यैकत्वेन व्यवहरणात. अन्यथा सर्वस्यकशन्दवाच्यतापत्तेः प्रत्येकमप्यनेकशब्दप्रयोगवैफल्यात । शब्द दाद ध्रवोऽर्थभेदस्तथार्थभेदादपि शब्दभेदः सिद्ध एष, अन्यथा वायवाचकनियमे व्यवहारविलोपाम् । __ यचम क्रमके बिना भाव और अभावको नियमसे विषय नहीं करता, क्योंकि इस प्रकारको शान्दको शक्ति स्वभावसे है, सभी पद एक अर्थको विषय करनेरूपसे ही प्रसिद्ध है। कारण कि सत् इस पदका असत्अविषय है और असत् इस पदका सत् अविषय है, अन्यथा उनमें से किसी एकका प्रयोग करने पर संशय होना मवश्यंभावी है। यद्यपि 'गो' यह पद दिशादि अनेक अर्थोको विषय करनेवाला प्रसिद्ध है, परन्तु वास्तव. में 'भी' ये पद अनेक ही है, सादृश्यका उपचार करने से ही उस पदका एकरूपसे व्यवहार होता है, अन्यथा सभी पदायोको एक दान्दके वाच्य होनेको आपत्ति आती है। साथ ही प्रत्येक पदार्य के लिए पृथक्-पृथक एक-एक शब्दका प्रयोग करना निष्फल ठहरता है। जिस प्रकार शबभेदके कारण नियमसे अर्थ भेद है उसी प्रकार अर्थभेदके कारण शब्दभेद भो है यह सिद्ध होता है। अन्यथा वाच्यवाचकनियम व्यवहारका लोग प्राप्त होता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वहीं पृ० १३७ में लिखा है तथा शब्दस्यापि सकदेकस्मिन्नेवार्थे प्रतिपादनशक्किन पुनरनेकस्मिन् , संकेतस्य सरक्तिव्यपेक्षया तत्र प्रवृत्तेः । सेनावनादिशब्दस्यापि नानेकार्थे प्रवृत्तिः, करिसुरगरथपदातिप्रत्यासत्तिविशेषस्यै कस्य सेनाशनाभिधानात् । उसी प्रकार शब्दती भो एक बार एक ही अर्थमें प्रतिपादनशक्ति है, अनेक अर्थमें नहीं. क्योंकि संकेत उस शक्तिको अपेक्षारो ही बस में प्रवृत्त होता है। सेना और कर आदि शब्दकी भी अनेक अर्थ में प्रवत्ति नहीं होती, क्योंकि सेना शब्दके द्वारा हाथी घोड़ा, रथ और पदातिसंबंधी एक प्रत्यासत्तिविशेष ही कही जाती है। इससे स्पष्ट है कि प्रतिनियत शब्द स्वभावसे ही अपने प्रतिनियत अर्थका प्रतिपादन करता है। हम अपने दूपरे उत्तरके अंत में यह स्पष्ट कर आये हैं कि 'वास्तव में दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता स्त्राधित है, क्योंकि यदि उसकी प्रामाणिकता स्वाधित नहीं मानी जाती है तो वह अन्यसे उत्पन्न नहीं की जा सकती। फिर भी प्रसद्भुत व्यवहारमयकी अपेक्षा विचार करने पर उसे निमित्तों को अपेक्षा पराश्रित कहा गया है। किन्तु अपर पक्षको हमारा यह कथन मान्य नहीं है। उसका कहना है कि 'शब्दोंके द्वारा पदार्थों की प्रकाशकता पुरुषव्यापारको अपेक्षा रखता है, इसलिए उनमें स्वाश्रित प्रामाणिकता नहीं हो सकती। यह अपर पश्चके कथनका पार है। इससे ऐसा विदित होता है कि अपर पक्ष शञ्चगत सहज योग्यताको स्वीकार नहीं करना चाहता जो कि नागममें प्रतिपादिन है। साथ ही इससे यह भी फलित होता है कि जो उपादान जिप्स
SR No.090218
Book TitleJaipur Khaniya Tattvacharcha Aur Uski Samksha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages476
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Questions and Answers
File Size12 MB
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