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शंका ८ और उसका समाधान कार्यप परिणमता है उसमें उस कार्यरूप होनेको योग्यता ही नहीं होती, मात्र निमित्तोंके व्यागारद्वारा जपा. दानमें उस प्रकारका कार्य हो जाता है। यदि अपर पक्षका शब्दों में स्वाधित प्रामाणिकताके निषेध करनेका यही तात्पर्य हो तो कहना होगा कि उपाधान नामकी कोई वस्तु हो नहीं है । जहाँ जो कार्य उत्पन्न होता है मात्र निमित्तोंके बलसे होता है। किन्तु आगम ऐसे मन्तव्यको स्वीकार नहीं करता, क्योंकि आगमका अभिप्राय है कि जिस समय जिस ताल आदिके व्यापार आदिको निमित्तकर जो शब्द उत्पन्न होता। यदि उपादान उसरूप हो तभी उस प्रकारके शब्दकी उत्पत्ति हो मवतो है और उसी में पुरुष के तालु आदिका व्यापार आदि निमित्त होता है । आगममें सत्यादिरूप चार प्रकारको पृथक-पृथक वर्गणाओंको स्वीकार करनेका यही तात्पर्य है। यद्यपि अनेक स्थलों पर आगममें वक्ताकी प्रमाणतासे वचनों को प्रमाणता स्वीकार की गई है, यह हम भली भांति जानते हैं। परन्तु उसका इतना ही आशय है कि रामी देषी मादिरूप यदि वक्ता हो तो वह समीचीन प्रामाणिक भाषाको उत्पत्तिका निमित्त त्रिकालभ नहीं हो सकता । रामीचीन प्रामाणिक भाषाकी उत्पत्तिमें उसी प्रकारका ही निमित्त होगा, अन्य प्रकारका नहीं। अतएव अनेकान्तको प्रमाण माननेवाले महानुमावों को ऐसा ही निश्चय करना चाहिए कि उपादानकी अपेक्षा शब्दों में स्वाश्रित प्रमाणता होती है और निमित्तोंको अपेक्षा उनमें पराश्रित प्रामाणिकताका व्यवहार किया जाता है ।
दिपध्वनिमें केवलज्ञानकी प्रमाणताये प्रमाणता आई है, इगलिए दियध्वनिको स्वाश्रित प्रमाण कहना आगमविरुद्ध है।' यह जो अपर पक्षका कथन है उसका समाधान पिछले वक्तव्यसे हो जाता है, क्योंकि जिस उपादानसे जिस प्रकारका कार्य उत्पन्न होता है उसमें उस प्रकारफी योग्यताको स्वीकार किये बिना उस प्रकारका कार्य नहीं हो सकता । निमित्त भो उसी कार्यके अनुकूल होता है। तभी उसमें निमित्तम्यवहारकी सार्यकता है। जैसे कुम्भकी उत्पत्ति के अनुकूल कुम्भकारका व्यापार होता है और कुम्भकारके व्यापारके अनुरूप मिट्टीम उपादान योग्यता होती है उसी प्रकार प्रातमें दिव्याध्वनिकी उत्पत्तिके अनुकूल के वली जिनका वचनयोग व केवलजान आदि होते हैं तथा इनके अनुरूप बमवर्गणाओंमें लपादानयोग्यता होती है। इसलिए दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता अपने उपादान की अपेक्षा स्वाश्रित है और निमित्तकी अपेक्षा वह पराश्रित मानी गई है। अतएव दिव्ययनिकी स्वाश्रित प्रमाणताको आगमविरुद्ध कहना आगमको अवहे. लना हो है। यह हम पूर्वमें ही बतला आये हैं कि रात्यभाषाका उपादान सत्यभाषावर्गणा ही होता है और अनुभय भाषाका उपादान अनभय भाषावणा हो है। अतएव केवलो जिनके दिव्यध्वनिके होने में सत्य और अनुभव भाषाओंका ही योग मिलता है, इसलिए केरली जिनके प्रचनयोग आदिको निमित्त कर उसी प्रकारकी दिव्यध्वनि होती है, अन्य प्रकारकी नहीं।
अगर पक्षका यह भी कहना है कि 'लौकिक या आगम शब्दोंकी सहज योग्यता पुरुषोंके द्वारा संकेतके आधीन ह्री पदार्थका प्रकाशक मानना चाहिए।' किन्तु उस पक्षके इस कथन पर भी बारीकोसे विचार किया जाता है तो इसमें अणुमात्र भी यथार्थता प्रतीत नहीं होतो, क्योंकि एक और शब्दों में सहज योग्यता स्वीकार की जाए और दूसरी और उसे एकातसे पुरुषों के द्वारा संकेतके आधीन मानी जाय यह परस्पर विरुद्ध है। इसे तो शब्दोंकी सहज योम्पाकी विडम्बना ही माननी चाहिए। जब कि पूर्वाचार्योने सत्यादिके भेदसे भाषा